Saturday, December 3, 2011

लोकतंत्र इंतजार करो, संसद में हंगामा जारी है

एफडीआई पर हंगामे के शोर में लोकपाल का मुद्दा अखबारों की छोटी खबर बन गया है। सरकार को विधेयक पास न होने का एक अच्छा कारण मिल गया है। जब संसद सत्र ही नहीं हो पा रहा तो विधेयक पास कैसे कराया जाए?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

एक बार फिर संसद सत्र में हंगामे का बोलबाला है। बाईस नवंबर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र में हर दिन नियम से हंगामा होता है और दोनों सदनों की कार्यवाही टल जाती है, फिर से वही प्रक्रिया दोहराए जाने के लिए। कभी बांग्लादेश इसके लिए मशहूर हुआ करता था जहां विपक्षी दलों के बरसों लंबे बायकाट के कारण संसदीय साख में भारी गिरावट आई। संसदीय कायर्वाही में व्यवधान और स्थगन अब भारत में भी आश्चर्य का विषय नहीं रहा। बल्कि वह एक नज़ीर बनता जा रहा है। संसद सत्र पर हर घंटे खर्च होने वाली 25 लाख रुपए की रकम प्रासंगिक नहीं रह गई है। न ही जरूरी विधेयकों का पारित होना या न होना। ऐसा लगता है कि दोनों पक्ष जोर.जोर से अपनी बात सुनाने के लिए संसद का इस्तेमाल कर रहे हैं। धरनों, प्रदर्शनों, बंद, हड़तालों, बहसों और चर्चाओं की तुलना में संसदीय हंगामा अपनी पसंद के मुद्दों की ओर ध्यान खींचने का आसान जरिया बन रहा है। नतीजे में संसदीय परंपराओं तथा गरिमाओं का क्षरण हो रहा है।

संसदीय कायर्वाही के आंकड़े निराशाजनक हैं। सन 2009 में शुरू हुई पंद्रहवीं लोकसभा में 200 प्रस्तावित विधेयकों में से अब तक सिर्फ 57 विधेयक पारित हो सके हैं। इनमें भी 17 फीसदी विधेयक ऐसे थे जिन पर पांच मिनट से भी कम समय के लिए चर्चा हुई। ऐसी चर्चाओं की सार्थकता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। इस बार के संसद के मौजूदा सत्र में 21 बैठकें होनी थीं मगर एक तिहाई सत्र का घटनाक्रम देखते हुए आगे बचे दिनों से भी विशेष उम्मीद नहीं पालनी चाहिए। इस बीच 31 विधेयकों के पारित होने और लोकपाल विधेयक समेत 23 बिलों को पेश किए जाने की संसदीय प्रक्रिया हालात संभलने का इंतजार कर रही है।

हंगामा जरूरी या चर्चा

संसद को चलने दिया जाना चाहिए, क्योंकि राष्ट्र हित के मुद्दों को उठाने तथा उन पर सार्थक निर्णय करने और करवाने का वही मंच है। विधानसभाओं के सत्र तो वैसे ही राज्य सरकारों की राजनैतिक सुविधा-असुविधा पर आश्रित होकर निरंतर छोटे से छोटे होते जा रहे हैं। ले-देकर केंद्र में प्राय: समय पर संसदीय सत्रों का आयोजन होता है तो वह हंगामों की भेंट चढ़ जाता है। इससे वास्तव में किसी का नुकसान होता है तो हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का। सरकार तो अपने कार्यों को वैकल्पिक माध्यमों से भी पूरा कर लेती है। बेहतर यह हो कि भ्रष्टाचार, महंगाई, लोकपाल, नए राज्यों की स्थापना और ऐसे ही दूसरे महत्वपूण्र मुद्दों पर हंगामे की बजाए चर्चा हो। गतिरोध रास्ता रोकता है, उसे आगे नहीं बढ़ाता। किंतु पिछले तीन सत्रों के दौरान यदि संसद का सवरधिक समय किसी प्रक्रिया में व्यतीत हुआ तो वह थी. गतिरोध। इसके लिए किसी भी पक्ष को एकतरफा तौर पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह हमारे राजनैतिक तंत्र की समस्या बन चुकी है।

आज राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक और वामपंथी दलों ने जो रणनीति अपनाई है, वही राजग शासनकाल में कांग्रेस की रणनीति हुआ करती थी। पूवर् रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज के विरुद्ध लगे आरोपों को लेकर संसद में लंबे समय तक इसी तरह का गतिरोध पैदा किया गया। आज राजग ने पी चिदंबरम को संसद में न बोलने देने का निण्रय लिया है तो तब कांग्रेस जॉर्ज के साथ ऐसा ही करती थी। जब वे बोलने खड़े होते थे तो हंगामा होता था और कांग्रेसी सांसद सदन छोड़कर चले जाते थे। मुद्दे भी एक से हैं और परिस्थितियां भी एक सी। बस किरदार बदल गए हैं।

सरकार को राहत?

कई बार लगता है कि विपक्ष जिस हंगामे को अपनी बात पर जोर डालने का जरिया मान रहा है, वह सत्तारूढ़ दल के लिए कहीं अधिक अनुकूल सिद्ध हो रहा है। संप्रग सरकार 2जी घोटाले, महंगाई, भ्रष्टाचार, लोकपाल विधेयक, तेलंगाना की स्थापना और उत्तर प्रदेश के विभाजन की मांगें और मंदी की आशंका जैसे मुद्दों पर घिरी हुई है। यदि संसद चलती तो ऐसे मुद्दों पर विपक्ष के हमले अवश्यंभावी थे। अन्ना हजारे दोबारा दिल्ली में अनशन पर बैठने की घोषणा कर चुके हैं। अनशन की अवधि उतनी प्रासंगिक नहीं है जितना कि उसका प्रभाव। सुब्रह्मण्यम स्वामी दूरसंचार घोटाले से जुड़े विवादों में गृह मंत्री पी चिदंबरम की भूमिका का पर्दाफाश करने का 'प्रण' लेकर बैठे हैं। पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा के बयानों और सरकारी दस्तावेजों तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करने के अदालती आदेश ने उनका काम आसान कर दिया है। सरकार कई मुद्दों पर जवाब देने की स्थिति में नहीं है। संसद चलता तो उसकी स्थिति कोई बहुत सुविधाजनक नहीं होने वाली थी।

लेकिन भला हो खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश संबंधी फैसले का, जिसने यह सुनिश्चित कर दिया कि संसद चलेगी ही नहीं। यहां हम इस फैसले के गुणदोष पर चर्चा नहीं कर रहे क्योंकि उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के इतने साल बाद यह फैसला तो स्वाभाविक ही था, लेकिन मुद्दा इसकी टाइमिंग का है। इसकी घोषणा ऐन संसद सत्र के मौके पर किया जाना सिर्फ विपक्षी एकता को मजबूत करने वाला कदम मात्र नहीं है। यह एक चतुराई भरा राजनैतिक फैसला भी है। यह निण्रय अनायास नहीं हुआ होगा कि संसद सत्र के दौरान इसकी घोषणा सदन से बाहर की जाए। सरकार को इस पर संभावित विपक्षी प्रतिक्रिया का भली भांति अहसास रहा होगा। अब भले ही अन्ना हजारे कहते रहें कि शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक पारित न होने पर वे राष्ट्रव्यापी आंदोलन में जुट जाएंगे। एफडीआई पर हंगामे के शोर में लोकपाल का मुद्दा अखबारों की छोटी खबर बन गया है। सरकार को विधेयक पास न होने का एक अच्छा कारण मिल गया है। जब संसद सत्र ही नहीं हो पा रहा तो विधेयक पास कैसे कराया जाए? न महंगाई, न भ्रष्टाचार और न काला धन। कम से कम उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों तक उसे इन आक्रामक मुद्दों से कन्नी काटने का मौका मिल गया है।

Saturday, November 5, 2011

पाकिस्तान से आया ताज़ा हवा का झोंका

पिछले कुछ हफ्तों में भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों में कई सकारात्मक बदलाव आए हैं। संयुक्त राष्ट्र से लेकर राष्ट्रमंडल और पाक.अमेरिका टकराव से लेकर एमएफएन के दर्जे तक कुछ सकारात्मक घटित हो रहा है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

भारत और पाकिस्तान के संबंध इसी तरह से आगे बढ़ने चाहिए। दोनों देशों के बीच छह दशकों से जिस तरह के कटु और आक्रामक रिश्ते चले आए हैं, उन्हें देखते हुए पिछले कुछ हफ्तों की घटनाओं पर ताज्जुब होता है। अचानक ऐसा क्या हुआ कि पाकिस्तान के रुख में बदलाव, वह भी सकारात्मक, आ रहा है? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता के मुद्दे पर भारत ने पाकिस्तान के हक में वोट डाला। राष्ट्रमंडल के भारतीय महासचिव कमलेश शर्मा के कायर्काल को चार साल के लिए आगे बढ़ाने के मुद्दे पर पाकिस्तान ने भारत के प्रस्ताव का अनुमोदन किया। कुछ दिन पहले भारतीय थलसेना का एक हेलीकॉप्टर गलती से पाक अधिकृत कश्मीर में चला गया और वहां के सुरक्षा अधिकारियों ने कोई भी नुकसान पहुंचाए बिना उसे लौटने की इजाजत दे दी जबकि अतीत में ऐसी घटनाओं में कई सैनिकों और असैनिकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। फिर 15 साल लंबे अनिश्चय के बाद पाकिस्तान ने आखिरकार भारत को सबसे तरजीही देश (एमएफएन) का दर्जा देने का फैसला किया और अब खबर है कि 26 नवंबर 2008 के मुंबई विस्फोटों की जांच के सिलसिले में बनाया गया पाकिस्तानी आयोग तफ्तीश के लिए भारत आने वाला है। पता नहीं यह सिलसिला कितने कम या ज्यादा दिनों तक चलेगा, मगर इस उपमहाद्वीप में अमन और तरक्की चाहने वाला हर इंसान यही चाहेगा कि सद्भावना और सौहार्द का यह दौर यूं ही चलता रहे।

भौगोलिक सच्चाइयों, साझी विरासत और साझे इतिहास के जरिए दोनों देश एक दूसरे से कुछ यूं जुड़े हुए हैं कि उन्हें अलग करना नामुमकिन है। लेकिन पड़ोसी होते हुए भी हम एक.दूसरे से कितने दूर हैं! बड़ा अज़ीब रिश्ता है यह। पाकिस्तानी नागरिकों से पूछिए कि वे किससे सवरधिक नफरत करते हैं तो उनका जवाब होगा- भारत। यही सवाल भारत में पूछिए तो जवाब मिलेगा- पाकिस्तान। अब हालात को जरा पलटकर देखिए। जब भी माहौल सकारात्मक रहा है, पाकिस्तानियों ने भारतीयों के लिए और हमने पाकिस्तानियों के लिए इतना प्यार दिखाया है कि समझ ही नहीं आता कि इतनी भावनात्मक निकटता के बावजूद हमारे बीच नफरतों की दीवारें भला क्यों आ खड़ी होती हैं? तेरा साथ सह न पाऊं और तेरे बिना रह न पाऊं। अच्छी बात है कि आपसी संबंधों का रोलर-कास्टर एक बार फिर अच्छे दौर से गुजर रहा है। अब भले ही एमएफएन के मुद्दे पर पाकिस्तान में अस्थायी ऊहापोह, अंतरविरोधों और घबराहट का आभास हो रहा हो, यह एक सच्चाई है जो आज नहीं तो कल अमल में आ ही जाएगी।

भारत ने कितने मौकों पर पाकिस्तान की तरफ सौहार्द, सद्भावना और दोस्ती का हाथ बढ़ाया! रक्तहीन क्रांति के जरिए सत्ता हथियाने के बाद जब जनरल परवेज मुशर्रफ को पूरी दुनिया ने दुत्कार दिया था तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी सत्ता को मान्यता दी और विश्व राजनीति में उपेक्षित, राष्ट्रमंडल से निष्कासित पाकिस्तान धीरे.धीरे मुख्यधारा में लौटा। क्रिकेट की दुनिया में जब कोई देश पाकिस्तान का दौरा करने को तैयार नहीं था तब भारतीय क्रिकेट टीम ने वहां जाकर यह धारणा दूर करने का प्रयास किया कि पाकिस्तान में आतंकवाद के हालात इतने बिगड़े हुए हैं कि वहां कोई विदेशी टीम जा ही नहीं सकती। सन 1996 में डब्लूटीओ के प्रावधानों के तहत भारत ने पाकिस्तान को सबसे तरजीही राष्ट्र का दर्जा दिया। लेकिन जो घटना लोगों की निगाह में ज्यादा नहीं आई वह थी ताजा अमेरिका.पाक टकराव के दौर में भारत की ओर से जारी किया गया वह आधिकारिक बयान जिसकी उम्मीद पाकिस्तान को कभी नहीं रही होगी। जब पाकिस्तान पर अमेरिकी हमले की संभावनाओं की चर्चा हो रही थी, तब भारत ने अवसरवादिता की बजाए सद्भाव दिखाया और आधिकारिक चेतावनी दी कि दक्षिण एशिया में किसी भी आक्रामक कार्रवाई का इस इलाके में शांति, स्थिरता और विकास पर गभीर असर पड़ेगा। इससे भारत भी प्रभावित होगा। इस बयान ने पाकिस्तान को कितनी राहत दी होगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। संभव है, इसके बाद ही भारत के प्रति उसका नजरिया बदला हो।

एमएफएन का दर्जा

अमेरिका ने कहा है कि पाकिस्तान द्वारा भारत को एमएफएन का दर्जा दिया जाना उनके आपसी संबंधों को बेहतर बनाने के लिए उठाए गए सबसे महत्वपूण्र कदमों में से एक है। उद्योग और व्यापार जगत के दिग्गजों का मानना है कि इससे दोनों ही देशों को लाभ होगा और उनका आपसी व्यापार 2॰6 अरब डालर सालाना से बढ़कर नौ अरब डालर तक पहुंच जाएगा। यह खुलेपन का दौर है, जिसमें हर देश अपनी अर्थव्यवस्था को खोल रहा है। वैश्वीकरण के युग में स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता अप्रासंगिक होती जा रही है। पाकिस्तान के इंजीनियरिंग और दवा उद्योग में भारतीय उत्पादों से मिलने वाली चुनौती को लेकर चिंता जरूर है, लेकिन टेक्सटाइल्स, सीमेंट, कृषि उत्पादों, सर्जिकल उपकरणों जैसी दर्जनों चीजें भारत को निर्यात कर वहां के उद्यमी भी लाभान्वित होने वाले हैं। भारत ने संकेत दिया है कि अगर पाकिस्तान एमएफएन के मुद्दे पर ठोस कदम उठाता है तो वह पाकिस्तानी कपड़ा उद्योगों को तरजीही रियायतें दे सकता है। टेक्सटाइल्स के क्षेत्र में में पाकिस्तान एक अहम निर्यातक है। इन सबके अलावा, उसे हर साल करीब दो अरब अमेरिकी डालर की मदद उन भारतीय सामानों के सीधे आयात के कारण होगी जो फिलहाल पाक पाबंदियों के चलते दुबई के रास्ते वहां भेजे जाते हैं। भारतीय नियरतकों से मिलने वाले कर अलग हैं। इन सबसे अहम, यह कदम दोनों देशों के कारोबारी संबंधों से तनाव और संदेह के वातावरण से आजाद कर सौहार्द की ओर ले जाएगा। कारोबारियों के लिए वीजा नियमों का सरलीकरण और उदारीकरण भी होने जा रहा है। अब दोनों देशों के कारोबारी न सिर्फ ज्यादा आसानी से सीमा के इधर-उधर आ जा सकेंगे बल्कि दूसरी तरफ की कंपनियों से रिश्ते भी कायम करेंगे। वे एक दूसरे के बाजार और उद्यमिता से काफी कुछ पाएंगे। कारोबारी क्षेत्र का सौहार्द राजनीति और समाज के स्तर पर भी कुछ न कुछ असर जरूर डालेगा। वैसे ही, जैसे नागरिकों से नागरिकों के रिश्ते डालते हैं।

पाकिस्तान सरकार ने देर से ही सही एक सही, बुद्धिमत्तापूर्ण और साहसिक कदम उठाया है। उसे दुष्प्रचार अभियान चलाने वालों और मामले को भावनात्मक मुद्दों से जोड़ने वालों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। भारत के साथ कारोबारी संबंध मजबूत बनाकर श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल ने काफी लाभ उठाया है। ऐसा करने से पाकिस्तान का भी कोई नुकसान होने वाला नहीं है। जिस विशाल भारतीय बाजार पर दुनिया भर के व्यापारियों की नजर है, उस तक आसान, तरजीही पहुंच उसके लिए लाभदायक सिद्ध हो सकती है, बशर्ते वह इन नए अवसरों का फायदा उठा सके। आर्थिक रूप से असमान रूप से विकसित देशों के बीच व्यापार में असंतुलन की गुंजाइश हमेशा रहती है, जैसा भारत और चीन के बीच है। अगर पाकिस्तान को व्यापार घाटा बढ़ने की आशंका है तो वह जायज टैरिफ के जरिए उसे अनुशासित करने के लिए स्वतंत्र है ही।

क्या थी झिझक

भारत में जहां एमएफएन के मुद्दे को एक कारोबारी मुद्दा माना जाता है, वहीं पाकिस्तान में इसे आपसी राजनैतिक विवादों के साथ जोड़कर देखा जाता है, खासकर कश्मीर के साथ। एक के बाद एक पाकिस्तानी सरकारों ने यही रुख अपनाया कि जब तक कश्मीर समस्या हल नहीं होती, भारत को तरजीही राष्ट्र का दर्जा नहीं दिया जाएगा, भले ही डब्लूटीओ के तहत यह अपेक्षा की जाती है कि उसका हर सदस्य राष्ट्र एक-दूसरे को एमएफएन का दर्जा देगा। वहां ऐसा माना जाता था कि आपसी संबंध सामान्य हुए तो कश्मीर का सवाल उपेक्षित हो जाएगा जिसे बड़ी कोशिशों के बाद एक भावनात्मक मुद्दे के रूप में आम पाकिस्तानी नागरिकों के मन में जिंदा रखा गया है। पाकिस्तान सरकार के फैसले के बाद आने वाली नकारात्मक प्रतिक्रियाओं में भी यह मुद्दा प्रमुखता से उठा है। इसे पाकिस्तान की कश्मीर नीति में नरमी के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि पाकिस्तान सरकार की इस घोषणा के बाद कि यह फैसला सेना और आईएसआई की सहमति से किया गया है, वहां के लोगों को इस तरह का असुरक्षा बोध नहीं होना चाहिए।

कुछ पाकिस्तानी उद्योग संगठनों ने कहा है कि भारत की ओर से पंद्रह साल पहले मिले एमएफएन के दर्जे का उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ है क्योंकि भारत ने बहुत सी पाकिस्तानी चीजों के आयात पर नॉन-टैरिफ बैरियर लगाए हुए हैं। इस सिलसिले में कपड़े और सीमेंट की मिसालें दी जाती हैं। हालांकि यह आरोप पूरी तरह गलत नहीं है लेकिन इसे पाकिस्तानी नजरिए के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। कोई भी देश यह नहीं चाहेगा कि दूसरा देश स्वयं उसे ऐसी सुविधा दिए बिना उसके बाजार का एकतरफा तौर पर फायदा उठाता रहे। अब जबकि पाकिस्तान ने हमें एमएफएन का दर्जा देने का फैसला कर लिया है, भारत की तरफ से खड़ी की गई रुकावटें भी धीरे-धीरे खत्म हो जानी चाहिए। वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने पाकिस्तानी कपड़ा निर्यातकों को नई रियायतें देने का संकेत दिया है, जो सीमा के इस पार आसन्न मैत्रीपूण्र बदलावों की ओर संकेत करता है। कुछ हम बढ़ें, कुछ आप बढ़ो॰॰ वैश्वीकरण के दौर में दूरियां ऐसे ही खत्म होती चली जाएंगी।

Friday, October 7, 2011

अन्वेषक, आविष्कारक, उद्यमी, स्वप्नदृष्टाः अद्वितीय स्टीव जॉब्स

स्टीव जॉब्स सिर्फ सपने देखने वाले ही नहीं थे, वे सपनों को सच करके दिखाने वाले ऐसे अद्वितीय इंसान थे जिन्होंने अपनी तकनीकों, उत्पादों और विचारों के जरिए विश्व में क्रांतिकारी बदलावों को जन्म दिया।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

दुनिया की शीर्ष आईटी कंपनी एपल के संस्थापक स्टीव जॉब्स ने कई साल तक कैंसर से लड़ने के बाद पांच अक्तूबर को इस दुनिया से विदा ले ली। महज 56 साल की उम्र में स्टीव जॉब्स का चला जाना न सिर्फ सूचना प्रौद्योगिकी जगत बल्कि पूरी दुनिया के लिए बहुत बड़ा आघात है। वे सिर्फ सपने देखने वाले ही नहीं थे, वे सपनों को सच करके दिखाने वाले ऐसे अद्वितीय इंसान थे जिन्होंने अपनी तकनीकों, उत्पादों और विचारों के जरिए विश्व में क्रांतिकारी बदलावों को जन्म दिया। स्टीव जॉब्स सामान्य वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और तकनीशियनों से अलग थे। वे एक अन्वेषक, शोधकर्ता और आविष्कारक थे। आईटी की दुनिया में तकनीक का सृजन करने वाले तो बहुत हैं लेकिन उसे सामान्य लोगों के अनुरूप ढालने और तकनीक को खूबसूरत, प्रेजेन्टेबल रूप देने वाले बहुत कम। स्टीव जॉब्स एक बहुमुखी प्रतिभा, एक पूर्णतावादी, करिश्माई तकनीकविद् और अद्वितीय 'रचनाकर्मी' थे, तकनीक के संदर्भ में उन्हें एक पूर्ण पुरुष कहना गलत नहीं होगा।

उनके देखे 56 वसंतों के दौरान अगर यह विश्व क्रांतिकारी ढंग से बदल गया है तो इसमें खुद स्टीव जॉब्स की भूमिका कम नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहे गए ये शब्द कितने सटीक हैं कि 'स्टीव की सफलता के प्रति इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होगी कि विश्व के एक बड़े हिस्से को उनके निधन की जानकारी उन्हीं के द्वारा आविष्कृत किसी न किसी यंत्र के जरिए मिली।' स्टीव जॉब्स, दुनिया भर में फैले हुए आपके आविष्कारों के हम करोड़ों उपयोक्ता और आपकी उद्यमिता तथा अद्वितीय मेधा के अरबों प्रशंसक आपको कभी भुला नहीं पाएंगे।

स्टीव जॉब्स का जीवन अनगिनत पहलुओं, किंवदंतियों और प्रेरक कथाओं का अद्भुत संकलन रहा है। हर मामले में वे दूसरों से अलग किंतु शीर्ष पर दिखाई दिए। चाहे वह एपल से निकलने के बाद का जीवन संघर्ष हो या फिर लंबी जद्दोजहद के बाद उसी एपल में वापसी और फिर उसे आईटी की महानतम कंपनी बनाने की उनकी सफलता। माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स के साथ उनकी लंबी प्रतिद्वंद्विता के भी दर्जनों किस्से रहे हैं। दोनों किसी समय मित्र थे किंतु बाद में अलग-अलग रास्तों पर चले गए। न सिर्फ व्यवसाय की दृष्टि से बल्कि तकनीकी दृष्टि से भी उन्होंने आईटी की दुनिया में दो अलग-अलग धुर स्थापित किए। दोनों बहुत सफल, बहुत सक्षम, विस्तीर्ण किंतु परस्पर विरोधाभास लिए हुए। कभी बिल तो कभी गेट्स, सकारात्मक प्रतिद्वंद्विता की इस प्रेरक दंतकथा के उतार-चढ़ाव तकनीकी विश्व के बाकी दिग्गजों के लिए सीखने के नए अध्याय बनते चले गए। किंतु अंततः स्टीव एक विजेता के रूप में विदा हुए। कोई डेढ़ साल पहले एपल ने माइक्रोसॉफ्ट को पछाड़कर दुनिया की सबसे बड़ी तकनीकी कंपनी बनने का गौरव प्राप्त किया। और इसके पीछे यदि किसी एक व्यक्ति की प्रेरणा, जिजीविषा, लगन, प्रतिभा और उद्यमिता थी, तो वे थे स्टीव जॉब्स।

स्टीव के योगदान को बिल गेट्स से बेहतर कौन आंक सकता है, जिन्होंने उनके निधन पर कहा कि 'दुनिया में किसी एक व्यक्ति द्वारा इतना जबरदस्त प्रभाव डाले जाने की मिसालें दुर्लभ ही होती हैं, जैसा कि स्टीव जॉब्स ने डाला। उनके योगदान का प्रभाव आने वाली कई पीढ़ियां भी महसूस करेंगी।'

भविष्यदृष्टा स्टीव

विलक्षण थे स्टीव जॉब्स। वे सामान्य वैज्ञानिकों, तकनीक विशषज्ञों, शोधकर्ताओं, विद्वानों, अन्वेषकों, आविष्कारकों, उद्यमियों में नहीं गिने जा सकते। वे तो यह सब कुछ थे, बल्कि उससे भी कहीं अधिक एक भविष्यदृष्टा। हर कोई उनके काम और जीवन से कितना कुछ सीख सकता है। तकनीक में वे शीर्ष पर पहुंचे, डिजाइन में उनका कोई सानी नहीं था, मार्केटिंग तथा ब्रांडिंग के दिग्गज भी उनकी रणनीतियों का विश्लेषण करने में लगे रहते थे, मैन्यूफैक्चरिंग में उनका कोई जवाब नहीं था, उत्पादों की यूजेबिलिटी पर उन्हें चुनौती देना मुश्किल था। वे आगे चलने वाले व्यक्ति थे, बाकी लोग बस उनका अनुगमन करते थे- येन महाजनो गतः सः पंथा। स्टीव इस सहस्त्राब्दि की प्रतिभाओं में गिने जाएंगे जैसे लियोनार्दो द विंची, टामस एल्वा एडीसन, डार्विन, आइंस्टीन, न्यूटन आदि हैं। खासतौर पर वे लियोनार्दो द विंची के बहुत करीब खड़े दिखते हैं, जिन्होंने विज्ञान और तकनीक ही नहीं, और भी एकाधिक क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा की चिरंजीवी छाप छोड़ी।

स्टीव ने हमेशा बड़े सपने देखे, बड़ी कल्पनाएं कीं। जब कंप्यूटिंग की दुनिया काली स्क्रीनों से जद्दोजहद करती रहती थी, वे मैकिन्टोश कंप्यूटरों के माध्यम से ग्राफिकल यूज़र इंटरफेस (कंप्यूटर की चित्रात्मक मॉनीटर स्क्रीन) ले आए। जब इस मशीन के साथ हमारा संवाद कीबोर्ड तक सिमटा हुआ था तब उन्होंने माउस को लोकप्रिय बनाकर कंप्यूटिंग को काफी आसान और दोस्ताना बना दिया। कंप्यूटर के सीपीयू टावर का झंझट खत्म कर उसे मॉनीटर के भीतर ही समाहित कर दिया तो सिंगल इलेक्ट्रिक वायर कंप्यूटिंग डिवाइस पेश कर हमें तारों के जंजाल में उलझने से बचाया। वह स्टीव जॉब्स के कॅरियर का पहला दौर था। उसके बाद उन्होंने बुरे दिन भी देखे और एपल से निकाले भी गए। लेकिन जब कुछ साल बाद वे उसी कंपनी में लौटे तो नई ऊर्जा, नए जोश और नए हौंसलौं के साथ लौटे। कहीं कोई शत्रुभाव नहीं, सिर्फ सकारात्मक ऊर्जा, बड़े लक्ष्य, और कुछ क्रांतिकारी परिकल्पनाएँ जो पहले आई-पॉड (2001) और फिर आई-फोन (2007) तथा आई-पैड (2010) की अपरिमित सफलता के रूप में हमारे सामने आई। जब दुनिया कीबोर्ड और मोबाइल कीपैड से जूझ रही थी, उन्होंने हमें टच-स्क्रीन से परिचित कराया और इस असंभव सी लगने वाली टेक्नॉलॉजी को इतनी सरल, संभव और व्यावहारिक बना दिया कि हैरत हुई कि पहले किसी ने ऐसा क्यों नहीं सोचा।

एपल के उत्पाद स्टेटस सिंबल तो सदा से रहे हैं, अपने दूसरे चरण में वे लोकप्रियता का जो जबरदस्त पैमाना स्टीव जॉब्स के उत्पादों ने छुआ, वह बड़े-बड़े मार्केटिंग दिग्गजों को भी चकित करने वाला था। हर उत्पाद करोड़ों की संख्या में बिका और हर तकनीक-जागरूक, संचार-प्रेमी, मनोरंजनोत्सुक युवा का सपना बन गया। एपल से अनुपस्थिति के वर्षों में भी उन्होंने एक बहुत बड़ी एनीमेशन ग्राफिक्स कंपनी को जन्म दिया, जिसका नाम था- पिक्सर एनीमेशन। यह एक अलग ही क्षेत्र था- एनीमेशन फिल्मों का, जिसमें उनकी सफलता ने डिज्नी जैसे महारथी को भी चिंतित कर दिया था।

कभी हार नहीं मानी

स्टीव जॉब्स थे ही ऐसे। अनूठे, अलग, मनमौजी, किंतु परिणाम देने के लिए किसी भी हद तक जाने वाले। भारत से उनका गहरा रिश्ता रहा। बिल गेट्स अगर स्कूल की पढ़ाई अधूरी छोड़ आए थे तो स्टीव कॉलेज की। दोनों दिग्गजों की आपसी समानताएं कई बार चौंका देती हैं। बहरहाल, स्टीव ने भारत में घूम-घूमकर मानसिक शांति की तलाश का जो उपक्रम किया, बिल के व्यक्तित्व में आध्यात्म का वह अंश मिसिंग है। इसी आध्यात्मिक गहराई ने स्टीव के व्यक्तित्व और प्रतिभा को वह गहनता दी होगी, जिसके बल पर उन्होंने न सिर्फ तकनीकी विश्व के दिग्गजों के साथ प्रतिद्वंद्विता में कभी हार नहीं मानी, बल्कि कैंसर जैसे अपराजेय प्रतिद्वंद्वी के सामने भी प्रबल आत्मबल का परिचय दिया। कैंसर के कारण पिछले कुछ वर्षों में वे समय-समय पर एपल से दूर रहे किंतु जब भी जरूरत पड़ी किसी जुझारू सैनिक की तरह मोर्चे पर लौट आए। अलबत्ता, पिछली 24 अगस्त को उन्होंने एपल के सीईओ के पद से इस्तीफा दे दिया था और अपने निधन तक कुछ समय के लिए कंपनी के चेयरमैन रहे।

स्टीव जानते थे कि उनके इलाज की अपनी सीमाएं हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें जाना होगा। किंतु उन्होंने अंतिम समय तक हार नहीं मानी और न ही अपने काम तथा उद्देश्यों से डिगे। पिछली दो मार्च को जब आईपैड-2 को लांच किया जाना था, तब स्टीव अपनी बीमारी के इलाज के लिए छुट्टी पर थे। लेकिन सबको चौंकाते हुए वे आईपैड-2 को लांच करने के लिए अवतरित हुए। इस हद तक थी अपन काम में उनकी प्रतिबद्धता। छह साल पहले एक समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- 'इस बात का अहसास कि जल्दी ही मेरा निधन हो जाएगा, मेरे जीवन का सबसे बड़ा साधन है जो मुझे अपन जीवन में बड़े निर्णय करने के लिए प्रेरित करता है। इस अहसास ने कि तुम जल्दी ही विदा हो जाओगे, मुझे किसी भी चीज को खोने की आशंकाओं के जंजाल से मुक्त कर दिया है। तुम्हारा समय सीमित है, इसलिए इसे किसी और का जीवन जीकर व्यर्थ मत करो। सिर्फ अपनी आत्मा की आवाज पर चलो।'

यही आध्यात्मिक और आत्मिक गहराई स्टीव जॉब्स को वह ऊंचाई देती है, जिसका पर्याय उनका आदर्श जीवन बना। स्टीवन पॉल जॉब्स, अपनी कल्पनाओं, हौंसलों प्रेरणाओं और लक्ष्यों में हम आपका अक्स देख सकते हैं। कम लोग होते हैं जो दुनिया पर वैसी अमिट छाप छोड़कर जाते हैं, जैसी आपने छोड़ी।

Saturday, October 1, 2011

छोटे से टैबलेट ने मारा बड़ा मैदान!

स्वागत कीजिए भारतीय उद्यमिता और मेधा का जिसने एक राष्ट्रीय संकल्प को संभव कर दिखाया। पांच सौ न सही, 1700 रुपए में ही सही, हमने दुनिया का सबसे सस्ता टैबलेट कंप्यूटर बना डाला है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कुछ महीने पहले जब दुनिया का सबसे सस्ता टैबलेट कंप्यूटर विकसित किए जाने की घोषणा की थी तो बाकी दुनिया की तो छोङ़िए, खुद भारत में भी इस खबर को सही भावना से नहीं लिया गया था। क्या मीडिया, क्या तकनीक विशेषज्ञ और क्या आम लोग, किसी को यकीन नहीं हुआ था कि महज एक 500 रुपए में कोई लैपटॉप विकसित कर बेचा जा सकता है, और वह भी भारत में! हम सबने सरकार की नासमझी पर अफसोस जताया, संभावित टैबलेट की क्षमताओं पर गंभीर सवाल उठाए और ऐसी धारणा पैदा की जैसे सरकार कंप्यूटर के नाम पर लॉलीपॉप थमाने जा रही है। आखिरकार सामान्य समझ के हिसाब से यह संभव ही कहां है? पश्चिमी देशों में 100 डॉलर के बजट में बच्चों को लैपटॉप मुहैया कराने वाली 'एक लैपटॉप प्रति बालक' परियोजना के लिए यूएनडीपी और दूसरे संगठनों ने दिल खोलकर आर्थिक मदद दी है। लेकिन फिर भी उसके सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। तब भारत जैसा देश, किसी बड़ी आर्थिक मदद के बिना, सिर्फ पांच सौ रुपए (करीब दस डॉलर) में ऐसा कारनामा कर दिखाए, उस पर यकीन कर पाना असंभव ही तो था। लेकिन स्वागत कीजिए भारतीय उद्यमिता और मेधा का जिसने ऐसा संभव कर दिखाया। पांच सौ न सही, 1700 रुपए में ही सही, हमने दुनिया का सबसे सस्ता टैबलेट कंप्यूटर बना डाला है और पिछले दिनों श्री सिब्बल ने उसका सावर्जनिक रूप से प्रदर्शन भी किया है। कौन जाने आज नहीं तो कल, बड़े पैमाने पर उत्पादन होने की स्थिति में इसके दाम पांच सौ रुपए पर ही आ जाएं!

हम दुनिया में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रणी माने जाते हैं, लेकिन दो दशक लंबे फर्राटे के बावजूद हमने इस क्षेत्र की अथाह संभावनाओं का छोटा सा रास्ता तय किया है। अगर हमें अपनी तकनीकी मेधा के बल पर देश के सुखद आर्थिक भविष्य की इमारत खड़ी करनी है तो देश के कोने.कोने में सूचना प्रौद्योगिकी के हक में एक रचनात्मक, शैक्षिक आंदोलन शुरू करने की जरूरत है। गांव-गांव, कस्बे-कस्बे, शहर-शहर में आईटी का प्रसार करना है, कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल, इलेक्ट्रानिक्स आदि तकनीकों से लैस युवकों की विशाल जनसंख्या खड़ी करनी है। आज के हालात में यह संभव नहीं है क्योंकि भले ही हम हर साल 78 अरब डालर की आईटी सेवाओं का नियरत करते हों, देश में कंप्यूटर साक्षरता का स्तर बेहद कम है। शायद 'दिया तले अंधेरा' इसी का नाम है। भारत सरकार की तरफ से लांच किया जाने वाला यह छोटा सा टैबलेट (ऐसा गैजेट जिसमें स्क्रीन आधारित कीबोर्ड इस्तेमाल होता है) उस लिहाज से बड़ी उम्मीद जगाता है। सत्रह सौ का यह टैबलेट बुनियादी रूप से शिक्षा के क्षेत्र में इस्तेमाल होगा और हमारे बच्चों को तकनीकी अवधारणाओं के करीब लाएगा। देश में प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा 40 हजार रुपए से ऊपर पहुंच चुका है सो सामान्य नागरिक इतना खर्चा उठाने में सक्षम माना जा सकता है। यदि वह भी संभव न हो तो सरकार 50 फीसदी सब्सिडी भी दे रही है। सोने में सुहागा।

पिछले सात साल से इस परियोजना पर काम चल रहा था। एक दशक पहले हमारे यहां एक और देसी कंप्यूटर 'सिम्प्यूटर' के चर्चे हुआ करते थे। वह भी एक महत्वाकांक्षी परियोजना थी, हालांकि तब फोकस शिक्षा पर उतना नहीं था। आम लोगों के हाथ में एक सस्ती, सीधी-सादी कंप्यूटिंग डिवाइस सौंपना उसका मकसद था। नाम भी उसी के अनुकूल था- सिम्प्यूटर, यानी सिम्पल कंप्यूटर। बहुत सालों के अनुसंधान और विकास के बाद आखिरकार 2004 में सिम्प्यूटर देखने को मिला तो सबको निराशा हुई। यह किसी गेमिंग गैजेट जैसे चार बटनों वाली हैंडहेल्ड डिवाइस थी, जिसे एक स्टाइलस (स्टिक) के साथ पेश किया गया था। शायद सिम्प्यूटर के निर्माताओं को आर्थिक सहयोग मिला होता तो वे सात साल की इस अवधि में उसे काफी आगे बढ़ा चुके होते। हालात और कारण जो भी रहे हों, करोड़ों हिंदुस्तानियों की तकनीकी उम्मीदें धूमिल करते हुए 'सिम्प्यूटर' न जाने कहां खो गया। बहरहाल, फख़्र की बात है कि एक दूसरे जरिए से ही सही, सरकारी तथा निजी भागीदारी में तैयार हुआ भारत का अपना टैबलेट कंप्यूटर तैयार है। इसमें अहम भूमिका निभाई है इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी और इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ साइंस ने।

सुखद आश्चर्य

जहां तक कन्फीगरेशन का सवाल है, यह आश्चयर्जनक रूप से ठीकठाक दिखाई देता है। दो गीगाबाइट रैम, 32 जीबी हार्ड डिस्क, वाई.फाई, यूएसबी पोर्ट, ऑन स्क्रीन कीबोर्ड, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधा, मल्टीमीडिया क्षमताओं और इंटरनेट कनेक्टिविटी से लैस यह डिवाइस महज दिखावटी चीज नहीं है। हार्ड डिस्क की क्षमता को यूएसबी पोर्ट के जरिए अलग से बड़ी हार्ड डिस्क लगाकर बढ़ाया जा सकता है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग एक अहम फीचर है जो बच्चों को सामूहिक रूप से इंटरनेट के जरिए शिक्षा देना संभव बनाएगा। हालांकि यह गूगल के एन्ड्रोइड ऑपरेटिंग सिस्टम पर आधारित है फिर भी इतने कम दामों में इतनी सारी चीजें समाहित करना कोई आसान काम नहीं है। अगर इस परियोजना के संचालक देश भर से उभरने वाली अथाह मांग को पूरा कर पाते हैं और यह परियोजना जमीनी स्तर पर सही ढंग से लागू की जाती है तो आने वाले वर्षों में कंप्यूटर शिक्षा और साक्षरता दोनों ही मोर्चों पर बड़ी उपलब्धियां अर्जित की जा सकती हैं। हमने एक बड़ी चुनौती फतेह जो कर ली है।

बहरहाल, खुशी के इस माहौल में यह गलतफहमी नहीं पाली जानी चाहिए कि कंप्यूटर-साक्षरता और शैक्षणिक-साक्षरता की चुनौतियां अब खात्मे के करीब हैं। इन मोर्चों पर हमारी समस्याएं और भी हैं। गांवों में बिजली और इंटरनेट ब्राडबैंड कनेक्टिविटी के प्रसार की चुनौती बरकरार है। नया टैबलेट सौर ऊर्जा से भी चलाया जा सकता है, जो एक बड़ी राहत की बात है। लेकिन वह एक अस्थायी राहत ही है, कम से कम शैक्षणिक संस्थानों को निर्बाध बिजली सप्लाई सुनिश्चित करने पर ही स्थायी हल निकलेगा। जहां तक ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी का सवाल है, वह आज भी सिर्फ 6॰9 फीसदी भारतीयों (2010 का आंकड़ा) तक पहुंची है। हां, तीन साल में देश की हर ग्राम पंचायत को इंटरनेट से जोड़ने की केंद्रीय परियोजना के लागू होने से हालात जरूर बेहतर होंगे। कंप्यूटर को भारतीय भाषाओं से लैस करना और बच्चों को अपनी मातृभाषा में तकनीकी शिक्षा देना भी कंप्यूटर साक्षरता के मिशन को सफल बनाने में अहम योगदान दे सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से वह सरकार की प्राथमिकताओं में दिखाई नहीं देता। लेकिन इन चुनौतियों का अर्थ यह नहीं है कि दुनिया का सबसे सस्ता टैबलेट कंप्यूटर बनाने की हमारी उपलब्धि का महत्व किसी भी लिहाज से कम है।

हमने भी दिखाई क्षमता

इस संदर्भ में एक और कोण पर चर्चा करनी जरूरी है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की बढ़त सॉफ्टवेयरों और सेवाओं के मामले में है, हार्डवेयर के मामले में हम पिछड़े हुए हैं। एचसीएल और विप्रो को छोड़कर बहुत कम भारतीय कंपनियों ने हार्डवेयर निर्माण में कोई छाप छोड़ी है। लेकिन मैन्यूफैक्चरिंग में दबदबा बनाए बिना हम कभी भी समग्र सूचना प्रौद्योगिकी में बड़ी वैश्विक ताकत नहीं बन सकते। मौजूदा हालात में हम सॉफ्टवेयर, सेवाओं और मानव संसाधन संबंधी ताकत ही बने रहेंगे, जिसमें हमें चीन तथा ब्राजील से लेकर रूस, फिलीपींस, इंडोनेशिया और पाकिस्तान तक से चुनौती मिल रही है। अपनी लीडरशिप को स्थायी बनाने के लिए हमें हार्डवेयर मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र में कदम बढ़ाने होंगे। अमेरिका, जापान, चीन और ताईवान जैसे देश हार्डवेयर के क्षेत्र में वैश्विक मांग पूरी करने में जुटे हैं। उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर इसका प्रभाव साफ दिखाई देता है। इस संदर्भ में माइक्रोसॉफ्ट और एपल का उदाहरण काबिले गौर है। माइक्रोसॉफ्ट सॉफ्टवेयर क्षेत्र की शक्ति है और लंबे समय से सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की नंबर वन कंपनी बनी रही है। लेकिन अपने हार्डवेयर उत्पादों- आईपॉड, आईफोन और आईपैड की अपार सफलता के बाद एपल ने उसे पछाड़ दिया है। कारण? सॉफ्टवेयर के मामले में आम आदमी की जरूरत सीमित है, जबकि हार्डवेयर का बाजार ज्यादा बड़ा है।

इस लिहाज से स्वदेशी टैबलेट कंप्यूटर का निर्माण बहुत महत्वपूर्ण है। यह हमारी क्षमताओं की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। इस कामयाबी के बाद हमें आईटी मैन्यूफैक्चरिंग को असंभव क्षेत्र समझने की जरूरत नहीं है। कम से कम अब सरकार को चाहिए कि वह देसी हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर से लैस पूर्ण उत्पादों के विकास और निर्माण को प्रोत्साहित करे। आखिरकार हमारे पास टैबलेट कंप्यूटर के रूप में एक कामयाब उत्पाद मौजूद है। इसने भारतीय नवाचार (इनोवेशन), तकनीकी मेधा और व्यावसायिक प्रतिभा को एक बार फिर दुनिया की नजरों में ला दिया है। आइए अपने उन सुयोग्य इंजीनियरों, विशेषज्ञों और तकनीशियनों का अभिनंदन करें जिन्होंने इस देश को एक और महत्वपूर्ण मोर्चे पर सफल बनाया है। यह हमारे राष्ट्रीय संकल्प का प्रतीक है।

Saturday, September 24, 2011

'दोस्त' ही यदि ऐसा हो तो दुश्मनों की क्या जरूरत!

अफगानिस्तान में अपने दूतावास और नाटो मुख्यालय पर हुए हमले के बाद अमेरिका को अहसास हो रहा है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में उसका प्रमुख 'सहयोगी' ही उसकी सबसे बड़ी समस्या है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

-पिछले दिनों अफगानिस्तान में नाटो मुख्यालय और फिर अमेरिकी दूतावास पर हुए हमले के लिए पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस ने कुख्यात हक्कानी नेटवर्क को प्रेरित किया और इन्हें अंजाम देने में उसकी मदद की।

-काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हमला करने वाला हक्कानी नेटवर्क पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का परोक्ष नेटवर्क है।

-हिंसक अतिवाद (परोक्षत: आतंकवाद) को नीतिगत माध्यम के रूप में इस्तेमाल करके पाकिस्तान सरकार, खासकर पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई, अमेरिका के साथ अपने सामरिक संबंधों को तो नुकसान पहुंचा ही रही हैं, असरदार क्षेत्रीय प्रभाव वाले सम्मानित राष्ट्र के रूप में देखे जाने का अवसर भी खो रही हैं।

अगर ऊपरी बयानों में अमेरिकी दूतावास की जगह पर भारतीय दूतावास और अमेरिका के स्थान पर भारत करके पढ़ा जाए तो ये पूरी तरह भारतीय नेताओं, अधिकारियों और राजनयिकों के बयान प्रतीत होंगे। लेकिन ये अमेरिकी सरकार के दिग्गजों के बयान हैं। पहला बयान जहां अमेरिकी रक्षा प्रतिष्ठान के अधिकारियों का है, वहीं बाकी दो बयान अमेरिकी संयुक्त सेना प्रमुख एडमिरल माइक मुलेन के हैं। लगे हाथ अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के बयान पर भी नजर डाली जा सकती है जिन्होंने कहा है कि अमेरिका आतंकवाद के सामने झुकने वाला नहीं है और अफगानिस्तान में उसकी मुहिम जारी रहेगी।

इसी महीने हुई आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में अमेरिकी सरजमीन से लगभग वैसे ही बयान आ रहे हैं जैसे आतंकवाद से पारंपरिक रूप से पीङ़ित भारत पिछले कई वषर्ों से देता आ रहा है। माइक मुलेन के बयान ने तीन साल पहले काबुल में ही भारतीय दूतावास पर हुए आतंकवादी हमले की याद ताजा कर दी है जब भारत ने ठीक इसी तरह का आरोप लगाया था। मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के दौरान भी भारत ने आधिकारिक तौर पर अमेरिका को बताया था कि हमले के पल.पल की खबर पाकिस्तानी फौजी और खुफिया अधिकारियों को थी और उसकी निगरानी आईएसआई से जुड़े हैंडलर्स ने की थी। भारत आतंकवाद के जिस दंश को दशकों से झेलता आया है, उसकी चपेट में अमेरिका हाल ही में आने लगा है। भारत के जिन आरोपों को उसने लगभग नजरंदाज करते हुए पाकिस्तानी गतिविधियों की ओर आंख मूंदे रखी उन्हें आज वह खुद ही दोहराने को मजबूर है। सच है, जाके पांव ने फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।

सरकारी नीति बना आतंकवाद

जिस अमेरिकी बयान को सबसे महत्वपूण्र माना जाएगा, वह है नीतिगत उपकरण के रूप में हिंसक अतिवाद का प्रयोग। लेकिन इस अहसास तक पहुंचने में अमेरिका को पूरे ग्यारह साल लग गए हैं। याद कीजिए, पूवर् प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सितंबर 2000 की अमेरिका यात्रा जब अमेरिकी कांग्रेस की संयुक्त बैठक को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था. 'भारत और अमेरिका को आतंकवाद की त्रासदी से निपटने के प्रयास द्विगुणित कर देने चाहिए क्योंकि पाकिस्तान आतंकवाद का इस्तेमाल सरकारी नीति को लागू करने के उपकरण के रूप में कर रहा है।' उन्होंने पिछले दो दशकों के भारत के अनुभवों का हवाला देते हुए कहा था कि पाकिस्तान धार्मिक जेहाद को राष्ट्रीय नीति का माध्यम बना रहा है। लेकिन वह जमाना और था। तब तक अमेरिका ने दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी हमले का सामना नहीं किया था, वह तो श्री वाजपेयी के भाषण के एक साल बाद ग्यारह सितंबर 2001 को हुआ, जिसमें दुनिया ने सबसे बड़ी शक्ति को आंतकवादी विध्वंस की गंभीरता का अहसास कराया।

श्री वाजपेयी ही क्यों, उनसे पहले और उनके बाद की हर सरकार ने पिछले तीन दशकों के दौरान अमेरिका की हर सरकार का ध्यान इस बात की ओर खींचा है कि भारत में आतंकवादी गतिविधियों में लगे तत्वों को पाकिस्तान का नैतिक, आर्िथक, सामरिक, खुफिया और हथियार संबंधी समर्थन हासिल है। हमारे विरुद्ध होने वाले कितने ही हमलों की भूमिका खुद आईएसआई बनाती आई है और कश्मीर में 'प्रच्छन्न युद्ध' की पाकिस्तानी नीति तो जनरल जिया उल हक के जमाने से ही उसकी सामरिक नीति का एक महत्वपूण्र हिस्सा है, जिन्होंने फिलस्तीन की तर्ज पर भारत को सबक सिखाने के लिए यह रास्ता चुना था। तब पाकिस्तान अमेरिका के ज्यादा करीब था और एक लोकतांत्रिक शक्ति होते हुए भी भारत अमेरिका को रास नहीं आता था। ग्यारह सितंबर को अगर अमेरिका ने आतंकवाद का सामना न किया होता तो आज भी भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और आसपास के इलाकों के घटनाक्रम पर अमेरिकी
कार्रवाइयां महज विदेश मंत्रालय के बयानों तक ही सीमित रहतीं।

एक के बाद एक रहस्योद्घाटन

ग्यारह सितंबर के हमले के तुरंत बाद जब भारत को लगा कि अमेरिका वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई करने के प्रति गंभीर है तो उसने अलकायदा, तालिबान और दूसरे आतंकवादियों के बारे में महत्वपूण्र खुफिया जानकारियां उसे सौंपी थीं। इन जानकारियों में पाकिस्तान में चल रहे आतंकवादी प्रशिक्षण केंद्रों का ब्यौरा भी था और अफगानिस्तान के दूर.दराज क्षेत्रों की आतंकवादी गतिविधियों की जानकारी भी। लेकिन अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपने सामरिक समीकरणों के चलते आतंकवाद के उद्भव तथा आश्रय स्थल के रूप में पाकिस्तान की भूमिका को पूरी तरह नजरंदाज कर दिया। ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तानी सरजमीन पर, पाकिस्तानी फौज की नाक के नीचे, मारे जाने और डेविड कोलमैन हैडली तथा फैसल शहजाद की पृष्ठभूमि साफ होने, और अब अफगानिस्तान के हमलों के बाद अमेरिका को स्पष्ट हुआ है कि दुनिया भर में चलने वाला आतंकवाद के चक्र की धुरी तो खुद पाकिस्तान में ही है। ओसामा की मौत, तालिबान के शीर्ष नेतृत्व की पाकिस्तानी सरजमीन पर मौजूद होने की पुष्टि और अब ओसामा के नायब अयमान अल जवाहिरी की मौजूदगी का खुलासा हो ही चुका है। दोस्त अगर ऐसा हो तो दुश्मनों की क्या जरूरत!

लेकिन लगता है कि अमेरिका को देर से ही सही, अब अहसास हो रहा है कि भारत सही था, पाकिस्तान और खुद अमेरिका गलत। आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में उसका प्रमुख 'सहयोगी' ही उसकी सबसे बड़ी समस्या है। अफगानिस्तान में पहले तालिबान और अब हक्कानी नेटवर्क को पनपाने में उसकी जो भूमिका है, ठीक वही भूमिका भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों. लश्करे तैयबा, हिज्बुल मुजाहिदीन और जैशे मोहम्मद को पल्लवित करने में रही है। ये सभी आतंकवादी संगठन जिन तीन देशों को अपने सबसे बड़े दुश्मन मानते हैं उनमें अमेरिका, भारत और इजराइल सबसे ऊपर हैं। याद कीजिए कुछ समय पहले पाकिस्तानी तालिबान की तरफ से आया वह बयान जिसमें उसने कहा था कि अगर भारत पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई करता है तो तालिबान आतंकवादी पाकिस्तानी फौजों के साथ कदम से कदम मिलाकर भारत पर हमला करेंगे। जनरल मुशर्रफ के जमाने में कारगिल पर हुई कार्रवाई में आतंकवादियों और पाकिस्तानी फौजियों ने एक टीम के रूप में मिलकर काम किया था, इसे अब दूसरे तो क्या खुद पाकिस्तान भी स्वीकार करता है।

यह सब जानने के बाद भी यदि अमेरिका आतंकवाद से लड़ाई के मामले में भारत के साथ दूरी बरतने और पाकिस्तान के साथ दोस्ती बनाए रखने की गलती करता है तो इसमें सिर्फ हमारा नुकसान नहीं है। अब उसे अहसास हो जाना चाहिए कि आतंकवाद के विरुद्ध सभ्य विश्व की लड़ाई में भारत और अमेरिका अलग.अलग छोर पर खड़े नहीं रह सकते। दक्षिण एशिया से संबंधित उसकी रणनीति और समीकरणों में भारत का स्थान अहम होना चाहिए। दोनों को एक.दूसरे के अनुभव, शक्ति और रणनीतिक सहयोग की जरूरत है।

Saturday, September 17, 2011

क्या ब्याज दरें बढ़ाने के सिवा महंगाई का कोई इलाज नहीं है?

मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दरें बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। भले ही आर्थिक तरक्की का लाभ आम नागरिकों तक किसी न किसी रूप में पहुंच रहा हो, आर्थिक आघात झेलने की उनकी क्षमता का आखिर कोई तो अंत है!

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

रिजर्व बैंक से आई ब्याज दरें बढ़ाने की खबर पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने जिस अंदाज में टिप्पणी की, वह आम आदमी की चिंताओं के प्रति सरकारी प्रतिष्ठान के उपेक्षाभाव को ही प्रकट नहीं करती, यह भी दिखाती है कि हमारा सत्ता तंत्र जमीनी हकीकतों से किस कदर कट गया है। श्री अहलुवालिया ने रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में की गई बढ़ोत्तरी को 'गुड न्यूज़' करार दिया था। बढ़ती ब्याज दरों और महंगाई का दंश झेल रहे गरीब और मध्यवर्गीय समुदाय के लिए इससे बड़ा मजाक और कोई नहीं हो सकता। मान ा कि रिजर्व बैंक की पहली चिंता मुद्रास्फीति है, माना कि रिजर्व बैंक के गवर्नर दुव्वुरी सुब्बाराव की एक निर्मम अर्थशास्त्री तथा कुशल प्रशासक की छवि है और इसीलिए पिछले दिनों उन्हें एक्सटेंशन भी मिला है, लेकिन पिछले अठारह महीनों में बारहवीं बार जनता को कड़वी घुट्टी पिलाने से पहले उन्हें थोड़ा संवेदनशील होकर सोचने की जरूरत थी। मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दरें बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। दूसरे, भले ही आर्थिक तरक्की का लाभ आम नागरिकों तक किसी न किसी रूप में पहुंच रहा हो, इस तरह के प्रत्यक्ष आर्थिक आघात झेलने की उनकी क्षमता का आखिर कोई तो अंत है! दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था सिर्फ 25 बेसिस प्वाइंट्स की बढ़ोत्तरी से हिल जाती है और यहां प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया में 129वें नंबर पर आने वाले हम भारतीय पिछले डेढ़ साल में साढ़े तीन फीसदी बढ़ोत्तरी झेल चुके हैं। अब तो बस कीजिए!

जिसे श्री अहलुवालिया ने 'गुड न्यूज़' करार दिया, वह हर कर्जदार व्यक्ति को व्याकुल करने वाली खबर है। कर्जदार ही क्यों, परोक्ष रूप से किसी न किसी रूप में हर व्यक्ति को प्रभावित करेगी क्योंकि इसका सबसे बड़ा असर आर्थिक, व्यावसाियक, कारोबारी तथा औद्योगिक गतिविधियों पर पड़ेगा। हालांकि अब आम आदमी यह मानकर चलने लगा है कि रिजर्व बैंक जब भी मौद्रिक नीति की समीक्षा करेगा, उसके लिए एक 'गुड न्यूज़' जरूर पेश करेगा, लेकिन इस बार की 'गुड न्यूज़' ने कुछ ज्यादा ही झटका दिया है क्योंकि यह मौजूदा आर्थिक धारणा (सेन्टीमेंट) के अनुकूल नहीं है। रैपो रेट को सवा आठ और रिवर्स रैपो को सवा सात फीसदी पर ले जाने की रिजर्व बैंक की घोषणा पर उद्योग तथा व्यापारिक संगठनों ने जिस तरह निराशाजनक प्रतिक्रिया की है, वैसा हमारी उदारीकृत, पूंजीवाद.उन्मुख, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के दौर में अरसे बाद देखने को मिला है। कारण, क्या उद्योगपति, क्या सेवा प्रदाता, क्या व्यापारी, क्या जमीन.जायदाद कारोबारी, क्या वाहन कंपनियां, क्या उपभोक्ता सामग्री निर्माता और क्या उन सबका उपभोक्ता॰॰॰ रिजर्व बैंक के पिछले फैसले पहले ही सबकी कमर तोड़ चुके हैं। निराशा की यह देशव्यापी धारणा सरकार से पूरी तरह छिपी नहीं रह सकती। मौद्रिक समीक्षा से ठीक पहले वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी का यह कथन कि शायद अब और ब्याज दरें बढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ेगी तथा हम मुद्रास्फीति को दूसरे तरीकों से काबू करने की कोशिश करेंगे, उसकी ओर इशारा करता है। लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कह दिया कि भई अंतिम फैसला तो रिजर्व बैंक को ही करना है। सरकार बड़ी सफाई से दोष रिजर्व बैंक के सिर मढ़कर बच निकलती है। लेकिन क्या रिजर्व बैंक ये सभी कदम एकतरफा तौर पर उठा रहा है?

यह करें तो उलझन, वह करें तो समस्या

सरकार की उलझनें समझ में आती हैं। रिजर्व बैंक हर बार ब्याज दर बढ़ाने की घोषणा करते हुए इन चिंताओं को दोहराता भी है। उसकी सबसे बड़ी चिंता है मुद्रास्फीति। यह महज एक आर्थिक समस्या ही नहीं है, राजनैतिक और सामाजिक भी है। महंगाई के कारण लोगों में धीरे.धीरे सरकार विरोधी भावना पैदा हो रही है। समस्या यह है कि महंगाई रोकने के लिए मौद्रिक कदम उठाए जाएं तो आवासीय तथा वाहन ऋण लेने वाले लोग, कारोबारी तथा उद्यमी उबल पड़ते हैं और ब्याज दरें स्थिर रखी जाएं या घटा दी जाएं तो महंगाई सिर उठाने लगती है जिससे आम आदमी का गुस्सा आसमान छूने लगता है। विपक्ष की भारी आलोचना और जन आक्रोश के बावजूद अगर सरकार ब्याज दरें बढ़ाती जा रही है तो इसलिए कि वह महंगाई के भूत को किसी भी तरह काबू कर लेना चाहती है। यहां तक कि राजनैतिक जोखिम उठाकर भी। मगर यह भूत है कि काबू में आता ही नहीं। मुद्रास्फीति से सरकार कितनी भयभीत है, यह उसकी इस नीति से स्पष्ट है कि अगर रिजर्व बैंक के कदमों से आर्थिक विकास (जीडीपी) की वृद्धि दर थोड़ी.बहुत घटती भी है तो देखा जाएगा लेकिन सबसे पहले महंगाई पर लगाम लगाना जरूरी है। इसे सरकार का दुभ्राग्य कहें या फिर 'अल्पदृष्टि' पर आधारित उपायों की सीमा, कि एक के बाद एक कठोर कदम उठाने के बावजूद मुद्रास्फीति नौ फीसदी के आसपास बरकरार है। वह खतरे के निशान से नीचे आने का नाम नहीं ले रही। दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था में धीमापन आना शुरू हो गया है।

ऐसे में रिजर्व बैंक, वित्त मंत्रालय, और कारोबार, सेवा, उद्योग, परिवहन, आयात.नियरत, वाणिज्य, कर, पेट्रोलियम आदि का जिम्मा संभालने वाले दूसरे मंत्रालय और विभाग वैकल्पिक रास्तों की तलाश में क्यों नहीं जुटते? डेढ़ साल से अर्थव्यवस्था को बढ़ी ब्याज दरों का इन्जेक्शन लगाने के बावजूद यदि बीमार की हालत ठीक नहीं हो रही तो शायद उसे होम्योपैथी या आयुवेर्द की जरूरत हो? क्या 'ब्याज दर' कोई संजीवनी बूटी है जिसके अतिरिक्त और कोई उपाय किया ही नहीं जा सकता? ऐसा नहीं है। महंगाई को प्रभावित करने वाले पहलू और भी हैं, जिन पर या तो सरकार का ध्यान जाता नहीं या फिर उसके पास इन्हें अनुशासित करने की इच्छाशक्ति नहीं है।

विकल्पों को भी देखिए

मुद्रास्फीति की समस्या को सिर्फ रिजर्व बैंक के हवाले कर देने की बजाए अगर उसमें केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों की भी भूमिका हो तो विकल्प और भी कई निकल सकते हैं। आवासीय क्षेत्र में मांग घटानी है तो परियोजनाओं की संख्या सीमित की जा सकती है। दैनिक उपयोग की चीजों की कीमतें बढ़ने के पीछे काफी हद तक पेट्रोलियम पदाथर्ों की बढ़ी हुई कीमतें जिम्मेदार हैं। अगर सरकार कुछ और समय तक पेट्रोलियम क्षेत्र में सब्सिडी के संदभ्र में नरमी बरतती रहे तो महंगाई प्रभावित हो सकती है। लेकिन सरकार ने तो ब्याज दरों के साथ.साथ पेट्रोलियम पदाथर्ों की कीमतें भी बढ़ाई हैं। उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार से जोड़ने की नीतिगत मजबूरी समझ में आती है, पेट्रोलियम सप्लाई कंपनियों को होने वाले घाटे संबंधी चिंताएं भी जायज हैं, लेकिन अगर महंगाई पर काबू पाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है तो पेट्रोलियम के भावों और सब्सिडी के मुद्दे पर 'गो स्लो' की नीति अपनाई जा सकती है। मजबूरी में ही सही। अस्थायी रूप से ही सही।

भारत में यकायक पैदा हुई महंगाई को कई अर्थशास्त्री वायदा कारोबार के प्रतिफल के रूप में भी देखते हैं। गेहूं, चावल, दालों आदि के वायदा भावों में तेजी राष्ट्रीय स्तर पर इन पदाथर्ों के भावों को प्रभावित करने लगी है। सोने.चांदी की भी यही स्थिति है। आप भले ही ब्याज दरें बढ़ाते रहिए, वायदा कारोबारी ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए जरूरी चीजों के भावों को बढ़ाने में लगे रहेंगे तो ब्याज दरें भला क्या करेंगी। वायदा कारोबार के प्रभावी नियमन की दिशा में कदम उठाए जाने चाहिए। बहुत जल्द, रिटेल बाजार में विदेशी कंपनियों का आगमन भी भावों को प्रभावित कर सकता है। आशंका है कि वे बड़े पैमाने पर सामग्री खरीदेंगी और बाजार में कृत्रिम तेजी पैदा करेंगी। बाजार का खुलना, नए क्षेत्रों में अवसरों का सामने आना, वैश्वीकरण आदि सब कुछ ठीक है, लेकिन सीमा के भीतर ही। भारत की प्रति व्यक्ति आय आज भी चालीस हजार रुपए के आसपास है। यह अमेरिका या यूरोप नहीं है, जहां ब्रांडिंग, पैकेजिंग, प्रचार और ग्लैमर भावों से ज्यादा महत्वपूण्र हो जाते हैं। हमसे चालीस गुना प्रति व्यक्ति आय से लैस वहां का उपभोक्ता बढ़ी.चढ़ी कीमतों का असर झेल सकता है, इसलिए वहां ये फार्मूले चल सकते हैं, यहां नहीं।

देश में सब्जियों, फलों आदि की सप्लाई.चेन व्यवस्था को बेहतर बनाए जाने की जरूरत है। देश के एक हिस्से में कोई खास अनाज, फल या सब्जी बहुत सस्ती होती है और दूसरे हिस्से में बहुत महंगी। समस्या त्वरित परिवहन और भंडारण से जुड़ी हो सकती है। जमाखोरी और कालाबाजारी महंगाई को बढ़ाने वाले पारंपरिक कारक हैं। इमरजेंसी के दौरान महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए इन्हें खास तौर पर निशाना बनाया गया था और इसके नतीजे भी निकले थे। ऐसा फिर क्यों नहीं किया जा सकता? भारत में सावर्जनिक वितरण प्रणाली एक तरह का वरदान है। गांव.गांव में फैला हुए इसके नेटवर्क को मजबूत, परिणामोन्मुख और भ्रष्टाचार.कालाबाजारी से मुक्त बनाया जा सके तो क्या कुछ नहीं हो सकता। लेकिन यह सब रिजर्व बैंक के उठाए पारंपरिक कदमों से नहीं होने वाला। कमान केंद्र सरकार को ही संभालनी होगी।

Saturday, September 10, 2011

आडवाणी वही कर रहे हैं जो विपक्ष को करना चाहिए

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संसद में हंगामा करने और कुछेक प्रदर्शनों के अलावा भाजपा जमीनी स्तर पर बड़ी राष्ट्रीय मुहिम छेड़ने में कामयाब नहीं रही है। श्री आडवाणी की रथयात्रा उस खोए हुए मौके को वापस लाने का एक बेताब प्रयास मानी जा सकती है, बशतेर् इसे एक व्यक्तिगत यात्रा के रूप में नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी की यात्रा के रूप में पेश किया जाए।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा संबंधी घोषणा को लेकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भले ही भारतीय जनता पार्टी के अंदरूनी समीकरणों के लिहाज से उनकी यात्रा का समय अनुकूल प्रतीत न हो, विपक्ष के लिहाज से देखा जाए तो उन्होंने सही समय पर सही फैसला किया है। पिछले एक साल से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी और दूसरे विपक्षी दल संसद के भीतर.बाहर सरकार पर दबाव बनाने में जुटे हुए हैं। संसद के पिछले दो सत्र भारी हंगामे की भेंट चढ़े, विधायी कायर् का भारी नुकसान हुआ, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनावों में करीब.करीब किनारे कर दिया गया विपक्ष कुछ हद तक अपने अस्तित्व का अहसास कराने में सफल रहा। सरकार पर तब से शुरू हुआ दबाव अभी बरकरार है, खासकर 2जी कांड की जांच में सुप्रीम कोर्ट की पहल और फिर अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव द्वारा चलाए गए आंदोलनों की बदौलत। लोकतंत्र में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका सरकार पर दबाव बनाए रखने और उसे सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर करते रहने की ही होती है। इसके अपने राजनैतिक लाभ भी हैं, खासकर तब जब कुछ प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हों। स्वाभाविक ही है कि केंद्र और अनेक राज्यों में कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी के रूप में भारतीय जनता पार्टी मौजूदा हालात का ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाना चाहेगी। श्री आडवाणी की रथ यात्रा उस लिहाज से बहुत अस्वाभाविक नहीं है।

हालांकि यह रथ यात्रा सिर्फ सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के लिए ही समस्याएं पैदा नहीं करेगी। प्रभावित होने वाले पक्ष और भी हैं और उनका नजरिया भी असाानी से समझा जा सकता है। जन लोकपाल विधेयक, 2जी घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और काले धन के मुद्दों पर रक्षात्मक स्थिति में आई केंद्र सरकार को फिलहाल किसी तरह की राहत नहीं मिलने वाली। श्री आडवाणी की यात्रा उसके विरुद्ध लोगों की भावनाओं को और प्रबल बनाएगी। लेकिन इस यात्रा से सबसे ज्यादा चिंता खुद भारतीय जनता पार्टी के भीतर हो रही है जिसने अपने इस वरिष्ठ नेता को करीब.करीब चुका हुआ ही मान लिया था। अपने नेतृत्व में पिछले आम चुनाव में हुई भारी पराजय और उससे पहल भारत.अमेरिका परमाणु संधि के मुद्दे पर संसद में हुए अविश्वास प्रस्ताव में मनमोहन सरकार की जीत ने श्री आडवाणी को राजनैतिक रूप से काफी कमजोर बना दिया था। लेकिन लगभग छह दशक के राजनैतिक अनुभव वाले व्यक्ति को, और वह भी ऐसा व्यक्ति जिसने भारतीय जनता पार्टी को केंद्र में सत्तारूढ़ करने में संभवत: सबसे अहम योगदान दिया, आप आसानी से खारिज नहीं मान सकते। अनुभव का अपना महत्व है और सिर्फ इस आधार पर किसी अनुभवी राजनीतिज्ञ को किनारे नहीं किया जा सकता कि आज की राजनीति में युवाओं को आगे लाए जाने की जरूरत है। युवाओं को आगे लाते हुए भी बुजुर्ग राजनीतिज्ञों को पार्टी की अगली कतार में रखा जा सकता है, यदि उनमें राजनैतिक क्षमताएं बाकी हैं।

श्री आडवाणी के बारे में ऐसा कोई नहीं कहेगा कि वे सक्रिय नहीं रहे। न सिर्फ वे स्वास्थ्य के मामले में पूरी तरह फिट हैं बल्कि आज भी भाजपा के रणनीतिक फैसलों में असरदार भूमिका निभा रहे हैं। आज भी पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं है जो राष्ट्रीय स्तर पर उनके जितनी स्वीकायर्ता, लोकिप्रयता और सांगठनिक पृष्ठभूमि रखता हो। नरेंद्र मोदी बहुत लोकिप्रय मुख्यमंत्री और भाजपा नेता हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी स्वीकायर्ता असंदिग्ध नहीं है। गुजरात के दंगों संबंधी आरोपों की पृष्ठभूमि और राज्य में भ्रष्टाचार संबंधी आरोप उन्हें परेशान करेंगे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सवर्मान्य नेता बनने के लिहाज से उन्हें अभी काफी सफर तय करना है।

स्वीकायर्ता का सवाल

अगर प्रधानमंत्री पद के लिए स्वीकायर्ता का सवाल आता है तो भाजपा के मौजूदा युवा नेतृत्व में भी ऐसा कोई सवर्मान्य नेता दिखाई नहीं देता। पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी महाराष्ट्र में भले ही लोकप्रिय हों, उनकी बहुत बड़ी राष्ट्रीय पहचान और राष्ट्रीय राजनीति में विशेष पृष्ठभूमि नहीं है। अरुण जेटली राजनैतिक रणनीतियों के माहिर, प्रबल वक्ता और अच्छी छवि के काबिल राजनेता हैं लेकिन जनाधार का न होना उनकी कमजोरी है। सुषमा स्वराज अच्छी वक्ता और प्रबल छवि की स्वामी अवश्य हैं लेकिन राष्ट्रीय जनाधार के मामले में वे श्री आडवाणी से होड़ नहीं ले सकतीं। वे पारंपरिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हुई नहीं रही हैं और दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने कोई विशेष छाप नहीं छोड़ी थी। लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में भी वे मुखर भले ही हों, वजनदार नहीं दिखतीं। राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष पद पर रहते हुए काफी सक्रिय थे लेकिन पद से हटने के बाद वे उत्तर प्रदेश तक सीमित रह गए हैं। नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रबल समर्थन है और बताया जाता है कि पिछले दिनों संघ की शीर्ष बैठक में उन्हें अगले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किए जाने का फैसला हो चुका है। लेकिन गठबंधन राजनीति के जमाने में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अन्य दलों की स्वीकायर्ता जरूरी है। राजग के कई दल, खासकर उसका सबसे प्रमुख सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर मोदी के साथ आने को तैयार नहीं है। हालांकि फिलहाल श्री आडवाणी की यात्रा के प्रति पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी का समर्थन होने की बात कही जा रही है तथा दूसरे युवा नेताओं ने भी खुले आम इस पर कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी है लेकिन यह देखने की बात है कि यात्रा के सफल होने की स्थिति में जब राष्ट्रीय नेतृत्व में स्वाभाविक हलचल होगी, क्या तब भी वे अपने इस वयोवृद्ध नेता के प्रति 'सम्मानजनक मौन' धारण किए रहेंगे।

श्री आडवाणी की रथयात्रा 'सिविल सोसायटी' के उन नेताओं को भी नागवार गुजरेगी जो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपार राष्ट्रीय समर्थन जुटाने में कामयाब रहे हैं। अन्ना हजारे इस मुद्दे पर राष्ट्रीय लड़ाई के प्रतीक बनकर उभरे हैं और भले ही उनके आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का परोक्ष समर्थन रहा हो, सिविल सोसायटी के नेता यह नहीं चाहेंगे कि कोई राजनैतिक दल या नेता उनके आंदोलन की उपजाऊ जमीन पर अपनी फसल उगा ले। समर्थन लेना अलग बात है और अपना आधार ही थमा देना अलग। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लालकृष्ण आडवाणी को अपनी यात्रा के दौरान अन्ना हजारे समर्थकों की नाराजगी का सामना करना पड़े। यह आरोप तो लगने ही लगा है कि वे भ्रष्टाचार विरोधी स्वत:स्फूर्त राष्ट्रीय आंदोलन को अपने तथा अपने दल की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए 'हाईजैक' करने की कोशिश कर रहे हैं।

अति-महत्वाकांक्षा या जरूरी पहल?

प्रश्न उठता है कि क्या प्रमुख विपक्षी दल के रूप में भाजपा को मौजूदा हालात के अनुरूप कदम नहीं उठाना चाहिए? जब पार्टी के स्तर पर कोई बड़ी पहल नहीं हो रही है तो एक अनुभवी नेता जो आप मानें या न मानें पर पार्टी समर्थकों के बीच एक राष्ट्रीय आइकन और संरक्षक के रूप में देखा जाता रहा है, अपने स्तर पर ऐसी पहल करना चाहता है। इसमें गलत क्या है? क्या यह सच नहीं है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संसद में हंगामा करने और कुछेक प्रदर्शनों के अलावा भाजपा जमीनी स्तर पर बड़ी राष्ट्रीय मुहिम छेड़ने में कामयाब नहीं रही है? क्या यह धारणा आम नहीं है कि अन्ना हजारे इस समय वह काम कर रहे हैं जो स्वाभाविक रूप से विपक्षी दलों को करना चाहिए था? भाजपा ने अन्ना हजारे के आंदोलन को समर्थन देकर रणनीतिक रूप से एक अच्छा कदम उठाया लेकिन वह और भी बहुत कुछ कर सकती थी, जैसे कि लोकपाल के मुद्दे पर अपने अलग विधेयक का मसौदा पेश करना। सरकार के विधेयक के विकल्प के रूप में यदि पार्टी ने एक दमदार विधेयक का प्रारूप तैयार किया होता तो वह एक परिपक्व और प्रभावी कदम होता। लेकिन हालत यह थी कि अंतिम समय तक पार्टी जन लोकपाल और सरकारी लोकपाल विधयेक के ज्यादातर प्रावधानों पर अपना रुख ही तय नहीं कर पाई थी। उसके नेताओं के बयानों में भी विरोधाभास झलकता था और इसी संदभ्र में यशवंत सिन्हा तथा शत्रुघ्न सिन्हा ने इस्तीफे तक की धमकियां दी थीं। श्री आडवाणी की रथयात्रा उस खोए हुए मौके को वापस लाने का एक बेताब प्रयास भी मानी जा सकती है, बशतेर् इसे एक व्यक्तिगत यात्रा के रूप में नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी की यात्रा के रूप में पेश किया जाए और पार्टी के सभी प्रमुख नेता इसमें सक्रिय रूप से हिस्सा लें।

पिछले दिनों आए एक टेलीविजन चैनल के जनमत सवेर्क्षण में साफ हुआ था कि भ्रष्टाचार विरोधी माहौल ने भाजपा की खासी मदद की है और कांग्रेस की तुलना में जनमत उसकी तरफ मुड़ रहा है। कांग्रेस के पक्ष में बीस प्रतिशत तो भाजपा के पक्ष में 32 प्रतिशत प्रतिभागियों ने अपना समर्थन जाहिर किया। अलबत्ता आप कांग्रेस को यूं ही खारिज नहीं कर सकते क्योंकि गांवों में विकास और रोजगार के कायर्क्रमों के जरिए उसने अपने समर्थकों का आधार काफी बढ़ाया है। ये वे लोग हैं जो किसी भी टेलीविजन चैनल के सवेर्क्षणों में हिस्सा नहीं लेते लेकिन देश की राजनीतिक तसवीर यही तय करते हैं। जागरूक मतदाताओं के बीच हालांकि कांग्रेस विरोधी रुझान साफ नजर आ रहा है। लेकिन भारत में जनता का रुख बदलते देर नहीं लगती और अगले लोकसभा चुनाव अभी तीन साल दूर हैं। विपक्षी दलों के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि वे मौजूदा माहौल का असर तीन साल तक कायम रखें। यह कोई आसान चुनौती नहीं है और उस लिहाज से भी श्री आडवाणी की यात्रा अहम भूमिका निभा सकती है।

भले ही बहुत से लोग श्री आडवाणी को भाजपा के नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति से अलग हो जाने की सलाह दे रहे हों लेकिन कभी 'लौह पुरुष' कहा जाने वाला यह सक्रिय राजनैतिक दिग्गज इतनी आसानी से मैदान छोड़ने वाला नहीं है। पिछले चुनाव से पहले हमने उनकी सक्रियता देखी थी। भले ही नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं गए हों लेकिन श्री आडवाणी ने अपनी तरफ से तैयारियों, रणनीतियों और चुनाव अभियान में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। अब वे फिर अपनी भूमिका को केंद्र में लाने का प्रयास कर रहे हैं जो कोई भी महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ करेगा। लोकसभा में उनका यह कहना कि अगर 'वोट के बदले धन' वाले मुद्दे में आरोप लगाने वाले सांसदों को जेल भेजा जा रहा है तो उन्हें भी जेल भेजा जाना चाहिए क्योंकि इस बारे में स्टिंग आपरेशन उनकी सहमति से हुआ था। उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार पर भाजपा के साथ भेदभाव का परोक्ष आरोप लगाते हुए उनकी चाय पार्टी से अलग रहने का फैसला भी किया और अब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर रथ यात्रा की घोषणा कर सुर्खियों में लौट आए है। माना कि भाजपा के युवा नेताओं की आशाओं पर इससे तुषारापात होगा लेकिन 'फेयर प्ले' में सबको खेलने का मौका मिलता है। अब वे शून्य पर आउट होते हैं या शतक बनाते हैं, यह उनकी काबिलियत पर निभ्रर करेगा।

Saturday, August 27, 2011

लोकतंत्र और लचीलेपन से ही निकलेगा समाधान

हालांकि अन्ना का सशंकित रहना अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन सुलह-सफाई का रास्ता सिर्फ एक पक्ष के लचीलेपन से नहीं निकलने सकता। वह लोकतांत्रिक तरीके से ही निकलेगा, जिसमें दोनों पक्षों को एक दूसरे को स्पेस देने की जरूरत है।

बालेन्दु शर्मा दाधीच

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में इतना जबरदस्त भावनात्मक उफान शायद ही कभी देखा गया हो। व्यवस्थागत असंगतियों के ढांचे में खुद को किसी तरह फिट कर चुपचाप, 'सुरक्षित' ढंग से अपने जीवन.संघषर्ों में लगे आम आदमी को अन्ना हजारे और उनके साथियों ने जैसे चौंकाकर जगा दिया है। जिस तरह चाय की दुकान से लेकर बस और मेट्रो में बैठे हुए आम लोग भ्रष्टाचार के बारे में सजग चर्चा कर रहे हैं वह हमारे सामाजिक नजरिए में एक नए और सुखद बदलाव का प्रतीक है। सरकार, संसद और मीडिया को लगभग पंद्रह दिन से सिर्फ एक ही मुद्दे पर केंद्रित कर देने वाला यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इतिहास के अहम पड़ाव के रूप में देखा जाएगा, भले ही इसकी परिणति कैसी भी हो। किस तरह एक सामान्य सा व्यक्ति गांधीवादी तौर तरीकों का इस्तेमाल करते हुए, सिर्फ अपनी सत्यनिष्ठा और संकल्प के बल पर पूरे राष्ट्र को जागृत एवं आंदोलित कर सकता है, वह बाकी दुनिया के लिए भले ही कौतूहल का विषय हो, भारतीय लोकतंत्र की अंतर.निहित शक्तियों को जाहिर करता है। साथ ही साथ वह इस तथ्य को भी रेखांकित करता है कि लोकतंत्र, उसके तौर.तरीके और परंपराएं जनांदोलनों को मजबूत बनाती हैं, उन्हें क्षति नहीं पहुंचाती। दोनों ही तरफ खड़े लोगों को तमाम आपसी मतभेदों के बावजूद उनमें आस्था नहीं छोड़नी चाहिए।

लोकपाल विधेयक संबंधी विचारों, विकल्पों और मसौदों की संख्या बढ़ती जा रही है। किसी भी पक्ष को इस विषय में असहज होने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह एक सकारात्मक घटनाक्रम है। जनलोकपाल विधेयक संबंधी आंदोलन के मंथन से निकल कर अलग.अलग पक्षों की तरफ से आने वाले सुझावों में परस्पर भिन्नताएं जरूर हैं लेकिन एक बुनियादी समानता है और वह यह कि ये सभी भ्रष्टाचार की समस्या का दमदार समाधान निकालना चाहते हैं। उनके नजरिये भले ही अलग.अलग हो सकते हैं। सभी मसौदों में कुछ बहुत अच्छे प्रावधान हैं और सभी की कुछ सीमाएं भी हैं। अन्ना हजारे और उनके साथियों द्वारा तैयार किया गया जन लोकपाल बिल इनमें सबसे सशक्त है और मौजूदा राजनीति में आए सकारात्मक उफान के लिए उन्हीं की पहल जिम्मेदार है जिसका पूरा श्रेय उन्हें मिलना ही चाहिए। उनके मसौदे को भारी जनसमर्थन भी प्राप्त है, भले ही इसके प्रावधानों के महीन बिंदुओं पर आम जनों के बीच कितनी जागरूकता है, यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने के बारे में अन्ना हजारे के संकल्प पर संदेह की गुंजाइश नहीं है। जो व्यक्ति इस राष्ट्रीय बीमारी के उन्मूलन के लिए अपना जीवन खतरे में डालने को तैयार है, और प्रभावशाली लोकपाल की स्थापना से कम पर टस से मस होने के लिए तैयार नहीं है, उसके प्रति यह देश और समाज आभारी रहेगा। श्री हजारे न सिर्फ आम जनता की भावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं बल्कि उन्होंने इस विधेयक पर चालीस साल से जमी हुई जंग साफ करने का रास्ता खोला है। अगर इतने प्रबल जनसमर्थन और उद्वेलित माहौल में, जब ज्यादातर राजनैतिक दल भी मजबूत लोकपाल की स्थाना पर सहमत हैं, यह विधेयक संसद में पारित नहीं होता तो आगे ऐसा कब हो पाएगा, कहना मुश्किल है। महिला आरक्षण विधेयक का उदाहरण सामने है, जो ज्यादातर दलों के समर्थन के बावजूद आज तक लटका पड़ा है।

पिछले दस.बारह दिनों में राजनैतिक घटनाक्रम नाटकीय रूप से बदला है। अन्ना हजारे और सरकार के बीच सहमति के बिंदु उभरे हैं, जबकि कुछ दिन पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा रही थी। अन्ना हजारे के संकल्प को स्वीकार करते हुए उनके अनशन के प्रति प्रधानमंत्री, सरकार और विपक्षी दलों ने गहरी चिंता प्रकट की है। बाबा रामदेव के उलट, अन्ना से अनशन समाप्त करने की अनेक अपीलें सरकार और कांग्रेस की ओर से की गई हैं। लोकसभा अध्यक्ष ने संसद की ओर से अनशन तोड़ने का आग्रह किया है। हालांकि अन्ना का सशंकित रहना अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन सुलह.सफाई का रास्ता सिर्फ एक पक्ष के लचीलेपन से नहीं निकलने सकता। वह लोकतांत्रिक तरीके से ही निकलेगा और लोकतांत्रिक तरीका वही है जिसमें दोनों पक्ष एक.दूसरे की भावनाओं को समझें और जरूरी 'स्पेस' दें। सरकार, विपक्ष और संसद की अपीलों को एक झटके में नजरंदाज करने की बजाए अगर अन्ना हजारे और उनकी टीम इसे एक सकारात्मक घटनाक्रम के रूप में देखती, तो इससे उनके आंदोलन की सफलता पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था। अन्ना का आंदोलन शीर्ष स्थिति में पहुंच चुका है और किसी भी तरह की वायदाखिलाफी इसे और मजबूत ही बनाएगी।

देरी से मुश्किलें ही बढ़ेंगी

अद्वितीय सामाजिक उद्वेलन और चौतरफा अपीलों के दौर में अन्ना द्वारा अनशन समाप्त किए जाने का यह उपयुक्त समय है। इसे और लंबा खींचना आंदोलन की छवि को प्रभावित करेगा और उनकी ऐसी छवि बनाएगा जो लोकतांत्रिक और समावेशी नहीं है। रामलीला मैदान और अलग.अलग शहरों में उमड़ने वाले आंदोलनकारी खुद भ्रष्टाचार की समस्या से त्रस्त रह चुके हैं और मौजूदा आंदोलन पर उनकी उम्मीदें टिकी हुई हैं। लेकिन मीडिया के पूरे समर्थन के बावजूद उनका उत्साह बहुत लंबे समय तक इसी तरह टिका रहे, यह आवश्यक नहीं है। खासकर उस परिस्थिति में जब आंदोलनकारी नेताओं के बीच मतभेद उभरने की बातें सामने आ रही हैं। किसी सुसंगठित राजनैतिक दल के समर्थन और सुस्पष्ट राष्ट्रीय सांगठनिक ढांचे के अभाव में बहुत लंबे समय तक आंदोलन जारी रखना और उसे लोकिप्रय बनाए रखना मुश्किल है। अन्ना हजारे के निजी स्वास्थ्य के अलावा उनके कैंप को इस बारे में भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

टीम अन्ना के बीच विभाजन रेखाएं खिंचने की शुरूआत अरुणा राय और उनके साथियों द्वारा अपना अलग मसौदा पेश करने के साथ हुई थी। मानना होगा कि इसमें दोनों पक्षों के बीच सामंजस्य पैदा करने की संजीदा कोशिश की गई है। अन्ना हजारे के साथियों अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी पर आंदोलन को हाईजैक करने के आरोप लग रहे हैं और यह माना जा रहा है कि टीम अन्ना और सरकार के बीच समझौता नहीं होने के पीछे उनकी भूमिका है। धीरे.धीरे आंदोलन के परिदृश्य में उनकी प्रधान भूमिका कमजोर होती गई है। सरकार से बातचीत का जिम्मा अब या तो खुद अन्ना हजारे संभाल रहे हैं या फिर उनके दो दूसरे साथी. प्रशांत भूषण तथा मेधा पाटकर देख रहे हैं। स्वामी अग्निवेश और श्री श्री रविशंकर अनशन समाप्त करने के मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी के रुख से असमहत हैं। कर्नाटक के पूवर् लोकायुक्त और सुप्रीम कोर्ट के पूवर् न्यायाधीश संतोष हेगड़े संसद की सवर्ोच्चता को चुनौती दिए जाने से इतने व्यथित हैं कि आंदोलन से अलग होने पर विचार कर रहे हैं। अनशन जितना लंबा चलेगा, इस किस्म के रासायनिक परिवर्तन और गति पकड़ते रहेंगे। अन्ना हजारे को इस संदभ्र में एक रणनीतिक फैसला करने की जरूरत है।

सभी में कुछ अच्छा, कुछ बुरा

सरकार की ओर से पेश किया गया लोकपाल विधेयक उसके मंसूबों के बारे में यकीनन संदेह पैदा करता है। भ्रष्टाचार के दोषियों को सामान्य सी सजा देना, राज्यों में लोकायुक्त की स्थापना को विधेयक से न जोड़ा जाना, विधेयक के दायरे में सिर्फ उच्च नौकरशाही को लाना और शिकायत गलत साबित होने पर शिकायतकर्ता को गंभीर सजा दिए जाने का प्रावधान उचित नहीं हैं। ऐसे प्रावधानों ने विधेयक के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को ही संदेह के दायरे में ला देते हैं। प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को विधेयक के दायरे से अलग रखे जाने जैसे मुद्दों पर लोगों के मन में संदेह पैदा हो रहे हैं तो उसके पीछे ऐसे प्रावधानों का भी हाथ है। लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली समिति द्वारा अन्ना हजारे और उनकी टीम के ज्यादातर सुझावों को स्वीकार कर लिए जाने के बावजूद अगर सरकार जनता के बीच विधेयक के प्रति विश्वसनीयता पैदा करने में नाकाम रही है तो इसके लिए किसी और को दोष नहीं दिया जा सकता।

जन लोकपाल विधेयक भी खामियों से पूरी तरह मुक्त नहीं है। मिसाल के तौर पर गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) और उनके कर्मचारियों द्वारा हासिल की जाने वाली धनराशि पर उनकी नजर नहीं गई है, हालांकि सरकार के विधेयक में इन्हें शामिल किया गया है। इस संदभ्र में लेखिका और सामाजिक कायर्कर्ता अरूंधती राय की टिप्पणी काबिले गौर है, जिन्होंने कहा है कि अन्ना हजारे के आंदोलन का समर्थन कर कारपोरेट घराने, गैर.सरकारी संगठन और मीडिया बड़ी सफाई से लोकपाल विधेयक के दायरे में आने से बच निकले हैं। अन्ना हजारे की टीम अगर वाकई भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर विधेयक लाना चाहती है तो इन तीनों बड़े सेक्टरों को उससे अलग कैसे रखा जा सकता है? न्यायपालिका के मुद्दे पर अन्ना हजारे की टीम कुछ लचीलापन दिखाने को तैयार हुई है लेकिन उसे संसद तथा संविधान की सवर्ोच्चता जैसे मसलों को भी पयरप्त सम्मान देना चाहिए।

प्रधानमंत्री को बिल के दायरे में लाने के मुद्दे पर अरुणा राय समूह के प्रस्तावित प्रावधान एक मध्यमार्ग निकाल सकते हैं। लोकपाल समिति के सभी सदस्य अगर आम राय से प्रधानमंत्री को दोषी मानते हुए उनके विरुद्ध मुकदमा चलाना चाहें तो वे इस मामले को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रख सकते हैं जो जरूरी आकलन के बाद अंतिम निण्रय दे सकता है। यह ऐसा प्रावधान है जिसे स्वीकार करने में सरकार को कोई आपित्त नहीं होनी चाहिए और यह जन लोकपाल विधेयक के प्रावधान को भी कुछ शर्तों के साथ पूरा करता है। अगर सभी पक्ष इस बारे में सहमत हो जाते हैं तो टकराव का एक बड़ा बिंदु दूर हो सकता है। न्यायपालिका से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले हल करने के लिए कठोर न्याियक जवाबदेही कानून लाने पर भी ज्यादातर पक्षों की सहमति बनने लगी है। इसी तरह एक.एक कर मतभेद के बिंदु समाप्त हो सकते हैं। हालांकि उच्च अफसरशाही और निम्न अफसरशाही के लिए अलग.अलग संस्थाएं बनाने की बात कुछ अव्यावहारिक है क्योंकि यह भ्रष्टाचार पर अंकुश की प्रक्रिया का कम्पार्टमेंटलाइजेशन (अलग.अलग टुकड़ों में बांटना) सुनिश्चित करेगा जिससे आम आदमी के लिए शिकायत करना और समाधान हासिल करना जटिल हो जाएगा।

Saturday, August 6, 2011

सबको चाहिए अपनी-अपनी सुविधा का लोकपाल

प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाए जाने के मुद्दे पर विभिन्न राजनैतिक दल अपनी-अपनी सुविधा के लिहाज से नीतियां तय कर रहे हैं। इस मामले में हठधर्मिता नहीं बल्कि दूरदर्शिता से काम लेने की जरूरत है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने या न लाने के बारे में फटाफट किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है। एक, विश्व में कहीं भी किसी कायर्कारी प्रमुख को ऐसी संस्था के दायरे में नहीं लाया गया है। दो, ऐसा करने की पुरजोर मांग करने वाली भारतीय जनता पार्टी के अपने मुख्यमंत्रियों ने या तो लोकायुक्तों की स्थापना ही नहीं की है या फिर उनके पद लोकायुक्त के दायरे से बाहर हैं। तीन, प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार निरोधक कानून के दायरे में आते हैं इसलिए वे आज भी कानूनी कार्यवाही से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। चार, लोकपाल संबंधी सरकारी विधेयक का मसौदा सिर्फ मौजूदा प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच के दायरे में लाने से रोकता है, पूवर् प्रधानमंत्रियों को नहीं। सत्ता छोड़ते ही हर प्रधानमंत्री खुद ब खुद इसके दायरे में आ जाएगा।

सरकार की तरफ से संसद में पेश किए गए लोकपाल विधेयक पर भारतीय जनता पार्टी को कुछ गंभीर आपत्तियां हैं। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में न लाए जाने पर वह सर्वाधिक आक्रोश में है। विधेयक के कुछ प्रावधान यकीनन आपित्तजनक हैं लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा विधेयक पहले बनाए गए किसी भी मसौदे से ज्यादा व्यापक तथा शक्तिशाली है। स्थायी समिति में होने वाली चर्चाओं के दौरान जरूरी संशोधन करके तथा नए प्रावधानों को जोड़कर इसे और मजबूती दी जा सकती है। जहां तक प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाए जाने का प्रश्न है, विभिन्न राजनैतिक दल अपनी-अपनी सुविधा के लिहाज से नीतियां तय कर रहे हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के शासनकाल के दौरान सन 2002 में बनाए गए लोकपाल बिल के मसौदे में प्रधानमंत्री को शामिल किया गया था। लेकिन गठबंधन ने प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वाली स्थायी समिति द्वारा मसौदे को हरी झंडी दे दिए जाने के बाद भी दो साल तक इसे संसद में पारित नहीं करवाया। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस मुद्दे पर पार्टी का वास्तविक रुख क्या था।

इस मुद्दे पर विभिन्न गठबंधनों के बीच विरोधाभास हैं। भाजपा और जनता दल (यू) के रुख के विपरीत अकाली दल प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के विरुद्ध है। उधर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के शेष दलों के विपरीत द्रमुक उन्हें इसमें शामिल करवाना चाहती है। संप्रग के भीतर बदलते समीकरणों और रिश्तों के बीच द्रमुक के रुख को समझना असंभव नहीं है तो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी बादल सरकार के नजरिए को भी। चुनावों की ओर बढ़ रहे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती प्रधानमंत्री को इसके दायरे में लाना चाहती हैं तो बिहार की राजनीति में हाशिए पर चले गए लालू प्रसाद इसके सख्त खिलाफ हैं। केंद्र में सत्ता का ढांचा अगर अलग होता तो संभवत: इन सभी दलों के नजरिए कुछ और ही होते। लोकपाल पर नजरिया राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि राजनैतिक नफा-नुकसान के आधार पर तय हो रहा है। भ्रष्टाचार विरोधी महायुद्ध में लोकपाल की संस्था से जितनी प्रचंड उम्मीदें हैं, उन्हें देखते हुए यह सुविधाजनक, राजनैतिक समीकरण आधारित और हल्का-फुल्का रवैया कुछ नाइंसाफी जैसा लगता है।

आपित्तयां और दलीलें

भाजपा की इस दलील में दम है कि मंत्रियों को सरकारी खर्चे पर कानूनी सहायता देने और शिकायत गलत निकलने पर शिकायतकर्ता को सजा देने जैसे प्रावधान लोकपाल विधेयक की भावना को ही नष्ट कर रहे हैं। पार्टी को स्थायी समिति की बैठकों में ऐसे सभी मुद्दों पर पुरजोर आवाज उठाकर जरूरी संशोधनों के लिए विवश करना चाहिए। लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी पार्टी की जायज आपित्तयां हैं। लेकिन ये ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिनका समाधान आपसी विचार-विमर्श से न हो सके। सबसे ज्यादा विवादित और प्रचारित मुद्दा प्रधानमंत्री का ही है जिसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने की बजाए व्यावहारिक ढंग से सुलझाए जाने की जरूरत है।

इस मुद्दे पर मौजूदा केंद्र सरकार का रुख स्पष्ट है। मुझे नहीं लगता कि पार्टी मनमोहन सिंह को इसलिए इससे दूर रखना चाहती होगी कि वे 'भ्रष्ट' हैं। प्रधानमंत्री के धुर राजनैतिक विरोधी भी उन पर यह आरोप नहीं लगाते। रिमोट-संचालित, भ्रष्ट तत्वों से घिरे हुए, कमजोर, राजनैतिक जनाधार से विहीन आदि-आदि तमाम आरोप उन पर लगाए जाते रहे हैं लेकिन मनमोहन सिंह स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त हों, ऐसा कोई नहीं कहता। खुद अन्ना हजारे और उनके साथी भी। जाहिर है, मुद्दा श्री सिंह को किसी 'आसन्न खतरे' से बचाने का नहीं है। फिर भी सरकार और सत्तारूढ़ गठबंधन अगर उन्हें लोकपाल के दायरे में न लाने पर अडिग हैं तो उसके रुख को समझने का प्रयास तो होना ही चाहिए। अगर प्रधानमंत्री के विरुद्ध शिकायतों का सिलसिला शुरू हो जाता है तो वह देश के कार्यकारी प्रमुख के रूप में उनकी स्थिति को कमजोर करेगा। भारत में जिस तरह बात-बात पर जनहित याचिकाएं दायर होती हैं, उसे देखते हुए यह आशंका निर्मूल नहीं है। उन्हें ऐसे मामलों से निपटने, विवादों को शांत करने, सफाई देने, सुनवाइयों में मौजूद होने आदि को समय और वरीयता देनी होगी।

बचाव की रणनीतियों में उलझाने की बजाए कम से कम एक व्यक्ति को तो चैन से काम करने ही दिया जाना चाहिए, खासकर तब जबकि सत्ता से हटते ही उन्हें जांच के दायरे में लाने की व्यवस्था मौजूद हो। परोक्ष रूप से इस मार्ग का इस्तेमाल राष्ट्र विरोधी तत्व, बड़े कारपोरेट घराने, शत्रु राष्ट्र आदि भी कर सकते हैं। हर छोटा-बड़ा निर्णय लेने से पहले उन्हें यह सोचना होगा कि इस पर लोकपाल का रुख क्या होगा। क्या सिर पर तलवार रखकर किसी से अच्छा काम करने की उम्मीद की जा सकती है? जो व्यक्ति चुनावी प्रक्रिया से गुजरकर आया है, उसे निर्बाध रूप से अपना काम करने का हक क्यों नहीं मिलना चाहिए? अगर कोई सरकार राष्ट्र विरोधी फैसले करती है या भ्रष्टाचार में लिप्त है तो हमारे लोकतंत्र में संसद के जरिए उसके विरुद्ध अविश्वास मत के जरिए कार्रवाई करने की व्यवस्था है। फिर कुछ समय बाद ही सही, लोकपाल का विकल्प तो मौजूद है ही। यहां यह तथ्य भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि जो संस्था किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है (संसद, न्यायपालिका और जनता के प्रति भी नहीं), वह लोकतांत्रिक पद्धति से पूरे देश द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री के हर फैसले को निष्प्रभावी करने की शक्ति रखेगी। किसी भी संस्था को इस तरह की असीमित शक्तियां देना दूरदर्िशता नहीं कही जाएगी।

हठधर्मिता किसलिए

यह बात समझ से परे है कि अन्ना हजारे और सिविल सोसायटी के अन्य लोग यह कैसे मानकर चल रहे हैं कि उन्होंने विधेयक का जो मसौदा बनाया है, उसका दर्जा किसी 'ईश्वरीय दस्तावेज' जैसा है? उसके बारे में कोई भी आपित्त, कोई भी बहस उन्हें स्वीकार नहीं है। उसका हर प्रावधान जैसे कुंदन की तरह आग में तपाकर निकाला गया है जो किसी भी विवाद या आपित्त से परे है! बताया जाता है कि सरकारी मसौदे में सिविल सोसायटी के तीन चौथाई प्रावधान समाहित कर लिए गए हैं। लेकिन वे सौ फीसदी से कम पर तैयार नहीं हैं। सरकार ने उन्हें समिति में लेकर अपना मसौदा पेश करने का मौका दिया। वैसा ही जैसा किसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में होता है। लेकिन उस मसौदे का हर प्रावधान स्वीकार करने के लिए वह बाध्य नहीं है। उसे उनकी स्वतंत्र समीक्षा करने और उचित.अनुचित प्रावधानों को स्वीकार तथा रद्द करने का पूरा हक है। वैसे ही, जैसे सिविल सोसायटी ने सरकारी मसौदे के बहुत से प्रावधानों की निंदा की है और विधेयक की प्रतियां जलाकर अपना रुख जाहिर किया है।

यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें कुछ लोग खुद को हर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ऊपर मानते हैं? ऐसे लोग किसी संस्था के प्रमुख बनते हैं, वह भी ऐसी संस्था जो किसी के भी प्रति किसी भी प्रकार की जवाबदेही से पूरी तरह मुक्त है, तो वे किस अंदाज में आगे बढ़ेंगे इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। वे कपिल सिब्बल को मंत्रिमंडल में रहने के लायक नहीं मानते, वे कहते हैं कि अगर वे तीन दिन और अनशन करते तो सरकार गिर जाती। वे खुद को कायर्पालिका, न्यायपालिका और संसद, सभी से ऊपर मानते हैं, वे सीबीआई जैसी संस्थाओं को अपने अधीन लाना चाहते हैं। देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति पानी है लेकिन अपने लोकतंत्रिक ढांचे को नुकसान पहुंचाए बिना। फर्ज कीजिए कि सिविल सोसायटी की सभी शतेर्ं मान ली जाएं और इस तरह बनने वाला सवर्शक्तिमान लोकपाल बाद में निरंकुश तथा पथभ्रष्ट हो जाए तो इसके क्या परिणाम होंगे? वह स्वयं भ्रष्ट हो गया तो? खासकर तब, जब वह प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा करने का अधिकार रखता हो! उस समय विपक्ष और मीडिया का क्या रुख होगा, इसे समझना मुश्किल नहीं है। क्या यह सरकार की स्थिरता और उसके नतीजतन देश की स्थिरता को प्रभावित नहीं करेगा? इतनी महत्वपूर्ण संस्था की स्थापना से पहले सकारात्मक और नकारात्मक सभी पहलुओं पर गौर करना जरूरी है। सिविल सोसायटी, विपक्ष और सरकार तीनों को सुविधाजनक दृष्टिकोण अपनाने या हठधर्मिता छोड़कर स्वस्थ विचार-विमर्श का रास्ता अपनाना चाहिए। अराजकता से मुक्ति का उपकरण खुद अराजकता का जनक बन जाए तो वह राष्ट्रीय दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।

Saturday, July 30, 2011

ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी का कोई अंत भी है?

रिजर्व बैंक ने वही किया जो मुद्रास्फीति को काबू करने की लंबी लड़ाई में वह सवा साल से करता आ रहा है। ब्याज दरें बढ़ गईं। लेकिन क्या इस समस्या से निजात पाने का यही एकमात्र विकल्प था?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

इतने बड़े झटके की उम्मीद नहीं थी। भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी ताजा नीतिगत समीक्षा के दौरान नीतिगत दरों में 50 बेसिस अंकों की बढ़ोत्तरी करके दहशत सी मचा दी है। इससे पिछली दस समीक्षाओं के दौरान भी वह नियम से रेपो और रिवर्स रेपो दरें बढ़ाती आई है। मार्च 2010 से अब तक ग्यारह बार। कुल मिलाकर करीब सवा तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी। आवासीय और वाहन ऋणों की ब्याज दरें आसमान छूने लगी हैं। और यह सिलसिला यहीं खत्म हो जाए, जरूरी नहीं। रिजर्व बैंक के मुताबिक यह वृद्धि अंतिम नहीं है और अगर मुद्रास्फीति काबू में नहीं आती है तो वह अगली बार फिर कदम उठाएगी। मुद्रास्फीति पर काबू करने का यह पारंपरिक तरीका है। लेकिन भारत में यह हथियार भी कारगर होता नहीं दीख रहा। सवा साल से अपनाई जा रही कड़ी नीति के बावजूद रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति के आगे बेबस दिखाई दे रहा है। नौ फीसदी से ज्यादा की मुद्रास्फीति देश के साथ.साथ आम आदमी की आर्थिक सेहत के लिए भी ठीक नहीं है। वह आर्थिक सुधारों को भी संकट में डाल रही है। माना कि बीमारी गंभीर है लेकिन इलाज काम कहां कर रहा है?

पहले ही मंदी के घातक दौर का सामना कर चुकी विश्व अर्थव्यवस्था के लिए अमेरिका के ऋण संकट और यूरोप की आर्थिक मंदी ने नई आशंकाएं पैदा कर दी हैं। भारत और चीन अपनी आंतरिक आर्थिक मजबूती के बल पर इन दबावों से कुछ हद तक सुरक्षित हैं लेकिन हाल के महीनों में मिल रहे संकेत बहुत शुभ नहीं हैं। चीन के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर अनुमान से कम रहने जा रही है। भारत में भी वित्त वर्ष 2010 की अंतिम तिमाही (8॰4 प्रतिशत) की तुलना में 2011 की पहली तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर (7॰8 प्रतिशत) में कमी आई है। औद्योगिक उत्पादन धीमा पड़ने, महंगाई बढ़ने और मुद्रास्फीति के बेकाबू बने रहने जैसी चिंताएं बरकरार हैं। ऊपर से रिजर्व बैंक के ताजा फैसले से कारोबारियों और उपभोक्ताओं दोनों के बीच आशंकाओं और चिंताओं का माहौल है जो उत्पादकता पर असर डालेगा।

ब्याज दरों में इतनी बड़ी तेजी करके संभवत: रिजर्व बैंक इसी तरह की धारणा पैदा भी करना चाहता था। नए कर्जों पर अंकुश लगे और बाजार में मुद्रा का प्रसार कुछ कम हो। असुरक्षा बोध लोगों को कम खर्च करने के लिए प्रेरित करेगा। कुछ विशेषज्ञों को यह भी लगता है कि आगे भी दरें बढ़ाने की संभावना संबंधी घोषणा के बावजूद असलियत में रिजर्व बैंक इस मामले में एक ठहराव बिंदु के करीब पहुंच रहा है। इस बार का बड़ा झटका संभवत: आखिरी हो क्योंकि अगली बार दरें बढ़ीं तो वह अर्थव्यवस्था में धीमापन ला सकती है। हालांकि मुद्रास्फीति को लेकर सरकार जिस तरह भयभीत दिखाई दे रही है, उतने बड़े भय की बात शायद नहीं है क्योंकि कहते हैं कि मुद्रास्फीति हर बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था का एक आवश्यक प्रतिफलन है। फिर नरेगा जैसी योजनाओं के जरिए जितना धन निम्नतम स्तर तक पहुंच रहा है, वह भी तो अपना असर दिखाएगा ही।

सभी होते हैं प्रभावित

ब्याज दरों की यह वृद्धि अंतिम है या नहीं, इस बारे में स्थिति अगले महीने तक साफ होगी लेकिन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ.साथ आम आदमी के लिए भी मुद्रास्फीति का नीचे आना जरूरी है। इसे यूं देखिए। मुद्रास्फीति के घटे बिना ब्याज दरें नीचे नहीं आने वाली। नतीजे में आवासीय, वाहन, निजी और दूसरे कर्ज महंगे होते रहेंगे। यदि आपने कोई कर्ज लिया हुआ है तो उसे चुकाने की अवधि या फिर मासिक किश्त की राशि बढ़ती जा रही है। दूसरी तरफ आय में इस किस्म की मासिक वृद्धि नहीं हो रही। आपके घरेलू बजट पर दबाव बढ़ता रहेगा और जिससे आपकी क्रय शक्ति व बचत शक्ति निरंतर कम होती रहेगी। अगर आप बैंक में सावधि जमा पर सात फीसदी की ब्याज दर मिलने से प्रसन्न हो रहे हों तो आपको बता दें कि असल में आप ऋणात्मक ब्याज पा रहे हैं। सौ रुपए की रकम एक साल में 107 रुपए हो जाएगी लेकिन मुद्रास्फीति (जून में 9॰44 फीसदी) के कारण उन 107 रुपयों की कीमत 98 रुपए के आसपास ही बैठेगी। इस लिहाज से समझें तो बैंक आपको सात फीसदी ब्याज देकर भी असल में आपसे आपकी ही रकम पर दो फीसदी ब्याज वसूल रहा है।

इसे एक उदाहरण से समझते हैं। गेहूं की दर आज 12 रुपए प्रति किलो है। यानी 12000 रुपए में आप दस क्विंटल गेहूं खरीद सकते हैं। मान लीजिए कि आपने यही रकम बैंक में जमा कराई और साल भर बाद सात फीसदी ब्याज समेत 12840 रुपए प्राप्त किए। इस बीच मुद्रास्फीति के कारण गेहूं की दर बढ़कर 13 रुपए प्रति किलो हो गई। अब 12840 रुपए में नौ क्विंटल 87 किलो गेहूं ही आया। यानी अपना पैसा साल भर बैंक में रखने से आपको लाभ नहीं, नुकसान हुआ। यही मुद्रास्फीति का प्रभाव है।

मुद्रास्फीति का कम होना सबके हित में है। लेकिन ब्याज दरें बढ़ाए जाने के कई नकारात्मक प्रभाव भी होते हैं। जैसे आवासीय क्षेत्र में एकदम से गिरावट आ जाना। बैंकों द्वारा आवासीय कर्ज देने से हाथ खींचने और ब्याज दरें बढ़ाने के कारण बड़ी रियल एस्टेट कंपनियां दबाव में आ गई हैं। खरीददारों को आकर्िषत करने के लिए उन्हें कीमतों में 15 से 20 फीसदी की कटौती करनी होगी। उसके बाद भी इस सेक्टर का विकास धीमा ही रहेगा। महंगे कर्ज के चलते बहुत सी नई औद्योगिक परियोजनाएं फिलहाल रुक जाएंगी जिससे औद्योगिक उत्पादन और बिक्री घटेगी। वाहन क्षेत्र में भी महंगे कर्जों का सीधा असर धीमी मांग के रूप में दिखाई देगा। लोग अपने कर्ज चुकाने के लिए ज्यादा ब्याज अदा करेंगे इसलिए बाजार पर भी असर पड़ेगा। और इन सबके नतीजतन रोजगार पर दबाव पड़ेगा। और तो और सकल घरेलू उत्पाद में भी कमी आएगी।

ब्याज दरें एकमात्र विकल्प नहीं

हालांकि वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने संकेत दिया है कि मुद्रास्फीति को काबू करने की प्रक्रिया में अगर आर्थिक विकास में थोड़ी कमी भी आती है तो सरकार उसे सहन करने के लिए तैयार है। पहली प्राथमिकता मुद्रास्फीति और महंगाई को काबू करने की है। जब महत्वपूण्र चुनाव करीब आ रहे हों तो कांग्रेस ही क्या कोई भी राजनैतिक दल यही करेगा क्योंकि आम आदमी जिस चीज से सवरधिक प्रभावित और आक्रोशित होता है, वह है महंगाई।

सवाल उठता है कि क्या मुद्रास्फीति पर काबू करने के लिए एकपक्षीय नीति पयरप्त है? माना कि ब्याज दरें पूरी अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं लेकिन क्या समस्या का यही एकमात्र और अंतिम समाधान है? मुद्रास्फीति की समस्या को सिर्फ रिजर्व बैंक के हवाले कर देने की बजाए अगर उसमें केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों की भी भूमिका हो तो विकल्प और भी कई निकल सकते हैं। आवासीय क्षेत्र में मांग घटानी है तो परियोजनाओं की संख्या सीमित की जा सकती है। दैनिक उपयोगी की चीजों की कीमतें बढ़ने के पीछे काफी हद तक पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ी हुई कीमतें जिम्मेदार हैं। अगर सरकार कुछ और समय तक पेट्रोलियम क्षेत्र में सब्सिडी के संदभ्र में नरमी बरतती रहे तो महंगाई प्रभावित हो सकती है। खाद्य पदार्थों की महंगाई के लिए कुछ हद तक कमोडिटीज के वायदा कारोबार को दोषी माना जाता है।

गेहूं, चावल, दालों आदि के वायदा भावों में तेजी राष्ट्रीय स्तर पर इन पदार्थों के भावों को प्रभावित करने लगी है। सब्जियों, फलों आदि की सप्लाई.चेन व्यवस्था को बेहतर बनाकर उनकी कीमतों पर नियंत्रण किया जा सकता है। जमाखोरी, कालाबाजारी पर नियंत्रण और सावर्जनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाना भी एक असरदार उपाय है। साथ ही साथ ब्याज दरों को थोड़ा ऊंचा रखने का विकल्प भी आजमाया जा सकता है। लेकिन आम आदमी को बारह.तेरह फीसदी ब्याज दरें चुकाने पर मजबूर करके आप उसे मजबूत नहीं बना सकते।

Saturday, July 23, 2011

इनका भ्रष्टाचार बनाम उनका भ्रष्टाचार

बालेन्दु शर्मा दाधीच:

भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को लगातार निशाना बनाती रही है। लेकिन कर्नाटक में जिस तरह से एक के बाद एक भ्रष्टाचार और भाई.भतीजावाद के मामले सामने आ रहे हैं, उन्होंने मुख्य विपक्षी दल को बड़ी अजीब स्थिति में ला दिया है। भ्रष्टाचार भले ही केंद्र का हो या राज्य का, उसमें कोई गुणवत्तात्मक भेद नहीं किया जा सकता। भ्रष्टाचारी नेता भले ही इस पार्टी से संबंध रखता हो या उस पार्टी से, इस गठबंधन से या उस गठबंधन से, इस राज्य से या उस राज्य से, उस पर भ्रष्टाचार संबंधी वही नैतिक वर्जनाएं और कानून लागू होते हैं जो दूसरों पर होते हैं। ऐसे में कर्नाटक के घटनाक्रम पर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा कोई दखल न किया जाना उसके उस नैतिक रुख के अनुकूल नहीं है जो उसने नोट के बदले वोट, 2जी घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले, काले धन के विरुद्ध बाबा रामदेव की मुहिम, अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, दिल्ली सरकार के घोटालों और ऐसी ही दर्जनों दूसरी घटनाओं के संदभ्र में लिया है। किसी दल को यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर आप सिर्फ दूसरों को उपदेश देता है और खुद उन पर अमल करने से बचता है तो वह अपनी राजनैतिक साख को दांव पर लगा रहा है।

केंद्र सरकार ने पिछले कुछ महीनों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुछ अहम कार्रवाइयां की हैं। ये कार्रवाइयां उसने खुद किसी अंत:प्रेरणा से प्रेरित होकर या नैतिकता के तकाजे की बदौलत नहीं की है। भाजपा सहित ज्यादातर विपक्षी दलों के दबाव, सिविल सोसायटी के आंदोलनों, सुप्रीम कोर्ट के सीधे दखल और जनता के बीच पैदा हुई जागरूकता ने उसे विवश किया। अन्यथा जिस ए राजा के विरुद्ध पुख्ता सबूत डेढ़ दो साल से उपलब्ध थे, उसके विरुद्ध कार्रवाई के लिए इतना लंबा इंतजार नहीं किया जाता। लेकिन फिर भी, केंद्र सरकार को यह श्रेय देना पड़ेगा कि उसने कई मामलों में केंद्रीय जांच ब्यूरो को कार्रवाई करने की पूरी छूट दी है। अनेक पूवर् मंत्रियों और सांसदों के जेल पहुंचने के रूप में उसके नतीजे भी दिखाई दे रहे हैं। 'नोट के बदले वोट' जैसे शर्मनाक कांड में भी दिल्ली पुलिस ने समाजवादी पार्टी के पूवर् महासचिव अमर सिंह तक से पूछताछ की है जो भले ही अदालती फटकार के बाद अंजाम दी गई हो, मगर देश की राजनीति में सवर्ोच्च स्तर से हरी झंडी मिले बिना संभव नहीं थी। केंद्र ने लोकपाल बिल भी तैयार कर लिया है जो संसद के मानसून सत्र में पेश हो ही जाएगा। इसके प्रारूप को लेकर भले ही विपक्ष और सिविल सोसायटी के मन में कई तरह की शंकाएं, संदेह और आपित्तयां हों, लेकिन एक दस्तावेज तैयार तो हुआ ही है। बाहरी दबाव में ही सही, इसके प्रावधान पहले के प्रारूपों की तुलना में मजबूत माने जा रहे हैं। लेकिन केंद्र को भ्रष्टाचार विरोधी कार्रवाइयों के लिए उचित रूप से मजबूर करने वाला मुख्य विपक्षी दल अपने नेतृत्व वाली राज्य सरकारों पर लगे लगभग उसी किस्म के आरोपों पर भिन्न रुख कैसे अपना सकता है?

कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के लिए भ्रष्टाचार के आरोप कोई अपरिचित चीज नहीं हैं। वे गाहे.बगाहे इस किस्म के आरोपों के दायरे में आते रहते हैं। अपने छोटे से कायर्काल में वे जितने राजनैतिक संकटों और आरोपों के शिकार हुए हैं, वह अपने आप में एक मिसाल है। कुछ ही दिन पहले येदियुरप्पा द्वारा अपने चहेतों और रिश्तेदारों को औने.पौने दामों पर जमीन आवंटित किए जाने की बात सामने आई थी। अब राज्य के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने हजारों करोड़ रुपए के खनन घोटाले में उनकी भूमिका से पर्दा उठा दिया है। केंद्र में प्रधानमंत्री के पद को लोकपाल के दायरे में लाए जाने की प्रबल मांग करने वाली भारतीय जनता पार्टी राज्य में लोकायुक्त द्वारा किए गए इतने गंभीर आक्षेप को उसी अंदाज में ले रही है जैसे सत्तारूढ़ पार्िटयां लेती आई हैं. उन्हें दूसरों के विरुद्ध लगाए गए आरोप गंभीर और अपने विरुद्ध लगे आरोप हल्के तथा बेबुनियाद दिखाई देते हैं। लोकायुक्त के बयान पर भाजपा ने यह टिप्पणी की है कि संतोष हेगड़े इस तरह बर्ताव कर रहे हैं जैसे वे कोई विपक्षी नेता हों। इस आरोप को अगर आप बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के संदभ्र में किए गए केंद्रीय मंत्रियों और कांग्रेसी नेताओं के बयानों के साथ रखकर देखेंगे तो उनमें कोई खास अंतर नहीं है। हर सत्तारूढ़ दल ऐसी स्थिति में इसी तरह प्रतिक्रिया करता है। चाहे वह अपने को 'दूसरों से अलग' करार देने वाली भारतीय जनता पार्टी ही क्यों न हो।

आरोप, एक के बाद एक

हर संकट के समय मंदिरों में जाकर पूजा.अर्चना करने और हाथियों से आशीवरद लेने के लिए प्रसिद्ध बीएस येदियुरप्पा भले ही अपनी कुर्सी पर जमे रहने के लिए कितने भी अडिग क्यों न हों, उनके पास मौजूद विकल्प घटते जा रहे हैं। लोकायुक्त की लीक हुई रिपोर्ट के अनुसार (जो कुछ ही दिन में सार्वजनिक रूप से सामने आने वाली है), थिम्मप्पनागुड़ी में लौह अयस्क की खदानों से संबंधित सौदों में लाभ पहुंचाए जाने के कारण मुख्यमंत्री के दो बेटों. बीवाई राघवेन्द्र और बीवाई विजयेन्द्र तथा दामाद आरएन सोहन कुमार को परोक्ष रूप से करीब अठारह करोड़ रुपए की रकम दी गई। उनकी तरफ से बेचे गए एक एकड़ के भूखंड को जेएसडब्लू स्टील ने बीस करोड़ रुपए में खरीदा जबकि उनकी बाजार कीमत सिर्फ दो करोड़ रुपए थी। मुख्यमंत्री के परिवार के ट्रस्ट प्रेरणा एजुकेशन सोसायटी को दस करोड़ रुपए का दान भी दिया गया। रिपोर्ट में आरोप है कि खनिज लीज के एवज में आर प्रवीण चंद्र नामक व्यक्ति ने मुख्यमंत्री के परिवार को करीब छह करोड़ रुपए का एडवांस दिया और बाद में इतनी ही राशि मुख्यमंत्री के परिवार से जुड़ी दो फर्मों. भगत होम्स प्राइवेट लिमिटेड और दवलगिरी प्रोपर्टी डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड को भी प्रवीण चंद्र ने दी। आरोप सीधे मुख्यमंत्री के बेटों, दामाद और परिवार पर हैं। ठीक उसी तरह जैसे तमिलनाडु में द्रमुक के प्रथम परिवार के विरुद्ध आते रहे हैं।

दो दिन पहले ही कर्नाटक हाईकोर्ट ने अवैध भूमि सौदों के मामले में पुलिस को मुख्यमंत्री और उनके परिवार के सदस्यों से पूछताछ की इजाजत दी है। खुद मुख्यमंत्री, उनके दो बेटों और दामाद सोहन कुमार के विरुद्ध निचली अदालत में चल रहे पांच मामलों में हाईकोर्ट ने यह इजाजत दी। सोहन कुमार निचली अदालत द्वारा इन मामलों पर सुनवाई शुरू किए जाने के विरोध में हाईकोर्ट पहुंचे थे। जिस भूमि घोटाले के सिलसिले में यह सब हुआ है, वह 190 करोड़ रुपए का है। आरोपों की कोई कमी नहीं है। रैयत संपर्क केंद्रों की स्थापना के घोटाले में 11 करोड़ रुपए का घपला किए जाने का आरोप है जो कभी बनाए ही नहीं गए। शिमोगा में येदियुरप्पा के परिवार द्वारा बनाया गया होटल भी आरोपों के घेरे में है। पहला आरोप, यह कि यह नियमों का उल्लंघन कर बनाया गया और दूसरा इसमें करीब 39 करोड़ रुपए का खर्च आया जबकि सिर्फ 12 करोड़ का खर्च ही दिखाया गया। उन पर आयकर संबंधी गलत बयानी के भी आरोप हैं। श्री येदियुरप्पा ने इन आरोपों में सीबीआई जांच की मांग ठुकरा दी थी। अब राज्य पुलिस और लोकायुक्त पुलिस इनकी जांच में जुटी है।

भाजपा के अभियान की साख दांव पर

येदियुरप्पा के विरुद्ध उठते आरोपों के तूफान की टाइमिंग भाजपा के अनुकूल नहीं है। भ्रष्टाचार के ज्वलंत मुद्दे पर पार्टी के प्रचंड अभियान पर धर्मप्राण मुख्यमंत्री ने ठंडा पानी फेंक दिया है। केंद्र में महीनों से चल रही उसकी प्रभावशाली मुहिम कमजोर पड़ी है। भाजपा अपने एक मुख्यमंत्री को बचाने के लिए अपनी राजनैतिक साख को लंबे समय तक संकट में नहीं डालती रह सकती। आज नहीं तो कल येदियुरप्पा के भाग्य का फैसला होना तय है, ऐसे, नहीं तो वैसे। कारण, राज्यपाल हंसराज भारद्वाज से उनके 'विशेष रिश्ते' हैं जो लोकायुक्त की रपट का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। खुद लोकायुक्त, जो अगस्त में रिटायर हो जाएंगे, सेवानिवृित्त से पहले खनन घोटाले पर अपनी रपट पेश करके जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो राज्य सरकार के साथ.साथ धारा 12(5) के तहत राज्यपाल को भी दी जा सकती है और जिस पर आगे कार्रवाई करने के लिए श्री भारद्वाज अधिकृत हैं। ऐसे में बीएस येदियुरप्पा के लिए पिछले संकटों की तरह इस बार का संकट कहीं ज्यादा गंभीर है। भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भले ही इसे अनदेखा कर दे, हंसराज भारद्वाज से इस किस्म की उदारता की उम्मीद शायद आप सपने में भी नहीं कर सकते।

Saturday, May 21, 2011

मजबूरी का नाम करुणानिधि

बालेन्दु शर्मा दाधीच:


कनीमोझी गिरफ्तार हो गईं मगर भारत के सुदूर दक्षिण से ऐसी कोई खबर नहीं आई जो राष्ट्रीय राजनीति को हिलाने जा रही हो। द्रविड़ मुनेत्र कषगम के पारंपरिक चरित्र और स्वभाव को देखते हुए यह कुछ अस्वाभाविक था। अभी कुछ महीने पहले ही तो सिर्फ तीन विधानसभा क्षेत्रों के सवाल पर द्रमुक ने केंद्र सरकार से हटने की धमकी दी थी और उसके मंत्रियों ने बाकायदा दिल्ली में ऐलान भी कर दिया था कि वे इस्तीफे देने जा रहे हैं। उससे पहले भी न सिर्फ संप्रग सरकार में बल्कि पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के जमाने में भी द्रमुक ने हर उस मौके पर दिल्ली को हिलाने की कोशिश जब उसे लगा कि हालात उसके हिसाब से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। कहा जा रहा है कि कनीमोझी को सीबीआई की प्रत्यक्ष जांच के दायरे में लिए जाने के बाद से ही द्रमुक प्रमुख एम करुणानिधि खासे आक्रोश में हैं। लेकिन बदले हुए हालात में इस रौबीले राजनेता के पास पारंपरिक किस्म की उग्र प्रतिक्रियाएं करने का विकल्प नहीं बचा। कनीमोझी की गिरफ्तारी पर उनकी प्रतिक्रिया भावुक और संयमित रही. 'मुझे वैसा ही महसूस हो रहा है जैसा कि किसी भी पिता को अपनी निर्दोष पुत्री को गिरफ्तार किए जाने पर महसूस होता है।'

कहते हैं, जब बुरा वक्त आता है तो अपना साया भी साथ छोड़ देता है। करुणानिधि और उनकी पार्टी वक्त के उसी बदलाव से गुजर रहे हैं जब कोई भी कदम सही नहीं पड़ता। छह महीने के भीतर करुणानिधि परिवार कहां से कहां आ गया। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सीबीआई को स्वतंत्र जांच की इजाजत दिए जाने और जांच प्रक्रिया की सुप्रीम कोर्ट द्वारा निगरानी शुरू होने के बाद से द्रमुक के लोगों पर कानून का सिकंजा कुछ इस तरह कसता चला गया कि दक्षिण की राजनीति के बूढ़े शेर करुणानिधि के पास 'विवशता' के सिवा कुछ नहीं बचा। पहले ए राजा की गिरफ्तारी, फिर कनीमोझी के विरुद्ध चार्जशीट, फिर कांग्रेस के साथ चुनावी मतभेद, अंत में विधानसभा चुनावों में पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी जयललिता की धुआंधार विजय और अब कनीमोझी की गिरफ्तारी॰॰॰ शायद करुणानिधि को पड़ोसी राज्य कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा से सलाह लेनी चाहिए जो राजनैतिक संकटों से बच निकलने में काफी प्रवीण हो चुके हैं। भले ही आप ज्योतिषियों, पूजा-पाठ, तरह.तरह के धार्मिक टोटकों और एक के बाद दूसरे मंदिर के दर्शन करने के उनके रूटिन को कितना भी असंगत और 'मजेदार' मानें, लेकिन कमाल का संयोग है कि अद्वितीय धार्मिक आस्था रखने वाला यह व्यक्ति हर नए राजनैतिक झंझावात से सही-सलामत बाहर निकल ही आता है!

विवशता और संयम

खैर॰ वह तो विनोद की बात हुई। कनीमोझी की गिरफ्तारी की खबर आते ही दिल्ली में किसी आसन्न राजनैतिक जलजले की चर्चाएं शुरू हो गई थीं। आखिरकार कानून के हाथ खुद करुणानिधि के परिवार तक आ पहुंचे थे, उस परिवार के लिए जिसके राजनैतिक और आर्थिक हितों को बचाने के लिए पहले वे बड़े-बड़े राजनैतिक कदम उठा चुके थे। लग रहा था कि शायद एकाध घंटे में द्रमुक द्वारा केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने की खबर आ जाएगी। चेन्नई में पार्टी की उच्च स्तरीय बैठक भी हुई लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ जिसका कयास जोर.शोर से लगाया जा रहा था। बस इतना कहा गया कि द्रमुक कनीमोझी के मामले में हर जरूरी कानूनी कदम उठाएगी और इस घटना के राजनैतिक परिणामों की विवेचना करेगी। न कांग्रेस नेतृत्व की आलोचना की गई और सीबीआई पर हमला किया गया। पार्टी को हालात की नजाकत का अहसास है।

आज के हालात में द्रमुक के पास 'इंतजार करो और देखो' के सिवा और कौनसे विकल्प बाकी रह गए हैं? केंद्र सरकार को किसी गंभीर राजनैतिक संकट में फंसाने का विकल्प अब उसके पास नहीं रहा क्योंकि सत्तारूढ़ गठबंधन से समर्थन खींचने के बाद भी सरकार गिरने वाली नहीं है। अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता उसकी मदद के लिए आगे आ जाएंगी। अगर किसी को नुकसान होगा तो वह खुद द्रमुक होगी जो केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर दयनीय स्थिति में आ जाएगी। प्रतिशोधपूर्ण राजनीति वाले तमिलनाडु में इस तरह की दयनीय हालत में जाने का जोखिम करुणानिधि नहीं उठाना चाहेंगे। ऊपर से केंद्र सरकार का रहा.सहा संकोच भी खत्म हो जाएगा और भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों की जांच में तेजी आ जाएगी। द्रमुक के पास किसी अन्य राजनैतिक गठबंधन में जाने का भी विकल्प नहीं बचा। भाजपा की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दरवाजे फिलहाल कुछ साल तक उसके लिए बंद हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ डूबे ऐसे दल को अपने साथ लेने का जोखिम राजग भला क्यों उठाएगा जिसे जनता ने अभी.अभी बुरी तरह ठुकराया है और जिसके नेताओं के कारनामों को लेकर राजग के दल संसद के भीतर और बाहर आवाज बुलंद करते रहे हैं। राजनैतिक रूप से अस्पृश्य हो चुकी द्रमुक के लिए यथास्थिति ही एकमात्र विकल्प है क्योंकि केंद्र सरकार में मौजूदगी कुछ हद तक उसे सुरक्षा कवच प्रदान करती है।

पतन का कारण

अगर आज द्रमुक तमिलनाडु में सत्ता में होती तो स्थितियां अलग होतीं। लेकिन जिस भ्रष्टाचार को कभी करुणानिधि ने चुनावी खर्चों के लिहाज से स्वीकायर् माना था, वही उनकी सरकार के पतन का कारण बन गया। 2जी मामले में सीबीआई की जांच में तेजी आने से पहले के हालात को याद कीजिए। द्रमुक के लिए सभी कुछ तो ठीकठाक चल रहा था। अन्नाद्रमुक लगभग निष्क्रिय और निस्तेज स्थिति में थी और राजनैतिक गलियारों से लेकर मीडिया तक में यही धारणा थी कि द्रमुक सत्ता में लौट आएगी। पिछले चुनावों में मतदाताओं को मुफ्त टेलीविजन बांटने जैसा मास्टर स्ट्रोक खेलने वाले करुणानिधि के राजनैतिक चातुयर् पर संदेह का कोई कारण नहीं था। लेकिन जांच का दायरा जब द्रमुक के अपने लोगों तक फैला तो हालात बदलने शुरू हुए। भ्रष्टाचार आम लोगों के बीच मुद्दा बना और निस्तेज पड़ी अन्नाद्रमुक ने उभरते सत्ता विरोधी माहौल का राजनैतिक लाभ उठाने में देर नहीं लगाई। तमिलनाडु में अगर द्रमुक के नेतृत्व वाले गठबंधन की हार हुई तो इसका बहुत बड़ा श्रेय सीबीआई द्वारा की गई कार्रवाइयों को जाता है। हालांकि कांग्रेस चाहती तो दूसरे बहुत से मामलों की तरह 'जांच को धीमा' करवा सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, या ऐसा नहीं कर पाई। कारण? एक तो इस मामले की निगरानी खुद सुप्रीम कोर्ट कर रहा था और दूसरे आरोपों की आंच खुद कांग्रेस के शीर्ष नेताओं तक पहुंचने लगी थी।

वैसे मौजूदा हालात कांग्रेस के लिए उतने प्रतिकूल नहीं हैं जितने कि द्रमुक के लिए हैं। द्रमुक द्वारा समर्थन वापस ले लिए जाने की चिंता से अब वह लगभग मुक्त हो सकती है। राजनैतिक रूप से कमजोर और विकल्पहीन द्रमुक अब संप्रग नेतृत्व के लिए परेशानियां खड़ी करने की स्थिति में नहीं है। आने वाले दिनों में द्रमुक की समस्याएं और बढ़ सकती हैं। कुछ महीनों में सीबीआई जांच का दायरा करुणानिधि की पत्नी दयालु अम्माल तक आ पहुंचे तो कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी। आखिरकार केंद्र के सामने भी खुद को पाक.साफ साबित करने की मजबूरी है। कौन जाने तब शायद करुणानिधि कोई बड़ा राजनैतिक तूफान खड़ा कर दें। यह दूसरी बात है कि 'अम्मा' को ऐसे ही मौके का इंतजार है।

Saturday, May 14, 2011

...और अंत में मतदाता का इंसाफ

बालेन्दु शर्मा दाधीच:

पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजों ने द्रमुक नेता एम करुणानिधि को छोड़कर शायद ही किसी को चौंकाया हो। वे चुनावी हार झेलने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं दिखते थे। भ्रष्टाचार और भाई.भतीजावाद के आरोपों से घिरे इस वयोवृद्ध नेता को चुनावी जीत की सबसे ज्यादा जरूरत थी तो शायद आज जब कानून का शिकंजा उनके परिवार तक आ पहुंचा है। मतदाताओं को लुभाने के लिए हर किस्म के वायदे करने और चुनाव प्रचार में अपनी सारी ताकत झोंकने के बावजूद द्रमुक न सिर्फ पराजित हो गई बल्कि अपनी पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी अन्नाद्रमुक की तुलना में एक चौथाई से भी कम सीटों पर आ गिरी। देश के सर्वाधिक अनुभवी और जनाधार वाले नेताओं में से एक करुणानिधि के सक्रिय राजनैतिक जीवन का संभवत: यह अंतिम विधानसभा चुनाव था, जिसने उन्हें एक कटु कालखंड की दिशा में धकेल दिया है।

पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के चुनाव नतीजों ने दो महिलाओं के नेतृत्व में दो बड़ी राजनैतिक क्रांतियों को अंजाम दिया है। दो ऐसे दिग्गजों को हाशिये से परे धकेल दिया गया, जिन्हें चुनौती देना कल तक असंभव सा था।


पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों का लगभग वही हश्र हुआ जैसा तमिलनाडु में द्रमुक का। अपने कैडर के दम पर लगभग तीन दशकों से राज्य की सत्ता में वाम मोर्चे को हरा पाना ममता बनर्जी जैसी जीवट की नेता के ही बस का था, जिन्होंने माकपा को उसी की भाषा में जवाब देने की हिम्मत दिखाई और इतने लंबे अरसे तक अपने संघर्ष को जिंदा रखने में कामयाब रहीं। अपनी समृद्ध प्राकृतिक और खनिज संपदा के बावजूद पश्चिम बंगाल की गिनती पिछड़े राज्यों में होती रही है। व्यापक गरीबी और माकपा कैडर के आतंक के बावजूद हर चुनाव में वाम मोर्चा जीत कर आता रहा तो दो कारणों से। पहला, मतदाता के सामने ऐसा कोई दमदार विकल्प मौजूद नहीं था जो राज्य के सर्वशक्तिमान वाम मोर्चे के लिए मजबूत चुनौती खड़ी कर सके। दूसरा, दौरान माकपा कैडर के हिंसक तौरतरीकों ने नियमित रूप से मतदान प्रक्रिया और चुनाव परिणामों को प्रभावित किया। इस बार स्थितियां अलग थीं और ममता बनर्जी का परिवर्तन का नारा जन.आकांक्षाओं से मेल खाता था। सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं के बाद तृणमूल कांग्रेस ने सिद्ध किया कि वह एक मजबूत ताकत है जो राजनीति और स्थानीय स्तर पर वाम कैडर को उसी के अंदाज में जवाब देने में सक्षम है। इस प्रक्रिया में उन्होंने माओवादियों को साथ लेने जैसा अलोकप्रिय कदम भी उठाया लेकिन पिछले चार.पांच साल में ममता बनर्जी की लगभग हर रणनीति अनुकूल सिद्ध हुई। स्थानीय निकायों के चुनावों से ही पश्चिम बंगाल की राजनीति में आसन्न बदलाव का संकेत मिल गया था। यह ममता की बड़ी कामयाबी है कि केंद्र में रेल मंत्री का पद संभालने के बावजूद वे पश्चिम बंगाल में ही टिकी रहीं और राज्य सरकार के प्रति उपजे असंतोष को ठंडा नहीं पड़ने दिया। रही सही कसर चुनाव आयोग ने पूरी कर दी जिसने शांतिपूण्र और अनुशासित मतदान सुनिश्चित कर चुनावी हिंसा और धांधली की गुंजाइश खत्म कर दी। इस बार राज्य में रिकॉर्ड मतदान हुआ, जिसका तृणमूल.कांग्रेस गठजोड़ को स्पष्ट लाभ पहुंचा।

असम में कांग्रेस का लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटना बड़ी घटना है। छोटे राज्यों का मतदाता आम तौर पर हर चुनाव में सरकार बदल देता है। लेकिन धीरे.धीरे हमारी राजनीति में यह ट्रेंड बदल रहा है जो कई भाजपा शासित राज्य और कुछ कांग्रेस शासित राज्य पहले भी सिद्ध कर चुके हैं। लोग विकास और ज्वलंत मुद्दों पर ठंडे दिमाग से सोचकर फैसले करने लगे हैं। राज्य में विपक्ष की स्थिति बहुत कमजोर है। भारतीय जनता पार्टी का आधार सीमित है और असम गण परिषद अपने राजनैतिक अंतरविरोधों से बाहर निकलने और अपना पुराना आधार फिर से अर्जित करने में नाकाम रही है। असम की जनता के लिए मौजूदा हालात में अलगाववाद का मुद्दा भाजपा के बांग्लादेशी नागरिकों के मुद्दे से ज्यादा महत्वपूण्र है। उल्फा, बोडो और दूसरे उग्रवादियों के हाथों हजारों निर्दोष नागरिकों को खोने वाले असम को अब हिंसा और अस्थिरता से मुक्ति चाहिए। कई साल की नाकामियों के बाद तरुण गोगोई सरकार उग्रवादी गतिविधियों को नियंत्रित करने में सफल हुई है। उल्फा के साथ सुलह के संदभ्र में हाल के महीनों में कुछ बड़ी कामयाबियां हासिल हुई हैं जिन्होंने इस समस्या के स्थायी समाधान की उम्मीद जगाई है। वहां बिखरे हुए विपक्ष और उग्रवाद विरोधी कामयाबियों ने मतदाता के फैसले को प्रभावित किया है।

कांग्रेस के लिए मिश्रित नतीजे

पांडिचेरी आम तौर पर तमिलनाडु के चुनावी ट्रेंड्स के अनुकूल प्रदर्शन करता है। वहां इस बार भी कमोबेश वही सूरत दिखाई दे रही है। और हर चुनाव में पत्ते बदलने वाला केरल भी अपनी परंपरा पर कायम रहा। हालांकि वहां कांग्रेस की जीत का अंतर बहुत कम रहा। एमएस अच्युतानंदन की निजी छवि ने नतीजों को प्रभावित किया। कांग्रेस को अपने महासचिव राहुल गांधी की सक्रियता से लाभ मिला अन्यथा वहां हालात कुछ और भी हो सकते थे। बहरहाल, अपने प्रभाव वाले तीन में से दो राज्यों की सत्ता गंवा देना माकपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिए शुभ संकेत लेकर नहीं आया है। प्रकाश करात के महासचिव बनने के बाद पार्टी के लिए शुरू हुआ गिरावट का सिलसिला अपनी परिणति पर पहुंच गया है। लोकसभा में पहले ही रसातल पर जा पहुंची यह पार्टी सिर्फ त्रिपुरा में सत्ता में रह गई है। पश्चिम बंगाल में सत्ता से बेदखल होना उसके भविष्य के लिए अशुभ संकेत देता है क्योंकि पार्टी को उसकी राजनैतिक, आर्िथक और वैचारिक शक्ति वहीं से मिलती है। वहां जनाधार खोने के बाद वह राष्ट्रीय स्तर पर अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ रही है। आने वाले दिनों में यह पार्टी के आंतरिक संगठन को भी प्रभावित करेगा।

कांग्रेस के लिए चुनाव नतीजे मिश्रित उपलब्धियों वाले रहे। पार्टी को उम्मीद थी कि पांचों राज्यों में चुनाव नतीजे उसके अनुकूल रहेंगे। लेकिन अंतत: संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को तीन राज्यों की जनता से ही मंजूरी मिली। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को पछतावा हो रहा होगा कि उसने न सिर्फ कुछ महीने पहले तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के साथ गठजोड़ का मौका खो दिया बल्कि पार्टी के शीर्ष नेताओं ने द्रमुक के साथ चुनाव सभाओं में हिस्सा लेकर निकट भविष्य में भी अन्नाद्रमुक को साथ लेने की संभावना खत्म कर दी। द्रमुक की गिरती छवि, पार्टी के आंतरिक संघर्ष और बढ़ती अलोकिप्रयता के बावजूद सोनिया गांधी और डॉ॰ मनमोहन सिंह ने तमिलनाडु में चुनाव प्रचार किया और द्रमुक नेताओं के साथ मंच साझा किया। वह न सिर्फ मतदाता का मानस पढ़ने में नाकामयाब रहा बल्कि उसने इस तथ्य को भी नजरंदाज कर दिया कि पिछली बार को छोड़कर तमिलनाडु में प्राय: हर चुनाव में सत्ताधारी बदल जाते हैं। जिस तरह 2जी स्पेक्ट्रम में कानून के हाथ स्वयं करुणानिधि के परिवार तक जा पहुंचे हैं और पूवर् केंद्रीय मंत्री ए राजा जेल की सलाखों के पीछे हैं, उस स्थिति में मतदाता से समर्थन की उम्मीद लगाना अव्यावहारिक होता।

आने वाले दिनों के संकेत



देश के मुख्य विपक्षी दल भाजपा के लिए इन चुनावों में कुछ विशेष नहीं था फिर भी नतीजों ने उसे निराश ही किया होगा। पार्टी असम के चुनाव प्रचार में जमकर ऊर्जा झोंकी थी और वहां मुख्य विपक्षी दल बनने को लेकर आश्वस्त थी। लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि राज्य विधानसभा में उसकी सीटें पिछली बार की तुलना में आधी से भी कम हो गई हैं। पश्चिम बंगाल में जरूर वह अपना खाता खोलने में सफल रही लेकिन वोटों के प्रतिशत में गिरावट के साथ। पिछले कुछ वषर्ों से पार्टी केरल पर भी काफी उत्साह के साथ फोकस कर रही है लेकिन फिलहाल वहां का मतदाता पड़ोसी कर्नाटक की तरह भाजपा के प्रति सहज नहीं हो सका है। तमिलनाडु और पांडिचेरी में भी पार्टी की कोई भूमिका नहीं है। इन चुनावों ने यह प्रश्न एक बार फिर खड़ा कर दिया कि क्या मौजूदा हालात में पार्टी अगले लोकसभा चुनावों में सत्ता में लौटने की उम्मीद रख सकती है? केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग गठबंधन की लोकिप्रयता का क्षरण जरूर हो रहा है, भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे ने आम जनमानस को भी झकझोरा है लेकिन क्या भाजपा इस माहौल का राजनैतिक लाभ उठाने की स्थिति में है? पांच राज्यों के चुनावों में उसका नामो.निशान तक न होना स्पष्ट करता है कि वह देश के बड़े भूभाग में उसकी राजनैतिक भूमिका बहुत सीमित है। अन्नाद्रमुक अब उसके साथ नहीं है और चंद्रबाबू नायडू भी दूरी बना चुके हैं। उत्तर प्रदेश में पार्टी के लिए स्थितियां बहुत विकट हैं। और तो और पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश सहित विधानसभा चुनावों के अगले दौर में भी उसे नुकसान हो सकता है। इन हालात में 2014 के चुनावों से पहले राष्ट्रीय राजनीति में बनने वाला माहौल भाजपा के पक्ष में बड़े राष्ट्रीय परिवर्तन के अनुकूल होगा या नहीं, कहना मुश्किल है।

एक बार फिर पश्चिम बंगाल की की चर्चा, जहां की राजनैतिक सूरत बदलने जा रही है। वहां ममता बनर्जी का सत्ता में आना जमीनी स्तर पर क्या बदलाव लाएगा, इस बारे में सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं। एक संघर्षवान राजनेता के रूप में ममता बनर्जी की क्षमता अद्वितीय रही है। आम लोगों के साथ जुड़ाव और जनसमस्याओं के प्रति उनकी समझ को लेकर भी कोई संदेह नहीं है। लेकिन एक मंत्री और प्रशासक के रूप में उनकी भूमिका कई सवाल खड़े करती है। हजारों करोड़ रुपए के कर्ज में दबे पश्चिम बंगाल की जनता को उनसे इतनी उम्मीद तो जरूर है कि वे राज्य में विकास की नई प्रक्रिया शुरू करेंगी और उसे हिंसा तथा अराजकता से मुक्त कराएंगी। सवाल यहीं खड़े होते हैं। सिंगुर में टाटा नैनो का कारखाना बंद करवाकर और भारतीय रेलवे को ढीले.ढाले ढंग से चलाकर उन्होंने बहुत अनुकूल संकेत नहीं दिए हैं। आज जबकि वे मुख्यमंत्री के रूप में पश्चिम बंगाल की कमान संभालने जा रही हैं, नई सरकार को लेकर कई ज्वलंत सवाल उपज रहे हैं। विकास के लिए ममता बनर्जी का मॉडल क्या होगा? क्या वे किसानों और उद्योगपतियों के हितों के बीच सामंजस्य पैदा कर पाएंगी? क्या उनके लोकलुभावन रेल बजटों की तरह राज्य में उनकी नीतियां और कायर्क्रम भी लोक.लुभावन ही होंगे या वे किसी विकास की किसी ठोस योजना पर आधारित होंगे? केंद्र सरकार के साथ उनके रिश्ते कैसे रहेंगे? राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन, दोनों के साथ गठबंधन के दिनों में वे अपनी मांगों पर कोई नरमी नहीं दिखाने वाली नेता के रूप में ही दिखी हैं। तृणमूल कांग्रेस के आंतरिक मामलों में भी वे कठोर नेता के रूप में पेश आई हैं जिन्होंने दूसरी कतार के नेतृत्व को प्रोत्साहित नहीं किया है। नई मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें न सिर्फ इन सवालों के जवाब देने हैं, बल्कि पश्चिम बंगाल को पड़ोसी बिहार की तरह विकास की पटरी पर लाने के लिए दूरगामी विज़न, राजनैतिक लचीलापन और प्रशासनिक क्षमता भी दिखानी है।

ध्वस्त होना आतंकवाद के प्रतीक का

बालेन्दु शर्मा दाधीचःग्यारह सितंबर 2001 को अलकायदा आतंकवादियों ने वर्ल्ड ट्रेड टावर्स को ध्वस्त करके दुनिया के सबसे ताकतवर देश के विरुद्ध आतंकवाद का मोर्चा खोलने का जनसंहारक ऐलान किया था। दो मई 2011 को अमेरिका ने अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतारकर आतंकवाद और शांति के बीच जारी जंग का एक अहम अध्याय लिख दिया है। पाकिस्तान के ऐबटाबाद में अलकायदा सरगना की मौत इस शताब्दी की सबसे बड़ी घटनाओं में गिनी जाएगी जिसने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि आतंकवादी और विध्वंसक ताकतें भले ही अपने छोटे.छोटे मंसूबों में कामयाब हो जाएं लेकिन उनका अंत इसी तरह होता है। ऐसा अंत, जिस पर दुनिया जश्न मना रही होती है।

ओसामा बिन लादेन ने एक कारोबारी से आतंकवादी बनकर पिछले दो.ढाई दशक के अपने विक्षिप्त अभियान के दौरान कुल जमा क्या अर्जित किया? लाखों युवाओं को गुमराह कर जेहाद के रास्ते पर लाने, करोड़ों लोगों का जीवन असुरक्षित बनाने और लाखों बेकसूर लोगों की मौतों की पटकथा लिखने के बाद भी आखिर उसने क्या पाया? आज तुच्छ ढंग से मारे जाने के बाद वह उन लोगों को पहले से कहीं ज्यादा असुरक्षित और अलग.थलग करके गया है जिनके साथ वैश्विक स्तर पर हो रहे तथाकथित पक्षपात और नाइंसाफी की घुट्टी वह अपने अनुयािययों को पिलाया करता था।

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की घटना के बाद अमेरिका ने दूसरी लोकतांत्रिक ताकतों के साथ मिलकर आतंकवाद के विरुद्ध जंग की जो प्रक्रिया शुरू की थी, वह ओसामा की मौत से खत्म होने वाली नहीं है। इस घटना के बाद आतंकवाद खत्म हो जाएगा, ऐसी खुशफहमी पालने का भी कोई कारण नहीं है। लेकिन लोकतांत्रिक ताकतों की यह प्रचंड विजय आतंकवादी शक्तियों की अब तक की सबसे बड़ी पराजय जरूर है। लगभग उतनी ही बड़ी, जितनी अफगानिस्तान से कट्टरपंथी तालिबान की हुकूमत की विदायी थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संचालित होने वाले आतंकवादी संगठन के नाते अलकायदा में नेतृत्व के कई स्तर मौजूद हैं। अयमान अल जवाहिरी और मुल्ला उमर जैसे अनेक लोग ओसामा की जगह लेने के लिए तैयार होंगे।

लेकिन ओसामा के रूप में आतंकवादी दुनिया का सबसे बड़ा 'आइकन' मारा गया है। इसका बहुत बड़ा प्रतीकात्मक महत्व है। न सिर्फ आप.हम जैसे सामान्य लोगों के लिए, न सिर्फ आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में जुटे लोगों के लिए बल्कि खुद जेहादियों और दूसरी आतंकवादी ताकतों के लिए भी। यह एक ऐसा झटका है, जिससे उबरना आतंकवादियों के लिए आसान नहीं होगा। ओसामा की मौत के बाद दुनिया भर में जिस अंदाज में खुशी मनाई गई, वह उस बेताबी की ओर संकेत करती है जिसके साथ लोग इस खबर का इंतजार कर रहे थे। इस घटना ने दुनिया के शांतिप्रिय लोगों के मन में आतंकवाद से मुक्ति की उम्मीद जगा दी है।

एहतियात की जरूरत

हालांकि इस मामले में बहुत एहतियात बरते जाने की जरूरत है। खासकर अमेरिका, भारत, इजराइल और यूरोपीय देशों को। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के जनक की मौत की खबर इस तरह सन्नाटे में गुजर जाए, यह ओसामा के जेहादियों को शायद मंजूर नहीं होगा। अपनी हताशा, कुंठा और खीझ में वे कहीं भी, किसी भी तरह की जवाबी कार्रवाई कर सकते हैं। सबको सतर्कता बरतने की जरूरत है। आतंकवादी ताकतें और उनसे सहानुभूति रखने वाले तत्व माहौल बिगाड़ने के लिए आतंकवादी हिंसा के साथ.साथ सांप्रदायिक हिंसा, अफवाहों, अपहरणों आदि का रास्ता अख्तियार कर सकते हैं। ओसामा की मौत की खुशी और जोश में बहते हुए ऐसे तत्वों को किसी तरह का मौका नहीं देना चाहिए। आतंकवाद के विरुद्ध जंग के दिशानिर्देशक के रूप में अमेरिका की जिम्मेदारी सबसे बड़ी है। अलकायदा ने हाल ही में धमकी दी थी कि ओसामा के मारे जाने पर वह चुप नहीं बैठेगा और अपने पास मौजूद परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा, जो तथाकथित रूप से यूरोप में कहीं रखे गए हैं। वास्तविकता जो भी हो, दुनिया की लोकतांत्रिक शक्तियों को पहले से अधिक सतर्क होने की जरूरत है।

'ओसामा की मौत' की खबरें अतीत में पहले भी आती रही हैं. कभी किसी हमले में तो कभी बीमारी की वजह से। लेकिन इस बार यह खबर सच है। ओसामा का शव पाकिस्तान में हमलावर कार्रवाई करने वाले अमेरिकी सैनिकों के कब्जे में है। अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई के दिनों से ही सीआईए और अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां ओसामा, जवाहिरी और मुल्ला उमर जैसे शीर्ष आतंकवादियों पर नजर रखने में लगी हैं। कई साल पहले वह अफगानिस्तान की तोरा-बोरा पहाङ़ियों में भी सीआईए का शिकार होते.होते बचा था। उसके बाद वह निरंतर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच अपने ठिकाने बदलता रहा और अपने वीडियो तथा ऑडियो संदेशों के जरिए जेहादियों का हौसला बढ़ाता रहा। भले ही ओसामा की शख्सियत एक खतरनाक आतंकवादी की शख्सियत थी लेकिन कुछ मायनों में आपको उसका लोहा मानना पड़ेगा। पहला, उसने अलकायदा को दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों के प्रतिरोध के बावजूद पूरी दुनिया में फैला कर अपनी नेतृत्व क्षमता दिखाई। दूसरे, वह बड़ी संख्या में एक संप्रदाय के लोगों के बीच सहानुभूति अर्जित करने में सफल रहा। बड़े से बड़े जन.संपर्क अधिकारी इस मामले में उससे दो-चार सबक सीख सकते हैं। तीसरे, अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की समन्वित अभियानों के बावजूद वह पाकिस्तान और अफगानिस्तान के दुष्कर इलाकों में इतने साल तक अपने आपको छिपाए रखने में कामयाब रहा। ओसामा ने अपनी तिकड़मों से आम लोगों के बीच यह भावना पैदा कर दी थी कि उसे शायद ही कभी पकड़ा या मारा जा सके।

इंसाफ का लंबा इंतजार

लेकिन अंतत: लादेन का हश्र उसी तरह का हुआ जैसा ऐसे तत्वों का होता है और होना चाहिए। पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर नजर डालें तो लगता है कि सीआईए कुछ महीनों से लादेन के काफी करीब पहुंच चुका था। हाल ही में उसने बड़ी प्रामाणिकता के साथ लादेन के पाकिस्तान में मौजूद होने की बात कही थी। जवाब में अल कायदा ने भी जिस तरह उसकी आसन्न मौत पर बदला लेने की धमकी दी उसने यह संकेत दिया कि दोनों ही पक्षों को आने वाले दिनों में होने वाली किसी 'बड़ी घटना' का अहसास था। ऐसा लगता है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में दस साल से सक्रिय होने के कारण सीआईए ने अब अफगान.पाकिस्तान सीमा क्षेत्र के बारे में पयरप्त जानकारी जुटा ली है और अब यह दुष्कर इलाका उसके लिए उतना रहस्यमय नहीं रहा। उसने पिछले कुछ वर्षों में ड्रोन (मानव रहित यान) हमलों के जरिए कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं, जिनमें पाकिस्तान में अलकायदा के प्रमुख बैतुल्ला महसूद और उसके बाद हकीमुल्ला महसूद की मौत प्रमुख है। अमेरिकी वायुसैनिक हमले में इराक में अलकायदा प्रमुख अबू मुसाब अल जरकावी भी मारा गया था। बड़े आतंकवादियों के विरुद्ध असरदार ड्रोन हमलों ने एक युद्धक-मशीन के रूप में भी सीआईए की साख और विश्वसनीयता को बढ़ाया है।

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के हमलों में मारे गए लोगों के परिवार वालों, अनाथों और विधवाओं को आखिरकार इंसाफ मिला। इस हमले का साजिशकर्ता अमेरिकी सैनिकों के हाथों बेमौत मारा गया। अमेरिका ने इस धारणा को सही सिद्ध कर दिया कि भले ही प्रक्रिया कितनी भी लंबी और समय साध्य हो, लेकिन अंत में इंसाफ होता है। इससे दुनिया भर में लोकतांत्रिक शक्तियों का आत्मविश्वास बढ़ा है और उनके बीच एकजुटता की भावना मजबूत होगी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल अभी बरकरार है। ओसामा बिन लादेन, उसके सहयोगियों और जेहादियों को जिन प्रभावशाली लोगों, संस्थानों, फौजों और सरकारों का समर्थन हासिल है, और जो ओसामा जैसे लोगों को पनाह देते आए हैं, वे न तो खत्म हुए हैं और न ही रातोंरात उनकी विचारधारा में बदलाव आने वाला है। ओसामा को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस, पाकिस्तानी फौज और अनेक कट्टरपंथी नेताओं के साथ-साथ अफगानिस्तान और पाकिस्तान के तालिबान का भी समर्थन हासिल रहा है। विडंबना है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में पाकिस्तान अमेरिका का तथाकथित पार्टनर है, जबकि खुद पाक फौज में मौजूद लोग अफगानिस्तान में आतंकवादी हरकतों को निर्देशित करते रहे हैं। मुंबई हमलों में उनकी भूमिका का तो पर्दाफाश हो ही चुका है। अमेरिका को आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई के इस सबसे अहम पहलू से भी निपटने की जरूरत है। खासकर तब, जब वह खुद पाकिस्तान को 'आतंकवादियों का प्रजनन क्षेत्र' मानता रहा है।

(प्रभासाक्षी, आज समाज और कुछ अन्य प्रकाशनों में प्रकाशित)
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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