Friday, March 16, 2012

इस 'खुदकुशी' ने दिनेश त्रिवेदी को नेता बना दिया

दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में हमारे रेल मंत्री रेलवे की आर्थिक सेहत और ढांचागत विकास की बजाए लोकलुभावन घोषणाओं के लिए ज्यादा बेताब रहे हैं। दिनेश त्रिवेदी ने इस ढर्रे से आगे बढ़ने की कोशिश की है। उनके इस दावे को स्वीकार न करने का कोई कारण नहीं बनता कि उन्होंने अपने पद की तुलना में भारतीय रेल के हितों को तरजीह दी है। अफसोस कि गठबंधन राजनीति, स्वार्थी राजनैतिक दलों और अहंवादी राजनेताओं के युग में संतुलित और भविष्योन्मुखी बजट पेश करने का अंत श्री त्रिवेदी जैसा दुखद होता है।

-बालेन्दु शर्मा दाधीच

दिनेश त्रिवेदी ने अपने रेल बजट भाषण की शुरूआत में अपने पूर्ववर्तियों को, जिनमें लाल बहादुर शास्त्री भी शामिल थे, याद किया था। इस तुलना को देखकर विपक्षी सांसदों के चेहरों पर मुस्कुराहट थी लेकिन त्रिवेदी अडिग थे। जैसा कि बाद में दिन भर घटी घटनाओं से साफ हो गया, श्री त्रिवेदी 'शहीदी अंदाज' में अपने राजनैतिक जीवन का सबसे बड़ा कदम उठाने जा रहे थे। उन्होंने संयत अंदाज में पेश किए गए अपने लंबे बजट भाषण के दौरान बहुत से नए प्रशंसक बनाए होंगे, जिसके दर्जनों प्रावधान न सिर्फ उनके पूर्ववर्तियों- ममता बनर्जी और लालू प्रसाद यादव की बनाई लीक से हटकर थे बल्कि भारतीय रेलवे की समस्याओं, जरूरतों और भविष्य की तैयारी के प्रति उनकी अच्छी समझबूझ को भी जाहिर कर रहे थे। ऐसे समय पर, जबकि परिवहन के क्षेत्र में बाकी सभी सेवाओं के शुल्क तेजी से बढ़े हैं, रेलवे को बरस.दर.बरस किसी भी तरह की शुल्क वृद्धि से मुक्त रखना न तो व्यावहारिक हो सकता है और न ही सेहतमंद, खासकर तब जब वह लगातार भारी घाटा उठा रही हो। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे रेल मंत्री पारंपरिक रूप से रेलवे की आर्थिक सेहत या विकास की बजाए लोकलुभावन घोषणाओं के लिए ज्यादा बेताब रहे हैं। दिनेश त्रिवेदी के इस दावे को स्वीकार न करने का कोई कारण नहीं बनता कि उन्होंने अपने पद की तुलना में भारतीय रेल के हितों को तरजीह दी है। अफसोस कि गठबंधन राजनीति, स्वार्थी राजनैतिक दलों और अहंवादी राजनेताओं के युग में संतुलित और भविष्योन्मुखी बजट पेश करने का अंत श्री त्रिवेदी जैसा दुखद होता है।

कुछ दिन पहले तक दिनेश त्रिवेदी की छवि एक नामालूम से केंद्रीय मंत्री की थी जो बार-बार अपनी पार्टी अध्यक्ष द्वारा उपेक्षित किया जा रहा था। खबर थी कि दिल्ली से कोलकाता की एक फ्लाइट में ममता बनर्जी ने उन्हें पीछे की सीट पर भेज दिया था और मुकुल राय को अपने साथ बैठने को कहा था। कहा जाता है कि श्री त्रिवेदी की कुछ गतिविधियों से ममता बनर्जी खफा थीं। ये गतिविधियां क्या थीं? वे पिछले कुछ महीनों से राज्यों के दौरे कर वहां के मुख्यमंत्रियों से मुलाकात कर रहे थे और उनके राज्य की जरूरतों को समझने की कोशिश कर रहे थे। कोई केंद्रीय मंत्री अगर राज्य सरकारों के साथ समझबूझ कायम करने की कोशिश करता है तो शायद हर कोई इसे सराहेगा। लेकिन ममता बनर्जी नहीं, जो दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों की तरह किसी भी नेता को 'ढील' नहीं देना चाहतीं। हालांकि श्री त्रिवेदी की छवि किसी तेज-तर्रार मंत्री की नहीं रही, लेकिन ऐसा लगता है कि वे रेल मंत्री के रूप में अपनी जिम्मेदारी को काफी संजीदगी से ले रहे थे। शायद ममता बनर्जी की तुलना में कुछ ज्यादा ही, जिन्होंने लालू प्रसाद यादव के कायर्काल के दौरान भारी लाभ में चल रही रेलवे को घाटे, दूरंतो और कुछ लोकलुभावन वादों के सिवा ज्यादा कुछ नहीं दिया। दिनेश त्रिवेदी का बजट भाषण भी ममता बनर्जी की तुलना में बेहतर, संतुलित और संयमित था, जिसमें गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की पंक्तियों से लेकर कई शेरों और कविताओं को शामिल कर उन्होंने भाषा तथा अभिव्यक्ति पर ममता बनर्जी से बेहतर पकड़ का परिचय दिया। लेकिन जिस एक बात को शायद तृणमूल कांग्रेस पचा नहीं सकी, वह यह थी कि यह बजट भी ममता बनर्जी के पारंपरिक बजटों से कहीं बेहतर, ज्यादा व्यावहारिक और भविष्योन्मुखी था।

ममता बनर्जी की मांग पर जिन्हें रेल मंत्री बनना है, उन मुकुल राय से बहुत ज्यादा उम्मीद मत लगाइए। ये वही मुकुल राय है जिन्होंने एक ट्रेन हादसे के बाद प्रधानमंत्री द्वारा घटनास्थल पर पहुंचने का निदेर्श मिलने पर टका सा जवाब दिया था कि घटनास्थल को साफ किया जा चुका है और वहां जायजा लेने जैसी कोई जरूरत नहीं है। अलबत्ता, क्षेत्रीय क्षत्रपों की अल्पदृष्टि आधारित, 'सुरक्षित' राजनीति में ऐसे मंत्री ज्यादा अनुकूल समझे जाते हैं। याद कीजिए सुरेश प्रभु को, जिन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के जमाने में शिव सेना ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटवा दिया था जबकि नदियों को जोड़ने की परियोजना जैसे मामलों में उनकी भूमिका उत्कृष्ट रही थी। छोटे दलों के नेताओं को जरूरत से ज्यादा कायर्कुशलता दिखाना भारी पड़ जाता है। आपको दयानिधि मारन भी याद होंगे जिन्हें द्रमुक ने यूपीए.1 के दौरान केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटवाया था।

रेलवे को पटरी पर लाने की कोशिश

दिनेश त्रिवेदी के रेल बजट में नई रेलगाङ़ियों, नई रेलवे लाइनें बिछाने, दोहरीकरण और विद्युतीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ाने, ज्यादा माल ढुलाई और ज्यादा यात्रियों के लक्ष्य जैसे पारंपरिक फीचर तो हैं ही, लालू प्रसाद यादव की तरह बहुत नई जमीन न तोड़ते हुए भी कई किस्म की साहसिक और नई पहल की गई है। लालू प्रसाद यादव के कायर्काल को छोड़ दें तो भारतीय रेल अपना काम चलाने के लिए वित्त मंत्रालय की मेहरबानी पर ही निभ्रर रही है। ममता बनर्जी के कायर्काल में वह फिर से अपनी दयनीय स्थिति में लौट आई थी। लेकिन अब देश जिस किस्म की आर्िथक नीतियों पर चल रहा है, उनकी सफलता के लिए जरूरी है कि हर मंत्रालय आत्मनिभ्रर हो। वह न सिर्फ अपना खर्च खुद उठा सके, नए इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास कर सके बल्कि केंद्र सरकार को भी आर्िथक योगदान दे सके। उस लिहाज से लालू यादव के जमाने में रेलवे ने सही दिशा पकड़ी थी। दिनेश त्रिवेदी ने उसी दिशा को फिर से पकड़कर रेलवे को पटरी पर लाने का प्रयास किया है, हालांकि उनकी शैली लालू प्रसाद से अलग है।

रेल किराये बढ़ाने के मुद्दे पर ममता बनर्जी के पारंपरिक रुख से अवगत होते हुए भी उन्होंने सिर्फ धनी लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली श्रेणियों में ही नहीं बल्कि आम लोगों से जुड़ी श्रेणियों (जनरल डिब्बे और स्लीपर क्लास) के किरायों में भी मामूली बढ़ोत्तरी की है। मिसाल के तौर पर दिल्ली से पटना के बीच जनरल क्लास के किराए में कुल बीस रुपए की वृद्धि। किलोमीटर के लिहाज से जनरल डिब्बे में दो पैसे प्रति किलोमीटर और स्लीपर क्लास में पांच पैसे प्रति किलोमीटर की वृद्धि हुई है जिससे हम रेलयात्रियों को शायद कोई विशेष समस्या न हो लेकिन ममता बनर्जी को तकलीफ है जो खुद को गरीबों की मसीहा मानती हैं। बहरहाल, पार्टी में पीङ़ित और उपेक्षित श्री त्रिवेदी ने शायद अपनी 'राजनैतिक शहादत' से पहले लोकलुभावन कदमों की बजाए आर्थिक हालात के लिहाज से फैसले करना जरूरी समझा क्योंकि, उन्हीं के शब्दों में 'रेलवे को एअर इंडिया की दिशा में नहीं जाने दिया जाना चाहिए।'

रेल सुरक्षा और आधुनिकीकरण पर फोकस

श्री त्रिवेदी के रेल बजट में किराए बढ़ाकर करीब सात हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त राजस्व जुटाने की व्यवस्था की है। इस समय किरायों के मद पर रेलवे को करीब बीस हजार करोड़ रुपए का सालाना नुकसान हो रहा है। रेल मंत्रालय ने केंद्रीय बजट में 45 हजार करोड़ रुपए की मांग की थी लेकिन उसे 24 हजार करोड़ रुपए ही आवंटित किए गए हैं। ऐसे में उसे नए स्रोतों की तलाश, सरकारी और निजी भागीदारी और रेलवे की परिसंपित्तयों के व्यावसायिक दोहन के जरिए एक मजबूत वित्तीय मॉडल तैयार करने की जरूरत है। खासकर तब जब आप सचमुच रेलवे का आधुनिकीकरण करना चाहते हों। श्री त्रिवेदी ने डॉ॰ अनिल काकोदकर और सैम पित्रोदा समितियों द्वारा रेलवे के आधुनिकीकरण और सुरक्षा संबंधी सिफारिशों पर अमल की बात कही है। भारतीय रेलवे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने के लिए यह जरूरी है, लेकिन इन पर अमल का मतलब है अगले पांच साल में करीब दस लाख करोड़ रुपए का निवेश। सिर्फ वित्त मंत्री की उदारता पर निभ्रर रहकर इस किस्म का कायाकल्प संभव नहीं है। श्री त्रिवेदी को अहसास है कि रेलवे के कायाकल्प के लिए जिस किस्म के संसाधनों की जरूरत है, वे निजी क्षेत्र को साथ लिए बिना नहीं जुटाए जा सकते। इसी लिहाज से उन्होंने निजी क्षेत्र के साथ मिलकर रेलवे स्टेशनों के विकास और आधुनिकीकरण के लिए स्टेशन डेवलपमेंट कारपोरेशन की स्थापना का प्रावधान किया है, जिसका उद्योग जगत ने स्वागत किया है। इसके तहत अगले पांच साल में सौ प्रमुख रेलवे स्टेशनों का नए सिरे से विकास किया जाएगा।

रेल दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या के कारण रेलयात्री अपनी सुरक्षा को लेकर लंबे अरसे से आशंकित रहे हैं। सन 2002 से 2001 के बीच कुल मिलाकर 1406 रेल हादसे हो चुके हैं जिनमें एक हजार से ज्यादा लोगों की जान गई है। रेल हादसों की रोकथाम के लिए आधुनिक संचार प्रणालियों और उपकरणों की खरीद पर चर्चा तो कम से कम दो दशकों से हो रही है लेकिन जमीनी स्तर पर हालात बदलते नहीं दिखाई दे रहे। लेकिन इस बार किसी मंत्री ने इन हादसों को गंभीरता से लिया है। श्री त्रिवेदी ने सुरक्षा के लिहाज से ढांचागत सुधार के लिए आठ हजार करोड़ रुपए का आवटन किया है। अगले पांच साल के भीतर बिना फाटक वाले रेलवे क्रासिंग को खत्म करने, एक स्वतंत्र रेलवे सुरक्षा प्राधिकरण की स्थापना, रेलवे सिग्नलिंग सिस्टम के आधुनिकीकरण और उपग्रह आधारित रियल टाइम ट्रेन सूचना प्रणाली शुरू करने जैसे प्रावधान किए गए हैं। तीन हजार किलोमीटर की दूरी में ट्रेनों की भिड़ंत रोकने के लिए हाई.टेक रेलवे प्रोटेक्शन और वार्निंग सिस्टम लगाया जाने वाला है। रेलों और प्लेटफॉर्मों को साफ.सुथरा बनाना भी भले ही छोटा सा काम प्रतीत हो लेकिन यात्रियों की सेहत के लिहाज उसकी अहमियत में कोई संदेह नहीं है। दिनेश त्रिवेदी से ऐसी उम्मीद नहीं थी। कुछ तो उनके राजनैतिक दल के कारण और कुछ उनकी निष्क्रिय सी छवि के कारण भी। लेकिन उन्होंने सबको चौंका दिया है। न सिर्फ रेलवे के बारे में अपनी समझ से, बल्कि अपने विभाग की खातिर राजनैतिक आत्महत्या के लिए तैयार होकर भी। उन्हें यकीनन याद किया जाएगा।

(जागरण में प्रकाशित)
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com