Saturday, August 6, 2011

सबको चाहिए अपनी-अपनी सुविधा का लोकपाल

प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाए जाने के मुद्दे पर विभिन्न राजनैतिक दल अपनी-अपनी सुविधा के लिहाज से नीतियां तय कर रहे हैं। इस मामले में हठधर्मिता नहीं बल्कि दूरदर्शिता से काम लेने की जरूरत है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने या न लाने के बारे में फटाफट किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है। एक, विश्व में कहीं भी किसी कायर्कारी प्रमुख को ऐसी संस्था के दायरे में नहीं लाया गया है। दो, ऐसा करने की पुरजोर मांग करने वाली भारतीय जनता पार्टी के अपने मुख्यमंत्रियों ने या तो लोकायुक्तों की स्थापना ही नहीं की है या फिर उनके पद लोकायुक्त के दायरे से बाहर हैं। तीन, प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार निरोधक कानून के दायरे में आते हैं इसलिए वे आज भी कानूनी कार्यवाही से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। चार, लोकपाल संबंधी सरकारी विधेयक का मसौदा सिर्फ मौजूदा प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच के दायरे में लाने से रोकता है, पूवर् प्रधानमंत्रियों को नहीं। सत्ता छोड़ते ही हर प्रधानमंत्री खुद ब खुद इसके दायरे में आ जाएगा।

सरकार की तरफ से संसद में पेश किए गए लोकपाल विधेयक पर भारतीय जनता पार्टी को कुछ गंभीर आपत्तियां हैं। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में न लाए जाने पर वह सर्वाधिक आक्रोश में है। विधेयक के कुछ प्रावधान यकीनन आपित्तजनक हैं लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा विधेयक पहले बनाए गए किसी भी मसौदे से ज्यादा व्यापक तथा शक्तिशाली है। स्थायी समिति में होने वाली चर्चाओं के दौरान जरूरी संशोधन करके तथा नए प्रावधानों को जोड़कर इसे और मजबूती दी जा सकती है। जहां तक प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाए जाने का प्रश्न है, विभिन्न राजनैतिक दल अपनी-अपनी सुविधा के लिहाज से नीतियां तय कर रहे हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के शासनकाल के दौरान सन 2002 में बनाए गए लोकपाल बिल के मसौदे में प्रधानमंत्री को शामिल किया गया था। लेकिन गठबंधन ने प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वाली स्थायी समिति द्वारा मसौदे को हरी झंडी दे दिए जाने के बाद भी दो साल तक इसे संसद में पारित नहीं करवाया। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस मुद्दे पर पार्टी का वास्तविक रुख क्या था।

इस मुद्दे पर विभिन्न गठबंधनों के बीच विरोधाभास हैं। भाजपा और जनता दल (यू) के रुख के विपरीत अकाली दल प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के विरुद्ध है। उधर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के शेष दलों के विपरीत द्रमुक उन्हें इसमें शामिल करवाना चाहती है। संप्रग के भीतर बदलते समीकरणों और रिश्तों के बीच द्रमुक के रुख को समझना असंभव नहीं है तो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी बादल सरकार के नजरिए को भी। चुनावों की ओर बढ़ रहे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती प्रधानमंत्री को इसके दायरे में लाना चाहती हैं तो बिहार की राजनीति में हाशिए पर चले गए लालू प्रसाद इसके सख्त खिलाफ हैं। केंद्र में सत्ता का ढांचा अगर अलग होता तो संभवत: इन सभी दलों के नजरिए कुछ और ही होते। लोकपाल पर नजरिया राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि राजनैतिक नफा-नुकसान के आधार पर तय हो रहा है। भ्रष्टाचार विरोधी महायुद्ध में लोकपाल की संस्था से जितनी प्रचंड उम्मीदें हैं, उन्हें देखते हुए यह सुविधाजनक, राजनैतिक समीकरण आधारित और हल्का-फुल्का रवैया कुछ नाइंसाफी जैसा लगता है।

आपित्तयां और दलीलें

भाजपा की इस दलील में दम है कि मंत्रियों को सरकारी खर्चे पर कानूनी सहायता देने और शिकायत गलत निकलने पर शिकायतकर्ता को सजा देने जैसे प्रावधान लोकपाल विधेयक की भावना को ही नष्ट कर रहे हैं। पार्टी को स्थायी समिति की बैठकों में ऐसे सभी मुद्दों पर पुरजोर आवाज उठाकर जरूरी संशोधनों के लिए विवश करना चाहिए। लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी पार्टी की जायज आपित्तयां हैं। लेकिन ये ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिनका समाधान आपसी विचार-विमर्श से न हो सके। सबसे ज्यादा विवादित और प्रचारित मुद्दा प्रधानमंत्री का ही है जिसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने की बजाए व्यावहारिक ढंग से सुलझाए जाने की जरूरत है।

इस मुद्दे पर मौजूदा केंद्र सरकार का रुख स्पष्ट है। मुझे नहीं लगता कि पार्टी मनमोहन सिंह को इसलिए इससे दूर रखना चाहती होगी कि वे 'भ्रष्ट' हैं। प्रधानमंत्री के धुर राजनैतिक विरोधी भी उन पर यह आरोप नहीं लगाते। रिमोट-संचालित, भ्रष्ट तत्वों से घिरे हुए, कमजोर, राजनैतिक जनाधार से विहीन आदि-आदि तमाम आरोप उन पर लगाए जाते रहे हैं लेकिन मनमोहन सिंह स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त हों, ऐसा कोई नहीं कहता। खुद अन्ना हजारे और उनके साथी भी। जाहिर है, मुद्दा श्री सिंह को किसी 'आसन्न खतरे' से बचाने का नहीं है। फिर भी सरकार और सत्तारूढ़ गठबंधन अगर उन्हें लोकपाल के दायरे में न लाने पर अडिग हैं तो उसके रुख को समझने का प्रयास तो होना ही चाहिए। अगर प्रधानमंत्री के विरुद्ध शिकायतों का सिलसिला शुरू हो जाता है तो वह देश के कार्यकारी प्रमुख के रूप में उनकी स्थिति को कमजोर करेगा। भारत में जिस तरह बात-बात पर जनहित याचिकाएं दायर होती हैं, उसे देखते हुए यह आशंका निर्मूल नहीं है। उन्हें ऐसे मामलों से निपटने, विवादों को शांत करने, सफाई देने, सुनवाइयों में मौजूद होने आदि को समय और वरीयता देनी होगी।

बचाव की रणनीतियों में उलझाने की बजाए कम से कम एक व्यक्ति को तो चैन से काम करने ही दिया जाना चाहिए, खासकर तब जबकि सत्ता से हटते ही उन्हें जांच के दायरे में लाने की व्यवस्था मौजूद हो। परोक्ष रूप से इस मार्ग का इस्तेमाल राष्ट्र विरोधी तत्व, बड़े कारपोरेट घराने, शत्रु राष्ट्र आदि भी कर सकते हैं। हर छोटा-बड़ा निर्णय लेने से पहले उन्हें यह सोचना होगा कि इस पर लोकपाल का रुख क्या होगा। क्या सिर पर तलवार रखकर किसी से अच्छा काम करने की उम्मीद की जा सकती है? जो व्यक्ति चुनावी प्रक्रिया से गुजरकर आया है, उसे निर्बाध रूप से अपना काम करने का हक क्यों नहीं मिलना चाहिए? अगर कोई सरकार राष्ट्र विरोधी फैसले करती है या भ्रष्टाचार में लिप्त है तो हमारे लोकतंत्र में संसद के जरिए उसके विरुद्ध अविश्वास मत के जरिए कार्रवाई करने की व्यवस्था है। फिर कुछ समय बाद ही सही, लोकपाल का विकल्प तो मौजूद है ही। यहां यह तथ्य भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि जो संस्था किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है (संसद, न्यायपालिका और जनता के प्रति भी नहीं), वह लोकतांत्रिक पद्धति से पूरे देश द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री के हर फैसले को निष्प्रभावी करने की शक्ति रखेगी। किसी भी संस्था को इस तरह की असीमित शक्तियां देना दूरदर्िशता नहीं कही जाएगी।

हठधर्मिता किसलिए

यह बात समझ से परे है कि अन्ना हजारे और सिविल सोसायटी के अन्य लोग यह कैसे मानकर चल रहे हैं कि उन्होंने विधेयक का जो मसौदा बनाया है, उसका दर्जा किसी 'ईश्वरीय दस्तावेज' जैसा है? उसके बारे में कोई भी आपित्त, कोई भी बहस उन्हें स्वीकार नहीं है। उसका हर प्रावधान जैसे कुंदन की तरह आग में तपाकर निकाला गया है जो किसी भी विवाद या आपित्त से परे है! बताया जाता है कि सरकारी मसौदे में सिविल सोसायटी के तीन चौथाई प्रावधान समाहित कर लिए गए हैं। लेकिन वे सौ फीसदी से कम पर तैयार नहीं हैं। सरकार ने उन्हें समिति में लेकर अपना मसौदा पेश करने का मौका दिया। वैसा ही जैसा किसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में होता है। लेकिन उस मसौदे का हर प्रावधान स्वीकार करने के लिए वह बाध्य नहीं है। उसे उनकी स्वतंत्र समीक्षा करने और उचित.अनुचित प्रावधानों को स्वीकार तथा रद्द करने का पूरा हक है। वैसे ही, जैसे सिविल सोसायटी ने सरकारी मसौदे के बहुत से प्रावधानों की निंदा की है और विधेयक की प्रतियां जलाकर अपना रुख जाहिर किया है।

यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें कुछ लोग खुद को हर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ऊपर मानते हैं? ऐसे लोग किसी संस्था के प्रमुख बनते हैं, वह भी ऐसी संस्था जो किसी के भी प्रति किसी भी प्रकार की जवाबदेही से पूरी तरह मुक्त है, तो वे किस अंदाज में आगे बढ़ेंगे इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। वे कपिल सिब्बल को मंत्रिमंडल में रहने के लायक नहीं मानते, वे कहते हैं कि अगर वे तीन दिन और अनशन करते तो सरकार गिर जाती। वे खुद को कायर्पालिका, न्यायपालिका और संसद, सभी से ऊपर मानते हैं, वे सीबीआई जैसी संस्थाओं को अपने अधीन लाना चाहते हैं। देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति पानी है लेकिन अपने लोकतंत्रिक ढांचे को नुकसान पहुंचाए बिना। फर्ज कीजिए कि सिविल सोसायटी की सभी शतेर्ं मान ली जाएं और इस तरह बनने वाला सवर्शक्तिमान लोकपाल बाद में निरंकुश तथा पथभ्रष्ट हो जाए तो इसके क्या परिणाम होंगे? वह स्वयं भ्रष्ट हो गया तो? खासकर तब, जब वह प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा करने का अधिकार रखता हो! उस समय विपक्ष और मीडिया का क्या रुख होगा, इसे समझना मुश्किल नहीं है। क्या यह सरकार की स्थिरता और उसके नतीजतन देश की स्थिरता को प्रभावित नहीं करेगा? इतनी महत्वपूर्ण संस्था की स्थापना से पहले सकारात्मक और नकारात्मक सभी पहलुओं पर गौर करना जरूरी है। सिविल सोसायटी, विपक्ष और सरकार तीनों को सुविधाजनक दृष्टिकोण अपनाने या हठधर्मिता छोड़कर स्वस्थ विचार-विमर्श का रास्ता अपनाना चाहिए। अराजकता से मुक्ति का उपकरण खुद अराजकता का जनक बन जाए तो वह राष्ट्रीय दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।

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इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com