रिजर्व बैंक ने वही किया जो मुद्रास्फीति को काबू करने की लंबी लड़ाई में वह सवा साल से करता आ रहा है। ब्याज दरें बढ़ गईं। लेकिन क्या इस समस्या से निजात पाने का यही एकमात्र विकल्प था?
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
इतने बड़े झटके की उम्मीद नहीं थी। भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी ताजा नीतिगत समीक्षा के दौरान नीतिगत दरों में 50 बेसिस अंकों की बढ़ोत्तरी करके दहशत सी मचा दी है। इससे पिछली दस समीक्षाओं के दौरान भी वह नियम से रेपो और रिवर्स रेपो दरें बढ़ाती आई है। मार्च 2010 से अब तक ग्यारह बार। कुल मिलाकर करीब सवा तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी। आवासीय और वाहन ऋणों की ब्याज दरें आसमान छूने लगी हैं। और यह सिलसिला यहीं खत्म हो जाए, जरूरी नहीं। रिजर्व बैंक के मुताबिक यह वृद्धि अंतिम नहीं है और अगर मुद्रास्फीति काबू में नहीं आती है तो वह अगली बार फिर कदम उठाएगी। मुद्रास्फीति पर काबू करने का यह पारंपरिक तरीका है। लेकिन भारत में यह हथियार भी कारगर होता नहीं दीख रहा। सवा साल से अपनाई जा रही कड़ी नीति के बावजूद रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति के आगे बेबस दिखाई दे रहा है। नौ फीसदी से ज्यादा की मुद्रास्फीति देश के साथ.साथ आम आदमी की आर्थिक सेहत के लिए भी ठीक नहीं है। वह आर्थिक सुधारों को भी संकट में डाल रही है। माना कि बीमारी गंभीर है लेकिन इलाज काम कहां कर रहा है?
पहले ही मंदी के घातक दौर का सामना कर चुकी विश्व अर्थव्यवस्था के लिए अमेरिका के ऋण संकट और यूरोप की आर्थिक मंदी ने नई आशंकाएं पैदा कर दी हैं। भारत और चीन अपनी आंतरिक आर्थिक मजबूती के बल पर इन दबावों से कुछ हद तक सुरक्षित हैं लेकिन हाल के महीनों में मिल रहे संकेत बहुत शुभ नहीं हैं। चीन के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर अनुमान से कम रहने जा रही है। भारत में भी वित्त वर्ष 2010 की अंतिम तिमाही (8॰4 प्रतिशत) की तुलना में 2011 की पहली तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर (7॰8 प्रतिशत) में कमी आई है। औद्योगिक उत्पादन धीमा पड़ने, महंगाई बढ़ने और मुद्रास्फीति के बेकाबू बने रहने जैसी चिंताएं बरकरार हैं। ऊपर से रिजर्व बैंक के ताजा फैसले से कारोबारियों और उपभोक्ताओं दोनों के बीच आशंकाओं और चिंताओं का माहौल है जो उत्पादकता पर असर डालेगा।
ब्याज दरों में इतनी बड़ी तेजी करके संभवत: रिजर्व बैंक इसी तरह की धारणा पैदा भी करना चाहता था। नए कर्जों पर अंकुश लगे और बाजार में मुद्रा का प्रसार कुछ कम हो। असुरक्षा बोध लोगों को कम खर्च करने के लिए प्रेरित करेगा। कुछ विशेषज्ञों को यह भी लगता है कि आगे भी दरें बढ़ाने की संभावना संबंधी घोषणा के बावजूद असलियत में रिजर्व बैंक इस मामले में एक ठहराव बिंदु के करीब पहुंच रहा है। इस बार का बड़ा झटका संभवत: आखिरी हो क्योंकि अगली बार दरें बढ़ीं तो वह अर्थव्यवस्था में धीमापन ला सकती है। हालांकि मुद्रास्फीति को लेकर सरकार जिस तरह भयभीत दिखाई दे रही है, उतने बड़े भय की बात शायद नहीं है क्योंकि कहते हैं कि मुद्रास्फीति हर बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था का एक आवश्यक प्रतिफलन है। फिर नरेगा जैसी योजनाओं के जरिए जितना धन निम्नतम स्तर तक पहुंच रहा है, वह भी तो अपना असर दिखाएगा ही।
सभी होते हैं प्रभावित
ब्याज दरों की यह वृद्धि अंतिम है या नहीं, इस बारे में स्थिति अगले महीने तक साफ होगी लेकिन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ.साथ आम आदमी के लिए भी मुद्रास्फीति का नीचे आना जरूरी है। इसे यूं देखिए। मुद्रास्फीति के घटे बिना ब्याज दरें नीचे नहीं आने वाली। नतीजे में आवासीय, वाहन, निजी और दूसरे कर्ज महंगे होते रहेंगे। यदि आपने कोई कर्ज लिया हुआ है तो उसे चुकाने की अवधि या फिर मासिक किश्त की राशि बढ़ती जा रही है। दूसरी तरफ आय में इस किस्म की मासिक वृद्धि नहीं हो रही। आपके घरेलू बजट पर दबाव बढ़ता रहेगा और जिससे आपकी क्रय शक्ति व बचत शक्ति निरंतर कम होती रहेगी। अगर आप बैंक में सावधि जमा पर सात फीसदी की ब्याज दर मिलने से प्रसन्न हो रहे हों तो आपको बता दें कि असल में आप ऋणात्मक ब्याज पा रहे हैं। सौ रुपए की रकम एक साल में 107 रुपए हो जाएगी लेकिन मुद्रास्फीति (जून में 9॰44 फीसदी) के कारण उन 107 रुपयों की कीमत 98 रुपए के आसपास ही बैठेगी। इस लिहाज से समझें तो बैंक आपको सात फीसदी ब्याज देकर भी असल में आपसे आपकी ही रकम पर दो फीसदी ब्याज वसूल रहा है।
इसे एक उदाहरण से समझते हैं। गेहूं की दर आज 12 रुपए प्रति किलो है। यानी 12000 रुपए में आप दस क्विंटल गेहूं खरीद सकते हैं। मान लीजिए कि आपने यही रकम बैंक में जमा कराई और साल भर बाद सात फीसदी ब्याज समेत 12840 रुपए प्राप्त किए। इस बीच मुद्रास्फीति के कारण गेहूं की दर बढ़कर 13 रुपए प्रति किलो हो गई। अब 12840 रुपए में नौ क्विंटल 87 किलो गेहूं ही आया। यानी अपना पैसा साल भर बैंक में रखने से आपको लाभ नहीं, नुकसान हुआ। यही मुद्रास्फीति का प्रभाव है।
मुद्रास्फीति का कम होना सबके हित में है। लेकिन ब्याज दरें बढ़ाए जाने के कई नकारात्मक प्रभाव भी होते हैं। जैसे आवासीय क्षेत्र में एकदम से गिरावट आ जाना। बैंकों द्वारा आवासीय कर्ज देने से हाथ खींचने और ब्याज दरें बढ़ाने के कारण बड़ी रियल एस्टेट कंपनियां दबाव में आ गई हैं। खरीददारों को आकर्िषत करने के लिए उन्हें कीमतों में 15 से 20 फीसदी की कटौती करनी होगी। उसके बाद भी इस सेक्टर का विकास धीमा ही रहेगा। महंगे कर्ज के चलते बहुत सी नई औद्योगिक परियोजनाएं फिलहाल रुक जाएंगी जिससे औद्योगिक उत्पादन और बिक्री घटेगी। वाहन क्षेत्र में भी महंगे कर्जों का सीधा असर धीमी मांग के रूप में दिखाई देगा। लोग अपने कर्ज चुकाने के लिए ज्यादा ब्याज अदा करेंगे इसलिए बाजार पर भी असर पड़ेगा। और इन सबके नतीजतन रोजगार पर दबाव पड़ेगा। और तो और सकल घरेलू उत्पाद में भी कमी आएगी।
ब्याज दरें एकमात्र विकल्प नहीं
हालांकि वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने संकेत दिया है कि मुद्रास्फीति को काबू करने की प्रक्रिया में अगर आर्थिक विकास में थोड़ी कमी भी आती है तो सरकार उसे सहन करने के लिए तैयार है। पहली प्राथमिकता मुद्रास्फीति और महंगाई को काबू करने की है। जब महत्वपूण्र चुनाव करीब आ रहे हों तो कांग्रेस ही क्या कोई भी राजनैतिक दल यही करेगा क्योंकि आम आदमी जिस चीज से सवरधिक प्रभावित और आक्रोशित होता है, वह है महंगाई।
सवाल उठता है कि क्या मुद्रास्फीति पर काबू करने के लिए एकपक्षीय नीति पयरप्त है? माना कि ब्याज दरें पूरी अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं लेकिन क्या समस्या का यही एकमात्र और अंतिम समाधान है? मुद्रास्फीति की समस्या को सिर्फ रिजर्व बैंक के हवाले कर देने की बजाए अगर उसमें केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों की भी भूमिका हो तो विकल्प और भी कई निकल सकते हैं। आवासीय क्षेत्र में मांग घटानी है तो परियोजनाओं की संख्या सीमित की जा सकती है। दैनिक उपयोगी की चीजों की कीमतें बढ़ने के पीछे काफी हद तक पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ी हुई कीमतें जिम्मेदार हैं। अगर सरकार कुछ और समय तक पेट्रोलियम क्षेत्र में सब्सिडी के संदभ्र में नरमी बरतती रहे तो महंगाई प्रभावित हो सकती है। खाद्य पदार्थों की महंगाई के लिए कुछ हद तक कमोडिटीज के वायदा कारोबार को दोषी माना जाता है।
गेहूं, चावल, दालों आदि के वायदा भावों में तेजी राष्ट्रीय स्तर पर इन पदार्थों के भावों को प्रभावित करने लगी है। सब्जियों, फलों आदि की सप्लाई.चेन व्यवस्था को बेहतर बनाकर उनकी कीमतों पर नियंत्रण किया जा सकता है। जमाखोरी, कालाबाजारी पर नियंत्रण और सावर्जनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाना भी एक असरदार उपाय है। साथ ही साथ ब्याज दरों को थोड़ा ऊंचा रखने का विकल्प भी आजमाया जा सकता है। लेकिन आम आदमी को बारह.तेरह फीसदी ब्याज दरें चुकाने पर मजबूर करके आप उसे मजबूत नहीं बना सकते।
Saturday, July 30, 2011
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