Thursday, September 11, 2008

चीन को कब समझ आएगा, यह 62 वाला भारत नहीं!

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

एनएसजी करार के बाद का भारत अपने भविष्य के प्रति अधिक आश्वस्त, अपनी शक्तियों और विशिष्टताओं में विश्वास रखने वाला, विश्व राजनीति में पुराने और नए मित्रों के समर्थन से लैस, लोकतांत्रिक एवं स्वच्छ छवि के गौरव से युक्त, आत्मविश्वास से भरा हुआ भारत है। इसी आत्मविश्वास की बदौलत शायद उसने पहली बार चीन के साथ दो-टूक लफ्जों में बात की है। और इसीलिए शायद चीन पहली बार भारत के आरोपों के जवाब में स्पष्टीकरण देने पर विवश हुआ है।

न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में भारत से संबंधित प्रस्ताव को रुकवाने की कटुतापूर्ण किंतु नाकाम चीनी कोशिशों को लेकर देश में जिस किस्म के सर्वव्यापी क्रोध का भाव है, उसका स्वाद शायद चीनी विदेश मंत्री यांग जीईची को लंबे समय तक याद रहेगा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चीनी विदेश मंत्री को मुलाकात के लिए समय नहीं दिया। प्रधानमंत्री से उनकी भेंट के दौरान दुर्भावनापूर्ण चीनी कूटनीति का मुद्दा स्पष्ट रूप से उठा। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने सार्वजनिक टिप्पणी की कि चीन और पाकिस्तान हमारे पड़ोसी हैं और हम अपने पड़ोसियों का चुनाव नहीं कर सकते। पांच सितंबर को भारतीय विदेश मंत्रालय ने चीनी राजदूत को तलब कर एनएसजी में चीनी रुख पर आपत्ति प्रकट की। और इन सबके जवाब में चीनी विदेश मंत्री, विदेश मंत्रालय और चीन सरकार के नियंत्रण वाले अखबारों व समाचार एजेंसियों ने बार-बार कहा कि वे भारत को एनएसजी से मिली मंजूरी के खिलाफ नहीं हैं। उन्होंने सफाई दी कि चीन सरकार ने तो वियना बैठक से बहुत पहले ही एनएसजी में भारत के समर्थन का फैसला कर लिया था और वहां उसकी भूमिका `रचनात्मक` रही थी।

इस बार की मेहमाननवाजी याद रहेगी!

अंतरराष्ट्रीय राजनीति और राजनय के लिहाज से ये सब घटनाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे एनएसजी की ताजा बैठक के बाद भारत और चीन की वैश्विक हैसियत और उनके पारस्परिक संबंधों में ऐतिहासिक बदलाव का संकेत देती हैं। चाहे चीन और पाकिस्तान परमाणु अप्रसार के सिद्धांतों के साथ अन्याय की दुहाई देते रहें, चाहे प्रकाश करात और सीताराम येचुरी इसे हमारे अमेरिकी पिछलग्गूपन का प्रमाण बताते रहें, चाहे लालकृष्ण आडवाणी और यशवंत सिन्हा कांग्रेस नीत सरकार की इस उपलब्धि को पसंद करें या न करें लेकिन एनएसजी में भारत की अद्भुत सफलता आरोपों और कुंठाओं के प्रहार से कुंद होने वाली चीज नहीं है। एनएसजी की स्थापना का फौरी कारण भारत के परमाणु विस्फोट के मद्देनजर, उसे परमाणु सामग्री प्राप्त करने से रोकना था। आज उसी एनएसजी ने उसी भारत के लिए अपने नियमों को बदल डाला है। वैसा भी पहली बार हुआ था और ऐसा भी पहली बार हुआ है। इस घटनाक्रम का महत्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि 34 साल बाद भारत एक बार फिर परमाणु ईंधन प्राप्त करने का हकदार बन गया है बल्कि इसलिए कि भारत ने विश्व मंच पर अपना वास्तविक स्थान हासिल करने की दिशा में पहला मजबूत कदम उठाया है। एनएसजी की बैठक के बाद का भारत बैठक से पूर्व के भारत से अलग है और इसका पहला अहसास चीन को हुआ है।


एनएसजी करार के बाद का भारत अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त, अपनी शक्तियों और विशिष्टताओं में विश्वास रखने वाला, विश्व राजनीति में पुराने और नए मित्रों के समर्थन से लैस, लोकतांत्रिक एवं स्वच्छ छवि के गौरव से युक्त, आत्मविश्वास से भरा हुआ भारत है। इसी आत्मविश्वास की बदौलत शायद उसने पहली बार चीन के साथ दो-टूक लफ्जों में बात की है। और इसीलिए शायद चीन पहली बार भारत के आरोपों के जवाब में स्पष्टीकरण देने पर विवश हुआ है। वह चीन, जिसकी फौजों को हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करने की आदत सी हो गई है। वह चीन जिसने भारत के विरुद्ध मोहरे के रूप में इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान को सिर्फ हथियार, तकनीक और असीमित समर्थन ही नहीं दिया बल्कि परमाणु बम तक से लैस कर दिया। वह चीन, जिसने ओलंपिक से पहले दिल्ली में तिब्बतियों के विरोध प्रदर्शन से नाराज होकर पेईचिंग स्थित भारतीय राजदूत को रात के दो बजे विदेश मंत्रालय में बुलाकर फटकार लगाई।

हम भारतीय 62 की हार के बाद से ही एक गर्वोन्मत्त और आक्रामक चीन को सहने के आदी हो चले थे। लेकिन अब पहली बार हमने उसके साथ विवश विनम्रता के साथ नहीं बल्कि आत्मविश्वास और साफगोई से बात की है। चीन के प्रति अपनी आशंकाओं को रेखांकित करते हुए एक सर्वेक्षण में 80 फीसदी भारतीय नागरिकों ने भी कहा है कि वे चीन पर कभी विश्वास नहीं कर सकते। चीन की सफाई का अर्थ यह नहीं है कि भारत के बारे में उसके विचारों में कोई त्वरित बदलाव आ गया है। लेकिन पहले, उसे बदलते हुए वैश्विक समीकरणों का अहसास है और दूसरे वह इस पड़ोसी देश में अपने विरुद्ध बन रहे सार्वत्रिक आक्रोश और घृणा की अनदेखी नहीं कर सकता।

3 comments:

अनुनाद सिंह said...

बालेन्दु जी,

अब लगता है कि भारत भी कूटनीति करना सीख गया है। भारत को चीन से सदा बराबरी का सम्बन्ध ही बनाना चाहिये, उससे कम कुछ भी नहीं। नेहरू जैसी मूर्खता अब नहीं दोहरायी जानी चाहिये।


(यदि आप चाहते हैं कि मुक्त-स्रोत ब्राउजर 'फ़ायरफ़ाक्स'का उपयोग करने वाले लोग भी आपका लेख ठीक से पढ़ सकें तो कृपया अपने लेख के टेक्स्ट को 'जस्टिफ़ाई' मत किया कीजिये। )

संजय बेंगाणी said...

चीन को कब समझ आएगा, यह 62 वाला भारत नहीं!

जब हम सही भाषा में समझाएंगे :)

Balendu Sharma Dadhich said...

सुझाव के लिए धन्यवाद अनुनाद भाई। संजय जी, आपने भी ठीक कहा।

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com