- बालेन्दु शर्मा दाधीच
आतंकवादी जिस तरह समुद्र में तटरक्षकों और स्थानीय सुरक्षा बलों की नजरों से बचते हुए अपने हथियारों के साथ मुंबई शहर में प्रवेश करने में कामयाब हुए वह किसी खुफिया एजेंसी की तरफ से उपलब्ध कराए गए इनपुट के बिना असंभव लगता है।
मुंबई में बमों, हथगोलों और स्वचालित राइफलों से अब तक का सबसे भीषण हमला करने वाले आतंकवादियों ने जिस अंदाज में अपनी घिनौनी कार्रवाई को अंजाम दिया वह महज आतंकवादियों का काम नहीं हो सकता। समुद्र से मुंबई में प्रवेश करना, शहर के प्रमुख होटलों, रेलवे स्टेशनों और ऐसे ही उन अन्य स्थानों पर हमला करना जो मुंबई की पहचान माने जाते हैं, इस हमले के पीछे की शातिराना योजना की ओर इशारा करता है। जिस `प्रोफेशनल` अंदाज में यह सब किया गया और जितनी बड़ी संख्या में आतंकवादी मुंबई के कोने-कोने में फैलकर हमले करने में सफल रहे वह तथाकथित `डेक्कन मुजाहिदीन` जैसे किसी स्थानीय आतंकवादी संगठन की करतूत नहीं हो सकती। मुंबई के हमले ने एक बार फिर `विदेशी हाथ` की आशंका को पुनर्जीवित कर दिया है जिसकी चर्चा करना हमारे नेताओं और सुरक्षा अधिकारियों ने हाल में छोड़ ही दिया था।
मुंबई में अंधाधुंध फायरिंग करते और सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में लगे आतंकवादियों के चित्रों को देखकर अनुमान लग जाता है कि हमलावर बीस से तीस साल की उम्र के युवक हैं। ऐसी उम्र जिसमें धर्म, जेहाद और अन्य उत्तेजक मुद्दे आसानी से मस्तिष्क को प्रभावित कर देते हैं। इस तरह के आतंकवादी पिछले दो-ढाई दशकों से हमारे पश्चिमी पड़ोस में स्थित आतंकवादी फैक्टरियों में खिलौनों की तरह उत्पादित किए जा रहे हैं। उन खिलौनों की तरह जिन्हें दबाने पर सिर्फ एक ही आवाज आती है जो उनमें डाली गई है। ये अपने तथाकथित मिशन के प्रति बेहद प्रतिबद्ध, जान देने को तैयार युवक हैं जो अपने नियंत्रकों के हाथ में रखे रिमोट से संचालित होते हैं। पाकिस्तान के मदरसों और आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों में धार्मिक कुर्बानी के लिए तैयार किए जा रहे हजारों युवकों के मस्तिष्क इस तरह धो-पौंछ दिए जाते हैं कि उनमें सोचने-समझने की शक्ति नहीं रह जाती। उन्हें अपने शिविरों में जो बताया और समझाया जाता है वही अंतिम सत्य है।
अब इस बात की लगभग पुष्टि हो चुकी है कि मुंबई में 26 और 27 नवंबर के हमलों में शामिल आतंकवादी पाकिस्तान से आए थे। वे जिस तरह समुद्र में तटरक्षकों और स्थानीय सुरक्षा बलों की नजरों से बचते हुए अपने हथियारों के साथ मुंबई शहर में प्रवेश करने में कामयाब हुए वह किसी खुफिया एजेंसी की तरफ से उपलब्ध कराए गए इनपुट के बिना असंभव लगता है। पाकिस्तान की इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस ने कश्मीर में अलगाववाद को हवा देने के लिए जनरल जिया उल हक के जमाने में जो छù युद्ध शुरू किया था वह आज कश्मीर से आगे बढ़ते हुए खुद पाकिस्तान, पड़ोसी अफगानिस्तान और भारत के अनेक हिस्सों में फैल चुका है। आतंकवाद के मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा विनाशलीला भोगने वालों में खुद पाकिस्तान शामिल है लेकिन ताज्जुब है कि आज भी उसकी भूमि से विदेशों को आतंकवाद का निर्यात बदस्तूर जारी है। खुद पाकिस्तानी राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों पर अनेक बार आतंकवादी हमले होने, पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की ऐसे ही एक हमले में शहादत के बावजूद अगर यह सिलसिला जारी है तो साफ है कि पाकिस्तानी समाज, अफसरशाही और सैनिक तंत्र के ताने-बाने में जेहादी तत्वों ने बहुत गहरी घुसपैठ कर ली है।
सबसे अलग, सबसे बड़ा हमला
मुंबई में इस बार हुआ हमला भारत में अब तक का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला और भारत का ग्यारह सितंबर करार दिया जा रहा है। वास्तव में यह हमला कई मायनों में पिछले आतंकवादी हमलों से अलग और व्यापक विनाशकारी है। ऐसा संभवत: पहली बार है कि आतंकवादियों ने बम विस्फोट और गोलीबारी दोनों का एक साथ प्रयोग किया हो। दोनों तरह की कार्रवाई एक साथ करने के लिए जिस किस्म की तैयारी और तालमेल की जरूरत है वह आनन-फानन में बनाई गई हमले की योजनाओं से कहीं व्यापक साजिश की ओर इशारा करता है। दूसरे, मृत आतंकवादियों के पास से मुंबई की प्रमुख इमारतों की निशानदेही करने वाले नक्शे बरामद होना दिखाता है कि हमलावरों का मकसद मुंबई की पहचान पर हमला कर देश को एक गहरा संदेश भेजना था। वे आम तौर पर कहीं भी हमला कर भाग खड़े होने वाले हमलावर नहीं थे बल्कि अपने लक्ष्यों के बारे में पूरी तरह स्पष्ट और प्रतिबद्ध थे।
मुंबई के दो प्रमुख पंचतारा होटलों को निशाना बनाने और उनके भीतर घुसकर लोगों को बंधक बनाने की कार्रवाई भी भारत में अब तक हुई आतंकवादी घटनाओं से अलग है। हां, पाकिस्तान में ऐसी घटनाएं राजधानी इस्लामाबाद सहित कई बार हो चुकी हैं। वहां पर इन दिनों अमेरिका के एक संस्थान की तरफ से गढ़े गए एक नए नक्शे पर काफी गुस्से का माहौल है जिसमें पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा पूर्वी दिशा में भारत में और पश्चिमी दिशा में अफगानिस्तान में मिला हुआ दिखाया गया है। इसके खिलाफ कई पाकिस्तानी शहरों में प्रदर्शन हुए हैं। मुंबई में हमला करने वाले आतंकवादी भी ताज और ओबरॉय होटलों में अमेरिकी और ब्रिटिश नागरिकों की तलाश करते देखे गए थे। मारे गए नागरिकों में आधा दर्जन से ज्यादा विदेशियों का होना, और वह भी फायरिंग में, दिखाता है कि हमलावरों का मकसद सिर्फ भारत को त्रस्त करना ही नहीं बल्कि उन वैश्विक शक्तियों पर भी हमला करना था जिनसे अल-कायदा, पाकिस्तानी तालिबान या वहां के अन्य आतंकवादी तत्वों को खतरा है।
काहे का खुफिया और सुरक्षा तंत्र!
ऐसे हमलों के समय हमारी सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी का बार-बार पर्दाफाश होता है और ताज्जुब की बात है कि देश में आंतरिक सुरक्षा की स्थायी देखरेख की व्यवस्था लगभग नदारद दिखाई देती है। मुंबई के हमलों के बाद उस शहर और गिने-चुने अन्य शहरों में सुरक्षा व्यवस्था चौकस कर दी जाएगी लेकिन पांच-सात दिन बाद स्थिति फिर से पुराने ढर्रे पर लौट आएगी। आखिर क्यों हमारी सुरक्षा एजेंसियों, पुलिस और खुफिया एजेंसियों में अपने दायित्वों के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव है? आखिर क्यों वे देश के नागरिकों की सुरक्षा की अपनी स्वाभाविक ड्यूटी को सबसे निचली प्राथमिकता देते हैं? दो दशक से भी अधिक समय से चली आ रही आतंकवादी घटनाओं के बावजूद हमारी खुफिया एजेंसियां न तो आतंकवादियों के ढांचे में घुसपैठ करने में सक्षम हुई हैं और न ही सुरक्षा एजेंसियां अपनी सतर्कता और चुस्ती के दम पर हमले रोकने में कामयाब। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो मुंबई में मारे गए सैकड़ों लोगों की जान नहीं जाती और एटीएस के एक दर्जन बहादुर जवानों और उसके प्रमुख हेमंत करकरे को शहादत नहीं देनी पड़ती।
सच है कि जब आतंकवादी जान देने पर आ जाएं तो उन्हें वारदात करने से रोकना लगभग असंभव है लेकिन यहां तो खुद मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख ने स्वीकार किया है कि वे समुद्र के रास्ते से आए थे। यानी गुप्तचर एजेंसियों की तो छोड़िए, वे सुरक्षा की दो परतें लांघने में सफल रहे। पहली, तटरक्षक बल और दूसरी मुंबई पुलिस। आतंकवादी इनमें से किसी को भी कानोंकान हवा होने से पहले ही अपने गंतव्य तक पहुंच गए। अगर मार्ग में उन्हें किसी मुठभेड़ का सामना करना पड़ता तो `आत्मघाती हमलावर` जैसे तर्कों का अर्थ समझ में आता है। लेकिन जब उन्हें कहीं किसी तरह की चुनौती ही नहीं मिली तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि वे आत्मघाती थे या नहीं।
भारत की आर्थिक राजधानी होने के नाते मुंबई आतंकवादियों के निशानों में प्रमुख है। भारत के जिन दो-तीन शहरों ने आतंकवाद का प्रहार सबसे ज्यादा झेला है उनमें राजधानी दिल्ली के अलावा मुंबई भी प्रमुख है। बावजूद इसके, मुंबई की सुरक्षा व्यवस्था में कोई सुधार दिखाई नहीं देता और कुछ महीनों बाद फिर कोई न कोई घटना हो जाती है। आखिर क्यों हम अपनी सुरक्षा के लिए जरूरी कठोरतम कानून नहीं बनाते, क्यों अपने सुरक्षा एजेंसियों को आतंकवाद का ढक्कन बंद करने के लिए जरूरी शक्तियों व संसाधनों से लैस करते और उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करते? आतंकवाद से राष्ट्रीय स्तर पर निपटने के लिए जिस एजेंसी के गठन की तुरंत जरूरत है वह क्यों फाइलों और बैठकों की भीड़ में अटक गई है? अब अपने बेकसूर नागरिकों के लिए यह देश किसे दोष दे, आतंकवादियों को या अपने रक्षकों को?
Thursday, November 27, 2008
Friday, November 21, 2008
`जनशक्ति` वाले राष्ट्र की `जलशक्ति` भी तो देखिए
बालेन्दु शर्मा दाधीच
सोमालियाई जलदस्युओं का प्रमुख जहाज डुबोने की नौसैनिक कार्रवाई को एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए- न सिर्फ जलदस्यु संकट के समाधान की दिशा में, बल्कि भारतीय नौसेना की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय भूमिका के संदर्भ में भी। शाबास नौसेना! और यह भी मत भूलिए कि आपने अपनी इस कार्रवाई से भविष्य के लिए देश की उम्मीदें बढ़ा ली हैं।
कई दशकों का परमाणु वनवास खत्म करने वाला भारत-अमेरिका परमाणु करार, वैश्विक वित्तीय संकट से निपटने के लिए आयोजित शीर्ष रणनीति बैठक (जी-20) में हमारी हिस्सेदारी, भारत के पहले चंद्रयान अभियान की सफलता, आस्ट्रेलियाई टेस्ट क्रिकेट टीम को कई दशकों बाद किसी टीम से मिली 0-2 की हार, पेईचिंग ओलंपिक खेलों में अभिनव बिन्द्रा का स्वर्ण पदक और अदन की खाड़ी में सोमालियाई जलदस्युओं का जहाज मार गिराने का भारतीय नौसेना का वीरतापूर्ण कारनामा। अलग-अलग क्षेत्रों में हुई इन विलक्षण घटनाओं में एक समानता है। इसी साल घटित हुई ये सभी घटनाएं विश्व मानचित्र पर भारत रूपी शक्ति के उभार का संकेत देती हैं। ये सभी घटनाएं एक सफल, शक्ति-सम्पन्न और विकासमान राष्ट्र के बढ़ते आत्मविश्वास को परिलक्षित करती हैं।
अदन की खाड़ी में कई वर्षों से विश्व जल-परिवहन व्यवस्था जलदस्युओं के आतंक से ग्रस्त है। भारतीय नौसेना ने वहां अपनी मौजूदगी के पहले दस दिनों में ही तीन बड़े साहसिक अभियानों को अंजाम दिया है जो वहां मौजूद अन्य देशों के नौसैनिक बेड़ों के लिए एक मिसाल बनने जा रहे हैं। आज नहीं तो कल, सोमालिया में जलदस्युओं की समस्या को हल करने के लिए समिन्वत अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई होनी तय है। यह बड़ी बात है कि जिन जलदस्युओं के आतंक से अमेरिका, रूस, सऊदी अरब, जापान और अन्य देश भी ग्रस्त हैं उनसे सीधे मुकाबले की शुरूआत हमने की है। यह एक अहम अंतरराष्ट्रीय भूमिका निभाने की विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की स्वाभाविक आकांक्षाओं की बानगी है। भारत को सबसे बड़े जनशक्ति-सम्पन्न राष्ट्र के रूप में जाना जाता है। इस घटना ने दुनिया को हमारी ब्लूवाटर नेवी की जलशक्ति भी दिखा दी है।
विश्व भर के अखबारों में भारत की इस कार्रवाई की चर्चा है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने भारत की कार्रवाई का प्रबल समर्थन किया है और अमेरिका ने इसकी मिसाल जलदस्युओं की समस्या के विरुद्ध वैिश्वक कार्रवाई की शुरूआत के रूप में दी है। इंटरनेशनल मैरीटाइम ब्यूरो के प्रमुख नोएल चूंग से लेकर पूर्व अमेरिकी रक्षा मंत्री रिचर्ड कोहेन और दक्षिण अफ्रीकी नौसेनाध्यक्ष मैगलेफा तक ने नौसेना की तारीफ की है। खाड़ी देशों ने भारतीय नौसेना को अपने बंदरगाहों के इस्तेमाल की इजाजत देने की पेशकश की है। अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता शॉन मैक्कॉरमैक ने कहा है कि भारतीय जंगी जहाज `तबार` ने सोमालियाई जलदस्युओं के मुख्य जहाज को डुबोने के साथ-साथ कुछ जलदस्युओं को गिरफ्तार भी किया है, जो इस समस्या के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय प्रत्युत्तर का प्रतीक है। उन्होंने कहा है कि भारत, अमेरिका, रूस, नाटो आदि के जहाज तो वहां तैनात हैं ही, अब संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर एक व्यापक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की तैयारी की जा रही है।
एक अंतरराष्ट्रीय चुप्पी जो भारत ने तोड़ी
ऐसा लगता है कि जो विश्व शक्तियां अब तक सोमालियाई जलदस्युओं से सीधे मुकाबले से िझझक रही थीं उनका संकोच भारत की इस पहल के बाद खुल जाएगा। दो व्यापारिक पोतों को अपहृत होने से रोकने और समुद्री डाकुओं के एक जहाज को नष्ट करके भारतीय नौसेना ने यकायक विश्व भर में जो प्रतिष्ठा अर्जित कर ली है उसकी मिसाल हाल के इतिहास में नहीं मिलती। ऐसा पिछली बार कब हुआ है जब भारतीय नौसेना का नाम रूस, अमेरिका और नाटो की जलसेनाओं के साथ आया हो? भला ऐसा कब होता है जब भारतीय नौसेना विश्व समुदाय से सीधे अपील करे कि सोमालियाई जलदस्युओं की विकट समस्या के समाधान के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समिन्वत कार्रवाई की जरूरत है? वह जलदस्युओं से त्रस्त क्षेत्र में न सिर्फ और जंगी जहाज तैनात करने जा रही है बल्कि अब अपनी कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखेगी बल्कि जरूरत पड़ी तो जलदस्युओं का पीछा करते हुए सोमालियाई जल क्षेत्र की सीमा के भीतर भी प्रवेश करेगी। लगता है भारतीय नौसेना धीरे-धीरे उस भूमिका में आ रही है जो बंगाल की खाड़ी, हिंद महासागर और अरब सागर के विशाल समुद्रों की संरक्षक के रूप में उसकी होनी ही चाहिए।
जब हम बच्चे थे तो कहानियों में समुद्री दस्युओं की कथाएं पढ़ा करते थे। लेकिन आज के आधुनिक युग में जबकि टेक्नॉलॉजी, अर्थव्यवस्था और रक्षा तंत्र इतने मजबूत हो गए हैं तब भी सोमालिया, यमन और ओमान के जल-क्षेत्र में जलदस्यु मौजूद हों और सफलता से बड़ी से बड़ी ताकतों के जहाजों का अपहरण कर फिरौती वसूल कर रहे हों, यह आश्चर्यजनक लगता है। लेकिन यही असलियत है। जावा समुद्र के सुदूर द्वीपों से लेकर मलक्का जलडमरूमध्य के नन्हें द्वीपों तक और सोमालिया, यमन से लेकर ओमान तक के जल क्षेत्र (अदन की खाड़ी) में जलदस्युओं का आतंक व्याप्त है। खास बात यह है कि यह कोई छोटे-मोटे जहाजी हमले नहीं हैं बल्कि जलदस्युओं ने बाकायदा छोटी-मोटी नौसेनाओं की तरह काम करना शुरू कर दिया है। उन्हें सोमालियाई नेताओं और कारोबारियों का समर्थन हासिल है और जहाजों का अपहरण करके फिरौती वसूलना एक तरह से उस क्षेत्र के बड़े स्थानीय कारोबार का रूप ले चुका है। इसी साल करीब सौ व्यापारिक मालवाही जहाजों को अदन की खाड़ी में अपहृत किया जा चुका है। हर साल करीब बीस हजार तेलवाहक, मालवाहक और व्यापारी जहाज हर साल अदन की खाड़ी से गुजरते हैं। जलदस्यु इतने ताकतवर, तकनीक-समृद्ध और रणनीतिज्ञ हो गए हैं कि उनके लिए इनमें से कुछेक को चुनना और अपने इलाके में हांक लाना असंभव नहीं रह गया है। इन दुस्साहसिक अभियानों के दौरान उन्होंने विश्व के सबसे बड़े तेलवाहक जहाज से लेकर 33 रूसी टैंकों को लेकर जा रहे पोत तक को नहीं बख्शा। ताज्जुब की बात यह है कि ऐसी कई घटनाएं उस इलाके में अमेरिकी सैन्य मौजूदगी के बावजूद हुई हैं। अमेरिकी नौसेना का पांचवां बेड़ा और नाटो के जहाज लंबे समय से वहां गश्त कर रहे हैं।
निर्णायक कार्रवाई की जरूरत
अनेक देशों के जंगी जहाजों की मौजूदगी के बावजूद समस्या इतना गंभीर रूप इसलिए ले रही है क्योंकि इन जहाजों के बीच किसी तरह का तालमेल नहीं है। ऐसी कोई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था नहीं है जिसके तहत ये जहाज अपने क्षेत्र से गुजरते किसी भी राष्ट्र के जहाजों की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हों। न ही उन्हें संबंधित क्षेत्रों के जल क्षेत्रों में घुसकर कार्रवाई करने का अधिकार हासिल है। खुद सोमालिया भी इस समय राजनैतिक अराजकता की स्थिति से गुजर रहा है। वहां कोई प्रभावी राजनैतिक तंत्र ही मौजूद नहीं है तो अपराधों की रोकथाम की फिक्र कौन करे और जलदस्युओं के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के साथ तालमेल कौन करे? जलदस्युओं के ज्यादातर हमले पन्टलैंड नामक इलाके से हो रहे हैं जो सोमालिया का गृहयुद्ध ग्रस्त, अर्ध-स्वतंत्र क्षेत्र है। ऐसी भी खबरें हैं कि अलकायदा जैसे इस्लामी आतंकवादी संगठन सोमालिया जैसे गरीबी और अराजकता भरे राष्ट्रों में अपनी जड़ें फैला रहे हैं।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि जलदस्युओं के आतंक से ग्रस्त समुद्री क्षेत्र बहुत ज्यादा बड़ा है। इसका आकार करीब दस लाख वर्ग मील बताया जाता है जिसे किसी भी एक देश की नौसेना सुरक्षित नहीं कर सकती। अमेरिकी विदेश विभाग भी इस बात को मानता है। उसका कहना है कि यह एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है जिसे अमेरिका अकेला हल नहीं कर सकता। हाल ही में जलदस्युओं ने दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली अमेरिकी नौसेना की नाक के नीचे से करीब दस करोड़ डालर के कच्चे तेल से भरे जिस सऊदी जहाज `सुपरटैंकर` को अगवा कर लिया। अमेरिकी नौसेना लगातार सफाई दे रही है कि वह ऐसी घटनाओं को तभी रोक सकती है जब उसके जंगी जहाज जलदस्युओं तक दस मिनट के भीतर पहुंचने की स्थित में हों। शॉन मैक्कॉरमैक के ही अनुसार- भले ही इलाके में अनेक विश्व शक्तियों की नौसैनिक मौजूदगी हो लेकिन वे भी कुछ सीमाओं के भीतर काम करती हैं। इसीलिए इस मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को शामिल किए जाने की कोशिश चल रही है ताकि एक प्रस्ताव कर इन सीमाओं को हल किया जा सके।
भारतीय नौसेना द्वारा सोमालियाई जहाज को गिराने की कार्रवाई जलदस्यु समस्या का समाधान कर देगी ऐसा नहीं है। संकट का अंतिम समाधान तो संयुक्त राष्ट्र के दिशानिर्देशन में किसी व्यापक सुरक्षा तंत्र की स्थापना के जरिए ही हो सकेगा। लेकिन यह उसी लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में एक बड़ा प्रहार जरूर है। उसने न सिर्फ समस्या की गंभीरता की ओर विश्व का ध्यान खींचा है बल्कि उससे निपटने का कड़ा तरीका भी स्पष्ट किया है। इस कार्रवाई से उस क्षेत्र से गुजरने वाले जहाजों में कुछ हद तक विश्वास का संचार जरूर हुआ होगा, भले ही वे किसी भी देश के हों। इसे एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए, न सिर्फ जलदस्यु संकट के समाधान की दिशा में, बल्कि भारतीय नौसेना की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय भूमिका के संदर्भ में भी। शाबास नौसेना! और यह भी मत भूलिए कि आपने अपनी इस कार्रवाई से भविष्य के लिए देश की उम्मीदें बढ़ा ली हैं।
सोमालियाई जलदस्युओं का प्रमुख जहाज डुबोने की नौसैनिक कार्रवाई को एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए- न सिर्फ जलदस्यु संकट के समाधान की दिशा में, बल्कि भारतीय नौसेना की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय भूमिका के संदर्भ में भी। शाबास नौसेना! और यह भी मत भूलिए कि आपने अपनी इस कार्रवाई से भविष्य के लिए देश की उम्मीदें बढ़ा ली हैं।
कई दशकों का परमाणु वनवास खत्म करने वाला भारत-अमेरिका परमाणु करार, वैश्विक वित्तीय संकट से निपटने के लिए आयोजित शीर्ष रणनीति बैठक (जी-20) में हमारी हिस्सेदारी, भारत के पहले चंद्रयान अभियान की सफलता, आस्ट्रेलियाई टेस्ट क्रिकेट टीम को कई दशकों बाद किसी टीम से मिली 0-2 की हार, पेईचिंग ओलंपिक खेलों में अभिनव बिन्द्रा का स्वर्ण पदक और अदन की खाड़ी में सोमालियाई जलदस्युओं का जहाज मार गिराने का भारतीय नौसेना का वीरतापूर्ण कारनामा। अलग-अलग क्षेत्रों में हुई इन विलक्षण घटनाओं में एक समानता है। इसी साल घटित हुई ये सभी घटनाएं विश्व मानचित्र पर भारत रूपी शक्ति के उभार का संकेत देती हैं। ये सभी घटनाएं एक सफल, शक्ति-सम्पन्न और विकासमान राष्ट्र के बढ़ते आत्मविश्वास को परिलक्षित करती हैं।
अदन की खाड़ी में कई वर्षों से विश्व जल-परिवहन व्यवस्था जलदस्युओं के आतंक से ग्रस्त है। भारतीय नौसेना ने वहां अपनी मौजूदगी के पहले दस दिनों में ही तीन बड़े साहसिक अभियानों को अंजाम दिया है जो वहां मौजूद अन्य देशों के नौसैनिक बेड़ों के लिए एक मिसाल बनने जा रहे हैं। आज नहीं तो कल, सोमालिया में जलदस्युओं की समस्या को हल करने के लिए समिन्वत अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई होनी तय है। यह बड़ी बात है कि जिन जलदस्युओं के आतंक से अमेरिका, रूस, सऊदी अरब, जापान और अन्य देश भी ग्रस्त हैं उनसे सीधे मुकाबले की शुरूआत हमने की है। यह एक अहम अंतरराष्ट्रीय भूमिका निभाने की विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की स्वाभाविक आकांक्षाओं की बानगी है। भारत को सबसे बड़े जनशक्ति-सम्पन्न राष्ट्र के रूप में जाना जाता है। इस घटना ने दुनिया को हमारी ब्लूवाटर नेवी की जलशक्ति भी दिखा दी है।
विश्व भर के अखबारों में भारत की इस कार्रवाई की चर्चा है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने भारत की कार्रवाई का प्रबल समर्थन किया है और अमेरिका ने इसकी मिसाल जलदस्युओं की समस्या के विरुद्ध वैिश्वक कार्रवाई की शुरूआत के रूप में दी है। इंटरनेशनल मैरीटाइम ब्यूरो के प्रमुख नोएल चूंग से लेकर पूर्व अमेरिकी रक्षा मंत्री रिचर्ड कोहेन और दक्षिण अफ्रीकी नौसेनाध्यक्ष मैगलेफा तक ने नौसेना की तारीफ की है। खाड़ी देशों ने भारतीय नौसेना को अपने बंदरगाहों के इस्तेमाल की इजाजत देने की पेशकश की है। अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता शॉन मैक्कॉरमैक ने कहा है कि भारतीय जंगी जहाज `तबार` ने सोमालियाई जलदस्युओं के मुख्य जहाज को डुबोने के साथ-साथ कुछ जलदस्युओं को गिरफ्तार भी किया है, जो इस समस्या के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय प्रत्युत्तर का प्रतीक है। उन्होंने कहा है कि भारत, अमेरिका, रूस, नाटो आदि के जहाज तो वहां तैनात हैं ही, अब संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर एक व्यापक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की तैयारी की जा रही है।
एक अंतरराष्ट्रीय चुप्पी जो भारत ने तोड़ी
ऐसा लगता है कि जो विश्व शक्तियां अब तक सोमालियाई जलदस्युओं से सीधे मुकाबले से िझझक रही थीं उनका संकोच भारत की इस पहल के बाद खुल जाएगा। दो व्यापारिक पोतों को अपहृत होने से रोकने और समुद्री डाकुओं के एक जहाज को नष्ट करके भारतीय नौसेना ने यकायक विश्व भर में जो प्रतिष्ठा अर्जित कर ली है उसकी मिसाल हाल के इतिहास में नहीं मिलती। ऐसा पिछली बार कब हुआ है जब भारतीय नौसेना का नाम रूस, अमेरिका और नाटो की जलसेनाओं के साथ आया हो? भला ऐसा कब होता है जब भारतीय नौसेना विश्व समुदाय से सीधे अपील करे कि सोमालियाई जलदस्युओं की विकट समस्या के समाधान के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समिन्वत कार्रवाई की जरूरत है? वह जलदस्युओं से त्रस्त क्षेत्र में न सिर्फ और जंगी जहाज तैनात करने जा रही है बल्कि अब अपनी कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखेगी बल्कि जरूरत पड़ी तो जलदस्युओं का पीछा करते हुए सोमालियाई जल क्षेत्र की सीमा के भीतर भी प्रवेश करेगी। लगता है भारतीय नौसेना धीरे-धीरे उस भूमिका में आ रही है जो बंगाल की खाड़ी, हिंद महासागर और अरब सागर के विशाल समुद्रों की संरक्षक के रूप में उसकी होनी ही चाहिए।
जब हम बच्चे थे तो कहानियों में समुद्री दस्युओं की कथाएं पढ़ा करते थे। लेकिन आज के आधुनिक युग में जबकि टेक्नॉलॉजी, अर्थव्यवस्था और रक्षा तंत्र इतने मजबूत हो गए हैं तब भी सोमालिया, यमन और ओमान के जल-क्षेत्र में जलदस्यु मौजूद हों और सफलता से बड़ी से बड़ी ताकतों के जहाजों का अपहरण कर फिरौती वसूल कर रहे हों, यह आश्चर्यजनक लगता है। लेकिन यही असलियत है। जावा समुद्र के सुदूर द्वीपों से लेकर मलक्का जलडमरूमध्य के नन्हें द्वीपों तक और सोमालिया, यमन से लेकर ओमान तक के जल क्षेत्र (अदन की खाड़ी) में जलदस्युओं का आतंक व्याप्त है। खास बात यह है कि यह कोई छोटे-मोटे जहाजी हमले नहीं हैं बल्कि जलदस्युओं ने बाकायदा छोटी-मोटी नौसेनाओं की तरह काम करना शुरू कर दिया है। उन्हें सोमालियाई नेताओं और कारोबारियों का समर्थन हासिल है और जहाजों का अपहरण करके फिरौती वसूलना एक तरह से उस क्षेत्र के बड़े स्थानीय कारोबार का रूप ले चुका है। इसी साल करीब सौ व्यापारिक मालवाही जहाजों को अदन की खाड़ी में अपहृत किया जा चुका है। हर साल करीब बीस हजार तेलवाहक, मालवाहक और व्यापारी जहाज हर साल अदन की खाड़ी से गुजरते हैं। जलदस्यु इतने ताकतवर, तकनीक-समृद्ध और रणनीतिज्ञ हो गए हैं कि उनके लिए इनमें से कुछेक को चुनना और अपने इलाके में हांक लाना असंभव नहीं रह गया है। इन दुस्साहसिक अभियानों के दौरान उन्होंने विश्व के सबसे बड़े तेलवाहक जहाज से लेकर 33 रूसी टैंकों को लेकर जा रहे पोत तक को नहीं बख्शा। ताज्जुब की बात यह है कि ऐसी कई घटनाएं उस इलाके में अमेरिकी सैन्य मौजूदगी के बावजूद हुई हैं। अमेरिकी नौसेना का पांचवां बेड़ा और नाटो के जहाज लंबे समय से वहां गश्त कर रहे हैं।
निर्णायक कार्रवाई की जरूरत
अनेक देशों के जंगी जहाजों की मौजूदगी के बावजूद समस्या इतना गंभीर रूप इसलिए ले रही है क्योंकि इन जहाजों के बीच किसी तरह का तालमेल नहीं है। ऐसी कोई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था नहीं है जिसके तहत ये जहाज अपने क्षेत्र से गुजरते किसी भी राष्ट्र के जहाजों की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हों। न ही उन्हें संबंधित क्षेत्रों के जल क्षेत्रों में घुसकर कार्रवाई करने का अधिकार हासिल है। खुद सोमालिया भी इस समय राजनैतिक अराजकता की स्थिति से गुजर रहा है। वहां कोई प्रभावी राजनैतिक तंत्र ही मौजूद नहीं है तो अपराधों की रोकथाम की फिक्र कौन करे और जलदस्युओं के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के साथ तालमेल कौन करे? जलदस्युओं के ज्यादातर हमले पन्टलैंड नामक इलाके से हो रहे हैं जो सोमालिया का गृहयुद्ध ग्रस्त, अर्ध-स्वतंत्र क्षेत्र है। ऐसी भी खबरें हैं कि अलकायदा जैसे इस्लामी आतंकवादी संगठन सोमालिया जैसे गरीबी और अराजकता भरे राष्ट्रों में अपनी जड़ें फैला रहे हैं।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि जलदस्युओं के आतंक से ग्रस्त समुद्री क्षेत्र बहुत ज्यादा बड़ा है। इसका आकार करीब दस लाख वर्ग मील बताया जाता है जिसे किसी भी एक देश की नौसेना सुरक्षित नहीं कर सकती। अमेरिकी विदेश विभाग भी इस बात को मानता है। उसका कहना है कि यह एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है जिसे अमेरिका अकेला हल नहीं कर सकता। हाल ही में जलदस्युओं ने दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली अमेरिकी नौसेना की नाक के नीचे से करीब दस करोड़ डालर के कच्चे तेल से भरे जिस सऊदी जहाज `सुपरटैंकर` को अगवा कर लिया। अमेरिकी नौसेना लगातार सफाई दे रही है कि वह ऐसी घटनाओं को तभी रोक सकती है जब उसके जंगी जहाज जलदस्युओं तक दस मिनट के भीतर पहुंचने की स्थित में हों। शॉन मैक्कॉरमैक के ही अनुसार- भले ही इलाके में अनेक विश्व शक्तियों की नौसैनिक मौजूदगी हो लेकिन वे भी कुछ सीमाओं के भीतर काम करती हैं। इसीलिए इस मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को शामिल किए जाने की कोशिश चल रही है ताकि एक प्रस्ताव कर इन सीमाओं को हल किया जा सके।
भारतीय नौसेना द्वारा सोमालियाई जहाज को गिराने की कार्रवाई जलदस्यु समस्या का समाधान कर देगी ऐसा नहीं है। संकट का अंतिम समाधान तो संयुक्त राष्ट्र के दिशानिर्देशन में किसी व्यापक सुरक्षा तंत्र की स्थापना के जरिए ही हो सकेगा। लेकिन यह उसी लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में एक बड़ा प्रहार जरूर है। उसने न सिर्फ समस्या की गंभीरता की ओर विश्व का ध्यान खींचा है बल्कि उससे निपटने का कड़ा तरीका भी स्पष्ट किया है। इस कार्रवाई से उस क्षेत्र से गुजरने वाले जहाजों में कुछ हद तक विश्वास का संचार जरूर हुआ होगा, भले ही वे किसी भी देश के हों। इसे एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए, न सिर्फ जलदस्यु संकट के समाधान की दिशा में, बल्कि भारतीय नौसेना की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय भूमिका के संदर्भ में भी। शाबास नौसेना! और यह भी मत भूलिए कि आपने अपनी इस कार्रवाई से भविष्य के लिए देश की उम्मीदें बढ़ा ली हैं।
Thursday, November 6, 2008
अमेरिकी मतपेटियों से निकली एक सामाजिक क्रांति
राष्ट्रपति बनना तो दूर, अगर ओबामा चार-पांच दशक पहले होते तो शायद अमेरिका के किसी क्लब या होटल तक में प्रवेश नहीं कर सकते थे। उनकी ऐतिहासिक और चमत्कारिक जीत दिखाती है कि अमेरिका वाकई बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है। सामाजिक-राजनैतिक क्रांतियां रक्तरंजित ही हों और गृहयुद्धों के जरिए ही आएं यह जरूरी नहीं है। इस चुनाव ने दिखाया है कि वे मतपत्रों के रास्ते से भी आती हैं।
- बालेन्दु दाधीच
बराक `हुसैन` ओबामा जिस अमेरिका में राष्ट्रपति का पद संभालने जा रहे हैं वह कुछ महीनों यहां तक कि कुछ हफ्तों पहले का अमेरिका भी नहीं है। वह एक नया अमेरिका है। एक बदला हुआ देश। विन्स्टन चर्चिल ने एक बार कहा था कि अमेरिकी किसी भी नए विकल्प को तब तक नहीं आजमाते जब तक कि वे सभी पुराने विकल्पों को आजमाकर थक न जाएं। ओबामा की ऐतिहासिक और चमत्कारिक जीत दिखाती है कि अमेरिका उसी तरह के एक क्षण से गुजर रहा है। राष्ट्रपति बनना तो दूर, अगर ओबामा चार-पांच दशक पहले होते तो शायद वे अमेरिका के किसी क्लब या होटल तक में प्रवेश नहीं कर सकते थे।
व्हाइट हाउस में बराक ओबामा के आने का सिर्फ सांकेतिक महत्व नहीं है। यह विजय इसलिए भी अद्वितीय है कि उनका मध्य नाम `हुसैन` है (हालांकि इस्लाम में उनकी आस्था विवाद का विषय है)। ऐसा हुसैन जो हनुमानजी की मूर्ति और मदर मेरी का प्रतीक-चिन्ह अपने सीने से लगाकर रखते हैं। उनकी विजय इसलिए भी यादगार है कि वे एक केन्याई पिता के पुत्र हैं। यह एक घटना अमेरिकी इतिहास की न जाने कितनी सामाजिक-सांस्कृतिक विडंबनाओं-विषमताओं को अपदस्थ करने जा रही है। वह अमेरिकी समाज की एकता और समरसता के नए मायने गढ़ने जा रही है, विश्व को पहले से अधिक करीब लाने जा रही है।
सदियों से दमन, हताशा, पीड़ा, गरीबी और उपेक्षा झेल रहे अश्वेत समुदाय को इन चुनावों ने ऐसे आत्मविश्वास से भर दिया है जो पहले कभी नहीं देखा गया। पहली बार उनकी दमित, दलित उमंगें शरीर और मन से बाहर निकलकर इस तरह अभिव्यक्त हुई हैं। हालांकि बराक ओबामा ने अपने चुनाव अभियान के दौरान कभी भी अपने अश्वेत होने का मुद्दा नहीं उठाया, शायद रणनीतिक समझदारी के तौर पर या फिर रंग और वर्ग की सीमाओं से ऊपर उठ चुके एक महान राजनेता के तौर पर, लेकिन दुनिया भर के अश्वेतों में अमेरिकी चुनाव ने एक युगांतरकारी संदेश भेजा है। समानता का संदेश, जो महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग के सपनों के सच होने की आश्वस्ति पैदा करता है। शायद दुनिया अब आत्म-श्रेष्ठता, असमानता और अहंवाद की राजनीति चलाने वालों के प्रभुत्व से मुक्त हो जाए। इन चुनावों में सिर्फ ओबामा ही क्षुद्र विभाजनों से ऊपर नहीं उठे हैं, पूरा अमेरिका ऊपर उठा है।
अमेरिकी समाज की बदलती संरचना
अमेरिकी समाज सिर्फ विचारों में ही नहीं, संरचना में भी बदल रहा है। अमेरिकी राजनीति में श्वेतों का पारंपरिक वर्चस्व धीरे-धीरे एक अधिक उदार और समानता-आधारित व्यवस्था की ओर आगे बढ़ रहा है। इसका एक बड़ा कारण वहां हो रहे जनसंख्यामूलक परिवर्तन भी हैं। अमेरिकी जनसंख्या ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2042 तक अमेरिका में श्वेत समुदाय अल्पसंख्यक हो जाएगा। वहां अश्वेतों, एशियाई समुदाय के लोगों और हिस्पैनिकों (उत्तर अमेरिका के मूल निवासी) संख्या में तेजी से और उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। हालांकि इस वृद्धि के लिए भी उस देश की बहुलतावादी और लोकतांत्रिक नीतियों को श्रेय दिया जाना चाहिए जो अमेरिका में सांस्कृतिक विविधता बढ़ाने के लिहाज से गढ़ी गई हैं। अमेरिका की तुलना खाड़ी देशों से करके देखिए जहां के मूल निवासी आप्रवासियों की तुलना में बहुत कम हैं लेकिन इस विशालकाय जनसंख्या-वर्ग का उन देशों की व्यवस्था या राजनीति में कोई दखल नहीं। अमेरिका में ऐसा नहीं है।
ओबामा की जीत के राजनैतिक और रणनीतिक मायने भी हैं। भले ही अमेरिका आज भी विश्व की सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति है लेकिन उसके प्रभुत्व के सामने स्पष्ट चुनौतियां उभर रही हैं। चीन के उदय, रूस की दोबारा जागती महत्वाकांक्षाओं, भारत जैसी आर्थिक शक्तियों के उभार और खाड़ी देशों की अपरिमित आर्थिक शक्ति की अनदेखी नहीं की जा सकती। आधुनिक विश्व इतिहास में संभवत: पहली बार अमेरिका दबाव में है। आम अमेरिकी मतदाता को लगता है कि मौजूदा नेताओं के पास उसके वैिश्वक प्रभुत्व को बनाए रखने के फार्मूले नहीं है। उन्हें ऐसे नेता की जरूरत है जिसकी लोकिप्रयता और स्वीकार्यता विश्वव्यापी हो। ऐसा नेता, जो अमेरिकी गौरव और वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने की क्षमता रखता हो। ओबामा की चुनावी परीक्षा हो चुकी है और प्रशासनिक परीक्षा होनी बाकी है। लेकिन उनके चमत्कारिक उदय ने अमेरिकियों और विश्व नागरिकों के मन में बहुत सी अनचीन्ही क्षमताओं की उम्मीद जगाई है।
जरूरत एक प्रखर नेता की
इस तथ्य को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि आज अमेरिकी राजनैतिक व्यवस्था संभवत: इस सदी के सबसे गंभीर आर्थिक और विकट राजनैतिक संकट से गुजर रही है। उपचार के पारंपरिक तौरतरीके लगभग निष्प्रभावी सिद्ध हो चुके हैं और बीमारी गंभीर से गंभीरतम होती जा रही हैं। अमेरिका को अपनी तकलीफों के इलाज के लिए नई पद्धतियों, नए विचारों, लीक से हटकर सोचने वाले नेतृत्व की जरूरत है। राष्ट्रपति चुनाव के ताजा मतदान के जरिए उसने एक ऐसी सामाजिक क्रांति कर दी है जिसके राजनैतिक और आर्थिक नतीजे भी ऐतिहासिक ही होंगे। न सिर्फ अमेरिका के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए। बराक ओबामा के पास भले ही सरकार चलाने का अनुभव न हो, लेकिन उन्होंने अमेरिका और विश्व की समस्याओं पर एक साफ-साहसिक समझबूझ का प्रदर्शन किया है। भले ही आपको उनके विचार अपने अनुकूल लगें या नहीं लेकिन उनका संदेश साफ है। वे विदेश नीति के जटिल मुÌों से लेकर आर्थिक गुित्थयों तक कहीं भी भ्रमित नजर नहीं आए हैं। राष्ट्रपति चुनाव की बहसों के दौरान जिस तरह उन्होंने अमेरिकी आर्थिक दुर्दशा, इराक-अफगानिस्तान-पाकिस्तान में अमेरिका की भूमिका, ग्लोबल वार्मिग, विदेश नीतियों, करों की स्थिति आदि पर जवाब दिए उससे जाहिर है कि उनके पास एक `राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक विज़न` है। अमेरिका ने इसी विजन पर दांव लगाया है।
यह युवा शक्ति की जीत भी है। अमेरिकी चुनावों में पारंपरिक रूप से नवदंपतियों, खासकर छोटे बच्चों के माता-पिता जिन्हें `बेबी बूमर्स` कहा जाता है, की निर्णायक भूमिका रही है। रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेट भी, इस समुदाय को प्रसन्न करने के लिहाज से नीतियां और कार्यक्रम बनाते हैं, उन्हें प्रचारित करते हैं। लेकिन इस बार अमेरिका के युवाओं, विशेषकर पहली बार मतदान का अवसर पाने वाले युवाओं ने ओबामा का खुले दिल से समर्थन किया। इकहत्तर साल के जॉन मैक्कैन की तुलना में युवा, ऊर्जावान और प्रखर वक्ता बराक ओबामा स्वाभाविक रूप से दिलों के अधिक करीब थे। इस वर्ग ने मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और इसीलिए इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में मतदान का प्रतिशत भी बहुत अच्छा रहा। अमेरिकी युवा वर्ग ने बराक ओबामा के मतपत्र पर ही नहीं बल्कि शीर्ष स्तर पर एक साहसिक एवं नई शुरूआत के हक में और समानता एवं बहुलवाद पर केंद्रित व्यवस्था के पक्ष में भी मोहर लगाई है। सामाजिक-राजनैतिक क्रांतियां रक्तरंजित ही हों और गृहयुद्धों के जरिए ही आएं यह जरूरी नहीं है। इस चुनाव ने दिखाया है कि वे मतपत्रों के रास्ते से भी आती हैं।
- बालेन्दु दाधीच
बराक `हुसैन` ओबामा जिस अमेरिका में राष्ट्रपति का पद संभालने जा रहे हैं वह कुछ महीनों यहां तक कि कुछ हफ्तों पहले का अमेरिका भी नहीं है। वह एक नया अमेरिका है। एक बदला हुआ देश। विन्स्टन चर्चिल ने एक बार कहा था कि अमेरिकी किसी भी नए विकल्प को तब तक नहीं आजमाते जब तक कि वे सभी पुराने विकल्पों को आजमाकर थक न जाएं। ओबामा की ऐतिहासिक और चमत्कारिक जीत दिखाती है कि अमेरिका उसी तरह के एक क्षण से गुजर रहा है। राष्ट्रपति बनना तो दूर, अगर ओबामा चार-पांच दशक पहले होते तो शायद वे अमेरिका के किसी क्लब या होटल तक में प्रवेश नहीं कर सकते थे।
व्हाइट हाउस में बराक ओबामा के आने का सिर्फ सांकेतिक महत्व नहीं है। यह विजय इसलिए भी अद्वितीय है कि उनका मध्य नाम `हुसैन` है (हालांकि इस्लाम में उनकी आस्था विवाद का विषय है)। ऐसा हुसैन जो हनुमानजी की मूर्ति और मदर मेरी का प्रतीक-चिन्ह अपने सीने से लगाकर रखते हैं। उनकी विजय इसलिए भी यादगार है कि वे एक केन्याई पिता के पुत्र हैं। यह एक घटना अमेरिकी इतिहास की न जाने कितनी सामाजिक-सांस्कृतिक विडंबनाओं-विषमताओं को अपदस्थ करने जा रही है। वह अमेरिकी समाज की एकता और समरसता के नए मायने गढ़ने जा रही है, विश्व को पहले से अधिक करीब लाने जा रही है।
सदियों से दमन, हताशा, पीड़ा, गरीबी और उपेक्षा झेल रहे अश्वेत समुदाय को इन चुनावों ने ऐसे आत्मविश्वास से भर दिया है जो पहले कभी नहीं देखा गया। पहली बार उनकी दमित, दलित उमंगें शरीर और मन से बाहर निकलकर इस तरह अभिव्यक्त हुई हैं। हालांकि बराक ओबामा ने अपने चुनाव अभियान के दौरान कभी भी अपने अश्वेत होने का मुद्दा नहीं उठाया, शायद रणनीतिक समझदारी के तौर पर या फिर रंग और वर्ग की सीमाओं से ऊपर उठ चुके एक महान राजनेता के तौर पर, लेकिन दुनिया भर के अश्वेतों में अमेरिकी चुनाव ने एक युगांतरकारी संदेश भेजा है। समानता का संदेश, जो महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग के सपनों के सच होने की आश्वस्ति पैदा करता है। शायद दुनिया अब आत्म-श्रेष्ठता, असमानता और अहंवाद की राजनीति चलाने वालों के प्रभुत्व से मुक्त हो जाए। इन चुनावों में सिर्फ ओबामा ही क्षुद्र विभाजनों से ऊपर नहीं उठे हैं, पूरा अमेरिका ऊपर उठा है।
अमेरिकी समाज की बदलती संरचना
अमेरिकी समाज सिर्फ विचारों में ही नहीं, संरचना में भी बदल रहा है। अमेरिकी राजनीति में श्वेतों का पारंपरिक वर्चस्व धीरे-धीरे एक अधिक उदार और समानता-आधारित व्यवस्था की ओर आगे बढ़ रहा है। इसका एक बड़ा कारण वहां हो रहे जनसंख्यामूलक परिवर्तन भी हैं। अमेरिकी जनसंख्या ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2042 तक अमेरिका में श्वेत समुदाय अल्पसंख्यक हो जाएगा। वहां अश्वेतों, एशियाई समुदाय के लोगों और हिस्पैनिकों (उत्तर अमेरिका के मूल निवासी) संख्या में तेजी से और उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। हालांकि इस वृद्धि के लिए भी उस देश की बहुलतावादी और लोकतांत्रिक नीतियों को श्रेय दिया जाना चाहिए जो अमेरिका में सांस्कृतिक विविधता बढ़ाने के लिहाज से गढ़ी गई हैं। अमेरिका की तुलना खाड़ी देशों से करके देखिए जहां के मूल निवासी आप्रवासियों की तुलना में बहुत कम हैं लेकिन इस विशालकाय जनसंख्या-वर्ग का उन देशों की व्यवस्था या राजनीति में कोई दखल नहीं। अमेरिका में ऐसा नहीं है।
ओबामा की जीत के राजनैतिक और रणनीतिक मायने भी हैं। भले ही अमेरिका आज भी विश्व की सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति है लेकिन उसके प्रभुत्व के सामने स्पष्ट चुनौतियां उभर रही हैं। चीन के उदय, रूस की दोबारा जागती महत्वाकांक्षाओं, भारत जैसी आर्थिक शक्तियों के उभार और खाड़ी देशों की अपरिमित आर्थिक शक्ति की अनदेखी नहीं की जा सकती। आधुनिक विश्व इतिहास में संभवत: पहली बार अमेरिका दबाव में है। आम अमेरिकी मतदाता को लगता है कि मौजूदा नेताओं के पास उसके वैिश्वक प्रभुत्व को बनाए रखने के फार्मूले नहीं है। उन्हें ऐसे नेता की जरूरत है जिसकी लोकिप्रयता और स्वीकार्यता विश्वव्यापी हो। ऐसा नेता, जो अमेरिकी गौरव और वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने की क्षमता रखता हो। ओबामा की चुनावी परीक्षा हो चुकी है और प्रशासनिक परीक्षा होनी बाकी है। लेकिन उनके चमत्कारिक उदय ने अमेरिकियों और विश्व नागरिकों के मन में बहुत सी अनचीन्ही क्षमताओं की उम्मीद जगाई है।
जरूरत एक प्रखर नेता की
इस तथ्य को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि आज अमेरिकी राजनैतिक व्यवस्था संभवत: इस सदी के सबसे गंभीर आर्थिक और विकट राजनैतिक संकट से गुजर रही है। उपचार के पारंपरिक तौरतरीके लगभग निष्प्रभावी सिद्ध हो चुके हैं और बीमारी गंभीर से गंभीरतम होती जा रही हैं। अमेरिका को अपनी तकलीफों के इलाज के लिए नई पद्धतियों, नए विचारों, लीक से हटकर सोचने वाले नेतृत्व की जरूरत है। राष्ट्रपति चुनाव के ताजा मतदान के जरिए उसने एक ऐसी सामाजिक क्रांति कर दी है जिसके राजनैतिक और आर्थिक नतीजे भी ऐतिहासिक ही होंगे। न सिर्फ अमेरिका के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए। बराक ओबामा के पास भले ही सरकार चलाने का अनुभव न हो, लेकिन उन्होंने अमेरिका और विश्व की समस्याओं पर एक साफ-साहसिक समझबूझ का प्रदर्शन किया है। भले ही आपको उनके विचार अपने अनुकूल लगें या नहीं लेकिन उनका संदेश साफ है। वे विदेश नीति के जटिल मुÌों से लेकर आर्थिक गुित्थयों तक कहीं भी भ्रमित नजर नहीं आए हैं। राष्ट्रपति चुनाव की बहसों के दौरान जिस तरह उन्होंने अमेरिकी आर्थिक दुर्दशा, इराक-अफगानिस्तान-पाकिस्तान में अमेरिका की भूमिका, ग्लोबल वार्मिग, विदेश नीतियों, करों की स्थिति आदि पर जवाब दिए उससे जाहिर है कि उनके पास एक `राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक विज़न` है। अमेरिका ने इसी विजन पर दांव लगाया है।
यह युवा शक्ति की जीत भी है। अमेरिकी चुनावों में पारंपरिक रूप से नवदंपतियों, खासकर छोटे बच्चों के माता-पिता जिन्हें `बेबी बूमर्स` कहा जाता है, की निर्णायक भूमिका रही है। रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेट भी, इस समुदाय को प्रसन्न करने के लिहाज से नीतियां और कार्यक्रम बनाते हैं, उन्हें प्रचारित करते हैं। लेकिन इस बार अमेरिका के युवाओं, विशेषकर पहली बार मतदान का अवसर पाने वाले युवाओं ने ओबामा का खुले दिल से समर्थन किया। इकहत्तर साल के जॉन मैक्कैन की तुलना में युवा, ऊर्जावान और प्रखर वक्ता बराक ओबामा स्वाभाविक रूप से दिलों के अधिक करीब थे। इस वर्ग ने मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और इसीलिए इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में मतदान का प्रतिशत भी बहुत अच्छा रहा। अमेरिकी युवा वर्ग ने बराक ओबामा के मतपत्र पर ही नहीं बल्कि शीर्ष स्तर पर एक साहसिक एवं नई शुरूआत के हक में और समानता एवं बहुलवाद पर केंद्रित व्यवस्था के पक्ष में भी मोहर लगाई है। सामाजिक-राजनैतिक क्रांतियां रक्तरंजित ही हों और गृहयुद्धों के जरिए ही आएं यह जरूरी नहीं है। इस चुनाव ने दिखाया है कि वे मतपत्रों के रास्ते से भी आती हैं।
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