भारत में जब राजीव गांधी के समय में दफ्तरों में कंप्यूटरों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया गया तो वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने इसका जमकर विरोध किया था। फिर उदारीकरण, निजीकरण, परमाणु करार और अब बंद विरोधियों का विरोध। क्या वामपंथी दल विकास के नए जमाने के साथ तालमेल रखने की स्थिति में हैं?
कम्युनिस्ट दलों की विचारधारा में जन-आक्रोश की अभिव्यक्ति और कर्मचारी हितों की सुरक्षा अहम है लेकिन इनका कहां और किस अवस्था में इस्तेमाल हो, उस पर किसी किस्म के सोच-विचार के लिए वे तैयार क्यों नही हैं? हमारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने सोमनाथ चटर्जी के मामले में सिद्ध किया था कि आंखों पर बंधी विचारधारा और निरंकुश अनुशासन की पट्टी उन्हें जमीनी वास्तविकताओं को देखने नहीं दे रही। वैचारिक और सैद्धांतिक रट्टा लगाते कामरेडों को बदलता हुआ देश, बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था, उभरते हुए युवा, विकासमान देश की नई जरूरतें नजर नहीं आतीं। वे बुद्धदेव भट्टाचार्य के बंद विरोधी बयान को कोसने में जुटे हुए हैं और उन कारणों का विवेचन करने को तैयार नहीं हैं जिनकी वजह से श्री भट्टाचार्य ने यह बयान दिया। आखिर क्या कारण है कि कम्युनिस्ट नेता बार-बार विकास और तरक्की के विपरीत ध्रुव पर खड़े हो जाते हैं? अपने बयानों के जरिए वे रतन टाटा जैसे उद्योगपतियों को हतोत्साहित कर रहे हैं। इस मामले में वे अपनी प्रतिद्वंद्वी ममता बनर्जी के साथ खड़े दिख रहे हैं। इसका पश्चिम बंगाल के आर्थिक स्वास्थ्य पर ऐसा दुष्प्रभाव पड़ सकता है जिसकी मरम्मत करने में एकाध दशक बर्बाद हो जाएगा।

भारत में जब राजीव गांधी के समय में दफ्तरों में कंप्यूटरों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया गया तो वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने इसका जमकर विरोध किया था। उन्होंने इसे कर्मचारी हितों के विरुद्ध बताया था और कहा था कि इससे बड़ी संख्या में लोग नौकरियां खो बैठेंगे। लेकिन कंप्यूटर आए और उन्होंने नौकरियां खत्म करने की बजाए नई किस्म की नौकरियों का सृजन किया। सरकारी उपक्रमों, बैंकों आदि के निजीकरण की प्रक्रिया को भी वामपंथी दलों और उनके मजदूर संगठनों के जबरदस्त आक्रोश का सामना करना पड़ा है लेकिन जिन संस्थानों का आंशिक, अर्ध या पूर्ण निजीकरण हुआ वे और उनके कर्मचारी आज पहले से बेहतर स्थिति में हैं। उन्होंने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का समर्थन करते हुए बैंक सुधार, श्रमिक सुधार, भूमि सुधार, विदेशी निवेश जैसी कितनी ही जरूरी प्रक्रियाओं को ठंडे बस्ते से बाहर नहीं आने दिया, यह सोचे बिना कि आधे-अधूरे ढंग से किए गए आर्थिक सुधारों का जोखिम लेना आज के समय में हमारे लिए ठीक नहीं है। साम्यवादी दलों ने इसी तर्ज पर भारत-अमेरिका परमाणु करार का भी विरोध किया और सरकार गिराने तक के लिए तैयार हो गए। अब उन्होंने अपने ही मुख्यमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, इसलिए कि वे अपने राज्य को उत्पादकता वाला राज्य बनाना चाहते हैं, उसे आर्थिक विकास की मिसाल बनाना चाहते हैं और उन्होंने पहली बार उसे बंद, हड़तालों आदि के अवरोधकारी प्रभावों से बचाने की पहल की है।
श्री भट्टाचार्य को इस बात का अहसास रहा होगा कि पार्टी के पारंपरिक अस्त्रों के विरुद्ध बयान देकर वे एक बड़ा राजनैतिक जोखिम मोल ले रहे हैं लेकिन फिर भी उन्होंने कहा- ``मैं बंद के खिलाफ हूं। दुर्भाग्य से मैं एक ऐसे राजनैतिक दल से संबंद्ध हूं जो बंद का आयोजन करता रहा है। मैं अब तक चुप रहा लेकिन अब मैं चुप नहीं रहूंगा। घेराव अवैध और अनैतिक हैं। यह शब्द अंग्रेजी भाषा को हमारा योगदान है। अब से राज्य में इसकी अनुमति नहीं दी जाएगी।`` श्री भट्टाचार्य ने आज जो किया है उसे उनके पूर्ववर्तियों को बहुत पहले कर देना चाहिए था। उन्होंने यह बयान देकर दशकों पुरानी परिस्थितियों में गढ़ी गई विचारधारा के सामने खड़े होने हिम्मत दिखाई है जिसकी दाद दी जानी चाहिए। उन्होंने अपने आपको एक प्रगतिशील, विकास-पसंद राजनेता के रूप में पेश करने की कोशिश की है। ऐसे नेताओं की देश को जरूरत है। भले ही वाम दलों का नेतृत्व उनके सकारात्मक बयान को विद्रोह के चश्मे से देखने की कोशिश करता रहे, भले ही वह बदलते वक्त की नजाकत को समझे या नहीं, मगर इस देश के आम आदमी को अहसास है कि कौन सही है और कौन गलत।
1 comment:
कभी देश की राजधानी रहा कलकत्ता, इन्हीं वामपंथियों की वजह से, डाईंग सिटी कहलवाने पर मजबूर हो गया था। अब यदि कोई अपने खोल से, बुर्जुवा सोच से बाहर आ, अपनी कुर्सी की चिंता किये बगैर, राज्य के हित के लिए कुछ कर गुजरने पर उतारू है तो पूरे देश को उसका साथ देना चाहिए। वह समय गया कि जब आका को छींक आती थी तो यहां भी लोग रुमाल निकाल लेते थे।
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