Friday, October 7, 2011

अन्वेषक, आविष्कारक, उद्यमी, स्वप्नदृष्टाः अद्वितीय स्टीव जॉब्स

स्टीव जॉब्स सिर्फ सपने देखने वाले ही नहीं थे, वे सपनों को सच करके दिखाने वाले ऐसे अद्वितीय इंसान थे जिन्होंने अपनी तकनीकों, उत्पादों और विचारों के जरिए विश्व में क्रांतिकारी बदलावों को जन्म दिया।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

दुनिया की शीर्ष आईटी कंपनी एपल के संस्थापक स्टीव जॉब्स ने कई साल तक कैंसर से लड़ने के बाद पांच अक्तूबर को इस दुनिया से विदा ले ली। महज 56 साल की उम्र में स्टीव जॉब्स का चला जाना न सिर्फ सूचना प्रौद्योगिकी जगत बल्कि पूरी दुनिया के लिए बहुत बड़ा आघात है। वे सिर्फ सपने देखने वाले ही नहीं थे, वे सपनों को सच करके दिखाने वाले ऐसे अद्वितीय इंसान थे जिन्होंने अपनी तकनीकों, उत्पादों और विचारों के जरिए विश्व में क्रांतिकारी बदलावों को जन्म दिया। स्टीव जॉब्स सामान्य वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और तकनीशियनों से अलग थे। वे एक अन्वेषक, शोधकर्ता और आविष्कारक थे। आईटी की दुनिया में तकनीक का सृजन करने वाले तो बहुत हैं लेकिन उसे सामान्य लोगों के अनुरूप ढालने और तकनीक को खूबसूरत, प्रेजेन्टेबल रूप देने वाले बहुत कम। स्टीव जॉब्स एक बहुमुखी प्रतिभा, एक पूर्णतावादी, करिश्माई तकनीकविद् और अद्वितीय 'रचनाकर्मी' थे, तकनीक के संदर्भ में उन्हें एक पूर्ण पुरुष कहना गलत नहीं होगा।

उनके देखे 56 वसंतों के दौरान अगर यह विश्व क्रांतिकारी ढंग से बदल गया है तो इसमें खुद स्टीव जॉब्स की भूमिका कम नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहे गए ये शब्द कितने सटीक हैं कि 'स्टीव की सफलता के प्रति इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होगी कि विश्व के एक बड़े हिस्से को उनके निधन की जानकारी उन्हीं के द्वारा आविष्कृत किसी न किसी यंत्र के जरिए मिली।' स्टीव जॉब्स, दुनिया भर में फैले हुए आपके आविष्कारों के हम करोड़ों उपयोक्ता और आपकी उद्यमिता तथा अद्वितीय मेधा के अरबों प्रशंसक आपको कभी भुला नहीं पाएंगे।

स्टीव जॉब्स का जीवन अनगिनत पहलुओं, किंवदंतियों और प्रेरक कथाओं का अद्भुत संकलन रहा है। हर मामले में वे दूसरों से अलग किंतु शीर्ष पर दिखाई दिए। चाहे वह एपल से निकलने के बाद का जीवन संघर्ष हो या फिर लंबी जद्दोजहद के बाद उसी एपल में वापसी और फिर उसे आईटी की महानतम कंपनी बनाने की उनकी सफलता। माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स के साथ उनकी लंबी प्रतिद्वंद्विता के भी दर्जनों किस्से रहे हैं। दोनों किसी समय मित्र थे किंतु बाद में अलग-अलग रास्तों पर चले गए। न सिर्फ व्यवसाय की दृष्टि से बल्कि तकनीकी दृष्टि से भी उन्होंने आईटी की दुनिया में दो अलग-अलग धुर स्थापित किए। दोनों बहुत सफल, बहुत सक्षम, विस्तीर्ण किंतु परस्पर विरोधाभास लिए हुए। कभी बिल तो कभी गेट्स, सकारात्मक प्रतिद्वंद्विता की इस प्रेरक दंतकथा के उतार-चढ़ाव तकनीकी विश्व के बाकी दिग्गजों के लिए सीखने के नए अध्याय बनते चले गए। किंतु अंततः स्टीव एक विजेता के रूप में विदा हुए। कोई डेढ़ साल पहले एपल ने माइक्रोसॉफ्ट को पछाड़कर दुनिया की सबसे बड़ी तकनीकी कंपनी बनने का गौरव प्राप्त किया। और इसके पीछे यदि किसी एक व्यक्ति की प्रेरणा, जिजीविषा, लगन, प्रतिभा और उद्यमिता थी, तो वे थे स्टीव जॉब्स।

स्टीव के योगदान को बिल गेट्स से बेहतर कौन आंक सकता है, जिन्होंने उनके निधन पर कहा कि 'दुनिया में किसी एक व्यक्ति द्वारा इतना जबरदस्त प्रभाव डाले जाने की मिसालें दुर्लभ ही होती हैं, जैसा कि स्टीव जॉब्स ने डाला। उनके योगदान का प्रभाव आने वाली कई पीढ़ियां भी महसूस करेंगी।'

भविष्यदृष्टा स्टीव

विलक्षण थे स्टीव जॉब्स। वे सामान्य वैज्ञानिकों, तकनीक विशषज्ञों, शोधकर्ताओं, विद्वानों, अन्वेषकों, आविष्कारकों, उद्यमियों में नहीं गिने जा सकते। वे तो यह सब कुछ थे, बल्कि उससे भी कहीं अधिक एक भविष्यदृष्टा। हर कोई उनके काम और जीवन से कितना कुछ सीख सकता है। तकनीक में वे शीर्ष पर पहुंचे, डिजाइन में उनका कोई सानी नहीं था, मार्केटिंग तथा ब्रांडिंग के दिग्गज भी उनकी रणनीतियों का विश्लेषण करने में लगे रहते थे, मैन्यूफैक्चरिंग में उनका कोई जवाब नहीं था, उत्पादों की यूजेबिलिटी पर उन्हें चुनौती देना मुश्किल था। वे आगे चलने वाले व्यक्ति थे, बाकी लोग बस उनका अनुगमन करते थे- येन महाजनो गतः सः पंथा। स्टीव इस सहस्त्राब्दि की प्रतिभाओं में गिने जाएंगे जैसे लियोनार्दो द विंची, टामस एल्वा एडीसन, डार्विन, आइंस्टीन, न्यूटन आदि हैं। खासतौर पर वे लियोनार्दो द विंची के बहुत करीब खड़े दिखते हैं, जिन्होंने विज्ञान और तकनीक ही नहीं, और भी एकाधिक क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा की चिरंजीवी छाप छोड़ी।

स्टीव ने हमेशा बड़े सपने देखे, बड़ी कल्पनाएं कीं। जब कंप्यूटिंग की दुनिया काली स्क्रीनों से जद्दोजहद करती रहती थी, वे मैकिन्टोश कंप्यूटरों के माध्यम से ग्राफिकल यूज़र इंटरफेस (कंप्यूटर की चित्रात्मक मॉनीटर स्क्रीन) ले आए। जब इस मशीन के साथ हमारा संवाद कीबोर्ड तक सिमटा हुआ था तब उन्होंने माउस को लोकप्रिय बनाकर कंप्यूटिंग को काफी आसान और दोस्ताना बना दिया। कंप्यूटर के सीपीयू टावर का झंझट खत्म कर उसे मॉनीटर के भीतर ही समाहित कर दिया तो सिंगल इलेक्ट्रिक वायर कंप्यूटिंग डिवाइस पेश कर हमें तारों के जंजाल में उलझने से बचाया। वह स्टीव जॉब्स के कॅरियर का पहला दौर था। उसके बाद उन्होंने बुरे दिन भी देखे और एपल से निकाले भी गए। लेकिन जब कुछ साल बाद वे उसी कंपनी में लौटे तो नई ऊर्जा, नए जोश और नए हौंसलौं के साथ लौटे। कहीं कोई शत्रुभाव नहीं, सिर्फ सकारात्मक ऊर्जा, बड़े लक्ष्य, और कुछ क्रांतिकारी परिकल्पनाएँ जो पहले आई-पॉड (2001) और फिर आई-फोन (2007) तथा आई-पैड (2010) की अपरिमित सफलता के रूप में हमारे सामने आई। जब दुनिया कीबोर्ड और मोबाइल कीपैड से जूझ रही थी, उन्होंने हमें टच-स्क्रीन से परिचित कराया और इस असंभव सी लगने वाली टेक्नॉलॉजी को इतनी सरल, संभव और व्यावहारिक बना दिया कि हैरत हुई कि पहले किसी ने ऐसा क्यों नहीं सोचा।

एपल के उत्पाद स्टेटस सिंबल तो सदा से रहे हैं, अपने दूसरे चरण में वे लोकप्रियता का जो जबरदस्त पैमाना स्टीव जॉब्स के उत्पादों ने छुआ, वह बड़े-बड़े मार्केटिंग दिग्गजों को भी चकित करने वाला था। हर उत्पाद करोड़ों की संख्या में बिका और हर तकनीक-जागरूक, संचार-प्रेमी, मनोरंजनोत्सुक युवा का सपना बन गया। एपल से अनुपस्थिति के वर्षों में भी उन्होंने एक बहुत बड़ी एनीमेशन ग्राफिक्स कंपनी को जन्म दिया, जिसका नाम था- पिक्सर एनीमेशन। यह एक अलग ही क्षेत्र था- एनीमेशन फिल्मों का, जिसमें उनकी सफलता ने डिज्नी जैसे महारथी को भी चिंतित कर दिया था।

कभी हार नहीं मानी

स्टीव जॉब्स थे ही ऐसे। अनूठे, अलग, मनमौजी, किंतु परिणाम देने के लिए किसी भी हद तक जाने वाले। भारत से उनका गहरा रिश्ता रहा। बिल गेट्स अगर स्कूल की पढ़ाई अधूरी छोड़ आए थे तो स्टीव कॉलेज की। दोनों दिग्गजों की आपसी समानताएं कई बार चौंका देती हैं। बहरहाल, स्टीव ने भारत में घूम-घूमकर मानसिक शांति की तलाश का जो उपक्रम किया, बिल के व्यक्तित्व में आध्यात्म का वह अंश मिसिंग है। इसी आध्यात्मिक गहराई ने स्टीव के व्यक्तित्व और प्रतिभा को वह गहनता दी होगी, जिसके बल पर उन्होंने न सिर्फ तकनीकी विश्व के दिग्गजों के साथ प्रतिद्वंद्विता में कभी हार नहीं मानी, बल्कि कैंसर जैसे अपराजेय प्रतिद्वंद्वी के सामने भी प्रबल आत्मबल का परिचय दिया। कैंसर के कारण पिछले कुछ वर्षों में वे समय-समय पर एपल से दूर रहे किंतु जब भी जरूरत पड़ी किसी जुझारू सैनिक की तरह मोर्चे पर लौट आए। अलबत्ता, पिछली 24 अगस्त को उन्होंने एपल के सीईओ के पद से इस्तीफा दे दिया था और अपने निधन तक कुछ समय के लिए कंपनी के चेयरमैन रहे।

स्टीव जानते थे कि उनके इलाज की अपनी सीमाएं हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें जाना होगा। किंतु उन्होंने अंतिम समय तक हार नहीं मानी और न ही अपने काम तथा उद्देश्यों से डिगे। पिछली दो मार्च को जब आईपैड-2 को लांच किया जाना था, तब स्टीव अपनी बीमारी के इलाज के लिए छुट्टी पर थे। लेकिन सबको चौंकाते हुए वे आईपैड-2 को लांच करने के लिए अवतरित हुए। इस हद तक थी अपन काम में उनकी प्रतिबद्धता। छह साल पहले एक समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- 'इस बात का अहसास कि जल्दी ही मेरा निधन हो जाएगा, मेरे जीवन का सबसे बड़ा साधन है जो मुझे अपन जीवन में बड़े निर्णय करने के लिए प्रेरित करता है। इस अहसास ने कि तुम जल्दी ही विदा हो जाओगे, मुझे किसी भी चीज को खोने की आशंकाओं के जंजाल से मुक्त कर दिया है। तुम्हारा समय सीमित है, इसलिए इसे किसी और का जीवन जीकर व्यर्थ मत करो। सिर्फ अपनी आत्मा की आवाज पर चलो।'

यही आध्यात्मिक और आत्मिक गहराई स्टीव जॉब्स को वह ऊंचाई देती है, जिसका पर्याय उनका आदर्श जीवन बना। स्टीवन पॉल जॉब्स, अपनी कल्पनाओं, हौंसलों प्रेरणाओं और लक्ष्यों में हम आपका अक्स देख सकते हैं। कम लोग होते हैं जो दुनिया पर वैसी अमिट छाप छोड़कर जाते हैं, जैसी आपने छोड़ी।

Saturday, October 1, 2011

छोटे से टैबलेट ने मारा बड़ा मैदान!

स्वागत कीजिए भारतीय उद्यमिता और मेधा का जिसने एक राष्ट्रीय संकल्प को संभव कर दिखाया। पांच सौ न सही, 1700 रुपए में ही सही, हमने दुनिया का सबसे सस्ता टैबलेट कंप्यूटर बना डाला है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कुछ महीने पहले जब दुनिया का सबसे सस्ता टैबलेट कंप्यूटर विकसित किए जाने की घोषणा की थी तो बाकी दुनिया की तो छोङ़िए, खुद भारत में भी इस खबर को सही भावना से नहीं लिया गया था। क्या मीडिया, क्या तकनीक विशेषज्ञ और क्या आम लोग, किसी को यकीन नहीं हुआ था कि महज एक 500 रुपए में कोई लैपटॉप विकसित कर बेचा जा सकता है, और वह भी भारत में! हम सबने सरकार की नासमझी पर अफसोस जताया, संभावित टैबलेट की क्षमताओं पर गंभीर सवाल उठाए और ऐसी धारणा पैदा की जैसे सरकार कंप्यूटर के नाम पर लॉलीपॉप थमाने जा रही है। आखिरकार सामान्य समझ के हिसाब से यह संभव ही कहां है? पश्चिमी देशों में 100 डॉलर के बजट में बच्चों को लैपटॉप मुहैया कराने वाली 'एक लैपटॉप प्रति बालक' परियोजना के लिए यूएनडीपी और दूसरे संगठनों ने दिल खोलकर आर्थिक मदद दी है। लेकिन फिर भी उसके सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। तब भारत जैसा देश, किसी बड़ी आर्थिक मदद के बिना, सिर्फ पांच सौ रुपए (करीब दस डॉलर) में ऐसा कारनामा कर दिखाए, उस पर यकीन कर पाना असंभव ही तो था। लेकिन स्वागत कीजिए भारतीय उद्यमिता और मेधा का जिसने ऐसा संभव कर दिखाया। पांच सौ न सही, 1700 रुपए में ही सही, हमने दुनिया का सबसे सस्ता टैबलेट कंप्यूटर बना डाला है और पिछले दिनों श्री सिब्बल ने उसका सावर्जनिक रूप से प्रदर्शन भी किया है। कौन जाने आज नहीं तो कल, बड़े पैमाने पर उत्पादन होने की स्थिति में इसके दाम पांच सौ रुपए पर ही आ जाएं!

हम दुनिया में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रणी माने जाते हैं, लेकिन दो दशक लंबे फर्राटे के बावजूद हमने इस क्षेत्र की अथाह संभावनाओं का छोटा सा रास्ता तय किया है। अगर हमें अपनी तकनीकी मेधा के बल पर देश के सुखद आर्थिक भविष्य की इमारत खड़ी करनी है तो देश के कोने.कोने में सूचना प्रौद्योगिकी के हक में एक रचनात्मक, शैक्षिक आंदोलन शुरू करने की जरूरत है। गांव-गांव, कस्बे-कस्बे, शहर-शहर में आईटी का प्रसार करना है, कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल, इलेक्ट्रानिक्स आदि तकनीकों से लैस युवकों की विशाल जनसंख्या खड़ी करनी है। आज के हालात में यह संभव नहीं है क्योंकि भले ही हम हर साल 78 अरब डालर की आईटी सेवाओं का नियरत करते हों, देश में कंप्यूटर साक्षरता का स्तर बेहद कम है। शायद 'दिया तले अंधेरा' इसी का नाम है। भारत सरकार की तरफ से लांच किया जाने वाला यह छोटा सा टैबलेट (ऐसा गैजेट जिसमें स्क्रीन आधारित कीबोर्ड इस्तेमाल होता है) उस लिहाज से बड़ी उम्मीद जगाता है। सत्रह सौ का यह टैबलेट बुनियादी रूप से शिक्षा के क्षेत्र में इस्तेमाल होगा और हमारे बच्चों को तकनीकी अवधारणाओं के करीब लाएगा। देश में प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा 40 हजार रुपए से ऊपर पहुंच चुका है सो सामान्य नागरिक इतना खर्चा उठाने में सक्षम माना जा सकता है। यदि वह भी संभव न हो तो सरकार 50 फीसदी सब्सिडी भी दे रही है। सोने में सुहागा।

पिछले सात साल से इस परियोजना पर काम चल रहा था। एक दशक पहले हमारे यहां एक और देसी कंप्यूटर 'सिम्प्यूटर' के चर्चे हुआ करते थे। वह भी एक महत्वाकांक्षी परियोजना थी, हालांकि तब फोकस शिक्षा पर उतना नहीं था। आम लोगों के हाथ में एक सस्ती, सीधी-सादी कंप्यूटिंग डिवाइस सौंपना उसका मकसद था। नाम भी उसी के अनुकूल था- सिम्प्यूटर, यानी सिम्पल कंप्यूटर। बहुत सालों के अनुसंधान और विकास के बाद आखिरकार 2004 में सिम्प्यूटर देखने को मिला तो सबको निराशा हुई। यह किसी गेमिंग गैजेट जैसे चार बटनों वाली हैंडहेल्ड डिवाइस थी, जिसे एक स्टाइलस (स्टिक) के साथ पेश किया गया था। शायद सिम्प्यूटर के निर्माताओं को आर्थिक सहयोग मिला होता तो वे सात साल की इस अवधि में उसे काफी आगे बढ़ा चुके होते। हालात और कारण जो भी रहे हों, करोड़ों हिंदुस्तानियों की तकनीकी उम्मीदें धूमिल करते हुए 'सिम्प्यूटर' न जाने कहां खो गया। बहरहाल, फख़्र की बात है कि एक दूसरे जरिए से ही सही, सरकारी तथा निजी भागीदारी में तैयार हुआ भारत का अपना टैबलेट कंप्यूटर तैयार है। इसमें अहम भूमिका निभाई है इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी और इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ साइंस ने।

सुखद आश्चर्य

जहां तक कन्फीगरेशन का सवाल है, यह आश्चयर्जनक रूप से ठीकठाक दिखाई देता है। दो गीगाबाइट रैम, 32 जीबी हार्ड डिस्क, वाई.फाई, यूएसबी पोर्ट, ऑन स्क्रीन कीबोर्ड, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधा, मल्टीमीडिया क्षमताओं और इंटरनेट कनेक्टिविटी से लैस यह डिवाइस महज दिखावटी चीज नहीं है। हार्ड डिस्क की क्षमता को यूएसबी पोर्ट के जरिए अलग से बड़ी हार्ड डिस्क लगाकर बढ़ाया जा सकता है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग एक अहम फीचर है जो बच्चों को सामूहिक रूप से इंटरनेट के जरिए शिक्षा देना संभव बनाएगा। हालांकि यह गूगल के एन्ड्रोइड ऑपरेटिंग सिस्टम पर आधारित है फिर भी इतने कम दामों में इतनी सारी चीजें समाहित करना कोई आसान काम नहीं है। अगर इस परियोजना के संचालक देश भर से उभरने वाली अथाह मांग को पूरा कर पाते हैं और यह परियोजना जमीनी स्तर पर सही ढंग से लागू की जाती है तो आने वाले वर्षों में कंप्यूटर शिक्षा और साक्षरता दोनों ही मोर्चों पर बड़ी उपलब्धियां अर्जित की जा सकती हैं। हमने एक बड़ी चुनौती फतेह जो कर ली है।

बहरहाल, खुशी के इस माहौल में यह गलतफहमी नहीं पाली जानी चाहिए कि कंप्यूटर-साक्षरता और शैक्षणिक-साक्षरता की चुनौतियां अब खात्मे के करीब हैं। इन मोर्चों पर हमारी समस्याएं और भी हैं। गांवों में बिजली और इंटरनेट ब्राडबैंड कनेक्टिविटी के प्रसार की चुनौती बरकरार है। नया टैबलेट सौर ऊर्जा से भी चलाया जा सकता है, जो एक बड़ी राहत की बात है। लेकिन वह एक अस्थायी राहत ही है, कम से कम शैक्षणिक संस्थानों को निर्बाध बिजली सप्लाई सुनिश्चित करने पर ही स्थायी हल निकलेगा। जहां तक ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी का सवाल है, वह आज भी सिर्फ 6॰9 फीसदी भारतीयों (2010 का आंकड़ा) तक पहुंची है। हां, तीन साल में देश की हर ग्राम पंचायत को इंटरनेट से जोड़ने की केंद्रीय परियोजना के लागू होने से हालात जरूर बेहतर होंगे। कंप्यूटर को भारतीय भाषाओं से लैस करना और बच्चों को अपनी मातृभाषा में तकनीकी शिक्षा देना भी कंप्यूटर साक्षरता के मिशन को सफल बनाने में अहम योगदान दे सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से वह सरकार की प्राथमिकताओं में दिखाई नहीं देता। लेकिन इन चुनौतियों का अर्थ यह नहीं है कि दुनिया का सबसे सस्ता टैबलेट कंप्यूटर बनाने की हमारी उपलब्धि का महत्व किसी भी लिहाज से कम है।

हमने भी दिखाई क्षमता

इस संदर्भ में एक और कोण पर चर्चा करनी जरूरी है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की बढ़त सॉफ्टवेयरों और सेवाओं के मामले में है, हार्डवेयर के मामले में हम पिछड़े हुए हैं। एचसीएल और विप्रो को छोड़कर बहुत कम भारतीय कंपनियों ने हार्डवेयर निर्माण में कोई छाप छोड़ी है। लेकिन मैन्यूफैक्चरिंग में दबदबा बनाए बिना हम कभी भी समग्र सूचना प्रौद्योगिकी में बड़ी वैश्विक ताकत नहीं बन सकते। मौजूदा हालात में हम सॉफ्टवेयर, सेवाओं और मानव संसाधन संबंधी ताकत ही बने रहेंगे, जिसमें हमें चीन तथा ब्राजील से लेकर रूस, फिलीपींस, इंडोनेशिया और पाकिस्तान तक से चुनौती मिल रही है। अपनी लीडरशिप को स्थायी बनाने के लिए हमें हार्डवेयर मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र में कदम बढ़ाने होंगे। अमेरिका, जापान, चीन और ताईवान जैसे देश हार्डवेयर के क्षेत्र में वैश्विक मांग पूरी करने में जुटे हैं। उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर इसका प्रभाव साफ दिखाई देता है। इस संदर्भ में माइक्रोसॉफ्ट और एपल का उदाहरण काबिले गौर है। माइक्रोसॉफ्ट सॉफ्टवेयर क्षेत्र की शक्ति है और लंबे समय से सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की नंबर वन कंपनी बनी रही है। लेकिन अपने हार्डवेयर उत्पादों- आईपॉड, आईफोन और आईपैड की अपार सफलता के बाद एपल ने उसे पछाड़ दिया है। कारण? सॉफ्टवेयर के मामले में आम आदमी की जरूरत सीमित है, जबकि हार्डवेयर का बाजार ज्यादा बड़ा है।

इस लिहाज से स्वदेशी टैबलेट कंप्यूटर का निर्माण बहुत महत्वपूर्ण है। यह हमारी क्षमताओं की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। इस कामयाबी के बाद हमें आईटी मैन्यूफैक्चरिंग को असंभव क्षेत्र समझने की जरूरत नहीं है। कम से कम अब सरकार को चाहिए कि वह देसी हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर से लैस पूर्ण उत्पादों के विकास और निर्माण को प्रोत्साहित करे। आखिरकार हमारे पास टैबलेट कंप्यूटर के रूप में एक कामयाब उत्पाद मौजूद है। इसने भारतीय नवाचार (इनोवेशन), तकनीकी मेधा और व्यावसायिक प्रतिभा को एक बार फिर दुनिया की नजरों में ला दिया है। आइए अपने उन सुयोग्य इंजीनियरों, विशेषज्ञों और तकनीशियनों का अभिनंदन करें जिन्होंने इस देश को एक और महत्वपूर्ण मोर्चे पर सफल बनाया है। यह हमारे राष्ट्रीय संकल्प का प्रतीक है।
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
- मेरा होमपेज http://www.balendu.com
- प्रभासाक्षी.कॉमः हिंदी समाचार पोर्टल
- वाहमीडिया मीडिया ब्लॉग
- लोकलाइजेशन लैब्सहिंदी में सूचना प्रौद्योगिकीय विकास
- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com