Saturday, September 27, 2008

हमारी दोस्ती में अमेरिका का लाभ है तो हर्ज क्या है?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों की मित्रता से सिर्फ भारत लाभान्वित नहीं हो रहा, अमेरिका भी होगा। उसे विभिन्न राजनैतिक, सैनिक, आर्थिक, राजनयिक लाभ मिलेंगे। भारतीय बाजार में उसकी अन्य देशों की तुलना में बड़ी हिस्सेदारी होगी तो इसमें हर्ज क्या है? कोई भी मित्रता तभी आगे बढ़ सकती है यदि वह दोनों पक्षों के हित में हो। विश्व राजनय में मित्रता की बुनियाद वर्तमान और भावी स्वार्थों पर रखी जाती है और यह कोई रातोंरात बदलने वाला नहीं है।

भारत के लिए आज अमेरिका और यूरोप के साथ खड़े होना ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है। एनएसजी में अमेरिका ने जिस तरह चीन के विरोध के बावजूद भारत के पक्ष में फैसला करवाया वह इस बात का प्रतीक है कि उसका वैश्विक दबदबा भले ही कुछ कम हुआ हो लेकिन खत्म नहीं हुआ है। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी वर्चस्व जारी है। अफगानिस्तान, ईरान, इराक, उत्तर कोरिया, लीबिया आदि के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र की नीतियां और फैसले अमेरिकी रुख के अनुकूल रहे हैं। अलग-अलग मौकों पर, अलग-अलग मुद्दे पर कभी फ्रांस, कभी चीन और कभी रूस ने संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी रुख का विरोध किया लेकिन हुआ वही जो अमेरिका ने चाहा। हमें ऐसी ताकतवर राजनैतिक शक्ति की मित्रता की दरकार है। विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली आर्थिक शक्ति के साथ जुड़े रहना हमारे हित में है, खासकर तब जब हम उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर चल पड़े हैं। इस मित्रता से सिर्फ भारत लाभान्वित नहीं हो रहा, अमेरिका भी होगा। उसे विभिन्न राजनैतिक, सैनिक, आर्थिक, राजनयिक लाभ मिलेंगे। भारतीय बाजार में उसकी अन्य देशों की तुलना में बड़ी हिस्सेदारी होगी तो इसमें हर्ज क्या है? कोई भी मित्रता तभी आगे बढ़ सकती है यदि वह दोनों पक्षों के हित में हो। विश्व राजनय में मित्रता की बुनियाद वर्तमान और भावी स्वार्थों पर रखी जाती है और यह कोई रातोंरात बदलने वाला नहीं है।

भारत को विश्व राजनीति अपनी जगह वाजिब हासिल करनी है तो उसे अपने अनुकूल विकल्पों की पहचान में देरी नहीं करनी चाहिए। किसी एक विकल्प को चुनने का अर्थ यह नहीं है कि हम दूसरे विकल्प के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाएं। दुनिया की कोई अन्य ताकत, भले ही वह रूस हो, चीन हो, यूरोपीय संघ हो, निर्गुट देश हों या कोई और, हमें वह नहीं दिला सकती जो अमेरिका के साथ मैत्री से हमें मिल सकता है। चाहे वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता का मुद्दा हो, जी-8 जैसे विश्व बाजार को संचालित करने वाले संगठनों की सदस्यता का विषय हो, चीन और पाकिस्तान जैसे पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों की चुनौतियों को निष्प्रभावी करने का मुद्दा हो, आर्थिक प्रगति का या फिर विश्व राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने का।

कुछ समय पहले हुए एक सर्वे में जितने प्रतिशत भारतीय लोगों ने अमेरिका के प्रति विश्वास जाहिर किया, वह पूरे विश्व में सर्वाधिक था। हमारी इसी जनता में से 83 फीसदी ने हाल ही में एक अन्य सर्वे में कहा कि वह चीन पर कभी भी भरोसा करने को तैयार नहीं है। लोगों ने तो समझ लिया। देखिए हमारे राजनैतिक दल इस संकेत को कब समझ पाते हैं।

Friday, September 26, 2008

रूस-चीन-यूरोप से दोस्ती, अमेरिका से साझेदारी

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

हो सकता है कि धीरे-धीरे रूस और चीन के इर्द-गिर्द विभिन्न देशों के एकत्र होने की प्रक्रिया शुरू हो लेकिन अर्थव्यवस्था के प्राधान्य के इस युग में कोई देश अमेरिका की कीमत पर रूस-चीन के खेमे में नहीं जाएगा। न आसियान देश, न खाड़ी देश, न दक्षिण अमेरिकी देश, न नाटो के सदस्य और न ही पूर्व वारसा संधि के अधिकांश सदस्य देश। यही बात कमोबेश भारत पर भी लागू होती है।

विश्व राजनीति में भारत के सामने दो स्पष्ट विकल्प हैं। पहला, जिसे अब हमने कुछ हद तक कम कर लिया है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं किया, वह है- अमेरिका के विरुद्ध उभरते वैश्विक राजनैतिक तंत्र का हिस्सा बनना। यह तंत्र रूस और चीन के इर्दगिर्द घूमता है। दोनों बड़ी सैनिक, आर्थिक और राजनैतिक शक्तियां हैं और आने वाले एक दशक में बाजार की बड़ी ताकतें बनी रहने की स्थिति में हैं। दूसरी ओर अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्र हैं जो पारंपरिक रूप से विश्व अर्थव्यवस्था पर दबदबा कायम किए हुए हैं। लेकिन उनकी यही स्थिति आगे भी रहेगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने तो कह ही दिया है कि अमेरिकी वर्चस्व समापन की ओर अग्रसर है। कुछ कुछ यही बात रूस भी कह रहा है जिसने जार्जिया के मुद्दे पर अमेरिकी प्रभुत्व को खुलेआम चुनौती दी है। चीन तो गाहे-बगाहे अमेरिका के खिलाफ खड़ा होता ही रहा है। विकासशील विश्व में भी अनेक देश अमेरिकी वर्चस्व का विरोध करते हैं।

भले ही हमारे कम्युनिस्ट मित्र कुछ भी कहें, देश की दो बड़ी राजनैतिक शक्तियां- कांग्रेस और भाजपा इन विकल्पों में से दूसरे विकल्प को ही चुनना चाहेंगी। भारत ने चीन को अनेक बार आजमाया है लेकिन कहीं न कहीं भारत के प्रति उसका शत्रुभाव बहुत गहरा है, जो आसानी से जाने का नाम नहीं लेता। अमेरिका और यूरोप भले ही भारत को बराबरी का साझेदार मान लें लेकिन चीन कभी हमें बराबरी का दर्जा नहीं देता। उसके साथ आकर भारत अधिक से अधिक यही सोच सकता है कि वह एक और भारत-चीन युद्ध की आशंका से मुक्त होकर विकास पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। लेकिन क्या सचमुच हम यह सोच सकते हैं? क्या सचमुच भारत चीनी सैनिक चुनौती की ओर से निश्चिंत हो सकता है? चीन अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों- रूस, ताइवान, जापान आदि के प्रति हमसे कहीं अधिक जिम्मेदारी और सम्मान के साथ पेश आता रहा है। लेकिन अपने पड़ोस में स्थित एक बड़ी लोकतांत्रिक, सैनिक, परमाणविक और आर्थिक शक्ति भारत के साथ नहीं। वह हमें अधिक से अधिक एक कमजोर प्रतिद्वंद्वी समझता आया है। भारत का किसी भी रूप में मजबूत होना उसे अपने राजनैतिक, सैनिक और आर्थिक हितों के प्रतिकूल महसूस होता है। दूसरी ओर आम भारतीय चीन के प्रति 62 के बाद से ही सशंकित रहा है और हर नया अनुभव उसकी आशंकाओं को पुष्ट ही करता रहा है। विभिन्न भारत-पाक युद्धों, भारत-पाक परमाणु परीक्षणों, ताजा परमाणु सौदे तक पर चीन का रुख पाकिस्तान के प्रबल हिमायती का रहा है और रहेगा। तब ऐसे गठजोड़ में, जिसकी बुनियाद आपसी शंकाओं, संदेहों और प्रतिद्वंद्विता पर आधारित हो, शामिल होकर भारत अपना क्या भला करेगा?

रूस भारत का पारंपरिक मित्र है और उसके साथ भारत की मित्रता समय की कसौटी पर खरी उतरी है। सोवियत संघ के विघटन के बाद से रूस लगातार मजबूत भी हुआ है और अब उसने वैश्विक शक्ति-केंद्र के रूप में उभरने की अपनी महत्वाकांक्षा भी स्पष्ट कर दी है। लेकिन आज का रूस कल के सोवियत संघ की तुलना में अकेला है। उसके पारंपरिक साथी अमेरिका और यूरोप के खेमे में जा चुके हैं। हां, उसे कुछ नए साथी भी मिले हैं लेकिन गौर कीजिए तो पाएंगे कि वे सभी विश्व राजनीति में दूसरे छोर पर खड़े, अकेले पड़ गए राष्ट्र हैं। मसलन- ईरान और वेनेजुएला। ज्यादातर पूर्व सोवियत गणराज्य आज रूस से दूरी बना चुके हैं। वारसा संधि के देशों में से भी अधिकांश छितरा कर स्वतंत्र विदेश नीति पर चल रहे हैं। रूस आज भी निर्विवाद रूप से एक बड़ी सैनिक और राजनैतिक शक्ति है लेकिन वह विश्व राजनीति का वैसा समानांतर केंद्र नहीं रह गया है जैसा दो दशक पहले तक था। संयुक्त राष्ट्र और अन्य विश्व संस्थाओं में भी उसकी आवाज उतनी मजबूत और फैसलाकुन नहीं रह गई है। वह अमेरिका जैसी महाशक्ति नहीं रह गया है। हो सकता है कि धीरे-धीरे रूस और चीन के इर्द-गिर्द विभिन्न देशों के एकत्र होने की प्रक्रिया शुरू हो लेकिन अर्थव्यवस्था के प्राधान्य के इस युग में कोई देश अमेरिका की कीमत पर रूस-चीन के खेमे में नहीं जाएगा। न आसियान देश, न खाड़ी देश, न दक्षिण अमेरिकी देश, न नाटो के सदस्य और न ही पूर्व वारसा संधि के अधिकांश सदस्य देश।

Thursday, September 25, 2008

सर्दियां आ गई हैं तो बसंत क्या दूर होगा? संदर्भः परमाणु करार

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

कुछ महीने पहले किसी पत्रकार ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से सवाल किया था कि वे परमाणु सौदे को लेकर इतने उत्साहित हैं पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता को लेकर उतने सक्रिय क्यों दिखाई नहीं देते। प्रधानमंत्री का जवाब था कि अगर परमाणु सौदा भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने के लिए जरूरी है। अगर वह आर्थिक ताकत बन गया तो सुरक्षा परिषद की सदस्यता उसे स्वयं मिल जाएगी।

कुछ महीने पहले किसी पत्रकार ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से सवाल किया था कि वे परमाणु सौदे को लेकर इतने उत्साहित हैं पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता को लेकर उतने सक्रिय क्यों दिखाई नहीं देते। प्रधानमंत्री का जवाब था कि अगर परमाणु सौदा भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने के लिए जरूरी है। अगर वह आर्थिक ताकत बन गया तो सुरक्षा परिषद की सदस्यता उसे स्वयं मिल जाएगी। पिछले कुछ सप्ताहों में विश्व मंच पर भारत की दो बड़ी जीतें, जिनमें साफ तौर पर एक मित्र के रूप में अमेरिका का बड़ा हाथ है, इस बात की निशानदेही करती हैं। पहले अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी और फिर न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत के पक्ष में विशेष प्रावधान किया जाना, चीन को छोड़कर विश्व की बाकी सभी शक्तियों- रूस, अमेरिका, फ्रांस और इंग्लैंड- द्वारा उसका समर्थन किया जाना और संभवत: इतिहास में पहली बार अमेरिका का हमारे हक में इस किस्म की मुहिम चलाना आने वाले दिनों का संकेत हो सकता है। हां, भारत में परमाणु संयंत्र उद्योग स्थापित होने से अमेरिकी कंपनियों को बहुत लाभ होगा। हां, भारत का बढ़ा हुआ कद अंतरराष्ट्रीय समीकरणों में चीन की काट के रूप में हमें पेश करने में अमेरिका की मदद करेगा। हां, भारतीय बाजार में बढ़ी पहुंच से मंदी-ग्रस्त अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा। लेकिन खुद भारत को होने वाले फायदे उससे बहुत अधिक होंगे।

अमेरिका से दूर रहकर हमने बहुत कुछ खोया है। यहां तक कि जब नेहरूजी के जमाने में अमेरिका ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सीट देने की पेशकश की तो उसे भी हमने यह सोचकर ठुकरा दिया था कि इससे हमारे साम्यवादी मित्रों- चीन और रूस को ठेस पहुंचेगी। जिस चीन को भारत ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलवाई, उसने विश्व संस्था के सर्वोच्च नियामकों में हमें शामिल किए जाने के हर प्रयास का विरोध किया। अब हमारा वक्त आ रहा है। एक ओर भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रसार, दूसरी ओर हमारा बढ़ता बाजार, तीसरी ओर पचास फीसदी युवा आबादी की ताकत और जुनून, चौथी ओर एक परमाणु शक्ति होने का आत्मविश्वास और पांचवीं ओर विश्व मंच पर बढ़ती स्वीकार्यता जैसे उत्प्रेरकों पर सवार यह देश पहली बार यह सोचने का साहस कर रहा है कि वह हमेशा चीन से पीछे रहने के लिए अभिशप्त नहीं है। यदि इस दिशा में कोई अड़चन है तो हमारे राजनेता, जिनके लिए आज भी राष्ट्र हित से ज्यादा बड़ा अपने और अपने दल का हित है। भला हमारे अलावा दुनिया का कौनसा देश होगा जहां के नेता उसकी अपनी तरक्की के रास्ते में रुकावटें खड़ी करते होंगे? भला ऐसा कौनसा राष्ट्र होगा जिसमें व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा राष्ट्रीय हितों से ऊपर होगी? हम चीन को जरूर पीछे छोड़ सकते हैं यदि हमें ऐसे नेता मिलें जो जाति, संप्रदाय और क्षेत्र के नाम पर आग भड़काने की बजाए विकास की सोचें। ऐसे नेता, जो भ्रष्टाचार, अपराधों और नाइंसाफी के खिलाफ ईमानदारी से खड़े होने का साहस रखते हों। ऐसे नेता, जिनके लिए राष्ट्र ही सर्वोपरि हो और जो अपने आचरण से नई पीढ़ी के लिए मिसाल कायम करने की क्षमता रखते हों।

लेकिन वह आदर्श परिस्थितियों की बात है जो फिलहाल तो काल्पनिक ही हैं। फिलहाल तो हमारे यहां पर ऐसे नेता हैं जो उसी परमाणु सौदे को रोकने पर प्राण-पण से कोशिश करते रहे हैं जिसका विरोध हमारी जनता की दृष्टि में दुश्मन नंबर एक चीन और दुश्मन नंबर दो पाकिस्तान कर रहे हैं। जिन वामपंथी दलों ने भारत के परमाणु शक्ति बनने पर खुशी नहीं जताई वे ही आज कह रहे हैं कि एनएसजी में प्रस्ताव पास होने के बाद हम अप्रत्यक्ष रूप से परमाणु अप्रसार व्यवस्था का हिस्सा बन गए हैं। यदि आपको परमाणु बम में दिलचस्पी ही नहीं है तो देश परमाणु अप्रसार व्यवस्था का हिस्सा बने या नहीं, आपको भला क्यों फर्क पड़ना चाहिए? जिस भाजपा का कहना है कि परमाणु सौदे का मकसद भारत को भविष्य में परमाणु विस्फोट करने से रोकना और उसे शक्तिहीन कर देना है, वह जरा यह बताए कि यदि इससे भारत शक्तिहीन हो जाएगा तो फिर चीन और पाकिस्तान को परमाणु सौदे का विरोध क्यों करना चाहिए? भारत के शक्तिहीन होने पर यदि किसी को प्रसन्नता होगी तो वह चीन और पाकिस्तान ही होंगे। लेकिन यदि वे जी-जान से इस सौदे का विरोध करने पर तुले हैं तो इसे क्या समझा जाए? हमारे राजनैतिक दलों को चाहिए कि वे क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचें, अन्यथा वे उसी तरह चीन के हाथों में खेल रहे होंगे जैसे 1962 की लड़ाई में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां। ये दल आज तक चीन को आक्रांता मानने को तैयार नहीं हैं।

Wednesday, September 24, 2008

घटनाओं को घटने से रोको तो घटेगा आतंकवाद

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

भारत की समिन्वत रणनीति में पोटा या उससे मजबूत कानून जितना जरूरी है उतनी ही जरूरी है एक संघीय जांच या निवारक एजेंसी। इस समस्या का समाधान सीमित दायरे में रहकर नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सीमित दायरे वाली समस्या नहीं है।<

दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा की गई संघीय आतंकवाद-विरोधी एजेंसी की स्थापना की सिफारिश एक सामयिक कदम है, जिसका सिर्फ इसीलिए विरोध नहीं किया जाना चाहिए कि ऐसा किसी अन्य राजनैतिक दल के सत्ताकाल में होने जा रहा है। आतंकवाद के हाथों हजारों जानें दे देने के बाद कम से कम अब तो हमारे राजनैतिक दलों को निहित स्वार्थों से ऊपर उठना पड़ेगा? ऐसे समय पर जब संयुक्त राष्ट्र तक से एक वैश्विक आतंकवाद-निरोधक एजेंसी की स्थापना का आग्रह किया जा रहा है, हमें आतंकवाद से निपटने के लिए एक अलग राष्ट्रीय गुप्तचर तंत्र की जरूरत है। ऐसा तंत्र जो विभिन्न राज्यों और केंद्र के बीच मौजूद कम्युनिकेशन गैप से मुक्त हो। ऐसा तंत्र, जो किसी एक राजनैतिक दल के विजन से नहीं बल्कि इस देश के आम नागरिक के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के अहसास से संचालित होता हो। ऐसा तंत्र जिसकी प्रकृति संघीय हो लेकिन जिसका संजाल देश के कोने-कोने में और विदेश में भी फैला हो और जिसे राजनैतिक व क्षेत्रीय अवरोधों और सीमाओं से मुक्त हो। ऐसा तंत्र, जो आतंकवाद से निपटने में विशेष रूप से दक्ष हो और उसकी गतिविधियां सिर्फ इसी लक्ष्य पर केंिद्रत हों।

आतंकवाद के विरुद्ध भारत की समिन्वत रणनीति में पोटा या उससे मजबूत कानून जितना जरूरी है उतनी ही जरूरी है एक संघीय जांच या निवारक एजेंसी। इस समस्या का समाधान सीमित दायरे में रहकर नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सीमित दायरे वाली समस्या नहीं है। भारत की सुरक्षा के लिए यह अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है और ऐसी चुनौतियों का समाधान एकजुट राष्ट्र के रूप में किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार को देर से ही सही, राजनैतिक नुकसान के डर से ही सही, पर एक दमदार कानून की जरूरत का अहसास हो गया है। अब वह `पोटा से भी कड़ा` कानून बनाने के लिए तैयार हो रही है। देर आयद दुरुस्त आयद। सत्ताधारियों और विरोधी दलों को सोचना होगा कि ऐसे मामलों में राजनीति करना आग से खेलने के समान है जिसका अंजाम सिर्फ विनाश ही हो सकता है। कम से कम अब तो सबको मिल-जुलकर देश की सुध लेनी होगी।

असल में यह सिर्फ नेताओं की ही नहीं, हम सबकी साझा लड़ाई है। हमारी लड़ाई एक अदृश्य दुश्मन से है जिसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मरने वाला हिंदू है या मुसलमान या कोई और। उसे सिर्फ मारने से मतलब है। हर बूढ़ा, जवान और बच्चा उसका निशाना है। ऐसा दुश्मन जिसकी पहचान का हमें कोई अंदाजा नहीं और जो पड़ोसी, रिश्तेदार, दोस्त के रूप में भी हो सकता है। ऐसे दुश्मन से मुकाबले की किसी भी रणनीति में हर नागरिक का शामिल होना जरूरी है, शारीरिक रूप से नहीं तो मानसिक रूप से ही। सिपाही के रूप में नहीं तो एक सतर्क, सजग व्यक्ति के रूप में ही सही। नेताओं से लेकर पुलिस तक, न्यायाधीशों से लेकर दुकानदारों तक, बस ड्राइवरों से लेकर यात्रियों तक, अध्यापकों से लेकर बच्चों तक। इस लड़ाई में अब लापरवाही की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। यह लड़ाई किसी एक दल, एक सरकार, एक संगठन या एक व्यक्ति की लड़ाई भी नहीं रह गई है। यह पूरे देश की सामूहिक जंग है जिसमें किसी किस्म के राजनैतिक या मजहबी समीकरणों की गुंजाइश नहीं है।

Tuesday, September 23, 2008

आतंकवाद के खिलाफ कानून अकेला क्या करेगा?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

आतंकवाद का मुकाबला सिर्फ कानून से होता तो अमेरिका को देश में अलग होमलैंड सिक्यूरिटी विभाग बनाने की जरूरत नहीं पड़ती। तब न अमेरिका को नेशनल काउंटर टेररिज्म एजेंसी बनाने की जरूरत थी और न ही रूस को नेशनल एंटी-टेररिज्म कमेटी के गठन की। एक कानून ही पर्याप्त होता तो उसकी मौजूदगी में संसद, रघुनाथ मंदिर और अक्षरधाम मंदिर पर हमले नहीं होते।

एक तरफ कांग्रेस है जो आतंकवाद के प्रति साथी दलों के दबाव और चुनावी स्वार्थ के चलते नरम है। तो दूसरी तरफ भाजपा है जिसके लिए आतंकवाद के सफाए की लड़ाई में सिर्फ पोटा ही महत्वपूर्ण है और कुछ नहीं। पिछले चुनाव के बाद से आतंकवाद के विरुद्ध उसका हर बयान सिर्फ पोटा की वापसी पर केंद्रित है। हमें निर्विवाद रूप से पोटा या उससे भी मजबूत आतंकवाद निरोधक कानून की फौरन जरूरत है, लेकिन सिर्फ कानून ही सब कुछ नहीं है। उसे लागू करना और अदालतों से त्वरित फैसलों की व्यवस्था करना भी उतना ही जरूरी है। आतंकवाद का मुकाबला सिर्फ कानून से होता तो अमेरिका को देश में अलग होमलैंड सिक्यूरिटी विभाग बनाने की जरूरत नहीं पड़ती। तब न अमेरिका को नेशनल काउंटर टेररिज्म एजेंसी बनाने की जरूरत थी और न ही रूस को नेशनल एंटी-टेररिज्म कमेटी के गठन की। एक कानून ही पर्याप्त होता तो उसकी मौजूदगी में संसद, रघुनाथ मंदिर और अक्षरधाम मंदिर पर हमले नहीं होते। चाहे पोटा हो या टाडा, कोई भी कानून आतंकवाद को रोकता नहीं बल्कि आतंकवादी घटना घटित होने और दोषियों के पकड़े जाने के बाद अपना काम शुरू करता है। दोषियों को कड़ी सजा दिया जाना आतंकवादी गतिविधियों के विरुद्ध एक स्वाभाविक अवरोधक जरूर है लेकिन सिर्फ कड़ा कानून ही देश का एकमात्र तारनहार नहीं हो सकता। कड़ा कानून तो बने ही, लेकिन उससे आगे भी सोचा जाए यह जरूरी है।

किसी भी अपराध की तरह आतंकवाद की रोकथाम के लिए भी गुप्तचर व्यवस्था की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि एक चुस्त-दुरुस्त, सक्षम और चालाक खुफिया तंत्र का मूलभूत उद्देश्य ही विनाशकारी घटना को होने से रोकना है। कानून की भूमिका तो घटना के होने के बाद आती है। दुर्भाग्य से हमारा खुफिया तंत्र आतंकवादी घटनाओं से मुकाबला करने में अक्षम सिद्ध हुआ है। औरों की तो छोड़िए हम अपनी संसद तक को आतंकवादी हमले से नहीं बचा सके। खुफिया जानकारी पर केंद्रीय गृह मंत्री का एक और बयान काबिले तारीफ है कि हमें इस बात का तो पता था कि दिल्ली में आतंकवादी हमला होगा, मगर यह नहीं पता था कि कब और कहां होगा। गनीमत है उन्होंने यह नहीं कहा कि आतंकवादियों ने हमले के लिए रवाना होने से पहले हमें बताया नहीं वरना हम हमला होने ही नहीं देते। गृह मंत्री की यह टिप्पणी हमारे खुफिया तंत्र की दयनीय स्थिति भी बयान करती है और खुफिया सूचनाओं के प्रति सरकारी रवैए की भी।

फिलहाल आतंकवाद से मुकाबले का काम पुलिस के हवाले है जो सामान्य अपराधों से निपटने में भी नाकाम सिद्ध होती रही है। वह न प्रशिक्षण, न हथियारों और न ही मानसिकता के लिहाज से आतंकवाद से मुकाबले के लिए तैयार और सक्षम है। इतना ही नहीं, वह नई घटनाओं से सीखने, नई तकनीक को जानने के लिए भी तैयार नहीं दिखती। दिल्ली के गफ्फार मार्केट में लगे सीसीटीवी कैमरे उसके बेपरवाह रवैए के गवाह हैं जिन्होंने कभी किसी घटना को रिकॉर्ड नहीं किया। पुलिस का पाला पारंपरिक अपराधियों से पड़ता आया है मगर आतंकवादी उनसे अलग हैं। वे युवा हैं जिन्हें नए जमाने के तौर-तरीकों का अंदाजा है। वे लगातार सीख रहे हैं, अपराध के इनोवेटिव तरीके अपना रहे हैं। जब आतंकवादियों ने साइकिलों पर बम लगाने शुरू कर दिए तो पुलिस ने साइकिलों की बिक्री पर निगरानी बढ़ा दी। लेकिन दिल्ली में उन्होंने कूड़ेदान में बम रखने शुरू कर दिए। अब पुलिस ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की कानपुर यात्रा के दौरान उनके इक्कीस किलोमीटर लंबे मार्ग से कूड़ेदान हटाने के आदेश दे दिए हैं। यही पुलिसिया मेधा की सीमा है। क्या यह जरूरी है कि आतंकवादी हर स्थान पर कूड़ेदान को ही लक्ष्य बनाएंगे? ईमेल भेजने के लिए आतंकवादियों ने पहले साइबर कैफे का प्रयोग किया था। पुलिस ने साइबर कैफे पर अंकुश लगाया तो उन्होंने वायरलैस इंटरनेट का प्रयोग करना शुरू कर दिया। वे पुलिस से एक कदम आगे चलते हैं और ऐसे कदम पुलिस की कल्पना से बाहर हैं। वह सिर्फ पारंपरिक अपराधों से मुकाबले के लिए ठीक है।

Monday, September 22, 2008

आतंकवाद का दावानल और बेचारा सुरक्षा तंत्र

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

हर दल, हर नेता आतंक के सफाये के लिए ट्रेडमार्क सुझावों, बयानबाजी और आरोपों-प्रत्यारोपों में व्यस्त है। वह लगे हाथ पहले श्रेय और कुछ महीने बाद वोट बटोर लेना चाहता है, बिना यह जाने कि हमारा बुनियादी अपराध-निरोधक तंत्र ऊपर से नीचे तक कितनी अक्षम और दयनीय अवस्था में पहुंच चुका है।

दिल्ली में हुए ताजा हमले और उसके बाद जामिया नगर में दिल्ली पुलिस की दुर्लभ किस्म की चुस्त कार्रवाई के बाद आतंकवाद एक बार फिर राष्ट्रव्यापी बहस के केंद्र में आ गया है। हर दल, हर नेता आतंक के सफाये के लिए ट्रेडमार्क सुझावों, बयानबाजी और आरोपों-प्रत्यारोपों में व्यस्त है। वह लगे हाथ पहले श्रेय और कुछ महीने बाद वोट बटोर लेना चाहता है, बिना यह जाने कि हमारा बुनियादी अपराध-निरोधक तंत्र ऊपर से नीचे तक कितनी अक्षम और दयनीय अवस्था में पहुंच चुका है। नजदीक आते चुनावों के मद्देनजर आतंकवाद तक का अपने-अपने ढंग से लाभ उठाने की कोशिशें हो रही हैं। किसी को हिंदू वोट बैंक की चिंता है तो किसी को मुस्लिम वोट बैंक की। देश की सुरक्षा दोनों की ही वरीयता नहीं है।

हम हिंदुस्तानी आतंकवाद को कड़ा जवाब कैसे देंगे जब देश का गृह मंत्री ही किसी बम विस्फोट के बाद यह कहता हो कि `हम इसके लिए किसी पर दोषारोपण नहीं करना चाहेंगे मगर दोषियों को छोड़ेंगे भी नहीं।` दहशतगर्दों के खिलाफ किस किस्म के समिन्वत हमलों की रणनीति बनाएंगे जब लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ज्यादातर ताजा आतंकवादी वारदातों के लिए जिम्मेदार माने जा रहे सिमी जैसे संगठन पर प्रतिबंध को ही कोस रहे हों। जब उत्तर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सलमान खुर्शीद उस संगठन के हक में अदालत में खड़े हो रहे हों। जब आतंकवाद के प्रति नरम रुख अपनाने के लिए केंद्र सरकार को कोसने वाले भाजपा जैसे दल उससे मुकाबले के लिए संघीय जांच एजेंसी बनाए जाने का विरोध कर रहे हों। जब राज्यों में किए जाने वाले कठोर नियमों को केंद्र ने लटका दिया हो और केंद्र की रणनीतियों में विरोधी दलों ने फच्चर फंसा दिया हो। जब आतंकवादी घटनाओं से जुड़े मुकदमों पर एक दशक बीत जाने के बाद भी फैसले न आते हों। जब दिल्ली में आतंकवादी हमला होने के बाद की रात में भी थानों में पुलिसवाले सोते हुए मिलते हों। जब आतंकवाद के शिकार होने वाले लोगों के परिजनों को लाशें सौंपने के लिए अस्पतालों में रिश्वत मांगी जा रही हो। जब घायलों को पुलिस धक्के मार रही हो और चश्मदीद गवाहों से अपराधियों की तरह सलूक कर रही हो और फिर आतंकवादियों के खतरे का सामना करने के लिए अपने हाल पर छोड़ देती हो। लोग ऐसे स्वार्थी, अमानवीय, क्रूर और बुिद्धहीन कैसे हो सकते हैं?

लेकिन भारतीय राजनीति और प्रशासन की यही वास्तविकता है जिसे हम हर आतंकवादी घटना के बाद देखते और महसूस करते हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के शासनकाल में बनाया गया कठोर आतंकवाद निरोधक कानून पोटा आतंकवाद से निपटने की दिशा में एक जरूरी कदम था। कुछ राज्यों में निस्संदेह उसका राजनैतिक दुरुपयोग भी हुआ और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने सत्ता संभालते ही पोटा को हटाकर पुराना, अपेक्षाकृत कम कठोर आतंकवादी गतिविधियां निवारक कानून (टाडा) लागू करने का फैसला किया। उस समय देश की सर्वोच्च राजनैतिक सत्ता ने आतंकवाद के विरुद्ध हमारे लुंज-पुंज संकल्प को ही अभिव्यक्त किया। पोटा को यदि हटाना ही था तो उसके स्थान पर उससे अधिक कड़ा कानून लाए जाने की जरूरत थी। ऐसा कानून जिसमें उसका दुरुपयोग रोकने की व्यवस्था भी अंतरनिहित हो। लेकिन देश ने आतंकवादियों को एक गलत संकेत भेजा। उस तरह के संकेत भेजना आज तक जारी है। हैदराबाद, फैजाबाद, वाराणसी, सूरत, बंगलुरु, अहमदाबाद, जयपुर और दिल्ली में हुए बम विस्फोटों के बाद भी यदि गृह राज्यमंत्री यह कहते हैं कि देश में करोड़ों नागरिक हैं और सरकार हर एक की सुरक्षा में पुलिस तैनात नहीं कर सकती, तो वह आतंकवादियों को साफ संकेत देता है कि सरकार हालात से निपटने के लिए तैयार नहीं है। धन्य है ऐसे गृह राज्यमंत्री जो यह भूल गए हैं कि देश के हर नागरिक की सुरक्षा ही उनकी एकमात्र जिम्मेदारी है।

Friday, September 12, 2008

चीन के सामने कब तक और क्यों झुकते रहें हम?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

आखिर कब तक भारत चीन की चौधराहट को सहता रहेगा और क्यों? विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना से लैस परमाणु शक्ति के साथ कोई देश ऐसा कैसे कर सकता है? उन्नीस सौ बासठ की लड़ाई में भारत का पराजित होना हमारे मानस पर गहराई से अंकित है, लेकिन आज का भारत उन दिनों से बहुत आगे बढ़ चुका है।

चीन ने कई बार दावा किया है कि वह भारत का प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि दोस्त है और दोनों देशों का साथ-साथ प्रगति करना संभव है। यदि मैं गलत नहीं हूं तो हम चीन के बर्ताव में कुछ बदलावों से उत्साहित होकर उस पर कुछ-कुछ यकीन भी करने लगे थे। ऐसा इसलिए कि बदलते हुए विश्व में ताकत की परिभाषा सैनिक कम, आर्थिक ज्यादा है। इसलिए भी कि अमेरिकी प्रभुत्व के सामने संतुलनकारी शक्ति के रूप में जिस तिकड़ी के उभार की बात की जाती रही है, उसमें रूस और चीन के साथ-साथ भारत भी है। इसलिए भी कि भारत-चीन व्यापार में तेजी से इजाफा हुआ है और उनके कारोबारी संबंध सुधर रहे हैं। और इसलिए भी, कि विश्व व्यापार वार्ताओं में दोनों देश साथ-साथ विकासशील देशों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन एनएसजी में अपने आचरण से चीन ने उन सभी लोगों को असलियत से रूबरू करा दिया है जो उसके प्रति संशयवादी दृष्टिकोण छोड़ने की अपील करते रहे हैं। राष्ट्रपति हू जिंताओ द्वारा प्रधानमंत्री डॉण् मनमोहन सिंह को दिए गए आश्वासनों के बावजूद चीन ने वियना में अंतिम क्षणों तक भारत संबंधी प्रस्ताव को रोकने की कोशिश की। जब उसे लगा कि अमेरिकी प्रतिबद्धता और चुस्त भारतीय कूटनीति के चलते वह अपनी कोशिश में सफल नहीं हो सकेगा तो उसने इसे कुछ दिनों के लिए टलवा देने का प्रयास किया। उसे पता था कि यदि एनएसजी में यह प्रस्ताव तुरंत पास न हुआ तो भारत-अमेरिका परमाणु करार अस्तित्व में आने से पहले ही समाप्त हो जाएगा। अमेरिकी संसद में उसे पास करवाने के लिए बहुत कम समय बचा है और उसके बाद वहां सत्ता परिवर्तन होने जा रहा है। लेकिन एनएसजी में चीन अकेला पड़ गया और मजबूरन उसे लाइन पर आना पड़ा।



चीन का खुलेआम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमारे खिलाफ खड़े होना गंभीर चिंता का विषय है। इससे स्पष्ट है कि हालात आज भी ऐसे नहीं हैं कि हम चीन की ओर से निश्चिंत होकर अपने आर्थिक विकास पर पूरी तरह ध्यान केंिद्रत कर सकें। हमारे लिए चीनी चुनौती खत्म नहीं हुई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के बढ़ते दर्जे को चीन अपने हित में नहीं मानता और उसकी लगातार कोशिश रही है कि हम दक्षिण एशिया तक ही सिमटे रहें। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वह भारत को पाकिस्तान के साथ जोड़ने और खुद को एकमात्र एशियाई शक्ति के रूप में पेश करने की कोशिश करता है। एनएसजी की बैठक में अपने रुख और उसके बाद जारी किए गए बयानों में भी उसने `अन्य उभरते हुए देशों` के नाम पर भारत जैसी छूट पाकिस्तान को भी देने की मांग की है। पाकिस्तान के 1998 के परमाणु विस्फोटों को सही ठहराते हुए उसने भारत के परमाणु विस्फोटों को दोषी करार दिया था और उसका यह मत आज तक नहीं बदला है।

उसने पाकिस्तान, नेपाल, म्यानमार जैसे पड़ोसी देशों का इस्तेमाल भारत को क्षेत्रीय स्तर पर ही उलझाए रखने के लिए किया है। उत्तर पूर्व के उग्रवादी संगठनों को भी उसका परोक्ष समर्थन मिल रहा है। उसने अपने ताकतवर पड़ोसी रूस के साथ सीमा विवाद को हल कर लिया है लेकिन स्वाभाविक कारणों से, भारत के मामले में उसे ऐसी कोई जल्दी नहीं है। बल्कि वह भारत की चिंताओं और आशंकाओं को खत्म नहीं होने देना चाहता। सन 2006 में चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ की भारत यात्रा के ठीक पहले चीनी राजदूत ने अरुणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा करार दिया था। उधर चीनी सेना इस साल अब तक सौ बार भारतीय सीमा का उल्लंघन कर चुकी है। उसने तिब्बत में भारतीय सीमा के करीब अच्छी सड़कों का जाल बिछा दिया है और अक्साईचिन में चौकियां स्थापित की हैं। सबसे ज्यादा आपत्तिजनक चीन का वह उद्दंडतापूर्ण रवैया है जो एक राष्ट्र के रूप में भारत की प्रतिष्ठा के खिलाफ है। भारतीय राजदूत निरूपमा राव के साथ किया गया बर्ताव एक परमाणु संपन्न राष्ट्र के मुंह पर करारे तमाचे के समान था। कुछ महीने पहले भारत के सेनाभ्यास के जवाब में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य झान लियू ने बयान दिया था कि भारत का रुख आक्रामक है और उसे चीन के साथ टकराव के पुराने रास्ते पर नहीं चलना चाहिए। अब तिब्बत में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का गहरा जाल फैला हुआ है और अबकी बार सीमा-युद्ध होने पर हमारी सेना 1962 की गलती नहीं दोहराएगी जब उसने अपने कब्जे वाले इलाके लौटा दिए थे।

आखिर कब तक भारत चीन की चौधराहट को सहता रहेगा और क्यों? विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना से लैस परमाणु शक्ति के साथ कोई देश ऐसा कैसे कर सकता है? उन्नीस सौ बासठ की लड़ाई में भारत का पराजित होना हमारे मानस पर गहराई से अंकित है, लेकिन आज का भारत उन दिनों से बहुत आगे बढ़ चुका है। वह उन दिनों की बात थी जब हमारे सैनिकों के पास पुराने जमाने के हथियार थे, दुर्गम पहाड़ी रास्तों में यातायात लगभग असंभव था, हमारी बहादुर सेनाओं के पास गोला-बारूद तक का अभाव था, हमारा शत्रु एक परमाणु शक्ति था और सबसे ऊपर, हमारा राजनैतिक नेतृत्व युद्ध की मन:स्थिति में नहीं था। फिर भी हमारे सैनिक बहुत बहादुरी से लड़े और लड़ते-लड़ते देश के लिए कुर्बान हो गए। वह जज्बा हमारी सबसे बड़ी शक्ति है और हमेशा बना रहेगा। आज हमारी सेना विश्व के सबसे आधुनिक हथियारों से लैस है और प्रशिक्षणों के दौरान हमारे जवानों की काबिलियत ने अमेरिका को भी प्रभावित किया है। हमारी कोई कमजोरी है तो वह है अपने आप में, अपनी शक्तियों में विश्वास न होना। चीन की रणनीतियों, कूटनीतियों तथा मनोवैज्ञानिक युद्ध से मुकाबले के लिए हमें अपनी शक्ति में विश्वास करने, अपने उन्नत भविष्य के प्रति आश्वस्त होने की जरूरत है। पिछले तीन-चार सप्ताह की वैश्विक घटनाओं के बाद शायद हम खुद पर विश्वास करना सीख रहे हैं। चीन ने हमारे इसी आत्मविश्वास की बानगी देखी है।

Thursday, September 11, 2008

चीन को कब समझ आएगा, यह 62 वाला भारत नहीं!

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

एनएसजी करार के बाद का भारत अपने भविष्य के प्रति अधिक आश्वस्त, अपनी शक्तियों और विशिष्टताओं में विश्वास रखने वाला, विश्व राजनीति में पुराने और नए मित्रों के समर्थन से लैस, लोकतांत्रिक एवं स्वच्छ छवि के गौरव से युक्त, आत्मविश्वास से भरा हुआ भारत है। इसी आत्मविश्वास की बदौलत शायद उसने पहली बार चीन के साथ दो-टूक लफ्जों में बात की है। और इसीलिए शायद चीन पहली बार भारत के आरोपों के जवाब में स्पष्टीकरण देने पर विवश हुआ है।

न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में भारत से संबंधित प्रस्ताव को रुकवाने की कटुतापूर्ण किंतु नाकाम चीनी कोशिशों को लेकर देश में जिस किस्म के सर्वव्यापी क्रोध का भाव है, उसका स्वाद शायद चीनी विदेश मंत्री यांग जीईची को लंबे समय तक याद रहेगा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चीनी विदेश मंत्री को मुलाकात के लिए समय नहीं दिया। प्रधानमंत्री से उनकी भेंट के दौरान दुर्भावनापूर्ण चीनी कूटनीति का मुद्दा स्पष्ट रूप से उठा। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने सार्वजनिक टिप्पणी की कि चीन और पाकिस्तान हमारे पड़ोसी हैं और हम अपने पड़ोसियों का चुनाव नहीं कर सकते। पांच सितंबर को भारतीय विदेश मंत्रालय ने चीनी राजदूत को तलब कर एनएसजी में चीनी रुख पर आपत्ति प्रकट की। और इन सबके जवाब में चीनी विदेश मंत्री, विदेश मंत्रालय और चीन सरकार के नियंत्रण वाले अखबारों व समाचार एजेंसियों ने बार-बार कहा कि वे भारत को एनएसजी से मिली मंजूरी के खिलाफ नहीं हैं। उन्होंने सफाई दी कि चीन सरकार ने तो वियना बैठक से बहुत पहले ही एनएसजी में भारत के समर्थन का फैसला कर लिया था और वहां उसकी भूमिका `रचनात्मक` रही थी।

इस बार की मेहमाननवाजी याद रहेगी!

अंतरराष्ट्रीय राजनीति और राजनय के लिहाज से ये सब घटनाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे एनएसजी की ताजा बैठक के बाद भारत और चीन की वैश्विक हैसियत और उनके पारस्परिक संबंधों में ऐतिहासिक बदलाव का संकेत देती हैं। चाहे चीन और पाकिस्तान परमाणु अप्रसार के सिद्धांतों के साथ अन्याय की दुहाई देते रहें, चाहे प्रकाश करात और सीताराम येचुरी इसे हमारे अमेरिकी पिछलग्गूपन का प्रमाण बताते रहें, चाहे लालकृष्ण आडवाणी और यशवंत सिन्हा कांग्रेस नीत सरकार की इस उपलब्धि को पसंद करें या न करें लेकिन एनएसजी में भारत की अद्भुत सफलता आरोपों और कुंठाओं के प्रहार से कुंद होने वाली चीज नहीं है। एनएसजी की स्थापना का फौरी कारण भारत के परमाणु विस्फोट के मद्देनजर, उसे परमाणु सामग्री प्राप्त करने से रोकना था। आज उसी एनएसजी ने उसी भारत के लिए अपने नियमों को बदल डाला है। वैसा भी पहली बार हुआ था और ऐसा भी पहली बार हुआ है। इस घटनाक्रम का महत्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि 34 साल बाद भारत एक बार फिर परमाणु ईंधन प्राप्त करने का हकदार बन गया है बल्कि इसलिए कि भारत ने विश्व मंच पर अपना वास्तविक स्थान हासिल करने की दिशा में पहला मजबूत कदम उठाया है। एनएसजी की बैठक के बाद का भारत बैठक से पूर्व के भारत से अलग है और इसका पहला अहसास चीन को हुआ है।


एनएसजी करार के बाद का भारत अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त, अपनी शक्तियों और विशिष्टताओं में विश्वास रखने वाला, विश्व राजनीति में पुराने और नए मित्रों के समर्थन से लैस, लोकतांत्रिक एवं स्वच्छ छवि के गौरव से युक्त, आत्मविश्वास से भरा हुआ भारत है। इसी आत्मविश्वास की बदौलत शायद उसने पहली बार चीन के साथ दो-टूक लफ्जों में बात की है। और इसीलिए शायद चीन पहली बार भारत के आरोपों के जवाब में स्पष्टीकरण देने पर विवश हुआ है। वह चीन, जिसकी फौजों को हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करने की आदत सी हो गई है। वह चीन जिसने भारत के विरुद्ध मोहरे के रूप में इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान को सिर्फ हथियार, तकनीक और असीमित समर्थन ही नहीं दिया बल्कि परमाणु बम तक से लैस कर दिया। वह चीन, जिसने ओलंपिक से पहले दिल्ली में तिब्बतियों के विरोध प्रदर्शन से नाराज होकर पेईचिंग स्थित भारतीय राजदूत को रात के दो बजे विदेश मंत्रालय में बुलाकर फटकार लगाई।

हम भारतीय 62 की हार के बाद से ही एक गर्वोन्मत्त और आक्रामक चीन को सहने के आदी हो चले थे। लेकिन अब पहली बार हमने उसके साथ विवश विनम्रता के साथ नहीं बल्कि आत्मविश्वास और साफगोई से बात की है। चीन के प्रति अपनी आशंकाओं को रेखांकित करते हुए एक सर्वेक्षण में 80 फीसदी भारतीय नागरिकों ने भी कहा है कि वे चीन पर कभी विश्वास नहीं कर सकते। चीन की सफाई का अर्थ यह नहीं है कि भारत के बारे में उसके विचारों में कोई त्वरित बदलाव आ गया है। लेकिन पहले, उसे बदलते हुए वैश्विक समीकरणों का अहसास है और दूसरे वह इस पड़ोसी देश में अपने विरुद्ध बन रहे सार्वत्रिक आक्रोश और घृणा की अनदेखी नहीं कर सकता।

Friday, September 5, 2008

फिर से शीत युद्ध की ओर लौट रही है दुनिया?

-बालेन्दु शर्मा दाधीच

एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था ने सोवियत या रूसी प्रतिद्वंद्विता को अप्रासंगिक बना दिया और गुटनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं को अर्थहीन। इस व्यवस्था ने संयुक्त राष्ट्र को अमेरिका के सहयोगी संगठन में बदल दिया और राष्ट्रों की बहबूदी एवं बर्बादी को अमेरिका के साथ उनके संबंधों से जोड़ दिया। यह व्यवस्था आज भी मौजूद है। लेकिन कल रहेगी या नहीं, कहना मुश्किल है।

पिछले दो दशकों के दौरान दो बड़ी ताकतों के बीच टकराव जैसी कोई चीज मौजूद नहीं थी। रूस अपनी धराशायी हो चुकी अर्थव्यवस्था और अराजक समाज व्यवस्था को संभालने में जुटा था और चीन खुद को भीमकाय आर्थिक शक्ति बनाने के लक्ष्य की ओर छलांगें मार रहा था। इस दौरान अमेरिका दुनिया को अनुशासित करने वाले एक निरंकुश पुलिसवाले की भूमिका निभाने में लगा था। उसने जिस देश पर चाहा हमला किया, जिस देश में चाहा व्यवस्था बदल दी, जब चाहा संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय कानूनों को अपने मनमाफिक स्वरूप में ढाल लिया और दुनिया मौन देखती रही। इराक में सद्दाम हुसैन की हुकूमत का निर्लज्जतापूर्ण खात्मा करने और श्री हुसैन को फांसी पर चढ़ाए जाने तक के विरोध में कहीं कोई आवाज नहीं निकली, भले ही जिस दलील पर जार्ज बुश ने अमेरिका पर हमला किया (जनसंहार के हथियार जमा करना), वह पूरी तरह निराधार सिद्ध हो गई। उसने अथाह शक्ति जमा कर ली और उसका मनमाना इस्तेमाल किया। ऐसा इस्तेमाल जिसमें वह अपने किसी कृत्य के लिए जवाबदेह नहीं था।

अब रूस ने उसके इस अनियंत्रित प्रभुत्व को लाल झंडा दिखाया है। अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया को अमेरिका के मित्र जार्जिया से अलग कर उन्हें स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में मान्यता दे दी है, और लगे हाथ यह भी साफ कर दिया है कि अपने आसपास के क्षेत्र में उसी की निर्णायक भूमिका है और रहेगी। पहली बार दुनिया के किसी कोने में हुए किसी युद्ध में अमेरिका की निर्णायक या मध्यस्थकारी भूमिका नहीं है। यदि कोई भूमिका है तो सिर्फ मूक दर्शक की। यह अमेरिका के लिए यकीनन बहुत पीड़ादायक है। उसने अपने उपराष्ट्रपति डिक चेनी को जार्जिया समेत रूस के पड़ोसी राष्ट्रों का दौरा करने भेजा है। श्री चेनी ने पूर्व सोवियत गणराज्यों में अमेरिका के गहरे सरोकारों का वास्ता देते हुए स्पष्ट किया है कि रूसी कार्रवाई को उनके देश ने कितनी गंभीरता से लिया है। उन्होंने कहा है कि राष्ट्रपति बुश ने मुझे इस स्पष्ट संदेश के साथ भेजा है कि इस क्षेत्र के देशों की सुरक्षा और स्थायित्व में अमेरिका की गहरी दिलचस्पी है। ये श्री चेनी ही थे जिन्होंने कुछ दिन पहले कहा था कि जार्जिया के विरुद्ध रूसी कार्रवाई अनुत्तरित नहीं जानी चाहिए।

इस मामले में अमेरिका अकेला नहीं है। ब्रिटिश विदेश मंत्री डेविड मिलिबैंड ने जहां रूसी हमले के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय गठबंधन बनाने की बात कही है वहीं जार्जिया के पड़ोसी उक्रेन के राष्ट्रपति विक्तर युश्चेंको ने जार्जियाई राजधानी ित्बलिसी का दौरा कर उस राष्ट्र के साथ एकजुटता का इजहार किया है। दोनों ही राष्ट्र नाटो और यूरोपीय संघ का हिस्सा भी बनना चाहते हैं जो पश्चिमी देशों से रूसी नाराजगी का एक अहम कारण है। रूस का दावा है कि जार्जिया ने उसके पड़ोसी दोनों स्वायत्त क्षेत्रों पर जो सैनिक कार्रवाई की उसमें अमेरिका और उसके साथियों की सीधी भूमिका है। उसने स्पष्ट कर दिया है कि वह अपने क्षेत्र में बढ़ते अमेरिकी प्रभाव को एक हद से ज्यादा स्वीकार करने को तैयार नहीं है। किसी जमाने में अमेरिका अपने आसपास के क्षेत्र में यूरोपीय देशों के दखल का प्रबल विरोध किया करता था। लगभग वही नीति आज मध्य यूरोप और काकेशस क्षेत्र में रूस अपना रहा है।

अमेरिकी मिसाइल सुरक्षा प्रणाली, सर्बिया के विरुद्ध नाटो की सैन्य कार्रवाई, कोसोवो को अमेरिकी मान्यता आदि के कारण रूस खुद को असुरक्षित महसूस करता रहा है। नाटो में मध्य यूरोप के कई देशों को शामिल किये जाने (जिनमें उसका प्रखर विरोध करने वाले बाल्टिक राष्ट्र शामिल हैं) को रूस में खुद को घेरने की अमेरिकी रणनीति का हिस्सा माना जाता है। इसी असुरक्षा में रूस ने हाल में कई मौकों पर अपनी ताकत का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रदर्शन किया है। पिछले साल लगभग इसी समय रूस ने चीन के साथ मिलकर बहुत बड़ा सैन्य अभ्यास किया था जिसने अमेरिका और उसके सहयोगियों को आशंकित किया। उसने सोवियत संघ के जमाने में बमवर्षक विमानों को रूसी सीमा के बाहर तक निगरानी उड़ानों पर भेजने की परिपाटी भी दोबारा शुरू कर दी है। रूस अपनी नौसेना और वायुसेना को भी बड़े पैमाने पर सुसंगठित और हथियारबंद करने में लगा है। हाल में रूसी उप प्रधानमंत्री सर्गेई इवानोव ने कहा था कि हम करीब-करीब उतने ही जहाज बनाने में लगे हुए हैं जितने कि सोवियत संघ के जमाने में बनाया करते थे। इधर प्रधानमंत्री व्लादीमीर पुतिन ने यह कहकर अपने देश का आक्रामक रुख स्पष्ट किया है कि रूस काला सागर में अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के जहाजों के जमाव का जवाब देगा। यह जवाब शांत होगा लेकिन होगा जरूर।

हालांकि जार्जिया के घटनाक्रम को सीधे-सीधे अमेरिका और रूस में लंबे टकराव की शुरूआत मानना जल्दबाजी होगी लेकिन इतना तय है कि दोनों विशाल देशों के संबंधों में बदलाव की शुरूआत हो गई है। अमेरिका ने जहां जार्जिया को `पीड़ित और कमजोर पक्ष` करार देते हुए विश्व समुदाय से उसकी हिमायत करने का आग्रह किया है लेकिन अनेक विकासशील देशों ने उसकी इस बात की अनदेखी की है। हालांकि फिलहाल अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया को रूस के अलावा किसी अन्य देश ने मान्यता नहीं दी है लेकिन कई देशों ने दबी-दबी जबान में कहा है कि इस मामले में वे रूस के साथ हैं क्योंकि असली मुद्दा जार्जिया और रूस के टकराव का नहीं बल्कि पश्चिमी देशों की निरंकुशता का है। रूस आगे भी पश्चिम के साथ संबंध बनाए रखेगा और मौके-बेमौके अपना प्रभाव दिखाने से भी नहीं चूकेगा। भले ही इसे एक स्पष्ट शीत युद्ध की शुरूआत न माना जाए, किंतु अमेरिकी दबदबे के बोझ में दबी विश्व व्यवस्था में किसी किस्म के संतुलन की उम्मीद तो लगाई ही जा सकती है।

Thursday, September 4, 2008

अमेरिकी वर्चस्व के अंत की शुरूआत हो रही है?

-बालेन्दु शर्मा दाधीच

इधर हम भारतीय जम्मू-कश्मीर के विरोध प्रदर्शनों पर ध्यान लगाए हुए थे और उधर काकेशस क्षेत्र में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हो रही थीं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति के ज्ञानी लोग मौजूदा एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा मान रहे हैं। अमेरिकी वर्चस्व को रूस ने दो दशकों में पहली बार एक गंभीर चुनौती दी है।

इधर हम भारतीय जम्मू-कश्मीर के विरोध प्रदर्शनों पर ध्यान लगाए हुए थे और उधर काकेशस क्षेत्र में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हो रही थीं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति के ज्ञानी लोग मौजूदा एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा मान रहे हैं। अमेरिका और उसके मित्र देशों के आग्रहों, मांगों और चेतावनियों के बावजूद रूस ने पड़ोसी जार्जिया के दो बागी स्वायत्त क्षेत्रों अबखाजिया और उत्तरी ओसेतिया में फैसलाकुन सैनिक दखल करके न सिर्फ वहां से जार्जियाई फौजों को खदेड़ दिया है बल्कि उन पर इतना गंभीर प्रहार किया है कि जार्जिया की सैन्य शक्ति आने वाले कई वर्षों के लिए पंगु हो चुकी है। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश की अपील को नकारते हुए रूस ने इन दोनों बागी गणराज्यों को संप्रभु राष्ट्रों के रूप में मान्यता भी दे दी है। पिछले डेढ़ दशक में रूस ने पहली बार विश्व व्यवस्था के एकमात्र नियामक और नियंता अमेरिका को इतनी स्पष्ट और गंभीर चुनौती दी है। यह दुनिया के राजनैतिक घटनाक्रम पर अमेरिकी पकड़ के कमजोर होने का लक्षण तो है ही, उस शीतयुद्ध की वापसी का पहला स्पष्ट संकेत भी हो सकता है जो सोवियत संघ के पतन और विघटन के बाद मोक्ष को प्राप्त हुआ मान लिया गया था।



1991 में बुश सीनियर के राष्ट्रपति-काल में निर्विघ्न अमेरिकी वर्चस्व सुनिश्चित करने वाली नई विश्व व्यवस्था की नींव रखी गई थी। इस व्यवस्था ने सोवियत या रूसी प्रतिद्वंद्विता को अप्रासंगिक बना दिया और गुटनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं को अर्थहीन। इस व्यवस्था ने संयुक्त राष्ट्र को अमेरिका के सहयोगी संगठन में बदल दिया और राष्ट्रों की बहबूदी एवं बर्बादी को अमेरिका के साथ उनके संबंधों से जोड़ दिया। यह व्यवस्था आज भी मौजूद है। लेकिन कल रहेगी या नहीं, कहना मुश्किल है।

नहीं, अमेरिका को चीन और भारत (चिन्डिया) जैसी उभरती हुई आर्थिक शक्तियों से कोई तात्कालिक खतरा नहीं है क्योंकि अमेरिका ने उन्हें अपनी जरूरतों के अनुसार साध लिया है। यूरोपीय संघ की एकजुटता और आर्थिक आत्मनिर्भरता भी उसके लिए कोई गंभीर त्वरित चुनौती नहीं है। इतना ही नहीं, कभी तेल संकट के जरिए तो कभी अपनी सरजमीं से संचालित आतंकवाद की बदौलत अमेरिका की चिंता का सबब बने मुस्लिम राष्ट्र भी उसके लिए किसी चिरस्थायी समस्या के प्रतीक नहीं हैं। ये सभी आर्थिक, राजनैतिक या सैन्य संदर्भों में अमेरिका पर किसी न किसी रूप से निर्भर बने हुए हैं। अमेरिकी वर्चस्व को अगर चुनौती मिलने जा रही है तो एक बार फिर रूस से ही, जो सोवियत संघ के विघटन के बाद की दीन-हीन अवस्था से उबरकर क्षेत्रीय शक्ति से विश्व महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। खास बात यह है कि इस बार का रूस सोवियत संघ की भांति साम्यवादी नहीं है। वह साम्यवाद के जमाने की समस्याओं से मुक्त, एक मजबूत अर्थव्यवस्था तथा अपने किस्म की एक अनोखी किंतु लोकतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था से लैस है।

अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया में फौजी कार्रवाई के बाद रूसी संसद ने एक प्रस्ताव पास कर अपने देश के नेतृत्व से अपील की थी कि वे 1990 के दशक में खुद को स्वतंत्र घोषित कर देने वाले जार्जिया के इन दोनों स्वायत्त क्षेत्रों को संप्रभु राष्ट्रों के रूप में मान्यता दे दें। सोवियत संघ के विघटन के बाद से जार्जिया अमेरिका और यूरोपीय देशों का मित्र बन चुका है और रूस के साथ उसके संबंध कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। रूसियों का आरोप है कि अमेरिकी और यूरोपीय देशों की शह पर ही जार्जिया ने पिछले दिनों इन दोनों क्षेत्रों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई शुरू की थी। जब रूसी संसद ने अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया को मान्यता दिए जाने की बात कही तो पिछली 25 अगस्त को अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने रूसी नेतृत्व से इसे नकारने की मांग की। इसके 24 घंटे के भीतर ही रूसी राष्ट्रपति मेदवेदेव ने दोनों क्षेत्रों को मान्यता देने की घोषणा कर दी। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लब्धप्रतिष्ठ विश्लेषक सायमस मिलने ने `द गाजिर्यन` में लिखा है कि इस तरह रूस ने अमेरिका को साफ संकेत दे दिया कि दक्षिणी ओसेतिया पर सात अगस्त को शुरू किए गए जार्जियाई हमले से जो जंग शुरू हुई थी उसका अंतिम परिणाम तय हो चुका है। इसे लेकर किसी किस्म के मोलभाव की गुंजाइश नहीं है और अमेरिकी साम्राज्य के नियंता भले ही कुछ भी चाहें या कहें, अबखाजिया तथा दक्षिणी ओसेतिया के जमीनी हालात में अब कोई बदलाव नहीं हो सकता।
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- लोकलाइजेशन लैब्सहिंदी में सूचना प्रौद्योगिकीय विकास
- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com