हालांकि अन्ना का सशंकित रहना अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन सुलह-सफाई का रास्ता सिर्फ एक पक्ष के लचीलेपन से नहीं निकलने सकता। वह लोकतांत्रिक तरीके से ही निकलेगा, जिसमें दोनों पक्षों को एक दूसरे को स्पेस देने की जरूरत है।
बालेन्दु शर्मा दाधीच
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में इतना जबरदस्त भावनात्मक उफान शायद ही कभी देखा गया हो। व्यवस्थागत असंगतियों के ढांचे में खुद को किसी तरह फिट कर चुपचाप, 'सुरक्षित' ढंग से अपने जीवन.संघषर्ों में लगे आम आदमी को अन्ना हजारे और उनके साथियों ने जैसे चौंकाकर जगा दिया है। जिस तरह चाय की दुकान से लेकर बस और मेट्रो में बैठे हुए आम लोग भ्रष्टाचार के बारे में सजग चर्चा कर रहे हैं वह हमारे सामाजिक नजरिए में एक नए और सुखद बदलाव का प्रतीक है। सरकार, संसद और मीडिया को लगभग पंद्रह दिन से सिर्फ एक ही मुद्दे पर केंद्रित कर देने वाला यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इतिहास के अहम पड़ाव के रूप में देखा जाएगा, भले ही इसकी परिणति कैसी भी हो। किस तरह एक सामान्य सा व्यक्ति गांधीवादी तौर तरीकों का इस्तेमाल करते हुए, सिर्फ अपनी सत्यनिष्ठा और संकल्प के बल पर पूरे राष्ट्र को जागृत एवं आंदोलित कर सकता है, वह बाकी दुनिया के लिए भले ही कौतूहल का विषय हो, भारतीय लोकतंत्र की अंतर.निहित शक्तियों को जाहिर करता है। साथ ही साथ वह इस तथ्य को भी रेखांकित करता है कि लोकतंत्र, उसके तौर.तरीके और परंपराएं जनांदोलनों को मजबूत बनाती हैं, उन्हें क्षति नहीं पहुंचाती। दोनों ही तरफ खड़े लोगों को तमाम आपसी मतभेदों के बावजूद उनमें आस्था नहीं छोड़नी चाहिए।
लोकपाल विधेयक संबंधी विचारों, विकल्पों और मसौदों की संख्या बढ़ती जा रही है। किसी भी पक्ष को इस विषय में असहज होने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह एक सकारात्मक घटनाक्रम है। जनलोकपाल विधेयक संबंधी आंदोलन के मंथन से निकल कर अलग.अलग पक्षों की तरफ से आने वाले सुझावों में परस्पर भिन्नताएं जरूर हैं लेकिन एक बुनियादी समानता है और वह यह कि ये सभी भ्रष्टाचार की समस्या का दमदार समाधान निकालना चाहते हैं। उनके नजरिये भले ही अलग.अलग हो सकते हैं। सभी मसौदों में कुछ बहुत अच्छे प्रावधान हैं और सभी की कुछ सीमाएं भी हैं। अन्ना हजारे और उनके साथियों द्वारा तैयार किया गया जन लोकपाल बिल इनमें सबसे सशक्त है और मौजूदा राजनीति में आए सकारात्मक उफान के लिए उन्हीं की पहल जिम्मेदार है जिसका पूरा श्रेय उन्हें मिलना ही चाहिए। उनके मसौदे को भारी जनसमर्थन भी प्राप्त है, भले ही इसके प्रावधानों के महीन बिंदुओं पर आम जनों के बीच कितनी जागरूकता है, यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने के बारे में अन्ना हजारे के संकल्प पर संदेह की गुंजाइश नहीं है। जो व्यक्ति इस राष्ट्रीय बीमारी के उन्मूलन के लिए अपना जीवन खतरे में डालने को तैयार है, और प्रभावशाली लोकपाल की स्थापना से कम पर टस से मस होने के लिए तैयार नहीं है, उसके प्रति यह देश और समाज आभारी रहेगा। श्री हजारे न सिर्फ आम जनता की भावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं बल्कि उन्होंने इस विधेयक पर चालीस साल से जमी हुई जंग साफ करने का रास्ता खोला है। अगर इतने प्रबल जनसमर्थन और उद्वेलित माहौल में, जब ज्यादातर राजनैतिक दल भी मजबूत लोकपाल की स्थाना पर सहमत हैं, यह विधेयक संसद में पारित नहीं होता तो आगे ऐसा कब हो पाएगा, कहना मुश्किल है। महिला आरक्षण विधेयक का उदाहरण सामने है, जो ज्यादातर दलों के समर्थन के बावजूद आज तक लटका पड़ा है।
पिछले दस.बारह दिनों में राजनैतिक घटनाक्रम नाटकीय रूप से बदला है। अन्ना हजारे और सरकार के बीच सहमति के बिंदु उभरे हैं, जबकि कुछ दिन पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा रही थी। अन्ना हजारे के संकल्प को स्वीकार करते हुए उनके अनशन के प्रति प्रधानमंत्री, सरकार और विपक्षी दलों ने गहरी चिंता प्रकट की है। बाबा रामदेव के उलट, अन्ना से अनशन समाप्त करने की अनेक अपीलें सरकार और कांग्रेस की ओर से की गई हैं। लोकसभा अध्यक्ष ने संसद की ओर से अनशन तोड़ने का आग्रह किया है। हालांकि अन्ना का सशंकित रहना अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन सुलह.सफाई का रास्ता सिर्फ एक पक्ष के लचीलेपन से नहीं निकलने सकता। वह लोकतांत्रिक तरीके से ही निकलेगा और लोकतांत्रिक तरीका वही है जिसमें दोनों पक्ष एक.दूसरे की भावनाओं को समझें और जरूरी 'स्पेस' दें। सरकार, विपक्ष और संसद की अपीलों को एक झटके में नजरंदाज करने की बजाए अगर अन्ना हजारे और उनकी टीम इसे एक सकारात्मक घटनाक्रम के रूप में देखती, तो इससे उनके आंदोलन की सफलता पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था। अन्ना का आंदोलन शीर्ष स्थिति में पहुंच चुका है और किसी भी तरह की वायदाखिलाफी इसे और मजबूत ही बनाएगी।
देरी से मुश्किलें ही बढ़ेंगी
अद्वितीय सामाजिक उद्वेलन और चौतरफा अपीलों के दौर में अन्ना द्वारा अनशन समाप्त किए जाने का यह उपयुक्त समय है। इसे और लंबा खींचना आंदोलन की छवि को प्रभावित करेगा और उनकी ऐसी छवि बनाएगा जो लोकतांत्रिक और समावेशी नहीं है। रामलीला मैदान और अलग.अलग शहरों में उमड़ने वाले आंदोलनकारी खुद भ्रष्टाचार की समस्या से त्रस्त रह चुके हैं और मौजूदा आंदोलन पर उनकी उम्मीदें टिकी हुई हैं। लेकिन मीडिया के पूरे समर्थन के बावजूद उनका उत्साह बहुत लंबे समय तक इसी तरह टिका रहे, यह आवश्यक नहीं है। खासकर उस परिस्थिति में जब आंदोलनकारी नेताओं के बीच मतभेद उभरने की बातें सामने आ रही हैं। किसी सुसंगठित राजनैतिक दल के समर्थन और सुस्पष्ट राष्ट्रीय सांगठनिक ढांचे के अभाव में बहुत लंबे समय तक आंदोलन जारी रखना और उसे लोकिप्रय बनाए रखना मुश्किल है। अन्ना हजारे के निजी स्वास्थ्य के अलावा उनके कैंप को इस बारे में भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
टीम अन्ना के बीच विभाजन रेखाएं खिंचने की शुरूआत अरुणा राय और उनके साथियों द्वारा अपना अलग मसौदा पेश करने के साथ हुई थी। मानना होगा कि इसमें दोनों पक्षों के बीच सामंजस्य पैदा करने की संजीदा कोशिश की गई है। अन्ना हजारे के साथियों अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी पर आंदोलन को हाईजैक करने के आरोप लग रहे हैं और यह माना जा रहा है कि टीम अन्ना और सरकार के बीच समझौता नहीं होने के पीछे उनकी भूमिका है। धीरे.धीरे आंदोलन के परिदृश्य में उनकी प्रधान भूमिका कमजोर होती गई है। सरकार से बातचीत का जिम्मा अब या तो खुद अन्ना हजारे संभाल रहे हैं या फिर उनके दो दूसरे साथी. प्रशांत भूषण तथा मेधा पाटकर देख रहे हैं। स्वामी अग्निवेश और श्री श्री रविशंकर अनशन समाप्त करने के मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी के रुख से असमहत हैं। कर्नाटक के पूवर् लोकायुक्त और सुप्रीम कोर्ट के पूवर् न्यायाधीश संतोष हेगड़े संसद की सवर्ोच्चता को चुनौती दिए जाने से इतने व्यथित हैं कि आंदोलन से अलग होने पर विचार कर रहे हैं। अनशन जितना लंबा चलेगा, इस किस्म के रासायनिक परिवर्तन और गति पकड़ते रहेंगे। अन्ना हजारे को इस संदभ्र में एक रणनीतिक फैसला करने की जरूरत है।
सभी में कुछ अच्छा, कुछ बुरा
सरकार की ओर से पेश किया गया लोकपाल विधेयक उसके मंसूबों के बारे में यकीनन संदेह पैदा करता है। भ्रष्टाचार के दोषियों को सामान्य सी सजा देना, राज्यों में लोकायुक्त की स्थापना को विधेयक से न जोड़ा जाना, विधेयक के दायरे में सिर्फ उच्च नौकरशाही को लाना और शिकायत गलत साबित होने पर शिकायतकर्ता को गंभीर सजा दिए जाने का प्रावधान उचित नहीं हैं। ऐसे प्रावधानों ने विधेयक के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को ही संदेह के दायरे में ला देते हैं। प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को विधेयक के दायरे से अलग रखे जाने जैसे मुद्दों पर लोगों के मन में संदेह पैदा हो रहे हैं तो उसके पीछे ऐसे प्रावधानों का भी हाथ है। लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली समिति द्वारा अन्ना हजारे और उनकी टीम के ज्यादातर सुझावों को स्वीकार कर लिए जाने के बावजूद अगर सरकार जनता के बीच विधेयक के प्रति विश्वसनीयता पैदा करने में नाकाम रही है तो इसके लिए किसी और को दोष नहीं दिया जा सकता।
जन लोकपाल विधेयक भी खामियों से पूरी तरह मुक्त नहीं है। मिसाल के तौर पर गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) और उनके कर्मचारियों द्वारा हासिल की जाने वाली धनराशि पर उनकी नजर नहीं गई है, हालांकि सरकार के विधेयक में इन्हें शामिल किया गया है। इस संदभ्र में लेखिका और सामाजिक कायर्कर्ता अरूंधती राय की टिप्पणी काबिले गौर है, जिन्होंने कहा है कि अन्ना हजारे के आंदोलन का समर्थन कर कारपोरेट घराने, गैर.सरकारी संगठन और मीडिया बड़ी सफाई से लोकपाल विधेयक के दायरे में आने से बच निकले हैं। अन्ना हजारे की टीम अगर वाकई भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर विधेयक लाना चाहती है तो इन तीनों बड़े सेक्टरों को उससे अलग कैसे रखा जा सकता है? न्यायपालिका के मुद्दे पर अन्ना हजारे की टीम कुछ लचीलापन दिखाने को तैयार हुई है लेकिन उसे संसद तथा संविधान की सवर्ोच्चता जैसे मसलों को भी पयरप्त सम्मान देना चाहिए।
प्रधानमंत्री को बिल के दायरे में लाने के मुद्दे पर अरुणा राय समूह के प्रस्तावित प्रावधान एक मध्यमार्ग निकाल सकते हैं। लोकपाल समिति के सभी सदस्य अगर आम राय से प्रधानमंत्री को दोषी मानते हुए उनके विरुद्ध मुकदमा चलाना चाहें तो वे इस मामले को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रख सकते हैं जो जरूरी आकलन के बाद अंतिम निण्रय दे सकता है। यह ऐसा प्रावधान है जिसे स्वीकार करने में सरकार को कोई आपित्त नहीं होनी चाहिए और यह जन लोकपाल विधेयक के प्रावधान को भी कुछ शर्तों के साथ पूरा करता है। अगर सभी पक्ष इस बारे में सहमत हो जाते हैं तो टकराव का एक बड़ा बिंदु दूर हो सकता है। न्यायपालिका से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले हल करने के लिए कठोर न्याियक जवाबदेही कानून लाने पर भी ज्यादातर पक्षों की सहमति बनने लगी है। इसी तरह एक.एक कर मतभेद के बिंदु समाप्त हो सकते हैं। हालांकि उच्च अफसरशाही और निम्न अफसरशाही के लिए अलग.अलग संस्थाएं बनाने की बात कुछ अव्यावहारिक है क्योंकि यह भ्रष्टाचार पर अंकुश की प्रक्रिया का कम्पार्टमेंटलाइजेशन (अलग.अलग टुकड़ों में बांटना) सुनिश्चित करेगा जिससे आम आदमी के लिए शिकायत करना और समाधान हासिल करना जटिल हो जाएगा।
Saturday, August 27, 2011
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