Saturday, August 30, 2008

क्या नए जमाने में प्रासंगिक हैं वाम दलों के विचार?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

भारत में जब राजीव गांधी के समय में दफ्तरों में कंप्यूटरों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया गया तो वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने इसका जमकर विरोध किया था। फिर उदारीकरण, निजीकरण, परमाणु करार और अब बंद विरोधियों का विरोध। क्या वामपंथी दल विकास के नए जमाने के साथ तालमेल रखने की स्थिति में हैं?

कम्युनिस्ट दलों की विचारधारा में जन-आक्रोश की अभिव्यक्ति और कर्मचारी हितों की सुरक्षा अहम है लेकिन इनका कहां और किस अवस्था में इस्तेमाल हो, उस पर किसी किस्म के सोच-विचार के लिए वे तैयार क्यों नही हैं? हमारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने सोमनाथ चटर्जी के मामले में सिद्ध किया था कि आंखों पर बंधी विचारधारा और निरंकुश अनुशासन की पट्टी उन्हें जमीनी वास्तविकताओं को देखने नहीं दे रही। वैचारिक और सैद्धांतिक रट्टा लगाते कामरेडों को बदलता हुआ देश, बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था, उभरते हुए युवा, विकासमान देश की नई जरूरतें नजर नहीं आतीं। वे बुद्धदेव भट्टाचार्य के बंद विरोधी बयान को कोसने में जुटे हुए हैं और उन कारणों का विवेचन करने को तैयार नहीं हैं जिनकी वजह से श्री भट्टाचार्य ने यह बयान दिया। आखिर क्या कारण है कि कम्युनिस्ट नेता बार-बार विकास और तरक्की के विपरीत ध्रुव पर खड़े हो जाते हैं? अपने बयानों के जरिए वे रतन टाटा जैसे उद्योगपतियों को हतोत्साहित कर रहे हैं। इस मामले में वे अपनी प्रतिद्वंद्वी ममता बनर्जी के साथ खड़े दिख रहे हैं। इसका पश्चिम बंगाल के आर्थिक स्वास्थ्य पर ऐसा दुष्प्रभाव पड़ सकता है जिसकी मरम्मत करने में एकाध दशक बर्बाद हो जाएगा।



भारत में जब राजीव गांधी के समय में दफ्तरों में कंप्यूटरों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया गया तो वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने इसका जमकर विरोध किया था। उन्होंने इसे कर्मचारी हितों के विरुद्ध बताया था और कहा था कि इससे बड़ी संख्या में लोग नौकरियां खो बैठेंगे। लेकिन कंप्यूटर आए और उन्होंने नौकरियां खत्म करने की बजाए नई किस्म की नौकरियों का सृजन किया। सरकारी उपक्रमों, बैंकों आदि के निजीकरण की प्रक्रिया को भी वामपंथी दलों और उनके मजदूर संगठनों के जबरदस्त आक्रोश का सामना करना पड़ा है लेकिन जिन संस्थानों का आंशिक, अर्ध या पूर्ण निजीकरण हुआ वे और उनके कर्मचारी आज पहले से बेहतर स्थिति में हैं। उन्होंने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का समर्थन करते हुए बैंक सुधार, श्रमिक सुधार, भूमि सुधार, विदेशी निवेश जैसी कितनी ही जरूरी प्रक्रियाओं को ठंडे बस्ते से बाहर नहीं आने दिया, यह सोचे बिना कि आधे-अधूरे ढंग से किए गए आर्थिक सुधारों का जोखिम लेना आज के समय में हमारे लिए ठीक नहीं है। साम्यवादी दलों ने इसी तर्ज पर भारत-अमेरिका परमाणु करार का भी विरोध किया और सरकार गिराने तक के लिए तैयार हो गए। अब उन्होंने अपने ही मुख्यमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, इसलिए कि वे अपने राज्य को उत्पादकता वाला राज्य बनाना चाहते हैं, उसे आर्थिक विकास की मिसाल बनाना चाहते हैं और उन्होंने पहली बार उसे बंद, हड़तालों आदि के अवरोधकारी प्रभावों से बचाने की पहल की है।

श्री भट्टाचार्य को इस बात का अहसास रहा होगा कि पार्टी के पारंपरिक अस्त्रों के विरुद्ध बयान देकर वे एक बड़ा राजनैतिक जोखिम मोल ले रहे हैं लेकिन फिर भी उन्होंने कहा- ``मैं बंद के खिलाफ हूं। दुर्भाग्य से मैं एक ऐसे राजनैतिक दल से संबंद्ध हूं जो बंद का आयोजन करता रहा है। मैं अब तक चुप रहा लेकिन अब मैं चुप नहीं रहूंगा। घेराव अवैध और अनैतिक हैं। यह शब्द अंग्रेजी भाषा को हमारा योगदान है। अब से राज्य में इसकी अनुमति नहीं दी जाएगी।`` श्री भट्टाचार्य ने आज जो किया है उसे उनके पूर्ववर्तियों को बहुत पहले कर देना चाहिए था। उन्होंने यह बयान देकर दशकों पुरानी परिस्थितियों में गढ़ी गई विचारधारा के सामने खड़े होने हिम्मत दिखाई है जिसकी दाद दी जानी चाहिए। उन्होंने अपने आपको एक प्रगतिशील, विकास-पसंद राजनेता के रूप में पेश करने की कोशिश की है। ऐसे नेताओं की देश को जरूरत है। भले ही वाम दलों का नेतृत्व उनके सकारात्मक बयान को विद्रोह के चश्मे से देखने की कोशिश करता रहे, भले ही वह बदलते वक्त की नजाकत को समझे या नहीं, मगर इस देश के आम आदमी को अहसास है कि कौन सही है और कौन गलत।

Friday, August 29, 2008

बंद को तो बीसवीं सदी में ही छोड़ आना चाहिए था

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

कभी जातिवादी समूह, कभी क्षेत्रवादी गुट, कभी राजनैतिक दल, कभी सांप्रदायिक तत्व और कभी अलगाववादी तक बंद, धरनों-प्रदर्शनों, जुलूसों और हड़ताल का इस्तेमाल अपनी मनमानी मांगें मनवाने के लिए करते हैं और ऐसी हर एक गतिविधि हमारे देश की राजनैतिक-सामाजिक स्थिरता को प्रभावित करने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को सैंकड़ों करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचा देती है।

वामपंथी दल, खास कर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, ने बंद, हड़तालों आदि के बारे में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के व्यावहारिक एवं सकारात्मक बयान पर जिस तरह की प्रतिक्रिया की है वह 1970 के दशक के ज्यादा अनुकूल है। अपने विचारों और आक्रोश को अभिव्यक्त करने की जो आजादी हमारे लोकतंत्र में निहित है वह उसकी विलक्षण विशेषता तो है लेकिन क्या उस आजादी का इस्तेमाल सही ढंग से और सही उद्देश्यों के लिए किया जाता है? कभी जातिवादी समूह, कभी क्षेत्रवादी गुट, कभी राजनैतिक दल, कभी सांप्रदायिक तत्व और कभी अलगाववादी तक बंद, धरनों-प्रदर्शनों, जुलूसों और हड़ताल का इस्तेमाल अपनी मनमानी मांगें मनवाने के लिए करते हैं और ऐसी हर एक गतिविधि हमारे देश की राजनैतिक-सामाजिक स्थिरता को प्रभावित करने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को सैंकड़ों करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचा देती है। ऐसे समय पर, जबकि देश सब कुछ दांव पर लगाकर आर्थिक सुधारों और उत्पादकता के मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, हमें बंद और हड़तालों जैसे अवरोधों के औचित्य पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। बीसवीं सदी के इन तौर-तरीकों की क्या आज भी जरूरत है?



बंद और हिंसक प्रदर्शनों से देश को कितना नुकसान होता है उसका अनुमान दिल्ली में सीलिंग के दिनों में व्यापारी संगठनों की ओर से आयोजित तीन दिवसीय बंद से लगाया जा सकता है जब देश को पंद्रह सौ करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। दिल्ली जैसे छोटे से राज्य में इतना नुकसान हो सकता है तो बड़े राज्यों में होने वाली इस तरह की गतिविधियों का क्या असर होता होगा? फिर राष्ट्रव्यापी बंद और आंदोलनों की तो बात ही छोड़ दीजिए। मणिपुर जैसे छोटे से राज्य में पिछले तीन सालों के दौरान बंद और नाकेबंदी से करीब तेरह सौ करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। गुर्जर आंदोलन के दौरान राजस्थान में कई हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ और उत्पादकता पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। उधर कश्मीर में तो ज्यादातर दिनों में किसी न किसी कारण से बंद या हड़ताल होती रहती है। हालांकि कश्मीर का मामला कुछ विशेष है क्योंकि उसकी ओर से देश के खजाने में किया जाने वाला योगदान ऋणात्मक है। लेकिन आम लोगों को होने वाले नुकसान, अत्यावश्यक सुविधाओं के ठप्प होने से उत्पन्न समस्याओं और जन-धन हानि की उपेक्षा कैसे की जा सकती है? कितने ही बंद हिंसक रूप ले लेते हैं और उनमें बड़ी संख्या में लोग हताहत होते हैं। इनमें ऐसे लोग मारे जाते या घायल हो जाते हैं जिनका बंद के कारणों से कोई संबंध नहीं होता। लेकिन भारत में बंद के समय सब कुछ जायज है। राष्ट्रीय संपत्ति की क्षति, निर्दोष लोगों की मौतें और कानून का खुला उल्लंघन। पश्चिम बंगाल तो पारंपरिक रूप से बंद और हड़तालों की राजनीति की उर्वरा भूमि रही है।

पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के समय ही पश्चिम बंगाल में कई दशकों से चले आए औद्योगिक-व्यापारिक ठहराव को पीछे छोड़कर आर्थिक सुधारों के रास्ते पर आगे बढ़ने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी, जिसने बुद्धदेव भट्टाचार्य के शासनकाल में गति पकड़ी है। विचारधारा से साम्यवादी होते हुए भी बुद्धदेव ने आर्थिक सुधारों का पूंजीवादी मार्ग अपनाया है तो वह इसलिए कि साम्यवादी आर्थिक सिद्धांत भूमंडलीकरण और उदारीकरण के वैिश्वक माहौल में फिट नहीं बैठते। साम्यवादी आर्थिक अवधारणाएं सिरे से गलत हों ऐसा नहीं हैं। इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि उन्होंने सोवियत संघ जैसे विशाल राष्ट्र को लंबे समय तक एकजुट रखने और बड़ी आर्थिक, राजनैतिक व सैन्य शक्ति बनाए रखने में सफलता प्राप्त की थी। लेकिन सोवियत संघ एवं पूर्व साम्यवादी ब्लॉक के कई राष्ट्रों के विघटन के बाद पूंजीवाद एक अधिक स्थायी, समृिद्धकारक एवं एकजुटताकारक आर्थिक विचारधारा के रूप में स्वीकार कर लिया गया। साम्यवादी अर्थव्यवस्था को लंबे समय तक अपनाते रहे रूस और चीन जैसे बड़े राष्ट्रों में आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण को अपनाये जाने से पूंजीवादी तौर-तरीकों की श्रेष्ठता और व्यावहारिकता को मान्यता मिल गई थी जो पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के संदर्भ में भी बहुत प्रासंगिक थी। इस राज्य ने हाल में औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करने की दिशा में कई दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक प्रगति की है लेकिन लगता है वामपंथी नेतृत्व रूस और चीन के बदलावों को अनदेखा करते हुए अब तक बदलते हुए विश्व के साथ तालमेल बिठाने को तैयार नहीं है। एक ओर ममता बनर्जी के आंदोलन, दूसरी ओर वाम नेतृत्व के पुराने विचार और तीसरी ओर राज्य में शुरू हो चुके आर्थिक बदलावों के सिलसिले को जारी रखने की चुनौती के बीच बुद्धदेव भट्टाचार्य अकेले पड़ते दिखाई दे रहे हैं। लेकिन यह कोई शुभ संकेत नहीं है।

Saturday, August 23, 2008

तैयार हो रही है नवाज शरीफ की वापसी की जमीन

बालेन्दु शर्मा दाधीच

हालांकि स्व. बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ की वापसी के बाद पाकिस्तान में नए सिरे से शुरू हुई राजनैतिक प्रक्रिया को अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ लेकिन इस बीच देश के राजनैतिक समीकरणों और लोकिप्रयता के ग्राफ में भारी बदलाव आ चुका है। वहां नवाज शरीफ की वापसी की जमीन तैयार हो रही है। बस एक बड़ा राजनैतिक संकट पैदा होने और फिर नए चुनाव करवाए जाने की देर है।

एक चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में नवाज शरीफ चाहेंगे कि जब तक पीपुल्स पार्टी की सरकार सत्ता में हैं, उसके जरिए अपना राजनैतिक एजेंडा पूरा कर लिया जाए। इसमें उनके लिए न्यूनतम जोखिम है। कोई कदम सही पड़ने पर श्रेय उन्हें जाता है जबकि परिणाम गलत निकले तो उसके लिए पीपीपी को दोषी माना जाएगा। उनके एजेंडा का पहला लक्ष्य था- अपनी वापसी के हालात पैदा करना और चुनावों में अपने दल की हिस्सेदारी सुनिश्चित करना। पीपीपी के साथ अपने अनौपचारिक गठजोड़ और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की बहाली के लिए चले वकीलों के दमदार संघर्ष का सक्रिय समर्थन करके वे तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्ऱफ पर दबाव बनाकर यही लक्ष्य हासिल करने में सफल रहे। पाकिस्तान में सत्ता संभालना उनके तात्कालिक लक्ष्यों में नहीं था क्योंकि परवेज मुशर्ऱफ के रहते यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं था। इसीलिए उन्होंने राजनैतिक विनम्रता और गरिमा के साथ स्व. बेनजीर भुट्टो से पहले ही पेशकश कर दी थी कि वे चुनावों के बाद गठित होने वाली भावी साझा सरकार की प्रधानमंत्री बनें। नवाज शरीफ अपने भाई शाहबाज शरीफ को पंजाब का मुख्यमंत्री बनवाने में भी सफल रहे और पीपीपी पर लगातार दबाव बनाते हुए परवेज मुशर्ऱफ के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की परिस्थितियां तैयार करने में भी जिनका सामना करना मुशर्ऱफ ने उचित नहीं समझा। मुशर्ऱफ के प्रति अमेरिका के बदले हुए रुख का भी उन्हें लाभ मिला और वे जिस तेजी से पाकिस्तान के राजनैतिक मानचित्र से विलुप्त हुए उसने शायद खुद नवाज शरीफ को भी चौंकाया होगा। लेकिन जब समय बदलता है तो यही होता है।

नवाज शरीफ के एजेंडा में पूर्व मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी की बहाली अहम है। इतनी अहम कि उसके लिए वे पीपुल्स पार्टी के साथ गठबंधन तोड़ने और विपक्ष में बैठने को भी तैयार हैं। यह जानते हुए भी कि ऐसी हालत में देश नए सिरे से चुनाव की ओर जा सकता है या फिर सेना को एक बार फिर दखल का मौका मिल सकता है जिसकी उम्मीद पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्ऱफ ने पाली हुई है। इतनी बड़ा जोखिम सिर्फ नैतिक कारणों से नहीं लिया जा सकता, इसके ठोस राजनैतिक कारण हैं।



श्री चौधरी के समर्थन में पिछले साल हुए आंदोलन ने पाकिस्तान में परवेज मुशर्ऱफ के खिलाफ विपक्ष की भूमिका अख्तियार कर ली थी और यदि श्री चौधरी ने थोड़ा और साहस तथा राजनैतिक महत्वाकांक्षा दिखाई होती तो शायद उस माहौल में वे देश के सबसे प्रमुख विपक्षी राजनेता के रूप में भी उभर सकते थे। परवेज मुशर्ऱफ के खिलाफ पाकिस्तानी जनता के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न कारणों से पल रहे आक्रोश को वकीलों के आंदोलन के रूप में अभिव्यक्ति मिल गई थी और इसीलिए उसे सर्वव्यापी समर्थन मिला था। उसी आंदोलन ने राष्ट्रपति के रूप में परवेज मुशर्ऱफ की अस्थिरता की नींव डाली थी। श्री चौधरी के समर्थन में खड़े हुए उन लाखों लोगों और वकीलों को राजनैतिक रूप से अपने साथ लेकर नवाज शरीफ अगले चुनावों में अपनी पार्टी की सफलता के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं, और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की बहाली पर जोर देकर वे यही कर रहे हैं।

हालांकि स्व. बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ की वापसी के बाद पाकिस्तान में नए सिरे से शुरू हुई राजनैतिक प्रक्रिया को अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ लेकिन इस बीच देश के राजनैतिक समीकरणों और लोकिप्रयता के ग्राफ में भारी बदलाव आ चुका है। बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की आंधी में सत्ता में आई पीपुल्स पार्टी की लोकिप्रयता में कमी आई है। दूसरी तरफ नवाज शरीफ ने एक के बाद एक हर अहम मुद्दों पर सैद्धांतिक स्टैंड लेकर अपनी लोकिप्रयता बढ़ाई है। पाकिस्तान में मौजूद अमेरिका विरोधी माहौल भी उनके पक्ष में जाता है क्योंकि अमेरिका परस्त पीपीपी के बरक्स उन्हें अमेरिका का विरोधी तसव्वुर किया जाता है।

विभिन्न सर्वेक्षणों में यह बात स्पष्ट हुई है कि वे पीपुल्स पार्टी के अपेक्षाकृत कम अनुभवी नेतृत्व की तुलना में जनता की पसंद बन रहे हैं। न्यायाधीशों के मुद्दों पर वे सफल रहेंगे या नाकाम होंगे, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है। नवाज शरीफ जानते हैं कि परिणाम कुछ भी हो, उनका राजनैतिक रूप से और मजबूत होना तय है। दूसरी ओर पीपीपी नेतृत्व इस मुद्दों को लेकर सहज नहीं है क्योंकि इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी के पदासीन होने के बाद उसे आसिफ अली जरदारी के विरुद्ध उन मामलों के दोबारा खुल जाने का डर है जिन्हें पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्ऱफ ने विशेष अध्यादेश लाकर ठंडे बस्ते में डाल दिया था। पीपीपी की यह उलझन न्यायाधीशों के मुद्दों पर उसके बयानों में बार-बार दिखती असंगतियों ने साफ कर दी है।

परवेज मुशर्ऱफ की विदायी पाकिस्तानी राजनीति में एक नए मोड़ की द्योतक तो है लेकिन इस धारावाहिक का अंतिम एपीसोड अभी बाकी है। देश की राजनीति का नए सिरे से ध्रुवीकरण होने जा रहा है। मुस्लिम लीग (कायदे आजम) बिखराव की ओर बढ़ रही है और उससे विलगित होने वाले लोग विचारधारात्मक रूप से अपेक्षाकृत करीब तथा राजनैतिक लिहाज से अधिक मजबूत दिखाई देने वाली मुस्लिम लीग (नवाज) की ओर आ रहे हैं। परवेज मुशर्ऱफ के अशक्त होने के बाद पिछले साथी उनसे हाथ छुड़ाने की प्रक्रिया में हैं। हालात कुछ ऐसे हैं कि सत्ता में होते हुए भी, अमेरिकी समर्थन प्राप्त होते हुए भी, मुशर्ऱफ की विदायी से मिली सराहना के बाद भी पीपीपी नेतृत्व अपनी इच्छानुसार फैसले करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। वरना उसे तो परवेज मुशर्ऱफ से भी कोई खास समस्या नहीं थी जिन्होंने खुले आम बेनजीर भुट्टो की हिमायत की, उन पर लगे सभी मुकदमे हटाए, उनकी देश वापसी का रास्ता साफ किया, आसिफ अली जरदारी को भ्रष्टाचार के आरोपों से अभयदान दिया और पीपीपी की जीत के प्रति आश्वस्त होने के बावजूद चुनाव करवाए। पाकिस्तानी राजनीति में धीरे-धीरे नवाज शरीफ की वापसी की जमीन तैयार हो रही है। बस एक बड़ा राजनैतिक संकट पैदा होने और फिर नए चुनाव करवाए जाने की देर है।

Friday, August 22, 2008

पाकिस्तान के धारावाहिक का अंतिम एपीसोड अभी बाकी

बालेन्दु शर्मा दाधीच

पाकिस्तान के ताजा घटनाक्रम में यदि कोई स्पष्ट राजनैतिक विजेता उभरा है तो वह आसिफ अली जरदारी नहीं बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ हैं। हो सकता है कि कुछेक सप्ताहों या महीनों के अंतराल के बाद नवाज शरीफ देश में नई राजनैतिक परिस्थितियों की रचना कर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के आल्हादकारी विजयघोष पर पूर्णविराम लगा दें।

पाकिस्तान के राष्ट्रपति पद से परवेज मुशर्ऱफ की विदायी से निरंकुश तानाशाही के नौ साल लंबे सिलसिले का समापन हुआ है तो लोकतांत्रिक राजनीति के एक नए दौर की शुरूआत भी हुई है। हो सकता है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष आसिफ अली जरदारी की आशाओं के अनुरूप वहां लंबे अरसे बाद पीपीपी की अगुआई में एक मजबूत और टिकाऊ विशुद्ध लोकतांत्रिक नेतृत्व की शुरूआत हो। यह भी असंभव नहीं है कि परवेज मुशर्ऱफ के आकलन के मुताबिक वहां दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों में टकराव का दौर शुरू हो जाए और राजनीति के सूत्र अधिक समय तक उनके हाथ में न रह पाएं। लेकिन शायद सबसे मजबूत संभावना यह है कि कुछेक सप्ताहों या महीनों के अंतराल के बाद पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ देश में नई राजनैतिक परिस्थितियों की रचना कर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के आल्हादकारी विजयघोष पर पूर्णविराम लगा दें।

नवाज शरीफ ने देश लौटने के बाद, बिना किसी प्रत्यक्ष लड़ाई के, साल भर से भी कम समय में जिस राजनैतिक चतुराई के साथ अपने सर्वशक्तिमान शत्रु को धराशायी किया (या करवाया) है, वह राजनीति के अध्येताओं के लिए कौतूहल का विषय है। उनकी राजनीति के आगे पूर्व जनरल परवेज मुशर्ऱफ की रणनीतियां असहाय हो गईं और आसिफ अली जरदारी जैसे अनुभवहीन राजनीतिज्ञों ने लगभग उसी अंदाज में सारे घटनाक्रम को अंजाम दिया जैसा भले ही वे चाहते हों या नहीं पर नवाज शरीफ चाहते थे। यह सब इसलिए क्योंकि पाकिस्तान में सत्ता भले ही पीपुल्स पार्टी के हाथ में हो, उसकी चाबी नवाज शरीफ के पास है जिन्हें इसका इस्तेमाल करना आता है।

पाकिस्तान के ताजा घटनाक्रम में यदि कोई स्पष्ट राजनैतिक विजेता उभरा है तो वह आसिफ अली जरदारी नहीं बल्कि नवाज शरीफ हैं। नवाज शरीफ किस तरह नवंबर 2007 में निर्वासन से वापसी के बाद से राजनैतिक दृष्टि से मजबूत होते चले गए हैं उसे समझने के लिए पिछले एक साल की पाकिस्तानी राजनीति पर नजर डालना पर्याप्त है। हालांकि बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद हुए चुनावों में स्वाभाविक कारणों से उनकी पाकिस्तान मुस्लिम लीग को पीपुल्स पार्टी से कम सीटें मिलीं लेकिन उन्होंने अपने दल के समर्थन पर पीपीपी की निर्भरता का बखूबी लाभ उठाया है। पाकिस्तान में सरकार का नेतृत्व भले ही कोई और दल कर रहा हो, एजेंडा तो नवाज शरीफ का ही पूरा किया जा रहा है। शातिराना कूटनीति का परिचय देते हुए, अपनी मांगें न माने जाने की स्थिति में वे संघीय सरकार से अपने मंत्रियों को हटाने जैसा बड़ा कदम उठाने से भी नहीं चूके थे। लेकिन उन्होंने सरकार के प्रति समर्थन भी जारी रखा। ऐसा करते हुए उन्होंने गंभीर राजनैतिक दबाव बनाते हुए भी ऐसी स्थितियां पैदा नहीं होने दीं जिससे तत्कालीन राष्ट्रपति को किसी किस्म के हस्तक्षेप या राजनैतिक लाभ का मौका मिलता। एक ओर उन्होंने मुशर्ऱफ विरोधी ताकतों को एकजुट बनाए रखा तो दूसरी ओर मुशर्ऱफ समर्थकों को सत्ता के आसपास फटकने नहीं दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने पाकिस्तान मुस्लिम लीग (कायदे आजम) के चौधरी शुजात हुसैन और परवेज इलाही जैसे उन नेताओं के साथ भी संपर्क बनाए हैं जिन्हें कुछ महीने पहले तक उनका (शरीफ) घोर राजनैतिक शत्रु समझा जाता था। पृष्ठभूमि में चल रही इन गतिविधियों का लक्ष्य सिर्फ पीपीपी नेतृत्व पर ही दबाव बनाना नहीं था बल्कि परवेज मुशर्ऱफ को भी परेशानी में डालना था।



लेकिन वह तब की बात है जब परवेज मुशर्ऱफ पाकिस्तान के एकछत्र शासक थे। उनके चले जाने के बाद पूरी तरह बदल चुके राजनैतिक परिदृश्य में नवाज शरीफ के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वे मौजूदा संघीय सरकार की स्थिरता सुनिश्चित करें। पाकिस्तानी राजनीति की परंपराओं के अनुरूप ही, परवेज मुशर्ऱफ अपने सत्ताच्युत होने के कुछ ही घंटों बाद राजनैतिक लिहाज से अप्रासंगिक हो गए। उनके हटने पर पाकिस्तान के कोने-कोने में जिस तरह खुशी मनाई गई उससे साफ हो गया कि उनकी अलोकिप्रयता दल-निरपेक्ष, क्षेत्र-निरपेक्ष और संप्रदाय-निरपेक्ष थी। उन्हें आने वाले कई वर्षों तक इस स्थिति में बदलाव की कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए। परवेज मुशर्ऱफ की तानाशाही सत्ता ने पाकिस्तानी राजनीति में कम से कम एक सकारात्मक योगदान जरूर दिया था और वह था उनके द्वारा प्रताड़ित राजनैतिक दलों को मजबूरन एक मंच पर लाकर खड़े करने का। इस प्रक्रिया में भी नवाज शरीफ ने अहम भूमिका निभाई थी।

मुशर्ऱफ के विरुद्ध एकजुटता असल में पाकिस्तान में लोकतंत्र समर्थकों की एकजुटता का प्रतीक बन गई थी और इस प्रक्रिया में दलों की विचारधारात्मक प्रतिबद्धताएं एवं मतभेद गौण हो गए थे। राजनीति के विपरीत ध्रुवों पर खड़े दल और नेता भी साथ-साथ आ जुटे थे क्योंकि उनका पहला लक्ष्य देश में लोकतंत्र को किसी तरह पुनर्जीवित करना और ऐसा होने तक अपना राजनैतिक अस्तित्व बचाए रखना था। अब वह लक्ष्य हासिल हो चुका है। अब परवेज मुशर्ऱफ के रूप में उनके सामने मौजूद साझा चुनौती भी समाप्त हो गई है। ऐतिहासिक रूप से परस्पर शत्रुता की हद तक राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता रखती आईं दो शीर्ष पाकिस्तानी पार्टियों को जोड़े रखने वाला कोई तत्व अब मौजूद नहीं है। पिछले चुनाव में बहुमत से वंचित रह गई पीपुल्स पार्टी के सामने मुस्लिम लीग (नवाज) का समर्थन पाने की मजबूरी यथावत है। लेकिन नवाज शरीफ हर किस्म की राजनैतिक विवशता से मुक्त हो चुके हैं। आज यदि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार गिर भी जाती है तो इसमें उनका कोई नुकसान नहीं है, बल्कि आज नहीं तो कल वे देश में यही हालत पैदा करने वाले हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद पर इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी की बहाली न किए जाने पर विपक्ष में बैठने की उनकी धमकी को इसी संदर्भ में लिया जाना चाहिए।

Thursday, August 14, 2008

जलते कश्मीर में हाथ सेंकने को व्याकुल पाकिस्तान

जलते कश्मीर में हाथ सेंकने को व्याकुल पाकिस्तान

बालेन्दु शर्मा दाधीच

पाकिस्तान का घाटी की घटनाओं को सांप्रदायिक चश्मे से देखना अकारण नहीं है। हिंदू-मुस्लिम टकराव को हवा देकर वह भारत को अधिकतम क्षति पहुंचा सकता है। इसके जरिए वह जम्मू-कश्मीर को धार्मिक आधार पर विभाजित करने के अपने मकसद में कामयाब हो सकता है और घाटी के मुसलमानों को भावनात्मक तौर पर अपने और करीब ला सकता है। इससे उस द्विराष्ट्र सिद्धांत को उभारने की कोशिश कर सकता है जिसके आधार पर उसकी स्थापना हुई थी और जो घाटी को भारत से अलग करने की उसकी मुहिम को संचालित करने वाला मूलभूत तत्व है।



कश्मीर घाटी की आर्थिक नाकेबंदी यदि थी भी तो जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर सेना की तैनाती के बाद लगभग खत्म हो चुकी है। लेकिन पाकिस्तान और उसके समर्थक इस मुद्दे को समाप्त नहीं होने देंगे। अफसोस की बात यह है कि इस मामले में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और नेशनल कांफ्रेंस जैसे राजनैतिक दल भी आंदोलनकारी तत्वों का साथ दे रहे हैं या देने पर मजबूर हैं। आर्थिक नाकेबंदी का मुद्दा पाकिस्तान के लिए बहुत अनुकूल है क्योंकि वह इसे एक मानवीय मुद्दे के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उछाल सकता है और ऐसे मुद्दों पर भारत के मित्र व पक्षधर राष्ट्रों पर भी दबाव पड़ता है। पाकिस्तान इन हालात का लाभ उठाने के लिए कितना व्याकुल है इसका प्रमाण वास्तविक नियंत्रण रेखा पर संघर्षविराम का उल्लंघन कर उसकी फौजों की तरफ से की जा रही गोलीबारी, पाकिस्तानी विदेश मंत्री का बयान और वहां की संसद में पास किए गए प्रस्ताव हैं। उसने घाटी के अलगाववादी तत्वों को संकेत भेज दिए हैं कि वहां के बिगड़ते हालात पर वह दिलचस्पी से निगाह रखे हुए है। ऐसी स्थिति में भी, जब वह घरेलू स्तर पर अब तक के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है।

एक ओर राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव की प्रक्रिया शुरू होने और दूसरी तरफ उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में परोक्ष तालिबानी नियंत्रण और वहां से पनपते अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की विश्वव्यापी निंदा जैसे मुद्दों तक की उपेक्षा कर पाकिस्तानी सीनेट ने पिछले हफ्ते कश्मीर घाटी की आर्थिक नाकेबंदी की निंदा करते हुए प्रस्ताव पास किया है। पाकिस्तानी नेताओं ने राज्य के हालात को सांप्रदायिक रंग देने की भी कोशिश की है और उन्हें हिंदू बनाम मुस्लिम के मुद्दे के रूप में पेश करने की कोशिश की है जबकि घाटी का हर नेता अब तक यही कहता रहा है कि विभिन्न संप्रदायों की एकता कश्मीर की स्वभावगत विशेषता और उसकी संस्कृति का मूलभूत तत्व है।

पाकिस्तान का घाटी की घटनाओं को सांप्रदायिक चश्मे से देखना अकारण नहीं है। हिंदू-मुस्लिम टकराव को हवा देकर वह भारत को अधिकतम क्षति पहुंचा सकता है। इसके जरिए वह जम्मू-कश्मीर को धार्मिक आधार पर विभाजित करने के अपने मकसद में कामयाब हो सकता है और घाटी के मुसलमानों को भावनात्मक तौर पर अपने और करीब ला सकता है। इससे उस द्विराष्ट्र सिद्धांत को उभारने की कोशिश कर सकता है जिसके आधार पर उसकी स्थापना हुई थी और जो घाटी को भारत से अलग करने की उसकी मुहिम को संचालित करने वाला मूलभूत तत्व है।

जम्मू कश्मीर में टकराव के हालात और अधिक समय तक जारी रहे तो पाकिस्तान का काम आसान होता चला जाएगा। किश्तवाड़ में हुई हिंदू-मुसलमानों में टकराव की घटनाएं उस सांप्रदायिक विभाजन की ओर संकेत करती हैं जिसका शिकार होकर लाखों कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर आना पड़ा था। उधर अनंतनाग में आंदोलनकारियों की भीड़ में घुसकर आतंकवादियों की तरफ से की सुरक्षा बलों पर की गई गोलीबारी भी इशारा करती है कि मौजूदा आंदोलन जेहादी और आतंकवादी तत्वों को अपने पांव पसारने और जनता के बीच स्वीकार्यता हासिल करने में मददगार सिद्ध हो सकता है। ऐसे में उन्हें अलग-थलग करना और निष्प्रभावी करना मुश्किल होता चला जाएगा। जम्मू कश्मीर के हालात को फिर से पटरी पर लाने में राजनैतिक दलों और धार्मिक नेताओं की भूमिका आज भी महत्वपूर्ण हो सकती है लेकिन यह स्थिति बहुत समय तक नहीं रहेगी। कहीं ऐसा न हो कि जिस चुनावी लाभ की आकांक्षा में वे जम्मू और कश्मीर के आंदोलनों को अपने-अपने ढंग से हवा दे रहे हैं वह देश को ऐसा नुकसान पहुंचा दे जिसकी भरपाई संभव न हो।

Wednesday, August 13, 2008

कश्मीरः बीस साल पीछे ले जाता एक विघटनकारी उफान

बालेन्दु शर्मा दाधीच

`मुजफ्फराबाद मार्च` के रूप में पाकिस्तान और उसके हिमायती संगठनों को मुंहमांगी मुराद मिल गई। व्यापारियों की मजबूरी के नाम पर कश्मीर घाटी को भावनात्मक रूप से पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से जोड़ने का यह प्रयास भले ही व्यावहारिक रूप से नाकाम रहा हो लेकिन उसने जम्मू कश्मीर में भारत के राष्ट्रीय उद्देश्यों को काफी नुकसान पहुंचाया है।

जम्मू-कश्मीर के बिगड़ते हालात से अगर कोई सबसे ज्यादा खुश होगा तो वह है पाकिस्तान। पिछले डेढ़ दो महीनों में राज्य जनमत का जितना बड़ा विभाजन हुआ है वैसा 1990 के दशक के शुरूआती वर्षों में भी नहीं हुआ था जब अलगाववादी आंदोलन अपने चरम पर था। आज जम्मू कश्मीर भारत और पाकिस्तान के समर्थकों के बीच बंटा हुआ है, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विभाजित है, जम्मू और कश्मीर के बीच दोफाड़ हो चुका है। राज्य के हालात को नियंत्रित करने के लिए बड़ी मुश्किलों से स्थापित किया गया राजनैतिक तंत्र छिन्न-भिन्न हो चुका है, जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण घटक पर्यटन जो बेहद लंबी और कठिन प्रक्रिया के बाद दोबारा पुनर्जीवित हुआ था, उसी तरह से भरभरा कर गिर गया है जैसे 6.8 तीव्रता वाले भूकम्प के आने पर कच्चे, रीढ़हीन, नींव-रहित मकान धराशाई हो जाते हैं। आतंकवाद के विरुद्ध बना जनमानस, अमन-चैन, रोजी-रोटी, कारोबार और विकास के हक में बना जनमानस अलगाववादी नारों के शोर में बुद्धिभ्रमित हो रहा है। कश्मीर घाटी में फिर हिंसा, फिर मौतें, फिर आशंकाएं, फिर अनिश्चितता, फिर आक्रोश व असंतोष का पटाक्षेप हुआ है। यही तो पाकिस्तान चाहता था।

अलगाववादी दलों, घाटी आधारित राजनैतिक दलों और व्यापारियों के समर्थन से होने वाले `मुजफ्फराबाद मार्च` के रूप में पाकिस्तान और उसके हिमायती संगठनों को मुंहमांगी मुराद मिल गई थी। व्यापारियों की मजबूरी के नाम पर कश्मीर घाटी को भावनात्मक रूप से पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से जोड़ने का यह प्रयास भले ही व्यावहारिक रूप से नाकाम रहा हो लेकिन उसने जम्मू कश्मीर में भारत के राष्ट्रीय उद्देश्यों को काफी नुकसान पहुंचाया है। इसने कश्मीर घाटी में पाकिस्तान का समर्थन करने वाले और उसके साथ भावनात्मक जुड़ाव महसूस करने वाले नए समूह पैदा किए हैं।

उन्नीस सौ सत्तासी के चुनावों में हुई व्यापक धांधली की प्रतिक्रिया में जब कश्मीर में अशांति और असंतोष का दौर शुरू हुआ था तब वहां के आंदोलनों की कमान जेकेएलएफ जैसे संगठनों के हाथ में थी जो जम्मू कश्मीर को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के हिमायती हैं। यह एक किस्म का राजनैतिक आंदोलन था लेकिन जनरल जिया उल हक के शासनकाल में शुरू किए गए छद्म युद्ध के तहत पाकिस्तान से बड़ी संख्या में आतंकवादी तत्व कश्मीर भेजे गए और घाटी के पाकिस्तान समर्थक नेताओं को हर तरह की मदद दी गई। पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी प्रशिक्षण केंद्रों के रूप में आतंकवादियों की सप्लाई की फैक्टरियां स्थापित की गईं। उन्नीस सौ अट्ठासी में जनरल जिया की जिया की मौत के बाद पाकिस्तान में फिर से लोकतांत्रिक आधार पर सत्ता में आए बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ जैसे नेताओं ने भी सैनिक शासन की इस धरोहर से पीछा छुड़ाने की बजाए उसे प्रोत्साहित करना जारी रखा और कश्मीर में अलगाववाद एवं आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए आईएसआई के जरिए भारी मात्रा में धन, हथियारों और जेहादी फिलासफी का निर्यात करते रहे। इस प्रक्रिया को रोकने में भारत सरकार नाकाम रही और कश्मीर के जन-आंदोलन का चेहरा बदल गया।

आज लगभग बीस साल बाद आज घाटी के आंदोलनकारी और अलगाववादी तत्वों की कमान सैयद अली शाह गिलानी और मीरवाइज उमर फारूक जैसे नेताओं के हाथ में आ चुकी है जो कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाना चाहते हैं। इन तत्वों ने जम्मू के आंदोलन की प्रतिक्रिया में `मुजफ्फराबाद मार्च` का ऐलान कर घाटी के असंतोष की धारा को पाकिस्तान के समर्थन की लोकलहर के रूप में पेश करने की कोशिश की है। भारत के लिए और कश्मीर में स्थायी शांति के सपने देखने वालों के लिए ये कोई आशाजनक संकेत नहीं हैं।

मुजफ्फराबाद मार्च के दौरान पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के नेताओं द्वारा घाटी के कारोबारियों का स्वागत करने की घोषणा, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चकोटी में आतंकवादी संगठनों और पाक अधिकृत कश्मीर के नेतृत्व का समर्थन प्राप्त लोगों का जमाव, लश्कर ए तैयबा के प्रमुख हाफिज सईद द्वारा सैयद अली शाह गिलानी से बात कर घाटी के आंदोलन के प्रति सक्रिय समर्थन का ऐलान करना उस अपरिमित प्रसन्नता को अभिव्यक्त करता है जो कश्मीर घाटी के बिगड़ते हालात के चलते एलओसी के उस पार पैदा हुई है। ग्यारह सितंबर 2001 को अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों के बाद विश्व भर में जेहादी और आतंकी तत्वों के खिलाफ चली दमदार मुहिम से ऐसी शक्तियां कमोजोर हुई थीं और पाकिस्तान पर पड़ते भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव का असर कश्मीर के जमीनी हालात पर भी दिखाई दे रहा था। जम्मू कश्मीर में हुए चुनावों और दो सरकारों के सफल कामकाज से भी हालात सुधरे थे। लेकिन अमरनाथ श्राइन बोर्ड मुद्दे पर जिस तरह से राज्य के अलग-अलग क्षेत्र व समुदाय परस्पर विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं उसने पाकिस्तान समर्थकों और आतंकवादियों को ऐसा मौका दे दिया है जिसकी उन्हें बेताबी से तलाश थी।

Saturday, August 9, 2008

तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाएं बनाना जरूरी कैसे नहीं है?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

समझ में नहीं आता कि जिन धार्मिक स्थानों पर लाखों, करोड़ों लोग श्रद्धापूर्वक जुटते हैं, उनके विकास का दायित्व उसका कैसे नहीं है? फिर भले ही वह हज हाउस का निर्माण हो, ख़्वाजा के दर पर जाने के लिए विशेष रेलगाड़ियां चलाना हो, कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए विशेष रियायतें देना हो, हज़ के लिए आर्थिक मदद देना हो या अमरनाथ के आधार स्थल पर हिंदू तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाओं की स्थापना करने का। ये सभी हमारे धर्मभीरू नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतें हैं जो सरकारी दायित्व के दायरे में आती हैं। इनमें राजनीति की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। आखिरकार वे तीर्थयात्री हैं, कोई अवांछित तत्व नहीं।

श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटित किए जाने के मुद्दे को कश्मीरियत और उसकी विशेष स्थिति पर हमला करार देने वाले राजनेता वही हैं जो इस राज्य को स्वाभाविक रूप से धर्मनिरपेक्ष और विभिन्न समुदायों के सह-अस्तित्व को कश्मीरी संस्कृति की अंतरनिहित विशेषता करार देते हैं। सर्दी, बारिश, बर्फ, प्राकृतिक आपदाओं, खराब रास्तों और आतंकवाद तक की चुनौती का सामना करते हुए उनके राज्य के महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल अमरनाथ जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिए जरूरी सुविधाओं के निर्माण पर भला कौनसा असांप्रदायिक व्यक्ति आपत्ति कर सकता है? एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का अर्थ धर्महीन सरकार नहीं है। उसका अर्थ है सभी धर्मों का सम्मान करने वाली सरकार। समझ में नहीं आता कि जिन धार्मिक स्थानों पर लाखों, करोड़ों लोग श्रद्धापूर्वक जुटते हैं, उनके विकास का दायित्व उसका कैसे नहीं है? फिर भले ही वह हज हाउस का निर्माण हो, ख़्वाजा के दर पर जाने के लिए विशेष रेलगाड़ियां चलाना हो, कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए विशेष रियायतें देना हो, हज़ के लिए आर्थिक मदद देना हो या अमरनाथ के आधार स्थल पर हिंदू तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाओं की स्थापना करने का। ये सभी हमारे नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतें हैं जो सरकारी दायित्व के दायरे में आती हैं। इनमें राजनीति, सांप्रदायिकता या भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। आखिरकार वे तीर्थयात्री हैं, कोई अवांछित तत्व नहीं।

हिंदू तीर्थयात्रियों से होने वाली आमदनी की जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था में कितना बड़ी भूमिका है उसे भुला भी दिया जाए तो कम से कम नैतिक आधार पर ही सही, उनके लिए बुनियादी सुविधाओं के निर्माण की जरूरत को कैसे नकारा जा सकता है? लेकिन इस घटना की तुलना इजराइल से की गई और कहा गया कि केंद्र सरकार राज्य में जनसंख्यामूलक (demographic) परिवर्तन करने पर तुली हुई है जिससे भविष्य में कश्मीरी लोग घाटी में अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे। घाटी में सरकारी फैसले के खिलाफ जिस तरह का विस्फोटक माहौल बन रहा था उसमें किसी को इस बात का ख्याल करने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि इस भूमि का इस्तेमाल साल में सिर्फ दो महीने के लिए किया जाना था। उन्होंने वैष्णो देवी मंदिर क्षेत्र में कुछ साल पहले किए गए विकास कार्यों के उदाहरण को भी भुला दिया जिसने कश्मीरी संस्कृति या उसके सामाजिक ताने-बाने को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया।

अमरनाथ भूमि संबंधी आंदोलन शुरू करने और तेज करने में भले ही राजनैतिक दलों की भूमिका रही हो लेकिन अब यह उनके नियंत्रण से बाहर निकल चुका है। अगर इस मुद्दे का जल्दी हल न निकाला गया तो यह गलत दिशाओं में भी जा सकता है जिनके न सिर्फ कश्मीर बल्कि भारत के लिए भी घातक परिणाम हो सकते हैं। कश्मीर घाटी की आर्थिक नाकेबंदी और आंदोलन का सांप्रदायीकरण ऐसे ही चिंताजनक पहलू हैं जिन्हें रोका जाना जरूरी है। इससे पहले कि मामला जम्मू बनाम कश्मीर का हो जाए, केंद्र सरकार को इस मुद्दे का कोई सर्वमान्य समाधान खोजना होगा। इससे पहले कि कश्मीर घाटी में गंभीर मानवीय संकट पैदा हो जाए, राजनैतिक दलों को इसे चुनावी नफे-नुकसान से ऊपर उठकर देखना होगा। इससे पहले कि पूरी तरह अलग-थलग और अकेले पड़ जाएं, घाटी के राजनेताओं को हालात की नजाकत को समझते हुए कुछ ठोस रियायतें देनी होंगी। वरना जम्मू तो एक लंबे राजनैतिक तूफान के मूड में दिखता है।

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की तरफ से आया यह सुझाव कि विवादित सौ एकड़ जमीन श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को लौटा दी जाए लेकिन उसके इस्तेमाल के लिए दो महीने की शर्त लगा दी जाए, संभवतः मौजूदा विवाद के समाधान का प्रस्थान बिंदु हो सकता है। इसे आधार बनाकर बातचीत शुरू की जाए और दोनों पक्षों की बात सुनते हुए आगे बढ़ा जाए। जरूरत हो तो इसमें संशोधन किए जाएं। इस फार्मूले से कुछ हद तक दोनों पक्षों की बात रह जाती है। जम्मू के पूर्व शासक और पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. कर्ण सिंह ने भी एक फार्मूला सुझाया है जिसके तहत अमरनाथ क्षेत्र में सुविधाओं का विकास चरणबद्ध ढंग से किया जाना चाहिए। उन्होंने राज्यपाल को हटाने और अमरनाथ श्राइन बोर्ड में नए, प्रतिष्ठित सदस्यों की नामजदगी की बात भी कही है। हो सकता है कि सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के जम्मू और कश्मीर दौरे के बाद कुछ अन्य फार्मूले भी सामने आएं। हालांकि संघर्ष समिति के सदस्यों द्वारा उससे मुलाकात न करना निराश करता है। आखिरकार वह सब दलों का प्रतिनिधिमंडल है और उसे नकारना हठधर्मिता की ओर संकेत करता है, जो सकारात्मक नहीं है।

अहम मुद्दा यह है कि इस विवाद को प्राथमिकता के आधार पर लिए जाने की जरूरत है क्योंकि जम्मू बनाम घाटी के विवाद को हिंदू बनाम मुस्लिम का रूप लेते ज्यादा देर नहीं लगेगी।

Friday, August 8, 2008

आज नहीं तो कल, जम्मू का गुस्सा फूटना ही था

बालेन्दु शर्मा दाधीच

जम्मू के लोगों को इस बात का अहसास रहा है कि उनका राज्य अलगाववाद के मुहाने पर खड़ा है और उनकी ओर से उठाया गया कोई भी उग्र कदम उसके अलगाववाद की प्रक्रिया को हवा दे सकता है। उनका रुख जिम्मेदाराना रहा है। लेकिन अमरनाथ मुद्दे पर जिस तरह जम्मू के लोगों की धार्मिक भावनाओं की कीमत पर राज्य सरकार एक बार फिर अलगाववादियों के आगे झुक गई उससे जम्मूवासियों की दशकों से अडिग रही सहिष्णुता जवाब दे गई है।

जम्मू आंदोलन एक धार्मिक मुद्दे को लेकर शुरू हुआ है और निस्संदेह उसमें कुछ सांप्रदायिक, धार्मिक एवं राजनैतिक शक्तियों की भी भूमिका है लेकिन उसके पैदा होने के कारण धार्मिक भले ही कहे जा सकते हैं, सांप्रदायिक नहीं। यह एक संयोग ही है कि जम्मू का आक्रोश इस मुद्दे को लेकर सामने आया, अन्यथा वास्तविक मुद्दा तो वही प्रभावशाली लोगों तथा सत्ताधारियों द्वारा प्रभावहीन लोगों की उपेक्षा और नाइंसाफी का है। किसी राज्य में यही समस्या दलित उत्पीड़न के प्रति विद्रोह के रूप में सामने आती है तो किसी राज्य में भूमिहीनों के जन आंदोलनों के रूप में। ऐसा हर उस जगह पर होता है जहां कमजोर की भावनाओं को नकार देना शक्तिशाली ताकतें अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती हैं।

जम्मू दशकों से कश्मीर घाटी के दबदबे के आगे झुकता रहा है, हालांकि जनसंख्या, आकार तथा राज्य की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी के लिहाज से वह किसी भी रूप में घाटी से पीछे नहीं है। वह विचारधारात्मक, धार्मिक या राजनैतिक रूप से भी अपने आपको कश्मीर घाटी के नेताओं के अनुकूल नहीं पाता। लेकिन यदि फिर भी उसने कभी राज्य के राजनैतिक, सामाजिक ढांचे का प्रतिरोध नहीं किया तो इसकी बहुत बड़ी वजह राज्य की संवेदनशील स्थिति और उसका भारत की एकता एवं अखंडता से जुड़ा होना भी है। जम्मू के लोगों को इस बात का अहसास रहा है कि उनका राज्य अलगाववाद के मुहाने पर खड़ा है और उनकी ओर से उठाया गया कोई भी उग्र कदम उसके अलगाववाद की प्रक्रिया को हवा दे सकता है। लेकिन अमरनाथ मुद्दे पर जिस तरह जम्मू के लोगों की धार्मिक भावनाओं की कीमत पर राज्य सरकार एक बार फिर अलगाववादियों के आगे झुक गई उससे जम्मूवासियों की दशकों से अडिग रही सहिष्णुता जवाब दे गई है।

जम्मू के जागृत आक्रोश का अनुमान कश्मीरी नेताओं को भी हो गया है। मीरवाइज उमर फारूक से लेकर सज्जाद गनी लोन और यासीन मलिक जैसे नेताओं ने इस बात को स्वीकार किया है कि आज कश्मीर घाटी और जम्मू दो अलग-अलग ध्रुवों पर हैं और इसीलिए उन्होंने कहा है कि यह एक किस्म का युद्ध है (जो जम्मू ने कश्मीर के खिलाफ छेड़ दिया है)। इसीलिए वे व्यापार के लिए वैकल्पिक मार्ग तलाशने और यहां तक कि पाक अधिकृत कश्मीर तक में सेबों की फसल भेजने और बेचने की बात कर रहे हैं। हालांकि पाकिस्तान और आतंकवादी तत्व इस परोक्ष विभाजन का लाभ उठाने की कोशिश कर सकते हैं लेकिन वे जानते हैं कि हुर्रियत कांफ्रेंस, जेकेएलएफ और अन्य अलगाववादी दल राजनैतिक रूप से कमजोर हुए हैं।

कश्मीर और जम्मू का जो राजनैतिक ध्रुवीकरण आज साफ दिखाई दे रहा है वह प्रच्छन्न रूप में शुरू से मौजूद रहा है। वह एक ऐतिहासिक वास्तविकता है जो समय समय पर जम्मू के लोगों द्वारा अलग राज्य की मांग के आंदोलन और लद्दाख की जनता द्वारा अपने क्षेत्र को भारत के साथ पूरी तरह एकाकार किए जाने की मांग के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। इस राजनैतिक विभिन्नता ने चुनावों के समय अपने आपको अभिव्यक्त करने की कोशिश भी की है लेकिन हर बार राजनैतिक गणित ने उसे निष्प्रभावी कर दिया। कश्मीर घाटी के राजनैतिक अधिनायकवाद का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि आजादी के बाद पहली बार गुलाम नबी आजाद के रूप में जम्मू क्षेत्र का कोई व्यक्ति राज्य का मुख्यमंत्री बना था, जबकि प्रदेश के क्षेत्रफल में घाटी का हिस्सा महज बारह फीसदी है? प्रदेश में कुल छह लोकसभा क्षेत्रों में से तीन कश्मीर घाटी में और 87 विधानसभा क्षेत्रों में से 46 कश्मीर घाटी में हैं, जबकि वह आबादी तथा क्षेत्रफल दोनों के लिहाज से जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों की तुलना में बहुत छोटी है। जम्मू में सिर्फ 37 विधानसभा क्षेत्र और दो लोकसभा क्षेत्र आते हैं।

जम्मू कश्मीर का राजनैतिक ढांचा तय ही इस तरह किया गया है कि उसमें राज्य के राजनैतिक नेतृत्व पर घाटी का प्रभुत्व बना रहना पूर्व-निश्चित है। यही वजह है कि कश्मीर के राजनैतिक दल राज्य परिसीमन आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने का भी विरोध कर रहे हैं जिनके अमल में आने पर जम्मू क्षेत्र में 45 विधानसभा क्षेत्र होंगे जबकि कश्मीर घाटी में उनकी संख्या 42 रह जाएगी। लेकिन क्या और कब ऐसा हो पाएगा? खास कर उस हालत में जबकि परिसीमन विधेयक पास किए जाने के लिए राज्य विधानसभा में दो तिहाई बहुमत की जरूरत है और यह समीकरण हमेशा घाटी के दलों के पक्ष में जाता है।

Thursday, August 7, 2008

और अलगाववादी इस जम्मू को पाकिस्तान में मिलाने चले थे?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

जम्मू का आंदोलन चिंताजनक है मगर उसने जम्मू कश्मीर के स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान का हिस्सा होने संबंधी अलगाववादी तत्वों के दावों को परोक्ष रूप से पंचर कर दिया है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को संदेश गया है कि अलगाववादी अलग-थलग पड़ रहे हैं और दर्शक बनने को विवश कर दिए गए हैं।

कश्मीर घाटी में जो हुर्रियत कांफ्रेंस, नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने किया था वही संघ परिवार के संगठन और कुछ कांग्रेसी जम्मू में कर रहे हैं। कश्मीर में केंद्रित संगठनों के अपने सियासी मकसद थे तो जम्मू से संचालित दलों के अपने राजनैतिक उद्देश्य। उनमें से किसी एक को सही और दूसरे को गलत बताकर हम वही गलती करेंगे जो केंद्र की सरकारों ने पिछले साठ सालों में अनेक बार दोहराई है।

श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई 100 एकड़ भूमि के आवंटन का फैसला वापस लेने के विरोध में पिछले चालीस दिन से चल रहा आंदोलन न तो सिर्फ इस मुद्दे तक सीमित है और न ही इस मुद्दे से पैदा हुआ है। इसकी जड़ें जम्मू कश्मीर राज्य में जम्मू क्षेत्र के साथ कई दशकों से चले आए दोयम दर्जे के बर्ताव और घाटी के अधिनायकवाद में छिपी हैं। भारत की आजादी के बाद पिछले छह दशकों में कश्मीरी पार्टियां, भारत सरकार और यहां तक कि विदेशी ताकतें भी घाटी की आवाज को राज्य की जनता की प्रतिनिधि आवाज के रूप में लेती रही हैं। लेकिन कश्मीर घाटी के अलावा भी जम्मू कश्मीर है और अमरनाथ भूमि मुद्दे पर चल रहे आंदोलन ने पहली बार अहसास कराया है कि उसका अपना स्वतंत्र मत है, उसकी अपनी आकांक्षाएं हैं और उसके अपने अधिकार हैं। जम्मूवासियों के मन में दशकों से दमित पीड़ा और आक्रोश कभी भी, किसी भी बड़े मुद्दे के बहाने आज नहीं तो कल, बाहर आना ही था।


जब भारतीय राष्ट्रध्वज हाथ में लिए लोगों के स्वत:स्फूर्त जत्थे आतंकवादियों के डर से मुक्त होकर प्रतिरोध की आवाज बुलंद कर रहे हों, पुलिस तथा सेना तक से मुकाबले को तैयार हों और कर्फ्यू का उल्लंघन कर गोली खाने में संकोच न कर रहे हों तो वह कोई क्षणिक आवेश या किसी राजनैतिक दल द्वारा प्रायोजित क्रोध मात्र नहीं हो सकता। जम्मू ने पहली बार इतने मुखर तरीके से अपने आपको अभिव्यक्त किया है।

यह आंदोलन कश्मीर घाटी में गाहे-बगाहे आयोजित होने वाले बंद, प्रदर्शनों और सभाओं जैसा नहीं है जिनमें भारत के खिलाफ आग उगली जाती है और पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते हैं। इसमें राष्ट्र के विरुद्ध कहीं कोई नकार नहीं है बल्कि उसकी सर्वोच्चता का स्वीकार है। माना कि जम्मू के हालात बहुत विकट हैं और स्थिति किसी भी दिशा में जा सकती है लेकिन इन आंदोलनकारियों ने भारतीय राष्ट्रवाद में आस्था का मुखर प्रदर्शन कर सिर्फ धर्म के प्रति अपने लगाव और श्रद्धा को ही अभिव्यक्त नहीं किया है। उनका इस तरह उठ खड़ा होना उन ताकतों का प्रतिरोध भी है जिन्होंने राज्य सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। इस जनांदोलन ने जम्मू कश्मीर के स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान का हिस्सा होने संबंधी अलगाववादी तत्वों के दावों को परोक्ष रूप से पंचर किया है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को संदेश गया है कि जम्मू-कश्मीर अलगाववादियों या पाकिस्तान समर्थकों के साथ हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है। बल्कि ऐसे लोग अलग-थलग पड़ रहे हैं और दर्शक बनने को विवश कर दिए गए हैं।

वास्तविकता यह है कि अलगाववादी और पाकिस्तान समर्थक तत्वों को खुद कश्मीर घाटी में भी पूर्ण समर्थन प्राप्त नहीं है। उन्हें मंथन करना चाहिए कि क्या वे जम्मू के इन राष्ट्रवादी तत्वों को पाकिस्तान में मिलाने की बात सोच भी सकते हैं? जम्मू के आंदोलन के कारण भले कुछ और हैं लेकिन उसने अलगाववादी तत्वों को जमीनी हालात की असलियत से वािक़फ करा दिया है जिन्होंने बड़ी कोशिशों से जम्मू कश्मीर को राजनैतिक लिहाज से एक इकाई और स्वयं को उसके स्वाभाविक प्रतिनिधि के रूप में पेश करने की कोशिश की थी।

Saturday, August 2, 2008

आतंकवाद का ढक्कन ऐसे बंद किया जाता है

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

भारत और अमेरिका को तो आतंकवाद से जनहानि का ही खतरा है पर इजराइल तो अपना अस्तित्व ही नष्ट हो जाने की चुनौती से जूझ रहा है। अलबत्ता, एक प्रभावी रणनीति और राष्ट्रीय संकल्प की बदौलत वह आज भी दुनिया के नक्शे पर मौजूद है। आतंकवाद के खिलाफ उसकी लड़ाई खत्म नहीं हुई है लेकिन पलड़ा उसी का भारी है।

चारों तरफ से शत्रु ताकतों से घिरे इजराइल ने बाकी दुनिया के सामने इस बात की मिसाल पेश की है कि आतंकवाद का सफलता के साथ मुकाबला कैसे किया जा सकता है। उन्नीस सौ अड़तालीस में अपनी स्थापना के बाद से ही इजराइल आतंकवाद की चुनौती का सामना कर रहा है और चुनौती भी हमास, इस्लामी जेहाद और हिजबुल्ला जैसे आतंकवादी गुटों से जिन्हें विश्व में सबसे कट्टर, सबसे ताकतवर, आर्थिक रूप से सक्षम माना जाता है। ये ऐसे आतंकवादी हैं जो मिसाइलों, मोर्टारों और रॉकेटों से हमला करते हैं। ये ऐसे आतंकवादी संगठन हैं जिनमें एक ढूंढो तो सैंकड़ों आतंकवादी 'स्वयंसेवक' आत्मघाती हमलावर बनने को तैयार रहते हैं। इतना ही नहीं, इजराइल किसी न किसी रूप में लेबनान, ईरान, इराक, सीरिया, मिस्र और अनेक इस्लामी देशों के निशाने पर भी है।

भारत और अमेरिका को तो आतंकवाद से जनहानि का ही खतरा है पर इजराइल तो अपना अस्तित्व ही नष्ट हो जाने की चुनौती से जूझ रहा है। लेकिन एक प्रभावी रणनीति और राष्ट्रीय संकल्प की बदौलत वह आज भी दुनिया के नक्शे पर मौजूद है। आतंकवाद के खिलाफ उसकी लड़ाई खत्म नहीं हुई है लेकिन पलड़ा उसी का भारी है। न सिर्फ अपनी सीमाओं के भीतर, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के खात्मे के लिए हो रहे प्रयासों में भी उसकी प्रभावी भूमिका है। भारत जैसे देश उससे बहुत कुछ सीख सकते हैं।

आतंकवाद के विरुद्ध इजराइल की व्यापक रणनीति का मूलभूत लक्ष्य आतंकवादियों को वहां के राष्ट्रीय एजेंडा को प्रभावित करने से रोकना तथा नागरिकों के मानस को मजबूत बनाए रखना है। अमेरिका के होमलैंड सिक्यूरिटी विभाग के एक दस्तावेज के अनुसार इजराइली आतंकवाद विरोधी रणनीति के प्रमुख तत्व हैं- आतंकवादियों के ठिकानों पर जवाबी हमले करना, इन संगठनों तथा उनके प्रायोजक देशों के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के विरुद्ध जनमानस को उद्वेलित करना। आतंकवाद के संदर्भ में उसकी नीति बेहद आक्रामक है और वह किसी भी दहशतगर्द कार्रवाई का नियम से जवाब देता है। हालांकि इस प्रक्रिया में मानवाधिकार हनन और निर्दोषों के शिकार होने की निंदनीय घटनाएं भी होती रहती हैं लेकिन वह अपनी आलोचना से विचलित नहीं होता। उसने आतंकवादियों के बीच यह स्थायी संदेश भेज दिया है कि अगर उन्होंने कोई वारदात की तो उसका नतीजा कई गुना बड़ा होकर उनके सामने आएगा।

अमेरिका ने भी तो ऐसा ही किया है। ग्यारह सितंबर की घटनाओं के बाद उसने अलकायदा और उसके सहयोगी तालिबान की कमर तोड़ने में कोई कसर नहीं रखी। वह लड़ाई को अपने घर से हटाकर आतंकवादियों के घर में ले गया और अफगानिस्तान का भू-राजनैतिक परिदृश्य बदलने में सफल रहा। इराक के संदर्भ में उसने भयानक भूलें भी कीं लेकिन आतंकवाद का ढक्कन बंद करके रख दिया। आज पाकिस्तान के कबायली इलाकों और अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा लड़ाके फिर एकजुट हो रहे हैं लेकिन इसके लिए अमेरिका के पास जवाबी रणनीति तैयार है जिसका सही वक्त पर इस्तेमाल करने से वह चूकेगा नहीं।

आतंकवाद के खिलाफ सिर्फ एक ही रणनीति हो सकती है- आक्रमण और शून्य-सहिष्णुता की। इसके लिए कठोरतम कानून बनाने, राष्ट्रीय कार्रवाई को सुसंगठित और समिन्वत बनाने के लिए संघीय आतंकवाद निरोधक खुफिया एजेंसी की स्थापना करने, सुरक्षा एजेंसियों की कार्रवाइयों को प्रतिक्रियात्मक (रिएक्टिव) नहीं बल्कि प्रो-एक्टिव और एंटीसिपेटरी बनाने, दहशतगर्दों के ठिकानों पर निर्णायक हमले करने और पूरे देश को आतंकवाद से निपटने की प्रक्रिया से जोड़ने में अब और देरी नहीं की जानी चाहिए। इस कैंसर के प्रति लापरवाही या लचीलापन दिखाकर हम अपना अस्तित्व ही खो बैठेंगे। अन्य देशों की छोड़िए, हमारे अपने देश में पंजाब के उदाहरण ने सिद्ध कर दिया है कि इस त्रासदी से निपटने के लिए लोहे के दस्ताने पहनने की जरूरत है।
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

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