Friday, August 29, 2008

बंद को तो बीसवीं सदी में ही छोड़ आना चाहिए था

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

कभी जातिवादी समूह, कभी क्षेत्रवादी गुट, कभी राजनैतिक दल, कभी सांप्रदायिक तत्व और कभी अलगाववादी तक बंद, धरनों-प्रदर्शनों, जुलूसों और हड़ताल का इस्तेमाल अपनी मनमानी मांगें मनवाने के लिए करते हैं और ऐसी हर एक गतिविधि हमारे देश की राजनैतिक-सामाजिक स्थिरता को प्रभावित करने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को सैंकड़ों करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचा देती है।

वामपंथी दल, खास कर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, ने बंद, हड़तालों आदि के बारे में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के व्यावहारिक एवं सकारात्मक बयान पर जिस तरह की प्रतिक्रिया की है वह 1970 के दशक के ज्यादा अनुकूल है। अपने विचारों और आक्रोश को अभिव्यक्त करने की जो आजादी हमारे लोकतंत्र में निहित है वह उसकी विलक्षण विशेषता तो है लेकिन क्या उस आजादी का इस्तेमाल सही ढंग से और सही उद्देश्यों के लिए किया जाता है? कभी जातिवादी समूह, कभी क्षेत्रवादी गुट, कभी राजनैतिक दल, कभी सांप्रदायिक तत्व और कभी अलगाववादी तक बंद, धरनों-प्रदर्शनों, जुलूसों और हड़ताल का इस्तेमाल अपनी मनमानी मांगें मनवाने के लिए करते हैं और ऐसी हर एक गतिविधि हमारे देश की राजनैतिक-सामाजिक स्थिरता को प्रभावित करने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को सैंकड़ों करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचा देती है। ऐसे समय पर, जबकि देश सब कुछ दांव पर लगाकर आर्थिक सुधारों और उत्पादकता के मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, हमें बंद और हड़तालों जैसे अवरोधों के औचित्य पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। बीसवीं सदी के इन तौर-तरीकों की क्या आज भी जरूरत है?



बंद और हिंसक प्रदर्शनों से देश को कितना नुकसान होता है उसका अनुमान दिल्ली में सीलिंग के दिनों में व्यापारी संगठनों की ओर से आयोजित तीन दिवसीय बंद से लगाया जा सकता है जब देश को पंद्रह सौ करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। दिल्ली जैसे छोटे से राज्य में इतना नुकसान हो सकता है तो बड़े राज्यों में होने वाली इस तरह की गतिविधियों का क्या असर होता होगा? फिर राष्ट्रव्यापी बंद और आंदोलनों की तो बात ही छोड़ दीजिए। मणिपुर जैसे छोटे से राज्य में पिछले तीन सालों के दौरान बंद और नाकेबंदी से करीब तेरह सौ करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। गुर्जर आंदोलन के दौरान राजस्थान में कई हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ और उत्पादकता पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। उधर कश्मीर में तो ज्यादातर दिनों में किसी न किसी कारण से बंद या हड़ताल होती रहती है। हालांकि कश्मीर का मामला कुछ विशेष है क्योंकि उसकी ओर से देश के खजाने में किया जाने वाला योगदान ऋणात्मक है। लेकिन आम लोगों को होने वाले नुकसान, अत्यावश्यक सुविधाओं के ठप्प होने से उत्पन्न समस्याओं और जन-धन हानि की उपेक्षा कैसे की जा सकती है? कितने ही बंद हिंसक रूप ले लेते हैं और उनमें बड़ी संख्या में लोग हताहत होते हैं। इनमें ऐसे लोग मारे जाते या घायल हो जाते हैं जिनका बंद के कारणों से कोई संबंध नहीं होता। लेकिन भारत में बंद के समय सब कुछ जायज है। राष्ट्रीय संपत्ति की क्षति, निर्दोष लोगों की मौतें और कानून का खुला उल्लंघन। पश्चिम बंगाल तो पारंपरिक रूप से बंद और हड़तालों की राजनीति की उर्वरा भूमि रही है।

पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के समय ही पश्चिम बंगाल में कई दशकों से चले आए औद्योगिक-व्यापारिक ठहराव को पीछे छोड़कर आर्थिक सुधारों के रास्ते पर आगे बढ़ने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी, जिसने बुद्धदेव भट्टाचार्य के शासनकाल में गति पकड़ी है। विचारधारा से साम्यवादी होते हुए भी बुद्धदेव ने आर्थिक सुधारों का पूंजीवादी मार्ग अपनाया है तो वह इसलिए कि साम्यवादी आर्थिक सिद्धांत भूमंडलीकरण और उदारीकरण के वैिश्वक माहौल में फिट नहीं बैठते। साम्यवादी आर्थिक अवधारणाएं सिरे से गलत हों ऐसा नहीं हैं। इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि उन्होंने सोवियत संघ जैसे विशाल राष्ट्र को लंबे समय तक एकजुट रखने और बड़ी आर्थिक, राजनैतिक व सैन्य शक्ति बनाए रखने में सफलता प्राप्त की थी। लेकिन सोवियत संघ एवं पूर्व साम्यवादी ब्लॉक के कई राष्ट्रों के विघटन के बाद पूंजीवाद एक अधिक स्थायी, समृिद्धकारक एवं एकजुटताकारक आर्थिक विचारधारा के रूप में स्वीकार कर लिया गया। साम्यवादी अर्थव्यवस्था को लंबे समय तक अपनाते रहे रूस और चीन जैसे बड़े राष्ट्रों में आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण को अपनाये जाने से पूंजीवादी तौर-तरीकों की श्रेष्ठता और व्यावहारिकता को मान्यता मिल गई थी जो पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के संदर्भ में भी बहुत प्रासंगिक थी। इस राज्य ने हाल में औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करने की दिशा में कई दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक प्रगति की है लेकिन लगता है वामपंथी नेतृत्व रूस और चीन के बदलावों को अनदेखा करते हुए अब तक बदलते हुए विश्व के साथ तालमेल बिठाने को तैयार नहीं है। एक ओर ममता बनर्जी के आंदोलन, दूसरी ओर वाम नेतृत्व के पुराने विचार और तीसरी ओर राज्य में शुरू हो चुके आर्थिक बदलावों के सिलसिले को जारी रखने की चुनौती के बीच बुद्धदेव भट्टाचार्य अकेले पड़ते दिखाई दे रहे हैं। लेकिन यह कोई शुभ संकेत नहीं है।
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com