बालेन्दु शर्मा दाधीचःग्यारह सितंबर 2001 को अलकायदा आतंकवादियों ने वर्ल्ड ट्रेड टावर्स को ध्वस्त करके दुनिया के सबसे ताकतवर देश के विरुद्ध आतंकवाद का मोर्चा खोलने का जनसंहारक ऐलान किया था। दो मई 2011 को अमेरिका ने अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतारकर आतंकवाद और शांति के बीच जारी जंग का एक अहम अध्याय लिख दिया है। पाकिस्तान के ऐबटाबाद में अलकायदा सरगना की मौत इस शताब्दी की सबसे बड़ी घटनाओं में गिनी जाएगी जिसने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि आतंकवादी और विध्वंसक ताकतें भले ही अपने छोटे.छोटे मंसूबों में कामयाब हो जाएं लेकिन उनका अंत इसी तरह होता है। ऐसा अंत, जिस पर दुनिया जश्न मना रही होती है।
ओसामा बिन लादेन ने एक कारोबारी से आतंकवादी बनकर पिछले दो.ढाई दशक के अपने विक्षिप्त अभियान के दौरान कुल जमा क्या अर्जित किया? लाखों युवाओं को गुमराह कर जेहाद के रास्ते पर लाने, करोड़ों लोगों का जीवन असुरक्षित बनाने और लाखों बेकसूर लोगों की मौतों की पटकथा लिखने के बाद भी आखिर उसने क्या पाया? आज तुच्छ ढंग से मारे जाने के बाद वह उन लोगों को पहले से कहीं ज्यादा असुरक्षित और अलग.थलग करके गया है जिनके साथ वैश्विक स्तर पर हो रहे तथाकथित पक्षपात और नाइंसाफी की घुट्टी वह अपने अनुयािययों को पिलाया करता था।
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की घटना के बाद अमेरिका ने दूसरी लोकतांत्रिक ताकतों के साथ मिलकर आतंकवाद के विरुद्ध जंग की जो प्रक्रिया शुरू की थी, वह ओसामा की मौत से खत्म होने वाली नहीं है। इस घटना के बाद आतंकवाद खत्म हो जाएगा, ऐसी खुशफहमी पालने का भी कोई कारण नहीं है। लेकिन लोकतांत्रिक ताकतों की यह प्रचंड विजय आतंकवादी शक्तियों की अब तक की सबसे बड़ी पराजय जरूर है। लगभग उतनी ही बड़ी, जितनी अफगानिस्तान से कट्टरपंथी तालिबान की हुकूमत की विदायी थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संचालित होने वाले आतंकवादी संगठन के नाते अलकायदा में नेतृत्व के कई स्तर मौजूद हैं। अयमान अल जवाहिरी और मुल्ला उमर जैसे अनेक लोग ओसामा की जगह लेने के लिए तैयार होंगे।
लेकिन ओसामा के रूप में आतंकवादी दुनिया का सबसे बड़ा 'आइकन' मारा गया है। इसका बहुत बड़ा प्रतीकात्मक महत्व है। न सिर्फ आप.हम जैसे सामान्य लोगों के लिए, न सिर्फ आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में जुटे लोगों के लिए बल्कि खुद जेहादियों और दूसरी आतंकवादी ताकतों के लिए भी। यह एक ऐसा झटका है, जिससे उबरना आतंकवादियों के लिए आसान नहीं होगा। ओसामा की मौत के बाद दुनिया भर में जिस अंदाज में खुशी मनाई गई, वह उस बेताबी की ओर संकेत करती है जिसके साथ लोग इस खबर का इंतजार कर रहे थे। इस घटना ने दुनिया के शांतिप्रिय लोगों के मन में आतंकवाद से मुक्ति की उम्मीद जगा दी है।
एहतियात की जरूरत
हालांकि इस मामले में बहुत एहतियात बरते जाने की जरूरत है। खासकर अमेरिका, भारत, इजराइल और यूरोपीय देशों को। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के जनक की मौत की खबर इस तरह सन्नाटे में गुजर जाए, यह ओसामा के जेहादियों को शायद मंजूर नहीं होगा। अपनी हताशा, कुंठा और खीझ में वे कहीं भी, किसी भी तरह की जवाबी कार्रवाई कर सकते हैं। सबको सतर्कता बरतने की जरूरत है। आतंकवादी ताकतें और उनसे सहानुभूति रखने वाले तत्व माहौल बिगाड़ने के लिए आतंकवादी हिंसा के साथ.साथ सांप्रदायिक हिंसा, अफवाहों, अपहरणों आदि का रास्ता अख्तियार कर सकते हैं। ओसामा की मौत की खुशी और जोश में बहते हुए ऐसे तत्वों को किसी तरह का मौका नहीं देना चाहिए। आतंकवाद के विरुद्ध जंग के दिशानिर्देशक के रूप में अमेरिका की जिम्मेदारी सबसे बड़ी है। अलकायदा ने हाल ही में धमकी दी थी कि ओसामा के मारे जाने पर वह चुप नहीं बैठेगा और अपने पास मौजूद परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा, जो तथाकथित रूप से यूरोप में कहीं रखे गए हैं। वास्तविकता जो भी हो, दुनिया की लोकतांत्रिक शक्तियों को पहले से अधिक सतर्क होने की जरूरत है।
'ओसामा की मौत' की खबरें अतीत में पहले भी आती रही हैं. कभी किसी हमले में तो कभी बीमारी की वजह से। लेकिन इस बार यह खबर सच है। ओसामा का शव पाकिस्तान में हमलावर कार्रवाई करने वाले अमेरिकी सैनिकों के कब्जे में है। अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई के दिनों से ही सीआईए और अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां ओसामा, जवाहिरी और मुल्ला उमर जैसे शीर्ष आतंकवादियों पर नजर रखने में लगी हैं। कई साल पहले वह अफगानिस्तान की तोरा-बोरा पहाङ़ियों में भी सीआईए का शिकार होते.होते बचा था। उसके बाद वह निरंतर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच अपने ठिकाने बदलता रहा और अपने वीडियो तथा ऑडियो संदेशों के जरिए जेहादियों का हौसला बढ़ाता रहा। भले ही ओसामा की शख्सियत एक खतरनाक आतंकवादी की शख्सियत थी लेकिन कुछ मायनों में आपको उसका लोहा मानना पड़ेगा। पहला, उसने अलकायदा को दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों के प्रतिरोध के बावजूद पूरी दुनिया में फैला कर अपनी नेतृत्व क्षमता दिखाई। दूसरे, वह बड़ी संख्या में एक संप्रदाय के लोगों के बीच सहानुभूति अर्जित करने में सफल रहा। बड़े से बड़े जन.संपर्क अधिकारी इस मामले में उससे दो-चार सबक सीख सकते हैं। तीसरे, अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की समन्वित अभियानों के बावजूद वह पाकिस्तान और अफगानिस्तान के दुष्कर इलाकों में इतने साल तक अपने आपको छिपाए रखने में कामयाब रहा। ओसामा ने अपनी तिकड़मों से आम लोगों के बीच यह भावना पैदा कर दी थी कि उसे शायद ही कभी पकड़ा या मारा जा सके।
इंसाफ का लंबा इंतजार
लेकिन अंतत: लादेन का हश्र उसी तरह का हुआ जैसा ऐसे तत्वों का होता है और होना चाहिए। पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर नजर डालें तो लगता है कि सीआईए कुछ महीनों से लादेन के काफी करीब पहुंच चुका था। हाल ही में उसने बड़ी प्रामाणिकता के साथ लादेन के पाकिस्तान में मौजूद होने की बात कही थी। जवाब में अल कायदा ने भी जिस तरह उसकी आसन्न मौत पर बदला लेने की धमकी दी उसने यह संकेत दिया कि दोनों ही पक्षों को आने वाले दिनों में होने वाली किसी 'बड़ी घटना' का अहसास था। ऐसा लगता है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में दस साल से सक्रिय होने के कारण सीआईए ने अब अफगान.पाकिस्तान सीमा क्षेत्र के बारे में पयरप्त जानकारी जुटा ली है और अब यह दुष्कर इलाका उसके लिए उतना रहस्यमय नहीं रहा। उसने पिछले कुछ वर्षों में ड्रोन (मानव रहित यान) हमलों के जरिए कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं, जिनमें पाकिस्तान में अलकायदा के प्रमुख बैतुल्ला महसूद और उसके बाद हकीमुल्ला महसूद की मौत प्रमुख है। अमेरिकी वायुसैनिक हमले में इराक में अलकायदा प्रमुख अबू मुसाब अल जरकावी भी मारा गया था। बड़े आतंकवादियों के विरुद्ध असरदार ड्रोन हमलों ने एक युद्धक-मशीन के रूप में भी सीआईए की साख और विश्वसनीयता को बढ़ाया है।
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के हमलों में मारे गए लोगों के परिवार वालों, अनाथों और विधवाओं को आखिरकार इंसाफ मिला। इस हमले का साजिशकर्ता अमेरिकी सैनिकों के हाथों बेमौत मारा गया। अमेरिका ने इस धारणा को सही सिद्ध कर दिया कि भले ही प्रक्रिया कितनी भी लंबी और समय साध्य हो, लेकिन अंत में इंसाफ होता है। इससे दुनिया भर में लोकतांत्रिक शक्तियों का आत्मविश्वास बढ़ा है और उनके बीच एकजुटता की भावना मजबूत होगी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल अभी बरकरार है। ओसामा बिन लादेन, उसके सहयोगियों और जेहादियों को जिन प्रभावशाली लोगों, संस्थानों, फौजों और सरकारों का समर्थन हासिल है, और जो ओसामा जैसे लोगों को पनाह देते आए हैं, वे न तो खत्म हुए हैं और न ही रातोंरात उनकी विचारधारा में बदलाव आने वाला है। ओसामा को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस, पाकिस्तानी फौज और अनेक कट्टरपंथी नेताओं के साथ-साथ अफगानिस्तान और पाकिस्तान के तालिबान का भी समर्थन हासिल रहा है। विडंबना है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में पाकिस्तान अमेरिका का तथाकथित पार्टनर है, जबकि खुद पाक फौज में मौजूद लोग अफगानिस्तान में आतंकवादी हरकतों को निर्देशित करते रहे हैं। मुंबई हमलों में उनकी भूमिका का तो पर्दाफाश हो ही चुका है। अमेरिका को आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई के इस सबसे अहम पहलू से भी निपटने की जरूरत है। खासकर तब, जब वह खुद पाकिस्तान को 'आतंकवादियों का प्रजनन क्षेत्र' मानता रहा है।
(प्रभासाक्षी, आज समाज और कुछ अन्य प्रकाशनों में प्रकाशित)
Saturday, May 14, 2011
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