Friday, September 4, 2009

संथानम के सवालों को निंदा नहीं, जवाब चाहिए

श्री संथानम संभवत: सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि हमारे पास बिना नए परमाणु परीक्षणों के आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त डेटा नहीं है। यानी भारत को सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने चाहिए और भविष्य में परमाणु परीक्षणों के लिए रास्ता खुला रखना चाहिए।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

भारत के परमाणु.अस्त्र कार्यक्रम के पूर्व समन्वयक के संथानम ने पोखरण-2 के बारे में अपने बयान से अणु-विस्फोट सा कर दिया है। जैसा कि लीक से हटकर बात करने का दुस्साहस दिखाने वालों के साथ भारत में होता है, श्री संथानम की निंदा और उनके बयानों के खंडन का दौर जारी है। उनके बयान को हमारे राष्ट्र गौरव के एक प्रतीक पर हमले के रूप में लिया जा रहा है। लेकिन कई दशकों तक भारत के परमाणु कार्यक्रम की सेवा करने वाले एक वैज्ञानिक को सिर्फ इसीलिए 'खलनायक' के रूप में देखने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि उन्होंने पोखरण-2 के पहले हाइड्रोजन बम परीक्षण के बारे में एक अप्रिय तथ्य का साहसिक खुलासा किया। जरूरत उनके बयान को 'असत्य' करार देने में पूरी शक्ति लगा देने की नहीं है। जरूरत है असलियत का पता लगाने और उसके अनुसार आगे कदम उठाने की।

क्या हमें श्री संथानम के मंसूबों पर संदेह करना चाहिए? शायद नहीं। वे अपना बयान देने के बाद भी उस पर अडिग हैं। यहां तक कि पूर्व राष्ट्रपति डॉ॰ एपीजे अब्दुल कलाम, प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह, गृह मंत्री पी चिदंबरम, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा और परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर का बयान आने के बाद भी उनके मत में कोई बदलाव नहीं आया है। एक वैज्ञानिक इतनी बड़ी हस्तियों के प्रतिवाद के बावजूद अपने बयान पर कायम है तो ऐसा अकारण नहीं हो सकता। डा॰ संथानम कोई आम आदमी नहीं हैं। वे कोई सामान्य वैज्ञानिक भी नहीं हैं बल्कि लंबे समय तक भारत के परमाणु कायर्क्रम से जुड़े रहे हैं और पोखरण-2 के दौरान परीक्षण स्थल के निदेशक थे।

मुझे नहीं लगता कि उनकी देशभक्ति में कोई कमी हो सकती है। उनके बयान ने पूरे देश को भौंचक जरूर कर दिया है, अपनी परमाणु क्षमता के बारे में हमारे आत्मविश्वास को भी कुछ ठेस लगी है लेकिन इस मुद्दे पर बहुत भावुक होने और उसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने की जरूरत नहीं है। जरूरत है उनके बयान में छिपे निहितार्थों को समझने की। वे ऐसा कहने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक भारत के परमाणु परीक्षणों पर पहले ही सवाल उठा चुके हैं। यहां तक कि भारतीय परमाणु ऊर्जा कायर्क्रम के पूर्व अध्यक्ष डॉ॰ पीके आयंगर भी 1998 से ही लगभग इसी तरह की बात कहते आए हैं। इन आपत्तियों को लगातार नकारकर बेवजह भ्रम पाले रखने से कोई लाभ नहीं होगा। वैज्ञानिक परिघटनाओं को बयानबाजी या प्रचार की नहीं, व्यावहारिक तथ्यान्वेषण की अधिक जरूरत होती है।

के संथानम के बयान के बाद मीडिया और आम लोगों के बीच ऐसी धारणा बन रही है कि पोखरण-2 के दौरान 11 और 13 मई 1998 को हुए परमाणु परीक्षण उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। ऐसा नहीं है। श्री संथानम उस समय हुए पांच परीक्षणों में से सिर्फ एक परीक्षण के बारे में कह रहे हैं। उसे भी उन्होंने नाकाम नहीं बताया है। उसे उम्मीदों से कम माना है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत के परमाणु अस्त्र कार्यक्रम या हमारी परमाणु क्षमता को लेकर किसी तरह का संदेह नहीं है। श्री संथानम, परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ॰ पीके आयंगर और कुछ अन्य वैज्ञानिकों का संकेत पहले परमाणु परीक्षण की ओर है जो एक थर्मो-न्यूक्लियर परीक्षण था। इसे आम भाषा में हाइड्रोजन बम कहा जाता है। यदि श्री संथानम और इन वैज्ञानिकों की बात सही है तब भी हम इस बात को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं कि भारत के पास 'हाइड्रोजन बम' भले ही न हो, परमाणु बम (न्यूक्लियर बम) तो मौजूद है। देश की सुरक्षा के लिए वह पर्याप्त है।

अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम ही गिराया था। हाइड्रोजन बम परमाणु बम से आगे की चीज है। उसका विस्फोट करने के लिए पहले परमाणु विस्फोट की क्षमता होना अनिवायर् है क्योंकि हाइड्रोजन बम विस्फोट के लिए अत्यधिक ऊर्जा की जरूरत होती है जिसे पहले सामान्य परमाणु विस्फोट (वैज्ञानिक शब्दावली में 'फिशन') करके प्राप्त किया जाता है। इस विस्फोट की ऊर्जा का इस्तेमाल हाइड्रोजन बम के विस्फोट (वैज्ञानिक शब्दावली में 'फ्यूज़न') के लिए किया जाता है, जो दूसरे स्तर का परमाणु हथियार है। श्री संथानम और अन्य वैज्ञानिकों ने परमाणु विस्फोट (पहले स्तर के विस्फोट) की हमारी क्षमता पर कोई संदेह नहीं उठाया है। उन्होंने दूसरे स्तर के विस्फोट की गहनता को उम्मीद से कम बताया है। इसे लेकर बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि परमाणु बम की विनाशलीला भी कोई कम नहीं होती। वैसे भी इन बमों को इस्तेमाल करने की स्थिति शायद कभी न आए। इनका वास्तविक उपयोग शत्रु को यह दिखाने में है कि यदि हम युद्ध में कमजोर पड़े तो इस विकल्प का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसी को सैनिक भाषा में 'मिनिमम डिटरेंस' कहा जाता है।

श्री संथानम का तर्क है कि थर्मोन्यूक्लियर युक्ति (हाइड्रोजन बम) का सफलतापूर्वक परीक्षण पहले ही प्रयास में हो जाए यह जरूरी नहीं है। इसमें लज्जा जैसी कोई बात नहीं है। यह एक वैज्ञानिक प्रयोग है जिसमें बार.बार के परीक्षण के बाद ही पूर्ण दक्षता मिलती है। इंग्लैंड ने अपने हाइड्रोजन बम के परीक्षण के लिए तीन परमाणु विस्फोट (फिशन) किए थे और फ्रांस को 29 परीक्षण करने पड़े थे। हमने सिर्फ एक हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया है और हम विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में इन दोनों देशों से आगे नहीं हैं। एक प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक ने लिखा है कि हाइड्रोजन बम का परीक्षण बेहद जटिल प्रक्रिया है जिसमें हजारों प्रक्रियाओं और डिजाइन फीचर्स को एक साथ, एक दूसरे के साथ सटीक तालमेल बनाते हुए काम करना होता है। उनमें से किसी के भी इधर.उधर होने पर परीक्षण नाकाम हो सकता है। अमेरिका (1800), रूस (800) और चीन (75) ने यदि आज इसमें दक्षता प्राप्त कर ली है तो इसलिए कि उन्होंने लंबे समय तक ऐसे सैंकड़ों परीक्षण किए हैं। हमारा एकमात्र हाइड्रोजन बम परीक्षण यदि हमें उनके स्तर पर नहीं ले जा सकता, तो इसमें प्रतिष्ठा से जुड़ी क्या बात है? जरूरत है तो शायद पुन: परमाणु परीक्षण न करने के हमारे एकतरफा संकल्प पर पुनर्विचार करने की।

संभवत: यही श्री संथानम के बयानों का उद्देश्य भी है। अमेरिका में ओबामा प्रशासन के सत्ता में आने के बाद से भारत पर समग्र परमाणु परीक्षण निषेध संधि (सीटीबीटी) पर दस्तखत करने के लिए भारी अमेरिकी दबाव पड़ रहा है। यह मुद्दा संसद में भी उठा है। आम तौर पर यह माना जाता है कि आज तकनीक जिस स्तर पर है उसमें बार.बार परमाणु परीक्षण करने की जरूरत नहीं होती और पहले परीक्षणों से प्राप्त डेटा का प्रयोग कर कंप्यूटर सॉफ्टवेयर सिमुलेशन का प्रयोग कर प्रयोगशालाओं में 'वर्चुअल' परीक्षण किए जा सकते हैं। भारत के बहुत से वैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि अब हमें परीक्षण करने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमारे पास सिमुलेशन के लिए पयरप्त डेटा मौजूद है।

श्री संथानम के बयान को यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो संभवत: वे सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि नहीं, हमारे पास पर्याप्त डेटा नहीं है। हमारा पहला हाइड्रोजन बम परीक्षण अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं था। यानी भारत को सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने चाहिए और भविष्य में परमाणु परीक्षणों के लिए रास्ता खुला रखना चाहिए। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर ने भी एक बार कहा था कि हमारे पास परमाणु परीक्षणों के सिमुलेशन का काम करने योग्य सुपर.कंप्यूटर नहीं हैं। इसके लिए 10000 खरब गणनाएं प्रति सैकंड की क्षमता वाले सुपर कंप्यूटर की आवश्यकता है जबकि भारतीय सुपर कंप्यूटर प्रति सैकंड सिर्फ 20 खरब गणनाएं करने में सक्षम है। श्री संथानम और श्री काकोदकर के बयानों को जोड़कर देखा जाए तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि हमें भविष्य में परमाणु परीक्षणों की संभावना खुली रखनी चाहिए।

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बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

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