Tuesday, October 14, 2008

गाढ़े वक्त काम आई हमारी परंपरागत कंजूसी

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

विशिष्ट हिंदुस्तानी मानसिकता के अनुसार, हमारे बैंक अधिकारी किसी को आसानी से कर्ज नहीं देते। वे ऋण के मामलों की उसी तरह जांच-पड़ताल करते हैं जैसे कि पैसा खुद उनकी जेब से जा रहा है। उसके बाद भी मकान की सिर्फ आधिकारिक कीमत का 80-85 फीसदी तक हिस्सा कर्ज के रूप में दिया जाता है। ऐसे कर्ज के डूबने के आसार बहुत कम हैं क्योंकि प्राय: मकान की बाजार कीमत की तुलना में कर्ज की राशि आधी भी नहीं होती।

पूंजी बाजार ही नहीं, निर्यातकों और सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों में भी मौजूदा वैश्विक हालात को लेकर स्वाभाविक चिंता व्याप्त है। वैसे तो रुपए की कमजोरी का निर्यातकों को लाभ होना चाहिए लेकिन महंगाई ने उस लाभ को निष्प्रभावी कर दिया है। भारत परिधानों का बड़ा निर्यातक है लेकिन रुई, धागों, सूत और अन्य कच्चे माल की कीमतों में पिछले एक साल में तीस फीसदी तक वृिद्ध होने के कारण रुपए की कमजोरी के बावजूद निर्यातक निराश हैं। वित्तीय संकट के कारण निर्यात के ऑर्डर तो घट ही रहे हैं। सूचना प्रौद्योगिकी की भी यही स्थिति है। इन्फोसिस, टीसीएस, विप्रो, पोलारिस और अन्य बड़ी आईटी कंपनियों का ज्यादातर कारोबार अमेरिका और यूरोप में होता है लेकिन मौजूदा दौर में उन्हें नए विदेशी ऑर्डर पाने में दिक्कत हो सकती है। हां, इस घटनाक्रम का एक सकारात्मक पहलू यह है कि खर्च घटाने का का दबाव विदेशी कंपनियों को आउटसोर्सिंग की ओर प्रेरित करेगा और इसके परिणामस्वरूप भारत का बीपीओ सेक्टर मौजूदा वैश्विक मंदी से लाभािन्वत भी हो सकता है।

इन सबके बावजूद, भारतीय अर्थव्यवस्था के सूक्ष्मतम घटक के रूप में काम कर रहे आम हिंदुस्तानी को बहुत चिंतित होने की जरूरत नहीं दिखती। जरा भारत की स्थिति की तुलना अमेरिका से कीजिए जहां वित्तीय संकट में ग्रस्त वित्तीय संस्थानों को उबारने के लिए तीन सौ अरब डालर के इंजेक्शन की जरूरत पड़ रही है। फिर ब्रिटेन को देखिए जहां बेलआउट की राशि 500 अरब पाउंड के करीब है। अपने पड़ोस में पाकिस्तान को ही लीजिए, जहां विदेशी मुद्रा भंडार घटकर महज तीन अरब डालर (भारत 292 अरब डालर) रह गया है और रुपए की कीमत अपने निम्नतम स्तर (एक डालर बराबर अस्सी पाकिस्तानी रुपए) पर है। क्या हमारे यहां की स्थिति इनमें से किसी के भी जैसी है? हमारे यहां सिर्फ शेयर बाजार कैजुअल्टी वार्ड में पड़ा हुआ है लेकिन विकसित देशों में तो अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण घटक लाइफ-सपोर्ट सिस्टम पर रखे हुए हैं! हमारी आर्थिक विकास दर भले ही नौ फीसदी से कम होकर 7.9 फीसदी पर आ गई हो मगर अब भी वह दुनिया की सर्वाधिक विकास दरों में से एक है। जैसे जैसे विदेशी वित्तीय संस्थानों की सेहत सुधरेगी, हमारे शेयर बाजार की दशा में भी सुधार आएगा।

ैवैिश्वक वित्तीय संकट ने भारत को उतनी गंभीरता से आहत नहीं किया तो इसकी वजह हमारी मजबूत आर्थिक बुनियाद के साथ-साथ वित्तीय सुधारों पर हमारा संकोची रवैया भी है। वित्तीय और बैंकिंग सुधारों की धीमी गति के लिए भले ही हमें दुनिया भर में कोसा जाता हो लेकिन वही धीमी गति इस संकट के समय हमारी ढाल साबित हुई है। हम अपनी अर्थव्यवस्था को खोल तो रहे हैं मगर धीरे-धीरे, हिंदुस्तानी परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते हुए। इसीलिए जिस तूफान ने अमेरिका और यूरोप को अपनी चपेट में लिया वह हमारे यहां सिर्फ एक बड़े झौंके के रूप में आया, सुनामी की शक्ल में नहीं।

जिस सब-प्राइम या आवासीय ऋण संकट ने पश्चिमी देशों के बैंकों को दीवालिएपन के कगार पर ला खड़ा किया, उससे हमारे बैंक अब तक करीब-करीब सुरक्षित हैं। एक बार फिर हमारे अनुदार रवैए के कारण। विशिष्ट हिंदुस्तानी मानसिकता के अनुसार, हमारे बैंक अधिकारी किसी को आसानी से कर्ज नहीं देते। वे ऋण के मामलों की उसी तरह जांच-पड़ताल करते हैं जैसे कि पैसा खुद उनकी जेब से जा रहा है। उसके बाद भी मकान की सिर्फ आधिकारिक कीमत का 80-85 फीसदी तक हिस्सा कर्ज के रूप में दिया जाता है। ऐसे कर्ज के डूबने के आसार बहुत कम हैं क्योंकि प्राय: मकान की बाजार कीमत की तुलना में कर्ज की राशि आधी भी नहीं होती। आवासीय बाजार में भारी गिरावट आने पर भी बैंक मकान पर कब्जा कर उतनी राशि आसानी से वसूल कर सकता है। रुपए को अब तक पूर्ण परिवर्तनीय न बनाया जाना और उसमें मुक्त कारोबार शुरू न किया जाना भी बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ। अब भले ही दुनिया हमें बैंकिंग, वित्तीय, मौिद्रक और बीमा क्षेत्र के अटके पड़े सुधारों के लिए कोसती रहे, मगर वैिश्वक वित्तीय संकट ने हमें सिखा दिया है कि सुधारों के मामले में फूंक-फूंक कर आगे बढ़ना ही श्रेयष्कर है।

Monday, October 13, 2008

आर्थिक मंदी खर्चने न दे, मुद्रास्फीति बचाने न दे

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी मजबूती बरकरार है और अगर उसमें निवेशकों तथा उपभोक्ताओं का विश्वास कायम रहेगा तो वह आगे भी बनी रहेगी। अगर भारतीय निवेशक आशंकित और भयभीत रहेगा तो संकट बढ़ता चला जाएगा। वित्त मंत्री का यह बयान कि `कोई डर नहीं है। अगर कोई डर है तो वह सिर्फ `डर` शब्द से है` इसे स्पष्ट कर देता है।

अमेरिका के कुछ वित्तीय संस्थानों से शुरू हुआ वित्तीय संकट धीरे-धीरे एक वैिश्वक समस्या बन गया है और काफी दिनों तक खुशफहमी में रहने के बाद अब हमारे कर्णधारों के सामने यह साफ होने लगा है कि भारत भी वैिश्वक मंदी से पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। हो सकता है कि अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया महाद्वीपों और एशिया के कुछ देशों की तुलना में हमारी स्थिति कुछ बेहतर हो। लेकिन वैश्वीकरण के दौर में, जब पूरी दुनिया एक किस्म की गुंफित, समिन्वत विश्व अर्थव्यवस्था की स्थापना के मार्ग पर बढ़ रही हो, तब कोई भी राष्ट्र आर्थिक दिग्गजों की तकलीफों से पूरी तरह अप्रभावित नहीं रह सकता। वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक की तरफ से लागू किए गए ताजा वित्तीय और मौिद्रक उपायों से जाहिर है कि भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान इस संकट को लेकर अन्य देशों की तुलना में कम गंभीर नहीं है।

रिजर्व बैंक ने पिछले पांच साल में पहली बार बाजार में तरलता बढ़ाने के लिए नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) को 150 आधार अंक घटाकर 7.5 प्रतिशत किया है। भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने भी विदेशी संस्थागत निवेशकों पर लगाए गए कुछ प्रतिबंधों में ढील देने का ऐलान किया है। ये वे प्रतिबंध हैं जिन्हें पिछले साल शेयर बाजार की असीमित उड़ान के दौर में लगाया गया था। बाजार की मंदी एक वित्तीय परिघटना होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक समस्या भी होती है और इसीलिए उसके इलाज की किसी भी रणनीति में मनोवैज्ञानिक घटकों का विशेष महत्व है। हमारा शेयर सूचकांक सेन्सेक्स या संवेदी सूचकांक कहा जाता है तो इसका केंद्रीय कारण उसकी संवेदी प्रकृति है। जरा सी अच्छी खबर मिलने पर वह उछल जाता है और जरा सी आशंका होने पर धराशायी होने में देर नहीं लगाता। भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती के बारे में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री पी चिदंबरम और वाणिज्य मंत्री कमलनाथ के बयानों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी मजबूती बरकरार है और अगर उसमें निवेशकों तथा उपभोक्ताओं का विश्वास कायम रहेगा तो वह आगे भी बनी रहेगी। अगर भारतीय निवेशक आशंकित और भयभीत रहेगा तो संकट बढ़ता चला जाएगा। वित्त मंत्री का यह बयान कि `कोई डर नहीं है। अगर कोई डर है तो वह सिर्फ `डर` शब्द से है` इसे स्पष्ट कर देता है।

लेकिन आम निवेशक, उपभोक्ता, कारोबारी और कर्मचारी आशंकाओं से मुक्त नहीं हैं। एक ओर विश्व भर से आ रही चिंताजनक खबरों का सिलसिला और दूसरी ओर हमारी अपनी अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ्तार आज के संवेदी माहौल में उसे भयभीत करने के लिए काफी हैं। बंबई स्टॉक एक्सचेंज का सेन्सेक्स (लगभग 11, 300) दो साल के निम्नतम स्तर पर चल रहा है और रुपए की कीमत (एक डालर बराबर 48 रुपए) छह साल के सबसे निचले स्तर पर है। आर्थिक विकास की दर पिछले साल के नौ फीसदी की तुलना में इस साल 7.9 फीसदी रहने का अनुमान है। हमारी समस्या का एक बड़ा कारण मुद्रास्फीति है जो लंबे समय से 12 फीसदी के आसपास बनी हुई है। मुद्रास्फीति को काबू में रखने के लिए बैंक कर्ज देने में कंजूसी से काम ले रहे हैं और ब्याज दरें बढ़ी हुई हैं। इसकी वजह से बाजार में मुद्रा का प्रवाह कम है, जबकि मौजूदा मंदी के माहौल में बाजार में तरलता बढ़ाए जाने की जरूरत है। मंदी के असर में कई बड़ी कंपनियों ने अपनी विस्तार योजनाओं को फिलहाल टाल रखा है और शेयर बाजार में आई गिरावट के चलते धन जुटाने के नए रास्तों की तलाश कर रही हैं। मुद्रास्फीति के कारण रिजर्व बैंक कोई बड़ा कदम उठाने की स्थिति में तो नहीं है लेकिन उसने सीआरआर में 150 आधार अंकों की कमी करके बाजार में करीब 60,000 करोड़ रुपए की रकम उपलब्ध करा दी है जिसका बाजार की स्थिति पर सकारात्मक असर पड़ना चाहिए।

वैिश्वक मंदी से वे सेक्टर सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे जिनका संबंध विदेशी बाजारों या विदेशी पूंजी से है। भारतीय शेयर बाजार में पिछले आठ-दस महीनों से लगातार चल रही गिरावट का सीधा संबंध विदेशी निवेशकों द्वारा हमारे बाजारों से धन खींच लिए जाने से है। पहले तो वे अपने लाभ के लिए हमारे बढ़ते पूंजी बाजार में खूब धन लगाकर उसे ऊपर उठाते चले गए और फिर मुनाफा बटोरकर चलते बने। इन निवेशकों में उन बैंकों का भी धन था जो आज विश्वव्यापी वित्तीय संकट के केंद्र में बताए जाते हैं। मंदी के माहौल में वे यहां पर अधिक समय तक टिके रहने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने बाजार को अपने हिसाब से निर्देशित किया और लाखों उत्साहित भारतीय निवेशकों को अधर में छोड़कर चले गए।

Friday, October 3, 2008

अहिंसा का अर्थ कमजोर होना नहीं है

- बालेन्दु दाधीच

श्वेतों और अश्वेतों को समाज में समान दर्जा दिलवाने के लिए मार्टिन लूथर किंग का अथक और सफल संघर्ष महात्मा गांधी के सिद्धांतों की वैश्विक स्तर पर हुई एक और महान विजय का प्रतीक था। किंग ने कहा था कि ईसा मसीह ने हमें लक्ष्य दिखाए हैं लेकिन उन लक्ष्यों तक पहुंचने का मार्ग गांधीजी ने सुझाया है।

पिछले साल संयुक्त राष्ट्र संघ ने महात्मा गांधी के जन्म दिवस दो अक्तूबर को `अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस` घोषित कर उनके सिद्धांतों के प्रति समूचे विश्व की आस्था को अभिव्यक्त किया है। प्रथम अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के मौके पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा था कि हिंसा, आतंक और असमानता से ग्रस्त आज के समाज को गांधीजी के सिद्धांतों की पहले से भी ज्यादा जरूरत है। वास्तव में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना जिन उद्देश्यों को लेकर हुई थी (शांति, सहिष्णुता और मानवीय गरिमा की स्थापना) वे वही हैं जिनके लिए गांधीजी ने जीवन भर संघर्ष किया। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के पीछे की धारणा यह है कि युद्धों को समाप्त ही नहीं किया जा सकता बल्कि अनावश्यक भी बनाया जा सकता है। गांधीजी का शांतिपूर्ण प्रतिरोध, सत्याग्रह या सविनय अवज्ञा के सिद्धांतों की भावना भी तो यही है।

हो सकता है कि कुछ लोगों को अहिंसा का विचार आज के समय में प्रासंगिक न लगे लेकिन अहिंसा का अर्थ कमजोर होना नहीं है। इसका अर्थ है अपने प्रतिद्वंद्वी को नैतिक रूप से अस्त्रहीन कर देना। उसे अपने बल-प्रयोग की नैतिकता पर लज्जा महसूस करने पर विवश कर देना। इस तरह की विजय अधिक स्थायी और सार्थक है क्योंकि वह न सिर्फ दमन को समाप्त करती है बल्कि दमनकारी व्यक्ति को भी बदल देती है। भारत में गांधीजी के नेतृत्व में स्वाधीनता आंदोलन की सफलता के साथ-साथ अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन, पोलैंड में लेक वालेसा के नेतृत्व में हुए लोकतंत्र समर्थक आंदोलन और चेकोस्लोवाकिया में चार्टर 77 के आंदोलन की सफलता अहिंसक प्रतिरोध की शक्ति को प्रमाणित कर चुकी हैं। गांधीजी के अहिंसा और सत्य के सिद्धांतों ने उनके निधन के बाद भी विश्व के कोने-कोने में लोगों को अन्याय से मुक्ति दिलाई है। लोगों का जीवन बदल देने वाले ऐसे महापुरुष के सामने विश्व के सबसे बड़े पुरस्कार भी छोटे पड़ जाते हैं। यह बात नोबेल पुरस्कार देने वाली नार्वे की नोबेल समिति ने भी कही है जिसे आज तक यह पीड़ा साल रही है कि भगवान बुद्ध और ईसा मसीह के बाद विश्व में शांति के लिए सबसे बड़ा योगदान देने वाले महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया गया। इस बारे में नोबेल समिति की स्थायी मानसिक पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए उसकी वेबसाइट पर एक विशेष पृष्ठ मौजूद है जो उन परिस्थितियों की चर्चा करता है जिनके कारण ऐसा नहीं हो सका। गांधीजी विश्व की ऐसी अकेली हस्ती हैं जिनके बारे में नोबेल समिति को इस तरह की स्थायी आत्मग्लानि है और वह इस बात को छिपाती भी नहीं। वह मानती है कि गांधीजी किसी भी नोबेल पुरस्कार से बहुत बड़े हैं।

तिब्बती धार्मिक नेता दलाई लामा ने पिछले दिनों कहा था कि महात्मा गांधी, जो कि उनके भी आदर्श हैं, एक सामान्य भारतीय दिखते हैं लेकिन वास्तव में उनके विचार बहुत आधुनिक हैं। गांधीजी के विचार आज भी विश्व भर के युवाओं को प्रभावित करते हैं यह बात अमेरिकी विश्वविद्यालयों में कराए गए एक सर्वेक्षण में फिर से सिद्ध हुई है। अमेरिकी छात्रों ने गांधीजी को दुनिया की किसी भी ऐतिहासिक या वर्तमान राजनैतिक हस्ती से ऊपर माना है, जिनसे वे प्रेरणा लेना चाहेंगे। बर्लिन में छात्रों की मांग पर एक विद्यालय का नाम बदलकर गांधीजी के नाम पर रखा गया है। अनेक अमेरिकी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में गांधीवाद पर पाठ्यक्रम शुरू किए गए हैं।

गांधीजी के विचारों की लोकिप्रयता, प्रासंगिकता और उनके प्रति सम्मान की भावना को गाहे-बगाहे अनेक बड़ी हस्तियां जाहिर करती रहती हैं। जैसे ब्रिटिश प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन, जिन्होंने कहा कि वे गांधीजी जैसे अपने आदर्श की तुलना में कुछ भी नहीं हैं लेकिन उनकी प्रेरणा हमेशा उनके साथ है। पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनीमल्स के प्रमुख ब्रुस फ्रेडरिक ने शाकाहार के मामले में गांधीजी को अपना प्रेरणा स्रोत बताया है। एक फिलस्तीनी आत्मघाती हमलावर शिफा अल कुदसी का गांधीजी के विचारों को पढ़कर हृदय परिवर्तन हो गया है और वह मध्यपूर्व में शांति और अहिंसा को बढ़ावा देने में जुट गई है। विश्व भर में मिलने वाली ऐसी मिसालें अनगिनत हैं जिनके केंद्र में सिर्फ एक महापुरुष हैं- महात्मा गांधी। हमारा सौभाग्य है कि वे भारत में जन्मे। गर्व की बात है कि हमें उनका प्रत्यक्ष नेतृत्व और मार्गदर्शन मिला। किंतु उनके मानवतावादी विचारों की वैिश्वक प्रासंगिकता और स्वीकार्यता हमेशा बनी रहेगी।

Thursday, October 2, 2008

गांधी को सीमाओं में बंद किया ही नहीं जा सकता

- बालेन्दु दाधीच

गांधीजी सच्चे अर्थों में एक विश्व मानव थे। एक ऐसा महान व्यक्ति जो `वसुधैव कुटुम्बकम` की भावना में आत्मा से विश्वास रखता था। ऐसी शिख्सयत जो पूरे विश्व को हिंसा, दमन, पराधीनता, अन्याय और असत्य से मुक्त देखना चाहती थी। न तो गांधी के विचार और न वे स्वयं किसी एक राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं के भीतर रखकर देखे जा सकते हैं।

अमेरिका में जब लोग सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था के प्रति असहमति, प्रतिरोध या निराशा प्रकट करने के लिए उठ खड़े होते हैं तो वे न्यूयॉर्क के यूनियन स्क्वायर जाकर अपनी आवाज बुलंद करते हैं। यूनियन स्क्वायर विश्व भर में राजनैतिक मतान्तर की अभिव्यक्ति का केंद्र और लोकतांत्रिक भावना के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। वहां पर जिन विश्व इतिहास की जिन तीन महान हस्तियों की मूर्तियां स्थापित हैं, उनमें जॉर्ज वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन के अलावा तीसरे हैं महात्मा गांधी। अमेरिका और विश्व के अलग-अलग क्षेत्रों से आए हुए, अलग-अलग राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक दृष्टिकोण वाले लोग वहां गांधी प्रतिमा की आश्वस्तकारी छत्रछाया में अपनी प्रतिरोधी आवाज उठाते हैं। ये लोग गांधीजी से प्रेरणा लेते हैं, अहिंसा, शांति और एकता के गांधीवादी सिद्धांतों में गहरी आस्था रखते हुए अपने संघर्ष को नैतिक मजबूती प्रदान करते हैं। क्योंकि गांधीजी के सिद्धांत और विचार सिर्फ हम भारतीयों के लिए ही नहीं हैं।

गांधीजी सच्चे अर्थों में एक विश्व मानव थे। एक ऐसा महान व्यक्ति जो `वसुधैव कुटुम्बकम` की भावना में आत्मा से विश्वास रखता था। ऐसी शिख्सयत जो पूरे विश्व को हिंसा, दमन, पराधीनता, अन्याय और असत्य से मुक्त देखना चाहती थी। न तो गांधी के विचार और न वे स्वयं किसी एक राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं के भीतर रखकर देखे जा सकते हैं। वे पूरे विश्व के महात्मा हैं। वे समूची मानवता के प्रतिनिधि हैं। गांधीजी के प्रति सम्मान और लगाव विश्व के कोने-कोने में दिखाई देता है। कभी डाक टिकटों के रूप में, कभी प्रमुख मार्गों के नामकरण के रूप में तो कभी उनकी प्रतिमाओं और चित्रों के रूप में। यह सम्मान किसी किस्म के वैश्विक राजनैतिक समीकरणों या कूटनीतिक सद्भावनाओं पर आधारित नहीं है बल्कि वास्तविक एवं स्वत: स्फूर्त है क्योंकि गांधीजी कभी किसी सरकारी पद पर नहीं रहे। गांधीजी के निधन के साठ साल बाद भी दुनिया उनसे प्रेरणा ले रही है, उनके नाम और सिद्धांतों के साथ जुड़ने में गर्व का अनुभव करती है।

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बराक ओबामा ने कुछ महीने पहले कहा था कि महात्मा गांधी जीवन भर उनके लिए प्रेरणा स्रोत बने रहे हैं। गांधी का संदेश उन्हें निरंतर इस बात की याद दिलाता रहता है कि जब सामान्य लोग असामान्य कार्य करने के लिए एकजुट होते हैं तो विश्व में युगांतरकारी बदलाव संभव हैं। ओबामा के सीनेट कार्यालय में गांधीजी का चित्र लगा है जो उन्हें हमेशा सच के हक में खड़े होने के लिए प्रेरित करता रहता है, आम आदमी के प्रति अपने दायित्वों का स्मरण कराता रहता है। ओबामा अमेरिका में हुए नागरिक अधिकार आंदोलन के प्रणेता मार्टिन लूथर किंग के विचारों के प्रति भी गहरी आस्था रखते हैं और यह कोई संयोग नहीं है कि स्वयं किंग का सारा आंदोलन महात्मा गांधी के विचारों और अहिंसक तौर-तरीकों पर आधारित था। श्वेतों और अश्वेतों को समाज में समान दर्जा दिलवाने के लिए उनका अथक और सफल संघर्ष महात्मा गांधी के सिद्धांतों की वैश्विक स्तर पर हुई एक और महान विजय का प्रतीक है। मार्टिन लूथर किंग ने तो महात्मा गांधी को ईसा मसीह से जोड़ा था। उन्होंने कहा था कि ईसा मसीह ने हमें लक्ष्य दिखाए हैं लेकिन उन लक्ष्यों तक पहुंचने का मार्ग गांधीजी ने सुझाया है।

दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में चले लंबे रंगभेद विरोधी आंदोलन की सफलता भी गांधीजी के सिद्धांतों की जीत है जिन्होंने वहां रंगभेद के विरुद्ध लड़ाई की शुरूआत की थी। मंडेला ने हमेशा गांधीजी को अपना प्रेरणा स्रोत माना है जिन्होंने बीस साल तक दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के दमन के विरुद्ध संघर्ष किया और एक व्यापक आंदोलन की नींव तैयार की। डरबन से प्रीटोरिया जाते समय जिस पीटरमारिट्जबर्ग स्टेशन पर उन्हें ट्रेन से नीचे फेंक दिया गया था, आज उसी शहर के बीचोबीच गांधीजी की प्रतिमा स्थापित है। दो साल पहले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने उसी डरबन-प्रीटोरिया रेलमार्ग पर पीटरमारिट्जबर्ग स्टेशन तक रेल यात्रा कर गांधीजी को श्रद्धांजलि दी थी।
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
- मेरा होमपेज http://www.balendu.com
- प्रभासाक्षी.कॉमः हिंदी समाचार पोर्टल
- वाहमीडिया मीडिया ब्लॉग
- लोकलाइजेशन लैब्सहिंदी में सूचना प्रौद्योगिकीय विकास
- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com