Monday, May 21, 2012

शाहरूख पर पाबंदी में इंसाफ जीता या अहँ

बेहतर होता कि वानखेड़े स्टेडियम का विवाद शाहरूख खान, एमसीए अधिकारियों और बीसीसीआई के स्तर पर ही सुलझ जाता। शाहरूख ने अच्छा नहीं किया, लेकिन निजी अहं के इस झगड़े में समस्या की तह तक जाए बिना फैसला करने और दूसरे पक्ष को अपनी बात कहने का मौका न देकर एमसीए ने भी कोई अच्छी मिसाल कायम नहीं की है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

अगर कोई आपके बच्चों के साथ बदतमीजी, छेड़छाड़ या हमला करे तो आप क्या करेंगे? क्या आप कोई भी प्रतिक्रिया किए बिना उनके विरुद्ध शिकायत करने की औपचारिकता पूरी करेंगे या फिर पहले मौके पर अपने विरोध का इजहार करेंगे? मुझे लगता है कि भले ही आप कितने भी शालीन और गरिमापूर्ण क्यों न हों, अगर बात आपके बच्चों की सुरक्षा या उनकी गरिमा की रक्षा से जुड़ी होगी तो आपका पहला कदम उन्हें बचाने और हमलावरों से निपटने का ही होगा। शिकायत बाद में आती है। शाहरूख खान, जिन पर नशे की हालत में मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम के स्टाफ और मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन के पदाधिकारियों से उलझने का आरोप है, को निशाना बनाने के लिए यही दलील दी जा रही है कि उन्होंने मौके पर मौजूद लोगों से बदसलूकी करने की बजाए शिकायत क्यों नहीं दर्ज की। केंद्रीय मंत्री तथा मुंबई क्रिकेट एशोसिएशन के प्रमुख विलास राव देशमुख तथा शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के विचार शायद ही किसी और मुद्दे पर इतने मिलते हों। लेकिन दोनों से यह प्रश्न पूछने को जरूर मन करता है कि ईश्वर न करे उनके साथ कोई शख्स हमलावर बर्ताव करता है तो क्या वे मौके पर प्रतिक्रिया करने की बजाए औपचारिक शिकायत तक का इंतजार करेंगे। शिवसेना प्रमुख के अनुयायी तो 'मौके पर इंसाफ' करने के लिए विख्यात हैं।

सोलह मई की रात को कोलकाता नाइटराइडर्स और मुंबई इंडियन्स के बीच मैच के बाद शाहरूख अपने बच्चों को स्टेडियम से घर लाने गए थे। उसी मौके पर पहले वानखेड़े स्टेडियम के सुरक्षा गार्डों से और फिर एमसीए अधिकारियों के साथ उनकी झड़प हुई। इस दौरान शाहरूख ने जैसा बर्ताव किया, उसे मीडिया में जमकर नकारात्मक पब्लिसिटी मिली है। जिन्होंने सिर्फ शाहरूख की प्रतिक्रिया देखी उनके मन में यह भावना आना स्वाभाविक है कि ये बॉलीवुड के अभिनेता अपने आपको समझते क्या हैं? क्या उन्हें आम नागरिकों के साथ बदसलूकी करने और अपना रुआब दिखाने का लाइसेंस हासिल है? शाहरूख का बर्ताव सचमुच ही अच्छा नहीं था। वे बहुत आक्रामक थे लेकिन यह आक्रामकता बेवजह तो नहीं हो सकती? जब तक दूसरे लोगों को इस आक्रामकता के पीछे की घटना का पता न हो तब तक उनके द्वारा निकाला गया कोई भी निष्कर्ष न्यायोचित नहीं हो सकता। यह ऐसा ही है जैसे कोई व्यक्ति मुझे गाली दे लेकिन कैमरों पर सिर्फ वही दृश्य रिकॉर्ड हो जब मैं उसका जवाब दे रहा होऊँ। शाहरूख के मामले में वही हुआ है जो फिल्मी सेलिब्रिटीज से जुड़े मामलों में हमेशा होता आया है। उन्हें अपनी बात कहने का मौका दिए बिना कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। अधूरी तसवीर के आधार पर फैसले सुनाए जा रहे हैं। माना कि सेलिब्रिटीज आम आदमी से ऊपर नहीं हैं, लेकिन वे आम आदमी से कम भी तो नहीं हैं। उन्हें अपने स्वाभाविक अधिकार से वंचित करना और महज आक्रामक भावनात्मकता के आधार पर दोषी ठहराना इस न्यायसंगत समाज की भावना के अनुरूप नहीं है।

ममता बनर्जी ने ठीक कहा है कि यह उतना बड़ा मामला नहीं है जितनी बड़ी सजा शाहरूख को दी जा रही है। क्या अपने बच्चों की हिफाजत करते हुए माता-पिता के साथ ऐसे झगड़े होना आम बात नहीं है? शाहरूख खान ने अगर अपने बच्चों के साथ बदसलूकी का विरोध किया होगा तो इस मुद्दे पर उनके झगड़े की शुरूआत एक या दो सुरक्षा गार्डों के साथ हुई होगी। बात आगे बढ़ी तो केकेआर के कुछ खिलाड़ी शाहरूख के साथ आए और कई सुरक्षा गार्ड, स्टे़डियम के कर्मचारी और एमसीए अधिकारी दूसरी तरफ जुट गए। अगर आप दोनों पक्षों के बीच हुए गाली-गलौज और बहस का ब्यौरा देखें तो इसमें शाहरूख अकेले दोषी दिखाई नहीं देते। हर झगड़े के दौरान ऐसा ही होता है। इस घटना में किसी शख्स को चोट नहीं आई, स्टेडियम की संपत्ति का नुकसान नहीं हुआ और दंगे जैसी घटना नहीं हुई। यह एक झगड़ा था और अंत में दोनों पक्षों के बीच सुलह भी हो गई थी, जैसा कि एमसीए के एक अधिकारी और शाहरूख खान के एक-दूसरे को गले लगाने की फोटो से जाहिर है। शाहरूख ने अगर पुलिस में या एमसीए से शिकायत नहीं की तो यह उनको दोषी सिद्ध नहीं करता। ज्यादातर लोग आपसी झगड़ों की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को पुलिस तक नहीं ले जाना चाहते, क्योंकि वे बात और आगे नहीं बढ़ाना चाहते। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे दोषी हैं।

'अपराध' कितना गंभीर?

मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन ने इस मामले को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। उसने इसे शाहरूख की तुलना में ज्यादा गंभीरता से लिया और उनके विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। वहाँ तक बात ठीक थी लेकिन उसने एकतरफा कार्रवाई कर बॉलीवुड अभिनेता तथा आईपीएल फ्रेंचाइजी के मालिक के पाँच साल तक वानखेड़े स्टेडियम में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाकर अति कर दी है। जिस तरह से यह प्रक्रिया पूरी की गई, उस पर कई सवाल खड़े होते हैं। पहली बात, दो पक्षों के बीच हुआ झगड़ा उनका व्यक्तिगत झगड़ा था, इसे संस्थागत रूप क्यों दिया गया। गार्डों और शाहरूख खान के झगड़े को एमसीए और शाहरूख खान का झगड़ा कैसे बना दिया गया? शाहरूख के विरुद्ध फैसला करते समय एमसीए ने अपने संस्थागत अधिकारों का इस्तेमाल किया है, जबकि मामला कुछ व्यक्तियों (इन्डीविजुअल्स) के बीच का था। उसे उन्हीं के स्तर पर सुलझाया जाना चाहिए था या फिर अधिक से अधिक पुलिस या अदालत के स्तर पर। यह फैसला भी एकतरफा ढंग से किया गया। विलासराव देशमुख का कहना है कि वे स्टेडियम के कर्मचारियों और गार्डों के बयानों पर विश्वास करते हैं। इंसाफ इस तरह नहीं होता। श्री देशमुख को उन पर कितना विश्वास है, वह उनका निजी मामला है। न्याय किसी के निजी विश्वास पर आधारित नहीं होता। वह समानता के सिद्धांत पर चलता है। शाहरूख खान का पक्ष सुने बिना उन पर प्रतिबंध लगाना एकतरफा, अनैतिक और मनमाना ही कहा जाएगा।

यह फैसला उसी तरह का बेतुका फैसला है जैसे शाहरूख खान कोलकाता नाइट राइडर्स की तरफ से एकतरफा फैसला करते हुए एमसीए के अधिकारियों को अपनी टीम के मैच देखने से प्रतिबंधित कर दें। शाहरूख एक बॉलीवुड सेलिब्रिटी ही नहीं बल्कि आईपीएल के फ्रेंचाइजी के मालिक भी हैं। जब उनके जैसे व्यक्ति तक का पक्ष नहीं सुना गया तो ऐसी संस्थाएँ आम लोगों के साथ क्या करेंगी। एमसीए ने अपना फैसला करते समय बहुत सी बातों को नजरंदाज किया है। एक फ्रेंचाइजी मालिक होने के नाते शाहरूख को किसी भी स्टेडियम में होने वाले अपनी टीम के मैच को देखने, उसकी निगरानी तथा समीक्षा करने का हक है। कई बार उसे मौके पर जरूरी फैसला करने या रणनीति तैयार करने की जरूरत पड़ सकती है। आईपीएल के दौरान एक आईपीएल फ्रेंचाइजी को अपनी टीम का मैच देखने से कैसे रोका जा सकता है, सिर्फ इसलिए कि कुछ दिन पहले उसका वहाँ के सुरक्षा गार्डों के साथ झगड़ा हुआ था। एमसीए अधिकारियों ने कहा है कि शाहरूख स्टेडियम में प्रवेश के लिए अधिमान्यता प्राप्त नहीं हैं। शाहरूख कोई सामान्य दर्शक नहीं हैं, वे आईपीएल फ्रेंचाइजी के मालिक हैं और आधिकारिक रूप से बीसीसीआई से जुड़े हुए हैं। बीसीसीआई को साफ करना चाहिए कि क्या उन्हें अपनी टीम के मैच के दौरान स्टेडियम में जाने के लिए किसी और अधिमान्यता की जरूरत है?

दायरे से बाहर जाने की कोशिश

शाहरूख ने यकीनन बहुत आक्रामक ढंग से प्रतिक्रिया की लेकिन इस तथ्य को भी नजरंदाज नहीं करना चाहिए कि उनके खिलाफ एमसीए के गार्डों, कर्मचारियों और अधिकारियों का भारी झुंड था। खुद विलासराव देशमुख ने माना है कि घटना के वक्त एमसीए के 50 फीसदी पदाधिकारी मौजूद थे। झगड़े के समय की बातचीत का ब्यौरा बताता है कि अगर यह अभिनेता अपशब्दों का इस्तेमाल कर रहा था तो दूसरी तरफ से बहुत सारे लोग उनके खिलाफ तरह-तरह की बातें कह रहे थे। दस-बीस लोगों के साथ किसी अकेले इंसान का वाक् युद्ध चल रहा हो तो उसकी प्रतिक्रिया का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। वाक् युद्ध के ब्यौरे में एक जगह पर शाहरूख कह रहे हैं कि "प्लीज सर.. दीज आर चिल्ड्रेन.. " यह स्पष्ट करता है कि वे अपने बच्चों को किसी की प्रतिक्रिया से सुरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक जगह वे यह भी कह रहे हैं कि "आई एम एन इंडियन एंड आई कैन गो टू एनी स्टेडियम।" उन्हें यह बात क्यों देनी पड़ी होगी, आप खुद ही सोचिए। कहा जाता है कि किसी ने उनकी भारतीयता पर सवाल उठाया था। कौन होगा जो ऐसा सुनकर आक्रामक प्रतिक्रिया नहीं करेगा? लेकिन यह समझ में नहीं आता कि वह अकेला व्यक्ति इतने सारे लोगों को प्रताड़ित करने का दोषी कैसे माना जा सकता है! ज्यादा से ज्यादा आप उस पर बदतमीजी का आरोप लगा सकते हैं। इस बात को भी काफी तूल दिया जा रहा है कि शाहरूख शराब पिए हुए थे। अगर ऐसा है तो नशे की हालत में होने वाले झगड़े को लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जाए? शायद इसलिए क्योंकि शाहरूख एक अभिनेता और आईपीएल फ्रेंचाइजी के मालिक हैं, जिनकी हर छोटी-बड़ी हरकत एक मसालेदार खबर बनने की गुंजाइश रखती है। लेकिन क्या वह किसी को पाँच साल के लिए प्रतिबंधित करने का आधार बन सकता है?

शाहरूख को सबक सिखाते समय मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन को शायद इस बात का भी ख्याल नहीं रहा कि वह अपने दायरे से भी बाहर जा रहा है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने उसके फैसले की पुष्टि नहीं की है। उसका कहना है कि एमसीए अपने स्तर पर ऐसा फैसला नहीं कर सकता, ज्यादा से ज्यादा वह इसकी सिफारिश कर सकता है। कारण? वानखेड़े स्टेडियम एमसीए की नहीं बल्कि बीसीसीआई संपत्ति है। स्टेडियम पर चल रहे आईपीएल के मैचों का आयोजक भी बीसीसीआई ही है। एमसीए सिर्फ स्टेडियम का प्रशासक है और किसी दूसरे की संपत्ति पर किसी को प्रतिबंधित करने का हक उसे नहीं है। बेहतर होता कि यह विवाद शाहरूख, एमसीए अधिकारियों और बीसीसीआई के स्तर पर ही सुलझ जाता। शाहरूख ने अच्छा नहीं किया, लेकिन निजी अहं के इस झगड़े में समस्या की तह तक जाए बिना फैसला करने और दूसरे पक्ष को अपनी बात कहने का मौका न देकर एमसीए ने भी कोई अच्छी मिसाल कायम नहीं की है।

Saturday, April 21, 2012

चीनी चुनौती तक ही क्यों रुके हमारी अग्निरेखा?

अग्नि एक निरंतर चलने वाला मिसाइल कार्यक्रम है इसलिए सरकार के सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भारत अपनी सुरक्षा तैयारियों को चीन की चुनौती खारिज करने तक सीमित रखे या हमें उससे आगे भी बढ़ना है। -बालेन्दु शर्मा दाधीच जनवरी 2007 में चीन ने धरती से साढ़े आठ सौ किलोमीटर दूर अपने एक पुराने और बेकार उपग्रह को मिसाइल के जरिए नष्ट कर दुनिया को थर्रा दिया था। यह जमीनी जंग को आसमान तक ले जाने की चीन की क्षमता का प्रदर्शन था। अमेरिका और रूस ने अपनी-अपनी 'स्टार वार्स' परियोजनाओं को बंद करके अंतरिक्ष को हथियारों की होड़ से मुक्त करने का जो संकल्प लिया था, उसे चीनी कार्रवाई ने एक विकराल धमाके के साथ भंग कर दिया था। यह विज्ञान को इस्तेमाल कर की गई फौजी कार्रवाई थी जिसके लक्ष्य राजनैतिक थे। चीन महाशक्ति घोषित कर दिए जाने की जल्दी में था। काल का पहिया एक बार फिर घूमा है। अंतर महाद्वीपीय अग्नि-5 मिसाइल के सफल परीक्षण ने भारत के लिए भी अंतरिक्ष-युद्ध की नई शक्ति बनने का रास्ता खोल दिया है। धरती के वातावरण से ऊपर करीब छह सौ किलोमीटर की ऊंचाई तक जाने वाली अग्नि ने आठ सौ किलोमीटर के उस लक्ष्य को हमारी पहुँच में ला दिया है, जो अपनी रक्षा जरूरतों के लिए उपग्रहों का इस्तेमाल करने और दूसरों के उपग्रहों को निशाना बनाने की बुनियादी जरूरत समझा जाता है। अग्नि-5 के परीक्षण से भारत लगभग आधी दुनिया को अपने सुरक्षा दायरे में लाने की स्थिति में आ रहा है। लेकिन अग्नि एक निरंतर चलने वाला मिसाइल कार्यक्रम है इसलिए सरकार के सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भारत अपनी सुरक्षा तैयारियों को चीन की चुनौती खारिज करने तक सीमित रखे या हमें उससे आगे भी बढ़ना है। चीन ने अग्नि-5 के परीक्षण पर किस्म-किस्म की प्रतिक्रियाओं के बीच इस मिसाइल के पीछे छिपी संभावनाओं को बिल्कुल ठीक महसूस किया है। उसने अमेरिका, रूस तथा यूरोप से आग्रह किया है कि वे भारत के मिसाइल कार्यक्रम को रुकवाने के लिए अपने असर का इस्तेमाल करें और संभव हो तो इसके लिए जरूरी कल-पुर्जों तथा तकनीक की सप्लाई का रास्ता रोकें। अहम बात यह है कि अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल अग्नि-5 में मूल रूप से भारत में ही विकसित टेक्नॉलॉजी का प्रयोग किया गया है। हो सकता है कि लंबी दूरी की मिसाइलों के युग में जाने के लिए भारत को विदेशी तकनीकों की जरूरत पड़े, लेकिन हमारे वैज्ञानिकों तथा तकनीशियनों ने सिद्ध कर दिया है कि ऐसा न भी हुआ तो वे अपने रास्ते पर खुद चलने में सक्षम हैं। हो सकता है कि प्रक्रिया थोड़ी और लंबी तथा समय-साध्य हो जाए। जब हम चांद पर उपग्रह भेज सकते हैं तो लंबी दूरी की मिसाइल भी तैयार कर सकते हैं और चाहें तो एंटी सैटेलाइट वेपन (एसैट) के क्षेत्र में भी कदम रख सकते हैं। सवाल उठता है कि क्या हमें ऐसा करना चाहिए? राजनैतिक और आर्थिक लिहाज से यह एक नाजुक सवाल है, जिसका सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही जवाब विश्व के राजनीतिक तथा सुरक्षा मानचित्र पर भारत का दर्जा परिभाषित करेंगे। परमाणु हथियारों के संदर्भ में हम कई दशकों तक इसी तरह की पसोपेश का सामना करते रहे हैं। भारत के बाद पाकिस्तान ने भी परमाणु विस्फोट कर स्थिति को उलझा दिया लेकिन आज विश्व राजनीति में भारत का दर्जा तीसरी दुनिया के किसी आम-फहम देश जैसा नहीं रह गया है। वह एक उभरती हुई विश्व शक्ति माना जा रहा है। अमेरिका तथा दूसरे देशों के साथ हुए परमाणु समझौतों ने प्रतिबंधों और यथास्थिति की बची-खुची दीवारों को भी तोड़ दिया है। अगर भारत अपने मिसाइल कार्यक्रम को आक्रामक रफ्तार से आगे बढ़ाना चाहता है तो संभवतः यह उसके लिए सर्वाधिक अनुकूल समय है। अमेरिका, रूस और यूरोप से हमारे संबंध बहुत अच्छे हैं। पूरब में हमने रिश्ते सुधारे हैं। यहाँ तक कि ईरान, म्यांमार जैसे जिन देशों से अमेरिका को समस्या रही है, उनके साथ भी हमारे रिश्तों में कोई अड़चन नहीं है। अग्नि-5 के परीक्षण पर दुनिया भर में हुई प्रतिक्रिया ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि चीन और पाकिस्तान के अलावा हमने कोई नए दुश्मन नहीं बनाए हैं। यहाँ तक कि भारत के नौसैनिक, परमाणु तथा अन्य सुरक्षा कार्यक्रमों पर तपाक से बयान जारी करने वाले ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने भी इस बार कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं की। क्या यह चीन के बरक्स उभरती हुई एक नई शक्ति के प्रति विश्व समुदाय की मौन स्वीकृति नहीं? नए दौर की चुनौतियाँ भारतीय मिसाइल कार्यक्रम के शिखऱ पुरुष वीके सारस्वत ने ठीक कहा है कि नए युग में सुरक्षा चुनौतियाँ भी नए किस्म की हैं। भले ही भारत का सुरक्षा कार्यक्रम चीन और पाकिस्तान के हमलों की स्थिति में आत्म-रक्षात्मक कवच को मजबूत करने पर आधारित है, लेकिन हम उपग्रहों का सैन्य इस्तेमाल किए जाने, हमारे उपग्रहों को मिसाइलों से नष्ट कर दिए जाने, अपनी मिसाइलों को मार्ग में ही ध्वस्त किए जाने (चीन के पास मिसाइलरोधी मिसाइल है) जैसी आशंकाओं को नजरंदाज नहीं कर सकते। परमाणु हथियारों और उन्हें ले जाने के लिए लंबी दूरी के भरोसेमंद डिलीवरी सिस्टम्स की मौजूदगी हमें डिटरेंट (हमलावर को हतोत्साहित करना) की क्षमता तो देती है, लेकिन दूसरी किस्म के आक्रमणों की आशंका से मुक्त नहीं करती। जैसे हमारे संचार तंत्र को नष्ट कर दिए जाने की आशंका। ऐसी स्थितियों में अग्नि की छोटी दूरी के अस्थायी उपग्रहों को स्थापित करने की क्षमता बहुमूल्य सिद्ध हो सकती है। थोड़ा फेरबदल करके उसे आक्रामक मिसाइलों को नष्ट करने वाली मिसाइल में भी बदला जा सकता है। लेकिन बड़ी बात यह है कि हम स्वयं भी हमलावर राष्ट्र के सैन्य उपग्रहों को निशाना बनाने की स्थिति में आ सकते हैं और यहाँ तक कि अपने उपग्रहों पर भी परमाणु-सम्पन्न मिसाइलें तैनात कर सकते हैं। युद्ध कला में आक्रमण को ही बचाव की सर्वश्रेष्ठ रणनीति माना जाता है। भारत को यदि अपनी सुरक्षा तैयारियों को डिटरेंट के स्तर तक ही सीमित रखना है तब भी उसे अंतरिक्षीय चुनौतियों को परास्त करने के लिए एक भरोसेमंद प्रणाली का विकास करना ही होगा। लंबी दूरी की अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें, जिनकी रेंज आठ हजार किलोमीटर से ज्यादा है, भी अब हमारी रेंज में दिखती है। चीन के कुछ हल्कों में तो यह आशंका ही जताई गई है कि अग्नि-5 की असल रेंज आठ हजार किलोमीटर ही है। चीनियों की मंशा यूरोपीय देशों को आशंकित करने की है, जिन्होंने अग्नि के प्रक्षेपण पर कोई नकारात्मक टिप्पणी नहीं की। वह भारत को यूरोपीय देशों के लिए संभावित चुनौती के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है। शायद इससे उसके राजनैतिक हित सधते हों। सवाल यह नहीं है कि अग्नि-5 की रेंज साढ़े पाँच हजार किलोमीटर ही है या आठ हजार किलोमीटर। सवाल यह है कि क्या हमें आठ हजार या उससे भी ज्यादा दूरी तक मार करने वाली मिसाइलों की जरूरत है? सैन्य लिहाज से तो शायद हमें इसकी कोई व्यावहारिक जरूरत कभी न पड़े, लेकिन राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में इस तरह का कदम बेकार नहीं जाएगा। वह हमें विश्व के सर्वाधिक शक्ति-सम्पन्न देशों की कतार में खड़ा कर सकता है। उस कतार में, जहाँ अभी इंग्लैंड और फ्रांस जैसे सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों की भी उपस्थिति नहीं है, यानी अमेरिका, रूस और चीन की श्रेणी में। कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसा करने के दूरगामी राजनैतिक, राजनयिक, सैन्य निहितार्थ होंगे। अग्नि 5 में छिपी संभावनाएँ दिखाती हैं कि हमें चीनी खतरे से आगे बढ़कर सोचना चाहिए। मनोवैज्ञानिक बढ़त की ओर लंबी दूरी की मिसाइलों के विकास या उपग्रहरोधी मिसाइल तंत्र की स्थापना का अर्थ यह नहीं है कि भारत किसी दूरस्थ देश के विरुद्ध उनका उपयोग करेगा ही। लेकिन जब आप शक्तिशाली होते हैं तो आपकी आवाज सुनी जाती है। आखिरकार अमेरिका, चीन और रूस ने परमाणु हथियारों का इतना जबरदस्त जखीरा क्यों खड़ा किया? स्टार वार्स कार्यक्रमों के जरिए अपनी ताकत क्यों दिखाई। आज भी अमेरिका के पास 8500 और रूस के पास 10,000 परमाणु हथियार मौजूद हैं, जबकि विश्व इतिहास में परमाणु बम के इस्तेमाल की सिर्फ एक ही मिसाल मिलती है। भविष्य में भी यदि किनाहीं राष्ट्रों के बीच परमाणु युद्ध हुआ तो उसमें दो-तीन से अधिक परमाणु हथियार शायद ही इस्तेमाल हों। फिर भी इन देशों ने हजारों परमाणु हथियार क्यों बनाए? अपने प्रतिद्वंद्वी पर मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने के लिए इस संख्या का प्रतीकात्मक महत्व है। ऐसे में, सुरक्षात्मक तथा शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही सही, भारत को अपने सुरक्षा तथा अंतरिक्ष कार्यक्रमों का विस्तार करना चाहिए। अग्नि के सफल प्रक्षेपण से भारत का न्यूक्लियर ट्रायड का उद्देश्य लगभग पूरा हो गया है। इस समय सिर्फ अमेरिका, रूस और चीन इस श्रेणी में आते हैं। ट्रायड से तात्पर्य किसी राष्ट्र द्वारा परमाणु हमले का शिकार होने की स्थिति में दूसरे माध्यमों से जवाबी कार्रवाई करने की क्षमता से है। इसके लिए तीन तरह की क्षमताएँ होना जरूरी है- एक टन से अधिक का परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (अग्नि-5), दूर तक परमाणु बम ले जाने मं सक्षम लड़ाकू विमान (मिराज और सुखोई) और पनडुब्बी से परमाणु हथियार दागने की क्षमता (आईएनएस चक्र)। इस परीक्षण से हमारे सुरक्षा इतिहास में यकीनन एक ऐसी अग्निरेखा खिंच गई है, जिसकी उपेक्षा करना किसी के लिए संभव नहीं होगा।

Friday, March 16, 2012

इस 'खुदकुशी' ने दिनेश त्रिवेदी को नेता बना दिया

दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में हमारे रेल मंत्री रेलवे की आर्थिक सेहत और ढांचागत विकास की बजाए लोकलुभावन घोषणाओं के लिए ज्यादा बेताब रहे हैं। दिनेश त्रिवेदी ने इस ढर्रे से आगे बढ़ने की कोशिश की है। उनके इस दावे को स्वीकार न करने का कोई कारण नहीं बनता कि उन्होंने अपने पद की तुलना में भारतीय रेल के हितों को तरजीह दी है। अफसोस कि गठबंधन राजनीति, स्वार्थी राजनैतिक दलों और अहंवादी राजनेताओं के युग में संतुलित और भविष्योन्मुखी बजट पेश करने का अंत श्री त्रिवेदी जैसा दुखद होता है।

-बालेन्दु शर्मा दाधीच

दिनेश त्रिवेदी ने अपने रेल बजट भाषण की शुरूआत में अपने पूर्ववर्तियों को, जिनमें लाल बहादुर शास्त्री भी शामिल थे, याद किया था। इस तुलना को देखकर विपक्षी सांसदों के चेहरों पर मुस्कुराहट थी लेकिन त्रिवेदी अडिग थे। जैसा कि बाद में दिन भर घटी घटनाओं से साफ हो गया, श्री त्रिवेदी 'शहीदी अंदाज' में अपने राजनैतिक जीवन का सबसे बड़ा कदम उठाने जा रहे थे। उन्होंने संयत अंदाज में पेश किए गए अपने लंबे बजट भाषण के दौरान बहुत से नए प्रशंसक बनाए होंगे, जिसके दर्जनों प्रावधान न सिर्फ उनके पूर्ववर्तियों- ममता बनर्जी और लालू प्रसाद यादव की बनाई लीक से हटकर थे बल्कि भारतीय रेलवे की समस्याओं, जरूरतों और भविष्य की तैयारी के प्रति उनकी अच्छी समझबूझ को भी जाहिर कर रहे थे। ऐसे समय पर, जबकि परिवहन के क्षेत्र में बाकी सभी सेवाओं के शुल्क तेजी से बढ़े हैं, रेलवे को बरस.दर.बरस किसी भी तरह की शुल्क वृद्धि से मुक्त रखना न तो व्यावहारिक हो सकता है और न ही सेहतमंद, खासकर तब जब वह लगातार भारी घाटा उठा रही हो। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे रेल मंत्री पारंपरिक रूप से रेलवे की आर्थिक सेहत या विकास की बजाए लोकलुभावन घोषणाओं के लिए ज्यादा बेताब रहे हैं। दिनेश त्रिवेदी के इस दावे को स्वीकार न करने का कोई कारण नहीं बनता कि उन्होंने अपने पद की तुलना में भारतीय रेल के हितों को तरजीह दी है। अफसोस कि गठबंधन राजनीति, स्वार्थी राजनैतिक दलों और अहंवादी राजनेताओं के युग में संतुलित और भविष्योन्मुखी बजट पेश करने का अंत श्री त्रिवेदी जैसा दुखद होता है।

कुछ दिन पहले तक दिनेश त्रिवेदी की छवि एक नामालूम से केंद्रीय मंत्री की थी जो बार-बार अपनी पार्टी अध्यक्ष द्वारा उपेक्षित किया जा रहा था। खबर थी कि दिल्ली से कोलकाता की एक फ्लाइट में ममता बनर्जी ने उन्हें पीछे की सीट पर भेज दिया था और मुकुल राय को अपने साथ बैठने को कहा था। कहा जाता है कि श्री त्रिवेदी की कुछ गतिविधियों से ममता बनर्जी खफा थीं। ये गतिविधियां क्या थीं? वे पिछले कुछ महीनों से राज्यों के दौरे कर वहां के मुख्यमंत्रियों से मुलाकात कर रहे थे और उनके राज्य की जरूरतों को समझने की कोशिश कर रहे थे। कोई केंद्रीय मंत्री अगर राज्य सरकारों के साथ समझबूझ कायम करने की कोशिश करता है तो शायद हर कोई इसे सराहेगा। लेकिन ममता बनर्जी नहीं, जो दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों की तरह किसी भी नेता को 'ढील' नहीं देना चाहतीं। हालांकि श्री त्रिवेदी की छवि किसी तेज-तर्रार मंत्री की नहीं रही, लेकिन ऐसा लगता है कि वे रेल मंत्री के रूप में अपनी जिम्मेदारी को काफी संजीदगी से ले रहे थे। शायद ममता बनर्जी की तुलना में कुछ ज्यादा ही, जिन्होंने लालू प्रसाद यादव के कायर्काल के दौरान भारी लाभ में चल रही रेलवे को घाटे, दूरंतो और कुछ लोकलुभावन वादों के सिवा ज्यादा कुछ नहीं दिया। दिनेश त्रिवेदी का बजट भाषण भी ममता बनर्जी की तुलना में बेहतर, संतुलित और संयमित था, जिसमें गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की पंक्तियों से लेकर कई शेरों और कविताओं को शामिल कर उन्होंने भाषा तथा अभिव्यक्ति पर ममता बनर्जी से बेहतर पकड़ का परिचय दिया। लेकिन जिस एक बात को शायद तृणमूल कांग्रेस पचा नहीं सकी, वह यह थी कि यह बजट भी ममता बनर्जी के पारंपरिक बजटों से कहीं बेहतर, ज्यादा व्यावहारिक और भविष्योन्मुखी था।

ममता बनर्जी की मांग पर जिन्हें रेल मंत्री बनना है, उन मुकुल राय से बहुत ज्यादा उम्मीद मत लगाइए। ये वही मुकुल राय है जिन्होंने एक ट्रेन हादसे के बाद प्रधानमंत्री द्वारा घटनास्थल पर पहुंचने का निदेर्श मिलने पर टका सा जवाब दिया था कि घटनास्थल को साफ किया जा चुका है और वहां जायजा लेने जैसी कोई जरूरत नहीं है। अलबत्ता, क्षेत्रीय क्षत्रपों की अल्पदृष्टि आधारित, 'सुरक्षित' राजनीति में ऐसे मंत्री ज्यादा अनुकूल समझे जाते हैं। याद कीजिए सुरेश प्रभु को, जिन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के जमाने में शिव सेना ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटवा दिया था जबकि नदियों को जोड़ने की परियोजना जैसे मामलों में उनकी भूमिका उत्कृष्ट रही थी। छोटे दलों के नेताओं को जरूरत से ज्यादा कायर्कुशलता दिखाना भारी पड़ जाता है। आपको दयानिधि मारन भी याद होंगे जिन्हें द्रमुक ने यूपीए.1 के दौरान केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटवाया था।

रेलवे को पटरी पर लाने की कोशिश

दिनेश त्रिवेदी के रेल बजट में नई रेलगाङ़ियों, नई रेलवे लाइनें बिछाने, दोहरीकरण और विद्युतीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ाने, ज्यादा माल ढुलाई और ज्यादा यात्रियों के लक्ष्य जैसे पारंपरिक फीचर तो हैं ही, लालू प्रसाद यादव की तरह बहुत नई जमीन न तोड़ते हुए भी कई किस्म की साहसिक और नई पहल की गई है। लालू प्रसाद यादव के कायर्काल को छोड़ दें तो भारतीय रेल अपना काम चलाने के लिए वित्त मंत्रालय की मेहरबानी पर ही निभ्रर रही है। ममता बनर्जी के कायर्काल में वह फिर से अपनी दयनीय स्थिति में लौट आई थी। लेकिन अब देश जिस किस्म की आर्िथक नीतियों पर चल रहा है, उनकी सफलता के लिए जरूरी है कि हर मंत्रालय आत्मनिभ्रर हो। वह न सिर्फ अपना खर्च खुद उठा सके, नए इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास कर सके बल्कि केंद्र सरकार को भी आर्िथक योगदान दे सके। उस लिहाज से लालू यादव के जमाने में रेलवे ने सही दिशा पकड़ी थी। दिनेश त्रिवेदी ने उसी दिशा को फिर से पकड़कर रेलवे को पटरी पर लाने का प्रयास किया है, हालांकि उनकी शैली लालू प्रसाद से अलग है।

रेल किराये बढ़ाने के मुद्दे पर ममता बनर्जी के पारंपरिक रुख से अवगत होते हुए भी उन्होंने सिर्फ धनी लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली श्रेणियों में ही नहीं बल्कि आम लोगों से जुड़ी श्रेणियों (जनरल डिब्बे और स्लीपर क्लास) के किरायों में भी मामूली बढ़ोत्तरी की है। मिसाल के तौर पर दिल्ली से पटना के बीच जनरल क्लास के किराए में कुल बीस रुपए की वृद्धि। किलोमीटर के लिहाज से जनरल डिब्बे में दो पैसे प्रति किलोमीटर और स्लीपर क्लास में पांच पैसे प्रति किलोमीटर की वृद्धि हुई है जिससे हम रेलयात्रियों को शायद कोई विशेष समस्या न हो लेकिन ममता बनर्जी को तकलीफ है जो खुद को गरीबों की मसीहा मानती हैं। बहरहाल, पार्टी में पीङ़ित और उपेक्षित श्री त्रिवेदी ने शायद अपनी 'राजनैतिक शहादत' से पहले लोकलुभावन कदमों की बजाए आर्थिक हालात के लिहाज से फैसले करना जरूरी समझा क्योंकि, उन्हीं के शब्दों में 'रेलवे को एअर इंडिया की दिशा में नहीं जाने दिया जाना चाहिए।'

रेल सुरक्षा और आधुनिकीकरण पर फोकस

श्री त्रिवेदी के रेल बजट में किराए बढ़ाकर करीब सात हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त राजस्व जुटाने की व्यवस्था की है। इस समय किरायों के मद पर रेलवे को करीब बीस हजार करोड़ रुपए का सालाना नुकसान हो रहा है। रेल मंत्रालय ने केंद्रीय बजट में 45 हजार करोड़ रुपए की मांग की थी लेकिन उसे 24 हजार करोड़ रुपए ही आवंटित किए गए हैं। ऐसे में उसे नए स्रोतों की तलाश, सरकारी और निजी भागीदारी और रेलवे की परिसंपित्तयों के व्यावसायिक दोहन के जरिए एक मजबूत वित्तीय मॉडल तैयार करने की जरूरत है। खासकर तब जब आप सचमुच रेलवे का आधुनिकीकरण करना चाहते हों। श्री त्रिवेदी ने डॉ॰ अनिल काकोदकर और सैम पित्रोदा समितियों द्वारा रेलवे के आधुनिकीकरण और सुरक्षा संबंधी सिफारिशों पर अमल की बात कही है। भारतीय रेलवे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने के लिए यह जरूरी है, लेकिन इन पर अमल का मतलब है अगले पांच साल में करीब दस लाख करोड़ रुपए का निवेश। सिर्फ वित्त मंत्री की उदारता पर निभ्रर रहकर इस किस्म का कायाकल्प संभव नहीं है। श्री त्रिवेदी को अहसास है कि रेलवे के कायाकल्प के लिए जिस किस्म के संसाधनों की जरूरत है, वे निजी क्षेत्र को साथ लिए बिना नहीं जुटाए जा सकते। इसी लिहाज से उन्होंने निजी क्षेत्र के साथ मिलकर रेलवे स्टेशनों के विकास और आधुनिकीकरण के लिए स्टेशन डेवलपमेंट कारपोरेशन की स्थापना का प्रावधान किया है, जिसका उद्योग जगत ने स्वागत किया है। इसके तहत अगले पांच साल में सौ प्रमुख रेलवे स्टेशनों का नए सिरे से विकास किया जाएगा।

रेल दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या के कारण रेलयात्री अपनी सुरक्षा को लेकर लंबे अरसे से आशंकित रहे हैं। सन 2002 से 2001 के बीच कुल मिलाकर 1406 रेल हादसे हो चुके हैं जिनमें एक हजार से ज्यादा लोगों की जान गई है। रेल हादसों की रोकथाम के लिए आधुनिक संचार प्रणालियों और उपकरणों की खरीद पर चर्चा तो कम से कम दो दशकों से हो रही है लेकिन जमीनी स्तर पर हालात बदलते नहीं दिखाई दे रहे। लेकिन इस बार किसी मंत्री ने इन हादसों को गंभीरता से लिया है। श्री त्रिवेदी ने सुरक्षा के लिहाज से ढांचागत सुधार के लिए आठ हजार करोड़ रुपए का आवटन किया है। अगले पांच साल के भीतर बिना फाटक वाले रेलवे क्रासिंग को खत्म करने, एक स्वतंत्र रेलवे सुरक्षा प्राधिकरण की स्थापना, रेलवे सिग्नलिंग सिस्टम के आधुनिकीकरण और उपग्रह आधारित रियल टाइम ट्रेन सूचना प्रणाली शुरू करने जैसे प्रावधान किए गए हैं। तीन हजार किलोमीटर की दूरी में ट्रेनों की भिड़ंत रोकने के लिए हाई.टेक रेलवे प्रोटेक्शन और वार्निंग सिस्टम लगाया जाने वाला है। रेलों और प्लेटफॉर्मों को साफ.सुथरा बनाना भी भले ही छोटा सा काम प्रतीत हो लेकिन यात्रियों की सेहत के लिहाज उसकी अहमियत में कोई संदेह नहीं है। दिनेश त्रिवेदी से ऐसी उम्मीद नहीं थी। कुछ तो उनके राजनैतिक दल के कारण और कुछ उनकी निष्क्रिय सी छवि के कारण भी। लेकिन उन्होंने सबको चौंका दिया है। न सिर्फ रेलवे के बारे में अपनी समझ से, बल्कि अपने विभाग की खातिर राजनैतिक आत्महत्या के लिए तैयार होकर भी। उन्हें यकीनन याद किया जाएगा।

(जागरण में प्रकाशित)

Tuesday, January 31, 2012

सुप्रीम कोर्ट में सेनाध्यक्ष

भले ही आप जनरल वीके सिंह के नजरिए से सहमत हों या नहीं, भारत के थलसेनाध्यक्ष होने के साथ.साथ वे एक सामान्य नागरिक भी हैं, जिसे अदालत की शरण में जाने का पूरा अधिकार प्राप्त है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

अपनी आयु के विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट की शरण में जाने के जनरल वीके सिंह के 'अप्रत्याशित' कदम ने सेना और सरकार दोनों को झकझोर दिया है। देश के शीर्ष जनरल होने के नाते जनरल सिंह इस बात से बेखबर नहीं होंगे कि उनके जैसे दजेर् के व्यक्ति द्वारा केंद्र सरकार को अदालत में खींचने के नतीजे दूरगामी होंगे. न सिर्फ सेना तथा सरकार के संबंधों के संदर्भ में, बल्कि उनके निजी कैरियर के लिहाज से भी। सुप्रीम कोर्ट में मामला सुनवाई के लिए आए इससे पहले जनरल सिंह को मीडिया तथा आम लोगों की स्क्रूटिनी का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें प्रतिष्ठान विरोधी दुस्साहस, सेना की गौरवशाली परंपरा को तोड़ने और निजी नैतिकता से विचलित होने का दोषी ठहराया जा रहा है। उन्हें इन कसौटियों पर कसते समय भी किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के थलसेनाध्यक्ष होने के साथ.साथ वे एक सामान्य नागरिक भी हैं, जिसे अदालत की शरण में जाने का पूरा अधिकार प्राप्त है। कुछ कनिष्ठ अधिकारी तो पहले भी अदालत जाते रहे हैं। अपने हक़ का इस्तेमाल करने के लिए उनकी सिर्फ इस आधार पर निंदा नहीं की जानी चाहिए कि पहले किसी जनरल ने ऐसा नहीं किया। परंपराएं आसमान से नहीं टपकतीं, बनाई जाती हैं।

जनरल सिंह का दावा है कि वे सेनाध्यक्ष के रूप में अपना कायर्काल एक और साल बढ़वाने के लिए यह सब नहीं कर रहे हैं। आयु का विवाद उनके लिए व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का सवाल है जिसे सही अंजाम तक पहुंचाना वे जरूरी समझते हैं। हाल तक ज्यादातर लोगों के बीच यही धारणा थी कि सेना में सर्वोच्च पद पर पहुंचने के बाद उनके मन में कोई और महत्वाकांक्षा बाकी नहीं रह जानी चाहिए तथा जो व्यक्ति शीर्ष पद तक पहुंच गया हो वह अपने साथ नाइंसाफी की शिकायत भला कैसे कर सकता है। जनरल सिंह के कैरियर ग्राफ को देखते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि उन्हें केंद्र सरकार या रक्षा मंत्रालय के स्तर पर कोई पक्षपात झेलना पड़ा होगा। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सारे मामले में रक्षा मंत्री एके एंटनी का आचरण भी बहुत शालीन तथा गरिमापूर्ण रहा है। वे जनरल के विरुद्ध या इस विवाद पर सावर्जनिक रूप से ऐसी कोई भी टिप्पणी करने से बचे हैं, जो सेना या उसके प्रमुख की गरिमा को किसी तरह की ठेस पहुंचाती हो। किंतु यदि जनरल सिंह आयु संबंधी विवाद का समाधान पाने के लिए सर्वोच्च अदालत तक पहुंचे हैं तो इस 'छोटे से मुद्दे' पर उनकी गंभीरता तथा उनके दावे की मजबूती पर संदेह नहीं रह जाना चाहिए।

हालांकि सरकार, मीडिया या किसी और हल्के में जनरल सिंह की सत्यनिष्ठा पर उंगली नहीं उठाई गई है, लेकिन इस मुद्दे पर आम लोगों के बीच जानकारी का अभाव है। बहुत से लोग यह धारणा बनाकर चल रहे हैं कि शायद यह (जनरल सिंह द्वारा) दस्तावेजों में जन्म तिथि बदल दिए जाने संबंधी विवाद है। वास्तव में ऐसा नहीं है। जन्मतिथि में बदलाव जनरल सिंह के स्तर पर नहीं किया गया बल्कि वह प्रशासनिक स्तर पर हुई तकनीकी चूक का परिणाम है जिसका नतीजा उन्हें भोगना पड़ रहा है। आम तौर पर सेना सरकारी तंत्र के साथ होने वाले ऐसे किसी भी विवाद को सावर्जनिक रूप से उठाने से बचती आई है क्योंकि सरकार और ब्यूरोक्रेसी की बुनियादी रुचि यथास्थिति को बनाए रखने में ज्यादा होती है। जनरल सिंह से भी इसी परिपाटी को आगे बढ़ाने की उम्मीद लगाई जा रही थी लेकिन शायद अपनी छवि को अप्रभावित रखने, अपनी सत्यनिष्ठा सिद्ध करने या फिर किसी और वजह से उन्होंने सरकार के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट की शरण लेने का फैसला किया जो अपने आप में एक नई नजीर कायम करेगा। जनरल सिंह ने अनेक बार कहा है कि उनके इस कदम को इस रूप में न देखा जाए कि वे सेनाध्यक्ष पद पर एक और साल बने रहने के लिए बेताब हैं। वैसे भी सरकार के साथ अविश्वास के संबंध पैदा होने के बाद वे देश के सेनाध्यक्ष के रूप में शायद ज्यादा लंबे समय तक न चल पाएं, भले ही आयु संबंधी विवाद पर अदालती फैसला उनके पक्ष में ही क्यों नहीं आता।

नैतिकता और बुनियादी मुद्दा

यदि जनरल सिंह खुद को 'प्रताङ़ित' महसूस कर रहे हैं तो सरकार भी उनके ताजा फैसले से कम आहत नहीं है। शायद इसीलिए उसने इस मामले में अपना पक्ष मजबूती के साथ रखने का फैसला किया और जनरल सिंह के साथ किसी किस्म की सुलह.सफाई में दिलचस्पी नहीं दिखाई। अच्छा होता कि हालात इस हद तक पहुंचते ही नहीं और सेना तथा अफसरशाही के स्तर पर ही इसका समाधान खोज लिया जाता। लेकिन अब बात सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है तो इस पर दोनों तरफ से दलीलें और प्रति-दलीलें दी जानी तय हैं। सरकारी पक्ष जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दे रहा है वह यह है कि जनरल सिंह ने पिछले तीन.चार साल के भीतर तीन बार लिखित रूप में इस बात का भरोसा दिलाया है कि वे 10 मई 1950 को ही अपनी जन्मतिथि के रूप में स्वीकार करने को तैयार हैं, जैसा कि सेना के दस्तावेजों में दर्ज है। उन्होंने अपनी पदोन्नतियों के समय ये लिखित वायदे किए थे, जिनमें सन 2008 में सैन्य कमांडर और 2010 में थलसेनाध्यक्ष के रूप में उनकी पदोन्नति का मौका शामिल है। सरकारी रुख नैतिकता पर आधारित है और यह उम्मीद करता है कि जनरल सिंह अपने वायदे पर कायम रहेंगे, और सेना के सर्वोच्च अधिकारी से इस किस्म की आशा लगाना अनुचित भी नहीं है। लेकिन दूसरी ओर, नैतिकता एक व्यक्ति.सापेक्ष अवधारणा है। वह किसी पर थोपी नहीं जा सकती।

ंसरकार का रुख भले ही नैतिकता की दृष्टि से कितना भी उचित हो, सुप्रीम कोर्ट में शायद ही टिक पाए क्योंकि अदालत को जनरल सिंह के वायदे पर फैसला नहीं देना बल्कि मामले के गुण-दोष पर टिप्पणी करनी है। उसे बस इस तथ्य का फैसला करना है कि उनकी जन्मतिथि है क्या। वह प्रशासनिक मामलों में दखल शायद ही करना चाहे। जनरल सिंह के पास अपनी जन्मतिथि को कानूनी रूप से 10 मई 1951 सिद्ध करने के लिए पयरप्त शैक्षणिक तथा अन्य दस्तावेज मौजूद हैं। सरकार की दूसरी दलील यह है कि उसने इस मामले पर एटार्नी जनरल से राय ली थी जो जनरल सिंह के पक्ष में नहीं थी। बकौल सरकार, वह इस राय को मानने के लिए बाध्य है। हालांकि इस बीच सुप्रीम कोर्ट के चार पूवर् मुख्य न्यायाधीशों ने कहा है कि सरकार के सामने ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ऐसी किसी राय से प्रभावित होने वाला नहीं है लेकिन इससे जनरल सिंह का पक्ष मजबूत तो हुआ ही है। इन न्यायाधीशों ने एटार्नी जनरल द्वारा दिए गए मशविरे की मेरिट (गुण-दोष) पर भी सवाल उठाया है।

प्रशासनिक जटिलताएं

कुछ खबरों में इस मसले के इस तरह उठ खड़े होने को सेना की आंतरिक राजनीति का नतीजा भी बताया गया है। इशारा स्वाभाविक रूप से इस ओर है कि शायद सैन्य नेतृत्व का एक वर्ग जनरल सिंह के रिटायर होने पर कुछ खास अधिकारियों के शीर्ष स्थिति में आने की संभावना को लेकर सहज महसूस नहीं कर रहा है। दूसरी ओर रक्षा मंत्रालय पर उन जनरलों द्वारा दबाव पड़ रहा है, जिनकी पदोन्नति की संभावना जनरल सिंह के इस पद पर बने रहने से प्रभावित होने वाली है। अगर जनरल वीके सिंह की जन्मतिथि का वर्ष 1951 माना जाता है तो वे इस साल 31 मई के स्थान पर अगले साल 13 मार्च को रिटायर होंगे। इस बीच पूर्वी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह, जिन्हें जनरल सिंह का स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जा रहा है, रिटायर हो जाएंगे। एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी जीवन भर जिस उपलब्धि का इंतजार करता है, उससे किसी तकनीकी कारण से वंचित हो जाए, यह कोई आदर्श स्थिति नहीं होगी। कई अन्य सेनाधिकारी भी इसी श्रेणी में होंगे। जाहिर है, मामला सिर्फ जनरल सिंह के कायर्काल का नहीं बल्कि कई अन्य जटिलताओं तथा प्रशासनिक गुत्थियों से जुड़ा है। सारे विवाद का एक संभावित हल यह हो सकता है कि जनरल सिंह को 'पदोन्नत कर' तीनों सेनाध्यक्षों की समिति का प्रमुख नियुक्त कर दिया जाए। सरकार ने शायद इस संभावना पर गौर भी किया था।

सारे घटनाक्रम का एक पहलू यह भी है कि सेना में बहुत से अधिकारी यह महसूस करते हैं कि नागरिक अफसरशाही द्वारा उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता। उन्हें पयरप्त सम्मान व महत्व नहीं दिया जाता। उस लिहाज से बहुत से सैन्य अधिकारियों के लिए जनरल सिंह के अदालत जाने का प्रतीकात्मक महत्व भी है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला जनरल सिंह के समर्थन में होता है तो वह एक तरह से इस वर्ग की निगाह में सेना के गौरव को पुनप्रर्तिष्ठित करेगा। यदि नागरिक अफसरशाही वाकई हमारे वीरोचित सेनाधिकारियों को 'कैजुअल' तरीके से लेती है तो वह दुभ्राग्यपूण्र है। जनरल सिंह के बारे में कहा जाता है कि न सिर्फ उनका कायर्काल गौरवशाली और निर्विवाद रहा है बल्कि भ्रष्टाचार के मामले में वे बहुत कठोर रुख भी लेते रहे हैं। उनके सेनाध्यक्ष बनने पर हमारे सैन्य ढांचे को ज्यादा चुस्त-दुरुस्त बनाने, उसका आधुनिकीकरण किए जाने और भ्रष्टाचार से मुक्त बनाने के बारे में उम्मीदें बंधी थीं। नए युग में भारत की बढ़ती भूमिका के मद्देनजर थल सेना पर क्या जिम्मेदारियां हैं और कैसे वह खुद को बदलते परिवेश के अनुरूप ढाल सकती है, इस बारे में वे न सिर्फ सजग हैं बल्कि प्रयास भी करते रहे हैं। दूसरी ओर एके एंटनी ने भी ऐसे रक्षा मंत्री के रूप में छाप छोड़ी है जो किसी विवाद में पड़े बिना, एकमेव संकल्प के साथ अपने दाियत्व निभाने में लगे हुए हैं। हमारे रक्षा प्रतिष्ठान के शीर्ष पर दो अच्छे तथा काबिल लोगों के साहचयर् का समापन ऐसे अिप्रय विवाद में हो, यह दुभ्राग्यपूण्र ही कहा जाएगा। बेहतर हो कि अब भी सरकार और थलसेनाध्यक्ष इस मामले का ऐसा हल निकाल लें जो न सिर्फ दोनों पक्षों को स्वीकायर् हो, बल्कि उनकी प्रतिष्ठा के भी अनुकूल हो।

Saturday, December 3, 2011

लोकतंत्र इंतजार करो, संसद में हंगामा जारी है

एफडीआई पर हंगामे के शोर में लोकपाल का मुद्दा अखबारों की छोटी खबर बन गया है। सरकार को विधेयक पास न होने का एक अच्छा कारण मिल गया है। जब संसद सत्र ही नहीं हो पा रहा तो विधेयक पास कैसे कराया जाए?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

एक बार फिर संसद सत्र में हंगामे का बोलबाला है। बाईस नवंबर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र में हर दिन नियम से हंगामा होता है और दोनों सदनों की कार्यवाही टल जाती है, फिर से वही प्रक्रिया दोहराए जाने के लिए। कभी बांग्लादेश इसके लिए मशहूर हुआ करता था जहां विपक्षी दलों के बरसों लंबे बायकाट के कारण संसदीय साख में भारी गिरावट आई। संसदीय कायर्वाही में व्यवधान और स्थगन अब भारत में भी आश्चर्य का विषय नहीं रहा। बल्कि वह एक नज़ीर बनता जा रहा है। संसद सत्र पर हर घंटे खर्च होने वाली 25 लाख रुपए की रकम प्रासंगिक नहीं रह गई है। न ही जरूरी विधेयकों का पारित होना या न होना। ऐसा लगता है कि दोनों पक्ष जोर.जोर से अपनी बात सुनाने के लिए संसद का इस्तेमाल कर रहे हैं। धरनों, प्रदर्शनों, बंद, हड़तालों, बहसों और चर्चाओं की तुलना में संसदीय हंगामा अपनी पसंद के मुद्दों की ओर ध्यान खींचने का आसान जरिया बन रहा है। नतीजे में संसदीय परंपराओं तथा गरिमाओं का क्षरण हो रहा है।

संसदीय कायर्वाही के आंकड़े निराशाजनक हैं। सन 2009 में शुरू हुई पंद्रहवीं लोकसभा में 200 प्रस्तावित विधेयकों में से अब तक सिर्फ 57 विधेयक पारित हो सके हैं। इनमें भी 17 फीसदी विधेयक ऐसे थे जिन पर पांच मिनट से भी कम समय के लिए चर्चा हुई। ऐसी चर्चाओं की सार्थकता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। इस बार के संसद के मौजूदा सत्र में 21 बैठकें होनी थीं मगर एक तिहाई सत्र का घटनाक्रम देखते हुए आगे बचे दिनों से भी विशेष उम्मीद नहीं पालनी चाहिए। इस बीच 31 विधेयकों के पारित होने और लोकपाल विधेयक समेत 23 बिलों को पेश किए जाने की संसदीय प्रक्रिया हालात संभलने का इंतजार कर रही है।

हंगामा जरूरी या चर्चा

संसद को चलने दिया जाना चाहिए, क्योंकि राष्ट्र हित के मुद्दों को उठाने तथा उन पर सार्थक निर्णय करने और करवाने का वही मंच है। विधानसभाओं के सत्र तो वैसे ही राज्य सरकारों की राजनैतिक सुविधा-असुविधा पर आश्रित होकर निरंतर छोटे से छोटे होते जा रहे हैं। ले-देकर केंद्र में प्राय: समय पर संसदीय सत्रों का आयोजन होता है तो वह हंगामों की भेंट चढ़ जाता है। इससे वास्तव में किसी का नुकसान होता है तो हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का। सरकार तो अपने कार्यों को वैकल्पिक माध्यमों से भी पूरा कर लेती है। बेहतर यह हो कि भ्रष्टाचार, महंगाई, लोकपाल, नए राज्यों की स्थापना और ऐसे ही दूसरे महत्वपूण्र मुद्दों पर हंगामे की बजाए चर्चा हो। गतिरोध रास्ता रोकता है, उसे आगे नहीं बढ़ाता। किंतु पिछले तीन सत्रों के दौरान यदि संसद का सवरधिक समय किसी प्रक्रिया में व्यतीत हुआ तो वह थी. गतिरोध। इसके लिए किसी भी पक्ष को एकतरफा तौर पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह हमारे राजनैतिक तंत्र की समस्या बन चुकी है।

आज राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक और वामपंथी दलों ने जो रणनीति अपनाई है, वही राजग शासनकाल में कांग्रेस की रणनीति हुआ करती थी। पूवर् रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज के विरुद्ध लगे आरोपों को लेकर संसद में लंबे समय तक इसी तरह का गतिरोध पैदा किया गया। आज राजग ने पी चिदंबरम को संसद में न बोलने देने का निण्रय लिया है तो तब कांग्रेस जॉर्ज के साथ ऐसा ही करती थी। जब वे बोलने खड़े होते थे तो हंगामा होता था और कांग्रेसी सांसद सदन छोड़कर चले जाते थे। मुद्दे भी एक से हैं और परिस्थितियां भी एक सी। बस किरदार बदल गए हैं।

सरकार को राहत?

कई बार लगता है कि विपक्ष जिस हंगामे को अपनी बात पर जोर डालने का जरिया मान रहा है, वह सत्तारूढ़ दल के लिए कहीं अधिक अनुकूल सिद्ध हो रहा है। संप्रग सरकार 2जी घोटाले, महंगाई, भ्रष्टाचार, लोकपाल विधेयक, तेलंगाना की स्थापना और उत्तर प्रदेश के विभाजन की मांगें और मंदी की आशंका जैसे मुद्दों पर घिरी हुई है। यदि संसद चलती तो ऐसे मुद्दों पर विपक्ष के हमले अवश्यंभावी थे। अन्ना हजारे दोबारा दिल्ली में अनशन पर बैठने की घोषणा कर चुके हैं। अनशन की अवधि उतनी प्रासंगिक नहीं है जितना कि उसका प्रभाव। सुब्रह्मण्यम स्वामी दूरसंचार घोटाले से जुड़े विवादों में गृह मंत्री पी चिदंबरम की भूमिका का पर्दाफाश करने का 'प्रण' लेकर बैठे हैं। पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा के बयानों और सरकारी दस्तावेजों तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करने के अदालती आदेश ने उनका काम आसान कर दिया है। सरकार कई मुद्दों पर जवाब देने की स्थिति में नहीं है। संसद चलता तो उसकी स्थिति कोई बहुत सुविधाजनक नहीं होने वाली थी।

लेकिन भला हो खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश संबंधी फैसले का, जिसने यह सुनिश्चित कर दिया कि संसद चलेगी ही नहीं। यहां हम इस फैसले के गुणदोष पर चर्चा नहीं कर रहे क्योंकि उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के इतने साल बाद यह फैसला तो स्वाभाविक ही था, लेकिन मुद्दा इसकी टाइमिंग का है। इसकी घोषणा ऐन संसद सत्र के मौके पर किया जाना सिर्फ विपक्षी एकता को मजबूत करने वाला कदम मात्र नहीं है। यह एक चतुराई भरा राजनैतिक फैसला भी है। यह निण्रय अनायास नहीं हुआ होगा कि संसद सत्र के दौरान इसकी घोषणा सदन से बाहर की जाए। सरकार को इस पर संभावित विपक्षी प्रतिक्रिया का भली भांति अहसास रहा होगा। अब भले ही अन्ना हजारे कहते रहें कि शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक पारित न होने पर वे राष्ट्रव्यापी आंदोलन में जुट जाएंगे। एफडीआई पर हंगामे के शोर में लोकपाल का मुद्दा अखबारों की छोटी खबर बन गया है। सरकार को विधेयक पास न होने का एक अच्छा कारण मिल गया है। जब संसद सत्र ही नहीं हो पा रहा तो विधेयक पास कैसे कराया जाए? न महंगाई, न भ्रष्टाचार और न काला धन। कम से कम उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों तक उसे इन आक्रामक मुद्दों से कन्नी काटने का मौका मिल गया है।
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- प्रभासाक्षी.कॉमः हिंदी समाचार पोर्टल
- वाहमीडिया मीडिया ब्लॉग
- लोकलाइजेशन लैब्सहिंदी में सूचना प्रौद्योगिकीय विकास
- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com