Saturday, January 16, 2010

विडंबनाओं की पगडंडी से निकला दोस्ती का हाईवे

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

शेख हसीना के ऐतिहासिक और बेहद सफल दौरे के बावजूद खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की जैसी कटु प्रतिक्रिया आई है (कि शेख हसीना ने बांग्लादेश के हितों को भारत के हाथों बेच डाला), वह दुखद तो है ही, इस बात का परिचायक भी है कि भारत भले ही कितना भी आत्मीय, मैत्रीपूर्ण, उदार एवं सदाशयी हो जाए, उसे बांग्लादेश में सार्वत्रिक स्वीकायर्ता मिलनी मुश्किल है।

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की भारत यात्रा के दौरान कोई चार दशक बाद दोनों देशों के संबंधों में वही गर्मजोशी और अपनापन दिखाई दिया जो बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय और उसके बाद था। ठीक अड़तीस साल पहले जनवरी 1972 में जब शेख मुजीबुर्रहमान जब पाकिस्तान से रिहाई के बाद बरास्ता लंदन स्वदेश वापसी के लिए भारत होते हुए गुजरे तो इस देश ने बंगबंधु का ऐतिहासिक स्वागत किया था। ऐसा स्वागत, जिसकी मिसालें भारतीय इतिहास में बहुत कम होंगी। हवाई अड्डे पर उनकी अगवानी करने के लिए भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, केंद्रीय मंत्रिमंडल के सभी सदस्य और तीनों सेनाओं के प्रमुख मौजूद थे। वह बांग्लादेश और भारत की साझा सफलता, आत्मीयता और मित्रता का उत्सव था। तब शेख मुजीब ने कहा था कि भारत के लोग बांग्लादेश के सवर्श्रेष्ठ मित्र हैं और मुक्ति संग्राम के दौरान भारत ने जो कुछ किया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।

लेकिन दुर्भाग्य से बांग्लादेश सिर्फ शेख मुजीब या फिर उनकी अवामी लीग का देश ही नहीं था। शेख मुजीब की हत्या के बाद धीरे.धीरे वहां भारत को सवर्श्रेष्ठ मित्र तो क्या मित्र मानने की भावना भी क्षीण होती चली गई और कालांतर में बांग्लादेश स्वयं को नुकसान पहुंचाने की हद तक जाकर भी भारत विरोध पर आमादा हो गया। लगभग वैसा ही, जैसा लोकतंत्र की स्थापना के बाद माओवादी सरकार के शासन में नेपाल हो गया था। कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस बांग्लादेश की स्वतंत्रता के संग्राम में भारत ने अपने नागरिकों और सैनिकों को खोया, उसे खलनायक मानने वाले दलों और व्यक्तियों का वहां की राजनीति के 40 में से तीस साल तक प्रभुत्व रहा। भारत की मित्र समझी जाने वाली अवामी लीग का कायर्काल तो कुल जमा एक दशक का रहा है और उसमें वह अनेक राजनैतिक एवं प्राकृतिक समस्याओं से जूझती रही है।

शेख हसीना के ऐतिहासिक और बेहद सफल दौरे के बावजूद खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की जैसी कटु प्रतिक्रिया आई है (कि शेख हसीना ने बांग्लादेश के हितों को भारत के हाथों बेच डाला), वह दुखद तो है ही, इस बात का परिचायक भी है कि भारत भले ही कितना भी आत्मीय, मैत्रीपूर्ण, उदार एवं सदाशयी हो जाए, उसे बांग्लादेश में सार्वत्रिक स्वीकायर्ता मिलनी मुश्किल है। वहां कितने दलों की राजनीति की तो बुनियाद ही भारत के अनवरत विरोध पर निर्भर है। ये दल ऐसा आभास पैदा करने में लगे रहते हैं जैसे भारतीय राजनेताओं का ज्यादातर समय बांग्लादेश के विरुद्ध साजिशें बनाने में ही गुजरता है। असलियत यह है कि भारतीय नेताओं और जनता की प्राथमिकताओं में बांग्लादेश का स्थान बहुत नीचे है और वहां क्या होता है, क्या नहीं, इससे हमारा सरोकार निरंतर कम होता चला गया है।

साझा विरासत के सहगामी

अलबत्ता, बांग्लादेश के पिछले चुनाव नतीजों ने जरूर भारत में दिलचस्पी और खुशी पैदा की जिनमें अवामी लीग को भारी समर्थन हासिल हुआ। दूसरी ओर भारत में भी केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन मजबूत हुआ है। दोतरफा स्थायित्व और अनुकूल शक्तियों के सत्ता में होने से भारत और बांग्लादेश को अपने संबंधों में नई ताजगी तथा आत्मीयता पैदा करने और आपसी संदेह दूर कर विश्वास का माहौल बनाने का ऐतिहासिक मौका मिला है। शेख हसीना की भारत यात्रा के दौरान हुए पांच समझौते, भारत की ओर से किसी भी देश को दिया गया अब तक का सबसे बड़ा ऋण और बांग्लादेशी प्रधानमंत्री को मिला हमारे सर्वोच्च अलंकरणों में से एक इंदिरा गांधी शांति एवं विकास पुरस्कार इस बात की निशानदेही करता है कि भारत अपने इस पूर्वी पड़ोसी के साथ आत्मीय संबंध बनाने के लिए कितना आतुर है। आप चाहें तो इसे हमारे पड़ोसियों के साथ गर्मजोशी बढ़ाने के चीनी प्रयासों की पृष्ठभूमि में देख सकते हैं लेकिन वास्तविकता यही है कि हमारे रुख में यह उत्कटता अनायास पैदा नहीं हुई है।

चीन और बांग्लादेश उस किस्म की साझा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक विरासत के सहगामी नहीं हैं जो भारत और बांग्लादेश के बीच है। ॰॰आखिरकार आजादी से पहले बांग्लादेश भारत का ही हिस्सा था और सुहरावर्दी और शेख मुजीब भारत के स्वाधीनता सेनानियों में भी गिने जाते हैं! ॰॰आखिरकार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, जो कि दो देशों के राष्ट्रगान के लिखने वाले विश्व के एकमात्र कवि हैं, ने भारत के साथ.साथ बांग्लादेश का ही राष्ट्रगान लिखा है। ॰॰आखिरकार बांग्लादेश वही भाषा बोलता है जो पश्चिम बंगाल। चीन और बांग्लादेश के संबंधों में क्या इस तरह की कोई कड़ी खोजी जा सकती है?

बदलाव उधर भी है

खुशी की बात है कि बदलाव की बयार सिर्फ भारत की ओर से ही नहीं बह रही, वह बांग्लादेश की ओर से भी आई है। उल्फा सहित उत्तर पूर्वी भारत के जिन अलगाववादी और आतंकवादी संगठनों को बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और फौजी शासकों के राज में प्रश्रय मिला, उन्हें लेकर वहां की मौजूदा सरकार का रुख एकदम स्पष्ट है। हाल ही में रहस्योद्घाटन हुआ है कि खालिदा जिया के शासनकाल में पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अपनी बांग्लादेश यात्रा के समय उल्फा नेता अनूप चेतिया से मुलाकात की थी। यह अपनी तरह की अकेली मुलाकात नहीं रही होगी। लेकिन शेख हसीना आपसी संबंधों में नए और सकारात्मक युग की शुरूआत करने की इच्छुक दिखती हैं। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में मैंने एक बार शेख हसीना का इंटरव्यू किया था। तब भी उन्होंने भारत के प्रति अपनी साझा विरासत और मुक्ति संग्राम में हमारे योगदान को लेकर भावुकतापूर्ण टिप्पणियां की थीं। तब वहां सेनाध्यक्ष से राष्ट्रपति बने जनरल इरशाद का शासन था और उनकी भूमिका बेहद सीमित थी। किंतु उन्होंने कहा था कि वे सत्ता में आईं तो आपसी संबंधों में खड़ी की गई दीवार ढहाना उनकी प्राथमिकताओं में होगा।

बांग्लादेश से निर्बाध गतिविधियां संचालित कर रहे उल्फा के अरविंद राजखोवा जैसे वरिष्ठ नेताओं को भारत के हवाले कर उन्होंने उस विश्वसनीयता और सदाशयता का परिचय दिया है जिसकी उम्मीद भारत दशकों से कर रहा था। आतंकवाद के विरुद्ध स्पष्ट रुख जताने और बांग्लादेश की सरजमीं पर भारत विरोधी गतिविधियों को बर्दाश्त न करने की उद्घोषणा कर उन्होंने भारतीयों का दिल जीत लिया। वे भारत को दो बांग्लादेशी बंदरगाहों तक पहुंच भी उपलब्ध कराने पर सहमत हो गई हैं। दूसरी ओर भारत ने लगभग पौने पांच हजार करोड़ रुपए की आर्थिक सहायता देकर जाहिर कर दिया है कि यदि उसकी आर्थिक समृद्धि का लाभ पड़ोसियों तक पहुंचता है तो इसमें उसे आपत्ति नहीं है। बांग्लादेश से आयात की जा सकने वाली वस्तुओं की सूची को व्यापक बनाकर, तिपाईमुख बांध (जिसे लेकर बांग्लादेश में पर्यावरणीय विपदाओं की आशंका जताई जाती है) का निर्माण रोककर, स्वाधीनता प्राप्ति के समय से विवादित 17000 एकड़ भूमि को बांग्लादेश के हवाले करने का फैसला करके, बिजली सप्लाई का समझौता करके अपने नए दृष्टिकोण का सबूत दिया है।

श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल आदि की ही भांति बांग्लादेश में भी यह आम धारणा रही है कि भारत अपने सभी पड़ोसी राष्ट्रों पर प्रभुत्व कायम रखना चाहता है। शायद शेख हसीना की यात्रा से वह धारणा टूटे। कोशिश रहनी चाहिए कि गलतफहमियां दूर करने का यह सिलसिला सिर्फ बांग्लादेश तक सीमित न रहे, दक्षिण एशिया के अन्य देशों तक भी पहुंचे क्योंकि भारत के हित अपने पड़ोसियों की शांति, सुरक्षा और तरक्की में ही निहित हैं।

Thursday, January 7, 2010

अमर सिंह को बहुत देर से दिखा सपा का परिवारवाद

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

हमारे क्षेत्रीय दल कुछ क्षेत्रीय नेताओं के पुनर्वास के लिए स्थापित निजी कंपनियों की तरह हैं जिनमें उनके संस्थापकों तथा उनके परिवारजनों का दर्जा किसी 'पोलित ब्यूरो' के जैसा ही है। उनका फलना.फूलना भारतीय राजनीति के क्षरण, हमारे मतदाताओं के बीच जागरूकता के अभाव और हमारे लोकतंत्र की खामियों का प्रतीक है।

एक ओर कल्याण सिंह ने अपने पुत्र के साथ मिलकर एक नई पार्टी बनाई और दूसरी तरफ बयानों के शहंशाह अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी में एक परिवार के दबदबे का मुद्दा उठाते हुए उसके अहम पदों से इस्तीफा दे दिया। अमर सिंह को जिस बात का अहसास इतनी देर से हुआ उसे कमोबेश हर हिंदुस्तानी कई दशकों से जानता है। और वह है क्षेत्रीय दलों पर उनके संस्थापकों तथा उनके परिवारों का दबदबा, यहां तक कि उनकी निरंकुश तानाशाही।

अमर सिंह भले ने भले ही समाजवादी पार्टी में अपनी उपेक्षा के ताजा एपीसोड के मद्देनजर परिवारवाद का मुद्दा उठाया हो, लेकिन वह तो शुरू से ही वैसी ही थी! मुलायम सिंह यादव ने जब विश्वनाथ प्रताप सिंह का साथ छोड़कर पहले चंद्रशेखर के साथ समाजवादी जनता पार्टी और फिर समाजवादी पार्टी बनाई तब उनकी वरीयताएं और सोच बहुत स्पष्ट थी। समाजवादी पृष्ठभूमि को साथ रखते हुए उन्हें उत्तर प्रदेश के जातीय एवं धार्िमक समीकरणों के आधार पर अपनी राजनीति करनी थी। हालांकि समाजवाद और जातिवाद दोनों में बहुत जबरदस्त अंतरविरोध है लेकिन मुलायम सिंह ने दोनों को ऐसा साधा कि वे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और जनता दल दोनों के विकल्प बन गए। अयोध्या के घटनाक्रम के बाद मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हुआ और जनता दल पहले ही छिन्न.भिन्न तथा विघटित हो चुका था। ऐसे में उत्तर प्रदेश के मुसलमान स्वाभाविक रूप से समाजवादी पार्टी की ओर मुड़े और मुस्लिम.यादव गठजोड़ से मजबूत हुए मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने में सफल रहे। अलबत्ता, अन्य क्षेत्रीय दलों की ही भांति उनकी पार्टी में उनके अपने परिवार और उनकी जाति के लोगों की प्रधानता बनी रही। अमर सिंह सच कहते हैं कि आज भी हालात में कोई परिवर्तन नहीं आया है।

समाजवादी पार्टी तो शुरू से मुलायम सिंह यादव के परिवार की निजी पार्टी बनी हुई है। यदि अमर सिंह, अमिताभ बच्चन, जया प्रदा और अनिल अंबानी जैसे लोग भी उसमें प्रमुखता पाने में सफल रहे तो इसीलिए कि वे भी श्री यादव के मित्र या परिवारजनों के समान ही हैं। जब तक यह परिवारवाद अमर सिंह के पक्ष में था, वे कभी इसका लाभ उठाने से नहीं चूके। जब.जब उनका टकराव राज बब्बर, आजम खान आदि अन्य पार्टी नेताओं से हुआ तो मुलायम सिंह ने एक पारिवारिक सदस्य के रूप में उनका पक्ष लिया। लेकिन जब स्थिति स्वयं मुलायम सिंह यादव के निजी परिवारीजनों के साथ टकराव तक आ गई तो अमर सिंह को पार्टी प्रमुख की वास्तविक वरीयताओं का अहसास करा दिया गया। स्वयं अमर सिंह को देखिए। वे भी बहुत लंबे अरसे तक स्वयं को मुलायम सिंह के परिवार का ही सदस्य मानते रहे। जब कभी श्री यादव पर कोई आरोप लगा या वे सरकारी कुदृष्टि के शिकार हुए, उनसे पहले अमर सिंह खुद खड़े होकर उनके पक्ष में बयान देते नजर आए। अलबत्ता, पिछले साल भर में अमर सिंह का 'पारिवारिक.सदस्य' वाला दर्जा कमजोर पड़ गया है।

गलत कारणों से उठा सही मुद्दा

भले ही गलत कारणों से, लेकिन अमर सिंह ने सपा में परिवारवाद की प्रधानता का मुद्दा उठाकर सभी क्षेत्रीय दलों की स्थिति की ओर ध्यान खींचा है। इसे भारतीय राजनीति का दुभ्राग्य कहें, या कुछ राज्यों के राजनैतिक क्षत्रपों का सौभाग्य कि वे कोई सुस्पष्ट वैचारिक पृष्ठभूमि या सिद्धांतों की गैर.मौजूदगी में भी अपने.अपने राज्य में क्षेत्रीय दल खड़े करने तथा उन्हें सत्ता में लाने में सफल रहे। सिर्फ मुलायम सिंह यादव ही क्यों, लालू प्रसाद यादव का राजद, मायावती की बसपा, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, ओम प्रकाश चौटाला का इनेलो, अजित सिंह का रालोद, शिबू सोरेन का झामुमो, उमा भारती की भाजश, बाल ठाकरे की शिव सेना, करुणानिधि की द्रमुक, जयललिता की अन्नाद्रमुक, रामविलास पासवान की लोजपा और यहां तक कि हाल ही में गठित चिरंजीवी की प्रजा राज्यम तक वैसी ही पार्िटयां हैं। इनमें से बहुत कम दल किसी सुस्पष्ट राजनैतिक विचारधारा के पालन के लिए कटिबद्ध हैं। उनका नेतृत्व उन्हीं परिवारों के हाथ में रहेगा, जिन्होंने उनकी स्थापना की।

वास्तव में ये दल कुछ क्षेत्रीय नेताओं के पुनर्वास के लिए स्थापित निजी कंपनियों की तरह हैं जिनमें उनके संस्थापकों तथा उनके परिवारजनों का दर्जा किसी 'पोलित ब्यूरो' के जैसा ही है। भले ही राष्ट्रीय राजनीति हो या प्रादेशिक राजनीति, इन पार्िटयों का पहला लक्ष्य अपने संस्थापक परिवारों के हितों की रक्षा करना ही है, और रहेगा। इसके लिए जरूरत पड़ने पर वे जातिवादी, क्षेत्रवादी, भाषायी या धार्िमक राजनीति करने से पीछे नहीं हटते। आंध्र प्रदेश में जिस तरह क्षेत्रीय दलों के बीच तेलंगाना के मुद्दे का समर्थन करने के लिए अचानक होड़ मच गई है, उससे क्षेत्रीय दलों की सैद्धांतिक प्रतिबद्धताओं का अंदाजा लग जाता है। तेलुगूदेशम और प्रजा राज्यम जैसे क्षेत्रीय दल जो कुछ दिन पहले तक तेलंगाना के विरोधी थे, अचानक इसके समर्थक हो गए हैं। उधर झारखंड में जो झामुमो भाजपा की 'सांप्रदाियक' राजनीति का विरोध करता था, आज वह उसी के साथ सरकार बना चुका है। मायावती भी ऐसा कर चुकी हैं और नवीन पटनायक का बीजू जनता दल भी। नेशनल कांफ्रेंस, तृणमूल कांग्रेस, रालोद और लोजपा जैसे दल तो लगभग हर चुनाव में सिद्ध कर देते हैं कि उनकी कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं है और यदि कोई है भी तो वे उसे सत्ताधारी दलों के पक्ष में बड़ी सफाई से 'परिमार्िजत' करने में सक्षम हैं। ऐसे दलों का फलना.फूलना भारतीय राजनीति के क्षरण, हमारे मतदाताओं के बीच जागरूकता के अभाव और हमारे लोकतंत्र की खामियों का प्रतीक है। लेकिन यही सत्य है।

परिवार ही वरीयता

क्षेत्रीय दलों की एक मजेदार बात यह है कि उनके नेतृत्व की पहली पंक्ति के बारे में किसी तरह का शक.सुबहा या विवाद हो ही नहीं सकता। न ही उनके द्वारा चुनावों में खड़े किए जाने वाले उम्मीदवारों को लेकर कोई प्रतिवाद संभव है। क्योंकि ये सभी निण्रय सिर्फ एक व्यक्ति द्वारा किए जाते हैं और यदि वह इस प्रक्रिया में अन्य लोगों की राय लेता भी है तो महज औपचारिकतावश। दोनों पक्ष जानते हैं कि इस सलाह का महत्व कितना क्षणिक है। भले ही उनमें से कुछ दल समाजवादी या साम्यवादी विचारधारा के साथ अपने जुड़ाव के दावे करें, उनकी राजनीति में लोकतंत्र, समता या सामूहिकता के तत्व कहीं दिखाई नहीं देते। यह अलग बात है कि अपनी सुविधा के अनुसार बीच.बीच में मुख्यधारा के साम्यवादी दल भी निरंकुश पारिवारिक प्रभुत्व से ग्रस्त इन दलों को साथ लेने में नहीं झिझकते।

यदि ये दल वास्तव में लोकतांत्रिक होते तो क्या अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल ने फिरोजाबाद से चुनाव लड़ा होता? समाजवादी पार्टी ने आधिकारिक रूप से कहा था कि फिरोजाबाद की जनता की निरंतर मांग के कारण ही डिम्पल को राजनीति में आना पड़ रहा है। शायद मुलायम सिंह यादव खुद भी डिम्पल यादव के नेतृत्व की उन क्षमताओं से परिचित नहीं होंगे जिनकी पहचान, जैसा कि उनकी पार्टी के दावे से स्पष्ट है, फिरोजाबाद की जनता ने कर ली थी। यह अलग बात है कि स्वयं अमर सिंह को भी डिम्पल यादव की उम्मीदवारी से कोई ऐतराज नहीं था बल्कि उन्होंने तो शिकायत की कि उन्हें फिरोजाबाद में अपनी बहू के पक्ष में प्रचार करने का पूरा मौका नहीं मिला।

बहरहाल, पार्टी नेतृत्वों द्वारा देखे गए इसी तरह के अद्वितीय 'नेतृत्वकारी गुणों' के कारण बिहार में राबड़ी देवी सत्ता में आती हैं, राज ठाकरे के सारे राजनैतिक अनुभव पर उद्धव ठाकरे को वरीयता दे दी जाती है और करुणानिधि को लगता है कि उनकी सभी पत्नियों से उत्पन्न संतानें केंद्र सरकार में महत्वपूण्र पद संभालने के लायक हैं। कल्याण सिंह भी यह मानते हैं कि उनके सुपुत्र राजवीर सिंह उर्फ राजू, जो कि 'किसी भी दल के सबसे युवा राष्ट्रीय अध्यक्ष' हैं, उत्तर प्रदेश की जनता के हितों की रक्षा करने के लिए सबसे सक्षम हैं।

भारत का भविष्य परिवारवाद और निजी हितों की बुनियाद पर खड़े क्षेत्रीय दलों में नहीं हो सकता। हालांकि कुछ वर्ष पहले इसी क्षेत्रीयता को वास्तविक राष्ट्रीयता माना गया था और तब यह दलील दी गई थी कि निचले स्तर से उठकर आने वाले नेता ही वास्तविक भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन इसके चलते यदि कोई साधु यादव, कोई अजय चौटाला, कोई डिम्पल यादव और कोई हेमंत सोरेन ही हमारे लोकतंत्र के भाग्यविधाता बनने का अधिक बड़ा अधिकार रखते हैं तो शायद क्षेत्रीयता को राष्ट्रीयता मानने वाली इस सोच में बड़ा खोट है। विचारधारा, योग्यता, लोकतंत्र और मूल्यों से दूर का रिश्ता रखने वाले ऐसे दलों से तो कांग्रेस, भाजपा और कम्युनिस्टों जैसे राष्ट्रीय दल ही अच्छे। माना कि उनमें भी तमाम कमजोरियां हैं और परिवारवाद तथा अवसरवाद से वे भी पूरी तरह मुक्त नहीं, मगर वे इधर या उधर, किसी विचारधारा पर तो टिकते हैं।
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- प्रभासाक्षी.कॉमः हिंदी समाचार पोर्टल
- वाहमीडिया मीडिया ब्लॉग
- लोकलाइजेशन लैब्सहिंदी में सूचना प्रौद्योगिकीय विकास
- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com