अफगानिस्तान में अपने दूतावास और नाटो मुख्यालय पर हुए हमले के बाद अमेरिका को अहसास हो रहा है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में उसका प्रमुख 'सहयोगी' ही उसकी सबसे बड़ी समस्या है।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
-पिछले दिनों अफगानिस्तान में नाटो मुख्यालय और फिर अमेरिकी दूतावास पर हुए हमले के लिए पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस ने कुख्यात हक्कानी नेटवर्क को प्रेरित किया और इन्हें अंजाम देने में उसकी मदद की।
-काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हमला करने वाला हक्कानी नेटवर्क पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का परोक्ष नेटवर्क है।
-हिंसक अतिवाद (परोक्षत: आतंकवाद) को नीतिगत माध्यम के रूप में इस्तेमाल करके पाकिस्तान सरकार, खासकर पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई, अमेरिका के साथ अपने सामरिक संबंधों को तो नुकसान पहुंचा ही रही हैं, असरदार क्षेत्रीय प्रभाव वाले सम्मानित राष्ट्र के रूप में देखे जाने का अवसर भी खो रही हैं।
अगर ऊपरी बयानों में अमेरिकी दूतावास की जगह पर भारतीय दूतावास और अमेरिका के स्थान पर भारत करके पढ़ा जाए तो ये पूरी तरह भारतीय नेताओं, अधिकारियों और राजनयिकों के बयान प्रतीत होंगे। लेकिन ये अमेरिकी सरकार के दिग्गजों के बयान हैं। पहला बयान जहां अमेरिकी रक्षा प्रतिष्ठान के अधिकारियों का है, वहीं बाकी दो बयान अमेरिकी संयुक्त सेना प्रमुख एडमिरल माइक मुलेन के हैं। लगे हाथ अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के बयान पर भी नजर डाली जा सकती है जिन्होंने कहा है कि अमेरिका आतंकवाद के सामने झुकने वाला नहीं है और अफगानिस्तान में उसकी मुहिम जारी रहेगी।
इसी महीने हुई आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में अमेरिकी सरजमीन से लगभग वैसे ही बयान आ रहे हैं जैसे आतंकवाद से पारंपरिक रूप से पीङ़ित भारत पिछले कई वषर्ों से देता आ रहा है। माइक मुलेन के बयान ने तीन साल पहले काबुल में ही भारतीय दूतावास पर हुए आतंकवादी हमले की याद ताजा कर दी है जब भारत ने ठीक इसी तरह का आरोप लगाया था। मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के दौरान भी भारत ने आधिकारिक तौर पर अमेरिका को बताया था कि हमले के पल.पल की खबर पाकिस्तानी फौजी और खुफिया अधिकारियों को थी और उसकी निगरानी आईएसआई से जुड़े हैंडलर्स ने की थी। भारत आतंकवाद के जिस दंश को दशकों से झेलता आया है, उसकी चपेट में अमेरिका हाल ही में आने लगा है। भारत के जिन आरोपों को उसने लगभग नजरंदाज करते हुए पाकिस्तानी गतिविधियों की ओर आंख मूंदे रखी उन्हें आज वह खुद ही दोहराने को मजबूर है। सच है, जाके पांव ने फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।
सरकारी नीति बना आतंकवाद
जिस अमेरिकी बयान को सबसे महत्वपूण्र माना जाएगा, वह है नीतिगत उपकरण के रूप में हिंसक अतिवाद का प्रयोग। लेकिन इस अहसास तक पहुंचने में अमेरिका को पूरे ग्यारह साल लग गए हैं। याद कीजिए, पूवर् प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सितंबर 2000 की अमेरिका यात्रा जब अमेरिकी कांग्रेस की संयुक्त बैठक को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था. 'भारत और अमेरिका को आतंकवाद की त्रासदी से निपटने के प्रयास द्विगुणित कर देने चाहिए क्योंकि पाकिस्तान आतंकवाद का इस्तेमाल सरकारी नीति को लागू करने के उपकरण के रूप में कर रहा है।' उन्होंने पिछले दो दशकों के भारत के अनुभवों का हवाला देते हुए कहा था कि पाकिस्तान धार्मिक जेहाद को राष्ट्रीय नीति का माध्यम बना रहा है। लेकिन वह जमाना और था। तब तक अमेरिका ने दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी हमले का सामना नहीं किया था, वह तो श्री वाजपेयी के भाषण के एक साल बाद ग्यारह सितंबर 2001 को हुआ, जिसमें दुनिया ने सबसे बड़ी शक्ति को आंतकवादी विध्वंस की गंभीरता का अहसास कराया।
श्री वाजपेयी ही क्यों, उनसे पहले और उनके बाद की हर सरकार ने पिछले तीन दशकों के दौरान अमेरिका की हर सरकार का ध्यान इस बात की ओर खींचा है कि भारत में आतंकवादी गतिविधियों में लगे तत्वों को पाकिस्तान का नैतिक, आर्िथक, सामरिक, खुफिया और हथियार संबंधी समर्थन हासिल है। हमारे विरुद्ध होने वाले कितने ही हमलों की भूमिका खुद आईएसआई बनाती आई है और कश्मीर में 'प्रच्छन्न युद्ध' की पाकिस्तानी नीति तो जनरल जिया उल हक के जमाने से ही उसकी सामरिक नीति का एक महत्वपूण्र हिस्सा है, जिन्होंने फिलस्तीन की तर्ज पर भारत को सबक सिखाने के लिए यह रास्ता चुना था। तब पाकिस्तान अमेरिका के ज्यादा करीब था और एक लोकतांत्रिक शक्ति होते हुए भी भारत अमेरिका को रास नहीं आता था। ग्यारह सितंबर को अगर अमेरिका ने आतंकवाद का सामना न किया होता तो आज भी भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और आसपास के इलाकों के घटनाक्रम पर अमेरिकी
कार्रवाइयां महज विदेश मंत्रालय के बयानों तक ही सीमित रहतीं।
एक के बाद एक रहस्योद्घाटन
ग्यारह सितंबर के हमले के तुरंत बाद जब भारत को लगा कि अमेरिका वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई करने के प्रति गंभीर है तो उसने अलकायदा, तालिबान और दूसरे आतंकवादियों के बारे में महत्वपूण्र खुफिया जानकारियां उसे सौंपी थीं। इन जानकारियों में पाकिस्तान में चल रहे आतंकवादी प्रशिक्षण केंद्रों का ब्यौरा भी था और अफगानिस्तान के दूर.दराज क्षेत्रों की आतंकवादी गतिविधियों की जानकारी भी। लेकिन अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपने सामरिक समीकरणों के चलते आतंकवाद के उद्भव तथा आश्रय स्थल के रूप में पाकिस्तान की भूमिका को पूरी तरह नजरंदाज कर दिया। ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तानी सरजमीन पर, पाकिस्तानी फौज की नाक के नीचे, मारे जाने और डेविड कोलमैन हैडली तथा फैसल शहजाद की पृष्ठभूमि साफ होने, और अब अफगानिस्तान के हमलों के बाद अमेरिका को स्पष्ट हुआ है कि दुनिया भर में चलने वाला आतंकवाद के चक्र की धुरी तो खुद पाकिस्तान में ही है। ओसामा की मौत, तालिबान के शीर्ष नेतृत्व की पाकिस्तानी सरजमीन पर मौजूद होने की पुष्टि और अब ओसामा के नायब अयमान अल जवाहिरी की मौजूदगी का खुलासा हो ही चुका है। दोस्त अगर ऐसा हो तो दुश्मनों की क्या जरूरत!
लेकिन लगता है कि अमेरिका को देर से ही सही, अब अहसास हो रहा है कि भारत सही था, पाकिस्तान और खुद अमेरिका गलत। आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में उसका प्रमुख 'सहयोगी' ही उसकी सबसे बड़ी समस्या है। अफगानिस्तान में पहले तालिबान और अब हक्कानी नेटवर्क को पनपाने में उसकी जो भूमिका है, ठीक वही भूमिका भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों. लश्करे तैयबा, हिज्बुल मुजाहिदीन और जैशे मोहम्मद को पल्लवित करने में रही है। ये सभी आतंकवादी संगठन जिन तीन देशों को अपने सबसे बड़े दुश्मन मानते हैं उनमें अमेरिका, भारत और इजराइल सबसे ऊपर हैं। याद कीजिए कुछ समय पहले पाकिस्तानी तालिबान की तरफ से आया वह बयान जिसमें उसने कहा था कि अगर भारत पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई करता है तो तालिबान आतंकवादी पाकिस्तानी फौजों के साथ कदम से कदम मिलाकर भारत पर हमला करेंगे। जनरल मुशर्रफ के जमाने में कारगिल पर हुई कार्रवाई में आतंकवादियों और पाकिस्तानी फौजियों ने एक टीम के रूप में मिलकर काम किया था, इसे अब दूसरे तो क्या खुद पाकिस्तान भी स्वीकार करता है।
यह सब जानने के बाद भी यदि अमेरिका आतंकवाद से लड़ाई के मामले में भारत के साथ दूरी बरतने और पाकिस्तान के साथ दोस्ती बनाए रखने की गलती करता है तो इसमें सिर्फ हमारा नुकसान नहीं है। अब उसे अहसास हो जाना चाहिए कि आतंकवाद के विरुद्ध सभ्य विश्व की लड़ाई में भारत और अमेरिका अलग.अलग छोर पर खड़े नहीं रह सकते। दक्षिण एशिया से संबंधित उसकी रणनीति और समीकरणों में भारत का स्थान अहम होना चाहिए। दोनों को एक.दूसरे के अनुभव, शक्ति और रणनीतिक सहयोग की जरूरत है।
Saturday, September 24, 2011
Saturday, September 17, 2011
क्या ब्याज दरें बढ़ाने के सिवा महंगाई का कोई इलाज नहीं है?
मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दरें बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। भले ही आर्थिक तरक्की का लाभ आम नागरिकों तक किसी न किसी रूप में पहुंच रहा हो, आर्थिक आघात झेलने की उनकी क्षमता का आखिर कोई तो अंत है!
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
रिजर्व बैंक से आई ब्याज दरें बढ़ाने की खबर पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने जिस अंदाज में टिप्पणी की, वह आम आदमी की चिंताओं के प्रति सरकारी प्रतिष्ठान के उपेक्षाभाव को ही प्रकट नहीं करती, यह भी दिखाती है कि हमारा सत्ता तंत्र जमीनी हकीकतों से किस कदर कट गया है। श्री अहलुवालिया ने रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में की गई बढ़ोत्तरी को 'गुड न्यूज़' करार दिया था। बढ़ती ब्याज दरों और महंगाई का दंश झेल रहे गरीब और मध्यवर्गीय समुदाय के लिए इससे बड़ा मजाक और कोई नहीं हो सकता। मान ा कि रिजर्व बैंक की पहली चिंता मुद्रास्फीति है, माना कि रिजर्व बैंक के गवर्नर दुव्वुरी सुब्बाराव की एक निर्मम अर्थशास्त्री तथा कुशल प्रशासक की छवि है और इसीलिए पिछले दिनों उन्हें एक्सटेंशन भी मिला है, लेकिन पिछले अठारह महीनों में बारहवीं बार जनता को कड़वी घुट्टी पिलाने से पहले उन्हें थोड़ा संवेदनशील होकर सोचने की जरूरत थी। मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दरें बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। दूसरे, भले ही आर्थिक तरक्की का लाभ आम नागरिकों तक किसी न किसी रूप में पहुंच रहा हो, इस तरह के प्रत्यक्ष आर्थिक आघात झेलने की उनकी क्षमता का आखिर कोई तो अंत है! दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था सिर्फ 25 बेसिस प्वाइंट्स की बढ़ोत्तरी से हिल जाती है और यहां प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया में 129वें नंबर पर आने वाले हम भारतीय पिछले डेढ़ साल में साढ़े तीन फीसदी बढ़ोत्तरी झेल चुके हैं। अब तो बस कीजिए!
जिसे श्री अहलुवालिया ने 'गुड न्यूज़' करार दिया, वह हर कर्जदार व्यक्ति को व्याकुल करने वाली खबर है। कर्जदार ही क्यों, परोक्ष रूप से किसी न किसी रूप में हर व्यक्ति को प्रभावित करेगी क्योंकि इसका सबसे बड़ा असर आर्थिक, व्यावसाियक, कारोबारी तथा औद्योगिक गतिविधियों पर पड़ेगा। हालांकि अब आम आदमी यह मानकर चलने लगा है कि रिजर्व बैंक जब भी मौद्रिक नीति की समीक्षा करेगा, उसके लिए एक 'गुड न्यूज़' जरूर पेश करेगा, लेकिन इस बार की 'गुड न्यूज़' ने कुछ ज्यादा ही झटका दिया है क्योंकि यह मौजूदा आर्थिक धारणा (सेन्टीमेंट) के अनुकूल नहीं है। रैपो रेट को सवा आठ और रिवर्स रैपो को सवा सात फीसदी पर ले जाने की रिजर्व बैंक की घोषणा पर उद्योग तथा व्यापारिक संगठनों ने जिस तरह निराशाजनक प्रतिक्रिया की है, वैसा हमारी उदारीकृत, पूंजीवाद.उन्मुख, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के दौर में अरसे बाद देखने को मिला है। कारण, क्या उद्योगपति, क्या सेवा प्रदाता, क्या व्यापारी, क्या जमीन.जायदाद कारोबारी, क्या वाहन कंपनियां, क्या उपभोक्ता सामग्री निर्माता और क्या उन सबका उपभोक्ता॰॰॰ रिजर्व बैंक के पिछले फैसले पहले ही सबकी कमर तोड़ चुके हैं। निराशा की यह देशव्यापी धारणा सरकार से पूरी तरह छिपी नहीं रह सकती। मौद्रिक समीक्षा से ठीक पहले वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी का यह कथन कि शायद अब और ब्याज दरें बढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ेगी तथा हम मुद्रास्फीति को दूसरे तरीकों से काबू करने की कोशिश करेंगे, उसकी ओर इशारा करता है। लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कह दिया कि भई अंतिम फैसला तो रिजर्व बैंक को ही करना है। सरकार बड़ी सफाई से दोष रिजर्व बैंक के सिर मढ़कर बच निकलती है। लेकिन क्या रिजर्व बैंक ये सभी कदम एकतरफा तौर पर उठा रहा है?
यह करें तो उलझन, वह करें तो समस्या
सरकार की उलझनें समझ में आती हैं। रिजर्व बैंक हर बार ब्याज दर बढ़ाने की घोषणा करते हुए इन चिंताओं को दोहराता भी है। उसकी सबसे बड़ी चिंता है मुद्रास्फीति। यह महज एक आर्थिक समस्या ही नहीं है, राजनैतिक और सामाजिक भी है। महंगाई के कारण लोगों में धीरे.धीरे सरकार विरोधी भावना पैदा हो रही है। समस्या यह है कि महंगाई रोकने के लिए मौद्रिक कदम उठाए जाएं तो आवासीय तथा वाहन ऋण लेने वाले लोग, कारोबारी तथा उद्यमी उबल पड़ते हैं और ब्याज दरें स्थिर रखी जाएं या घटा दी जाएं तो महंगाई सिर उठाने लगती है जिससे आम आदमी का गुस्सा आसमान छूने लगता है। विपक्ष की भारी आलोचना और जन आक्रोश के बावजूद अगर सरकार ब्याज दरें बढ़ाती जा रही है तो इसलिए कि वह महंगाई के भूत को किसी भी तरह काबू कर लेना चाहती है। यहां तक कि राजनैतिक जोखिम उठाकर भी। मगर यह भूत है कि काबू में आता ही नहीं। मुद्रास्फीति से सरकार कितनी भयभीत है, यह उसकी इस नीति से स्पष्ट है कि अगर रिजर्व बैंक के कदमों से आर्थिक विकास (जीडीपी) की वृद्धि दर थोड़ी.बहुत घटती भी है तो देखा जाएगा लेकिन सबसे पहले महंगाई पर लगाम लगाना जरूरी है। इसे सरकार का दुभ्राग्य कहें या फिर 'अल्पदृष्टि' पर आधारित उपायों की सीमा, कि एक के बाद एक कठोर कदम उठाने के बावजूद मुद्रास्फीति नौ फीसदी के आसपास बरकरार है। वह खतरे के निशान से नीचे आने का नाम नहीं ले रही। दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था में धीमापन आना शुरू हो गया है।
ऐसे में रिजर्व बैंक, वित्त मंत्रालय, और कारोबार, सेवा, उद्योग, परिवहन, आयात.नियरत, वाणिज्य, कर, पेट्रोलियम आदि का जिम्मा संभालने वाले दूसरे मंत्रालय और विभाग वैकल्पिक रास्तों की तलाश में क्यों नहीं जुटते? डेढ़ साल से अर्थव्यवस्था को बढ़ी ब्याज दरों का इन्जेक्शन लगाने के बावजूद यदि बीमार की हालत ठीक नहीं हो रही तो शायद उसे होम्योपैथी या आयुवेर्द की जरूरत हो? क्या 'ब्याज दर' कोई संजीवनी बूटी है जिसके अतिरिक्त और कोई उपाय किया ही नहीं जा सकता? ऐसा नहीं है। महंगाई को प्रभावित करने वाले पहलू और भी हैं, जिन पर या तो सरकार का ध्यान जाता नहीं या फिर उसके पास इन्हें अनुशासित करने की इच्छाशक्ति नहीं है।
विकल्पों को भी देखिए
मुद्रास्फीति की समस्या को सिर्फ रिजर्व बैंक के हवाले कर देने की बजाए अगर उसमें केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों की भी भूमिका हो तो विकल्प और भी कई निकल सकते हैं। आवासीय क्षेत्र में मांग घटानी है तो परियोजनाओं की संख्या सीमित की जा सकती है। दैनिक उपयोग की चीजों की कीमतें बढ़ने के पीछे काफी हद तक पेट्रोलियम पदाथर्ों की बढ़ी हुई कीमतें जिम्मेदार हैं। अगर सरकार कुछ और समय तक पेट्रोलियम क्षेत्र में सब्सिडी के संदभ्र में नरमी बरतती रहे तो महंगाई प्रभावित हो सकती है। लेकिन सरकार ने तो ब्याज दरों के साथ.साथ पेट्रोलियम पदाथर्ों की कीमतें भी बढ़ाई हैं। उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार से जोड़ने की नीतिगत मजबूरी समझ में आती है, पेट्रोलियम सप्लाई कंपनियों को होने वाले घाटे संबंधी चिंताएं भी जायज हैं, लेकिन अगर महंगाई पर काबू पाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है तो पेट्रोलियम के भावों और सब्सिडी के मुद्दे पर 'गो स्लो' की नीति अपनाई जा सकती है। मजबूरी में ही सही। अस्थायी रूप से ही सही।
भारत में यकायक पैदा हुई महंगाई को कई अर्थशास्त्री वायदा कारोबार के प्रतिफल के रूप में भी देखते हैं। गेहूं, चावल, दालों आदि के वायदा भावों में तेजी राष्ट्रीय स्तर पर इन पदाथर्ों के भावों को प्रभावित करने लगी है। सोने.चांदी की भी यही स्थिति है। आप भले ही ब्याज दरें बढ़ाते रहिए, वायदा कारोबारी ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए जरूरी चीजों के भावों को बढ़ाने में लगे रहेंगे तो ब्याज दरें भला क्या करेंगी। वायदा कारोबार के प्रभावी नियमन की दिशा में कदम उठाए जाने चाहिए। बहुत जल्द, रिटेल बाजार में विदेशी कंपनियों का आगमन भी भावों को प्रभावित कर सकता है। आशंका है कि वे बड़े पैमाने पर सामग्री खरीदेंगी और बाजार में कृत्रिम तेजी पैदा करेंगी। बाजार का खुलना, नए क्षेत्रों में अवसरों का सामने आना, वैश्वीकरण आदि सब कुछ ठीक है, लेकिन सीमा के भीतर ही। भारत की प्रति व्यक्ति आय आज भी चालीस हजार रुपए के आसपास है। यह अमेरिका या यूरोप नहीं है, जहां ब्रांडिंग, पैकेजिंग, प्रचार और ग्लैमर भावों से ज्यादा महत्वपूण्र हो जाते हैं। हमसे चालीस गुना प्रति व्यक्ति आय से लैस वहां का उपभोक्ता बढ़ी.चढ़ी कीमतों का असर झेल सकता है, इसलिए वहां ये फार्मूले चल सकते हैं, यहां नहीं।
देश में सब्जियों, फलों आदि की सप्लाई.चेन व्यवस्था को बेहतर बनाए जाने की जरूरत है। देश के एक हिस्से में कोई खास अनाज, फल या सब्जी बहुत सस्ती होती है और दूसरे हिस्से में बहुत महंगी। समस्या त्वरित परिवहन और भंडारण से जुड़ी हो सकती है। जमाखोरी और कालाबाजारी महंगाई को बढ़ाने वाले पारंपरिक कारक हैं। इमरजेंसी के दौरान महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए इन्हें खास तौर पर निशाना बनाया गया था और इसके नतीजे भी निकले थे। ऐसा फिर क्यों नहीं किया जा सकता? भारत में सावर्जनिक वितरण प्रणाली एक तरह का वरदान है। गांव.गांव में फैला हुए इसके नेटवर्क को मजबूत, परिणामोन्मुख और भ्रष्टाचार.कालाबाजारी से मुक्त बनाया जा सके तो क्या कुछ नहीं हो सकता। लेकिन यह सब रिजर्व बैंक के उठाए पारंपरिक कदमों से नहीं होने वाला। कमान केंद्र सरकार को ही संभालनी होगी।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
रिजर्व बैंक से आई ब्याज दरें बढ़ाने की खबर पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने जिस अंदाज में टिप्पणी की, वह आम आदमी की चिंताओं के प्रति सरकारी प्रतिष्ठान के उपेक्षाभाव को ही प्रकट नहीं करती, यह भी दिखाती है कि हमारा सत्ता तंत्र जमीनी हकीकतों से किस कदर कट गया है। श्री अहलुवालिया ने रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में की गई बढ़ोत्तरी को 'गुड न्यूज़' करार दिया था। बढ़ती ब्याज दरों और महंगाई का दंश झेल रहे गरीब और मध्यवर्गीय समुदाय के लिए इससे बड़ा मजाक और कोई नहीं हो सकता। मान ा कि रिजर्व बैंक की पहली चिंता मुद्रास्फीति है, माना कि रिजर्व बैंक के गवर्नर दुव्वुरी सुब्बाराव की एक निर्मम अर्थशास्त्री तथा कुशल प्रशासक की छवि है और इसीलिए पिछले दिनों उन्हें एक्सटेंशन भी मिला है, लेकिन पिछले अठारह महीनों में बारहवीं बार जनता को कड़वी घुट्टी पिलाने से पहले उन्हें थोड़ा संवेदनशील होकर सोचने की जरूरत थी। मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दरें बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। दूसरे, भले ही आर्थिक तरक्की का लाभ आम नागरिकों तक किसी न किसी रूप में पहुंच रहा हो, इस तरह के प्रत्यक्ष आर्थिक आघात झेलने की उनकी क्षमता का आखिर कोई तो अंत है! दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था सिर्फ 25 बेसिस प्वाइंट्स की बढ़ोत्तरी से हिल जाती है और यहां प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया में 129वें नंबर पर आने वाले हम भारतीय पिछले डेढ़ साल में साढ़े तीन फीसदी बढ़ोत्तरी झेल चुके हैं। अब तो बस कीजिए!
जिसे श्री अहलुवालिया ने 'गुड न्यूज़' करार दिया, वह हर कर्जदार व्यक्ति को व्याकुल करने वाली खबर है। कर्जदार ही क्यों, परोक्ष रूप से किसी न किसी रूप में हर व्यक्ति को प्रभावित करेगी क्योंकि इसका सबसे बड़ा असर आर्थिक, व्यावसाियक, कारोबारी तथा औद्योगिक गतिविधियों पर पड़ेगा। हालांकि अब आम आदमी यह मानकर चलने लगा है कि रिजर्व बैंक जब भी मौद्रिक नीति की समीक्षा करेगा, उसके लिए एक 'गुड न्यूज़' जरूर पेश करेगा, लेकिन इस बार की 'गुड न्यूज़' ने कुछ ज्यादा ही झटका दिया है क्योंकि यह मौजूदा आर्थिक धारणा (सेन्टीमेंट) के अनुकूल नहीं है। रैपो रेट को सवा आठ और रिवर्स रैपो को सवा सात फीसदी पर ले जाने की रिजर्व बैंक की घोषणा पर उद्योग तथा व्यापारिक संगठनों ने जिस तरह निराशाजनक प्रतिक्रिया की है, वैसा हमारी उदारीकृत, पूंजीवाद.उन्मुख, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के दौर में अरसे बाद देखने को मिला है। कारण, क्या उद्योगपति, क्या सेवा प्रदाता, क्या व्यापारी, क्या जमीन.जायदाद कारोबारी, क्या वाहन कंपनियां, क्या उपभोक्ता सामग्री निर्माता और क्या उन सबका उपभोक्ता॰॰॰ रिजर्व बैंक के पिछले फैसले पहले ही सबकी कमर तोड़ चुके हैं। निराशा की यह देशव्यापी धारणा सरकार से पूरी तरह छिपी नहीं रह सकती। मौद्रिक समीक्षा से ठीक पहले वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी का यह कथन कि शायद अब और ब्याज दरें बढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ेगी तथा हम मुद्रास्फीति को दूसरे तरीकों से काबू करने की कोशिश करेंगे, उसकी ओर इशारा करता है। लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कह दिया कि भई अंतिम फैसला तो रिजर्व बैंक को ही करना है। सरकार बड़ी सफाई से दोष रिजर्व बैंक के सिर मढ़कर बच निकलती है। लेकिन क्या रिजर्व बैंक ये सभी कदम एकतरफा तौर पर उठा रहा है?
यह करें तो उलझन, वह करें तो समस्या
सरकार की उलझनें समझ में आती हैं। रिजर्व बैंक हर बार ब्याज दर बढ़ाने की घोषणा करते हुए इन चिंताओं को दोहराता भी है। उसकी सबसे बड़ी चिंता है मुद्रास्फीति। यह महज एक आर्थिक समस्या ही नहीं है, राजनैतिक और सामाजिक भी है। महंगाई के कारण लोगों में धीरे.धीरे सरकार विरोधी भावना पैदा हो रही है। समस्या यह है कि महंगाई रोकने के लिए मौद्रिक कदम उठाए जाएं तो आवासीय तथा वाहन ऋण लेने वाले लोग, कारोबारी तथा उद्यमी उबल पड़ते हैं और ब्याज दरें स्थिर रखी जाएं या घटा दी जाएं तो महंगाई सिर उठाने लगती है जिससे आम आदमी का गुस्सा आसमान छूने लगता है। विपक्ष की भारी आलोचना और जन आक्रोश के बावजूद अगर सरकार ब्याज दरें बढ़ाती जा रही है तो इसलिए कि वह महंगाई के भूत को किसी भी तरह काबू कर लेना चाहती है। यहां तक कि राजनैतिक जोखिम उठाकर भी। मगर यह भूत है कि काबू में आता ही नहीं। मुद्रास्फीति से सरकार कितनी भयभीत है, यह उसकी इस नीति से स्पष्ट है कि अगर रिजर्व बैंक के कदमों से आर्थिक विकास (जीडीपी) की वृद्धि दर थोड़ी.बहुत घटती भी है तो देखा जाएगा लेकिन सबसे पहले महंगाई पर लगाम लगाना जरूरी है। इसे सरकार का दुभ्राग्य कहें या फिर 'अल्पदृष्टि' पर आधारित उपायों की सीमा, कि एक के बाद एक कठोर कदम उठाने के बावजूद मुद्रास्फीति नौ फीसदी के आसपास बरकरार है। वह खतरे के निशान से नीचे आने का नाम नहीं ले रही। दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था में धीमापन आना शुरू हो गया है।
ऐसे में रिजर्व बैंक, वित्त मंत्रालय, और कारोबार, सेवा, उद्योग, परिवहन, आयात.नियरत, वाणिज्य, कर, पेट्रोलियम आदि का जिम्मा संभालने वाले दूसरे मंत्रालय और विभाग वैकल्पिक रास्तों की तलाश में क्यों नहीं जुटते? डेढ़ साल से अर्थव्यवस्था को बढ़ी ब्याज दरों का इन्जेक्शन लगाने के बावजूद यदि बीमार की हालत ठीक नहीं हो रही तो शायद उसे होम्योपैथी या आयुवेर्द की जरूरत हो? क्या 'ब्याज दर' कोई संजीवनी बूटी है जिसके अतिरिक्त और कोई उपाय किया ही नहीं जा सकता? ऐसा नहीं है। महंगाई को प्रभावित करने वाले पहलू और भी हैं, जिन पर या तो सरकार का ध्यान जाता नहीं या फिर उसके पास इन्हें अनुशासित करने की इच्छाशक्ति नहीं है।
विकल्पों को भी देखिए
मुद्रास्फीति की समस्या को सिर्फ रिजर्व बैंक के हवाले कर देने की बजाए अगर उसमें केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों की भी भूमिका हो तो विकल्प और भी कई निकल सकते हैं। आवासीय क्षेत्र में मांग घटानी है तो परियोजनाओं की संख्या सीमित की जा सकती है। दैनिक उपयोग की चीजों की कीमतें बढ़ने के पीछे काफी हद तक पेट्रोलियम पदाथर्ों की बढ़ी हुई कीमतें जिम्मेदार हैं। अगर सरकार कुछ और समय तक पेट्रोलियम क्षेत्र में सब्सिडी के संदभ्र में नरमी बरतती रहे तो महंगाई प्रभावित हो सकती है। लेकिन सरकार ने तो ब्याज दरों के साथ.साथ पेट्रोलियम पदाथर्ों की कीमतें भी बढ़ाई हैं। उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार से जोड़ने की नीतिगत मजबूरी समझ में आती है, पेट्रोलियम सप्लाई कंपनियों को होने वाले घाटे संबंधी चिंताएं भी जायज हैं, लेकिन अगर महंगाई पर काबू पाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है तो पेट्रोलियम के भावों और सब्सिडी के मुद्दे पर 'गो स्लो' की नीति अपनाई जा सकती है। मजबूरी में ही सही। अस्थायी रूप से ही सही।
भारत में यकायक पैदा हुई महंगाई को कई अर्थशास्त्री वायदा कारोबार के प्रतिफल के रूप में भी देखते हैं। गेहूं, चावल, दालों आदि के वायदा भावों में तेजी राष्ट्रीय स्तर पर इन पदाथर्ों के भावों को प्रभावित करने लगी है। सोने.चांदी की भी यही स्थिति है। आप भले ही ब्याज दरें बढ़ाते रहिए, वायदा कारोबारी ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए जरूरी चीजों के भावों को बढ़ाने में लगे रहेंगे तो ब्याज दरें भला क्या करेंगी। वायदा कारोबार के प्रभावी नियमन की दिशा में कदम उठाए जाने चाहिए। बहुत जल्द, रिटेल बाजार में विदेशी कंपनियों का आगमन भी भावों को प्रभावित कर सकता है। आशंका है कि वे बड़े पैमाने पर सामग्री खरीदेंगी और बाजार में कृत्रिम तेजी पैदा करेंगी। बाजार का खुलना, नए क्षेत्रों में अवसरों का सामने आना, वैश्वीकरण आदि सब कुछ ठीक है, लेकिन सीमा के भीतर ही। भारत की प्रति व्यक्ति आय आज भी चालीस हजार रुपए के आसपास है। यह अमेरिका या यूरोप नहीं है, जहां ब्रांडिंग, पैकेजिंग, प्रचार और ग्लैमर भावों से ज्यादा महत्वपूण्र हो जाते हैं। हमसे चालीस गुना प्रति व्यक्ति आय से लैस वहां का उपभोक्ता बढ़ी.चढ़ी कीमतों का असर झेल सकता है, इसलिए वहां ये फार्मूले चल सकते हैं, यहां नहीं।
देश में सब्जियों, फलों आदि की सप्लाई.चेन व्यवस्था को बेहतर बनाए जाने की जरूरत है। देश के एक हिस्से में कोई खास अनाज, फल या सब्जी बहुत सस्ती होती है और दूसरे हिस्से में बहुत महंगी। समस्या त्वरित परिवहन और भंडारण से जुड़ी हो सकती है। जमाखोरी और कालाबाजारी महंगाई को बढ़ाने वाले पारंपरिक कारक हैं। इमरजेंसी के दौरान महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए इन्हें खास तौर पर निशाना बनाया गया था और इसके नतीजे भी निकले थे। ऐसा फिर क्यों नहीं किया जा सकता? भारत में सावर्जनिक वितरण प्रणाली एक तरह का वरदान है। गांव.गांव में फैला हुए इसके नेटवर्क को मजबूत, परिणामोन्मुख और भ्रष्टाचार.कालाबाजारी से मुक्त बनाया जा सके तो क्या कुछ नहीं हो सकता। लेकिन यह सब रिजर्व बैंक के उठाए पारंपरिक कदमों से नहीं होने वाला। कमान केंद्र सरकार को ही संभालनी होगी।
Saturday, September 10, 2011
आडवाणी वही कर रहे हैं जो विपक्ष को करना चाहिए
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संसद में हंगामा करने और कुछेक प्रदर्शनों के अलावा भाजपा जमीनी स्तर पर बड़ी राष्ट्रीय मुहिम छेड़ने में कामयाब नहीं रही है। श्री आडवाणी की रथयात्रा उस खोए हुए मौके को वापस लाने का एक बेताब प्रयास मानी जा सकती है, बशतेर् इसे एक व्यक्तिगत यात्रा के रूप में नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी की यात्रा के रूप में पेश किया जाए।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा संबंधी घोषणा को लेकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भले ही भारतीय जनता पार्टी के अंदरूनी समीकरणों के लिहाज से उनकी यात्रा का समय अनुकूल प्रतीत न हो, विपक्ष के लिहाज से देखा जाए तो उन्होंने सही समय पर सही फैसला किया है। पिछले एक साल से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी और दूसरे विपक्षी दल संसद के भीतर.बाहर सरकार पर दबाव बनाने में जुटे हुए हैं। संसद के पिछले दो सत्र भारी हंगामे की भेंट चढ़े, विधायी कायर् का भारी नुकसान हुआ, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनावों में करीब.करीब किनारे कर दिया गया विपक्ष कुछ हद तक अपने अस्तित्व का अहसास कराने में सफल रहा। सरकार पर तब से शुरू हुआ दबाव अभी बरकरार है, खासकर 2जी कांड की जांच में सुप्रीम कोर्ट की पहल और फिर अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव द्वारा चलाए गए आंदोलनों की बदौलत। लोकतंत्र में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका सरकार पर दबाव बनाए रखने और उसे सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर करते रहने की ही होती है। इसके अपने राजनैतिक लाभ भी हैं, खासकर तब जब कुछ प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हों। स्वाभाविक ही है कि केंद्र और अनेक राज्यों में कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी के रूप में भारतीय जनता पार्टी मौजूदा हालात का ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाना चाहेगी। श्री आडवाणी की रथ यात्रा उस लिहाज से बहुत अस्वाभाविक नहीं है।
हालांकि यह रथ यात्रा सिर्फ सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के लिए ही समस्याएं पैदा नहीं करेगी। प्रभावित होने वाले पक्ष और भी हैं और उनका नजरिया भी असाानी से समझा जा सकता है। जन लोकपाल विधेयक, 2जी घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और काले धन के मुद्दों पर रक्षात्मक स्थिति में आई केंद्र सरकार को फिलहाल किसी तरह की राहत नहीं मिलने वाली। श्री आडवाणी की यात्रा उसके विरुद्ध लोगों की भावनाओं को और प्रबल बनाएगी। लेकिन इस यात्रा से सबसे ज्यादा चिंता खुद भारतीय जनता पार्टी के भीतर हो रही है जिसने अपने इस वरिष्ठ नेता को करीब.करीब चुका हुआ ही मान लिया था। अपने नेतृत्व में पिछले आम चुनाव में हुई भारी पराजय और उससे पहल भारत.अमेरिका परमाणु संधि के मुद्दे पर संसद में हुए अविश्वास प्रस्ताव में मनमोहन सरकार की जीत ने श्री आडवाणी को राजनैतिक रूप से काफी कमजोर बना दिया था। लेकिन लगभग छह दशक के राजनैतिक अनुभव वाले व्यक्ति को, और वह भी ऐसा व्यक्ति जिसने भारतीय जनता पार्टी को केंद्र में सत्तारूढ़ करने में संभवत: सबसे अहम योगदान दिया, आप आसानी से खारिज नहीं मान सकते। अनुभव का अपना महत्व है और सिर्फ इस आधार पर किसी अनुभवी राजनीतिज्ञ को किनारे नहीं किया जा सकता कि आज की राजनीति में युवाओं को आगे लाए जाने की जरूरत है। युवाओं को आगे लाते हुए भी बुजुर्ग राजनीतिज्ञों को पार्टी की अगली कतार में रखा जा सकता है, यदि उनमें राजनैतिक क्षमताएं बाकी हैं।
श्री आडवाणी के बारे में ऐसा कोई नहीं कहेगा कि वे सक्रिय नहीं रहे। न सिर्फ वे स्वास्थ्य के मामले में पूरी तरह फिट हैं बल्कि आज भी भाजपा के रणनीतिक फैसलों में असरदार भूमिका निभा रहे हैं। आज भी पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं है जो राष्ट्रीय स्तर पर उनके जितनी स्वीकायर्ता, लोकिप्रयता और सांगठनिक पृष्ठभूमि रखता हो। नरेंद्र मोदी बहुत लोकिप्रय मुख्यमंत्री और भाजपा नेता हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी स्वीकायर्ता असंदिग्ध नहीं है। गुजरात के दंगों संबंधी आरोपों की पृष्ठभूमि और राज्य में भ्रष्टाचार संबंधी आरोप उन्हें परेशान करेंगे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सवर्मान्य नेता बनने के लिहाज से उन्हें अभी काफी सफर तय करना है।
स्वीकायर्ता का सवाल
अगर प्रधानमंत्री पद के लिए स्वीकायर्ता का सवाल आता है तो भाजपा के मौजूदा युवा नेतृत्व में भी ऐसा कोई सवर्मान्य नेता दिखाई नहीं देता। पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी महाराष्ट्र में भले ही लोकप्रिय हों, उनकी बहुत बड़ी राष्ट्रीय पहचान और राष्ट्रीय राजनीति में विशेष पृष्ठभूमि नहीं है। अरुण जेटली राजनैतिक रणनीतियों के माहिर, प्रबल वक्ता और अच्छी छवि के काबिल राजनेता हैं लेकिन जनाधार का न होना उनकी कमजोरी है। सुषमा स्वराज अच्छी वक्ता और प्रबल छवि की स्वामी अवश्य हैं लेकिन राष्ट्रीय जनाधार के मामले में वे श्री आडवाणी से होड़ नहीं ले सकतीं। वे पारंपरिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हुई नहीं रही हैं और दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने कोई विशेष छाप नहीं छोड़ी थी। लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में भी वे मुखर भले ही हों, वजनदार नहीं दिखतीं। राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष पद पर रहते हुए काफी सक्रिय थे लेकिन पद से हटने के बाद वे उत्तर प्रदेश तक सीमित रह गए हैं। नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रबल समर्थन है और बताया जाता है कि पिछले दिनों संघ की शीर्ष बैठक में उन्हें अगले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किए जाने का फैसला हो चुका है। लेकिन गठबंधन राजनीति के जमाने में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अन्य दलों की स्वीकायर्ता जरूरी है। राजग के कई दल, खासकर उसका सबसे प्रमुख सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर मोदी के साथ आने को तैयार नहीं है। हालांकि फिलहाल श्री आडवाणी की यात्रा के प्रति पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी का समर्थन होने की बात कही जा रही है तथा दूसरे युवा नेताओं ने भी खुले आम इस पर कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी है लेकिन यह देखने की बात है कि यात्रा के सफल होने की स्थिति में जब राष्ट्रीय नेतृत्व में स्वाभाविक हलचल होगी, क्या तब भी वे अपने इस वयोवृद्ध नेता के प्रति 'सम्मानजनक मौन' धारण किए रहेंगे।
श्री आडवाणी की रथयात्रा 'सिविल सोसायटी' के उन नेताओं को भी नागवार गुजरेगी जो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपार राष्ट्रीय समर्थन जुटाने में कामयाब रहे हैं। अन्ना हजारे इस मुद्दे पर राष्ट्रीय लड़ाई के प्रतीक बनकर उभरे हैं और भले ही उनके आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का परोक्ष समर्थन रहा हो, सिविल सोसायटी के नेता यह नहीं चाहेंगे कि कोई राजनैतिक दल या नेता उनके आंदोलन की उपजाऊ जमीन पर अपनी फसल उगा ले। समर्थन लेना अलग बात है और अपना आधार ही थमा देना अलग। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लालकृष्ण आडवाणी को अपनी यात्रा के दौरान अन्ना हजारे समर्थकों की नाराजगी का सामना करना पड़े। यह आरोप तो लगने ही लगा है कि वे भ्रष्टाचार विरोधी स्वत:स्फूर्त राष्ट्रीय आंदोलन को अपने तथा अपने दल की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए 'हाईजैक' करने की कोशिश कर रहे हैं।
अति-महत्वाकांक्षा या जरूरी पहल?
प्रश्न उठता है कि क्या प्रमुख विपक्षी दल के रूप में भाजपा को मौजूदा हालात के अनुरूप कदम नहीं उठाना चाहिए? जब पार्टी के स्तर पर कोई बड़ी पहल नहीं हो रही है तो एक अनुभवी नेता जो आप मानें या न मानें पर पार्टी समर्थकों के बीच एक राष्ट्रीय आइकन और संरक्षक के रूप में देखा जाता रहा है, अपने स्तर पर ऐसी पहल करना चाहता है। इसमें गलत क्या है? क्या यह सच नहीं है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संसद में हंगामा करने और कुछेक प्रदर्शनों के अलावा भाजपा जमीनी स्तर पर बड़ी राष्ट्रीय मुहिम छेड़ने में कामयाब नहीं रही है? क्या यह धारणा आम नहीं है कि अन्ना हजारे इस समय वह काम कर रहे हैं जो स्वाभाविक रूप से विपक्षी दलों को करना चाहिए था? भाजपा ने अन्ना हजारे के आंदोलन को समर्थन देकर रणनीतिक रूप से एक अच्छा कदम उठाया लेकिन वह और भी बहुत कुछ कर सकती थी, जैसे कि लोकपाल के मुद्दे पर अपने अलग विधेयक का मसौदा पेश करना। सरकार के विधेयक के विकल्प के रूप में यदि पार्टी ने एक दमदार विधेयक का प्रारूप तैयार किया होता तो वह एक परिपक्व और प्रभावी कदम होता। लेकिन हालत यह थी कि अंतिम समय तक पार्टी जन लोकपाल और सरकारी लोकपाल विधयेक के ज्यादातर प्रावधानों पर अपना रुख ही तय नहीं कर पाई थी। उसके नेताओं के बयानों में भी विरोधाभास झलकता था और इसी संदभ्र में यशवंत सिन्हा तथा शत्रुघ्न सिन्हा ने इस्तीफे तक की धमकियां दी थीं। श्री आडवाणी की रथयात्रा उस खोए हुए मौके को वापस लाने का एक बेताब प्रयास भी मानी जा सकती है, बशतेर् इसे एक व्यक्तिगत यात्रा के रूप में नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी की यात्रा के रूप में पेश किया जाए और पार्टी के सभी प्रमुख नेता इसमें सक्रिय रूप से हिस्सा लें।
पिछले दिनों आए एक टेलीविजन चैनल के जनमत सवेर्क्षण में साफ हुआ था कि भ्रष्टाचार विरोधी माहौल ने भाजपा की खासी मदद की है और कांग्रेस की तुलना में जनमत उसकी तरफ मुड़ रहा है। कांग्रेस के पक्ष में बीस प्रतिशत तो भाजपा के पक्ष में 32 प्रतिशत प्रतिभागियों ने अपना समर्थन जाहिर किया। अलबत्ता आप कांग्रेस को यूं ही खारिज नहीं कर सकते क्योंकि गांवों में विकास और रोजगार के कायर्क्रमों के जरिए उसने अपने समर्थकों का आधार काफी बढ़ाया है। ये वे लोग हैं जो किसी भी टेलीविजन चैनल के सवेर्क्षणों में हिस्सा नहीं लेते लेकिन देश की राजनीतिक तसवीर यही तय करते हैं। जागरूक मतदाताओं के बीच हालांकि कांग्रेस विरोधी रुझान साफ नजर आ रहा है। लेकिन भारत में जनता का रुख बदलते देर नहीं लगती और अगले लोकसभा चुनाव अभी तीन साल दूर हैं। विपक्षी दलों के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि वे मौजूदा माहौल का असर तीन साल तक कायम रखें। यह कोई आसान चुनौती नहीं है और उस लिहाज से भी श्री आडवाणी की यात्रा अहम भूमिका निभा सकती है।
भले ही बहुत से लोग श्री आडवाणी को भाजपा के नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति से अलग हो जाने की सलाह दे रहे हों लेकिन कभी 'लौह पुरुष' कहा जाने वाला यह सक्रिय राजनैतिक दिग्गज इतनी आसानी से मैदान छोड़ने वाला नहीं है। पिछले चुनाव से पहले हमने उनकी सक्रियता देखी थी। भले ही नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं गए हों लेकिन श्री आडवाणी ने अपनी तरफ से तैयारियों, रणनीतियों और चुनाव अभियान में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। अब वे फिर अपनी भूमिका को केंद्र में लाने का प्रयास कर रहे हैं जो कोई भी महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ करेगा। लोकसभा में उनका यह कहना कि अगर 'वोट के बदले धन' वाले मुद्दे में आरोप लगाने वाले सांसदों को जेल भेजा जा रहा है तो उन्हें भी जेल भेजा जाना चाहिए क्योंकि इस बारे में स्टिंग आपरेशन उनकी सहमति से हुआ था। उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार पर भाजपा के साथ भेदभाव का परोक्ष आरोप लगाते हुए उनकी चाय पार्टी से अलग रहने का फैसला भी किया और अब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर रथ यात्रा की घोषणा कर सुर्खियों में लौट आए है। माना कि भाजपा के युवा नेताओं की आशाओं पर इससे तुषारापात होगा लेकिन 'फेयर प्ले' में सबको खेलने का मौका मिलता है। अब वे शून्य पर आउट होते हैं या शतक बनाते हैं, यह उनकी काबिलियत पर निभ्रर करेगा।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा संबंधी घोषणा को लेकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भले ही भारतीय जनता पार्टी के अंदरूनी समीकरणों के लिहाज से उनकी यात्रा का समय अनुकूल प्रतीत न हो, विपक्ष के लिहाज से देखा जाए तो उन्होंने सही समय पर सही फैसला किया है। पिछले एक साल से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी और दूसरे विपक्षी दल संसद के भीतर.बाहर सरकार पर दबाव बनाने में जुटे हुए हैं। संसद के पिछले दो सत्र भारी हंगामे की भेंट चढ़े, विधायी कायर् का भारी नुकसान हुआ, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनावों में करीब.करीब किनारे कर दिया गया विपक्ष कुछ हद तक अपने अस्तित्व का अहसास कराने में सफल रहा। सरकार पर तब से शुरू हुआ दबाव अभी बरकरार है, खासकर 2जी कांड की जांच में सुप्रीम कोर्ट की पहल और फिर अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव द्वारा चलाए गए आंदोलनों की बदौलत। लोकतंत्र में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका सरकार पर दबाव बनाए रखने और उसे सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर करते रहने की ही होती है। इसके अपने राजनैतिक लाभ भी हैं, खासकर तब जब कुछ प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हों। स्वाभाविक ही है कि केंद्र और अनेक राज्यों में कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी के रूप में भारतीय जनता पार्टी मौजूदा हालात का ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाना चाहेगी। श्री आडवाणी की रथ यात्रा उस लिहाज से बहुत अस्वाभाविक नहीं है।
हालांकि यह रथ यात्रा सिर्फ सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के लिए ही समस्याएं पैदा नहीं करेगी। प्रभावित होने वाले पक्ष और भी हैं और उनका नजरिया भी असाानी से समझा जा सकता है। जन लोकपाल विधेयक, 2जी घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और काले धन के मुद्दों पर रक्षात्मक स्थिति में आई केंद्र सरकार को फिलहाल किसी तरह की राहत नहीं मिलने वाली। श्री आडवाणी की यात्रा उसके विरुद्ध लोगों की भावनाओं को और प्रबल बनाएगी। लेकिन इस यात्रा से सबसे ज्यादा चिंता खुद भारतीय जनता पार्टी के भीतर हो रही है जिसने अपने इस वरिष्ठ नेता को करीब.करीब चुका हुआ ही मान लिया था। अपने नेतृत्व में पिछले आम चुनाव में हुई भारी पराजय और उससे पहल भारत.अमेरिका परमाणु संधि के मुद्दे पर संसद में हुए अविश्वास प्रस्ताव में मनमोहन सरकार की जीत ने श्री आडवाणी को राजनैतिक रूप से काफी कमजोर बना दिया था। लेकिन लगभग छह दशक के राजनैतिक अनुभव वाले व्यक्ति को, और वह भी ऐसा व्यक्ति जिसने भारतीय जनता पार्टी को केंद्र में सत्तारूढ़ करने में संभवत: सबसे अहम योगदान दिया, आप आसानी से खारिज नहीं मान सकते। अनुभव का अपना महत्व है और सिर्फ इस आधार पर किसी अनुभवी राजनीतिज्ञ को किनारे नहीं किया जा सकता कि आज की राजनीति में युवाओं को आगे लाए जाने की जरूरत है। युवाओं को आगे लाते हुए भी बुजुर्ग राजनीतिज्ञों को पार्टी की अगली कतार में रखा जा सकता है, यदि उनमें राजनैतिक क्षमताएं बाकी हैं।
श्री आडवाणी के बारे में ऐसा कोई नहीं कहेगा कि वे सक्रिय नहीं रहे। न सिर्फ वे स्वास्थ्य के मामले में पूरी तरह फिट हैं बल्कि आज भी भाजपा के रणनीतिक फैसलों में असरदार भूमिका निभा रहे हैं। आज भी पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं है जो राष्ट्रीय स्तर पर उनके जितनी स्वीकायर्ता, लोकिप्रयता और सांगठनिक पृष्ठभूमि रखता हो। नरेंद्र मोदी बहुत लोकिप्रय मुख्यमंत्री और भाजपा नेता हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी स्वीकायर्ता असंदिग्ध नहीं है। गुजरात के दंगों संबंधी आरोपों की पृष्ठभूमि और राज्य में भ्रष्टाचार संबंधी आरोप उन्हें परेशान करेंगे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सवर्मान्य नेता बनने के लिहाज से उन्हें अभी काफी सफर तय करना है।
स्वीकायर्ता का सवाल
अगर प्रधानमंत्री पद के लिए स्वीकायर्ता का सवाल आता है तो भाजपा के मौजूदा युवा नेतृत्व में भी ऐसा कोई सवर्मान्य नेता दिखाई नहीं देता। पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी महाराष्ट्र में भले ही लोकप्रिय हों, उनकी बहुत बड़ी राष्ट्रीय पहचान और राष्ट्रीय राजनीति में विशेष पृष्ठभूमि नहीं है। अरुण जेटली राजनैतिक रणनीतियों के माहिर, प्रबल वक्ता और अच्छी छवि के काबिल राजनेता हैं लेकिन जनाधार का न होना उनकी कमजोरी है। सुषमा स्वराज अच्छी वक्ता और प्रबल छवि की स्वामी अवश्य हैं लेकिन राष्ट्रीय जनाधार के मामले में वे श्री आडवाणी से होड़ नहीं ले सकतीं। वे पारंपरिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हुई नहीं रही हैं और दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने कोई विशेष छाप नहीं छोड़ी थी। लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में भी वे मुखर भले ही हों, वजनदार नहीं दिखतीं। राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष पद पर रहते हुए काफी सक्रिय थे लेकिन पद से हटने के बाद वे उत्तर प्रदेश तक सीमित रह गए हैं। नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रबल समर्थन है और बताया जाता है कि पिछले दिनों संघ की शीर्ष बैठक में उन्हें अगले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किए जाने का फैसला हो चुका है। लेकिन गठबंधन राजनीति के जमाने में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अन्य दलों की स्वीकायर्ता जरूरी है। राजग के कई दल, खासकर उसका सबसे प्रमुख सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर मोदी के साथ आने को तैयार नहीं है। हालांकि फिलहाल श्री आडवाणी की यात्रा के प्रति पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी का समर्थन होने की बात कही जा रही है तथा दूसरे युवा नेताओं ने भी खुले आम इस पर कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी है लेकिन यह देखने की बात है कि यात्रा के सफल होने की स्थिति में जब राष्ट्रीय नेतृत्व में स्वाभाविक हलचल होगी, क्या तब भी वे अपने इस वयोवृद्ध नेता के प्रति 'सम्मानजनक मौन' धारण किए रहेंगे।
श्री आडवाणी की रथयात्रा 'सिविल सोसायटी' के उन नेताओं को भी नागवार गुजरेगी जो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपार राष्ट्रीय समर्थन जुटाने में कामयाब रहे हैं। अन्ना हजारे इस मुद्दे पर राष्ट्रीय लड़ाई के प्रतीक बनकर उभरे हैं और भले ही उनके आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का परोक्ष समर्थन रहा हो, सिविल सोसायटी के नेता यह नहीं चाहेंगे कि कोई राजनैतिक दल या नेता उनके आंदोलन की उपजाऊ जमीन पर अपनी फसल उगा ले। समर्थन लेना अलग बात है और अपना आधार ही थमा देना अलग। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लालकृष्ण आडवाणी को अपनी यात्रा के दौरान अन्ना हजारे समर्थकों की नाराजगी का सामना करना पड़े। यह आरोप तो लगने ही लगा है कि वे भ्रष्टाचार विरोधी स्वत:स्फूर्त राष्ट्रीय आंदोलन को अपने तथा अपने दल की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए 'हाईजैक' करने की कोशिश कर रहे हैं।
अति-महत्वाकांक्षा या जरूरी पहल?
प्रश्न उठता है कि क्या प्रमुख विपक्षी दल के रूप में भाजपा को मौजूदा हालात के अनुरूप कदम नहीं उठाना चाहिए? जब पार्टी के स्तर पर कोई बड़ी पहल नहीं हो रही है तो एक अनुभवी नेता जो आप मानें या न मानें पर पार्टी समर्थकों के बीच एक राष्ट्रीय आइकन और संरक्षक के रूप में देखा जाता रहा है, अपने स्तर पर ऐसी पहल करना चाहता है। इसमें गलत क्या है? क्या यह सच नहीं है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संसद में हंगामा करने और कुछेक प्रदर्शनों के अलावा भाजपा जमीनी स्तर पर बड़ी राष्ट्रीय मुहिम छेड़ने में कामयाब नहीं रही है? क्या यह धारणा आम नहीं है कि अन्ना हजारे इस समय वह काम कर रहे हैं जो स्वाभाविक रूप से विपक्षी दलों को करना चाहिए था? भाजपा ने अन्ना हजारे के आंदोलन को समर्थन देकर रणनीतिक रूप से एक अच्छा कदम उठाया लेकिन वह और भी बहुत कुछ कर सकती थी, जैसे कि लोकपाल के मुद्दे पर अपने अलग विधेयक का मसौदा पेश करना। सरकार के विधेयक के विकल्प के रूप में यदि पार्टी ने एक दमदार विधेयक का प्रारूप तैयार किया होता तो वह एक परिपक्व और प्रभावी कदम होता। लेकिन हालत यह थी कि अंतिम समय तक पार्टी जन लोकपाल और सरकारी लोकपाल विधयेक के ज्यादातर प्रावधानों पर अपना रुख ही तय नहीं कर पाई थी। उसके नेताओं के बयानों में भी विरोधाभास झलकता था और इसी संदभ्र में यशवंत सिन्हा तथा शत्रुघ्न सिन्हा ने इस्तीफे तक की धमकियां दी थीं। श्री आडवाणी की रथयात्रा उस खोए हुए मौके को वापस लाने का एक बेताब प्रयास भी मानी जा सकती है, बशतेर् इसे एक व्यक्तिगत यात्रा के रूप में नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी की यात्रा के रूप में पेश किया जाए और पार्टी के सभी प्रमुख नेता इसमें सक्रिय रूप से हिस्सा लें।
पिछले दिनों आए एक टेलीविजन चैनल के जनमत सवेर्क्षण में साफ हुआ था कि भ्रष्टाचार विरोधी माहौल ने भाजपा की खासी मदद की है और कांग्रेस की तुलना में जनमत उसकी तरफ मुड़ रहा है। कांग्रेस के पक्ष में बीस प्रतिशत तो भाजपा के पक्ष में 32 प्रतिशत प्रतिभागियों ने अपना समर्थन जाहिर किया। अलबत्ता आप कांग्रेस को यूं ही खारिज नहीं कर सकते क्योंकि गांवों में विकास और रोजगार के कायर्क्रमों के जरिए उसने अपने समर्थकों का आधार काफी बढ़ाया है। ये वे लोग हैं जो किसी भी टेलीविजन चैनल के सवेर्क्षणों में हिस्सा नहीं लेते लेकिन देश की राजनीतिक तसवीर यही तय करते हैं। जागरूक मतदाताओं के बीच हालांकि कांग्रेस विरोधी रुझान साफ नजर आ रहा है। लेकिन भारत में जनता का रुख बदलते देर नहीं लगती और अगले लोकसभा चुनाव अभी तीन साल दूर हैं। विपक्षी दलों के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि वे मौजूदा माहौल का असर तीन साल तक कायम रखें। यह कोई आसान चुनौती नहीं है और उस लिहाज से भी श्री आडवाणी की यात्रा अहम भूमिका निभा सकती है।
भले ही बहुत से लोग श्री आडवाणी को भाजपा के नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति से अलग हो जाने की सलाह दे रहे हों लेकिन कभी 'लौह पुरुष' कहा जाने वाला यह सक्रिय राजनैतिक दिग्गज इतनी आसानी से मैदान छोड़ने वाला नहीं है। पिछले चुनाव से पहले हमने उनकी सक्रियता देखी थी। भले ही नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं गए हों लेकिन श्री आडवाणी ने अपनी तरफ से तैयारियों, रणनीतियों और चुनाव अभियान में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। अब वे फिर अपनी भूमिका को केंद्र में लाने का प्रयास कर रहे हैं जो कोई भी महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ करेगा। लोकसभा में उनका यह कहना कि अगर 'वोट के बदले धन' वाले मुद्दे में आरोप लगाने वाले सांसदों को जेल भेजा जा रहा है तो उन्हें भी जेल भेजा जाना चाहिए क्योंकि इस बारे में स्टिंग आपरेशन उनकी सहमति से हुआ था। उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार पर भाजपा के साथ भेदभाव का परोक्ष आरोप लगाते हुए उनकी चाय पार्टी से अलग रहने का फैसला भी किया और अब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर रथ यात्रा की घोषणा कर सुर्खियों में लौट आए है। माना कि भाजपा के युवा नेताओं की आशाओं पर इससे तुषारापात होगा लेकिन 'फेयर प्ले' में सबको खेलने का मौका मिलता है। अब वे शून्य पर आउट होते हैं या शतक बनाते हैं, यह उनकी काबिलियत पर निभ्रर करेगा।
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