विद्रोही तेवर और वैचारिक गहनता के लिए जाने जाने वाले प्रभाष जोशी ने नए पत्रकारों के साथ जनसत्ता शुरू किया और उसे भारतीय पत्रकारिता के बेहद लोकप्रिय, पठनीय एवं प्रबल प्रतीक में बदल दिया।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
मैंने राजस्थान पत्रिका में अपने पत्रकारिता जीवन की शुरूआत की थी। मेरे लिए वह सीखने का समय था और 'पत्रिका' के दफ्तर में आने वाले प्रांतीय एवं राष्ट्रीय अखबारों को पढ़ने के लिए हम युवा मित्रों में होड़ सी लगी रहती थी। लेकिन अखबारों के गट्ठर में जिस अखबार को उठाने के लिए हम सबसे पहले लपकते थे, वह था- 'जनसत्ता।' दर्जन भर अखबारों के बीच वह अलग ही दिखाई देता। बहुत प्रबल उपस्थिति थी उसकी। प्रभाषजी के संपादन में निकले इस नए अखबार ने कुछ ही महीनों में देश भर में युवकों को आकर्षित कर लिया था। जहां हिंदी पत्रकारिता में हम सब एक सी लीक पीटने में लगे हुए थे और रोजमर्रा की खबरों को किसी तरह आकर्षक ले-आउट (अखबार का डिजाइन) में चिपका देने को ही बहुत बड़ी सफलता माने बैठे थे वहीं जनसत्ता ने हम सबको बड़ा झटका दिया था। सिर्फ पाठकों को ही नहीं, प्रबंधकों को भी, पत्रकारों को भी, संपादकों को भी और नेताओं को भी।
हिंदी पत्रकारिता के लिए लगभग ठहराव के से उस जमाने में स्व॰ प्रभाष जोशी ने हमें झकझोर कर बताया कि सब कुछ ठहरा हुआ नहीं है। हिंदी में भी नया करने के लिए असीमित गुंजाइश मौजूद है। 'जनसत्ता' से हमने जाना कि अखबार क्या होता है, छपे हुए शब्दों की ताकत क्या होती है, इनोवेशन (नवीनता) क्या होता है। ऐसा लगता था जैसे हर खबर किसी भट्टी में तप कर खरा सोना बनकर निकली है। एक-एक शब्द का महत्व था। सामान्य सी खबरें जब जनसत्ता में छपती थीं तो दिलचस्प हो जाती थीं। रोजमर्रा की घटनाओं के पीछे व्यापक अर्थ दिखाई देने लगते थे। कितनी सरल, देसज, किंतु दमदार भाषा! कितना चुस्त संपादन! खबरों का कितना सटीक चयन! कितनी निष्पक्षता और कितनी निडरता!
प्रभाषजी के जनसत्ता को हम लगभग उतनी ही तल्लीनता के साथ पढ़ते थे जैसे जेम्स बांड का कोई उपन्यास पढ़ रहे हों। रोज उसके आगमन का वैसे ही इंतजार करते थे जैसे कि छुट्टी पर घर लौटने वाला नया-नवेला रंगरूट विलंब से चल रही रेलगाड़ी का करता है। यह एक चमत्कार था। लगता था, स्वाधीनता आंदोलन के लंबे अरसे बाद पत्रकारिता का गौरवशाली युग लौट आया था। इस सबके पीछे जादू था प्रभाष जोशी का, जो योजनाकार, प्रबंधक, संपादक, भाषा-शास्त्री, एक्टिविस्ट, डिजाइनर और टीम-लीडर जैसी कितनी ही भूमिकाएं एक साथ, एक जैसी कुशलता के साथ निभा रहे थे। पत्रकारिता की जनसत्ता शैली आज प्रिंट से लेकर टेलीविजन और ऑनलाइन मीडिया तक फैल चुकी है। उस शैली के शिल्पकार प्रभाष जोशी ही थे।
निष्पक्षता की हद!
राजस्थान पत्रिका के बीकानेर संस्करण में बतौर डेस्क इंचार्ज काम करते हुए मैंने इंडियन एक्सप्रेस समूह पर सीबीआई के छापे की खबर पढ़ी। यह देखकर मैं भौंचक्का रह गया कि 'जनसत्ता' ने अपने प्रभात संस्करण में यह खबर एजेंसी के माध्यम से दी थी। प्रभाषजी निष्पक्षता के लिए इस हद तक जा सकते हैं कि खुद अपने ही प्रतिष्ठान पर हुए हमले की खबर दूसरे स्रोतों के जरिए छापें! ऐसा उदाहरण मैंने कोई और नहीं देखा जब किसी संस्थान ने खुद अपने बारे में भी तटस्थ माध्यम से खबर दी हो। रिलायंस और बोफर्स जैसे मुद्दों पर केंद्र सरकार के विरुद्ध खड़े होने का परिणाम एक्सप्रेस समूह ने लंबे समय तक भोगा था। लेकिन प्रभाषजी का 'जनसत्ता' दमन का सामना करते हुए भी सत्यनिष्ठा और निष्पक्षता के पत्रकारीय मानदंडों को नहीं भूला।
मैंने इसी घटना से प्रभावित होकर, प्रभाषजी की टीम का हिस्सा बनने का सपना देखा था। सच की लड़ाई में मेरे जैसे कई युवक उनके साथ खड़े होना चाहते थे। संयोगवश, कुछ महीने बाद मुझे इसका अवसर भी मिला जब 'जनसत्ता' ने नए लोगों की भर्ती का विज्ञापन निकाला। अखबार में चयनित होने के बाद हर दिन प्रभाषजी से कुछ न कुछ सीखा- कभी सीधे, तो कभी परोक्ष रूप में।
कमाल का आदर्शवाद था उनका- जनसत्ता को आम आदमी की आवाज बनना है। सिर्फ उसी के प्रति जवाबदेह हैं हम। हमें प्रतिष्ठान पर अंकुश लगाने वाले जन.माध्यम की भूमिका निभानी है। व्यक्तिवाद के लिए कहीं जगह नहीं थी। निर्देश था कि प्रभाषजी से जुड़े आयोजनों की खबरें 'जनसत्ता' में नहीं छपेंगी। वह भी क्या जमाना था! रामनाथ गोयनका जैसे फायरब्रैंड अखबार मालिक और प्रभाष जोशी तथा अरुण शौरी (इंडियन एक्सप्रेस) जैसे संपादक। अरुण शौरी भले ही कई मायनों में बड़े पत्रकार, राजनीतिज्ञ और लेखक रहे हों लेकिन प्रभाष जी की बात कुछ और थी। उनकी सोच, ज्ञान, प्रतिभा और क्षमताओं का दायरा कहीं बड़ा और विस्तृत था।
'जनसत्ता' जो भी लिखता, बड़े अधिकार एवं प्रामाणिकता के साथ लिखता। खबर किसके पक्ष में है और किसके खिलाफ, यह कभी किसी ने नहीं सोचा। अगर कुछ गलत है तो उसका प्रबलता से विरोध करना है। भले ही परिणाम जो भी हो। और अगर कोई सही है तो उसके साथ खड़े होने में संकोच एक किस्म का अपराध है। मुझ जैसे पत्रकारों, जिन्हें जनसत्ता की सफलता के दौर में वहां प्रशिक्षण पाने का मौका मिला, को प्रभाषजी के दिए संस्कारों, उनके सिखाए मूल्यों और आदर्शों से इतना कुछ मिला है कि वह जीवन भर हमारे मार्ग को निर्देशित करेगा। नए-नवेले पत्रकारों की टीम को सिर्फ पत्रकारिता, भाषा और प्रयोगवाद की दीक्षा ही नहीं दी, सार्थक जीवन के मायने भी सिखाए।
वे बदलाव चाहते थे
वे सिर्फ सुयोग्य ही नहीं थे। वे सिर्फ प्रतिबद्ध मात्र भी नहीं थे। वे समाज और राजनीति में बदलाव लाने के लिए बेचैन एक्टिविस्ट भी थे। वे समाज में बड़ा बदलाव लाना चाहते थे. उसे सकारात्मक, समावेशी, उदार, जीवंत बनाने के लिए योगदान देना चाहते थे। उन्हें अखबार की दुनिया से बाहर आकर कोई बड़ी भूमिका निभाने का मौका नहीं मिला। यदि मिलता तो शायद वह एक अलग अध्याय होता। उनकी विचारधारा पर गांधी का गहरा असर था। लेकिन प्रभाषजी में ऐसा बहुत कुछ था जो उनका अपना था। बहुत मौलिक, गहन मंथन और अनुभवों के बाद निकला हुआ। 'जनसत्ता' के पन्नों पर कभी यह उनके खून खौला देने वाले विशेष मुखपृष्ठ संपादकीय में दिखता था (ऐसे संपादकीय स्व॰ इंदिरा गांधी और स्व॰ राजीव गांधी सरकारों की ज्यादतियों के प्रति एक्सप्रेस समूह के प्रबल प्रतिरोध की अभिव्यक्ति होते थे), तो कभी साहित्यिक गहराई एवं शिल्प-कौशल से परिमार्जित उनके स्तंभों 'मसि-कागद' एवं 'कागद-कारे' में। उनकी लेखन क्षमता को देखकर हैरानी होती थी। साफ-सुंदर, जमा-जमा कर लिखे गए शब्द, जिनकी शिरोरेखाएं घुमावदार होती थीं। एक के बाद एक कितने ही पन्ने लिखते चले जाते थे। जब वे क्रिकेट विश्व कप का कवरेज करने गए तो इतना कुछ लिखा कि दो-तीन किताबें छप जाएं। और सब का सब बेहद दिलचस्प, एक्सक्लूजिव और तेज! लगभग साठ साल की उम्र में उन्होंने ऐसी रिपोर्टिंग की जिसकी उम्मीद नौजवान रिपोर्टरों से नहीं की जा सकती।
हिंदी पत्रकारिता के प्रति उनका योगदान इतना अधिक है कि उन्हें आधुनिक हिंदी पत्रकारिता का पर्याय समझा जाने लगा था। लोकप्रियता का आलम वह कि 'जनसत्ता' हिंदी ही नहीं, अंग्रेजी अखबारों से भी होड़ लेता था। शायद ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी हिंदी अखबार के संपादक को विशेष संपादकीय लिखकर अपने पाठकों से अनुरोध करना पड़ा हो कि अब वे अखबार को मिल-बांटकर पढ़ें क्योंकि हमारी मशीनों में इतनी क्षमता नहीं कि वे छपाई की और अधिक मांग पूरी कर सकें।
विद्रोही तेवर और वैचारिक गहनता का प्रतीक जनसत्ता धीरे-धीरे भारतीय पत्रकारिता के सबसे लोकप्रिय, पठनीय एवं प्रबल प्रतीकों में बदल गया था। वहां सनसनीखेज पत्रकारिता नहीं थी, जन-सरोकारों को आगे बढ़ाने वाली पत्रकारिता थी। यह प्रभाषजी के नेतृत्व का ही परिणाम था कि दिल्ली के सिख विरोधी दंगों के दौरान जनसत्ता ने सर्वत्र व्यापी उन्माद के विरुद्ध खड़े होने का साहस दिखाया और दंगापीङ़ितों के पक्ष में पत्रकारिता की। अब वह सब हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का हिस्सा है। अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के विरोध में उन्होंने अडिग स्टैंड लिया और जीवन पर्यंत उस पर कायम रहे। उस समय हुए दंगों के विरोध में रविवारी जनसत्ता में मंगलेश जी (डबराल) ने विशेष अंक निकाला था जिसमें प्रभाषजी और गिरधर राठी के साथ-साथ मैंने भी एक लेख लिखा था और प्रतिक्रिया में उन्हें ढेरों धमकी भरे पत्र मिले थे तो कुछ मेरे हिस्से में भी आए थे। पीड़ित, दमित और वंचित लोगों के हक में खड़े होने की बातें करते तो बहुत हैं लेकिन व्यावहारिकता की सीमाओं से ऊपर उठकर कितने लोग वास्तव में ऐसा करते हैं? प्रभाषजी ने दिखाया कि पत्रकारिता के उद्देश्यों और सार्थकता के बारे में जो कुछ हमने पढ़ा था वह सिर्फ किताबी नहीं था। सब जगह से निराश, हारे-थके व्यक्ति के लिए उन दिनों एक ठिकाना जरूर था, और वह था जनसत्ता।
प्रभाषजी नहीं रहे। लेकिन उनके संस्कार तो हैं! उनके जीवन-मूल्य तो हैं! प्रभाषजी की तराशी हुई टीम तो है, भले ही अलग-अलग स्थानों पर और अलग-अलग भूमिकाओं में। वह उनके सिखाए को आगे बढ़ाएगी। अपने विचारों और मूल्यों के रूप में प्रभाषजी सदा हमारे बीच रहेंगे- एक मार्गदर्शक बनकर।
Friday, November 6, 2009
Saturday, October 31, 2009
प्रजा की तकनीक में 'राजा' की पौबारह
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
दूरसंचार मंत्री ए राजा ने सात साल पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम आवंटन के पीछे यही तर्क दिया है कि वे आम आदमी को सस्ती दरों पर टेलीफोन सेवा मुहैया कराना चाहते थे। तो क्या इसी जनहितैषी भावना के चलते करुणानिधि और राजा संप्रग सरकार के गठन के समय यही विभाग पाने के लिए बेताब थे?
उनका नाम है ए राजा। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनने से पहले ही उन पर अनियमितताओं के गंभीर आरोप थे। लेकिन प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह की अनिच्छा के बावजूद दूरसंचार मंत्री ए राजा नई सरकार में पुराना पद पाने में कामयाब रहे क्योंकि द्रमुक सुप्रीमो एम करुणानिधि उनके साथ चट्टान की तरह खड़े थे। भले ही सीबीआई ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के तहत सीधे दूरसंचार मंत्रालय पर छापा मारकर बहुत बड़े राजनैतिक.प्रशासनिक दुस्साहस का परिचय दिया है लेकिन संप्रग सरकार की पारंपरिक राजनैतिक विवशताएं उसे कितना आगे तक जाने दंेगी, इस बारे में गंभीर प्रश्न चिह्न मौजूद हैं।
बात बड़ी सीधी सी है। आर्थिक मोर्चे पर तेजी से आगे बढ़ते देश में जिन क्षेत्रों में लाभ के सर्वाधिक अवसर पैदा हुए हैं उनमें दूरसंचार अव्वल है। लेकिन इसमें इस्तेमाल होने वाला कच्चा माल और कुछ नहीं बल्कि विद्युतचुंबकीय तरंगें (स्पेक्ट्रम) हैं, जिन पर सरकारों का नियंत्रण है। एक बार इन रेडियो संकेतों के प्रयोग का लाइसेंस मिल जाने के बाद कंपनियां करोड़ों उपभोक्ताओं से हर महीने बिल वसूलने के लिए अधिकृत हो जाती हैं और देखते ही सौ.दो सौ करोड़ की कंपनी कई हजार करोड़ तक पहुंच जाती हैं। इतनी तेज गति और इतने बड़े पैमाने पर लाभ कमाने की गुंजाइश शायद ही किसी और क्षेत्र में हो। इस प्रक्रिया में यदि कोई चीज सबसे महत्वपूर्ण है तो वह है स्पेक्ट्रम, जिसे पाने के लिए दूरसंचार कंपनियां किसी भी हद तक जा सकती हैं। और खुदा न ख्वास्ता यही स्पेक्ट्रम औने.पौने दामों पर मिल जाए तो आप खुद सोचिए कि वे अपने हितैषियों के लिए क्या कुछ नहीं करेंगी। कोई बेवजह नहीं है कि श्री करुणानिधि जैसे बेहद वरिष्ठ और अनुभवी राजनेता अपने विश्वस्त सहयोगी को दूरसंचार मंत्रालय न सौंपे जाने की स्थिति में सरकार से ही अलग हो जाने की धमकी दे रहे थे।
रेडियो, टेलीविजन और मोबाइल टेलीफोन से लेकर कार का ताला खोलने वाली मशीन और माइक्रोवेव ओवन तक में विद्युतचुंबकीय तरंगों का प्रयोग होता है। अलग.अलग किस्म के उपकरणों में अलग.अलग आवृत्ति (फ्रिक्वेंसी) की तरंगें इस्तेमाल होती हैं। इनके सुव्यवस्थित संचालन पर ही पूरे विश्व की संचार एवं प्रसारण व्यवस्था का दारोमदार निभ्रर करता है और इसी वजह से अलग.अलग कार्यों के लिए अलग.अलग फ्रिक्वेंसी तय कर दी गई है। इस बारे में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुस्पष्ट व्यवस्था मौजूद है। उदाहरण के लिए टेलीविजन प्रसारणों के लिए यह 54 से 88 मेगाहर्ट्ज, 174 से 216 मेगाहर्ट्ज और 470 से 806 मेगाहर्ट्ज है। एफएम रेडियो का प्रयोग करते हुए आपने देखा होगा कि वह 88 से 108 मेगाहर्ट्ज तक की फ्रिक्वेंसी तक सीमित है। इसी तर्ज पर दूरसंचार कंपनियों को भी अलग.अलग फ्रिक्वेंसी (जैसे जीएसएम के लिए 4॰4 मेगाहर्ट्ज) पर अपने संकेत प्रसारित करने का अधिकार दिया जाता है जिन्हें हमारे टेलीफोन उपकरण ग्रहण करते हैं। यही वह स्पेक्ट्रम है जिसके प्रयोग का लाइसेंस सरकार एक निश्चित शुल्क लेकर दूरसंचार कंपनियों को देती है।
पहले आओ, सब ले जाओ
दूरसंचार मंत्री ए राजा के खिलाफ लगे आरोपों की यूं तो लंबी फेहरिस्त है लेकिन उनमें सबसे प्रमुख यह है कि उनके विभाग ने कुछ खास कंपनियों को बेहद सस्ते दामों पर 2जी स्पेक्ट्रम आवंटित करने के लिए 'अद्वितीय कुशलता' दिखाई है। इस प्रक्रिया में भारत सरकार को 50 से 60 हजार करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा जबकि स्पेक्ट्रम पाने वाली कंपनियों ने रातोंरात खरबों रुपए बना लिए। भारत में 1995 से ही स्पेक्ट्रम लाइसेंसों का आवंटन नीलामी के जरिए किया जाता रहा है ताकि सरकार को उसका अधिकतम मूल्य मिल सके और सारी प्रक्रिया पारदर्शी रहे। लेकिन दूरसंचार मंत्रालय ने जनवरी 2008 में स्पेक्ट्रम के लाइसेंस आवंटित करते समय नीलामी के स्थान पर 'पहले आओ पहले पाओ' की नीति अपनाने का फैसला किया। आवेदन करने वाली कंपनियों की संख्या भी सीमित कर दी गई और वही पुरानी दरें रखी गईं जो सात साल पहले (सन 2001 में) थीं। इसका लाभ मिला यूनिटेक और स्वैन जैसी कंपनियों को जिन्होंने प्राप्त स्पेक्ट्रम का कुछ हिस्सा खरीद.मूल्य से छह गुना कीमत पर दूसरी कंपनियों को बेचा।
प्रश्न उठता है कि कोई भी व्यापारी (यहां भारत सरकार) ऐसा क्यों चाहेगा कि उसे अपनी वस्तु (स्पेक्ट्रम) का कम मूल्य मिले? या फिर यह कि ग्राहक सीमित संख्या में ही उसके पास आएं? और फिर वही इस बात का मार्ग भी प्रशस्त करेगा कि उससे खरीदी हुई वस्तु को कई गुना अधिक मूल्य पर बेचने में कोई अड़चन न आए? बताया जाता है कि श्री राजा ने पहले कहा था कि स्पेक्ट्रम आवंटन के दावेदारों से एक अक्तूबर 2008 तक आवेदन मंजूर किए जाएंगे। लेकिन बाद में उन्होंने घोषणा की कि सिर्फ 25 सितंबर तक आए आवेदनों पर ही 'पहले आओ पहले पाओ' के आधार पर विचार किया जाएगा। यूनिटेक और स्वैन जैसी कंपनियों के पास कोई दूरसंचार ढांचा मौजूद नहीं है फिर भी उन्हें स्पेक्ट्रम आवंटित कर दिया गया और इतना ही नहीं उन्हें एतिसालात.टेलीनोर जैसी विदेशी कंपनियों को इसे बेचने की इजाजत भी दे दी गई। वह भी तब जबकि ऐसा करना दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के दिशानिदेर्शों के अनुरूप नहीं था और इन कंपनियों ने बुनियादी दूरसंचार तंत्र तक खड़ा नहीं किया था। साफ तौर पर, इन कारोबारी घरानों का उद्देश्य स्पेक्ट्रम के जरिए फटाफट अथाह धन कमाना था। वे ऐसा करने में सफल भी रहीं। इस प्रक्रिया में न तो उनकी पृष्ठभूमि आड़े आई, न सरकारी नियम कायदों ने कहीं बाधा उत्पन्न की और न ही नियामकों की भृकुटियां तनीं। ऐसा किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही संभव था। ये परिस्थितियां क्या थीं, सीबीआई इसी बात का पता लगाने में जुटी है।
कृपा औरों पर भी हुई
श्री राजा इसी तरह के कुछ और 'उदार निर्णय' ले चुके हैं। उन्होंने 'जीएसएम' सेवाएं देने वाली सभी दूरसंचार कंपनियों के जबरदस्त प्रतिरोध के बावजूद 'सीडीएमए' कंपनियों. रिलायंस कम्युनिकेशन और टाटा टेलीसर्िवसेज को 'जीएसएम' के भी लाइसेंस देने का फैसला किया था। दोनों कंपनियों के लिए इससे धनवर्षा का नया रास्ता खुल गया। अब श्री राजा कहते हैं कि वे 'टेक्नालाजी संबंधी निष्पक्षता' के हिमायती हैं और इन्हें जीएसएम लाइसेंस न देना निष्पक्षता के विरुद्ध होता।
स्पेक्ट्रम आवंटन के मुद्दे पर भी उनके अपने तर्क हैं। मसलन यह कि सात साल पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम इसलिए आवंटित किया गया ताकि दूरसंचार सेवाएं सस्ती रहें और यह लाभ आम आदमी तक पहुंचे। उनका दावा है कि यह न सिर्फ ट्राई की सिफारिशों के अनुकूल था बल्कि ऐसा करते समय स्वयं प्रधानमंत्री को भी विश्वास में लिया गया था। श्री करुणानिधि ने तो एक दिलचस्प तर्क दिया है कि डॉ॰ मनमोहन सिंह का ए राजा को फिर से दूरसंचार मंत्री बनाया जाना उनके पाक.साफ होने का प्रमाण है। भारत की जनता जल्दी भूलने के लिए प्रसिद्ध है लेकिन शायद संप्रग सरकार के गठन के समय हुए नाटकीय घटनाक्रम को वह इतनी जल्दी नहीं भूली होगी जब द्रमुक सुप्रीमो ने हर किस्म का दबाव डालकर राजा का दूरसंचार मंत्रालय में लौटना सुनिश्चित किया। प्रधानमंत्री ने तो राजा की वापसी रोकने के लिए मजबूत स्टैंड लिया था! यह अलग बात है कि गठबंधन राजनीति की विवशताओं और सीमाओं के समक्ष वे कोई साहसिक नजीर कायम करने में नाकाम रहे।
तीन राज्यों के चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद, बढ़े हुए मनोबल के साथ क्या कांग्रेस नेतृत्व और डॉ॰ सिंह वह नैतिक साहस दिखा सकते हैं जिसका मौका उन्होंने कुछ महीने पहले खो दिया था? कहा जा रहा है कि सीबीआई के पास इस बार भ्रष्टाचार के कुछ अकाट्य सबूत हैं। द्रमुक के लिए इनका प्रतिरोध करना इतना आसान नहीं होगा। लेकिन क्या संप्रग नेतृत्व के पास जांच पूरी होने तक अपने एक मंत्री को पदमुक्त करने और सीबीआई को निष्पक्ष कार्रवाई का मौका देने की इच्छा शक्ति मौजूद है?
दूरसंचार मंत्री ए राजा ने सात साल पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम आवंटन के पीछे यही तर्क दिया है कि वे आम आदमी को सस्ती दरों पर टेलीफोन सेवा मुहैया कराना चाहते थे। तो क्या इसी जनहितैषी भावना के चलते करुणानिधि और राजा संप्रग सरकार के गठन के समय यही विभाग पाने के लिए बेताब थे?
उनका नाम है ए राजा। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनने से पहले ही उन पर अनियमितताओं के गंभीर आरोप थे। लेकिन प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह की अनिच्छा के बावजूद दूरसंचार मंत्री ए राजा नई सरकार में पुराना पद पाने में कामयाब रहे क्योंकि द्रमुक सुप्रीमो एम करुणानिधि उनके साथ चट्टान की तरह खड़े थे। भले ही सीबीआई ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के तहत सीधे दूरसंचार मंत्रालय पर छापा मारकर बहुत बड़े राजनैतिक.प्रशासनिक दुस्साहस का परिचय दिया है लेकिन संप्रग सरकार की पारंपरिक राजनैतिक विवशताएं उसे कितना आगे तक जाने दंेगी, इस बारे में गंभीर प्रश्न चिह्न मौजूद हैं।
बात बड़ी सीधी सी है। आर्थिक मोर्चे पर तेजी से आगे बढ़ते देश में जिन क्षेत्रों में लाभ के सर्वाधिक अवसर पैदा हुए हैं उनमें दूरसंचार अव्वल है। लेकिन इसमें इस्तेमाल होने वाला कच्चा माल और कुछ नहीं बल्कि विद्युतचुंबकीय तरंगें (स्पेक्ट्रम) हैं, जिन पर सरकारों का नियंत्रण है। एक बार इन रेडियो संकेतों के प्रयोग का लाइसेंस मिल जाने के बाद कंपनियां करोड़ों उपभोक्ताओं से हर महीने बिल वसूलने के लिए अधिकृत हो जाती हैं और देखते ही सौ.दो सौ करोड़ की कंपनी कई हजार करोड़ तक पहुंच जाती हैं। इतनी तेज गति और इतने बड़े पैमाने पर लाभ कमाने की गुंजाइश शायद ही किसी और क्षेत्र में हो। इस प्रक्रिया में यदि कोई चीज सबसे महत्वपूर्ण है तो वह है स्पेक्ट्रम, जिसे पाने के लिए दूरसंचार कंपनियां किसी भी हद तक जा सकती हैं। और खुदा न ख्वास्ता यही स्पेक्ट्रम औने.पौने दामों पर मिल जाए तो आप खुद सोचिए कि वे अपने हितैषियों के लिए क्या कुछ नहीं करेंगी। कोई बेवजह नहीं है कि श्री करुणानिधि जैसे बेहद वरिष्ठ और अनुभवी राजनेता अपने विश्वस्त सहयोगी को दूरसंचार मंत्रालय न सौंपे जाने की स्थिति में सरकार से ही अलग हो जाने की धमकी दे रहे थे।
रेडियो, टेलीविजन और मोबाइल टेलीफोन से लेकर कार का ताला खोलने वाली मशीन और माइक्रोवेव ओवन तक में विद्युतचुंबकीय तरंगों का प्रयोग होता है। अलग.अलग किस्म के उपकरणों में अलग.अलग आवृत्ति (फ्रिक्वेंसी) की तरंगें इस्तेमाल होती हैं। इनके सुव्यवस्थित संचालन पर ही पूरे विश्व की संचार एवं प्रसारण व्यवस्था का दारोमदार निभ्रर करता है और इसी वजह से अलग.अलग कार्यों के लिए अलग.अलग फ्रिक्वेंसी तय कर दी गई है। इस बारे में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुस्पष्ट व्यवस्था मौजूद है। उदाहरण के लिए टेलीविजन प्रसारणों के लिए यह 54 से 88 मेगाहर्ट्ज, 174 से 216 मेगाहर्ट्ज और 470 से 806 मेगाहर्ट्ज है। एफएम रेडियो का प्रयोग करते हुए आपने देखा होगा कि वह 88 से 108 मेगाहर्ट्ज तक की फ्रिक्वेंसी तक सीमित है। इसी तर्ज पर दूरसंचार कंपनियों को भी अलग.अलग फ्रिक्वेंसी (जैसे जीएसएम के लिए 4॰4 मेगाहर्ट्ज) पर अपने संकेत प्रसारित करने का अधिकार दिया जाता है जिन्हें हमारे टेलीफोन उपकरण ग्रहण करते हैं। यही वह स्पेक्ट्रम है जिसके प्रयोग का लाइसेंस सरकार एक निश्चित शुल्क लेकर दूरसंचार कंपनियों को देती है।
पहले आओ, सब ले जाओ
दूरसंचार मंत्री ए राजा के खिलाफ लगे आरोपों की यूं तो लंबी फेहरिस्त है लेकिन उनमें सबसे प्रमुख यह है कि उनके विभाग ने कुछ खास कंपनियों को बेहद सस्ते दामों पर 2जी स्पेक्ट्रम आवंटित करने के लिए 'अद्वितीय कुशलता' दिखाई है। इस प्रक्रिया में भारत सरकार को 50 से 60 हजार करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा जबकि स्पेक्ट्रम पाने वाली कंपनियों ने रातोंरात खरबों रुपए बना लिए। भारत में 1995 से ही स्पेक्ट्रम लाइसेंसों का आवंटन नीलामी के जरिए किया जाता रहा है ताकि सरकार को उसका अधिकतम मूल्य मिल सके और सारी प्रक्रिया पारदर्शी रहे। लेकिन दूरसंचार मंत्रालय ने जनवरी 2008 में स्पेक्ट्रम के लाइसेंस आवंटित करते समय नीलामी के स्थान पर 'पहले आओ पहले पाओ' की नीति अपनाने का फैसला किया। आवेदन करने वाली कंपनियों की संख्या भी सीमित कर दी गई और वही पुरानी दरें रखी गईं जो सात साल पहले (सन 2001 में) थीं। इसका लाभ मिला यूनिटेक और स्वैन जैसी कंपनियों को जिन्होंने प्राप्त स्पेक्ट्रम का कुछ हिस्सा खरीद.मूल्य से छह गुना कीमत पर दूसरी कंपनियों को बेचा।
प्रश्न उठता है कि कोई भी व्यापारी (यहां भारत सरकार) ऐसा क्यों चाहेगा कि उसे अपनी वस्तु (स्पेक्ट्रम) का कम मूल्य मिले? या फिर यह कि ग्राहक सीमित संख्या में ही उसके पास आएं? और फिर वही इस बात का मार्ग भी प्रशस्त करेगा कि उससे खरीदी हुई वस्तु को कई गुना अधिक मूल्य पर बेचने में कोई अड़चन न आए? बताया जाता है कि श्री राजा ने पहले कहा था कि स्पेक्ट्रम आवंटन के दावेदारों से एक अक्तूबर 2008 तक आवेदन मंजूर किए जाएंगे। लेकिन बाद में उन्होंने घोषणा की कि सिर्फ 25 सितंबर तक आए आवेदनों पर ही 'पहले आओ पहले पाओ' के आधार पर विचार किया जाएगा। यूनिटेक और स्वैन जैसी कंपनियों के पास कोई दूरसंचार ढांचा मौजूद नहीं है फिर भी उन्हें स्पेक्ट्रम आवंटित कर दिया गया और इतना ही नहीं उन्हें एतिसालात.टेलीनोर जैसी विदेशी कंपनियों को इसे बेचने की इजाजत भी दे दी गई। वह भी तब जबकि ऐसा करना दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के दिशानिदेर्शों के अनुरूप नहीं था और इन कंपनियों ने बुनियादी दूरसंचार तंत्र तक खड़ा नहीं किया था। साफ तौर पर, इन कारोबारी घरानों का उद्देश्य स्पेक्ट्रम के जरिए फटाफट अथाह धन कमाना था। वे ऐसा करने में सफल भी रहीं। इस प्रक्रिया में न तो उनकी पृष्ठभूमि आड़े आई, न सरकारी नियम कायदों ने कहीं बाधा उत्पन्न की और न ही नियामकों की भृकुटियां तनीं। ऐसा किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही संभव था। ये परिस्थितियां क्या थीं, सीबीआई इसी बात का पता लगाने में जुटी है।
कृपा औरों पर भी हुई
श्री राजा इसी तरह के कुछ और 'उदार निर्णय' ले चुके हैं। उन्होंने 'जीएसएम' सेवाएं देने वाली सभी दूरसंचार कंपनियों के जबरदस्त प्रतिरोध के बावजूद 'सीडीएमए' कंपनियों. रिलायंस कम्युनिकेशन और टाटा टेलीसर्िवसेज को 'जीएसएम' के भी लाइसेंस देने का फैसला किया था। दोनों कंपनियों के लिए इससे धनवर्षा का नया रास्ता खुल गया। अब श्री राजा कहते हैं कि वे 'टेक्नालाजी संबंधी निष्पक्षता' के हिमायती हैं और इन्हें जीएसएम लाइसेंस न देना निष्पक्षता के विरुद्ध होता।
स्पेक्ट्रम आवंटन के मुद्दे पर भी उनके अपने तर्क हैं। मसलन यह कि सात साल पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम इसलिए आवंटित किया गया ताकि दूरसंचार सेवाएं सस्ती रहें और यह लाभ आम आदमी तक पहुंचे। उनका दावा है कि यह न सिर्फ ट्राई की सिफारिशों के अनुकूल था बल्कि ऐसा करते समय स्वयं प्रधानमंत्री को भी विश्वास में लिया गया था। श्री करुणानिधि ने तो एक दिलचस्प तर्क दिया है कि डॉ॰ मनमोहन सिंह का ए राजा को फिर से दूरसंचार मंत्री बनाया जाना उनके पाक.साफ होने का प्रमाण है। भारत की जनता जल्दी भूलने के लिए प्रसिद्ध है लेकिन शायद संप्रग सरकार के गठन के समय हुए नाटकीय घटनाक्रम को वह इतनी जल्दी नहीं भूली होगी जब द्रमुक सुप्रीमो ने हर किस्म का दबाव डालकर राजा का दूरसंचार मंत्रालय में लौटना सुनिश्चित किया। प्रधानमंत्री ने तो राजा की वापसी रोकने के लिए मजबूत स्टैंड लिया था! यह अलग बात है कि गठबंधन राजनीति की विवशताओं और सीमाओं के समक्ष वे कोई साहसिक नजीर कायम करने में नाकाम रहे।
तीन राज्यों के चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद, बढ़े हुए मनोबल के साथ क्या कांग्रेस नेतृत्व और डॉ॰ सिंह वह नैतिक साहस दिखा सकते हैं जिसका मौका उन्होंने कुछ महीने पहले खो दिया था? कहा जा रहा है कि सीबीआई के पास इस बार भ्रष्टाचार के कुछ अकाट्य सबूत हैं। द्रमुक के लिए इनका प्रतिरोध करना इतना आसान नहीं होगा। लेकिन क्या संप्रग नेतृत्व के पास जांच पूरी होने तक अपने एक मंत्री को पदमुक्त करने और सीबीआई को निष्पक्ष कार्रवाई का मौका देने की इच्छा शक्ति मौजूद है?
Wednesday, September 30, 2009
चांद को शायद इंतजार था हमारा!
विकसित देशों ने भले ही उपग्रहों के जरिए आसमान के चप्पे-चप्पे पर कब्जा जमा लिया हो लेकिन सत्तर के दशक के मध्य से चंद्रमा को अकेला ही छोड़ दिया गया। वहां पानी जो नहीं था। संयोग देखिए, इधर भारत ने अपना चंद्र अभियान शुरू किया और उधर चांद ने पानी दिखा दिया।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
ठीक चालीस साल पहले मानव की चंद्र विजय के बाद धरती पर सुरक्षित लौटने वाला अपोलो 11 मिशन अपने साथ चंद्रमा की चट्टानें, मिट्टी और ढेर सारे चित्र लाया था। इन चित्रों ने वहां जीवन के चिन्ह या जीवन के लिए उपयुक्त परिस्थितियों की उत्सुकतापूर्ण खोज में जुटे वैज्ञानिकों को निराश किया। उन्होंने कहा- चंद्रमा तो एकदम सूखा है। बंजर और बेजान। उसके बाद चंद्रमा के प्रति मानव की उत्सुकता और उत्साह जैसे ठंडा सा पड़ गया। नील आर्मस्ट्रोंग और एडविन एल्ड्रिन के चंद्रमा की सतह पर कदम रखने के बाद भी तीन साल तक अपोलो मिशन चले और कुछ मानवों ने चंद्रमा पर कदम रखे। लेकिन फिर चंद्र अभियानों के संदभ्र में एक किस्म की उद्देश्यहीनता और निराशा व्यापने लगी।
विकसित देशों ने भले ही उपग्रहों के जरिए आसमान के चप्पे-चप्पे पर कब्जा जमा लिया हो लेकिन चंद्रमा को अकेला ही छोड़ दिया गया। वहां पानी जो नहीं था। कहा जाता है कि अपोलो द्वारा लाई गई मिट्टी में पानी के कुछ संकेत दिखे तो थे लेकिन वैज्ञानिकों ने उन्हें ह्यूस्टन के वातावरण की नमी का परिणाम मान लिया और अंतिम निष्कर्ष यही रहा कि चंद्रमा तो निरा सूखा है।
चार दशकों के बाद विकासशील दुनिया की एक उभरती हुई अंतरिक्षीय शक्ति के छोटे से चंद्रयान ने यकायक चंद्रमा के पानी.रहित होने की धारणा को खंड.खंड कर दिया है। खालिस हिंदुस्तानी मून इम्पैक्ट प्रोब (एक उपकरण, जिसे चंद्र.सतह पर गिराया गया) और चंद्रयान में लगे नासा के उपकरणों ने उसकी सतह और धूल का विश्लेषण किया है। उन्होंने परीकथाओं और विज्ञानकथाओं दोनों में समान रूप से चर्चित होने वाले इंसान के इस सबसे िप्रय उपग्रह पर पानी के मौजूद होने की बात प्रामाणिक रूप से सिद्ध कर दी है। चंद्रमा पर पानी मिलने की यह खबर आने वाले वर्षों में न सिर्फ धरती के इस उपग्रह बल्कि संपूण्र अंतरिक्ष के एक्स्प्लोरेशन की प्रक्रिया में नया उत्साह, नवीन उद्देश्यपरकता का प्राण फूंकने वाली है। चंद्रमा की सतह पर उपस्थिति दर्ज करने, उसकी मैपिंग करने और भविष्य में वहां के संसाधनों पर दावा पेश करने की जो होड़ अमेरिकी नेतृत्व में हाल ही में शुरू हुई है, उसका भारत की इस उपलब्धि के बाद नई रफ्तार पकड़ना तय है।
भारत के लिहाज से जो बात बेहद महत्वपूर्ण है, वह यह कि हमारे वैज्ञानिकों ने महज दस करोड़ डालर के खर्च पर, चंद वर्षों की मेहनत से ही देश को तीन.चार अग्रणी एवं निर्णायक देशों की कतार में लाकर खड़ा कर दिया है। आज, या एकाध दशक के बाद जब मानव चंद्रमा पर बस्तियां बनाने, उसके संसाधनों का दोहन करने और उसे अपनी तकनीकी प्रगति के उत्प्रेरक के रूप में इस्तेमाल करने की स्थिति में होगा तो भारत फैसला करने वालों की कतार में होगा, उसे सुनने वालों की भीड़ में नहीं। भारत का पहला मानवरहित चंद्र मिशन भले ही अपनी दो साल की तय अवधि से पहले ही खत्म हो गया हो, वह जल की खोज और चंद्र.सतह की मैपिंग के माध्यम से देश के लिए इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल कर चुका है जिसकी महत्वाकांक्षा संभवत: इसरो को भी नहीं रही होगी।
चंद्रमा पर खोजी यान और घुमंतू वाहन भेजने वाले कई देशों की योजना में पानी की तलाश कोई मुद्दा ही नहीं थी। चीन को ही लीजिए, जिसके चैंग.1 अभियान के उद्देश्यों में चंद्रमा की सतह पर हीलियम जैसे कुछ खास तत्वों की खोज को प्रधानता दी गई। चीन का चैंग.1 ओर्िबटर मार्च 2009 में चंद्रमा की सतह पर गिरा था, चंद्रयान द्वारा मून इम्पैक्ट प्रोब (एमआईपी) को गिराए जाने के चार महीने बाद। इसरो ने, तमाम पूर्वप्रचलित धारणाओं के बावजूद एक बार फिर पानी की खोज की कोशिश कर दूरदर्शिता से काम लिया है। नासा के इस बयान के बाद उसकी उपयोगिता में कोई संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि 'ताजा खोज ने जो सबसे बड़ा काम किया है, वह यह कि उसने इस मामले को फिर से खोल दिया है। उसने इस धारणा का खंडन कर दिया है कि चंद्रमा सूखा है। वह नहीं है।' शनि की परिक्रमा कर रहे नासा के कैसिनी अंतरिक्ष यान ने भी चंद्रमा की सतह पर जल के संकेत प्राप्त किए थे लेकिन चंद्रयान के निष्कर्ष आने तक उन्हें बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया था।
ऐसा नहीं कि चंद्रमा पर पानी की प्रचुरता है और झीलों, तालाबों या गड्ढों में भरा हुआ है। चंद्रमा की सतह का दिन का तापमान 123 डिग्री सेल्सियस है जिसमें पानी का टिके रहना संभव नहीं है। यह पानी सतह के भीतर अल्प मात्रा में मौजूद है, और हो सकता है कि इसका एक बड़ा हिस्सा हाइड्रोक्सिल हो। पानी में जहां हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन का एक परमाणु होता है वहीं हाइड्रोक्सिल में हाइड्रोजन का एक ही परमाणु होता है। लेकिन उन्हें एक दूसरे में बदलना संभव है। इसका अर्थ यह हुआ कि भविष्य में चंद्रमा की सतह से पानी निकालकर अंतरिक्ष यात्रियों के लिए उसका प्रयोग संभव हो सकता है। पानी ही क्यों, पानी या हाइड्रोक्सिल से अॉक्सीजन भी निकाली जा सकेगी जो वहां मानव जीवन को संभव बनाएगी।
वैज्ञानिक अर्थों में यह एक क्रांतिकारी उपलब्धि है। भविष्य में अगर इंसान चांद पर बस्ती बसाता है या मंगल तथा अन्य ग्रहों की ओर जाने वाले अभियानों के लांचपैड के रूप में चंद्रमा का प्रयोग करता है तो नासा और इसरो का भी परोक्ष योगदान होगा। यह उपलब्धि नासा के लुप्तप्राय चंद्र कायर्क्रम में भी नया उत्साह फूंकने जा रही है। नए घटनाक्रम की रोशनी में अमेरिकी प्रशासन के लिए नासा के चंद्र कायर्क्रम के लिए धन रिलीज करने में ना.नुकुर करना अब काफी मुश्किल होगा।
भारत के चंद्र मिशन को सिर्फ अंतरिक्ष विज्ञान या भौतिकतावादी सफलताओं के संदभ्र में नहीं देखा जा सकता। धरती और अंतरिक्ष की हर चीज को इंसानी जरूरतें पूरी करने वाले संसाधनों, संभावित उपनिवेशों के रूप में देखने वाली क्षुद्र दृष्टि सारी उपलब्धि को बहुत छोटा कर देती है। अंतरिक्ष, सौर.मंडल तथा प्रकृति के बारे में हमारे ज्ञान का विस्तार इन अभियानों का सबसे बड़ा सकारात्मक पक्ष है, और वही इनका बुनियादी उद्देश्य होना चाहिए।
लेकिन ऐसे अभियानों से होने वाले परोक्ष लाभ बहुत सारे हैं। चंद्र अभियान एक अंतरराष्ट्रीय महाशक्ति के रूप में भारत के उभार से जुड़ा है। वह हमारे देश की समग्र शक्ति, मेधा और सामाजिक.वैज्ञानिक.राजनैतिक परिपक्वता का प्रतीक है। कुछ समय पहले चीन ने अपने चंद्र अभियान के पक्ष में दलील देते हुए कहा था कि यह उसकी समग्र राष्ट्रीय शक्ति को सिद्ध करेगा और उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्रदान करेगा। यह भारत पर भी लागू होता है जिसके लिए चंद्र अभियान राष्ट्रीय गौरव का विषय तो है ही, विश्व स्तर पर हमारे आगमन का उद्घोष भी करता है। चंद्रमा पर मौजूद खनिज भंडार, ऊर्जा संसाधन और वहां के वातावरण के बारे में बोलने का अधिकार भी किसी भी राष्ट्र को तभी मिलेगा जब वह चंद्रमा की खोज करने वाले विशेष समूह में मौजूद होगा।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
ठीक चालीस साल पहले मानव की चंद्र विजय के बाद धरती पर सुरक्षित लौटने वाला अपोलो 11 मिशन अपने साथ चंद्रमा की चट्टानें, मिट्टी और ढेर सारे चित्र लाया था। इन चित्रों ने वहां जीवन के चिन्ह या जीवन के लिए उपयुक्त परिस्थितियों की उत्सुकतापूर्ण खोज में जुटे वैज्ञानिकों को निराश किया। उन्होंने कहा- चंद्रमा तो एकदम सूखा है। बंजर और बेजान। उसके बाद चंद्रमा के प्रति मानव की उत्सुकता और उत्साह जैसे ठंडा सा पड़ गया। नील आर्मस्ट्रोंग और एडविन एल्ड्रिन के चंद्रमा की सतह पर कदम रखने के बाद भी तीन साल तक अपोलो मिशन चले और कुछ मानवों ने चंद्रमा पर कदम रखे। लेकिन फिर चंद्र अभियानों के संदभ्र में एक किस्म की उद्देश्यहीनता और निराशा व्यापने लगी।
विकसित देशों ने भले ही उपग्रहों के जरिए आसमान के चप्पे-चप्पे पर कब्जा जमा लिया हो लेकिन चंद्रमा को अकेला ही छोड़ दिया गया। वहां पानी जो नहीं था। कहा जाता है कि अपोलो द्वारा लाई गई मिट्टी में पानी के कुछ संकेत दिखे तो थे लेकिन वैज्ञानिकों ने उन्हें ह्यूस्टन के वातावरण की नमी का परिणाम मान लिया और अंतिम निष्कर्ष यही रहा कि चंद्रमा तो निरा सूखा है।
चार दशकों के बाद विकासशील दुनिया की एक उभरती हुई अंतरिक्षीय शक्ति के छोटे से चंद्रयान ने यकायक चंद्रमा के पानी.रहित होने की धारणा को खंड.खंड कर दिया है। खालिस हिंदुस्तानी मून इम्पैक्ट प्रोब (एक उपकरण, जिसे चंद्र.सतह पर गिराया गया) और चंद्रयान में लगे नासा के उपकरणों ने उसकी सतह और धूल का विश्लेषण किया है। उन्होंने परीकथाओं और विज्ञानकथाओं दोनों में समान रूप से चर्चित होने वाले इंसान के इस सबसे िप्रय उपग्रह पर पानी के मौजूद होने की बात प्रामाणिक रूप से सिद्ध कर दी है। चंद्रमा पर पानी मिलने की यह खबर आने वाले वर्षों में न सिर्फ धरती के इस उपग्रह बल्कि संपूण्र अंतरिक्ष के एक्स्प्लोरेशन की प्रक्रिया में नया उत्साह, नवीन उद्देश्यपरकता का प्राण फूंकने वाली है। चंद्रमा की सतह पर उपस्थिति दर्ज करने, उसकी मैपिंग करने और भविष्य में वहां के संसाधनों पर दावा पेश करने की जो होड़ अमेरिकी नेतृत्व में हाल ही में शुरू हुई है, उसका भारत की इस उपलब्धि के बाद नई रफ्तार पकड़ना तय है।
भारत के लिहाज से जो बात बेहद महत्वपूर्ण है, वह यह कि हमारे वैज्ञानिकों ने महज दस करोड़ डालर के खर्च पर, चंद वर्षों की मेहनत से ही देश को तीन.चार अग्रणी एवं निर्णायक देशों की कतार में लाकर खड़ा कर दिया है। आज, या एकाध दशक के बाद जब मानव चंद्रमा पर बस्तियां बनाने, उसके संसाधनों का दोहन करने और उसे अपनी तकनीकी प्रगति के उत्प्रेरक के रूप में इस्तेमाल करने की स्थिति में होगा तो भारत फैसला करने वालों की कतार में होगा, उसे सुनने वालों की भीड़ में नहीं। भारत का पहला मानवरहित चंद्र मिशन भले ही अपनी दो साल की तय अवधि से पहले ही खत्म हो गया हो, वह जल की खोज और चंद्र.सतह की मैपिंग के माध्यम से देश के लिए इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल कर चुका है जिसकी महत्वाकांक्षा संभवत: इसरो को भी नहीं रही होगी।
चंद्रमा पर खोजी यान और घुमंतू वाहन भेजने वाले कई देशों की योजना में पानी की तलाश कोई मुद्दा ही नहीं थी। चीन को ही लीजिए, जिसके चैंग.1 अभियान के उद्देश्यों में चंद्रमा की सतह पर हीलियम जैसे कुछ खास तत्वों की खोज को प्रधानता दी गई। चीन का चैंग.1 ओर्िबटर मार्च 2009 में चंद्रमा की सतह पर गिरा था, चंद्रयान द्वारा मून इम्पैक्ट प्रोब (एमआईपी) को गिराए जाने के चार महीने बाद। इसरो ने, तमाम पूर्वप्रचलित धारणाओं के बावजूद एक बार फिर पानी की खोज की कोशिश कर दूरदर्शिता से काम लिया है। नासा के इस बयान के बाद उसकी उपयोगिता में कोई संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि 'ताजा खोज ने जो सबसे बड़ा काम किया है, वह यह कि उसने इस मामले को फिर से खोल दिया है। उसने इस धारणा का खंडन कर दिया है कि चंद्रमा सूखा है। वह नहीं है।' शनि की परिक्रमा कर रहे नासा के कैसिनी अंतरिक्ष यान ने भी चंद्रमा की सतह पर जल के संकेत प्राप्त किए थे लेकिन चंद्रयान के निष्कर्ष आने तक उन्हें बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया था।
ऐसा नहीं कि चंद्रमा पर पानी की प्रचुरता है और झीलों, तालाबों या गड्ढों में भरा हुआ है। चंद्रमा की सतह का दिन का तापमान 123 डिग्री सेल्सियस है जिसमें पानी का टिके रहना संभव नहीं है। यह पानी सतह के भीतर अल्प मात्रा में मौजूद है, और हो सकता है कि इसका एक बड़ा हिस्सा हाइड्रोक्सिल हो। पानी में जहां हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन का एक परमाणु होता है वहीं हाइड्रोक्सिल में हाइड्रोजन का एक ही परमाणु होता है। लेकिन उन्हें एक दूसरे में बदलना संभव है। इसका अर्थ यह हुआ कि भविष्य में चंद्रमा की सतह से पानी निकालकर अंतरिक्ष यात्रियों के लिए उसका प्रयोग संभव हो सकता है। पानी ही क्यों, पानी या हाइड्रोक्सिल से अॉक्सीजन भी निकाली जा सकेगी जो वहां मानव जीवन को संभव बनाएगी।
वैज्ञानिक अर्थों में यह एक क्रांतिकारी उपलब्धि है। भविष्य में अगर इंसान चांद पर बस्ती बसाता है या मंगल तथा अन्य ग्रहों की ओर जाने वाले अभियानों के लांचपैड के रूप में चंद्रमा का प्रयोग करता है तो नासा और इसरो का भी परोक्ष योगदान होगा। यह उपलब्धि नासा के लुप्तप्राय चंद्र कायर्क्रम में भी नया उत्साह फूंकने जा रही है। नए घटनाक्रम की रोशनी में अमेरिकी प्रशासन के लिए नासा के चंद्र कायर्क्रम के लिए धन रिलीज करने में ना.नुकुर करना अब काफी मुश्किल होगा।
भारत के चंद्र मिशन को सिर्फ अंतरिक्ष विज्ञान या भौतिकतावादी सफलताओं के संदभ्र में नहीं देखा जा सकता। धरती और अंतरिक्ष की हर चीज को इंसानी जरूरतें पूरी करने वाले संसाधनों, संभावित उपनिवेशों के रूप में देखने वाली क्षुद्र दृष्टि सारी उपलब्धि को बहुत छोटा कर देती है। अंतरिक्ष, सौर.मंडल तथा प्रकृति के बारे में हमारे ज्ञान का विस्तार इन अभियानों का सबसे बड़ा सकारात्मक पक्ष है, और वही इनका बुनियादी उद्देश्य होना चाहिए।
लेकिन ऐसे अभियानों से होने वाले परोक्ष लाभ बहुत सारे हैं। चंद्र अभियान एक अंतरराष्ट्रीय महाशक्ति के रूप में भारत के उभार से जुड़ा है। वह हमारे देश की समग्र शक्ति, मेधा और सामाजिक.वैज्ञानिक.राजनैतिक परिपक्वता का प्रतीक है। कुछ समय पहले चीन ने अपने चंद्र अभियान के पक्ष में दलील देते हुए कहा था कि यह उसकी समग्र राष्ट्रीय शक्ति को सिद्ध करेगा और उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्रदान करेगा। यह भारत पर भी लागू होता है जिसके लिए चंद्र अभियान राष्ट्रीय गौरव का विषय तो है ही, विश्व स्तर पर हमारे आगमन का उद्घोष भी करता है। चंद्रमा पर मौजूद खनिज भंडार, ऊर्जा संसाधन और वहां के वातावरण के बारे में बोलने का अधिकार भी किसी भी राष्ट्र को तभी मिलेगा जब वह चंद्रमा की खोज करने वाले विशेष समूह में मौजूद होगा।
Friday, September 4, 2009
संथानम के सवालों को निंदा नहीं, जवाब चाहिए
श्री संथानम संभवत: सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि हमारे पास बिना नए परमाणु परीक्षणों के आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त डेटा नहीं है। यानी भारत को सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने चाहिए और भविष्य में परमाणु परीक्षणों के लिए रास्ता खुला रखना चाहिए।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
भारत के परमाणु.अस्त्र कार्यक्रम के पूर्व समन्वयक के संथानम ने पोखरण-2 के बारे में अपने बयान से अणु-विस्फोट सा कर दिया है। जैसा कि लीक से हटकर बात करने का दुस्साहस दिखाने वालों के साथ भारत में होता है, श्री संथानम की निंदा और उनके बयानों के खंडन का दौर जारी है। उनके बयान को हमारे राष्ट्र गौरव के एक प्रतीक पर हमले के रूप में लिया जा रहा है। लेकिन कई दशकों तक भारत के परमाणु कार्यक्रम की सेवा करने वाले एक वैज्ञानिक को सिर्फ इसीलिए 'खलनायक' के रूप में देखने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि उन्होंने पोखरण-2 के पहले हाइड्रोजन बम परीक्षण के बारे में एक अप्रिय तथ्य का साहसिक खुलासा किया। जरूरत उनके बयान को 'असत्य' करार देने में पूरी शक्ति लगा देने की नहीं है। जरूरत है असलियत का पता लगाने और उसके अनुसार आगे कदम उठाने की।
क्या हमें श्री संथानम के मंसूबों पर संदेह करना चाहिए? शायद नहीं। वे अपना बयान देने के बाद भी उस पर अडिग हैं। यहां तक कि पूर्व राष्ट्रपति डॉ॰ एपीजे अब्दुल कलाम, प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह, गृह मंत्री पी चिदंबरम, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा और परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर का बयान आने के बाद भी उनके मत में कोई बदलाव नहीं आया है। एक वैज्ञानिक इतनी बड़ी हस्तियों के प्रतिवाद के बावजूद अपने बयान पर कायम है तो ऐसा अकारण नहीं हो सकता। डा॰ संथानम कोई आम आदमी नहीं हैं। वे कोई सामान्य वैज्ञानिक भी नहीं हैं बल्कि लंबे समय तक भारत के परमाणु कायर्क्रम से जुड़े रहे हैं और पोखरण-2 के दौरान परीक्षण स्थल के निदेशक थे।
मुझे नहीं लगता कि उनकी देशभक्ति में कोई कमी हो सकती है। उनके बयान ने पूरे देश को भौंचक जरूर कर दिया है, अपनी परमाणु क्षमता के बारे में हमारे आत्मविश्वास को भी कुछ ठेस लगी है लेकिन इस मुद्दे पर बहुत भावुक होने और उसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने की जरूरत नहीं है। जरूरत है उनके बयान में छिपे निहितार्थों को समझने की। वे ऐसा कहने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक भारत के परमाणु परीक्षणों पर पहले ही सवाल उठा चुके हैं। यहां तक कि भारतीय परमाणु ऊर्जा कायर्क्रम के पूर्व अध्यक्ष डॉ॰ पीके आयंगर भी 1998 से ही लगभग इसी तरह की बात कहते आए हैं। इन आपत्तियों को लगातार नकारकर बेवजह भ्रम पाले रखने से कोई लाभ नहीं होगा। वैज्ञानिक परिघटनाओं को बयानबाजी या प्रचार की नहीं, व्यावहारिक तथ्यान्वेषण की अधिक जरूरत होती है।
के संथानम के बयान के बाद मीडिया और आम लोगों के बीच ऐसी धारणा बन रही है कि पोखरण-2 के दौरान 11 और 13 मई 1998 को हुए परमाणु परीक्षण उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। ऐसा नहीं है। श्री संथानम उस समय हुए पांच परीक्षणों में से सिर्फ एक परीक्षण के बारे में कह रहे हैं। उसे भी उन्होंने नाकाम नहीं बताया है। उसे उम्मीदों से कम माना है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत के परमाणु अस्त्र कार्यक्रम या हमारी परमाणु क्षमता को लेकर किसी तरह का संदेह नहीं है। श्री संथानम, परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ॰ पीके आयंगर और कुछ अन्य वैज्ञानिकों का संकेत पहले परमाणु परीक्षण की ओर है जो एक थर्मो-न्यूक्लियर परीक्षण था। इसे आम भाषा में हाइड्रोजन बम कहा जाता है। यदि श्री संथानम और इन वैज्ञानिकों की बात सही है तब भी हम इस बात को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं कि भारत के पास 'हाइड्रोजन बम' भले ही न हो, परमाणु बम (न्यूक्लियर बम) तो मौजूद है। देश की सुरक्षा के लिए वह पर्याप्त है।
अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम ही गिराया था। हाइड्रोजन बम परमाणु बम से आगे की चीज है। उसका विस्फोट करने के लिए पहले परमाणु विस्फोट की क्षमता होना अनिवायर् है क्योंकि हाइड्रोजन बम विस्फोट के लिए अत्यधिक ऊर्जा की जरूरत होती है जिसे पहले सामान्य परमाणु विस्फोट (वैज्ञानिक शब्दावली में 'फिशन') करके प्राप्त किया जाता है। इस विस्फोट की ऊर्जा का इस्तेमाल हाइड्रोजन बम के विस्फोट (वैज्ञानिक शब्दावली में 'फ्यूज़न') के लिए किया जाता है, जो दूसरे स्तर का परमाणु हथियार है। श्री संथानम और अन्य वैज्ञानिकों ने परमाणु विस्फोट (पहले स्तर के विस्फोट) की हमारी क्षमता पर कोई संदेह नहीं उठाया है। उन्होंने दूसरे स्तर के विस्फोट की गहनता को उम्मीद से कम बताया है। इसे लेकर बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि परमाणु बम की विनाशलीला भी कोई कम नहीं होती। वैसे भी इन बमों को इस्तेमाल करने की स्थिति शायद कभी न आए। इनका वास्तविक उपयोग शत्रु को यह दिखाने में है कि यदि हम युद्ध में कमजोर पड़े तो इस विकल्प का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसी को सैनिक भाषा में 'मिनिमम डिटरेंस' कहा जाता है।
श्री संथानम का तर्क है कि थर्मोन्यूक्लियर युक्ति (हाइड्रोजन बम) का सफलतापूर्वक परीक्षण पहले ही प्रयास में हो जाए यह जरूरी नहीं है। इसमें लज्जा जैसी कोई बात नहीं है। यह एक वैज्ञानिक प्रयोग है जिसमें बार.बार के परीक्षण के बाद ही पूर्ण दक्षता मिलती है। इंग्लैंड ने अपने हाइड्रोजन बम के परीक्षण के लिए तीन परमाणु विस्फोट (फिशन) किए थे और फ्रांस को 29 परीक्षण करने पड़े थे। हमने सिर्फ एक हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया है और हम विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में इन दोनों देशों से आगे नहीं हैं। एक प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक ने लिखा है कि हाइड्रोजन बम का परीक्षण बेहद जटिल प्रक्रिया है जिसमें हजारों प्रक्रियाओं और डिजाइन फीचर्स को एक साथ, एक दूसरे के साथ सटीक तालमेल बनाते हुए काम करना होता है। उनमें से किसी के भी इधर.उधर होने पर परीक्षण नाकाम हो सकता है। अमेरिका (1800), रूस (800) और चीन (75) ने यदि आज इसमें दक्षता प्राप्त कर ली है तो इसलिए कि उन्होंने लंबे समय तक ऐसे सैंकड़ों परीक्षण किए हैं। हमारा एकमात्र हाइड्रोजन बम परीक्षण यदि हमें उनके स्तर पर नहीं ले जा सकता, तो इसमें प्रतिष्ठा से जुड़ी क्या बात है? जरूरत है तो शायद पुन: परमाणु परीक्षण न करने के हमारे एकतरफा संकल्प पर पुनर्विचार करने की।
संभवत: यही श्री संथानम के बयानों का उद्देश्य भी है। अमेरिका में ओबामा प्रशासन के सत्ता में आने के बाद से भारत पर समग्र परमाणु परीक्षण निषेध संधि (सीटीबीटी) पर दस्तखत करने के लिए भारी अमेरिकी दबाव पड़ रहा है। यह मुद्दा संसद में भी उठा है। आम तौर पर यह माना जाता है कि आज तकनीक जिस स्तर पर है उसमें बार.बार परमाणु परीक्षण करने की जरूरत नहीं होती और पहले परीक्षणों से प्राप्त डेटा का प्रयोग कर कंप्यूटर सॉफ्टवेयर सिमुलेशन का प्रयोग कर प्रयोगशालाओं में 'वर्चुअल' परीक्षण किए जा सकते हैं। भारत के बहुत से वैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि अब हमें परीक्षण करने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमारे पास सिमुलेशन के लिए पयरप्त डेटा मौजूद है।
श्री संथानम के बयान को यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो संभवत: वे सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि नहीं, हमारे पास पर्याप्त डेटा नहीं है। हमारा पहला हाइड्रोजन बम परीक्षण अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं था। यानी भारत को सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने चाहिए और भविष्य में परमाणु परीक्षणों के लिए रास्ता खुला रखना चाहिए। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर ने भी एक बार कहा था कि हमारे पास परमाणु परीक्षणों के सिमुलेशन का काम करने योग्य सुपर.कंप्यूटर नहीं हैं। इसके लिए 10000 खरब गणनाएं प्रति सैकंड की क्षमता वाले सुपर कंप्यूटर की आवश्यकता है जबकि भारतीय सुपर कंप्यूटर प्रति सैकंड सिर्फ 20 खरब गणनाएं करने में सक्षम है। श्री संथानम और श्री काकोदकर के बयानों को जोड़कर देखा जाए तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि हमें भविष्य में परमाणु परीक्षणों की संभावना खुली रखनी चाहिए।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
भारत के परमाणु.अस्त्र कार्यक्रम के पूर्व समन्वयक के संथानम ने पोखरण-2 के बारे में अपने बयान से अणु-विस्फोट सा कर दिया है। जैसा कि लीक से हटकर बात करने का दुस्साहस दिखाने वालों के साथ भारत में होता है, श्री संथानम की निंदा और उनके बयानों के खंडन का दौर जारी है। उनके बयान को हमारे राष्ट्र गौरव के एक प्रतीक पर हमले के रूप में लिया जा रहा है। लेकिन कई दशकों तक भारत के परमाणु कार्यक्रम की सेवा करने वाले एक वैज्ञानिक को सिर्फ इसीलिए 'खलनायक' के रूप में देखने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि उन्होंने पोखरण-2 के पहले हाइड्रोजन बम परीक्षण के बारे में एक अप्रिय तथ्य का साहसिक खुलासा किया। जरूरत उनके बयान को 'असत्य' करार देने में पूरी शक्ति लगा देने की नहीं है। जरूरत है असलियत का पता लगाने और उसके अनुसार आगे कदम उठाने की।
क्या हमें श्री संथानम के मंसूबों पर संदेह करना चाहिए? शायद नहीं। वे अपना बयान देने के बाद भी उस पर अडिग हैं। यहां तक कि पूर्व राष्ट्रपति डॉ॰ एपीजे अब्दुल कलाम, प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह, गृह मंत्री पी चिदंबरम, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा और परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर का बयान आने के बाद भी उनके मत में कोई बदलाव नहीं आया है। एक वैज्ञानिक इतनी बड़ी हस्तियों के प्रतिवाद के बावजूद अपने बयान पर कायम है तो ऐसा अकारण नहीं हो सकता। डा॰ संथानम कोई आम आदमी नहीं हैं। वे कोई सामान्य वैज्ञानिक भी नहीं हैं बल्कि लंबे समय तक भारत के परमाणु कायर्क्रम से जुड़े रहे हैं और पोखरण-2 के दौरान परीक्षण स्थल के निदेशक थे।
मुझे नहीं लगता कि उनकी देशभक्ति में कोई कमी हो सकती है। उनके बयान ने पूरे देश को भौंचक जरूर कर दिया है, अपनी परमाणु क्षमता के बारे में हमारे आत्मविश्वास को भी कुछ ठेस लगी है लेकिन इस मुद्दे पर बहुत भावुक होने और उसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने की जरूरत नहीं है। जरूरत है उनके बयान में छिपे निहितार्थों को समझने की। वे ऐसा कहने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक भारत के परमाणु परीक्षणों पर पहले ही सवाल उठा चुके हैं। यहां तक कि भारतीय परमाणु ऊर्जा कायर्क्रम के पूर्व अध्यक्ष डॉ॰ पीके आयंगर भी 1998 से ही लगभग इसी तरह की बात कहते आए हैं। इन आपत्तियों को लगातार नकारकर बेवजह भ्रम पाले रखने से कोई लाभ नहीं होगा। वैज्ञानिक परिघटनाओं को बयानबाजी या प्रचार की नहीं, व्यावहारिक तथ्यान्वेषण की अधिक जरूरत होती है।
के संथानम के बयान के बाद मीडिया और आम लोगों के बीच ऐसी धारणा बन रही है कि पोखरण-2 के दौरान 11 और 13 मई 1998 को हुए परमाणु परीक्षण उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। ऐसा नहीं है। श्री संथानम उस समय हुए पांच परीक्षणों में से सिर्फ एक परीक्षण के बारे में कह रहे हैं। उसे भी उन्होंने नाकाम नहीं बताया है। उसे उम्मीदों से कम माना है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत के परमाणु अस्त्र कार्यक्रम या हमारी परमाणु क्षमता को लेकर किसी तरह का संदेह नहीं है। श्री संथानम, परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ॰ पीके आयंगर और कुछ अन्य वैज्ञानिकों का संकेत पहले परमाणु परीक्षण की ओर है जो एक थर्मो-न्यूक्लियर परीक्षण था। इसे आम भाषा में हाइड्रोजन बम कहा जाता है। यदि श्री संथानम और इन वैज्ञानिकों की बात सही है तब भी हम इस बात को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं कि भारत के पास 'हाइड्रोजन बम' भले ही न हो, परमाणु बम (न्यूक्लियर बम) तो मौजूद है। देश की सुरक्षा के लिए वह पर्याप्त है।
अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम ही गिराया था। हाइड्रोजन बम परमाणु बम से आगे की चीज है। उसका विस्फोट करने के लिए पहले परमाणु विस्फोट की क्षमता होना अनिवायर् है क्योंकि हाइड्रोजन बम विस्फोट के लिए अत्यधिक ऊर्जा की जरूरत होती है जिसे पहले सामान्य परमाणु विस्फोट (वैज्ञानिक शब्दावली में 'फिशन') करके प्राप्त किया जाता है। इस विस्फोट की ऊर्जा का इस्तेमाल हाइड्रोजन बम के विस्फोट (वैज्ञानिक शब्दावली में 'फ्यूज़न') के लिए किया जाता है, जो दूसरे स्तर का परमाणु हथियार है। श्री संथानम और अन्य वैज्ञानिकों ने परमाणु विस्फोट (पहले स्तर के विस्फोट) की हमारी क्षमता पर कोई संदेह नहीं उठाया है। उन्होंने दूसरे स्तर के विस्फोट की गहनता को उम्मीद से कम बताया है। इसे लेकर बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि परमाणु बम की विनाशलीला भी कोई कम नहीं होती। वैसे भी इन बमों को इस्तेमाल करने की स्थिति शायद कभी न आए। इनका वास्तविक उपयोग शत्रु को यह दिखाने में है कि यदि हम युद्ध में कमजोर पड़े तो इस विकल्प का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसी को सैनिक भाषा में 'मिनिमम डिटरेंस' कहा जाता है।
श्री संथानम का तर्क है कि थर्मोन्यूक्लियर युक्ति (हाइड्रोजन बम) का सफलतापूर्वक परीक्षण पहले ही प्रयास में हो जाए यह जरूरी नहीं है। इसमें लज्जा जैसी कोई बात नहीं है। यह एक वैज्ञानिक प्रयोग है जिसमें बार.बार के परीक्षण के बाद ही पूर्ण दक्षता मिलती है। इंग्लैंड ने अपने हाइड्रोजन बम के परीक्षण के लिए तीन परमाणु विस्फोट (फिशन) किए थे और फ्रांस को 29 परीक्षण करने पड़े थे। हमने सिर्फ एक हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया है और हम विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में इन दोनों देशों से आगे नहीं हैं। एक प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक ने लिखा है कि हाइड्रोजन बम का परीक्षण बेहद जटिल प्रक्रिया है जिसमें हजारों प्रक्रियाओं और डिजाइन फीचर्स को एक साथ, एक दूसरे के साथ सटीक तालमेल बनाते हुए काम करना होता है। उनमें से किसी के भी इधर.उधर होने पर परीक्षण नाकाम हो सकता है। अमेरिका (1800), रूस (800) और चीन (75) ने यदि आज इसमें दक्षता प्राप्त कर ली है तो इसलिए कि उन्होंने लंबे समय तक ऐसे सैंकड़ों परीक्षण किए हैं। हमारा एकमात्र हाइड्रोजन बम परीक्षण यदि हमें उनके स्तर पर नहीं ले जा सकता, तो इसमें प्रतिष्ठा से जुड़ी क्या बात है? जरूरत है तो शायद पुन: परमाणु परीक्षण न करने के हमारे एकतरफा संकल्प पर पुनर्विचार करने की।
संभवत: यही श्री संथानम के बयानों का उद्देश्य भी है। अमेरिका में ओबामा प्रशासन के सत्ता में आने के बाद से भारत पर समग्र परमाणु परीक्षण निषेध संधि (सीटीबीटी) पर दस्तखत करने के लिए भारी अमेरिकी दबाव पड़ रहा है। यह मुद्दा संसद में भी उठा है। आम तौर पर यह माना जाता है कि आज तकनीक जिस स्तर पर है उसमें बार.बार परमाणु परीक्षण करने की जरूरत नहीं होती और पहले परीक्षणों से प्राप्त डेटा का प्रयोग कर कंप्यूटर सॉफ्टवेयर सिमुलेशन का प्रयोग कर प्रयोगशालाओं में 'वर्चुअल' परीक्षण किए जा सकते हैं। भारत के बहुत से वैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि अब हमें परीक्षण करने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमारे पास सिमुलेशन के लिए पयरप्त डेटा मौजूद है।
श्री संथानम के बयान को यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो संभवत: वे सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि नहीं, हमारे पास पर्याप्त डेटा नहीं है। हमारा पहला हाइड्रोजन बम परीक्षण अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं था। यानी भारत को सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने चाहिए और भविष्य में परमाणु परीक्षणों के लिए रास्ता खुला रखना चाहिए। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर ने भी एक बार कहा था कि हमारे पास परमाणु परीक्षणों के सिमुलेशन का काम करने योग्य सुपर.कंप्यूटर नहीं हैं। इसके लिए 10000 खरब गणनाएं प्रति सैकंड की क्षमता वाले सुपर कंप्यूटर की आवश्यकता है जबकि भारतीय सुपर कंप्यूटर प्रति सैकंड सिर्फ 20 खरब गणनाएं करने में सक्षम है। श्री संथानम और श्री काकोदकर के बयानों को जोड़कर देखा जाए तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि हमें भविष्य में परमाणु परीक्षणों की संभावना खुली रखनी चाहिए।
Saturday, August 22, 2009
जसवंत तो गए मगर असली मुद्दे क्या हुए?
जसवंत सिंह दुर्भाग्यशाली रहे कि उनकी पुस्तक ऐसे समय पर बाजार में आई जब भाजपा अपनी पहचान और विचारधारा के संकटों के साथ.साथ आंतरिक अनुशासन बनाए रखने की चुनौती से भी जूझ रही थी। अगर यह पुस्तक एक महीने पहले या एक महीने बाद आई होती तो शायद हालात कुछ और होते।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
वरिष्ठ राजनेता जसवंत सिंह की पुस्तक 'जिन्ना: भारत.विभाजन.आजादी' भारतीय राजनीति में हलचल लाएगी इसका अनुमान कुछ महीनों से आते रहे उनके बयानों से लग जाता था। लेकिन अपने प्रकाशन के एक हफ्ते के भीतर वह एक राजनैतिक भूचाल को जन्म देगी जिसमें खुद श्री सिंह का तीस साल पुराना राजनैतिक जीवन दांव पर लग जाएगा, इसका अनुमान न उन्हें रहा होगा और न उनके विरुद्ध फैसला करने वाले नेताओं को। जसवंत सिंह दुर्भाग्यशाली रहे कि उनकी पुस्तक ऐसे समय पर बाजार में आई जब भाजपा अपनी पहचान और विचारधारा के संकटों के साथ.साथ आंतरिक अनुशासन बनाए रखने की चुनौती से भी जूझ रही थी। अगर यह पुस्तक एक महीने पहले या एक महीने बाद आई होती तो शायद हालात कुछ और होते।
जसवंत सिंह ने इस पुस्तक की योजना बनाते समय एक अति.महत्वाकांक्षी कदम उठाया था। एक भाजपा नेता के लिए इसे दुस्साहसी कदम भी कहा जा सकता था क्योंकि उनकी पुस्तक की मूल अवधारणा जिन्ना का मूल रूप से सेक्युलर होना और भारत के विभाजन के लिए दोषी न होना न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की मूलभूत विचारधारा से मेल नहीं खाती थी बल्कि हम भारतीयों की मान्यताओं और धारणाओं से भी पूरी तरह अलग है। खुद पाकिस्तानियों को भी शायद जिन्ना को सेक्युलर कहे जाने पर आपित्त होगी। जिन्ना के हक में टिप्पणी करने पर भारतीय जनता पार्टी ने समसामियक राजनीति में अपने सवरधिक महत्वपूण्र नेता लालकृष्ण आडवाणी को भी नहीं बख्शा था। इसे देखते हुए श्री सिंह को इस विषय की संवेदनशीलता का अनुमान न हो, ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी उन्होंने यह पुस्तक लिखी तो संभवत: इस आश्वस्ति के साथ कि उन्हें अपने निजी विचारों को प्रकट करने का अधिकार है और पार्टी उन्हें इसकी स्वतंत्रता देगी।
लेकिन वास्तविकता कल्पनाओं की तुलना में अप्रिय होती है। भारतीय राजनीति में अलग.थलग पड़े जसवंत सिंह आज इसे महसूस कर रहे हैं। वे न भाजपा के रहे, न किसी और के हो सकते हैं। भाजपा ने उनकी पुस्तक को सरदार पटेल और जिन्ना के मुद्दों पर अपनी मूलभूत विचारधारा के विरुद्ध बताते हुए तीन दशकों की उनकी सेवाओं को एक झटके में अनदेखा कर दिया। एक लेखक के तौर पर शायद जसवंत सिंह के लिए यह अप्रत्याशित और दुखद हो लेकिन एक राजनेता के रूप में उन्हें इन बातों का अहसास पहले ही हो जाना चाहिए था। अपनी लेखकीय आजादी का इस्तेमाल करते समय संभवत: वे भारतीय राजनीति की सीमाओं को भूल गए थे।
पार्टी का संदेश
पिछले लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद से ही भाजपा स्वयं को अनुशासनहीनता और वैचारिक विचलन की धाराओं से त्रस्त पा रही थी। खुद जसवंत सिंह की टिप्पणी थी कि पार्टी के छोटे.छोटे नेता भी अपनी.अपनी विचारधारात्मक फुटबाल खेलने में लगे थे। राज्यों में कई क्षत्रप इतने मजबूत हो चुके थे कि केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी उनकी जड़ों को हिला पाना मुश्किल हो गया था। पार्टी में सर्वोच्च स्तर पर भी विचारधारात्मक भ्रम की स्थिति आ चुकी थी और कई केंद्रीय नेता भी गाहे.बगाहे परोक्ष या खुली बगावत से नेतृत्व को संकट में डालते रहे थे। अच्छी छवि वाले कुछ नेताओं ने लोकसभा चुनाव में पार्टी की पराजय को लेकर जिम्मेदारी तय करने की मांग कर बड़े नेताओं को उलझन में डाला हुआ था। मीडिया में आने वाली पुष्ट.अपुष्ट खबरों से भी पार्टी की छवि को नुकसान हो रहा था। ऐसे में पार्टी एक बड़ा कदम उठाकर निम्नतम से लेकर सर्वोच्च स्तर तक एक संदेश भेजना चाहती थी। जसवंत सिंह के पार्टी से निष्कासन के बाद जिस तरह पार्टी कैडर और असंतुष्ट नेताओं के बीच सन्नाटा पसर गया है उससे जाहिर है कि पार्टी नेतृत्व कुछ हद तक अपनी इस रणनीति में सफल रहा।
बहरहाल, जसवंत सिंह ने अपने निष्कासन के बाद ऐसे कई मुद्दे उठाए हैं जिन पर भाजपा नेतृत्व खुद को असहज महसूस कर रहा है। सरदार पटेल के मुद्दे पर पार्टी के आधिकारिक बयान का उन्होंने यह कहते हुए मजबूत प्रतिवाद किया कि सरदार पटेल भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा के केंद्र में कैसे हो सकते हैं जबकि वे ही भारत के पहले गृह मंत्री थे जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया। लालकृष्ण आडवाणी ने इसका जवाब देते हुए पंडित नेहरू पर दोष डाला है कि सरदार ने उनके प्रभाव में आकर यह प्रतिबंध लगाया था लेकिन सरदार को बेहतर ढंग से पढ़ते.लिखते और जानते रहे इतिहासकारों का बयान आया है कि वे इतने कमजोर नहीं थे कि बिना खुद सहमत हुए, नेहरूजी के दबाव में आकर इतना बड़ा फैसला उठा लेते। भाजपा को सोचना होगा कि क्या उसे सरदार पटेल और जिन्ना के संदभ्र में अपनी सोच और बयानों पर पुनर्विचार की जरूरत है।
राजनैतिक विवशता
हालांकि जसवंत सिंह ने बार.बार कहा है कि उनकी पुस्तक में दिए विचार उनके अपने हैं और पार्टी की आधिकारिक विचारधारा से उनका कोई संबंध नहीं है। लेकिन भाजपा उनकी पुस्तक से स्वयं को अलग करते हुए भी इसे दूसरे रूप में देखती है। श्री सिंह एक वरिष्ठ राजनेता हैं और वे भाजपा नेतृत्व के फैसलों तथा नीतियों से सीधे जुड़े रहे हैं। उनके विचारों को भले ही राजनेताओं और मीडिया के स्तर पर पार्टी से अलग करके देखा जाए लेकिन आम आदमी के स्तर पर वे पार्टी की आवाज का प्रतिनिधित्व ही करते हैं। जो भाजपा पाकिस्तान, जिन्ना तथा नेहरू के विरोध और हिंदुओं के समर्थन की धुरी पर टिकी हुई है वह अपने किसी वरिष्ठ नेता द्वारा अपनी ही विचारधारा के खंडन का जोखिम मोल नहीं ले सकती। उसे पता है कि यह किताब उसे मुस्लिमों के करीब नहीं ले जा सकती और पाकिस्तान के हक में दिखना भारतीय राजनीति में आत्महत्या करने के समान है।
इस मामले का एक अन्य पहलू भी है। पिछले लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद पार्टी नेतृत्व में बदलाव की सुगबुगाहट शुरू होकर अब धीरे.धीरे शांत हो चुकी है। कुछ नेता बीच.बीच में यह मुद्दा उठाने का नाकाम प्रयास करते रहे हैं लेकिन पार्टी नेतृत्व संगठन पर अपनी पकड़ ढीली करने के मूड में नहीं दिखता। चिंतन बैठक से ठीक पहले संघ ने पार्टी को अपनी चुनावी हार की जिम्मेदारी तय करने और नए चेहरों को आगे लाने के लिए दबाव बनाया था। लेकिन जसवंत सिंह के निष्कासन का बड़ा फैसला करके बाकी सभी मुद्दों को एक बार फिर पृष्ठभूमि में भेज दिया गया है। बहस का मुद्दा जिम्मेदारी तय करना या नेतृत्व परिवर्तन नहीं रहा। फिलहाल तो वह जिन्ना और जसवंत पर केंद्रित हो चुका है।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
वरिष्ठ राजनेता जसवंत सिंह की पुस्तक 'जिन्ना: भारत.विभाजन.आजादी' भारतीय राजनीति में हलचल लाएगी इसका अनुमान कुछ महीनों से आते रहे उनके बयानों से लग जाता था। लेकिन अपने प्रकाशन के एक हफ्ते के भीतर वह एक राजनैतिक भूचाल को जन्म देगी जिसमें खुद श्री सिंह का तीस साल पुराना राजनैतिक जीवन दांव पर लग जाएगा, इसका अनुमान न उन्हें रहा होगा और न उनके विरुद्ध फैसला करने वाले नेताओं को। जसवंत सिंह दुर्भाग्यशाली रहे कि उनकी पुस्तक ऐसे समय पर बाजार में आई जब भाजपा अपनी पहचान और विचारधारा के संकटों के साथ.साथ आंतरिक अनुशासन बनाए रखने की चुनौती से भी जूझ रही थी। अगर यह पुस्तक एक महीने पहले या एक महीने बाद आई होती तो शायद हालात कुछ और होते।
जसवंत सिंह ने इस पुस्तक की योजना बनाते समय एक अति.महत्वाकांक्षी कदम उठाया था। एक भाजपा नेता के लिए इसे दुस्साहसी कदम भी कहा जा सकता था क्योंकि उनकी पुस्तक की मूल अवधारणा जिन्ना का मूल रूप से सेक्युलर होना और भारत के विभाजन के लिए दोषी न होना न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की मूलभूत विचारधारा से मेल नहीं खाती थी बल्कि हम भारतीयों की मान्यताओं और धारणाओं से भी पूरी तरह अलग है। खुद पाकिस्तानियों को भी शायद जिन्ना को सेक्युलर कहे जाने पर आपित्त होगी। जिन्ना के हक में टिप्पणी करने पर भारतीय जनता पार्टी ने समसामियक राजनीति में अपने सवरधिक महत्वपूण्र नेता लालकृष्ण आडवाणी को भी नहीं बख्शा था। इसे देखते हुए श्री सिंह को इस विषय की संवेदनशीलता का अनुमान न हो, ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी उन्होंने यह पुस्तक लिखी तो संभवत: इस आश्वस्ति के साथ कि उन्हें अपने निजी विचारों को प्रकट करने का अधिकार है और पार्टी उन्हें इसकी स्वतंत्रता देगी।
लेकिन वास्तविकता कल्पनाओं की तुलना में अप्रिय होती है। भारतीय राजनीति में अलग.थलग पड़े जसवंत सिंह आज इसे महसूस कर रहे हैं। वे न भाजपा के रहे, न किसी और के हो सकते हैं। भाजपा ने उनकी पुस्तक को सरदार पटेल और जिन्ना के मुद्दों पर अपनी मूलभूत विचारधारा के विरुद्ध बताते हुए तीन दशकों की उनकी सेवाओं को एक झटके में अनदेखा कर दिया। एक लेखक के तौर पर शायद जसवंत सिंह के लिए यह अप्रत्याशित और दुखद हो लेकिन एक राजनेता के रूप में उन्हें इन बातों का अहसास पहले ही हो जाना चाहिए था। अपनी लेखकीय आजादी का इस्तेमाल करते समय संभवत: वे भारतीय राजनीति की सीमाओं को भूल गए थे।
पार्टी का संदेश
पिछले लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद से ही भाजपा स्वयं को अनुशासनहीनता और वैचारिक विचलन की धाराओं से त्रस्त पा रही थी। खुद जसवंत सिंह की टिप्पणी थी कि पार्टी के छोटे.छोटे नेता भी अपनी.अपनी विचारधारात्मक फुटबाल खेलने में लगे थे। राज्यों में कई क्षत्रप इतने मजबूत हो चुके थे कि केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी उनकी जड़ों को हिला पाना मुश्किल हो गया था। पार्टी में सर्वोच्च स्तर पर भी विचारधारात्मक भ्रम की स्थिति आ चुकी थी और कई केंद्रीय नेता भी गाहे.बगाहे परोक्ष या खुली बगावत से नेतृत्व को संकट में डालते रहे थे। अच्छी छवि वाले कुछ नेताओं ने लोकसभा चुनाव में पार्टी की पराजय को लेकर जिम्मेदारी तय करने की मांग कर बड़े नेताओं को उलझन में डाला हुआ था। मीडिया में आने वाली पुष्ट.अपुष्ट खबरों से भी पार्टी की छवि को नुकसान हो रहा था। ऐसे में पार्टी एक बड़ा कदम उठाकर निम्नतम से लेकर सर्वोच्च स्तर तक एक संदेश भेजना चाहती थी। जसवंत सिंह के पार्टी से निष्कासन के बाद जिस तरह पार्टी कैडर और असंतुष्ट नेताओं के बीच सन्नाटा पसर गया है उससे जाहिर है कि पार्टी नेतृत्व कुछ हद तक अपनी इस रणनीति में सफल रहा।
बहरहाल, जसवंत सिंह ने अपने निष्कासन के बाद ऐसे कई मुद्दे उठाए हैं जिन पर भाजपा नेतृत्व खुद को असहज महसूस कर रहा है। सरदार पटेल के मुद्दे पर पार्टी के आधिकारिक बयान का उन्होंने यह कहते हुए मजबूत प्रतिवाद किया कि सरदार पटेल भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा के केंद्र में कैसे हो सकते हैं जबकि वे ही भारत के पहले गृह मंत्री थे जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया। लालकृष्ण आडवाणी ने इसका जवाब देते हुए पंडित नेहरू पर दोष डाला है कि सरदार ने उनके प्रभाव में आकर यह प्रतिबंध लगाया था लेकिन सरदार को बेहतर ढंग से पढ़ते.लिखते और जानते रहे इतिहासकारों का बयान आया है कि वे इतने कमजोर नहीं थे कि बिना खुद सहमत हुए, नेहरूजी के दबाव में आकर इतना बड़ा फैसला उठा लेते। भाजपा को सोचना होगा कि क्या उसे सरदार पटेल और जिन्ना के संदभ्र में अपनी सोच और बयानों पर पुनर्विचार की जरूरत है।
राजनैतिक विवशता
हालांकि जसवंत सिंह ने बार.बार कहा है कि उनकी पुस्तक में दिए विचार उनके अपने हैं और पार्टी की आधिकारिक विचारधारा से उनका कोई संबंध नहीं है। लेकिन भाजपा उनकी पुस्तक से स्वयं को अलग करते हुए भी इसे दूसरे रूप में देखती है। श्री सिंह एक वरिष्ठ राजनेता हैं और वे भाजपा नेतृत्व के फैसलों तथा नीतियों से सीधे जुड़े रहे हैं। उनके विचारों को भले ही राजनेताओं और मीडिया के स्तर पर पार्टी से अलग करके देखा जाए लेकिन आम आदमी के स्तर पर वे पार्टी की आवाज का प्रतिनिधित्व ही करते हैं। जो भाजपा पाकिस्तान, जिन्ना तथा नेहरू के विरोध और हिंदुओं के समर्थन की धुरी पर टिकी हुई है वह अपने किसी वरिष्ठ नेता द्वारा अपनी ही विचारधारा के खंडन का जोखिम मोल नहीं ले सकती। उसे पता है कि यह किताब उसे मुस्लिमों के करीब नहीं ले जा सकती और पाकिस्तान के हक में दिखना भारतीय राजनीति में आत्महत्या करने के समान है।
इस मामले का एक अन्य पहलू भी है। पिछले लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद पार्टी नेतृत्व में बदलाव की सुगबुगाहट शुरू होकर अब धीरे.धीरे शांत हो चुकी है। कुछ नेता बीच.बीच में यह मुद्दा उठाने का नाकाम प्रयास करते रहे हैं लेकिन पार्टी नेतृत्व संगठन पर अपनी पकड़ ढीली करने के मूड में नहीं दिखता। चिंतन बैठक से ठीक पहले संघ ने पार्टी को अपनी चुनावी हार की जिम्मेदारी तय करने और नए चेहरों को आगे लाने के लिए दबाव बनाया था। लेकिन जसवंत सिंह के निष्कासन का बड़ा फैसला करके बाकी सभी मुद्दों को एक बार फिर पृष्ठभूमि में भेज दिया गया है। बहस का मुद्दा जिम्मेदारी तय करना या नेतृत्व परिवर्तन नहीं रहा। फिलहाल तो वह जिन्ना और जसवंत पर केंद्रित हो चुका है।
Friday, August 14, 2009
वह हमारी ताकत है जिसे चीन कमजोरी समझता है
चीनी सामरिक विशेषज्ञ आज की बदली हुई भू.राजनैतिक परिस्थितियों से अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं जब उनका 'शत्रु' 1950 के दशक के जंग लगे टैंकों और विमानों के युग से बहुत आगे आ चुका है। वह एक परमाणु शक्ति है और महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति भी।
-बालेन्दु शर्मा दाधीच
चीन से लौटकर आने वाले मित्रों से यह सुनना सुखद लगता था कि आम चीनी नागरिक के मन में भारत के प्रति शत्रुता नहीं बल्कि सम्मान का भाव है। शत्रुता या प्रतिद्वंद्विता यदि है तो चीन सरकार, वहां की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के स्तर पर। लेकिन यदा.कदा चीनी सुरक्षा विशेषज्ञों, राजनेताओं और मीडिया की ओर से भारत के बारे में की जाने वाली आक्रामक और बहुधा अपमानजनक टिप्पणियां पढ़कर तथाकथित चीनी.सदाशयता की खुशफहमी काफूर हो जाती है। आम भारतीय चीन को अपनी सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हुए भी, अब तक के आहत करने वाले अनुभवों के बावजूद, उसके साथ मित्रता का हिमायती है। लेकिन उसके सामने यक्ष.प्रश्न यह है कि क्या चीनी राज्यतंत्र, और उससे भी अहम वहां का आम नागरिक भी ऐसा ही सोचता है?
एक चीनी थिंक.टैंक की वेबसाइट पर डाला गया यह सामरिक विश्लेषण कि भारत को 20 से 30 टुकड़ों में विभाजित कर दिया जाना चाहिए, इस बारे में कोई सुखद या आश्वस्तिकारक अनुभूति प्रदान नहीं करता। झान ली नामक एक विश्लेषक ने लिखा है कि भारत पारंपरिक रूप से एक राष्ट्र नहीं है बल्कि बहुत सारी स्वतंत्र राष्ट्रीयताओं का अनमेल मिश्रण है जिसे 'जरा सी कोशिश करके' खंड.खंड किया जा सकता है। वे चीन सरकार से आग्रह करते हैं कि असम, तमिलनाडु, कश्मीर, नगालैंड आदि राज्यों में मौजूद राष्ट्रवादी और अलगाववादी शक्तियों को समर्थन देकर और भारत के पड़ोसी राष्ट्रों (जिन्हें वे चीन के मित्र करार देते हैं) की थोड़ी सी मदद से उन्हें यह 'शुभ कायर्' कर डालना चाहिए। आखिरकार क्यों अपने पड़ोस में दुनिया के सबसे सफल लोकतंत्र और चीन के लिए उभरते हुए आर्िथक, सैन्य, राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी को लंबे समय तक बर्दाश्त किया जाए!
भारतीय लोकतंत्र की सफलता चीनियों के लिए कुंठा का विषय रही है। झान ली जैसे लोगों की टिप्पणियों से जाहिर है कि यह कुंठा या चिढ़ निरंतर बढ़ रही है। शायद ओलंपिक खेलों के समय तिब्बत में हुए विद्रोह और अब झिनझियांग में उइगुर समुदाय के अलगाववादी आंदोलन की वजह से चीन असुरक्षा बोध का शिकार हो रहा है या फिर शायद भारत के एक समानांतर शक्ति के रूप में उभरने की संभावना को पचाना उसके लिए असंभव हो रहा है।
यह 62 वाला भारत नहीं
चीनी 'विशेषज्ञ' के बयान पर चिंता इसलिए होती है कि वह वहां के राजनैतिक तंत्र के मन में भारत के लिए मौजूद रंजिश की भावना को अनावृत्त करता है। लेकिन उस पर हंसी इसलिए आती है कि बहुत से चीनी विशेषज्ञ और टिप्पणीकार संभवत: आज भी 1962 की मानसिकता में जी रहे हैं। वे बदली हुई भू.राजनैतिक परिस्थितियों से अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं जब उनका 'शत्रु' 1950 के दशक के जंग लगे टैंकों और विमानों के युग से बहुत आगे आ चुका है। वह एक राजनैतिक, कूटनीतिक, आर्िथक और परमाणविक महाशक्ति है। ऐसे किसी राष्ट्र को विभाजित या नष्ट करने का प्रयास करने वाला राष्ट्र, भले ही वह अपनी शक्ति को लेकर कितने भी अति.आत्मविश्वास से ग्रस्त क्यों न हो, स्वयं भी विनाशकारी परिणामों का सामना किए बिना नहीं रह सकता।
चीनी राजनैतिक विश्लेषकों के लिए भारतीय लोकतंत्र की शक्तियों, विशेषताओं और सफलता को समझना मुश्किल लगता है। निरंकुश, जवाबदेही से रहित और दमनकारी राजनैतिक व्यवस्था में जीने वालों के लिए उदार भारतीय लोकतंत्र की बहुलवादी, समावेशी प्रकृति, देश का भविष्य तक करने की प्रक्रिया में हर नागरिक की भागीदारी की व्यवस्था एक पहेली है। भारतीय संघ के विभिन्न भागों में मौजूद जिस अनेकता का चीनी विश्लेषक लाभ उठाने की दलील दे रहे हैं वही तो 'विभिन्नता में एकता' पर आधारित इस अद्वितीय लोकतंत्र को जोड़ने वाली कड़ी है। तमिलनाडु, पंजाब, मिजोरम और अन्य क्षेत्रों में बाह्य प्रोत्साहन तथा आंतरिक समस्याओं के कारण समय.समय पर अलगाववादी शक्तियां उभरी हैं। ऐसा विश्व के अधिकांश देशों में होता रहा है। लेकिन ये ताकतें भारत के अस्तित्व के लिए खतरा नहीं बन सकीं तो सिर्फ इसलिए कि लोकतंत्र हमारे स्वभाव में है। हिंदुत्व के उदारतावादी दर्शन के साथ उसका बहुत स्वाभाविक मेल होता है। भारत भले ही राष्ट्र.राज्य की एकतरफा चीनी अवधारणा पर फिट न बैठता हो लेकिन अनंत काल से एक समेकित सभ्यता के रूप में उसका अस्तित्व रहा है। मुस्लिम एवं अंग्रेज शासकों के आने के बाद यही हमारी राजनैतिक एकता में घनीभूत हुई, जो अब एक शाश्वत सत्य के रूप में स्वीकार हो चुकी है। भारत का हर नागरिक इस एकता को ही स्वाभाविक सत्य समझता है और इसमें उसकी अटूट आस्था है जिसे खंडित करने के ख्याली पुलाव पकाए तो बहुतों ने, खा कोई भी न सका।
भारत ने अलगाववादी ताकतों को चीन की भांति सैन्य शक्ति के निर्मम प्रयोग और निरंकुश दमन से नहीं बल्कि लोकतंत्र की शक्ति से जीता है। वही असम, कश्मीर और नगालैंड में भी होगा। वैसे भी भारत को तीस हिस्सों में बांटने वाले चीनी विशेषज्ञ सिर्फ चार.पांच राज्यों में ही समस्याएं खोज पाए। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का यह पांच प्रतिशत भी नहीं है। दूसरी ओर स्वयं चीन का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा अलगाववादी आंदोलनों की चपेट में है। तमाम अत्याचारों के बावजूद चीन झिनझियांग, तिब्बत, आंतरिक मंगोलिया और हेलोंगजांग में बगावत को शांत करने में नाकाम रहा है। क्या भारत या रूस जैसे चीन के पड़ोसी देश उन्हीं दलीलों का प्रयोग चीन के विरुद्ध नहीं कर सकते जिन्हें झान ली ने भारत के विरुद्ध पेश किया है?
एक निराशाजनक सिलसिला
एक चीनी विशेषज्ञ (जिसके बारे में अब दावा किया गया है कि वह चीन सरकार, कम्युनिस्ट पार्टी या सरकारी संस्थानों से जुड़ा हुआ नहीं है) की टिप्पणियों को लेकर हलचल इसलिए मची है कि इस तरह की टिप्पणिया मौजूदा वैश्विक वास्तविकताओं के अनुकूल नहीं है। वे एशिया की बदली हुई स्थितियों के अनुकूल भी नहीं हैं। यह विस्तारवाद का युग नहीं है। किसी राष्ट्र को समाप्त करने की बात सोचना, भले ही वह कितना भी छोटा राष्ट्र क्यों न हो (कुवैत में इराक ने जो किया उसका हश्र हम जानते हैं), आत्म.विनाशकारी दुस्साहस से अधिक कुछ नहीं है। चीनियों को अपनी सोच में व्यावहारिक होने की भी जरूरत है। जब चीन इतने दशकों में जरा से ताइवान का कुछ नहीं बिगाड़ सका तो वह भारत का भला क्या बिगाड़ सकता है जो धीरे.धीरे वैश्विक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है? लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और सेना में ऐसे अनेक लोग हैं जो आज भी पांच दशक पुरानी आक्रामक मानसिकता के शिकार हैं। यह आक्रामकता अपने अधिक शक्तिशाली पड़ोसी राष्ट्र रूस के सामने तो काफूर हो जाती है लेकिन जब जापान, भारत, ताइवान आदि का प्रसंग आता है तो इसे मुखर होने में देर नहीं लगती।
चिंता की बात यह है कि झान ली का लेख अपने आप में अकेला नहीं है। कुछ समय पहले 'पीपुल्स डेली' में भी एक लेख छपा था जिसमें भारत को अरुणाचल प्रदेश में सेना की सुरक्षात्मक तैनाती और सड़कें आदि बनाने के खिलाफ चेतावनी दी गई थी। खुद झान ली ने भी डेढ़ साल पहले 'भारत को चेतावनी' नामक एक लेख में कहा था कि भारत फिर से वैसी ही गतिविधियों में लगा है जिनके चलते 1962 का युद्ध हुआ था। झान ली के जिस चाइनीज इंटरनेशनल इन्स्टीट्यूट फार स्ट्रेटेजिक स्टडीज (सीआईआईएसएस) से जुड़े होने की बात कही जा रही है उसकी वेबसाइट पर पिछले दिनों भारत की सैन्य आकांक्षाओं के बारे में भ्रामक लेख छपे हैं। एक लेख में कहा गया है कि भारत चीन का सैनिक तौर पर मुकाबला करने के लिए 150 अरब डालर की रकम खर्च करने वाला है। इस तरह की खबरें चीनी जनमानस को भी जरूर प्रभावित करती होंगी।
प्रसंगवश, चीन के 'ग्लोबल टाइम्स' नामक अखबार द्वारा कराए गए जनमत.सर्वेक्षण पर ध्यान देना दिलचस्प होगा। इसमें भाग लेने वाले करीब 81 फीसदी चीनियों ने कहा कि उनके देश को भारत के अलगाववादी तत्वों को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन देना चाहिए। सिर्फ पंद्रह प्रतिशत का कहना था कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। यदि इस राय को आम चीनी लोगों की मानसिकता का प्रतिनिधि माना जाए तो हमारे बारे में चीनी धारणाओं की बड़ी नकारात्मक तस्वीर उभरती है। अब भले ही भारत में स्थित चीनी राजदूत दोनों देशों के बीच व्यापार वार्ताओं तथा पर्यावरण मुद्दे पर हुए सहयोग को लेकर सकारात्मक टिप्पणियां करें लेकिन चीन के बारे में भारतीयों के मन में निरंतर गहरे होते संदेह के बादल महज इन टिप्पणियों से छंट नहीं सकते।
-बालेन्दु शर्मा दाधीच
चीन से लौटकर आने वाले मित्रों से यह सुनना सुखद लगता था कि आम चीनी नागरिक के मन में भारत के प्रति शत्रुता नहीं बल्कि सम्मान का भाव है। शत्रुता या प्रतिद्वंद्विता यदि है तो चीन सरकार, वहां की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के स्तर पर। लेकिन यदा.कदा चीनी सुरक्षा विशेषज्ञों, राजनेताओं और मीडिया की ओर से भारत के बारे में की जाने वाली आक्रामक और बहुधा अपमानजनक टिप्पणियां पढ़कर तथाकथित चीनी.सदाशयता की खुशफहमी काफूर हो जाती है। आम भारतीय चीन को अपनी सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हुए भी, अब तक के आहत करने वाले अनुभवों के बावजूद, उसके साथ मित्रता का हिमायती है। लेकिन उसके सामने यक्ष.प्रश्न यह है कि क्या चीनी राज्यतंत्र, और उससे भी अहम वहां का आम नागरिक भी ऐसा ही सोचता है?
एक चीनी थिंक.टैंक की वेबसाइट पर डाला गया यह सामरिक विश्लेषण कि भारत को 20 से 30 टुकड़ों में विभाजित कर दिया जाना चाहिए, इस बारे में कोई सुखद या आश्वस्तिकारक अनुभूति प्रदान नहीं करता। झान ली नामक एक विश्लेषक ने लिखा है कि भारत पारंपरिक रूप से एक राष्ट्र नहीं है बल्कि बहुत सारी स्वतंत्र राष्ट्रीयताओं का अनमेल मिश्रण है जिसे 'जरा सी कोशिश करके' खंड.खंड किया जा सकता है। वे चीन सरकार से आग्रह करते हैं कि असम, तमिलनाडु, कश्मीर, नगालैंड आदि राज्यों में मौजूद राष्ट्रवादी और अलगाववादी शक्तियों को समर्थन देकर और भारत के पड़ोसी राष्ट्रों (जिन्हें वे चीन के मित्र करार देते हैं) की थोड़ी सी मदद से उन्हें यह 'शुभ कायर्' कर डालना चाहिए। आखिरकार क्यों अपने पड़ोस में दुनिया के सबसे सफल लोकतंत्र और चीन के लिए उभरते हुए आर्िथक, सैन्य, राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी को लंबे समय तक बर्दाश्त किया जाए!
भारतीय लोकतंत्र की सफलता चीनियों के लिए कुंठा का विषय रही है। झान ली जैसे लोगों की टिप्पणियों से जाहिर है कि यह कुंठा या चिढ़ निरंतर बढ़ रही है। शायद ओलंपिक खेलों के समय तिब्बत में हुए विद्रोह और अब झिनझियांग में उइगुर समुदाय के अलगाववादी आंदोलन की वजह से चीन असुरक्षा बोध का शिकार हो रहा है या फिर शायद भारत के एक समानांतर शक्ति के रूप में उभरने की संभावना को पचाना उसके लिए असंभव हो रहा है।
यह 62 वाला भारत नहीं
चीनी 'विशेषज्ञ' के बयान पर चिंता इसलिए होती है कि वह वहां के राजनैतिक तंत्र के मन में भारत के लिए मौजूद रंजिश की भावना को अनावृत्त करता है। लेकिन उस पर हंसी इसलिए आती है कि बहुत से चीनी विशेषज्ञ और टिप्पणीकार संभवत: आज भी 1962 की मानसिकता में जी रहे हैं। वे बदली हुई भू.राजनैतिक परिस्थितियों से अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं जब उनका 'शत्रु' 1950 के दशक के जंग लगे टैंकों और विमानों के युग से बहुत आगे आ चुका है। वह एक राजनैतिक, कूटनीतिक, आर्िथक और परमाणविक महाशक्ति है। ऐसे किसी राष्ट्र को विभाजित या नष्ट करने का प्रयास करने वाला राष्ट्र, भले ही वह अपनी शक्ति को लेकर कितने भी अति.आत्मविश्वास से ग्रस्त क्यों न हो, स्वयं भी विनाशकारी परिणामों का सामना किए बिना नहीं रह सकता।
चीनी राजनैतिक विश्लेषकों के लिए भारतीय लोकतंत्र की शक्तियों, विशेषताओं और सफलता को समझना मुश्किल लगता है। निरंकुश, जवाबदेही से रहित और दमनकारी राजनैतिक व्यवस्था में जीने वालों के लिए उदार भारतीय लोकतंत्र की बहुलवादी, समावेशी प्रकृति, देश का भविष्य तक करने की प्रक्रिया में हर नागरिक की भागीदारी की व्यवस्था एक पहेली है। भारतीय संघ के विभिन्न भागों में मौजूद जिस अनेकता का चीनी विश्लेषक लाभ उठाने की दलील दे रहे हैं वही तो 'विभिन्नता में एकता' पर आधारित इस अद्वितीय लोकतंत्र को जोड़ने वाली कड़ी है। तमिलनाडु, पंजाब, मिजोरम और अन्य क्षेत्रों में बाह्य प्रोत्साहन तथा आंतरिक समस्याओं के कारण समय.समय पर अलगाववादी शक्तियां उभरी हैं। ऐसा विश्व के अधिकांश देशों में होता रहा है। लेकिन ये ताकतें भारत के अस्तित्व के लिए खतरा नहीं बन सकीं तो सिर्फ इसलिए कि लोकतंत्र हमारे स्वभाव में है। हिंदुत्व के उदारतावादी दर्शन के साथ उसका बहुत स्वाभाविक मेल होता है। भारत भले ही राष्ट्र.राज्य की एकतरफा चीनी अवधारणा पर फिट न बैठता हो लेकिन अनंत काल से एक समेकित सभ्यता के रूप में उसका अस्तित्व रहा है। मुस्लिम एवं अंग्रेज शासकों के आने के बाद यही हमारी राजनैतिक एकता में घनीभूत हुई, जो अब एक शाश्वत सत्य के रूप में स्वीकार हो चुकी है। भारत का हर नागरिक इस एकता को ही स्वाभाविक सत्य समझता है और इसमें उसकी अटूट आस्था है जिसे खंडित करने के ख्याली पुलाव पकाए तो बहुतों ने, खा कोई भी न सका।
भारत ने अलगाववादी ताकतों को चीन की भांति सैन्य शक्ति के निर्मम प्रयोग और निरंकुश दमन से नहीं बल्कि लोकतंत्र की शक्ति से जीता है। वही असम, कश्मीर और नगालैंड में भी होगा। वैसे भी भारत को तीस हिस्सों में बांटने वाले चीनी विशेषज्ञ सिर्फ चार.पांच राज्यों में ही समस्याएं खोज पाए। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का यह पांच प्रतिशत भी नहीं है। दूसरी ओर स्वयं चीन का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा अलगाववादी आंदोलनों की चपेट में है। तमाम अत्याचारों के बावजूद चीन झिनझियांग, तिब्बत, आंतरिक मंगोलिया और हेलोंगजांग में बगावत को शांत करने में नाकाम रहा है। क्या भारत या रूस जैसे चीन के पड़ोसी देश उन्हीं दलीलों का प्रयोग चीन के विरुद्ध नहीं कर सकते जिन्हें झान ली ने भारत के विरुद्ध पेश किया है?
एक निराशाजनक सिलसिला
एक चीनी विशेषज्ञ (जिसके बारे में अब दावा किया गया है कि वह चीन सरकार, कम्युनिस्ट पार्टी या सरकारी संस्थानों से जुड़ा हुआ नहीं है) की टिप्पणियों को लेकर हलचल इसलिए मची है कि इस तरह की टिप्पणिया मौजूदा वैश्विक वास्तविकताओं के अनुकूल नहीं है। वे एशिया की बदली हुई स्थितियों के अनुकूल भी नहीं हैं। यह विस्तारवाद का युग नहीं है। किसी राष्ट्र को समाप्त करने की बात सोचना, भले ही वह कितना भी छोटा राष्ट्र क्यों न हो (कुवैत में इराक ने जो किया उसका हश्र हम जानते हैं), आत्म.विनाशकारी दुस्साहस से अधिक कुछ नहीं है। चीनियों को अपनी सोच में व्यावहारिक होने की भी जरूरत है। जब चीन इतने दशकों में जरा से ताइवान का कुछ नहीं बिगाड़ सका तो वह भारत का भला क्या बिगाड़ सकता है जो धीरे.धीरे वैश्विक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है? लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और सेना में ऐसे अनेक लोग हैं जो आज भी पांच दशक पुरानी आक्रामक मानसिकता के शिकार हैं। यह आक्रामकता अपने अधिक शक्तिशाली पड़ोसी राष्ट्र रूस के सामने तो काफूर हो जाती है लेकिन जब जापान, भारत, ताइवान आदि का प्रसंग आता है तो इसे मुखर होने में देर नहीं लगती।
चिंता की बात यह है कि झान ली का लेख अपने आप में अकेला नहीं है। कुछ समय पहले 'पीपुल्स डेली' में भी एक लेख छपा था जिसमें भारत को अरुणाचल प्रदेश में सेना की सुरक्षात्मक तैनाती और सड़कें आदि बनाने के खिलाफ चेतावनी दी गई थी। खुद झान ली ने भी डेढ़ साल पहले 'भारत को चेतावनी' नामक एक लेख में कहा था कि भारत फिर से वैसी ही गतिविधियों में लगा है जिनके चलते 1962 का युद्ध हुआ था। झान ली के जिस चाइनीज इंटरनेशनल इन्स्टीट्यूट फार स्ट्रेटेजिक स्टडीज (सीआईआईएसएस) से जुड़े होने की बात कही जा रही है उसकी वेबसाइट पर पिछले दिनों भारत की सैन्य आकांक्षाओं के बारे में भ्रामक लेख छपे हैं। एक लेख में कहा गया है कि भारत चीन का सैनिक तौर पर मुकाबला करने के लिए 150 अरब डालर की रकम खर्च करने वाला है। इस तरह की खबरें चीनी जनमानस को भी जरूर प्रभावित करती होंगी।
प्रसंगवश, चीन के 'ग्लोबल टाइम्स' नामक अखबार द्वारा कराए गए जनमत.सर्वेक्षण पर ध्यान देना दिलचस्प होगा। इसमें भाग लेने वाले करीब 81 फीसदी चीनियों ने कहा कि उनके देश को भारत के अलगाववादी तत्वों को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन देना चाहिए। सिर्फ पंद्रह प्रतिशत का कहना था कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। यदि इस राय को आम चीनी लोगों की मानसिकता का प्रतिनिधि माना जाए तो हमारे बारे में चीनी धारणाओं की बड़ी नकारात्मक तस्वीर उभरती है। अब भले ही भारत में स्थित चीनी राजदूत दोनों देशों के बीच व्यापार वार्ताओं तथा पर्यावरण मुद्दे पर हुए सहयोग को लेकर सकारात्मक टिप्पणियां करें लेकिन चीन के बारे में भारतीयों के मन में निरंतर गहरे होते संदेह के बादल महज इन टिप्पणियों से छंट नहीं सकते।
Thursday, August 6, 2009
हिंदी सिर्फ साहित्य नहीं है
दुर्भाग्य से, हिंदी की राजनीति में विभाजन किसी एक मुद्दे पर नहीं है। वहां विभाजनों की दर्जनों धाराएं और उपधाराएं विद्यमान हैं। कहीं यह टकराव वाम और दक्षिण के बीच में है, कहीं उच्च-साहित्य और निम्न-साहित्य के बीच में है, कहीं पुस्तकीय और मंचीय रचनाधर्मिता के बीच में तो कहीं साहित्यिक हिंदी-सेवा और असाहित्यिक हिंदी-सेवा के बीच में। और तो और विभिन्न विधाओं का प्रतिनिधित्व करने वालों के बीच भी द्वंद्व, अंतद्वंद्व और प्रतिद्वंद्व हैं। फिर वाम में भी अति-वाम और मॉडरेट-वाम का टकराव मौजूद है। अशोक चक्रधर की नियुक्ति के बाद एक बार फिर इस टकराव की बानगी दिखाई दे गई है
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
जो स्वनामधन्य साहित्यकार दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में कवि.शिक्षाविद् अशोक चक्रधर की नियुक्ति पर विवाद खड़ा कर कर रहे हैं, संभवत: उन्होंने यह तय मान लिया है कि हिंदी और उसकी संस्थाएं सिर्फ एक 'खास किस्म के' साहित्य सृजन में लगे रचनाकारों के लिए हैं और किसी दैवीय वरदान के तहत इन संस्थानों पर उनका नैसर्गिक एकाधिकार बनता है।
हिंदी सिर्फ साहित्य नहीं है। हिंदी तो लगभग आधे भारतीयों की अभिव्यक्ति की जीवनधारा है, जो जरूरी नहीं कि साहित्य (वह भी एक खास और 'उत्कृष्ट' किस्म के साहित्य) से ही ताल्लुक रखते हों। हिंदी की संस्थाएं 'हिंदी भाषा' (साहित्य समाहित) का प्रतिनिधित्व करती हैं इसलिए वे परोक्षत: ही सही, उन सबका भी प्रतिनिधित्व करती हैं जिनके दैनिक, पेशेवर एवं रचनात्मक जीवन में हिंदी की अहम भूमिका है।
यदि आज एक वर्ग हिंदी संस्थाओं पर अपने पारंपरिक प्रभुत्व को फिसलता महसूस कर रहा है तो सिर्फ इसलिए नहीं कि हिंदी अकादमी में श्री चक्रधर की नियुक्ति हुई है। यह इसलिए भी है कि कभी इस और कभी उस अकादमी को अपने नियंत्रण में रखने वाले इन महाप्राणों ने अपने अनंत काल के प्रभुत्व के दौरान हिंदी की तरक्की के लिए कोई नई जमीन तोड़कर नहीं दिखाई है। उनके कार्यकालों में हिंदी की जर्जर इमारत पर थोड़े जाले और लग गए हैं, थोड़ी जंग और जम गई है। ऐसे बदलाव होने पर उनका कामकाज स्क्रूटिनी के दायरे में आता है। हिंदी को यदि दशकों से जमे पानी वाले तालाब की स्थिति से बाहर निकलना है तो उसे कुछ साहसिक और स्वाभाविक बदलावों की जरूरत है।
ऐसा नहीं कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को श्री चक्रधर की नियुक्ति का निर्णय करते समय इन प्रतिक्रियाओं का अनुमान नहीं होगा। सावर्जनिक जीवन में पांच दशक बिताने और लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतने वाली राजनैतिक शख्सियत हिंदी साहित्य की राजनीति और उसके भीतर विचारधारात्मक विभाजनों के अंडर.करेंट से अनजान हों, ऐसी गलतफहमी किसी को नहीं होनी चाहिए। दुर्भाग्य से, हिंदी की राजनीति में विभाजन किसी एक मुद्दे पर नहीं है। वहां विभाजनों की दर्जनों धाराएं और उपधाराएं विद्यमान हैं। कहीं यह टकराव वाम और दक्षिण के बीच में है, कहीं उच्च-साहित्य और निम्न-साहित्य के बीच में है, कहीं पुस्तकीय और मंचीय रचनाधर्मिता के बीच में तो कहीं साहित्यिक हिंदी-सेवा और असाहित्यिक हिंदी-सेवा के बीच में। और तो और विभिन्न विधाओं का प्रतिनिधित्व करने वालों के बीच भी द्वंद्व, अंतद्वंद्व और प्रतिद्वंद्व हैं। फिर वाम में भी अति-वाम और मॉडरेट-वाम का टकराव मौजूद है।
हिंदी अकादमी को छोड़ दीजिए, इस भाषा और उसके साहित्य से जुड़ी कौनसी संस्था है जिसके शीर्ष पर नियुक्त किसी व्यक्ति ने समग्र साहित्यकार बिरादरी में निर्विवाद, बिना-शर्त और सावर्त्रिक अनुमोदन पाया है? ये सभी धाराएं यदि एक साथ आती हैं तो सिर्फ उस समय जब उनके समन्वित हितों को झटका लगता है। काश इसी किस्म की वैचारिक एकता हिंदी के विकास से जुड़े मुद्दों और कामों के लिए भी होती!
एक अच्छी पहल
पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान अशोक चक्रधर ने संकल्प लिया था कि अब वे हिंदी के साहित्यकारों को कंप्यूटर से परिचित कराने के काम में जुटेंगे क्योंकि इसके बिना उनके पीछे छूटे रह जाने का खतरा है। हिंदी और उसके रचनाकर्मियों का नए जमाने के साथ तालमेल बिठाना जरूरी है। अशोक तभी से जयजयवंती के कायर्क्रमों के जरिए इस यज्ञ में हाथ बंटा रहे हैं। हिंदी की पाठ्यसामग्री को अधिक रुचिकर और ग्राह्य बनाने की दिल्ली विश्वविद्यालय की परियोजना में उनका योगदान किसी से छिपा हुआ नहीं है। और हिंदी के तकनीकी अनुप्रयोगों के विकास में एक साहित्यकार, भाषायी विद्वान और तकनीक प्रेमी के रूप में उन्होंने जो योगदान दिया है, वह प्रशंसा के योग्य है। एक साहित्यकार, लेखक, हास्य कवि, नाटककार और शिक्षाविद् के रूप में तो वे पिछले पांच दशकों से हिंदी की सेवा कर ही रहे हैं जो उनकी लोकिप्रय कृतियों की लंबी सूची और मंच पर उन्हें सुनने वाले समर्पित श्रोताओं की भीड़ से जगजाहिर है।
हाँ, श्री चक्रधर का संबंध राजनीति के दिग्गजों से भी हैं। क्या ये संबंध, या आजीविका के लिए उनका हास्य कविता पर निर्भर होना कोई बुरी बात है? अधिक सक्रिय व्यक्ति के अधिक संपर्क होने स्वाभाविक हैं। समस्या तब होती है जब हम दूसरों का आकलन करते समय उसी उदारता का परिचय नहीं देना चाहते जो हम स्वयं अपने आकलन के लिए करते हैं।
कुछ साहित्यकारों ने श्री चक्रधर की नियुक्ति से रुष्ट होकर त्यागपत्र दे दिए और कुछ ऐसा करने की तैयारी में हैं। मुझ जैसे साहित्य के अध्येता को यह बड़ा अटपटा लगता है। यदि हिंदी का कल्याण और उसकी सेवा ही किसी का उद्देश्य है तो अशोक चक्रधर के आने या न आने से उसे क्या फर्क पड़ना चाहिए? आप अपना कल्याणकारी एजेंडा जारी रखिए। कोऊ नृप होय हमें का हानी? आपकी सेवाभावी गतिविधियों को रोकने की भला किसी की क्या मंशा होगी और उन्हें रोककर किसी का क्या स्वार्थ सिद्ध होगा?
अकादमियों के जरिए हिंदी का कल्याण करने वाले स्वनामधन्य साहित्यसेवियों से पचीसों गुना बड़ी संख्या उन लोगों की है जो बिना किसी स्वार्थ, नाम या अन्य आकांक्षा के किसी न किसी रूप में हिंदी के हक में काम कर रहे हैं। पत्रकार के रूप में, साहित्यकार के रूप में, शिक्षक के रूप में, भाषा-विज्ञानी के रूप में, हिंदी-तकनीकविद् के रूप में, प्रचारक के रूप में, अनुवादकों के रूप में और राजभाषा क्रियान्वयन से जुड़े अधिकारियों के रूप में। इसी करोड़ों की भीड़ में मुझ जैसे लोग भी हैं जिन्हें श्री चक्रधर के हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने से अपने अभीष्ट की प्राप्ति में लेशमात्र भी रुकावट महसूस नहीं होती। यदि हिंदी की सेवा ही आपका उद्देश्य है तो किसी एक पद पर किसी की नियुक्ति का विरोध करने से आप अपना कार्य किस तरह अधिक बेहतर ढंग से कर पाएंगे, यह हम नादान हिंदी साधकों की समझ से बाहर है।
बहस का स्तर
हिंदी के साधक को फर्क तब पड़ता है जब वह यह देखता है कि जो उच्च.स्तरीय साहित्य की रचना का आत्म.मुग्ध दावा करते हैं वे 'विदूषक' जैसे शब्दों का प्रयोग कर बहस को निचले स्तर तक ले आते हैं। इसके बाद किसी सार्थक तर्क.वितर्क का रास्ता बंद हो जाता है। अफसोस, कि हिंदी की साहित्यियक बहसें इस स्तर तक आ गिरी हैं। साहित्य की किसी भी विधा को दूसरी से छोटी करके आंकने की प्रवृत्ति हिंदी का भला करने वाली नहीं है। कितने दशकों से हम सब इस बात पर बहस करते आए हैं कि हिंदी और उसके साहित्य को समावेशी बनने की जरूरत है, अपना दायरा और सोच बढ़ाने की जरूरत है!
प्रसंगवश, यह जानना दिलचस्प होगा कि हिंदी संस्थाओं पर नियंत्रण के दौरान विभिन्न शख्सियतों ने अब तक ऐसा क्या विशेष कर दिया जो एक नए उपाध्यक्ष के आने से रुक जाएगा? एकाध कवि सम्मेलन, पुरस्कार, दो.चार सेमिनार. गोष्ठियां और चंद बोझिल, अपठनीय पुस्तकों, पत्रिकाओं का प्रकाशन, जिनके पाठकों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है? हिंदी के कितने पाठकों से वे जुड़ी हुई हैं? हिंदी के कितने छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों तक उनकी पहुंच है? हिंदी साहित्यकारों के कल्याण के लिए उन्होंने क्या किया है? जब कोई त्रिलोचन पूरी दुनिया से उपेक्षित मृत्युशैया पर पड़ा होता है तब ये संस्थाएं किन महत्वपूर्ण गतिविधियों में लगी होती हैं? उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की बिक्री और पाठकीय स्थिति क्या है? उनकी संगोष्ठियों के परिणामस्वरूप हिंदी की साहित्यिक समृद्धि, शब्द-समृद्धि और लोकप्रियता में कितनी वृद्धि हुई है?
हिंदी अकादमी जैसी संस्थाओं की जड़ता को भंग करने के लिए ऐसे व्यक्तित्वों की जरूरत है जिसके पास हिंदी के लिए एक विज़न, एक दृष्टि हो। जो सक्रिय तो हों ही, नयापन लाने का उत्साह और ऊर्जा भी रखते हों, जिनमें असहमत होने का साहस हो, जिन्हें साहित्य की गहरी समझ हो किंतु जिनके लिए हिंदी की परिभाषा सिर्फ साहित्य पर शुरू और साहित्य पर ही समाप्त न होती हो। जो हिंदी के व्यापक दायरे को महसूस करेगा वही तो उसे और विस्तार देने का प्रयास कर पाएगा!
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
जो स्वनामधन्य साहित्यकार दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में कवि.शिक्षाविद् अशोक चक्रधर की नियुक्ति पर विवाद खड़ा कर कर रहे हैं, संभवत: उन्होंने यह तय मान लिया है कि हिंदी और उसकी संस्थाएं सिर्फ एक 'खास किस्म के' साहित्य सृजन में लगे रचनाकारों के लिए हैं और किसी दैवीय वरदान के तहत इन संस्थानों पर उनका नैसर्गिक एकाधिकार बनता है।
हिंदी सिर्फ साहित्य नहीं है। हिंदी तो लगभग आधे भारतीयों की अभिव्यक्ति की जीवनधारा है, जो जरूरी नहीं कि साहित्य (वह भी एक खास और 'उत्कृष्ट' किस्म के साहित्य) से ही ताल्लुक रखते हों। हिंदी की संस्थाएं 'हिंदी भाषा' (साहित्य समाहित) का प्रतिनिधित्व करती हैं इसलिए वे परोक्षत: ही सही, उन सबका भी प्रतिनिधित्व करती हैं जिनके दैनिक, पेशेवर एवं रचनात्मक जीवन में हिंदी की अहम भूमिका है।
यदि आज एक वर्ग हिंदी संस्थाओं पर अपने पारंपरिक प्रभुत्व को फिसलता महसूस कर रहा है तो सिर्फ इसलिए नहीं कि हिंदी अकादमी में श्री चक्रधर की नियुक्ति हुई है। यह इसलिए भी है कि कभी इस और कभी उस अकादमी को अपने नियंत्रण में रखने वाले इन महाप्राणों ने अपने अनंत काल के प्रभुत्व के दौरान हिंदी की तरक्की के लिए कोई नई जमीन तोड़कर नहीं दिखाई है। उनके कार्यकालों में हिंदी की जर्जर इमारत पर थोड़े जाले और लग गए हैं, थोड़ी जंग और जम गई है। ऐसे बदलाव होने पर उनका कामकाज स्क्रूटिनी के दायरे में आता है। हिंदी को यदि दशकों से जमे पानी वाले तालाब की स्थिति से बाहर निकलना है तो उसे कुछ साहसिक और स्वाभाविक बदलावों की जरूरत है।
ऐसा नहीं कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को श्री चक्रधर की नियुक्ति का निर्णय करते समय इन प्रतिक्रियाओं का अनुमान नहीं होगा। सावर्जनिक जीवन में पांच दशक बिताने और लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतने वाली राजनैतिक शख्सियत हिंदी साहित्य की राजनीति और उसके भीतर विचारधारात्मक विभाजनों के अंडर.करेंट से अनजान हों, ऐसी गलतफहमी किसी को नहीं होनी चाहिए। दुर्भाग्य से, हिंदी की राजनीति में विभाजन किसी एक मुद्दे पर नहीं है। वहां विभाजनों की दर्जनों धाराएं और उपधाराएं विद्यमान हैं। कहीं यह टकराव वाम और दक्षिण के बीच में है, कहीं उच्च-साहित्य और निम्न-साहित्य के बीच में है, कहीं पुस्तकीय और मंचीय रचनाधर्मिता के बीच में तो कहीं साहित्यिक हिंदी-सेवा और असाहित्यिक हिंदी-सेवा के बीच में। और तो और विभिन्न विधाओं का प्रतिनिधित्व करने वालों के बीच भी द्वंद्व, अंतद्वंद्व और प्रतिद्वंद्व हैं। फिर वाम में भी अति-वाम और मॉडरेट-वाम का टकराव मौजूद है।
हिंदी अकादमी को छोड़ दीजिए, इस भाषा और उसके साहित्य से जुड़ी कौनसी संस्था है जिसके शीर्ष पर नियुक्त किसी व्यक्ति ने समग्र साहित्यकार बिरादरी में निर्विवाद, बिना-शर्त और सावर्त्रिक अनुमोदन पाया है? ये सभी धाराएं यदि एक साथ आती हैं तो सिर्फ उस समय जब उनके समन्वित हितों को झटका लगता है। काश इसी किस्म की वैचारिक एकता हिंदी के विकास से जुड़े मुद्दों और कामों के लिए भी होती!
एक अच्छी पहल
पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान अशोक चक्रधर ने संकल्प लिया था कि अब वे हिंदी के साहित्यकारों को कंप्यूटर से परिचित कराने के काम में जुटेंगे क्योंकि इसके बिना उनके पीछे छूटे रह जाने का खतरा है। हिंदी और उसके रचनाकर्मियों का नए जमाने के साथ तालमेल बिठाना जरूरी है। अशोक तभी से जयजयवंती के कायर्क्रमों के जरिए इस यज्ञ में हाथ बंटा रहे हैं। हिंदी की पाठ्यसामग्री को अधिक रुचिकर और ग्राह्य बनाने की दिल्ली विश्वविद्यालय की परियोजना में उनका योगदान किसी से छिपा हुआ नहीं है। और हिंदी के तकनीकी अनुप्रयोगों के विकास में एक साहित्यकार, भाषायी विद्वान और तकनीक प्रेमी के रूप में उन्होंने जो योगदान दिया है, वह प्रशंसा के योग्य है। एक साहित्यकार, लेखक, हास्य कवि, नाटककार और शिक्षाविद् के रूप में तो वे पिछले पांच दशकों से हिंदी की सेवा कर ही रहे हैं जो उनकी लोकिप्रय कृतियों की लंबी सूची और मंच पर उन्हें सुनने वाले समर्पित श्रोताओं की भीड़ से जगजाहिर है।
हाँ, श्री चक्रधर का संबंध राजनीति के दिग्गजों से भी हैं। क्या ये संबंध, या आजीविका के लिए उनका हास्य कविता पर निर्भर होना कोई बुरी बात है? अधिक सक्रिय व्यक्ति के अधिक संपर्क होने स्वाभाविक हैं। समस्या तब होती है जब हम दूसरों का आकलन करते समय उसी उदारता का परिचय नहीं देना चाहते जो हम स्वयं अपने आकलन के लिए करते हैं।
कुछ साहित्यकारों ने श्री चक्रधर की नियुक्ति से रुष्ट होकर त्यागपत्र दे दिए और कुछ ऐसा करने की तैयारी में हैं। मुझ जैसे साहित्य के अध्येता को यह बड़ा अटपटा लगता है। यदि हिंदी का कल्याण और उसकी सेवा ही किसी का उद्देश्य है तो अशोक चक्रधर के आने या न आने से उसे क्या फर्क पड़ना चाहिए? आप अपना कल्याणकारी एजेंडा जारी रखिए। कोऊ नृप होय हमें का हानी? आपकी सेवाभावी गतिविधियों को रोकने की भला किसी की क्या मंशा होगी और उन्हें रोककर किसी का क्या स्वार्थ सिद्ध होगा?
अकादमियों के जरिए हिंदी का कल्याण करने वाले स्वनामधन्य साहित्यसेवियों से पचीसों गुना बड़ी संख्या उन लोगों की है जो बिना किसी स्वार्थ, नाम या अन्य आकांक्षा के किसी न किसी रूप में हिंदी के हक में काम कर रहे हैं। पत्रकार के रूप में, साहित्यकार के रूप में, शिक्षक के रूप में, भाषा-विज्ञानी के रूप में, हिंदी-तकनीकविद् के रूप में, प्रचारक के रूप में, अनुवादकों के रूप में और राजभाषा क्रियान्वयन से जुड़े अधिकारियों के रूप में। इसी करोड़ों की भीड़ में मुझ जैसे लोग भी हैं जिन्हें श्री चक्रधर के हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने से अपने अभीष्ट की प्राप्ति में लेशमात्र भी रुकावट महसूस नहीं होती। यदि हिंदी की सेवा ही आपका उद्देश्य है तो किसी एक पद पर किसी की नियुक्ति का विरोध करने से आप अपना कार्य किस तरह अधिक बेहतर ढंग से कर पाएंगे, यह हम नादान हिंदी साधकों की समझ से बाहर है।
बहस का स्तर
हिंदी के साधक को फर्क तब पड़ता है जब वह यह देखता है कि जो उच्च.स्तरीय साहित्य की रचना का आत्म.मुग्ध दावा करते हैं वे 'विदूषक' जैसे शब्दों का प्रयोग कर बहस को निचले स्तर तक ले आते हैं। इसके बाद किसी सार्थक तर्क.वितर्क का रास्ता बंद हो जाता है। अफसोस, कि हिंदी की साहित्यियक बहसें इस स्तर तक आ गिरी हैं। साहित्य की किसी भी विधा को दूसरी से छोटी करके आंकने की प्रवृत्ति हिंदी का भला करने वाली नहीं है। कितने दशकों से हम सब इस बात पर बहस करते आए हैं कि हिंदी और उसके साहित्य को समावेशी बनने की जरूरत है, अपना दायरा और सोच बढ़ाने की जरूरत है!
प्रसंगवश, यह जानना दिलचस्प होगा कि हिंदी संस्थाओं पर नियंत्रण के दौरान विभिन्न शख्सियतों ने अब तक ऐसा क्या विशेष कर दिया जो एक नए उपाध्यक्ष के आने से रुक जाएगा? एकाध कवि सम्मेलन, पुरस्कार, दो.चार सेमिनार. गोष्ठियां और चंद बोझिल, अपठनीय पुस्तकों, पत्रिकाओं का प्रकाशन, जिनके पाठकों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है? हिंदी के कितने पाठकों से वे जुड़ी हुई हैं? हिंदी के कितने छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों तक उनकी पहुंच है? हिंदी साहित्यकारों के कल्याण के लिए उन्होंने क्या किया है? जब कोई त्रिलोचन पूरी दुनिया से उपेक्षित मृत्युशैया पर पड़ा होता है तब ये संस्थाएं किन महत्वपूर्ण गतिविधियों में लगी होती हैं? उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की बिक्री और पाठकीय स्थिति क्या है? उनकी संगोष्ठियों के परिणामस्वरूप हिंदी की साहित्यिक समृद्धि, शब्द-समृद्धि और लोकप्रियता में कितनी वृद्धि हुई है?
हिंदी अकादमी जैसी संस्थाओं की जड़ता को भंग करने के लिए ऐसे व्यक्तित्वों की जरूरत है जिसके पास हिंदी के लिए एक विज़न, एक दृष्टि हो। जो सक्रिय तो हों ही, नयापन लाने का उत्साह और ऊर्जा भी रखते हों, जिनमें असहमत होने का साहस हो, जिन्हें साहित्य की गहरी समझ हो किंतु जिनके लिए हिंदी की परिभाषा सिर्फ साहित्य पर शुरू और साहित्य पर ही समाप्त न होती हो। जो हिंदी के व्यापक दायरे को महसूस करेगा वही तो उसे और विस्तार देने का प्रयास कर पाएगा!
Sunday, August 2, 2009
'बहुत बड़ी भूल' है पर 'सबसे बड़ी भूल' नहीं
भाजपा नेता यशवंत सिन्हा ने शर्म अल शेख के बयान को भारतीय विदेश नीति की सबसे बड़ी भूल करार दिया है। मुझ जैसे अनगिनत लोग इस बयान को प्रधानमंत्री की बहुत बड़ी गलती मानते हैं लेकिन क्या यह हमारी अब तक की सबसे बड़ी गलती है? यह बात मान ली जाए तो फिर इतिहास में हुई बहुत बड़ी और अक्षम्य गलतियां बहुत छोटी बन जाएंगी।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
भारत और पाकिस्तान के ताजा संयुक्त बयान पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान भाजपा नेता यशवंत सिन्हा के आक्रामक और परिश्रम से तैयार किए गए भाषण ने सबका ध्यान खींचा है। उन्होंने शर्म अल शेख में जारी बयान के लिए प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह की आलोचना करते हुए यह भी कहा कि भारत के इतिहास में विदेश नीति से संबंधित यह अब तक की सबसे बड़ी भूल है। भारत.पाक संयुक्त बयान के भावी प्रभावों और निहितार्थों पर उनके साथ सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या सचमुच यह भारतीय विदेश नीति की अब तक की सबसे बड़ी भूल है? इस बात को स्वीकार करने का अर्थ शायद अतीत में इससे भी बड़ी भूलें, त्रुटियां और गलतियां करने वाले नेताओं को अपराध बोध से मुक्त कर देना होगा।
यशवंत सिन्हा के आकलन को जस का तस स्वीकार कर लेना भारतीय राजनीति के इतिहास को अल्पदृष्टि से देखना होगा। इसका अर्थ उन अनेक अक्षम्य गलतियों को बहुत छोटा करके आंकना होगा जिन्होंने भारत की राजनीति, इतिहास और भूगोल ही बदल दिया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ॰ सिंह और उनकी टीम से मिस्र में हुई गलती राष्ट्रीय हितों पर दूरगामी प्रभाव डालेगी। शायद खुद उन्हें भी अब इसका अहसास हो चला है। उससे भी बड़ी गलती यह है कि इसे सत्ता तंत्र ने हल्के अंदाज में लिया जो पूवर् विदेश सचिव शिवशंकर मेनन के इस बयान से जाहिर है कि संभवत: यह 'बैड ड्राफ्टिंग' के कारण हुई भूल है। लेकिन फिर भी, यह भारत द्वारा की गई 'अब तक की सबसे बड़ी गलती' नहीं है। कारण, यदि यही हमारी सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल है तो फिर वह क्या थी जिसकी वजह से नेहरूजी अपने जीवन के अंतिम दिन संतोष के साथ नहीं काट पाए और डॉक्टरों के अनुसार, भारी मानसिक तनाव के चलते असामियक निधन के शिकार हुए?
ऐतिहासिक भूलों की कमी नहीं
भारतीय नीति नियंताओं से हुई भूलों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। ऐसी भूलें जिन्हें न लोगों ने भुलाया और न ही उन्हें अंजाम देने वाले कभी आत्म.ग्लानि के बोध से उठ सके। पहली सबसे बड़ी भूल तो संभवत: वह थी जब तमाम प्रतिरोध के बावजूद विवशता के साथ हमारे राष्ट्रीय नेताओं को 1947 में देश का विभाजन स्वीकार करना पड़ा था। मुस्लिम नेता मोहम्मद अली जिन्ना की शातिराना योजना और ब्रिटिश सत्ताधारियों की चाल में आकर भारी दबाव के बीच भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों के जन्म पर सहमति जताते समय महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और अन्य नेताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि इसकी परिणति कुछ ही महीने बाद लाखों लोगों की मौतों के रूप में होगी और कश्मीर मुद्दे पर यही दोनों देश अपने जन्म के छह दशक बाद भी एक.दूसरे के खून के प्यासे होंगे।
दोनों राष्ट्रों के जन्म के बाद भी कश्मीर का मसला अनसुलझा बना रहा और 'इधर, उधर या कहीं नहीं' की उलझन में पड़े महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान को 1947 में जम्मू और कश्मीर पर हमला करने का मौका दे दिया। पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे में उसी तरह कोई पार्टी नहीं था जैसे कि भारत। किंतु पाकिस्तान के हमले की बात जानते हुए भी भारतीय नेताओं ने वहां दखल करने से पहले तब तक इंतजार किया जब तक कि पाकिस्तानी फौजें मुजफ्फराबाद पर कब्जे के बाद बढ़ते.बढ़ते श्रीनगर के करीब पहुंचने की स्थिति में नहीं आ गईं। महाराजा हरि सिंह के फैसले के बाद ही भारत ने दखल कर पाकिस्तानी फौज और उसके कबायली साथियों को खदेड़ा लेकिन फिर भी कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा उनके कब्जे में छोड़ दिया गया। हमने पहले भारत का और अब कश्मीर का विभाजन स्वीकार कर लिया था। क्या यह ऐतिहासिक भूल नहीं थी?
नेहरूजी ने कुछ शर्तों के साथ संयुक्त राष्ट्र में यह बात स्वीकार की थी कि भारत कश्मीर में जनमतसंग्रह कराने को तैयार है। इस ऐतिहासिक भूल का हिसाब पाकिस्तान आज तक मांग रहा है। इसने कश्मीरी अलगाववादियों की मांगों को सैद्धांतिक आधार दिया और भारत के लिए वह चुनौती पैदा की जो आज तक कायम है।
बात चीन की भी हो जाए
हमारी विदेश नीति से जुड़ी सारी गलतियां पाकिस्तान के संदभ्र में ही नहीं हैं। चीन के लिहाज से भी हमारे नेताओं ने जो ऐतिहासिक गलतियां कीं उन्हें आज हम और आने वाले वषर्ों में हमारी भावी पीढि़यों को भोगना है। पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व में हमने चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने में समर्िपत भाव से मदद की। हिंदी.चीनी भाई.भाई और पंचशील दोनों देशों के संबंधों की आधारशिला बने और नेहरूजी ने उसी चीन को भारत का सबसे नि:स्वार्थ मित्र समझा जिसने कुछ वर्ष बाद भारत पर हमला करने में कोई संकोच नहीं दिखाया। हो सकता है कि उनके स्थान पर कोई अन्य नेता होता तो वह भी उन परिस्थितियों में वही करता। लेकिन 1962 में चीन के हाथों हुई लज्जाजनक पराजय ने आम भारतीय के मानस पर गहरा आघात लगाया, जो आज तक दूर नहीं हुआ। पहले चीन को मित्र समझना और फिर बिना किसी सैनिक तैयारी के उसके साथ युद्ध का सामना करना क्या हमारे इतिहास की सबसे बड़ी गलती नहीं है?
नेहरूजी की भलमनसाहत से कोई शिकायत नहीं है लेकिन संभवत: एक राजनेता के तौर पर वे आसन्न खतरों को भांपने में नाकाम रहे। कहा जाता है कि चीन का विश्वासघात ही नेहरूजी के असमय निधन का कारण बना। जिन्हें उन्होंने भारत और स्वयं अपना गहरा मित्र समझा था उन्होंने दोनों को पूरी दुनिया में लज्जित किया। नेहरूजी की मौजूदगी में संसद में कसम खाई गई कि हम चीन से भारत की एक.एक इंच भूमि वापस लेंगे। वह कसम कब पूरी होगी?
इन ऐतिहासिक गलतियों के सामने भारत.पाक संयुक्त बयान की बुरी ड्राफ्टिंग तो शायद उल्लेख के योग्य भी नहीं!
लगे हाथ कुछ अन्य ऐतिहासिक भूलों को भी याद कर लेने में हर्ज नहीं है. बाद के युद्धों में मौका मिलने के बावजूद कश्मीर का पाक.अधिकृत क्षेत्र आजाद न कराया जाना, परवेज मुशर्रफ को उस समय पाकिस्तान के नेता के रूप में मान्यता देना जब पूरी दुनिया ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था, राजीव गांधी के सत्ता काल से पहले और उस दौरान श्रीलंका की अलगाववादी समस्या में हमारी भूमिका,, पहले परमाणु विस्फोट के समय ही पूण्र परमाणु शक्ति ्में बदलने की बजाए कई दशक तक इंतजार करना, पाकिस्तानी राष्ट्रपति के रूप में परवेज मुशर्रफ को आगरा बुलाया जाना और सीमा पर साल भर तक सेना को तैनात रखकर बिना किसी स्पष्ट उपलब्धि या परिणाम के उसे वापस बैरकों में भेजा जाना आदि आदि। यशवंत सिन्हा यदि इन सभी भयानक भूलों के साथ शर्म अल शेख की घटना को रखकर देखें तो शायद वे भारतीय विदेश नीति की कमियों को ज्यादा समग्रता, स्पष्टता और निष्पक्षता के साथ परिभाषित कर पाएंगे।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
भारत और पाकिस्तान के ताजा संयुक्त बयान पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान भाजपा नेता यशवंत सिन्हा के आक्रामक और परिश्रम से तैयार किए गए भाषण ने सबका ध्यान खींचा है। उन्होंने शर्म अल शेख में जारी बयान के लिए प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह की आलोचना करते हुए यह भी कहा कि भारत के इतिहास में विदेश नीति से संबंधित यह अब तक की सबसे बड़ी भूल है। भारत.पाक संयुक्त बयान के भावी प्रभावों और निहितार्थों पर उनके साथ सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या सचमुच यह भारतीय विदेश नीति की अब तक की सबसे बड़ी भूल है? इस बात को स्वीकार करने का अर्थ शायद अतीत में इससे भी बड़ी भूलें, त्रुटियां और गलतियां करने वाले नेताओं को अपराध बोध से मुक्त कर देना होगा।
यशवंत सिन्हा के आकलन को जस का तस स्वीकार कर लेना भारतीय राजनीति के इतिहास को अल्पदृष्टि से देखना होगा। इसका अर्थ उन अनेक अक्षम्य गलतियों को बहुत छोटा करके आंकना होगा जिन्होंने भारत की राजनीति, इतिहास और भूगोल ही बदल दिया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ॰ सिंह और उनकी टीम से मिस्र में हुई गलती राष्ट्रीय हितों पर दूरगामी प्रभाव डालेगी। शायद खुद उन्हें भी अब इसका अहसास हो चला है। उससे भी बड़ी गलती यह है कि इसे सत्ता तंत्र ने हल्के अंदाज में लिया जो पूवर् विदेश सचिव शिवशंकर मेनन के इस बयान से जाहिर है कि संभवत: यह 'बैड ड्राफ्टिंग' के कारण हुई भूल है। लेकिन फिर भी, यह भारत द्वारा की गई 'अब तक की सबसे बड़ी गलती' नहीं है। कारण, यदि यही हमारी सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल है तो फिर वह क्या थी जिसकी वजह से नेहरूजी अपने जीवन के अंतिम दिन संतोष के साथ नहीं काट पाए और डॉक्टरों के अनुसार, भारी मानसिक तनाव के चलते असामियक निधन के शिकार हुए?
ऐतिहासिक भूलों की कमी नहीं
भारतीय नीति नियंताओं से हुई भूलों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। ऐसी भूलें जिन्हें न लोगों ने भुलाया और न ही उन्हें अंजाम देने वाले कभी आत्म.ग्लानि के बोध से उठ सके। पहली सबसे बड़ी भूल तो संभवत: वह थी जब तमाम प्रतिरोध के बावजूद विवशता के साथ हमारे राष्ट्रीय नेताओं को 1947 में देश का विभाजन स्वीकार करना पड़ा था। मुस्लिम नेता मोहम्मद अली जिन्ना की शातिराना योजना और ब्रिटिश सत्ताधारियों की चाल में आकर भारी दबाव के बीच भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों के जन्म पर सहमति जताते समय महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और अन्य नेताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि इसकी परिणति कुछ ही महीने बाद लाखों लोगों की मौतों के रूप में होगी और कश्मीर मुद्दे पर यही दोनों देश अपने जन्म के छह दशक बाद भी एक.दूसरे के खून के प्यासे होंगे।
दोनों राष्ट्रों के जन्म के बाद भी कश्मीर का मसला अनसुलझा बना रहा और 'इधर, उधर या कहीं नहीं' की उलझन में पड़े महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान को 1947 में जम्मू और कश्मीर पर हमला करने का मौका दे दिया। पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे में उसी तरह कोई पार्टी नहीं था जैसे कि भारत। किंतु पाकिस्तान के हमले की बात जानते हुए भी भारतीय नेताओं ने वहां दखल करने से पहले तब तक इंतजार किया जब तक कि पाकिस्तानी फौजें मुजफ्फराबाद पर कब्जे के बाद बढ़ते.बढ़ते श्रीनगर के करीब पहुंचने की स्थिति में नहीं आ गईं। महाराजा हरि सिंह के फैसले के बाद ही भारत ने दखल कर पाकिस्तानी फौज और उसके कबायली साथियों को खदेड़ा लेकिन फिर भी कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा उनके कब्जे में छोड़ दिया गया। हमने पहले भारत का और अब कश्मीर का विभाजन स्वीकार कर लिया था। क्या यह ऐतिहासिक भूल नहीं थी?
नेहरूजी ने कुछ शर्तों के साथ संयुक्त राष्ट्र में यह बात स्वीकार की थी कि भारत कश्मीर में जनमतसंग्रह कराने को तैयार है। इस ऐतिहासिक भूल का हिसाब पाकिस्तान आज तक मांग रहा है। इसने कश्मीरी अलगाववादियों की मांगों को सैद्धांतिक आधार दिया और भारत के लिए वह चुनौती पैदा की जो आज तक कायम है।
बात चीन की भी हो जाए
हमारी विदेश नीति से जुड़ी सारी गलतियां पाकिस्तान के संदभ्र में ही नहीं हैं। चीन के लिहाज से भी हमारे नेताओं ने जो ऐतिहासिक गलतियां कीं उन्हें आज हम और आने वाले वषर्ों में हमारी भावी पीढि़यों को भोगना है। पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व में हमने चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने में समर्िपत भाव से मदद की। हिंदी.चीनी भाई.भाई और पंचशील दोनों देशों के संबंधों की आधारशिला बने और नेहरूजी ने उसी चीन को भारत का सबसे नि:स्वार्थ मित्र समझा जिसने कुछ वर्ष बाद भारत पर हमला करने में कोई संकोच नहीं दिखाया। हो सकता है कि उनके स्थान पर कोई अन्य नेता होता तो वह भी उन परिस्थितियों में वही करता। लेकिन 1962 में चीन के हाथों हुई लज्जाजनक पराजय ने आम भारतीय के मानस पर गहरा आघात लगाया, जो आज तक दूर नहीं हुआ। पहले चीन को मित्र समझना और फिर बिना किसी सैनिक तैयारी के उसके साथ युद्ध का सामना करना क्या हमारे इतिहास की सबसे बड़ी गलती नहीं है?
नेहरूजी की भलमनसाहत से कोई शिकायत नहीं है लेकिन संभवत: एक राजनेता के तौर पर वे आसन्न खतरों को भांपने में नाकाम रहे। कहा जाता है कि चीन का विश्वासघात ही नेहरूजी के असमय निधन का कारण बना। जिन्हें उन्होंने भारत और स्वयं अपना गहरा मित्र समझा था उन्होंने दोनों को पूरी दुनिया में लज्जित किया। नेहरूजी की मौजूदगी में संसद में कसम खाई गई कि हम चीन से भारत की एक.एक इंच भूमि वापस लेंगे। वह कसम कब पूरी होगी?
इन ऐतिहासिक गलतियों के सामने भारत.पाक संयुक्त बयान की बुरी ड्राफ्टिंग तो शायद उल्लेख के योग्य भी नहीं!
लगे हाथ कुछ अन्य ऐतिहासिक भूलों को भी याद कर लेने में हर्ज नहीं है. बाद के युद्धों में मौका मिलने के बावजूद कश्मीर का पाक.अधिकृत क्षेत्र आजाद न कराया जाना, परवेज मुशर्रफ को उस समय पाकिस्तान के नेता के रूप में मान्यता देना जब पूरी दुनिया ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था, राजीव गांधी के सत्ता काल से पहले और उस दौरान श्रीलंका की अलगाववादी समस्या में हमारी भूमिका,, पहले परमाणु विस्फोट के समय ही पूण्र परमाणु शक्ति ्में बदलने की बजाए कई दशक तक इंतजार करना, पाकिस्तानी राष्ट्रपति के रूप में परवेज मुशर्रफ को आगरा बुलाया जाना और सीमा पर साल भर तक सेना को तैनात रखकर बिना किसी स्पष्ट उपलब्धि या परिणाम के उसे वापस बैरकों में भेजा जाना आदि आदि। यशवंत सिन्हा यदि इन सभी भयानक भूलों के साथ शर्म अल शेख की घटना को रखकर देखें तो शायद वे भारतीय विदेश नीति की कमियों को ज्यादा समग्रता, स्पष्टता और निष्पक्षता के साथ परिभाषित कर पाएंगे।
Thursday, June 11, 2009
पाकिस्तान से बातचीत करें तो आखिर क्या?
भारत के लिए यक्ष प्रश्न यह है कि वह पाकिस्तान के संदर्भ में अपनी सैद्धांतिक स्थिति से आखिर किस आधार पर हटे? जिस बातचीत की सार्थकता उसके शुरू होने से पहले ही संदिग्ध है उसे क्यों और कैसे शुरू करे?
बालेन्दु शर्मा दाधीच
भारत पर पाकिस्तान के साथ टूटी हुई समग्र वार्ता की प्रक्रिया दोबारा शुरू करने का दबाव है। अमेरिकी प्रशासन चाहता है कि मुंबई के आतंकवादी हमलों के बाद पैदा हुआ तनाव कम हो जो वार्ता की बहाली से ही संभव है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी भी इसके लिए इच्छा जता चुके हैं और वे बाकायदा इसके लिए भारत से आग्रह की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि आपसी दूरियां और तनाव मिटाने के लिए वैचारिक आदान प्रदान के औचित्य पर कोई संदेह नहीं है लेकिन भारत सरकार के लिए यक्ष प्रश्न यह है कि वह पाकिस्तान के संदर्भ में अपनी सैद्धांतिक स्थिति से आखिर किस आधार पर हटे और अगर दोनों देशों के बीच बातचीत हो तो क्या हो?
भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद के मुद्दों की कभी कमी नहीं रही लेकिन जो मुद्दा पिछले पच्चीस साल से हल होने का नाम नहीं ले रहा, वह है आतंकवादी गुटों को पाकिस्तानी राज्य का सक्रिय समर्थन। जब तक पाकिस्तानी शासक, वहां की फौज और आईएसआई भारत को केंद्र बनाकर चलने वाले आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक कदम नहीं उठाती, दोनों देशों के संबंधों में किसी उल्लासपूर्ण एवं स्थायी बदलाव की संभावना नहीं है। अमेरिका और पाकिस्तान दोनों को इस बात का अहसास नहीं है कि आतंकवादियों के हाथों हजारों नागरिकों को खो देने वाले इस देश की जनता के लिए आतंकवाद और उसके प्रति पाकिस्तान का परोक्ष किंतु आधिकारिक समर्थन कितना बड़ा भावनात्मक मुद्दा है। एक ओर पाकिस्तान हाफिज मोहम्मद सईद जैसे आतंकवादी को, जिसे भारत का शत्रु समझा जाता है, जेल से रिहा करता है तथा वहां के प्रधानमंत्री कश्मीर में चल रहे आंदोलन को नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक और राजनयिक समर्थन देते रहने की बात कहते हैं। दूसरी तरफ वही पाकिस्तान भारत सरकार के साथ बातचीत करना चाहता है। ऐसे में भला बातचीत हो तो कैसे?
कहां है पाकिस्तानी सदाशयता?
अमेरिका को भारत पर वार्ता शुरू करने का दबाव डालते रहने की बजाए यह समझने की भी जरूरत है कि दक्षिण एशिया में जमीनी हालात में कोई बदलाव नहीं आए हैं। तालिबान के संदर्भ में भले ही पाकिस्तान का रुख बदलने का दावा किया जा रहा हो, भारत के विरुद्ध आतंकवादियों को कभी छद्म युद्ध के सैनिकों और कभी अपनी अग्रिम सुरक्षा पंक्ति के तौर पर इस्तेमाल करने वाले पाकिस्तानी तंत्र की सामरिक रणनीति या दीर्घकालीन सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। पाकिस्तान ने भले ही अमेरिका से अर्जित ज्ञान के आधार पर स्वीकार कर लिया हो कि भारत उसके अस्तित्व के लिए खतरा नहीं है, लेकिन वह खुद भारत के लिए बड़े से बड़े खतरे में तब्दील होता जा रहा है। न सिर्फ आतंकवाद के प्रति समर्थन जारी रखकर बल्कि अपने परमाणु हथियारों के जखीरे में तेजी से बढ़ोत्तरी करके भी, जिसकी पुष्टि स्वयं अमेरिका ने की है। मुंबई कांड के संदर्भ में भी तमाम दबावों और अपने बार-बार बदलते बयानों के बावजूद पाकिस्तान ने अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। आखिर किस सदाशयता के आधार पर पाकिस्तान से बात की जाए?
भारत आतंकवाद के अपने मुद्दे पर अडिग है क्योंकि पाकिस्तान के अपने हालात को देखते हुए वह इस दुष्चक्र को और अधिक समय तक पनपने नहीं दे सकता। हमें निशाना बनाने वाले लश्करे तैयबा (दिखाने के लिए जमात उद दावा), हिज्बुल मुजाहिदीन, जैशे मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन अब अलकायदा के विश्वव्यापी नेटवर्क का हिस्सा हैं, जिसमें तालिबान और दाऊद इब्राहीम तक शामिल हैं। वे पहले से अधिक कट्टर, प्रतिबद्ध और शक्तिशाली होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, वे भारत के भीतर भी अपनी जड़ें फैलाने में लगे हैं और कश्मीर तथा कुछ अन्य इलाकों के गुमराह युवकों को आतंकवादी लक्ष्यों की ओर खींचने में कामयाब हो रहे हैं। इससे पहले कि यह महामारी हमें पाकिस्तान जैसी स्थिति में धकेले, उसे अपनी जड़ों में ही समाप्त किए जाने की जरूरत है। अमेरिका ने जिस तरह पाकिस्तान को तालिबान के सफाए के लिए मजबूर किया है, उस माहौल में वह आतंकवाद के विरुद्ध स्टैंड लेने के लिए मजबूर है, भले ही वह दिखावटी ही क्यों न हो। भारत के लिए कल की तुलना में यह अनुकूल स्थिति है। पाकिस्तान के लिए लश्कर, जैश और हिज्बुल मुजाहिदीन के लिए खुला सामरिक समर्थन देना मुश्किल होता जा रहा है। जरूरत है कि अमेरिका के जरिए या फिर कूटनीतिक दबाव के जरिए भारत उसे इन संगठनों के विरुद्ध स्पष्ट कार्रवाई के लिए मजबूर करे।
मुंबई के बाद का सन्नाटा
मुंबई के आतंकवादी हमलों में पाकिस्तानियों का हाथ जिस बेशर्मी के साथ पूरी दुनिया के सामने स्पष्ट हुआ उसका असर भारत में आतंकवादी गतिविधियों में कमी आने के रूप में सामने आया है। शायद इसलिए कि आतंकवादियों की रीढ़ बना हुआ पाकिस्तानी तंत्र फिलहाल तालिबान के संदर्भों में व्यस्त है। या इसलिए कि पाकिस्तानी तंत्र 26 नवंबर की घटना के बाद ऐसी ही किसी अन्य विध्वंसात्मक कार्रवाई के अंतरराष्ट्रीय परिणामों का जोखिम लेने की स्थिति में नहीं है। मुंबई के हमलों के बाद आतंकवाद के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय समन्वय में जो मजबूती आई है उसे देखते हुए आतंकवादी घटना के लिए जिम्मेदार लोगों का परदे के पीछे छिपा रहना संभवत: उतना आसान नहीं रहा। पाकिस्तान के विरुद्ध भारत का कूटनीतिक और राजनैतिक दबाव काम कर रहा है।
पाकिस्तान के लिए भारत के साथ समग्र वार्ता शुरू करना एक मजबूरी है। यह उसे उस कोष्ठक से बाहर निकालती है जिसमें वह आतंकवादी ताकतों के साथ डाल दिया गया है। वैश्विक दबाव के बीच वह अपने आप को एक लोकतांत्रिक एवं जिम्मेदार राष्ट्र सिद्ध करने की अनिवार्यता का सामना कर रहा है। भारत के नरम पड़ने से वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैधता और कूटनीतिक लाभ की स्थिति में आ जाता है। उसी तरह का लाभ जो लंबे समय तक परवेज मुशर्रफ की सरकार के साथ संपर्क न रखने के बाद अचानक उससे बातचीत शुरू कर भारत ने उसे पहुंचाया था। लेकिन भारत की स्थिति विपरीत है। जैसे ही वह समग्र वार्ता शुरू करता है, पाकिस्तान के विरुद्ध कूटनीतिक दबाव के समापन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इतना ही नहीं, आतंकवाद के विरुद्ध उसकी सैद्धांतिक स्थिति भी क्षीण होती है।
बहरहाल, कारगिल युद्ध और संसद पर हमले के बाद हम इसी तरह की स्थिति देख चुके हैं जब भारत न चाहते हुए भी पाकिस्तान से संबंध सामान्य बनाने के लिए मजबूर हो जाता है। हो सकता है कि उसे इस बार भी अपने रुख में नरमी लाते हुए बातचीत की मेज पर आना पड़े। उस पर बराक ओबामा प्रशासन का निरंतर दबाव है और हिलेरी िक्लंटन की आगामी भारत यात्रा के दौरान यह और बढ़ेगा। बहरहाल, क्या हम पाकिस्तान से सिर्फ बातचीत के लिए बातचीत करना चाहते हैं? यह जानते हुए भी कि ऐसी वार्ताएं मौजूदा हालात में किसी सार्थक परिणति पर नहीं पहुंच सकतीं? जरूरत है कि मुंबई के हमलों के बाद भारत ने जिस दृढ़ता के साथ पाकिस्तान के विरुद्ध स्टैंड लिया था, उस पर तब तक कायम रहे जब तक कि उसके लिए प्रेरित करने वाली परिस्थितियां नहीं बदलतीं। फिलहाल तो ऐसा कुछ नहीं दिखता।
बालेन्दु शर्मा दाधीच
भारत पर पाकिस्तान के साथ टूटी हुई समग्र वार्ता की प्रक्रिया दोबारा शुरू करने का दबाव है। अमेरिकी प्रशासन चाहता है कि मुंबई के आतंकवादी हमलों के बाद पैदा हुआ तनाव कम हो जो वार्ता की बहाली से ही संभव है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी भी इसके लिए इच्छा जता चुके हैं और वे बाकायदा इसके लिए भारत से आग्रह की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि आपसी दूरियां और तनाव मिटाने के लिए वैचारिक आदान प्रदान के औचित्य पर कोई संदेह नहीं है लेकिन भारत सरकार के लिए यक्ष प्रश्न यह है कि वह पाकिस्तान के संदर्भ में अपनी सैद्धांतिक स्थिति से आखिर किस आधार पर हटे और अगर दोनों देशों के बीच बातचीत हो तो क्या हो?
भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद के मुद्दों की कभी कमी नहीं रही लेकिन जो मुद्दा पिछले पच्चीस साल से हल होने का नाम नहीं ले रहा, वह है आतंकवादी गुटों को पाकिस्तानी राज्य का सक्रिय समर्थन। जब तक पाकिस्तानी शासक, वहां की फौज और आईएसआई भारत को केंद्र बनाकर चलने वाले आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक कदम नहीं उठाती, दोनों देशों के संबंधों में किसी उल्लासपूर्ण एवं स्थायी बदलाव की संभावना नहीं है। अमेरिका और पाकिस्तान दोनों को इस बात का अहसास नहीं है कि आतंकवादियों के हाथों हजारों नागरिकों को खो देने वाले इस देश की जनता के लिए आतंकवाद और उसके प्रति पाकिस्तान का परोक्ष किंतु आधिकारिक समर्थन कितना बड़ा भावनात्मक मुद्दा है। एक ओर पाकिस्तान हाफिज मोहम्मद सईद जैसे आतंकवादी को, जिसे भारत का शत्रु समझा जाता है, जेल से रिहा करता है तथा वहां के प्रधानमंत्री कश्मीर में चल रहे आंदोलन को नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक और राजनयिक समर्थन देते रहने की बात कहते हैं। दूसरी तरफ वही पाकिस्तान भारत सरकार के साथ बातचीत करना चाहता है। ऐसे में भला बातचीत हो तो कैसे?
कहां है पाकिस्तानी सदाशयता?
अमेरिका को भारत पर वार्ता शुरू करने का दबाव डालते रहने की बजाए यह समझने की भी जरूरत है कि दक्षिण एशिया में जमीनी हालात में कोई बदलाव नहीं आए हैं। तालिबान के संदर्भ में भले ही पाकिस्तान का रुख बदलने का दावा किया जा रहा हो, भारत के विरुद्ध आतंकवादियों को कभी छद्म युद्ध के सैनिकों और कभी अपनी अग्रिम सुरक्षा पंक्ति के तौर पर इस्तेमाल करने वाले पाकिस्तानी तंत्र की सामरिक रणनीति या दीर्घकालीन सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। पाकिस्तान ने भले ही अमेरिका से अर्जित ज्ञान के आधार पर स्वीकार कर लिया हो कि भारत उसके अस्तित्व के लिए खतरा नहीं है, लेकिन वह खुद भारत के लिए बड़े से बड़े खतरे में तब्दील होता जा रहा है। न सिर्फ आतंकवाद के प्रति समर्थन जारी रखकर बल्कि अपने परमाणु हथियारों के जखीरे में तेजी से बढ़ोत्तरी करके भी, जिसकी पुष्टि स्वयं अमेरिका ने की है। मुंबई कांड के संदर्भ में भी तमाम दबावों और अपने बार-बार बदलते बयानों के बावजूद पाकिस्तान ने अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। आखिर किस सदाशयता के आधार पर पाकिस्तान से बात की जाए?
भारत आतंकवाद के अपने मुद्दे पर अडिग है क्योंकि पाकिस्तान के अपने हालात को देखते हुए वह इस दुष्चक्र को और अधिक समय तक पनपने नहीं दे सकता। हमें निशाना बनाने वाले लश्करे तैयबा (दिखाने के लिए जमात उद दावा), हिज्बुल मुजाहिदीन, जैशे मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन अब अलकायदा के विश्वव्यापी नेटवर्क का हिस्सा हैं, जिसमें तालिबान और दाऊद इब्राहीम तक शामिल हैं। वे पहले से अधिक कट्टर, प्रतिबद्ध और शक्तिशाली होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, वे भारत के भीतर भी अपनी जड़ें फैलाने में लगे हैं और कश्मीर तथा कुछ अन्य इलाकों के गुमराह युवकों को आतंकवादी लक्ष्यों की ओर खींचने में कामयाब हो रहे हैं। इससे पहले कि यह महामारी हमें पाकिस्तान जैसी स्थिति में धकेले, उसे अपनी जड़ों में ही समाप्त किए जाने की जरूरत है। अमेरिका ने जिस तरह पाकिस्तान को तालिबान के सफाए के लिए मजबूर किया है, उस माहौल में वह आतंकवाद के विरुद्ध स्टैंड लेने के लिए मजबूर है, भले ही वह दिखावटी ही क्यों न हो। भारत के लिए कल की तुलना में यह अनुकूल स्थिति है। पाकिस्तान के लिए लश्कर, जैश और हिज्बुल मुजाहिदीन के लिए खुला सामरिक समर्थन देना मुश्किल होता जा रहा है। जरूरत है कि अमेरिका के जरिए या फिर कूटनीतिक दबाव के जरिए भारत उसे इन संगठनों के विरुद्ध स्पष्ट कार्रवाई के लिए मजबूर करे।
मुंबई के बाद का सन्नाटा
मुंबई के आतंकवादी हमलों में पाकिस्तानियों का हाथ जिस बेशर्मी के साथ पूरी दुनिया के सामने स्पष्ट हुआ उसका असर भारत में आतंकवादी गतिविधियों में कमी आने के रूप में सामने आया है। शायद इसलिए कि आतंकवादियों की रीढ़ बना हुआ पाकिस्तानी तंत्र फिलहाल तालिबान के संदर्भों में व्यस्त है। या इसलिए कि पाकिस्तानी तंत्र 26 नवंबर की घटना के बाद ऐसी ही किसी अन्य विध्वंसात्मक कार्रवाई के अंतरराष्ट्रीय परिणामों का जोखिम लेने की स्थिति में नहीं है। मुंबई के हमलों के बाद आतंकवाद के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय समन्वय में जो मजबूती आई है उसे देखते हुए आतंकवादी घटना के लिए जिम्मेदार लोगों का परदे के पीछे छिपा रहना संभवत: उतना आसान नहीं रहा। पाकिस्तान के विरुद्ध भारत का कूटनीतिक और राजनैतिक दबाव काम कर रहा है।
पाकिस्तान के लिए भारत के साथ समग्र वार्ता शुरू करना एक मजबूरी है। यह उसे उस कोष्ठक से बाहर निकालती है जिसमें वह आतंकवादी ताकतों के साथ डाल दिया गया है। वैश्विक दबाव के बीच वह अपने आप को एक लोकतांत्रिक एवं जिम्मेदार राष्ट्र सिद्ध करने की अनिवार्यता का सामना कर रहा है। भारत के नरम पड़ने से वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैधता और कूटनीतिक लाभ की स्थिति में आ जाता है। उसी तरह का लाभ जो लंबे समय तक परवेज मुशर्रफ की सरकार के साथ संपर्क न रखने के बाद अचानक उससे बातचीत शुरू कर भारत ने उसे पहुंचाया था। लेकिन भारत की स्थिति विपरीत है। जैसे ही वह समग्र वार्ता शुरू करता है, पाकिस्तान के विरुद्ध कूटनीतिक दबाव के समापन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इतना ही नहीं, आतंकवाद के विरुद्ध उसकी सैद्धांतिक स्थिति भी क्षीण होती है।
बहरहाल, कारगिल युद्ध और संसद पर हमले के बाद हम इसी तरह की स्थिति देख चुके हैं जब भारत न चाहते हुए भी पाकिस्तान से संबंध सामान्य बनाने के लिए मजबूर हो जाता है। हो सकता है कि उसे इस बार भी अपने रुख में नरमी लाते हुए बातचीत की मेज पर आना पड़े। उस पर बराक ओबामा प्रशासन का निरंतर दबाव है और हिलेरी िक्लंटन की आगामी भारत यात्रा के दौरान यह और बढ़ेगा। बहरहाल, क्या हम पाकिस्तान से सिर्फ बातचीत के लिए बातचीत करना चाहते हैं? यह जानते हुए भी कि ऐसी वार्ताएं मौजूदा हालात में किसी सार्थक परिणति पर नहीं पहुंच सकतीं? जरूरत है कि मुंबई के हमलों के बाद भारत ने जिस दृढ़ता के साथ पाकिस्तान के विरुद्ध स्टैंड लिया था, उस पर तब तक कायम रहे जब तक कि उसके लिए प्रेरित करने वाली परिस्थितियां नहीं बदलतीं। फिलहाल तो ऐसा कुछ नहीं दिखता।
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