Monday, May 21, 2012

शाहरूख पर पाबंदी में इंसाफ जीता या अहँ

बेहतर होता कि वानखेड़े स्टेडियम का विवाद शाहरूख खान, एमसीए अधिकारियों और बीसीसीआई के स्तर पर ही सुलझ जाता। शाहरूख ने अच्छा नहीं किया, लेकिन निजी अहं के इस झगड़े में समस्या की तह तक जाए बिना फैसला करने और दूसरे पक्ष को अपनी बात कहने का मौका न देकर एमसीए ने भी कोई अच्छी मिसाल कायम नहीं की है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

अगर कोई आपके बच्चों के साथ बदतमीजी, छेड़छाड़ या हमला करे तो आप क्या करेंगे? क्या आप कोई भी प्रतिक्रिया किए बिना उनके विरुद्ध शिकायत करने की औपचारिकता पूरी करेंगे या फिर पहले मौके पर अपने विरोध का इजहार करेंगे? मुझे लगता है कि भले ही आप कितने भी शालीन और गरिमापूर्ण क्यों न हों, अगर बात आपके बच्चों की सुरक्षा या उनकी गरिमा की रक्षा से जुड़ी होगी तो आपका पहला कदम उन्हें बचाने और हमलावरों से निपटने का ही होगा। शिकायत बाद में आती है। शाहरूख खान, जिन पर नशे की हालत में मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम के स्टाफ और मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन के पदाधिकारियों से उलझने का आरोप है, को निशाना बनाने के लिए यही दलील दी जा रही है कि उन्होंने मौके पर मौजूद लोगों से बदसलूकी करने की बजाए शिकायत क्यों नहीं दर्ज की। केंद्रीय मंत्री तथा मुंबई क्रिकेट एशोसिएशन के प्रमुख विलास राव देशमुख तथा शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के विचार शायद ही किसी और मुद्दे पर इतने मिलते हों। लेकिन दोनों से यह प्रश्न पूछने को जरूर मन करता है कि ईश्वर न करे उनके साथ कोई शख्स हमलावर बर्ताव करता है तो क्या वे मौके पर प्रतिक्रिया करने की बजाए औपचारिक शिकायत तक का इंतजार करेंगे। शिवसेना प्रमुख के अनुयायी तो 'मौके पर इंसाफ' करने के लिए विख्यात हैं।

सोलह मई की रात को कोलकाता नाइटराइडर्स और मुंबई इंडियन्स के बीच मैच के बाद शाहरूख अपने बच्चों को स्टेडियम से घर लाने गए थे। उसी मौके पर पहले वानखेड़े स्टेडियम के सुरक्षा गार्डों से और फिर एमसीए अधिकारियों के साथ उनकी झड़प हुई। इस दौरान शाहरूख ने जैसा बर्ताव किया, उसे मीडिया में जमकर नकारात्मक पब्लिसिटी मिली है। जिन्होंने सिर्फ शाहरूख की प्रतिक्रिया देखी उनके मन में यह भावना आना स्वाभाविक है कि ये बॉलीवुड के अभिनेता अपने आपको समझते क्या हैं? क्या उन्हें आम नागरिकों के साथ बदसलूकी करने और अपना रुआब दिखाने का लाइसेंस हासिल है? शाहरूख का बर्ताव सचमुच ही अच्छा नहीं था। वे बहुत आक्रामक थे लेकिन यह आक्रामकता बेवजह तो नहीं हो सकती? जब तक दूसरे लोगों को इस आक्रामकता के पीछे की घटना का पता न हो तब तक उनके द्वारा निकाला गया कोई भी निष्कर्ष न्यायोचित नहीं हो सकता। यह ऐसा ही है जैसे कोई व्यक्ति मुझे गाली दे लेकिन कैमरों पर सिर्फ वही दृश्य रिकॉर्ड हो जब मैं उसका जवाब दे रहा होऊँ। शाहरूख के मामले में वही हुआ है जो फिल्मी सेलिब्रिटीज से जुड़े मामलों में हमेशा होता आया है। उन्हें अपनी बात कहने का मौका दिए बिना कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। अधूरी तसवीर के आधार पर फैसले सुनाए जा रहे हैं। माना कि सेलिब्रिटीज आम आदमी से ऊपर नहीं हैं, लेकिन वे आम आदमी से कम भी तो नहीं हैं। उन्हें अपने स्वाभाविक अधिकार से वंचित करना और महज आक्रामक भावनात्मकता के आधार पर दोषी ठहराना इस न्यायसंगत समाज की भावना के अनुरूप नहीं है।

ममता बनर्जी ने ठीक कहा है कि यह उतना बड़ा मामला नहीं है जितनी बड़ी सजा शाहरूख को दी जा रही है। क्या अपने बच्चों की हिफाजत करते हुए माता-पिता के साथ ऐसे झगड़े होना आम बात नहीं है? शाहरूख खान ने अगर अपने बच्चों के साथ बदसलूकी का विरोध किया होगा तो इस मुद्दे पर उनके झगड़े की शुरूआत एक या दो सुरक्षा गार्डों के साथ हुई होगी। बात आगे बढ़ी तो केकेआर के कुछ खिलाड़ी शाहरूख के साथ आए और कई सुरक्षा गार्ड, स्टे़डियम के कर्मचारी और एमसीए अधिकारी दूसरी तरफ जुट गए। अगर आप दोनों पक्षों के बीच हुए गाली-गलौज और बहस का ब्यौरा देखें तो इसमें शाहरूख अकेले दोषी दिखाई नहीं देते। हर झगड़े के दौरान ऐसा ही होता है। इस घटना में किसी शख्स को चोट नहीं आई, स्टेडियम की संपत्ति का नुकसान नहीं हुआ और दंगे जैसी घटना नहीं हुई। यह एक झगड़ा था और अंत में दोनों पक्षों के बीच सुलह भी हो गई थी, जैसा कि एमसीए के एक अधिकारी और शाहरूख खान के एक-दूसरे को गले लगाने की फोटो से जाहिर है। शाहरूख ने अगर पुलिस में या एमसीए से शिकायत नहीं की तो यह उनको दोषी सिद्ध नहीं करता। ज्यादातर लोग आपसी झगड़ों की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को पुलिस तक नहीं ले जाना चाहते, क्योंकि वे बात और आगे नहीं बढ़ाना चाहते। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे दोषी हैं।

'अपराध' कितना गंभीर?

मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन ने इस मामले को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। उसने इसे शाहरूख की तुलना में ज्यादा गंभीरता से लिया और उनके विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। वहाँ तक बात ठीक थी लेकिन उसने एकतरफा कार्रवाई कर बॉलीवुड अभिनेता तथा आईपीएल फ्रेंचाइजी के मालिक के पाँच साल तक वानखेड़े स्टेडियम में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाकर अति कर दी है। जिस तरह से यह प्रक्रिया पूरी की गई, उस पर कई सवाल खड़े होते हैं। पहली बात, दो पक्षों के बीच हुआ झगड़ा उनका व्यक्तिगत झगड़ा था, इसे संस्थागत रूप क्यों दिया गया। गार्डों और शाहरूख खान के झगड़े को एमसीए और शाहरूख खान का झगड़ा कैसे बना दिया गया? शाहरूख के विरुद्ध फैसला करते समय एमसीए ने अपने संस्थागत अधिकारों का इस्तेमाल किया है, जबकि मामला कुछ व्यक्तियों (इन्डीविजुअल्स) के बीच का था। उसे उन्हीं के स्तर पर सुलझाया जाना चाहिए था या फिर अधिक से अधिक पुलिस या अदालत के स्तर पर। यह फैसला भी एकतरफा ढंग से किया गया। विलासराव देशमुख का कहना है कि वे स्टेडियम के कर्मचारियों और गार्डों के बयानों पर विश्वास करते हैं। इंसाफ इस तरह नहीं होता। श्री देशमुख को उन पर कितना विश्वास है, वह उनका निजी मामला है। न्याय किसी के निजी विश्वास पर आधारित नहीं होता। वह समानता के सिद्धांत पर चलता है। शाहरूख खान का पक्ष सुने बिना उन पर प्रतिबंध लगाना एकतरफा, अनैतिक और मनमाना ही कहा जाएगा।

यह फैसला उसी तरह का बेतुका फैसला है जैसे शाहरूख खान कोलकाता नाइट राइडर्स की तरफ से एकतरफा फैसला करते हुए एमसीए के अधिकारियों को अपनी टीम के मैच देखने से प्रतिबंधित कर दें। शाहरूख एक बॉलीवुड सेलिब्रिटी ही नहीं बल्कि आईपीएल के फ्रेंचाइजी के मालिक भी हैं। जब उनके जैसे व्यक्ति तक का पक्ष नहीं सुना गया तो ऐसी संस्थाएँ आम लोगों के साथ क्या करेंगी। एमसीए ने अपना फैसला करते समय बहुत सी बातों को नजरंदाज किया है। एक फ्रेंचाइजी मालिक होने के नाते शाहरूख को किसी भी स्टेडियम में होने वाले अपनी टीम के मैच को देखने, उसकी निगरानी तथा समीक्षा करने का हक है। कई बार उसे मौके पर जरूरी फैसला करने या रणनीति तैयार करने की जरूरत पड़ सकती है। आईपीएल के दौरान एक आईपीएल फ्रेंचाइजी को अपनी टीम का मैच देखने से कैसे रोका जा सकता है, सिर्फ इसलिए कि कुछ दिन पहले उसका वहाँ के सुरक्षा गार्डों के साथ झगड़ा हुआ था। एमसीए अधिकारियों ने कहा है कि शाहरूख स्टेडियम में प्रवेश के लिए अधिमान्यता प्राप्त नहीं हैं। शाहरूख कोई सामान्य दर्शक नहीं हैं, वे आईपीएल फ्रेंचाइजी के मालिक हैं और आधिकारिक रूप से बीसीसीआई से जुड़े हुए हैं। बीसीसीआई को साफ करना चाहिए कि क्या उन्हें अपनी टीम के मैच के दौरान स्टेडियम में जाने के लिए किसी और अधिमान्यता की जरूरत है?

दायरे से बाहर जाने की कोशिश

शाहरूख ने यकीनन बहुत आक्रामक ढंग से प्रतिक्रिया की लेकिन इस तथ्य को भी नजरंदाज नहीं करना चाहिए कि उनके खिलाफ एमसीए के गार्डों, कर्मचारियों और अधिकारियों का भारी झुंड था। खुद विलासराव देशमुख ने माना है कि घटना के वक्त एमसीए के 50 फीसदी पदाधिकारी मौजूद थे। झगड़े के समय की बातचीत का ब्यौरा बताता है कि अगर यह अभिनेता अपशब्दों का इस्तेमाल कर रहा था तो दूसरी तरफ से बहुत सारे लोग उनके खिलाफ तरह-तरह की बातें कह रहे थे। दस-बीस लोगों के साथ किसी अकेले इंसान का वाक् युद्ध चल रहा हो तो उसकी प्रतिक्रिया का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। वाक् युद्ध के ब्यौरे में एक जगह पर शाहरूख कह रहे हैं कि "प्लीज सर.. दीज आर चिल्ड्रेन.. " यह स्पष्ट करता है कि वे अपने बच्चों को किसी की प्रतिक्रिया से सुरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक जगह वे यह भी कह रहे हैं कि "आई एम एन इंडियन एंड आई कैन गो टू एनी स्टेडियम।" उन्हें यह बात क्यों देनी पड़ी होगी, आप खुद ही सोचिए। कहा जाता है कि किसी ने उनकी भारतीयता पर सवाल उठाया था। कौन होगा जो ऐसा सुनकर आक्रामक प्रतिक्रिया नहीं करेगा? लेकिन यह समझ में नहीं आता कि वह अकेला व्यक्ति इतने सारे लोगों को प्रताड़ित करने का दोषी कैसे माना जा सकता है! ज्यादा से ज्यादा आप उस पर बदतमीजी का आरोप लगा सकते हैं। इस बात को भी काफी तूल दिया जा रहा है कि शाहरूख शराब पिए हुए थे। अगर ऐसा है तो नशे की हालत में होने वाले झगड़े को लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जाए? शायद इसलिए क्योंकि शाहरूख एक अभिनेता और आईपीएल फ्रेंचाइजी के मालिक हैं, जिनकी हर छोटी-बड़ी हरकत एक मसालेदार खबर बनने की गुंजाइश रखती है। लेकिन क्या वह किसी को पाँच साल के लिए प्रतिबंधित करने का आधार बन सकता है?

शाहरूख को सबक सिखाते समय मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन को शायद इस बात का भी ख्याल नहीं रहा कि वह अपने दायरे से भी बाहर जा रहा है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने उसके फैसले की पुष्टि नहीं की है। उसका कहना है कि एमसीए अपने स्तर पर ऐसा फैसला नहीं कर सकता, ज्यादा से ज्यादा वह इसकी सिफारिश कर सकता है। कारण? वानखेड़े स्टेडियम एमसीए की नहीं बल्कि बीसीसीआई संपत्ति है। स्टेडियम पर चल रहे आईपीएल के मैचों का आयोजक भी बीसीसीआई ही है। एमसीए सिर्फ स्टेडियम का प्रशासक है और किसी दूसरे की संपत्ति पर किसी को प्रतिबंधित करने का हक उसे नहीं है। बेहतर होता कि यह विवाद शाहरूख, एमसीए अधिकारियों और बीसीसीआई के स्तर पर ही सुलझ जाता। शाहरूख ने अच्छा नहीं किया, लेकिन निजी अहं के इस झगड़े में समस्या की तह तक जाए बिना फैसला करने और दूसरे पक्ष को अपनी बात कहने का मौका न देकर एमसीए ने भी कोई अच्छी मिसाल कायम नहीं की है।

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com