Saturday, September 24, 2011

'दोस्त' ही यदि ऐसा हो तो दुश्मनों की क्या जरूरत!

अफगानिस्तान में अपने दूतावास और नाटो मुख्यालय पर हुए हमले के बाद अमेरिका को अहसास हो रहा है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में उसका प्रमुख 'सहयोगी' ही उसकी सबसे बड़ी समस्या है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

-पिछले दिनों अफगानिस्तान में नाटो मुख्यालय और फिर अमेरिकी दूतावास पर हुए हमले के लिए पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस ने कुख्यात हक्कानी नेटवर्क को प्रेरित किया और इन्हें अंजाम देने में उसकी मदद की।

-काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हमला करने वाला हक्कानी नेटवर्क पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का परोक्ष नेटवर्क है।

-हिंसक अतिवाद (परोक्षत: आतंकवाद) को नीतिगत माध्यम के रूप में इस्तेमाल करके पाकिस्तान सरकार, खासकर पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई, अमेरिका के साथ अपने सामरिक संबंधों को तो नुकसान पहुंचा ही रही हैं, असरदार क्षेत्रीय प्रभाव वाले सम्मानित राष्ट्र के रूप में देखे जाने का अवसर भी खो रही हैं।

अगर ऊपरी बयानों में अमेरिकी दूतावास की जगह पर भारतीय दूतावास और अमेरिका के स्थान पर भारत करके पढ़ा जाए तो ये पूरी तरह भारतीय नेताओं, अधिकारियों और राजनयिकों के बयान प्रतीत होंगे। लेकिन ये अमेरिकी सरकार के दिग्गजों के बयान हैं। पहला बयान जहां अमेरिकी रक्षा प्रतिष्ठान के अधिकारियों का है, वहीं बाकी दो बयान अमेरिकी संयुक्त सेना प्रमुख एडमिरल माइक मुलेन के हैं। लगे हाथ अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के बयान पर भी नजर डाली जा सकती है जिन्होंने कहा है कि अमेरिका आतंकवाद के सामने झुकने वाला नहीं है और अफगानिस्तान में उसकी मुहिम जारी रहेगी।

इसी महीने हुई आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में अमेरिकी सरजमीन से लगभग वैसे ही बयान आ रहे हैं जैसे आतंकवाद से पारंपरिक रूप से पीङ़ित भारत पिछले कई वषर्ों से देता आ रहा है। माइक मुलेन के बयान ने तीन साल पहले काबुल में ही भारतीय दूतावास पर हुए आतंकवादी हमले की याद ताजा कर दी है जब भारत ने ठीक इसी तरह का आरोप लगाया था। मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के दौरान भी भारत ने आधिकारिक तौर पर अमेरिका को बताया था कि हमले के पल.पल की खबर पाकिस्तानी फौजी और खुफिया अधिकारियों को थी और उसकी निगरानी आईएसआई से जुड़े हैंडलर्स ने की थी। भारत आतंकवाद के जिस दंश को दशकों से झेलता आया है, उसकी चपेट में अमेरिका हाल ही में आने लगा है। भारत के जिन आरोपों को उसने लगभग नजरंदाज करते हुए पाकिस्तानी गतिविधियों की ओर आंख मूंदे रखी उन्हें आज वह खुद ही दोहराने को मजबूर है। सच है, जाके पांव ने फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।

सरकारी नीति बना आतंकवाद

जिस अमेरिकी बयान को सबसे महत्वपूण्र माना जाएगा, वह है नीतिगत उपकरण के रूप में हिंसक अतिवाद का प्रयोग। लेकिन इस अहसास तक पहुंचने में अमेरिका को पूरे ग्यारह साल लग गए हैं। याद कीजिए, पूवर् प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सितंबर 2000 की अमेरिका यात्रा जब अमेरिकी कांग्रेस की संयुक्त बैठक को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था. 'भारत और अमेरिका को आतंकवाद की त्रासदी से निपटने के प्रयास द्विगुणित कर देने चाहिए क्योंकि पाकिस्तान आतंकवाद का इस्तेमाल सरकारी नीति को लागू करने के उपकरण के रूप में कर रहा है।' उन्होंने पिछले दो दशकों के भारत के अनुभवों का हवाला देते हुए कहा था कि पाकिस्तान धार्मिक जेहाद को राष्ट्रीय नीति का माध्यम बना रहा है। लेकिन वह जमाना और था। तब तक अमेरिका ने दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी हमले का सामना नहीं किया था, वह तो श्री वाजपेयी के भाषण के एक साल बाद ग्यारह सितंबर 2001 को हुआ, जिसमें दुनिया ने सबसे बड़ी शक्ति को आंतकवादी विध्वंस की गंभीरता का अहसास कराया।

श्री वाजपेयी ही क्यों, उनसे पहले और उनके बाद की हर सरकार ने पिछले तीन दशकों के दौरान अमेरिका की हर सरकार का ध्यान इस बात की ओर खींचा है कि भारत में आतंकवादी गतिविधियों में लगे तत्वों को पाकिस्तान का नैतिक, आर्िथक, सामरिक, खुफिया और हथियार संबंधी समर्थन हासिल है। हमारे विरुद्ध होने वाले कितने ही हमलों की भूमिका खुद आईएसआई बनाती आई है और कश्मीर में 'प्रच्छन्न युद्ध' की पाकिस्तानी नीति तो जनरल जिया उल हक के जमाने से ही उसकी सामरिक नीति का एक महत्वपूण्र हिस्सा है, जिन्होंने फिलस्तीन की तर्ज पर भारत को सबक सिखाने के लिए यह रास्ता चुना था। तब पाकिस्तान अमेरिका के ज्यादा करीब था और एक लोकतांत्रिक शक्ति होते हुए भी भारत अमेरिका को रास नहीं आता था। ग्यारह सितंबर को अगर अमेरिका ने आतंकवाद का सामना न किया होता तो आज भी भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और आसपास के इलाकों के घटनाक्रम पर अमेरिकी
कार्रवाइयां महज विदेश मंत्रालय के बयानों तक ही सीमित रहतीं।

एक के बाद एक रहस्योद्घाटन

ग्यारह सितंबर के हमले के तुरंत बाद जब भारत को लगा कि अमेरिका वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई करने के प्रति गंभीर है तो उसने अलकायदा, तालिबान और दूसरे आतंकवादियों के बारे में महत्वपूण्र खुफिया जानकारियां उसे सौंपी थीं। इन जानकारियों में पाकिस्तान में चल रहे आतंकवादी प्रशिक्षण केंद्रों का ब्यौरा भी था और अफगानिस्तान के दूर.दराज क्षेत्रों की आतंकवादी गतिविधियों की जानकारी भी। लेकिन अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपने सामरिक समीकरणों के चलते आतंकवाद के उद्भव तथा आश्रय स्थल के रूप में पाकिस्तान की भूमिका को पूरी तरह नजरंदाज कर दिया। ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तानी सरजमीन पर, पाकिस्तानी फौज की नाक के नीचे, मारे जाने और डेविड कोलमैन हैडली तथा फैसल शहजाद की पृष्ठभूमि साफ होने, और अब अफगानिस्तान के हमलों के बाद अमेरिका को स्पष्ट हुआ है कि दुनिया भर में चलने वाला आतंकवाद के चक्र की धुरी तो खुद पाकिस्तान में ही है। ओसामा की मौत, तालिबान के शीर्ष नेतृत्व की पाकिस्तानी सरजमीन पर मौजूद होने की पुष्टि और अब ओसामा के नायब अयमान अल जवाहिरी की मौजूदगी का खुलासा हो ही चुका है। दोस्त अगर ऐसा हो तो दुश्मनों की क्या जरूरत!

लेकिन लगता है कि अमेरिका को देर से ही सही, अब अहसास हो रहा है कि भारत सही था, पाकिस्तान और खुद अमेरिका गलत। आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में उसका प्रमुख 'सहयोगी' ही उसकी सबसे बड़ी समस्या है। अफगानिस्तान में पहले तालिबान और अब हक्कानी नेटवर्क को पनपाने में उसकी जो भूमिका है, ठीक वही भूमिका भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों. लश्करे तैयबा, हिज्बुल मुजाहिदीन और जैशे मोहम्मद को पल्लवित करने में रही है। ये सभी आतंकवादी संगठन जिन तीन देशों को अपने सबसे बड़े दुश्मन मानते हैं उनमें अमेरिका, भारत और इजराइल सबसे ऊपर हैं। याद कीजिए कुछ समय पहले पाकिस्तानी तालिबान की तरफ से आया वह बयान जिसमें उसने कहा था कि अगर भारत पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई करता है तो तालिबान आतंकवादी पाकिस्तानी फौजों के साथ कदम से कदम मिलाकर भारत पर हमला करेंगे। जनरल मुशर्रफ के जमाने में कारगिल पर हुई कार्रवाई में आतंकवादियों और पाकिस्तानी फौजियों ने एक टीम के रूप में मिलकर काम किया था, इसे अब दूसरे तो क्या खुद पाकिस्तान भी स्वीकार करता है।

यह सब जानने के बाद भी यदि अमेरिका आतंकवाद से लड़ाई के मामले में भारत के साथ दूरी बरतने और पाकिस्तान के साथ दोस्ती बनाए रखने की गलती करता है तो इसमें सिर्फ हमारा नुकसान नहीं है। अब उसे अहसास हो जाना चाहिए कि आतंकवाद के विरुद्ध सभ्य विश्व की लड़ाई में भारत और अमेरिका अलग.अलग छोर पर खड़े नहीं रह सकते। दक्षिण एशिया से संबंधित उसकी रणनीति और समीकरणों में भारत का स्थान अहम होना चाहिए। दोनों को एक.दूसरे के अनुभव, शक्ति और रणनीतिक सहयोग की जरूरत है।

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इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com