Tuesday, January 31, 2012

सुप्रीम कोर्ट में सेनाध्यक्ष

भले ही आप जनरल वीके सिंह के नजरिए से सहमत हों या नहीं, भारत के थलसेनाध्यक्ष होने के साथ.साथ वे एक सामान्य नागरिक भी हैं, जिसे अदालत की शरण में जाने का पूरा अधिकार प्राप्त है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

अपनी आयु के विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट की शरण में जाने के जनरल वीके सिंह के 'अप्रत्याशित' कदम ने सेना और सरकार दोनों को झकझोर दिया है। देश के शीर्ष जनरल होने के नाते जनरल सिंह इस बात से बेखबर नहीं होंगे कि उनके जैसे दजेर् के व्यक्ति द्वारा केंद्र सरकार को अदालत में खींचने के नतीजे दूरगामी होंगे. न सिर्फ सेना तथा सरकार के संबंधों के संदर्भ में, बल्कि उनके निजी कैरियर के लिहाज से भी। सुप्रीम कोर्ट में मामला सुनवाई के लिए आए इससे पहले जनरल सिंह को मीडिया तथा आम लोगों की स्क्रूटिनी का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें प्रतिष्ठान विरोधी दुस्साहस, सेना की गौरवशाली परंपरा को तोड़ने और निजी नैतिकता से विचलित होने का दोषी ठहराया जा रहा है। उन्हें इन कसौटियों पर कसते समय भी किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के थलसेनाध्यक्ष होने के साथ.साथ वे एक सामान्य नागरिक भी हैं, जिसे अदालत की शरण में जाने का पूरा अधिकार प्राप्त है। कुछ कनिष्ठ अधिकारी तो पहले भी अदालत जाते रहे हैं। अपने हक़ का इस्तेमाल करने के लिए उनकी सिर्फ इस आधार पर निंदा नहीं की जानी चाहिए कि पहले किसी जनरल ने ऐसा नहीं किया। परंपराएं आसमान से नहीं टपकतीं, बनाई जाती हैं।

जनरल सिंह का दावा है कि वे सेनाध्यक्ष के रूप में अपना कायर्काल एक और साल बढ़वाने के लिए यह सब नहीं कर रहे हैं। आयु का विवाद उनके लिए व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का सवाल है जिसे सही अंजाम तक पहुंचाना वे जरूरी समझते हैं। हाल तक ज्यादातर लोगों के बीच यही धारणा थी कि सेना में सर्वोच्च पद पर पहुंचने के बाद उनके मन में कोई और महत्वाकांक्षा बाकी नहीं रह जानी चाहिए तथा जो व्यक्ति शीर्ष पद तक पहुंच गया हो वह अपने साथ नाइंसाफी की शिकायत भला कैसे कर सकता है। जनरल सिंह के कैरियर ग्राफ को देखते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि उन्हें केंद्र सरकार या रक्षा मंत्रालय के स्तर पर कोई पक्षपात झेलना पड़ा होगा। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सारे मामले में रक्षा मंत्री एके एंटनी का आचरण भी बहुत शालीन तथा गरिमापूर्ण रहा है। वे जनरल के विरुद्ध या इस विवाद पर सावर्जनिक रूप से ऐसी कोई भी टिप्पणी करने से बचे हैं, जो सेना या उसके प्रमुख की गरिमा को किसी तरह की ठेस पहुंचाती हो। किंतु यदि जनरल सिंह आयु संबंधी विवाद का समाधान पाने के लिए सर्वोच्च अदालत तक पहुंचे हैं तो इस 'छोटे से मुद्दे' पर उनकी गंभीरता तथा उनके दावे की मजबूती पर संदेह नहीं रह जाना चाहिए।

हालांकि सरकार, मीडिया या किसी और हल्के में जनरल सिंह की सत्यनिष्ठा पर उंगली नहीं उठाई गई है, लेकिन इस मुद्दे पर आम लोगों के बीच जानकारी का अभाव है। बहुत से लोग यह धारणा बनाकर चल रहे हैं कि शायद यह (जनरल सिंह द्वारा) दस्तावेजों में जन्म तिथि बदल दिए जाने संबंधी विवाद है। वास्तव में ऐसा नहीं है। जन्मतिथि में बदलाव जनरल सिंह के स्तर पर नहीं किया गया बल्कि वह प्रशासनिक स्तर पर हुई तकनीकी चूक का परिणाम है जिसका नतीजा उन्हें भोगना पड़ रहा है। आम तौर पर सेना सरकारी तंत्र के साथ होने वाले ऐसे किसी भी विवाद को सावर्जनिक रूप से उठाने से बचती आई है क्योंकि सरकार और ब्यूरोक्रेसी की बुनियादी रुचि यथास्थिति को बनाए रखने में ज्यादा होती है। जनरल सिंह से भी इसी परिपाटी को आगे बढ़ाने की उम्मीद लगाई जा रही थी लेकिन शायद अपनी छवि को अप्रभावित रखने, अपनी सत्यनिष्ठा सिद्ध करने या फिर किसी और वजह से उन्होंने सरकार के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट की शरण लेने का फैसला किया जो अपने आप में एक नई नजीर कायम करेगा। जनरल सिंह ने अनेक बार कहा है कि उनके इस कदम को इस रूप में न देखा जाए कि वे सेनाध्यक्ष पद पर एक और साल बने रहने के लिए बेताब हैं। वैसे भी सरकार के साथ अविश्वास के संबंध पैदा होने के बाद वे देश के सेनाध्यक्ष के रूप में शायद ज्यादा लंबे समय तक न चल पाएं, भले ही आयु संबंधी विवाद पर अदालती फैसला उनके पक्ष में ही क्यों नहीं आता।

नैतिकता और बुनियादी मुद्दा

यदि जनरल सिंह खुद को 'प्रताङ़ित' महसूस कर रहे हैं तो सरकार भी उनके ताजा फैसले से कम आहत नहीं है। शायद इसीलिए उसने इस मामले में अपना पक्ष मजबूती के साथ रखने का फैसला किया और जनरल सिंह के साथ किसी किस्म की सुलह.सफाई में दिलचस्पी नहीं दिखाई। अच्छा होता कि हालात इस हद तक पहुंचते ही नहीं और सेना तथा अफसरशाही के स्तर पर ही इसका समाधान खोज लिया जाता। लेकिन अब बात सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है तो इस पर दोनों तरफ से दलीलें और प्रति-दलीलें दी जानी तय हैं। सरकारी पक्ष जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दे रहा है वह यह है कि जनरल सिंह ने पिछले तीन.चार साल के भीतर तीन बार लिखित रूप में इस बात का भरोसा दिलाया है कि वे 10 मई 1950 को ही अपनी जन्मतिथि के रूप में स्वीकार करने को तैयार हैं, जैसा कि सेना के दस्तावेजों में दर्ज है। उन्होंने अपनी पदोन्नतियों के समय ये लिखित वायदे किए थे, जिनमें सन 2008 में सैन्य कमांडर और 2010 में थलसेनाध्यक्ष के रूप में उनकी पदोन्नति का मौका शामिल है। सरकारी रुख नैतिकता पर आधारित है और यह उम्मीद करता है कि जनरल सिंह अपने वायदे पर कायम रहेंगे, और सेना के सर्वोच्च अधिकारी से इस किस्म की आशा लगाना अनुचित भी नहीं है। लेकिन दूसरी ओर, नैतिकता एक व्यक्ति.सापेक्ष अवधारणा है। वह किसी पर थोपी नहीं जा सकती।

ंसरकार का रुख भले ही नैतिकता की दृष्टि से कितना भी उचित हो, सुप्रीम कोर्ट में शायद ही टिक पाए क्योंकि अदालत को जनरल सिंह के वायदे पर फैसला नहीं देना बल्कि मामले के गुण-दोष पर टिप्पणी करनी है। उसे बस इस तथ्य का फैसला करना है कि उनकी जन्मतिथि है क्या। वह प्रशासनिक मामलों में दखल शायद ही करना चाहे। जनरल सिंह के पास अपनी जन्मतिथि को कानूनी रूप से 10 मई 1951 सिद्ध करने के लिए पयरप्त शैक्षणिक तथा अन्य दस्तावेज मौजूद हैं। सरकार की दूसरी दलील यह है कि उसने इस मामले पर एटार्नी जनरल से राय ली थी जो जनरल सिंह के पक्ष में नहीं थी। बकौल सरकार, वह इस राय को मानने के लिए बाध्य है। हालांकि इस बीच सुप्रीम कोर्ट के चार पूवर् मुख्य न्यायाधीशों ने कहा है कि सरकार के सामने ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ऐसी किसी राय से प्रभावित होने वाला नहीं है लेकिन इससे जनरल सिंह का पक्ष मजबूत तो हुआ ही है। इन न्यायाधीशों ने एटार्नी जनरल द्वारा दिए गए मशविरे की मेरिट (गुण-दोष) पर भी सवाल उठाया है।

प्रशासनिक जटिलताएं

कुछ खबरों में इस मसले के इस तरह उठ खड़े होने को सेना की आंतरिक राजनीति का नतीजा भी बताया गया है। इशारा स्वाभाविक रूप से इस ओर है कि शायद सैन्य नेतृत्व का एक वर्ग जनरल सिंह के रिटायर होने पर कुछ खास अधिकारियों के शीर्ष स्थिति में आने की संभावना को लेकर सहज महसूस नहीं कर रहा है। दूसरी ओर रक्षा मंत्रालय पर उन जनरलों द्वारा दबाव पड़ रहा है, जिनकी पदोन्नति की संभावना जनरल सिंह के इस पद पर बने रहने से प्रभावित होने वाली है। अगर जनरल वीके सिंह की जन्मतिथि का वर्ष 1951 माना जाता है तो वे इस साल 31 मई के स्थान पर अगले साल 13 मार्च को रिटायर होंगे। इस बीच पूर्वी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह, जिन्हें जनरल सिंह का स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जा रहा है, रिटायर हो जाएंगे। एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी जीवन भर जिस उपलब्धि का इंतजार करता है, उससे किसी तकनीकी कारण से वंचित हो जाए, यह कोई आदर्श स्थिति नहीं होगी। कई अन्य सेनाधिकारी भी इसी श्रेणी में होंगे। जाहिर है, मामला सिर्फ जनरल सिंह के कायर्काल का नहीं बल्कि कई अन्य जटिलताओं तथा प्रशासनिक गुत्थियों से जुड़ा है। सारे विवाद का एक संभावित हल यह हो सकता है कि जनरल सिंह को 'पदोन्नत कर' तीनों सेनाध्यक्षों की समिति का प्रमुख नियुक्त कर दिया जाए। सरकार ने शायद इस संभावना पर गौर भी किया था।

सारे घटनाक्रम का एक पहलू यह भी है कि सेना में बहुत से अधिकारी यह महसूस करते हैं कि नागरिक अफसरशाही द्वारा उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता। उन्हें पयरप्त सम्मान व महत्व नहीं दिया जाता। उस लिहाज से बहुत से सैन्य अधिकारियों के लिए जनरल सिंह के अदालत जाने का प्रतीकात्मक महत्व भी है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला जनरल सिंह के समर्थन में होता है तो वह एक तरह से इस वर्ग की निगाह में सेना के गौरव को पुनप्रर्तिष्ठित करेगा। यदि नागरिक अफसरशाही वाकई हमारे वीरोचित सेनाधिकारियों को 'कैजुअल' तरीके से लेती है तो वह दुभ्राग्यपूण्र है। जनरल सिंह के बारे में कहा जाता है कि न सिर्फ उनका कायर्काल गौरवशाली और निर्विवाद रहा है बल्कि भ्रष्टाचार के मामले में वे बहुत कठोर रुख भी लेते रहे हैं। उनके सेनाध्यक्ष बनने पर हमारे सैन्य ढांचे को ज्यादा चुस्त-दुरुस्त बनाने, उसका आधुनिकीकरण किए जाने और भ्रष्टाचार से मुक्त बनाने के बारे में उम्मीदें बंधी थीं। नए युग में भारत की बढ़ती भूमिका के मद्देनजर थल सेना पर क्या जिम्मेदारियां हैं और कैसे वह खुद को बदलते परिवेश के अनुरूप ढाल सकती है, इस बारे में वे न सिर्फ सजग हैं बल्कि प्रयास भी करते रहे हैं। दूसरी ओर एके एंटनी ने भी ऐसे रक्षा मंत्री के रूप में छाप छोड़ी है जो किसी विवाद में पड़े बिना, एकमेव संकल्प के साथ अपने दाियत्व निभाने में लगे हुए हैं। हमारे रक्षा प्रतिष्ठान के शीर्ष पर दो अच्छे तथा काबिल लोगों के साहचयर् का समापन ऐसे अिप्रय विवाद में हो, यह दुभ्राग्यपूण्र ही कहा जाएगा। बेहतर हो कि अब भी सरकार और थलसेनाध्यक्ष इस मामले का ऐसा हल निकाल लें जो न सिर्फ दोनों पक्षों को स्वीकायर् हो, बल्कि उनकी प्रतिष्ठा के भी अनुकूल हो।
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com