- बालेन्दु शर्मा दाधीच
बंगलुरु और सूरत कांडों की जांच ने दिखा दिया है कि धीरे-धीरे हम पूरे विश्व में अलकायदा के नेतृत्व द्वारा संचालित जेहादी आतंकवाद की मुख्यधारा में प्रवेश कर रहे हैं। आतंकवाद का यह अंतरराष्ट्रीय चेहरा कितना खतरनाक हो सकता है, इसे अमेरिका ने देखा और भोगा है। अगर वक्त रहते जरूरी कदम न उठाए गए तो हम भी उसी किस्म की परिणति को प्राप्त हो सकते हैं।
वाराणसी, फैजाबाद, लखनऊ, मालेगांव, हैदराबाद, जयपुर, बंगलुरु, अहमदाबाद और सूरत के घटित-अघटित आतंकवादी विस्फोटों के साथ अल कायदा का परोक्ष संबंध धीरे-धीरे साफ हो रहा है। अब तक हम आतंकवाद को राष्ट्रीय एवं स्थानीय नजरिए से देखते थे लेकिन विश्व के बदलते भू-राजनैतिक हालात के बीच भारत लक्षित आतंकवाद हर दिन पहले से कहीं ज्यादा व्यापक, ताकतवर, सुसंगठित और भयानक होता जा रहा है। भारत में आतंकवाद अब तक पंजाब, असम और कश्मीर की अनसुलझी स्थानीय समस्याओं से निर्देशित हो रहा था जिनकी कमान पाकिस्तान आधारित खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस के हाथों में थी। यह आतंकवाद कहीं-कहीं भारत में हुई सांप्रदायिक घटनाओं की प्रतिक्रिया में भी था जहां इसका संबंध दाऊद इब्राहीम जैसे माफिया तत्वों के साथ जुड़ा था। लेकिन कुल मिलाकर उसकी प्रकृति घरेलू ही थी। अगर कोई अंतरराष्ट्रीय कोण था भी तो वह पाकिस्तान तक सीमित था, या कुछ हद तक बांग्लादेश और चीन तक।
लेकिन बंगलुरु और सूरत कांडों में इंटेग्रेटेड सर्किट का इस्तेमाल होना और लगातार तीन दिनों में तीन शहरों को निशाना बनाए जाने की आतंकवादियों की क्षमता ने साफ कर दिया है कि देश में जारी आतंकवाद का नया दौर अलकायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय जेहादी आतंकवादी संगठन से जुड़ा हो सकता है। वहां कश्मीर या असम कोई मुद्दा नहीं है। वहां मुद्दा इस्लाम के प्रसार के प्रति एक अंधे जुनून का है। ऐसे जुनून का, जिसमें सभी गैर-मुस्लिमों को काफ़िर और उन्हें सजा देना `मजहबी दायित्व` समझा जाता है। धीरे-धीरे हम पूरे विश्व में अलकायदा के नेतृत्व द्वारा संचालित जेहादी आतंकवाद की मुख्यधारा में प्रवेश कर रहे हैं। आतंकवाद का यह अंतरराष्ट्रीय चेहरा कितना खतरनाक हो सकता है, इसे अमेरिका ने देखा और भोगा है। अगर वक्त रहते जरूरी कदम न उठाए गए तो हम भी उसी किस्म की परिणति को प्राप्त हो सकते हैं।
समय आ गया है जब आतंकवाद की चुनौती को भारत उतनी ही गंभीरता से ले जितना कि वह देश में जारी विकास और सुधार प्रक्रिया को ले रहा है और जिसके लिए हमारे देश के प्रधानमंत्री अपनी कुर्सी कुर्बान करने से भी नहीं झिझकते। आतंकवाद से राष्ट्रीय स्तर पर एकीकृत मुकाबला करने के लिए एक संघीय जांच एजेंसी की स्थापना तो जरूरी है ही, उससे भी ज्यादा जरूरी है इस प्रक्रिया में देश के हर राजनैतिक दल, हर धार्मिक नेता और हर नागरिक की भागीदारी। ठीक उसी तरह, जैसे आतंकवाद की समस्या से सर्वाधिक प्रभावित इजराइल में किया जाता है। ठीक उसी तरह, जैसे विश्व की सबसे बड़ी आतंकवादी त्रासदी को भोग चुका अमेरिका करता है। यह अनायास ही नहीं है कि ग्यारह सितंबर 2001 की आतंकवादी घटना में एकमुश्त करीब पांच हजार लोगों की जान गंवा देने के अविस्मरणीय कष्ट को हर पल जीने वाले अमेरिका ने दोबारा ऐसी वारदात के घटित होने की इजाजत नहीं दी। अमेरिका ने जिस राष्ट्रीय संकल्प, एकजुटता और गैर-लचीलेपन का परिचय दिया, वही आज `सब चलता है` कहकर चुनौतियों के सामने आंखें मूंद लेने वाले हमारे देश की भी जरूरत है।
अमेरिका ने नहीं होने दी पुनरावृत्ति
वल्र्ड ट्रेड सेंटर के हादसे के पहले तक अमेरिका में सुरक्षा व्यवस्था ढीली-ढाली थी लेकिन उसके बाद उस देश के चप्पे-चप्पे पर खुफिया एजेंसियों की निगाहें हैं। वहां सुरक्षा एजेंसियों को वे सभी जरूरी अधिकार प्राप्त हैं जिनकी उन्हें आतंकवाद जैसी समस्या के मुकाबले के लिए जरूरत है। फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन (एफबीआई) के रूप में एक संघीय जांच एजेंसी भी मौजूद है जिसे विश्व की सबसे चुस्त-दुरुस्त और काबिल एजेंसियों में गिना जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि अमेरिकी नागरिक आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पूरा सहयोग देते हैं। जगह-जगह होने वाली तलाशियां, पूछताछ, सतर्कता और सुरक्षा संबंधी चेतावनियां उन्हें व्यथित नहीं करतीं। वे इनका प्रतिरोध नहीं करते बल्कि सहयोग करते हैं क्योंकि उन्हें उस चुनौती का पूरा अहसास है जिससे उन्हें बचाने के लिए यह सब किया जा रहा है। जब कोई भारतीय अमेरिका, इजराइल या इंग्लैंड जाता है तो एक के बाद एक कड़ी परीक्षाओं से गुजरते हुए उसे महसूस होता है कि भारत में तो सतर्कता के नाम पर महज रस्म अदायगी की जाती है।
अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां अपनी गतिविधियों में किसी किस्म की कोताही नहीं बरततीं। भले ही उनके संदेह के दायरे में आया व्यक्ति कोई भी हो, कितनी भी बड़ी हस्ती हो, किसी भी बड़े व्यक्ति से जुड़ा हो और किसी भी प्रभावशाली व्यवसाय में सक्रिय हो। तभी तो जरूरत पड़ने पर उन्होंने हमारे पूर्व रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज तक को उन प्रक्रियाओं से गुजारा जिनसे किसी आम हवाई यात्री को गुजारा जाता है। इंग्लैंड में सलमान रुश्दी की सुरक्षा में तैनात ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों ने उनके बेटे जफर तक को उनसे मिलने की इजाजत नहीं दी थी। हाल ही में इजराइल गए हमारे दाढ़ी वाले लेखक और शिक्षाविद् ज्योतिर्मय शर्मा ने बताया कि किस तरह उन्हें इजराइल पहुंचने पर बार-बार यह सिद्ध करना पड़ा कि वे कोई आतंकवादी नहीं हैं और वहां एक सम्मेलन में हिस्सा लेने आए हैं। यह सब बहुत असुविधाजनक प्रतीत होता है और इस प्रक्रिया में मोहम्मद हनीफ जैसी गलतियां भी होती हैं। लेकिन जब चुनौती राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद से मुकाबले की हो तो इस तरह की कीमत, भले ही वह कितनी भी महंगी और अप्रिय हो, अदा करनी ही पड़ती है।
Thursday, July 31, 2008
Saturday, July 26, 2008
अबकी बार वाम दलों को भाई मायावती
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
पश्चिम बंगाल में निचले स्तर पर समानांतर सत्ता तंत्र चलाने वाले कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की चुनाव जिताऊ ताकत कमजोर हुई है और उसे आम आदमी से पहली बार प्रबल प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में वामपंथी दलों को किसी क्रांतिकारी किस्म के जिताऊ राजनैतिक समीकरण की बदहवासी के साथ तलाश है। लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि मायावती की राजनीति एक अलग ही स्तर पर चलती है।
पश्चिम बंगाल में राजनीति कायाकल्प की ओर बढ़ रही है। वामपंथी दलों को पहली बार इतनी गंभीरता से राज्य में बदलते जमीनी हालात की गर्मी का अहसास हुआ है और तीसरे मोर्चे में नई जान डालने की उनकी बेचैनी का सिर्फ दिल्ली के सत्ता-समीकरणों से ही संबंध नहीं है। तीन दशकों में पहली बार राज्य के स्थानीय निकाय चुनावों में सत्तारूढ़ वाम मोर्चा को इतनी बड़ी शिकस्तों का सामना करना पड़ा है। बचे-खुचे संकेत पिछले दिनों कोलकाता में हुई तृणमूल कांग्रेस की रैली में उमड़े जन समुदाय ने दे दिए। ऐसे समय में जबकि वामपंथी दल केंद्रीय राजनीति में भी अलग-थलग पड़ गए हैं और उसके दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस करीब आ रहे हैं कम्युनिस्ट पार्टियां एक बड़ी राजनैतिक चुनौती से दोचार हैं। इस असामान्य राजनैतिक परिस्थिति से निपटने के लिए माकपा को एक विशेष रणनीति की जरूरत पड़ेगी। प्रकाश करात और उनके साथियों की नजर में, मायावती और तीसरे मोर्चे को साथ लेकर एक प्रभावी चुनावी रणनीति की रचना की जा सकती है।
पिछले दिनों केंद्र सरकार के विश्वास मत से जुड़े घटनाक्रम में पश्चिम बंगाल की भावी राजनीति के संदर्भ में कई बातें साफ हुईं। जिस मायावती को वामदल जातिवादी राजनीति और भ्रष्टाचार के लिए कोसते थे, अब वे उनके लिए एक जरूरत हैं। उधर तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस के साथ आने से कोई परहेज नहीं है। कई दशकों के बाद उसे एक बड़ी चुनावी ताकत बनने का वास्तविक मौका मिला है। मगर उसका पूरा फायदा उठाने के लिए कांग्रेस को साथ लेना जरूरी है। राज्य में राजग की स्थिति में कोई नाटकीय सुधार नहीं आया है और कांग्रेस की स्थिति भी लगभग यथावत है। यह बात अलग है कि वह सोमनाथ चटर्जी प्रकरण का लाभ उठाकर वहां अपनी राजनैतिक स्थिति सुधारने का प्रयास करेगी। दूसरी तरफ नंदीग्राम और सिंगुर की घटनाओं के बाद सत्तारूढ़ मोर्चे को हुए राजनैतिक नुकसान का ममता बनर्जी को सीधा लाभ मिल रहा है और इसीलिए उन्हें नए समीकरणों की दरकार है। सुश्री बनर्जी ने विश्वास मत में हिस्सा न लेकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ बदलते संबंधों को स्पष्ट कर दिया। उन्होंने संप्रग के पक्ष में भी मतदान नहीं किया लेकिन लोकसभा में बहस के दौरान जिस तरह संप्रग के प्रमुख नेता लालू प्रसाद यादव ने ममता बनर्जी की रैली और उनके नेतृत्व की खुली तारीफ की उससे साफ हो जाता है कि दोनों पक्षों को अब एक दूसरे से एलर्जी नहीं रही।
वामपंथी दल इन हालात से निपटने के लिए अपने नए साथियों की पृष्ठभूमि और प्रभाव का लाभ उठाना चाहेंगे, खासकर मायावती की दलित पृष्ठभूमि का। हालांकि बहुजन समाज पार्टी की पश्चिम बंगाल में कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं है लेकिन जिस तरह से राष्ट्रीय राजनीति में मायावती का उभार हुआ है और उत्तर प्रदेश के पिछले चुनावों में साफ बहुमत हासिल कर वे अपने दम पर ऐसा कारनामा करने वाली पहली दलित नेता बनकर उभरी हैं उससे उन्होंने देश भर के दलित मतदाताओं के एक हिस्से में उम्मीद जगाई है। भले ही उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में यह मतदाता वर्ग अब भी बहुत छोटा हो, भले ही फिलहाल वह सुप्त अवस्था में ही क्यों न हो लेकिन वह है जरूर। और मायावती अगर खुद इस वर्ग का लाभ उठाने की स्थिति में न हों तब भी वे अपने स्थानीय साथियों को इसका स्थानांतरण करने की स्थिति में हैं। तृणमूल और कांग्रेस की उभरती चुनौती के संदर्भ में यह दो-तीन फीसदी मतदाता वर्ग वाम दलों के लिए डूबते में तिनके का सहारा सिद्ध हो सकता है।
वाम दलों के पास राज्य की जनता को प्रभावित करने के लिए और कोई विशेष उपलब्धि नहीं है। केंद्रीय राजनीति में उन्होंने एक सैद्धांतिक और अडिग स्टैंड लिया लेकिन उसे राजनैतिक अग्नि-परीक्षा में सफल नहीं बना सके। यदि वे जीतते तो शायद स्थिति इतनी विकट न होती। कई महीनों तक केंद्रीय राजनीति की बड़ी ताकत बने रहने के बाद और मजबूत होने की बजाए वे पहले से कमजोर और अप्रासंगिक हो गए हैं। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य भी पहले अपनी आर्थिक नीतियों से और फिर नंदीग्राम की हिंसा के दौरान दिए गए बयानों से अपनी लोकिप्रयता खो रहे हैं। राज्य में निचले स्तर पर समानांतर सत्ता तंत्र चलाने वाले कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की चुनाव जिताऊ ताकत कमजोर हुई है और उसे आम आदमी से पहली बार प्रबल प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में वामपंथी दलों को किसी क्रांतिकारी किस्म के जिताऊ राजनैतिक समीकरण की बदहवासी के साथ तलाश है। लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि मायावती की राजनीति एक अलग ही स्तर पर चलती है।
पश्चिम बंगाल में निचले स्तर पर समानांतर सत्ता तंत्र चलाने वाले कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की चुनाव जिताऊ ताकत कमजोर हुई है और उसे आम आदमी से पहली बार प्रबल प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में वामपंथी दलों को किसी क्रांतिकारी किस्म के जिताऊ राजनैतिक समीकरण की बदहवासी के साथ तलाश है। लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि मायावती की राजनीति एक अलग ही स्तर पर चलती है।
पश्चिम बंगाल में राजनीति कायाकल्प की ओर बढ़ रही है। वामपंथी दलों को पहली बार इतनी गंभीरता से राज्य में बदलते जमीनी हालात की गर्मी का अहसास हुआ है और तीसरे मोर्चे में नई जान डालने की उनकी बेचैनी का सिर्फ दिल्ली के सत्ता-समीकरणों से ही संबंध नहीं है। तीन दशकों में पहली बार राज्य के स्थानीय निकाय चुनावों में सत्तारूढ़ वाम मोर्चा को इतनी बड़ी शिकस्तों का सामना करना पड़ा है। बचे-खुचे संकेत पिछले दिनों कोलकाता में हुई तृणमूल कांग्रेस की रैली में उमड़े जन समुदाय ने दे दिए। ऐसे समय में जबकि वामपंथी दल केंद्रीय राजनीति में भी अलग-थलग पड़ गए हैं और उसके दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस करीब आ रहे हैं कम्युनिस्ट पार्टियां एक बड़ी राजनैतिक चुनौती से दोचार हैं। इस असामान्य राजनैतिक परिस्थिति से निपटने के लिए माकपा को एक विशेष रणनीति की जरूरत पड़ेगी। प्रकाश करात और उनके साथियों की नजर में, मायावती और तीसरे मोर्चे को साथ लेकर एक प्रभावी चुनावी रणनीति की रचना की जा सकती है।
पिछले दिनों केंद्र सरकार के विश्वास मत से जुड़े घटनाक्रम में पश्चिम बंगाल की भावी राजनीति के संदर्भ में कई बातें साफ हुईं। जिस मायावती को वामदल जातिवादी राजनीति और भ्रष्टाचार के लिए कोसते थे, अब वे उनके लिए एक जरूरत हैं। उधर तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस के साथ आने से कोई परहेज नहीं है। कई दशकों के बाद उसे एक बड़ी चुनावी ताकत बनने का वास्तविक मौका मिला है। मगर उसका पूरा फायदा उठाने के लिए कांग्रेस को साथ लेना जरूरी है। राज्य में राजग की स्थिति में कोई नाटकीय सुधार नहीं आया है और कांग्रेस की स्थिति भी लगभग यथावत है। यह बात अलग है कि वह सोमनाथ चटर्जी प्रकरण का लाभ उठाकर वहां अपनी राजनैतिक स्थिति सुधारने का प्रयास करेगी। दूसरी तरफ नंदीग्राम और सिंगुर की घटनाओं के बाद सत्तारूढ़ मोर्चे को हुए राजनैतिक नुकसान का ममता बनर्जी को सीधा लाभ मिल रहा है और इसीलिए उन्हें नए समीकरणों की दरकार है। सुश्री बनर्जी ने विश्वास मत में हिस्सा न लेकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ बदलते संबंधों को स्पष्ट कर दिया। उन्होंने संप्रग के पक्ष में भी मतदान नहीं किया लेकिन लोकसभा में बहस के दौरान जिस तरह संप्रग के प्रमुख नेता लालू प्रसाद यादव ने ममता बनर्जी की रैली और उनके नेतृत्व की खुली तारीफ की उससे साफ हो जाता है कि दोनों पक्षों को अब एक दूसरे से एलर्जी नहीं रही।
वामपंथी दल इन हालात से निपटने के लिए अपने नए साथियों की पृष्ठभूमि और प्रभाव का लाभ उठाना चाहेंगे, खासकर मायावती की दलित पृष्ठभूमि का। हालांकि बहुजन समाज पार्टी की पश्चिम बंगाल में कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं है लेकिन जिस तरह से राष्ट्रीय राजनीति में मायावती का उभार हुआ है और उत्तर प्रदेश के पिछले चुनावों में साफ बहुमत हासिल कर वे अपने दम पर ऐसा कारनामा करने वाली पहली दलित नेता बनकर उभरी हैं उससे उन्होंने देश भर के दलित मतदाताओं के एक हिस्से में उम्मीद जगाई है। भले ही उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में यह मतदाता वर्ग अब भी बहुत छोटा हो, भले ही फिलहाल वह सुप्त अवस्था में ही क्यों न हो लेकिन वह है जरूर। और मायावती अगर खुद इस वर्ग का लाभ उठाने की स्थिति में न हों तब भी वे अपने स्थानीय साथियों को इसका स्थानांतरण करने की स्थिति में हैं। तृणमूल और कांग्रेस की उभरती चुनौती के संदर्भ में यह दो-तीन फीसदी मतदाता वर्ग वाम दलों के लिए डूबते में तिनके का सहारा सिद्ध हो सकता है।
वाम दलों के पास राज्य की जनता को प्रभावित करने के लिए और कोई विशेष उपलब्धि नहीं है। केंद्रीय राजनीति में उन्होंने एक सैद्धांतिक और अडिग स्टैंड लिया लेकिन उसे राजनैतिक अग्नि-परीक्षा में सफल नहीं बना सके। यदि वे जीतते तो शायद स्थिति इतनी विकट न होती। कई महीनों तक केंद्रीय राजनीति की बड़ी ताकत बने रहने के बाद और मजबूत होने की बजाए वे पहले से कमजोर और अप्रासंगिक हो गए हैं। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य भी पहले अपनी आर्थिक नीतियों से और फिर नंदीग्राम की हिंसा के दौरान दिए गए बयानों से अपनी लोकिप्रयता खो रहे हैं। राज्य में निचले स्तर पर समानांतर सत्ता तंत्र चलाने वाले कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की चुनाव जिताऊ ताकत कमजोर हुई है और उसे आम आदमी से पहली बार प्रबल प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में वामपंथी दलों को किसी क्रांतिकारी किस्म के जिताऊ राजनैतिक समीकरण की बदहवासी के साथ तलाश है। लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि मायावती की राजनीति एक अलग ही स्तर पर चलती है।
Thursday, July 24, 2008
पैसा तो इस बीमारी का सिर्फ एक पहलू है
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
भाजपा के तीन सांसदों ने भ्रष्टाचार और प्रलोभन की महामारी का सिर्फ एक पहलू उजागर किया है। जिन सांसदों को स्टिंग आपरेशन में वेश्याओं के साथ दिखाया गया, क्या वे भ्रष्ट आचरण नहीं कर रहे थे और क्या उन्हें दिया गया प्रलोभन भ्रष्टाचार नहीं था? सांसदों को निजी तौर पर धन दिया जाना एक भ्रष्टाचार है तो पूरे के पूरे दलों को कई तरह के आर्थिक-राजनैतिक लाभ देकर अपने साथ मिलाना क्या प्रलोभन नहीं है? सांसदों से अकेले में किया जाने वाला सौदा अनैतिक है और उनके दलों के प्रमुखों से बात कर किया जाने वाला बड़ा सौदा, भले ही वह आर्थिक हो या राजनैतिक, राजनैतिक भ्रष्टाचार नहीं है?
जब से भारत में साझा सरकारें बनना रूटीन हो गया है, छोटे दलों में होना ज्यादा लाभदायक हो गया है। ऐसे दल किसी भी किस्म की वैचारिक प्रतिबद्धता से मुक्त हैं, किसी भी दिशा में जाने के लिए आज़ाद हैं। हमारी राजनीति में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जो किसी भी दल की सरकार आने पर उसका हिस्सा बन जाते हैं। उन्हें कभी नुकसान नहीं होता क्योंकि जिस बहुदलीय राजनीति में लोकसभाएं और विधानसभाएं त्रिशंकु बनकर सामने आती हैं उनमें किंग बनने की तुलना में किंगमेकर बनना ज्यादा मुनाफे का सौदा है। माना कि यह सब दुखद है, माना कि यह एक बड़ी विडंबना है, माना कि यह लोकतंत्र और जनता के साथ विश्वासघात है, लेकिन आज की राजनीति का यही सच है।
भाजपा के तीन सांसदों ने भ्रष्टाचार और प्रलोभन की महामारी का सिर्फ एक पहलू उजागर किया है। भ्रष्टाचार सिर्फ आर्थिक नहीं होता, वह किसी भी रूप में परिलक्षित हो सकता है। जिन सांसदों को स्टिंग आपरेशन में वेश्याओं के साथ दिखाया गया, क्या वे भ्रष्ट आचरण नहीं कर रहे थे और क्या उन्हें दिया गया प्रलोभन भ्रष्टाचार नहीं था? सांसदों को निजी तौर पर धन दिया जाना एक भ्रष्टाचार है तो पूरे के पूरे दलों को कई तरह के आर्थिक-राजनैतिक लाभ देकर अपने साथ मिलाना क्या प्रलोभन नहीं है? तीन-तीन, चार-चार सांसदों वाले छोटे दलों को सरकार में शामिल किए जाने का वादा कर साथ लिया जाना क्या राजनैतिक भ्रष्ट आचरण नहीं है? सांसदों से अकेले में किया जाने वाला सौदा अनैतिक है और उनके दलों के प्रमुखों से बात कर किया जाने वाला बड़ा सौदा, भले ही वह आर्थिक हो या राजनैतिक, राजनैतिक भ्रष्टाचार नहीं है? दूसरे दलों से सांसदों को अपने दल में मिलाकर भावी चुनावों के लिए टिकट दिए जाने का प्रलोभन राजनैतिक भ्रष्टाचार नहीं है? सांसदों को अगले चुनाव में टिकट न कटने का भरोसा देकर पक्का करना प्रलोभन नहीं है? क्या किसी अपराध में सजा भोग रहे या मुकदमे का सामना कर रहे जन प्रतिनिधि को `राहत देने` का वायदा या `परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने` की धमकी भ्रष्ट आचरण नहीं है?
भ्रष्टाचार, प्रलोभन, ब्लैकमेल आदि आज की राजनीति की कड़वी सच्चाइयां हैं जिनसे कोई दल मुक्त नहीं है। बाईस जुलाई को विश्वास मत पर हुई क्रासवोटिंग ने एक बार फिर दिखाया है कि बीमारी सर्वव्यापी है और लगातार बढ़ रही है। जहां केंद्र सरकार के पक्ष में 14 विपक्षी सांसदों ने वोट डाला वहीं सत्ता पक्ष से जुड़े दलों के सात सांसदों ने सरकार के खिलाफ मतदान किया। अगर सांसदों ने अपने-अपने दलों के निर्देशों के अनुसार मतदान किया होता तो सरकार के पक्ष में 261 और विपक्ष में 277 वोट पड़ने थे। लेकिन सांसदों की `अंतरात्माएं` जाग गईं और उन्होंने अपने-अपने हिसाब से मतदान किया। अब उनमें से कितने सांसद परमाणु सौदे के मौजूदा और भावी खतरों को समझते थे और कितने उसकी अच्छाइयों के कायल थे, कहा नहीं जा सकता।
परमाणु करार को लेकर वामपंथी दलों ने सरकार से समर्थन वापस लिया था और इसी मुद्दे पर आगे बढ़ने से पहले डॉ. मनमोहन सिंह ने लोकसभा में विश्वास मत मांगा था। लेकिन क्या वास्तव में उनकी सरकार ने जो विश्वास मत हासिल किया वह परमाणु सौदे के गुणदोष पर हमारे संसद सदस्यों का फैसला था? राष्ट्रीय लोकदल के नेता अजित सिंह ने शायद कई वर्षों में पहली बार कोई सही बात कही है और वह यह कि विश्वास मत का फैसला परमाणु करार के प्रति सहमति-असहमति तक सीमित नहीं है बल्कि आने वाले चुनाव बड़ा पहलू बन चुके हैं। विभिन्न दलों ने आने वाले लोकसभा चुनावों और विधानसभा चुनावों के आधार पर फैसला किया कि उन्हें परमाणु करार के पक्ष में बोलना है या विपक्ष में। बहुत से सांसदों ने उन्हें मिले धन के आधार पर फैसला किया कि परमाणु करार देश के हित में है या विरोध में। बहुत से छोटे दलों ने अपने नेताओं को मिलने वाले मंत्रिपद के वजन के आधार पर तो कइयों ने धार्मिक वोट बैंक की फौरी स्थिति को देखकर फैसला किया कि परमाणु करार पर उनका दृष्टिकोण क्या होगा। क्या कोई राजनैतिक विश्लेषक बताएगा कि विश्वास मत में हिस्सा लेने वाले कितने सांसदों ने वास्तव में परमाणु करार पर अपना फैसला दिया है? मुझे तो उनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जाने लायक लगती है।
भाजपा के तीन सांसदों ने भ्रष्टाचार और प्रलोभन की महामारी का सिर्फ एक पहलू उजागर किया है। जिन सांसदों को स्टिंग आपरेशन में वेश्याओं के साथ दिखाया गया, क्या वे भ्रष्ट आचरण नहीं कर रहे थे और क्या उन्हें दिया गया प्रलोभन भ्रष्टाचार नहीं था? सांसदों को निजी तौर पर धन दिया जाना एक भ्रष्टाचार है तो पूरे के पूरे दलों को कई तरह के आर्थिक-राजनैतिक लाभ देकर अपने साथ मिलाना क्या प्रलोभन नहीं है? सांसदों से अकेले में किया जाने वाला सौदा अनैतिक है और उनके दलों के प्रमुखों से बात कर किया जाने वाला बड़ा सौदा, भले ही वह आर्थिक हो या राजनैतिक, राजनैतिक भ्रष्टाचार नहीं है?
जब से भारत में साझा सरकारें बनना रूटीन हो गया है, छोटे दलों में होना ज्यादा लाभदायक हो गया है। ऐसे दल किसी भी किस्म की वैचारिक प्रतिबद्धता से मुक्त हैं, किसी भी दिशा में जाने के लिए आज़ाद हैं। हमारी राजनीति में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जो किसी भी दल की सरकार आने पर उसका हिस्सा बन जाते हैं। उन्हें कभी नुकसान नहीं होता क्योंकि जिस बहुदलीय राजनीति में लोकसभाएं और विधानसभाएं त्रिशंकु बनकर सामने आती हैं उनमें किंग बनने की तुलना में किंगमेकर बनना ज्यादा मुनाफे का सौदा है। माना कि यह सब दुखद है, माना कि यह एक बड़ी विडंबना है, माना कि यह लोकतंत्र और जनता के साथ विश्वासघात है, लेकिन आज की राजनीति का यही सच है।
राजग के जमाने में मंत्री रहे एक बड़े नेता ने मुझसे अनौपचारिक बातचीत में स्वीकार किया था कि जब मंत्री बनने के तुरंत बाद उनके पास किसी निजी उद्योग से संबंधित एक फाइल आई तो उन्होंने उसकी मंजूरी के लिए दो करोड़ लेने का मन बनाया था। लेकिन उनके मंत्रालय के सचिव ने बाद में बताया कि साहब, आपको अनुभव नहीं है। यह काम दो करोड़ का नहीं, सात-आठ करोड़ का है! |
भ्रष्टाचार, प्रलोभन, ब्लैकमेल आदि आज की राजनीति की कड़वी सच्चाइयां हैं जिनसे कोई दल मुक्त नहीं है। बाईस जुलाई को विश्वास मत पर हुई क्रासवोटिंग ने एक बार फिर दिखाया है कि बीमारी सर्वव्यापी है और लगातार बढ़ रही है। जहां केंद्र सरकार के पक्ष में 14 विपक्षी सांसदों ने वोट डाला वहीं सत्ता पक्ष से जुड़े दलों के सात सांसदों ने सरकार के खिलाफ मतदान किया। अगर सांसदों ने अपने-अपने दलों के निर्देशों के अनुसार मतदान किया होता तो सरकार के पक्ष में 261 और विपक्ष में 277 वोट पड़ने थे। लेकिन सांसदों की `अंतरात्माएं` जाग गईं और उन्होंने अपने-अपने हिसाब से मतदान किया। अब उनमें से कितने सांसद परमाणु सौदे के मौजूदा और भावी खतरों को समझते थे और कितने उसकी अच्छाइयों के कायल थे, कहा नहीं जा सकता।
परमाणु करार को लेकर वामपंथी दलों ने सरकार से समर्थन वापस लिया था और इसी मुद्दे पर आगे बढ़ने से पहले डॉ. मनमोहन सिंह ने लोकसभा में विश्वास मत मांगा था। लेकिन क्या वास्तव में उनकी सरकार ने जो विश्वास मत हासिल किया वह परमाणु सौदे के गुणदोष पर हमारे संसद सदस्यों का फैसला था? राष्ट्रीय लोकदल के नेता अजित सिंह ने शायद कई वर्षों में पहली बार कोई सही बात कही है और वह यह कि विश्वास मत का फैसला परमाणु करार के प्रति सहमति-असहमति तक सीमित नहीं है बल्कि आने वाले चुनाव बड़ा पहलू बन चुके हैं। विभिन्न दलों ने आने वाले लोकसभा चुनावों और विधानसभा चुनावों के आधार पर फैसला किया कि उन्हें परमाणु करार के पक्ष में बोलना है या विपक्ष में। बहुत से सांसदों ने उन्हें मिले धन के आधार पर फैसला किया कि परमाणु करार देश के हित में है या विरोध में। बहुत से छोटे दलों ने अपने नेताओं को मिलने वाले मंत्रिपद के वजन के आधार पर तो कइयों ने धार्मिक वोट बैंक की फौरी स्थिति को देखकर फैसला किया कि परमाणु करार पर उनका दृष्टिकोण क्या होगा। क्या कोई राजनैतिक विश्लेषक बताएगा कि विश्वास मत में हिस्सा लेने वाले कितने सांसदों ने वास्तव में परमाणु करार पर अपना फैसला दिया है? मुझे तो उनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जाने लायक लगती है।
Wednesday, July 23, 2008
सब जीत गए, बस हम हारे या लोकतंत्र!
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
विश्वास मत पूरा हुआ। किसी को फौरी लाभ हुआ है, किसी को दूरगामी लाभ हुआ है और कोई प्रांतीय राजनीति से उछलकर राष्ट्रीय मानचित्र पर आ गिरा है। अगर कोई नुकसान में रहा है तो वह है हमारा लोकतंत्र जिसकी धज्जियां उड़ाने के खेल ने राष्ट्रीय शर्मिंदगी के अलिखित सूचकांक में कई छलांगें लगा दी हैं। माफ कीजिए, इस विश्वास मत ने राजनीति की कई ऊंची-ऊंची शख्सियतों के प्रति आम हिंदुस्तानी के विश्वास का परमाणविक विखंडन कर दिया है।
कई हफ्तों का सस्पेंस खत्म हुआ। सरकार ने एक हतप्रभ कर देने वाले राजनैतिक तमाशे की कीमत पर कुछ और महीने सत्ता में बने रहने का लाइसेंस हासिल कर लिया। इस दौरान कुछ जरूरी काम निपटा लिए जाएंगे जो देश के अच्छे भविष्य, उसके विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है। कुछ नए राजनैतिक समीकरण बना लिए जाएंगे जो आने वाले चुनावों में रंग दिखाएंगे। सियासी पत्ते फेंट दिए गए हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपने ब्रांड न्यू साथियों के संग गलबहियां डाले 22 जुलाई के नफे-नुकसान का आकलन करने में जुटे हैं। किसी को फौरी लाभ हुआ है, किसी को दूरगामी लाभ हुआ है और कोई प्रांतीय राजनीति से उछलकर राष्ट्रीय मानचित्र पर आ गिरा है। अगर कोई नुकसान में रहा है तो वह है हमारा लोकतंत्र जिसकी धज्जियां उड़ाने के खेल ने राष्ट्रीय शर्मिंदगी के अलिखित सूचकांक में कई छलांगें लगा दी हैं। अगर कोई घाटे में रहा तो हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में अंधी आस्था रखने वाला आम हिंदुस्तानी, जिसके आदर्श और राजनेताओं से बांधी अनगिनत उम्मीदें पलक झपकते ही धराशायी हो गईं। अगर कोई पराजित हुई तो भारतीय संसद, जिसकी प्रतिष्ठा और गरिमा को उन्हीं लोगों ने धूल में मिला दिया जिन पर उसे काबिले-फख़्र बनाने का जिम्मा था। माफ कीजिए, इस विश्वास मत ने राजनीति की ऊंची-ऊंची शख्सियतों के प्रति आम हिंदुस्तानी के विश्वास का परमाणविक विखंडन कर दिया है।
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी हमेशा स्वच्छ राजनीति, नैतिक मूल्यों और राष्ट्र हित में पार्टी-पालिटिक्स से ऊपर उठने की बात करते हैं। बाईस जुलाई के विश्वास मत और उससे पहले की घटनाओं पर उनका ईमानदाराना नज़रिया क्या है, इसे जानना शायद बहुत दिलचस्प होगा। एक दशक पहले शेयर घोटाले के बाद प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव को `सीज़र की पत्नी को स्वयं को संदेह से ऊपर सिद्ध करने` (Caesar's wife should be above suspicion) की याद दिलाने वाले तत्कालीन वित्त मंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी भाजपा सांसदों द्वारा लोकसभा में रिश्वत के नोटों के प्रदर्शन की घटना को किस रूप में देखते हैं, इसे जानने की उत्सुकता उनके स्वच्छ आचरण के प्रशंसकों को है। लेकिन विधिवत जांच और कानूनी कार्रवाई का औपचारिक जिक्र करने के अलावा उन्होंने भारतीय राजनीति के ऐतिहासिक पतन की प्रतीक इस घटना पर कोई निजी टिप्पणी नहीं की तो संभवत: इसलिए कि पिछले पांच साल में विवेकपूर्ण आचरण, नैतिकता और राजनैतिक स्वच्छता पर उनके विचारों को व्यावहारिक राजनीति ने फिल्टर कर दिया है। अब वे एक असली हिंदुस्तानी नेता बन गए हैं, ऐसा नेता जिसके लिए राजनैतिक द्वंद्व का अंतिम नतीजा ही महत्वपूर्ण है।
नैतिकता? सत्यनिष्ठा??
भाजपा के तीन सांसदों की ओर से लोकसभा में रिश्वत की रकम दिखाए जाने का सीधा प्रसारण पूरी दुनिया ने देखा। इस घटना के बाद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र और उसकी लोकतांत्रिक परंपराओं के बारे में आप क्या बात करेंगे? विश्व की नजरों में 22 जुलाई की सुबह तक भारत एक आदर्श लोकतंत्र के रूप में जिस नैतिक ऊंचाई पर था वह 22 जुलाई 2008 की शाम ही उससे छिन गई और उसके लिए कोई एक दल, कोई एक खेमा जिम्मेदार नहीं है। इस घटना के बाद यदि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अद्वितीय राजनैतिक सत्यनिष्ठा व नैतिक आचरण का प्रदर्शन करते हुए विश्वास मत लेने से इंकार कर देते तो हमारे लोकतंत्र की गरिमा बची रहती, बल्कि शायद और बढ़ जाती। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, वाम गठजोड़ और तीसरे मोर्चे के दलों ने यदि राजनैतिक भ्रष्टाचार के निम्नतम स्तर पर पहुंचने के विरोधस्वरूप विश्वास मत में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया होता तो भी कुछ हद तक उसकी रक्षा होती। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने भी यदि इन `असामान्य परिस्थितियों` के मद्देनजर कोई बड़ा कदम उठाया होता तो वह पूरी दुनिया में एक साफ और गहरा संदेश भेजता कि भारत का लोकतंत्र किसी भी दर्जे के नैतिक-राजनैतिक संकट से निपटने, अपनी विश्वसनीयता की रक्षा में सक्षम है। लेकिन उनमें से किसी ने इतना बड़ा राजनैतिक जोखिम लेने की हिम्मत नहीं की क्योंकि चोट उनके दलों को नहीं, बल्कि लोकतंत्र को लगी थी। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी-अपनी संभावित जीत को हासिल करने के लिए बेताब थे। लोकसभा की गरिमा और लोकतंत्र की मर्यादा की भला किसे पड़ी है? उन्होंने अपने बारे में पूर्वसिद्ध इस धारणा को ही एक बार फिर अंडरलाइन कर दिया कि राजनीति में सत्ता ही सब कुछ है, बाकी सिर्फ बातें हैं।
परमाणु करार को देश के लिए अच्छा और डॉ. मनमोहन सिंह को एक ईमानदार व कुशल प्रधानमंत्री मानने वाले लोगों की कमी नहीं है। दो दिन पहले एक अंग्रेजी अखबार द्वारा कराए गए सर्वे में 83 फीसदी लोगों ने कहा था कि वे चाहते हैं कि विश्वास मत में सरकार जीत जाए और परमाणु करार का मुद्दा आगे बढ़े। ये सब लोग राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार से परिचित हैं और फैसला किस किस्म के जोड़तोड़ के जरिए होगा, इसे भी बखूबी जानते हैं। लेकिन लोकसभा में हुई घटना से उन सबको सदमा लगा है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो इस घटना को गढ़ी हुई करार देंगे और जिन्हें भाजपा सांसदों द्वारा यह मुद्दा उठाए जाने के समय, उसके तौर-तरीके, लोकसभा अध्यक्ष को विश्वास में न लिए जाने, संबंधित टेलीविजन चैनल द्वारा इस घटना का प्रसारण न किए जाने आदि के पीछे भी स्पष्ट राजनैतिक रणनीति दिखाई दे रही है। लेकिन इस बात से कौन इंकार करेगा कि इस घटना ने लोकतंत्र की जड़ें खोखली करने वाली महामारी के ऊपर पड़ा पर्दा उठा दिया है!
भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार कोई छिपी हुई चीज नहीं है। झारखंड मुक्ति मोर्चा केस, हर्षद मेहता प्रकरण, बंगारू लक्ष्मण स्टिंग आपरेशन, धन के बदले सवाल कांड आदि तो उस बीमारी का बहुत छोटा सा अंश है जो लगभग सभी राजनैतिक दलों में गहराई तक घुसी हुई है। कौन नहीं जानता कि हमारे यहां राजनीति में जाने के सिर्फ दो बड़े मकसद हैं- एक, किसी भी जरिए से धन कमाना और दूसरे, अपने मुख्य कारोबार में किए जाने वाले गलत कार्यों को किसी किस्म की सरकारी स्क्रूटिनी से बचाने का इंतजाम करना। जब शिबू सोरेन खुले आम कोयला मंत्रालय की मांग करते हैं और उस पर अड़े रहते हैं तो इसके पीछे के कारणों को कौन नहीं जानता? जब कुछ नेता विश्वास मत के पक्ष या विपक्ष में मतदान करने का फैसला अंतिम क्षणों तक टालते हैं तो वे किस बात का, या यूं कहें कि किस संदेश के आने का इंतजार कर रहे होते हैं? हमारे अफसरशाह विभिन्न दुधारू विभागों, मंत्रालयों और उपक्रमों में जाने के लिए लाखों करोड़ों की रिश्वत देने को क्यों तैयार रहते हैं, यह किसी से छिपा है क्या? राज्यसभा चुनावों, केंद्र व राज्यों के विश्वास मतों, राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनावों, सरकारों के गठन से ठीक पहले आदि मौकों पर जन प्रतिनिधियों को रिश्वत पेश किए जाने की लंबी परंपरा रही है जिसका पालन पूरी निष्ठा के साथ किया जाता है। इस बात को न सिर्फ विभिन्न दलों के नेता जानते हैं बल्कि आम मतदाता भी उससे अनभिज्ञ नहीं है। प्रतिद्वंद्वी दलों के लोगों को दिए जाने वाले ये प्रलोभन आज हमारी राजनीति का एक स्वाभाविक तत्व बन चुके हैं। इस काम के लिए बाकायदा विभिन्न दलों में विशेषज्ञ नेता मौजूद हैं। हर दल ऐसा करता है लेकिन ऐसा ही करने वाले दूसरे दलों को कोसता है और कोसता रहेगा।
विश्वास मत पूरा हुआ। किसी को फौरी लाभ हुआ है, किसी को दूरगामी लाभ हुआ है और कोई प्रांतीय राजनीति से उछलकर राष्ट्रीय मानचित्र पर आ गिरा है। अगर कोई नुकसान में रहा है तो वह है हमारा लोकतंत्र जिसकी धज्जियां उड़ाने के खेल ने राष्ट्रीय शर्मिंदगी के अलिखित सूचकांक में कई छलांगें लगा दी हैं। माफ कीजिए, इस विश्वास मत ने राजनीति की कई ऊंची-ऊंची शख्सियतों के प्रति आम हिंदुस्तानी के विश्वास का परमाणविक विखंडन कर दिया है।
कई हफ्तों का सस्पेंस खत्म हुआ। सरकार ने एक हतप्रभ कर देने वाले राजनैतिक तमाशे की कीमत पर कुछ और महीने सत्ता में बने रहने का लाइसेंस हासिल कर लिया। इस दौरान कुछ जरूरी काम निपटा लिए जाएंगे जो देश के अच्छे भविष्य, उसके विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है। कुछ नए राजनैतिक समीकरण बना लिए जाएंगे जो आने वाले चुनावों में रंग दिखाएंगे। सियासी पत्ते फेंट दिए गए हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपने ब्रांड न्यू साथियों के संग गलबहियां डाले 22 जुलाई के नफे-नुकसान का आकलन करने में जुटे हैं। किसी को फौरी लाभ हुआ है, किसी को दूरगामी लाभ हुआ है और कोई प्रांतीय राजनीति से उछलकर राष्ट्रीय मानचित्र पर आ गिरा है। अगर कोई नुकसान में रहा है तो वह है हमारा लोकतंत्र जिसकी धज्जियां उड़ाने के खेल ने राष्ट्रीय शर्मिंदगी के अलिखित सूचकांक में कई छलांगें लगा दी हैं। अगर कोई घाटे में रहा तो हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में अंधी आस्था रखने वाला आम हिंदुस्तानी, जिसके आदर्श और राजनेताओं से बांधी अनगिनत उम्मीदें पलक झपकते ही धराशायी हो गईं। अगर कोई पराजित हुई तो भारतीय संसद, जिसकी प्रतिष्ठा और गरिमा को उन्हीं लोगों ने धूल में मिला दिया जिन पर उसे काबिले-फख़्र बनाने का जिम्मा था। माफ कीजिए, इस विश्वास मत ने राजनीति की ऊंची-ऊंची शख्सियतों के प्रति आम हिंदुस्तानी के विश्वास का परमाणविक विखंडन कर दिया है।
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी हमेशा स्वच्छ राजनीति, नैतिक मूल्यों और राष्ट्र हित में पार्टी-पालिटिक्स से ऊपर उठने की बात करते हैं। बाईस जुलाई के विश्वास मत और उससे पहले की घटनाओं पर उनका ईमानदाराना नज़रिया क्या है, इसे जानना शायद बहुत दिलचस्प होगा। एक दशक पहले शेयर घोटाले के बाद प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव को `सीज़र की पत्नी को स्वयं को संदेह से ऊपर सिद्ध करने` (Caesar's wife should be above suspicion) की याद दिलाने वाले तत्कालीन वित्त मंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी भाजपा सांसदों द्वारा लोकसभा में रिश्वत के नोटों के प्रदर्शन की घटना को किस रूप में देखते हैं, इसे जानने की उत्सुकता उनके स्वच्छ आचरण के प्रशंसकों को है। लेकिन विधिवत जांच और कानूनी कार्रवाई का औपचारिक जिक्र करने के अलावा उन्होंने भारतीय राजनीति के ऐतिहासिक पतन की प्रतीक इस घटना पर कोई निजी टिप्पणी नहीं की तो संभवत: इसलिए कि पिछले पांच साल में विवेकपूर्ण आचरण, नैतिकता और राजनैतिक स्वच्छता पर उनके विचारों को व्यावहारिक राजनीति ने फिल्टर कर दिया है। अब वे एक असली हिंदुस्तानी नेता बन गए हैं, ऐसा नेता जिसके लिए राजनैतिक द्वंद्व का अंतिम नतीजा ही महत्वपूर्ण है।
नैतिकता? सत्यनिष्ठा??
भाजपा के तीन सांसदों की ओर से लोकसभा में रिश्वत की रकम दिखाए जाने का सीधा प्रसारण पूरी दुनिया ने देखा। इस घटना के बाद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र और उसकी लोकतांत्रिक परंपराओं के बारे में आप क्या बात करेंगे? विश्व की नजरों में 22 जुलाई की सुबह तक भारत एक आदर्श लोकतंत्र के रूप में जिस नैतिक ऊंचाई पर था वह 22 जुलाई 2008 की शाम ही उससे छिन गई और उसके लिए कोई एक दल, कोई एक खेमा जिम्मेदार नहीं है। इस घटना के बाद यदि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अद्वितीय राजनैतिक सत्यनिष्ठा व नैतिक आचरण का प्रदर्शन करते हुए विश्वास मत लेने से इंकार कर देते तो हमारे लोकतंत्र की गरिमा बची रहती, बल्कि शायद और बढ़ जाती। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, वाम गठजोड़ और तीसरे मोर्चे के दलों ने यदि राजनैतिक भ्रष्टाचार के निम्नतम स्तर पर पहुंचने के विरोधस्वरूप विश्वास मत में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया होता तो भी कुछ हद तक उसकी रक्षा होती। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने भी यदि इन `असामान्य परिस्थितियों` के मद्देनजर कोई बड़ा कदम उठाया होता तो वह पूरी दुनिया में एक साफ और गहरा संदेश भेजता कि भारत का लोकतंत्र किसी भी दर्जे के नैतिक-राजनैतिक संकट से निपटने, अपनी विश्वसनीयता की रक्षा में सक्षम है। लेकिन उनमें से किसी ने इतना बड़ा राजनैतिक जोखिम लेने की हिम्मत नहीं की क्योंकि चोट उनके दलों को नहीं, बल्कि लोकतंत्र को लगी थी। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी-अपनी संभावित जीत को हासिल करने के लिए बेताब थे। लोकसभा की गरिमा और लोकतंत्र की मर्यादा की भला किसे पड़ी है? उन्होंने अपने बारे में पूर्वसिद्ध इस धारणा को ही एक बार फिर अंडरलाइन कर दिया कि राजनीति में सत्ता ही सब कुछ है, बाकी सिर्फ बातें हैं।
परमाणु करार को देश के लिए अच्छा और डॉ. मनमोहन सिंह को एक ईमानदार व कुशल प्रधानमंत्री मानने वाले लोगों की कमी नहीं है। दो दिन पहले एक अंग्रेजी अखबार द्वारा कराए गए सर्वे में 83 फीसदी लोगों ने कहा था कि वे चाहते हैं कि विश्वास मत में सरकार जीत जाए और परमाणु करार का मुद्दा आगे बढ़े। ये सब लोग राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार से परिचित हैं और फैसला किस किस्म के जोड़तोड़ के जरिए होगा, इसे भी बखूबी जानते हैं। लेकिन लोकसभा में हुई घटना से उन सबको सदमा लगा है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो इस घटना को गढ़ी हुई करार देंगे और जिन्हें भाजपा सांसदों द्वारा यह मुद्दा उठाए जाने के समय, उसके तौर-तरीके, लोकसभा अध्यक्ष को विश्वास में न लिए जाने, संबंधित टेलीविजन चैनल द्वारा इस घटना का प्रसारण न किए जाने आदि के पीछे भी स्पष्ट राजनैतिक रणनीति दिखाई दे रही है। लेकिन इस बात से कौन इंकार करेगा कि इस घटना ने लोकतंत्र की जड़ें खोखली करने वाली महामारी के ऊपर पड़ा पर्दा उठा दिया है!
भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार कोई छिपी हुई चीज नहीं है। झारखंड मुक्ति मोर्चा केस, हर्षद मेहता प्रकरण, बंगारू लक्ष्मण स्टिंग आपरेशन, धन के बदले सवाल कांड आदि तो उस बीमारी का बहुत छोटा सा अंश है जो लगभग सभी राजनैतिक दलों में गहराई तक घुसी हुई है। कौन नहीं जानता कि हमारे यहां राजनीति में जाने के सिर्फ दो बड़े मकसद हैं- एक, किसी भी जरिए से धन कमाना और दूसरे, अपने मुख्य कारोबार में किए जाने वाले गलत कार्यों को किसी किस्म की सरकारी स्क्रूटिनी से बचाने का इंतजाम करना। जब शिबू सोरेन खुले आम कोयला मंत्रालय की मांग करते हैं और उस पर अड़े रहते हैं तो इसके पीछे के कारणों को कौन नहीं जानता? जब कुछ नेता विश्वास मत के पक्ष या विपक्ष में मतदान करने का फैसला अंतिम क्षणों तक टालते हैं तो वे किस बात का, या यूं कहें कि किस संदेश के आने का इंतजार कर रहे होते हैं? हमारे अफसरशाह विभिन्न दुधारू विभागों, मंत्रालयों और उपक्रमों में जाने के लिए लाखों करोड़ों की रिश्वत देने को क्यों तैयार रहते हैं, यह किसी से छिपा है क्या? राज्यसभा चुनावों, केंद्र व राज्यों के विश्वास मतों, राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनावों, सरकारों के गठन से ठीक पहले आदि मौकों पर जन प्रतिनिधियों को रिश्वत पेश किए जाने की लंबी परंपरा रही है जिसका पालन पूरी निष्ठा के साथ किया जाता है। इस बात को न सिर्फ विभिन्न दलों के नेता जानते हैं बल्कि आम मतदाता भी उससे अनभिज्ञ नहीं है। प्रतिद्वंद्वी दलों के लोगों को दिए जाने वाले ये प्रलोभन आज हमारी राजनीति का एक स्वाभाविक तत्व बन चुके हैं। इस काम के लिए बाकायदा विभिन्न दलों में विशेषज्ञ नेता मौजूद हैं। हर दल ऐसा करता है लेकिन ऐसा ही करने वाले दूसरे दलों को कोसता है और कोसता रहेगा।
Monday, July 21, 2008
Saturday, July 19, 2008
लोकतंत्र के अभिभावक को महज एक वोट समझा?
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
सोमनाथ चटर्जी को पार्टी ने एक आम सांसद के रूप में देखा। सिर्फ एक वोट के रूप में देखा। राष्ट्रपति को सरकार का विरोध करने वाले सांसदों की सूची में नाम डालते समय उसने भारतीय लोकतंत्र में उनकी अभिभावकीय भूमिका, उनके संवैधानिक दर्जे का सम्मान नहीं किया। यदि सोमनाथ चटर्जी अपने प्रति दिखाई गई सर्वदलीय आस्था के अनुरूप आचरण करना चाहते हैं तो कोई भी उन्हें ऐसा करने से कैसे रोक सकता है? ऐसे ही आदर्श नेताओं की तो हमें जरूरत है?
लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को जिस तरह एक सामान्य माकपा सांसद की तरह अनुशासित ढंग से पार्टी की लाइन में आ जाने के लिए बाध्य किया जा रहा है उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे बहुत से शराबी किसी गैर-शराबी का 'धर्म भ्रष्ट करने' की कोशिश कर रहे हों। ऐसी स्थिति में वे उसे प्रभावित करने के लिए शराब की तमाम `अच्छाइयों` का गुणगान करते हुए ऐसा दिखाते हैं जैसे नशा न करने वाले लोग गलत हैं। श्री चटर्जी ने अपने पद की गरिमा के अनुरूप एक उच्च नैतिकतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाया है जिसकी सराहना करने की बजाए वामपंथी दल और अन्य विपक्षी दल उन्हें दलगत राजनीति से ऊपर उठने की बजाए उन लोगों की जमात में शामिल हो जाने के लिए बाध्य कर रहे हैं जिनका इस तरह के आदर्शों से कोई लेना देना नहीं। वे भारतीय राजनीति के ऐसे उदाहरण (शिवराज पाटिल, मनोहर जोशी, पीए संगमा, बलराम जाखड़ आदि) दे रहे हैं जब लोकसभा अध्यक्ष के पद पर रह चुके लोग इस पद से हटने के बाद फिर से दलगत राजनीति में लिप्त होते रहे हैं। इन उदाहरणों को गिनाते हुए वे भूल जाते हैं कि गलत आचरण करना कोई मजबूरी नहीं है। यदि व्यक्ति पद और दलगत राजनीति से ऊपर है, उसे अपने दायित्वों व गरिमा का अहसास है, उसकी अपने सिद्धांतपूर्ण दृष्टिकोण में पूरी आस्था है तो वह नैतिक आचरण की नई परंपरा शुरू कर सकता है। ऐसी परंपरा जिसका अनुसरण बाद में दूसरे लोग करना चाहेंगे। ऐसी परंपरा जिसे भविष्य में भारतीय लोकतंत्र के उच्च आदर्शों में शुमार करते हुए मिसाल के रूप में पेश किया जाएगा। कोई न कोई व्यक्ति सामान्य व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठता है तभी तो लोकतंत्र को वह ऊंचाई मिलती है जिसकी वजह से वह राजशाहियों और तानाशाहियों से अलग है!
सोमनाथ चटर्जी, ज्योति बसु, स्वर्गीय इंद्रजीत गुप्त आदि वामपंथी नेता, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी आदि ऐसे राजनेताओं में गिने जाते हैं जो समय आने पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचने का साहस रखते हैं। तभी तो अटलजी ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान इंदिरा गांधी का समर्थन किया। तभी तो सोमनाथ चटर्जी को सांसद रहते हुए अपने आदर्श आचरण के लिए 1996 में सर्वश्रेष्ठ सांसद के सम्मान से अलंकृत किया गया। तभी तो अटलजी ने गुजरात के दंगों के बाद तमाम दलीय विवशताओं के बीच भी नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने की नसीहत दी। तभी तो सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष के रूप में अपने चार साल के कार्यकाल के दौरान अनेक अवसरों पर अपनी ही पार्टी के सांसदों को डपटने में संकोच नहीं किया। लोकसभा की कार्यवाही को बार-बार बाधित कर सदन की गरिमा और समय नष्ट करने वाले सांसदों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन की कार्रवाई शुरू करने जैसे फैसले, समय नष्ट करने वाले सांसदों के लिए `काम नहीं तो वेतन नहीं` का नियम शुरू करने की सलाह देने जैसे काम वही व्यक्ति कर सकता है जो दलीय राजनीति से ऊपर उठकर सोचता हो। ऐसे लोगों को निहित स्वार्थों पर आधारित दलीय अनुशासन में निबद्ध करने की भूल नहीं की जानी चाहिए।
सोमनाथ चटर्जी को पार्टी ने एक आम सांसद के रूप में देखा। सिर्फ एक वोट के रूप में देखा। राष्ट्रपति को सरकार का विरोध करने वाले सांसदों की सूची में नाम डालते समय उसने भारतीय लोकतंत्र में उनकी अभिभावकीय भूमिका, उनके संवैधानिक दर्जे का सम्मान नहीं किया। उसने उन्हें अपने निर्देश पर ठप्पा लगाने वाले एक कारकुन से ज्यादा दर्जा नहीं दिया। एक ऐसे व्यक्ति को जो लोकसभा के सर्वोच्च पद पर है और भारतीय लोकतंत्र के आधार स्तंभों में है। ऐसा व्यक्ति जो झारखंड प्रकरण के दौरान संसदीय संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र में दखल के लिए सुप्रीम कोर्ट के साथ टकराव से भी पीछे नहीं हटा। शायद ही कोई नेता यह आरोप लगा सके कि श्री चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद माकपा या वामपंथी दलों की हिमायत की हो। वे ऐसे समय पर इस पद पर आए थे जब विभिé दलों ने पहले दिन से ही लोकसभा में अनेक मुद्दों पर जबरदस्त हंगामा करते हुए सदन का काफी समय नष्ट किया है। मौजूदा सरकार के सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री को लोकसभा में अपने मंत्रिमंडलीय सदस्यों का परिचय तक नहीं कराने दिया गया था और संप्रग सरकार का पहला बजट भारी हंगामे के कारण बिना किसी बहस के पास हुआ था। लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण पर वे जिस किस्म की पीड़ा से गुजरे वह किसी से छिपी हुई नहीं है। अपने संवैधानिक दायित्वों के प्रति प्रतिबद्धता को उन्होंने बार-बार सिद्ध किया है। अन्यथा राज्यों की विधानसभाओं का हाल देखिए। उनके अध्यक्षों की छवि, आचरण और सत्तारूढ़ दल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का ख्याल कीजिए। क्या सोमनाथ चटर्जी के आचरण से उनकी कोई तुलना की जा सकती है? सदन में बार-बार हंगामा, वाकआउट और स्थगन के बीच भी अगर लोकसभा की गरिमा और मर्यादा कायम है तो इसमें सोमनाथ चटर्जी का योगदान कम नहीं है। वे ऐसा इसीलिए कर सके क्योंकि वे दलगत राजनीति की सीमाअंो से ऊपर उठ चुके हैं।
लोकसभा अध्यक्ष के रूप में श्री चटर्जी का चुनाव आम राय से हुआ। अब यह उनके ऊपर है कि वे अपने प्रति जताई गई सभी दलों की आस्था को किस रूप में लेते हैं। हो सकता है कि कोई सामान्य बुिद्ध राजनेता सब दलों का समर्थन तो ले लेता लेकिन रहता किसी एक दल के प्रति ही समर्पित। हमारे ज्यादातर नेता इसी श्रेणी में आते हैं। लेकिन यदि सोमनाथ चटर्जी ने इस सामूहिक समर्थन को वास्तव में एक आदर्श रूप में लिया और वे स्वयं को पूरे सदन के हितों का प्रतिनिधि मानते हैं तो इसमें गलत क्या है? हम किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए तो गलत काम करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते कि बाकी सब गलत हैं? यदि कोई यह मानता है कि वे किसी राजनैतिक स्वार्थ के आधार पर काम कर रहे हैं तो यह उनके साथ एक और नाइंसाफी होगी। श्री चटर्जी खुद कह चुके हैं कि वे अब और लोकसभा चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं हैं। वे जिस तरह का सादा जीवन जीते रहे हैं उसे देखकर आप उन्हें किसी अन्य आरोप में भी नहीं घेर सकते। वे लोकसभा के सबसे अनुभवी नेताओं में से एक हैं और अपनी जिम्मेदारियों से पूरी तरह वाकिफ हैं। उन्हें पता है कि अगर विश्वास मत के दौरान दोनों पक्ष बराबरी पर रहते हैं तो वे निर्णायक वोट दे सकते हैं। लेकिन यह वोट किस दिशा में होगा, इसका निर्णय वे स्वयं ही कर सकते हैं। सोमनाथ चटर्जी एक इतिहास बनाने की प्रक्रिया में हैं, एक मिसाल बनने की दिशा में हैं और भारतीय लोकतंत्र व राजनीति को ऐसी नैतिकतापूर्ण मिसालों और आदर्शों की बहुत जरूरत है। उन्हें अपना काम करने दीजिए।
सोमनाथ चटर्जी को पार्टी ने एक आम सांसद के रूप में देखा। सिर्फ एक वोट के रूप में देखा। राष्ट्रपति को सरकार का विरोध करने वाले सांसदों की सूची में नाम डालते समय उसने भारतीय लोकतंत्र में उनकी अभिभावकीय भूमिका, उनके संवैधानिक दर्जे का सम्मान नहीं किया। यदि सोमनाथ चटर्जी अपने प्रति दिखाई गई सर्वदलीय आस्था के अनुरूप आचरण करना चाहते हैं तो कोई भी उन्हें ऐसा करने से कैसे रोक सकता है? ऐसे ही आदर्श नेताओं की तो हमें जरूरत है?
लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को जिस तरह एक सामान्य माकपा सांसद की तरह अनुशासित ढंग से पार्टी की लाइन में आ जाने के लिए बाध्य किया जा रहा है उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे बहुत से शराबी किसी गैर-शराबी का 'धर्म भ्रष्ट करने' की कोशिश कर रहे हों। ऐसी स्थिति में वे उसे प्रभावित करने के लिए शराब की तमाम `अच्छाइयों` का गुणगान करते हुए ऐसा दिखाते हैं जैसे नशा न करने वाले लोग गलत हैं। श्री चटर्जी ने अपने पद की गरिमा के अनुरूप एक उच्च नैतिकतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाया है जिसकी सराहना करने की बजाए वामपंथी दल और अन्य विपक्षी दल उन्हें दलगत राजनीति से ऊपर उठने की बजाए उन लोगों की जमात में शामिल हो जाने के लिए बाध्य कर रहे हैं जिनका इस तरह के आदर्शों से कोई लेना देना नहीं। वे भारतीय राजनीति के ऐसे उदाहरण (शिवराज पाटिल, मनोहर जोशी, पीए संगमा, बलराम जाखड़ आदि) दे रहे हैं जब लोकसभा अध्यक्ष के पद पर रह चुके लोग इस पद से हटने के बाद फिर से दलगत राजनीति में लिप्त होते रहे हैं। इन उदाहरणों को गिनाते हुए वे भूल जाते हैं कि गलत आचरण करना कोई मजबूरी नहीं है। यदि व्यक्ति पद और दलगत राजनीति से ऊपर है, उसे अपने दायित्वों व गरिमा का अहसास है, उसकी अपने सिद्धांतपूर्ण दृष्टिकोण में पूरी आस्था है तो वह नैतिक आचरण की नई परंपरा शुरू कर सकता है। ऐसी परंपरा जिसका अनुसरण बाद में दूसरे लोग करना चाहेंगे। ऐसी परंपरा जिसे भविष्य में भारतीय लोकतंत्र के उच्च आदर्शों में शुमार करते हुए मिसाल के रूप में पेश किया जाएगा। कोई न कोई व्यक्ति सामान्य व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठता है तभी तो लोकतंत्र को वह ऊंचाई मिलती है जिसकी वजह से वह राजशाहियों और तानाशाहियों से अलग है!
सोमनाथ चटर्जी, ज्योति बसु, स्वर्गीय इंद्रजीत गुप्त आदि वामपंथी नेता, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी आदि ऐसे राजनेताओं में गिने जाते हैं जो समय आने पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचने का साहस रखते हैं। तभी तो अटलजी ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान इंदिरा गांधी का समर्थन किया। तभी तो सोमनाथ चटर्जी को सांसद रहते हुए अपने आदर्श आचरण के लिए 1996 में सर्वश्रेष्ठ सांसद के सम्मान से अलंकृत किया गया। तभी तो अटलजी ने गुजरात के दंगों के बाद तमाम दलीय विवशताओं के बीच भी नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने की नसीहत दी। तभी तो सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष के रूप में अपने चार साल के कार्यकाल के दौरान अनेक अवसरों पर अपनी ही पार्टी के सांसदों को डपटने में संकोच नहीं किया। लोकसभा की कार्यवाही को बार-बार बाधित कर सदन की गरिमा और समय नष्ट करने वाले सांसदों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन की कार्रवाई शुरू करने जैसे फैसले, समय नष्ट करने वाले सांसदों के लिए `काम नहीं तो वेतन नहीं` का नियम शुरू करने की सलाह देने जैसे काम वही व्यक्ति कर सकता है जो दलीय राजनीति से ऊपर उठकर सोचता हो। ऐसे लोगों को निहित स्वार्थों पर आधारित दलीय अनुशासन में निबद्ध करने की भूल नहीं की जानी चाहिए।
सोमनाथ चटर्जी को पार्टी ने एक आम सांसद के रूप में देखा। सिर्फ एक वोट के रूप में देखा। राष्ट्रपति को सरकार का विरोध करने वाले सांसदों की सूची में नाम डालते समय उसने भारतीय लोकतंत्र में उनकी अभिभावकीय भूमिका, उनके संवैधानिक दर्जे का सम्मान नहीं किया। उसने उन्हें अपने निर्देश पर ठप्पा लगाने वाले एक कारकुन से ज्यादा दर्जा नहीं दिया। एक ऐसे व्यक्ति को जो लोकसभा के सर्वोच्च पद पर है और भारतीय लोकतंत्र के आधार स्तंभों में है। ऐसा व्यक्ति जो झारखंड प्रकरण के दौरान संसदीय संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र में दखल के लिए सुप्रीम कोर्ट के साथ टकराव से भी पीछे नहीं हटा। शायद ही कोई नेता यह आरोप लगा सके कि श्री चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद माकपा या वामपंथी दलों की हिमायत की हो। वे ऐसे समय पर इस पद पर आए थे जब विभिé दलों ने पहले दिन से ही लोकसभा में अनेक मुद्दों पर जबरदस्त हंगामा करते हुए सदन का काफी समय नष्ट किया है। मौजूदा सरकार के सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री को लोकसभा में अपने मंत्रिमंडलीय सदस्यों का परिचय तक नहीं कराने दिया गया था और संप्रग सरकार का पहला बजट भारी हंगामे के कारण बिना किसी बहस के पास हुआ था। लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण पर वे जिस किस्म की पीड़ा से गुजरे वह किसी से छिपी हुई नहीं है। अपने संवैधानिक दायित्वों के प्रति प्रतिबद्धता को उन्होंने बार-बार सिद्ध किया है। अन्यथा राज्यों की विधानसभाओं का हाल देखिए। उनके अध्यक्षों की छवि, आचरण और सत्तारूढ़ दल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का ख्याल कीजिए। क्या सोमनाथ चटर्जी के आचरण से उनकी कोई तुलना की जा सकती है? सदन में बार-बार हंगामा, वाकआउट और स्थगन के बीच भी अगर लोकसभा की गरिमा और मर्यादा कायम है तो इसमें सोमनाथ चटर्जी का योगदान कम नहीं है। वे ऐसा इसीलिए कर सके क्योंकि वे दलगत राजनीति की सीमाअंो से ऊपर उठ चुके हैं।
लोकसभा अध्यक्ष के रूप में श्री चटर्जी का चुनाव आम राय से हुआ। अब यह उनके ऊपर है कि वे अपने प्रति जताई गई सभी दलों की आस्था को किस रूप में लेते हैं। हो सकता है कि कोई सामान्य बुिद्ध राजनेता सब दलों का समर्थन तो ले लेता लेकिन रहता किसी एक दल के प्रति ही समर्पित। हमारे ज्यादातर नेता इसी श्रेणी में आते हैं। लेकिन यदि सोमनाथ चटर्जी ने इस सामूहिक समर्थन को वास्तव में एक आदर्श रूप में लिया और वे स्वयं को पूरे सदन के हितों का प्रतिनिधि मानते हैं तो इसमें गलत क्या है? हम किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए तो गलत काम करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते कि बाकी सब गलत हैं? यदि कोई यह मानता है कि वे किसी राजनैतिक स्वार्थ के आधार पर काम कर रहे हैं तो यह उनके साथ एक और नाइंसाफी होगी। श्री चटर्जी खुद कह चुके हैं कि वे अब और लोकसभा चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं हैं। वे जिस तरह का सादा जीवन जीते रहे हैं उसे देखकर आप उन्हें किसी अन्य आरोप में भी नहीं घेर सकते। वे लोकसभा के सबसे अनुभवी नेताओं में से एक हैं और अपनी जिम्मेदारियों से पूरी तरह वाकिफ हैं। उन्हें पता है कि अगर विश्वास मत के दौरान दोनों पक्ष बराबरी पर रहते हैं तो वे निर्णायक वोट दे सकते हैं। लेकिन यह वोट किस दिशा में होगा, इसका निर्णय वे स्वयं ही कर सकते हैं। सोमनाथ चटर्जी एक इतिहास बनाने की प्रक्रिया में हैं, एक मिसाल बनने की दिशा में हैं और भारतीय लोकतंत्र व राजनीति को ऐसी नैतिकतापूर्ण मिसालों और आदर्शों की बहुत जरूरत है। उन्हें अपना काम करने दीजिए।
Friday, July 18, 2008
डील को 'मुस्लिम विरोधी' बताने वाले 'धर्मनिरपेक्ष' हैं?
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
भले ही वाम नेता कहते रहें कि वे भारत की संप्रभुता और स्वतंत्र विदेश नीति को बचाने की खातिर यह सब कर रहे हैं, पिछले दो-तीन हफ्तों के आचरण ने साफ कर दिया है कि परमाणु करार के खिलाफ उनके अभियान की एक स्पष्ट राजनैतिक दिशा है। यह दिशा सही है या गलत, वास्तविकताओं पर आधारित है या कल्पनाओं पर, कहा नहीं जा सकता। लेकिन सारे घटनाक्रम के पीछे एक राजनैतिक एजेंडा है।
वामपंथी दलों की तरफ से आया यह बयान, कि परमाणु करार का समर्थन करने पर समाजवादी पार्टी मुस्लिम जनता का समर्थन खो देगी, राजनैतिक दांव-पेंच को आजमाने का पहला बड़ा संकेत था। यदि वे भारत के अंतरराष्ट्रीय हितों और संप्रभुता के लिहाज से सोचते रहे थे तो इस तरह का धार्मिक कोण वाला विभाजनकारी राजनैतिक बयान देने की जरूरत कैसे पैदा हुई? उन्हें परमाणु करार को भारतीय मतदाता, खासकर मुस्लिम मतदाता के साथ जोड़ना क्यों जरूरी लगा? इसका अर्थ यह हुआ कि यदि कोई समुदाय विशेष राष्ट्रहित के किसी फैसले का विरोध करे तो उसे छोड़ दिया जाना चाहिए? ये वही वामपंथी नेता हैं जो कुछ महीने पहले किए गए सर्वेक्षणों के नतीजों पर टिप्पणी करते हुए कह चुके थे कि भले ही भारत के अधिसंख्य लोग परमाणु करार का समर्थन करें, वे इसका विरोध करते रहेंगे क्योंकि लोग नहीं जानते कि देश के हित में क्या है और क्या नहीं। ऐसे कामरेडों को मुलायम सिंह यादव का ध्यान इस ओर खींचने की जरूरत क्यों पड़ गई कि वे परमाणु डील की नहीं बल्कि अपने मुस्लिम वोट बैंक की फिक्र करें?
पिछले सप्ताह वामपंथी दलों की रैली को संबोधित करते हुए माकपा महासचिव प्रकाश करात ने करार के विरोध के पीछे राजनैतिक निहितार्थ होने की बात और साफ कर दी जब उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को परमाणु करार को मुद्दा बनाकर लोकसभा चुनाव लड़ने की चुनौती दी। वे शायद यह भूल गए कि आज भी पिचहत्तर फीसदी भारत गांवों में रहता है और हमारी चालीस फीसदी आबादी अनपढ़ है। ऐसे में कौन मतदाता परमाणु करार के बारे में जानता है? कौन मतदाता इसके भावी प्रभावों को समझते हुए फैसला कर सकता है? और क्या उसका फैसला वास्तव में इस सौदे पर जनता की ठीक-ठीक धारणा को अभिव्यक्त करेगा? और यदि मतदाता ऐसा करने में सक्षम भी हो तो क्या देश का हर फैसला चुनावी लाभ-हानि के हिसाब से ही किया जाना चाहिए? डॉ. मनमोहन सिंह ने तो इस बयान की उपेक्षा करना ही उचित समझा लेकिन आम भारतीय के सामने श्री करात की विचारधारा अवश्य साफ हो गई। उन्होंने साफ कर दिया कि वे परमाणु सौदे को चुनावी राजनीति के चश्मे से देख रहे हैं, राष्ट्र हित के लिहाज से नहीं, जैसा कि पिछले कई वर्षों से दावा किया जा रहा है।
जिन वामपंथी दलों का लक्ष्य परमाणु करार को रोकना था, उनका लक्ष्य सरकार गिराना बन गया है। अब संप्रग सरकार के सभी विरोधी उनके मित्र हो गये हैं भले ही उनकी विचारधारा, राजनैतिक इतिहास, छवि या पृष्ठभूमि कुछ भी हो। भले ही वे धार्मिक आधार पर परमाणु सौदे के खिलाफ लोगों को भड़का रहे हों, सब जायज है। भले ही भ्रष्टाचार और अपराधों की लंबी सूची उनके साथ जुड़ी हो, सब जायज है। भले ही उनके खिलाफ तानाशाही के आरोप हों, सब जायज है। छोिड़ए सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को, अब सब वाम दलों के मित्र हो गए हैं। विचारधारा पर आधारित होने का दावा करने वाले दल अवसरवादी राजनीति में सबसे ज्यादा सक्रिय दिखने की होड़ में लगे हैं। क्या इस ऐतिहासिक मौके पर वे इस बारे में रोशनी डालेंगे कि उनके नए राजनैतिक गठबंधनों का भविष्य कितना लंबा है और वे इनके प्रति कब तक समर्पित बने रहेंगे? उन्हें इस बारे में गहराई से सोचने की जरूरत है कि उनकी ताजा गतिविधियों का परिणाम क्या रहा। क्या ये दल केंद्र या राज्य में पहले से बड़ी राजनैतिक शक्ति बनकर उभरे हैं? क्या उन्होंने अपनी राजनैतिक साख, लोकिप्रयता या विश्वसनीयता में बढ़ोत्तरी की है? प्रकाश करात और उनके मित्र वामपंथी नेताओं को जब तक अपनी राजनैतिक भूलों का अहसास होगा तब तक उनके दल अपनी राष्ट्रीय प्रासंगिकता खो चुके होंगे। उनके प्रयासों से बना तीसरा मोर्चा पहले ही धराशायी हो चुका है। पारंपरिक आधार वाले राज्यों में उनका अपना आधार भी खिसक रहा है।
बंगाल के जमीनी हालात सिर्फ इसलिए नहीं बदल जाएंगे कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने परमाणु करार का विरोध किया है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का किला दरक रहा है और उसके पीछे परमाणु करार जैसे कारण नहीं हैं। उसके पीछे हैं वहां की जमीनी सच्चाइयां जो नंदीग्राम और सिंगुर कांडों के जरिए सामने आई हैं। पहली बार वहां के आम मतदाता को अहसास हुआ है कि वह राज्य के कोने-कोने में फैले वामपंथी कार्यकर्ताओं की मनमानी का शिकार होने के लिए अभिशप्त नहीं है। वह लोकतांत्रिक माध्यमों से अपने प्रतिरोध को अभिव्यक्त कर सकता है। नंदीग्राम में एक ओर जनता थी और दूसरी तरफ सरकार तथा पार्टी की ताकत। नतीजा सामने है। जून में पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत समिति और ग्राम पंचायत चुनावों के नतीजों ने वाम दलों के पैरों तले जमीन खिसका दी है। पूर्वी मिदनापुर, चौबीस परगना (उत्तर), चौबीस परगना (दक्षिण), नादिया और उत्तरी दिनाजपुर जिलों में कम्युनिस्ट दलों का करीब-करीब सफाया हो गया। पिछले तीन दशकों में कभी भी उन्हें ऐसी हालत का सामना नहीं करना पड़ा था।
पश्चिम बंगाल में वामपंथी जमीन पर तृणमूल कांग्रेस, भाजपा और कांग्रेस की फसल खड़ी हो रही है। यदि आज चुनाव होते हैं तो पश्चिम बंगाल में वाम दलों की तीस फीसदी सीटों का सफाया हो सकता है। प्रकाश करात और बुद्धदेव भट्टाचार्य राज्य के ताजा नतीजों से अंजान नहीं हैं। न सीताराम येचुरी तथा एबी बर्धन ही जमीनी हालात से नावाकिफ हैं जिन्होंने संकेत दिया है कि अगले चुनावों के बाद भी उनकी पार्टियां कांग्रेस के साथ तालमेल कर सकती हैं। यदि ऐसा है तो फिर यह सब किसलिए? सिर्फ डॉ. मनमोहन सिंह की पराजय सुनिश्चित करने के लिए? सिर्फ चंद नेताओं के किताबी सिद्धांतों और राजनैतिक अहं को जायज ठहराने के लिए? यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्वास मत सिर्फ डॉ. मनमोहन सिंह के लिए नहीं है। यदि सरकार मौजूदा संकट से सकुशल बाहर निकल जाती है तो प्रकाश करात और एबी वर्धन जैसे अप्रासंगिक हो चुके नेताओं का लंबे समय तक शीर्ष पर टिके रहना आसान नहीं होगा।
यदि आज लोकसभा चुनाव होते हैं तो हो सकता है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन लाभ की स्थिति में सामने आए। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को भी शायद उतना नुकसान न हो जितना कि सपा के विपरीत खेमे में रहने की स्थिति में होता। यहां तक कि समाजवादी पार्टी भी अपनी पूरी तरह डूबती दिखती नैया को थोड़ा-बहुत संभाल लेगी। बसपा की सीटों में काफी वृद्धि होने ही वाली है। तो फिर नुकसान किसका होगा? उन दलों का, जिनका नेतृत्व चुनावी राजनीति का सबसे कम अनुभव रखने वाले दो नेता कर रहे हैं। उन्होंने अपने आचरण से लोगों को स्वाधीनता आंदोलन, द्वितीय विश्व युद्ध, भारत-चीन युद्ध और इमरजेंसी जैसे मौकों पर की गई ऐतिहासिक भूलों की याद दिला दी है। उन्होंने लोगों की इस धारणा को एक बार फिर प्रबल किया है कि राष्ट्रीय आपत्तिकाल में उनका आचरण राष्ट्र के हित में नहीं रहता। क्या यही वह छवि है जिसे बनाने के लिए उन्होंने यह सब किया? यह छवि निर्माण, उन्हें राजनैतिक लाभ देगा या क्षेत्रीय दलों की श्रेणी में ला खड़ा करेगा, इसका आकलन करना बहुत मुश्किल नहीं है।
भले ही वाम नेता कहते रहें कि वे भारत की संप्रभुता और स्वतंत्र विदेश नीति को बचाने की खातिर यह सब कर रहे हैं, पिछले दो-तीन हफ्तों के आचरण ने साफ कर दिया है कि परमाणु करार के खिलाफ उनके अभियान की एक स्पष्ट राजनैतिक दिशा है। यह दिशा सही है या गलत, वास्तविकताओं पर आधारित है या कल्पनाओं पर, कहा नहीं जा सकता। लेकिन सारे घटनाक्रम के पीछे एक राजनैतिक एजेंडा है।
वामपंथी दलों की तरफ से आया यह बयान, कि परमाणु करार का समर्थन करने पर समाजवादी पार्टी मुस्लिम जनता का समर्थन खो देगी, राजनैतिक दांव-पेंच को आजमाने का पहला बड़ा संकेत था। यदि वे भारत के अंतरराष्ट्रीय हितों और संप्रभुता के लिहाज से सोचते रहे थे तो इस तरह का धार्मिक कोण वाला विभाजनकारी राजनैतिक बयान देने की जरूरत कैसे पैदा हुई? उन्हें परमाणु करार को भारतीय मतदाता, खासकर मुस्लिम मतदाता के साथ जोड़ना क्यों जरूरी लगा? इसका अर्थ यह हुआ कि यदि कोई समुदाय विशेष राष्ट्रहित के किसी फैसले का विरोध करे तो उसे छोड़ दिया जाना चाहिए? ये वही वामपंथी नेता हैं जो कुछ महीने पहले किए गए सर्वेक्षणों के नतीजों पर टिप्पणी करते हुए कह चुके थे कि भले ही भारत के अधिसंख्य लोग परमाणु करार का समर्थन करें, वे इसका विरोध करते रहेंगे क्योंकि लोग नहीं जानते कि देश के हित में क्या है और क्या नहीं। ऐसे कामरेडों को मुलायम सिंह यादव का ध्यान इस ओर खींचने की जरूरत क्यों पड़ गई कि वे परमाणु डील की नहीं बल्कि अपने मुस्लिम वोट बैंक की फिक्र करें?
पिछले सप्ताह वामपंथी दलों की रैली को संबोधित करते हुए माकपा महासचिव प्रकाश करात ने करार के विरोध के पीछे राजनैतिक निहितार्थ होने की बात और साफ कर दी जब उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को परमाणु करार को मुद्दा बनाकर लोकसभा चुनाव लड़ने की चुनौती दी। वे शायद यह भूल गए कि आज भी पिचहत्तर फीसदी भारत गांवों में रहता है और हमारी चालीस फीसदी आबादी अनपढ़ है। ऐसे में कौन मतदाता परमाणु करार के बारे में जानता है? कौन मतदाता इसके भावी प्रभावों को समझते हुए फैसला कर सकता है? और क्या उसका फैसला वास्तव में इस सौदे पर जनता की ठीक-ठीक धारणा को अभिव्यक्त करेगा? और यदि मतदाता ऐसा करने में सक्षम भी हो तो क्या देश का हर फैसला चुनावी लाभ-हानि के हिसाब से ही किया जाना चाहिए? डॉ. मनमोहन सिंह ने तो इस बयान की उपेक्षा करना ही उचित समझा लेकिन आम भारतीय के सामने श्री करात की विचारधारा अवश्य साफ हो गई। उन्होंने साफ कर दिया कि वे परमाणु सौदे को चुनावी राजनीति के चश्मे से देख रहे हैं, राष्ट्र हित के लिहाज से नहीं, जैसा कि पिछले कई वर्षों से दावा किया जा रहा है।
जिन वामपंथी दलों का लक्ष्य परमाणु करार को रोकना था, उनका लक्ष्य सरकार गिराना बन गया है। अब संप्रग सरकार के सभी विरोधी उनके मित्र हो गये हैं भले ही उनकी विचारधारा, राजनैतिक इतिहास, छवि या पृष्ठभूमि कुछ भी हो। भले ही वे धार्मिक आधार पर परमाणु सौदे के खिलाफ लोगों को भड़का रहे हों, सब जायज है। भले ही भ्रष्टाचार और अपराधों की लंबी सूची उनके साथ जुड़ी हो, सब जायज है। भले ही उनके खिलाफ तानाशाही के आरोप हों, सब जायज है। छोिड़ए सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को, अब सब वाम दलों के मित्र हो गए हैं। विचारधारा पर आधारित होने का दावा करने वाले दल अवसरवादी राजनीति में सबसे ज्यादा सक्रिय दिखने की होड़ में लगे हैं। क्या इस ऐतिहासिक मौके पर वे इस बारे में रोशनी डालेंगे कि उनके नए राजनैतिक गठबंधनों का भविष्य कितना लंबा है और वे इनके प्रति कब तक समर्पित बने रहेंगे? उन्हें इस बारे में गहराई से सोचने की जरूरत है कि उनकी ताजा गतिविधियों का परिणाम क्या रहा। क्या ये दल केंद्र या राज्य में पहले से बड़ी राजनैतिक शक्ति बनकर उभरे हैं? क्या उन्होंने अपनी राजनैतिक साख, लोकिप्रयता या विश्वसनीयता में बढ़ोत्तरी की है? प्रकाश करात और उनके मित्र वामपंथी नेताओं को जब तक अपनी राजनैतिक भूलों का अहसास होगा तब तक उनके दल अपनी राष्ट्रीय प्रासंगिकता खो चुके होंगे। उनके प्रयासों से बना तीसरा मोर्चा पहले ही धराशायी हो चुका है। पारंपरिक आधार वाले राज्यों में उनका अपना आधार भी खिसक रहा है।
बंगाल के जमीनी हालात सिर्फ इसलिए नहीं बदल जाएंगे कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने परमाणु करार का विरोध किया है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का किला दरक रहा है और उसके पीछे परमाणु करार जैसे कारण नहीं हैं। उसके पीछे हैं वहां की जमीनी सच्चाइयां जो नंदीग्राम और सिंगुर कांडों के जरिए सामने आई हैं। पहली बार वहां के आम मतदाता को अहसास हुआ है कि वह राज्य के कोने-कोने में फैले वामपंथी कार्यकर्ताओं की मनमानी का शिकार होने के लिए अभिशप्त नहीं है। वह लोकतांत्रिक माध्यमों से अपने प्रतिरोध को अभिव्यक्त कर सकता है। नंदीग्राम में एक ओर जनता थी और दूसरी तरफ सरकार तथा पार्टी की ताकत। नतीजा सामने है। जून में पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत समिति और ग्राम पंचायत चुनावों के नतीजों ने वाम दलों के पैरों तले जमीन खिसका दी है। पूर्वी मिदनापुर, चौबीस परगना (उत्तर), चौबीस परगना (दक्षिण), नादिया और उत्तरी दिनाजपुर जिलों में कम्युनिस्ट दलों का करीब-करीब सफाया हो गया। पिछले तीन दशकों में कभी भी उन्हें ऐसी हालत का सामना नहीं करना पड़ा था।
पश्चिम बंगाल में वामपंथी जमीन पर तृणमूल कांग्रेस, भाजपा और कांग्रेस की फसल खड़ी हो रही है। यदि आज चुनाव होते हैं तो पश्चिम बंगाल में वाम दलों की तीस फीसदी सीटों का सफाया हो सकता है। प्रकाश करात और बुद्धदेव भट्टाचार्य राज्य के ताजा नतीजों से अंजान नहीं हैं। न सीताराम येचुरी तथा एबी बर्धन ही जमीनी हालात से नावाकिफ हैं जिन्होंने संकेत दिया है कि अगले चुनावों के बाद भी उनकी पार्टियां कांग्रेस के साथ तालमेल कर सकती हैं। यदि ऐसा है तो फिर यह सब किसलिए? सिर्फ डॉ. मनमोहन सिंह की पराजय सुनिश्चित करने के लिए? सिर्फ चंद नेताओं के किताबी सिद्धांतों और राजनैतिक अहं को जायज ठहराने के लिए? यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्वास मत सिर्फ डॉ. मनमोहन सिंह के लिए नहीं है। यदि सरकार मौजूदा संकट से सकुशल बाहर निकल जाती है तो प्रकाश करात और एबी वर्धन जैसे अप्रासंगिक हो चुके नेताओं का लंबे समय तक शीर्ष पर टिके रहना आसान नहीं होगा।
यदि आज लोकसभा चुनाव होते हैं तो हो सकता है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन लाभ की स्थिति में सामने आए। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को भी शायद उतना नुकसान न हो जितना कि सपा के विपरीत खेमे में रहने की स्थिति में होता। यहां तक कि समाजवादी पार्टी भी अपनी पूरी तरह डूबती दिखती नैया को थोड़ा-बहुत संभाल लेगी। बसपा की सीटों में काफी वृद्धि होने ही वाली है। तो फिर नुकसान किसका होगा? उन दलों का, जिनका नेतृत्व चुनावी राजनीति का सबसे कम अनुभव रखने वाले दो नेता कर रहे हैं। उन्होंने अपने आचरण से लोगों को स्वाधीनता आंदोलन, द्वितीय विश्व युद्ध, भारत-चीन युद्ध और इमरजेंसी जैसे मौकों पर की गई ऐतिहासिक भूलों की याद दिला दी है। उन्होंने लोगों की इस धारणा को एक बार फिर प्रबल किया है कि राष्ट्रीय आपत्तिकाल में उनका आचरण राष्ट्र के हित में नहीं रहता। क्या यही वह छवि है जिसे बनाने के लिए उन्होंने यह सब किया? यह छवि निर्माण, उन्हें राजनैतिक लाभ देगा या क्षेत्रीय दलों की श्रेणी में ला खड़ा करेगा, इसका आकलन करना बहुत मुश्किल नहीं है।
Thursday, July 17, 2008
कामरेडों ने पार्टी का प्रहसन बना डाला
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
केंद्र सरकार से समर्थन खींचकर वामपंथी दल मौजूदा राजनीति को जिस मोड़ पर ले आए हैं उससे क्या इनमें से कोई भी मकसद पूरा होता दिखाई देता है? विश्वास मत में सरकार गिरे या बचे, परमाणु करार का होना तो अवश्यंभावी है।
बाईस जुलाई को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के भविष्य का फैसला हो जाएगा। विश्वास मत के दौरान जीवन भर परस्पर राजनैतिक विरोधी रहे कई नेता साथ खड़े दिखाई देंगे तो एक दूसरे को स्वाभाविक मित्र मानने वाले सियासतदान परस्पर विपरीत खेमों में तर्क-वितर्क करते नजर आएंगे। चाहे कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का साथ आना हो, या फिर वामपंथी पार्टियों, भाजपा और मायावती द्वारा साथ वोट देने का संकल्प लेना हो, राजनीति नए और अनूठे रंग दिखा रही है। जिस राजनैतिक तमाशे पर हम भारत के लोकतांत्रिक और राजनैतिक भविष्य को दांव पर लगाने जा रहे हैं उसके परिणामों के बारे में अंतिम समय तक कुछ नहीं कहा जा सकता। पता नहीं, सरकार का क्या होगा। पता नहीं, विपक्षी दलों का क्या होगा। लेकिन एक बात, जो सबको बहुत पहले से पता है, वह यह कि विश्वास मत की सारी कवायद का सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं वामपंथी दलों को होगा जो इसके सूत्रधार हैं।
मौजूदा राजनैतिक घटनाक्रम के बरक्स वामपंथी दलों के तात्कालिक राजनैतिक लक्ष्य क्या हो सकते हैं? पिछले चार साल की वामपंथी राजनीति, वाम प्रभाव वाले राज्यों के ताजा राजनैतिक परिदृश्य और उनकी विचारधारात्मक प्रतिबद्धताओं के आधार पर वामपंथी नेताओं की इच्छाएं और आकांक्षाएं स्पष्ट हैं। पहली यह कि भारत और अमेरिका के बीच किसी भी हालत में परमाणु करार न होने पाए क्योंकि `यह हमें अमेरिका का पिछलग्गू बना देगा।` दूसरे, आज के हालात में चुनाव की आशंका को लेकर भी वे आशंकित हैं और उन्हें जितना हो सके, टालना चाहते हैं। तीसरे, कामरेड प्रकाश करात और कामरेड एबी वर्धन के अडिग अमेरिका विरोध तथा दृढ़ सैद्धांतिक दृष्टिकोण की बदौलत शायद पारंपरिक वाम प्रभाव वाले क्षेत्रों में कम्युनिस्टों की स्थिति बेहतर हो। यह दिखाने की भरसक कोशिश भी की गई है कि परमाणु करार और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के प्रति उनका विरोध राष्ट्र के हित में उठाया गया एक अनिवार्य कदम है जिसका किसी भी किस्म के राजनैतिक स्वार्थों से कोई संबंध नहीं है।
केंद्र सरकार से समर्थन खींचकर वामपंथी दल मौजूदा राजनीति को जिस मोड़ पर ले आए हैं उससे क्या इनमें से कोई भी मकसद पूरा होता दिखाई देता है? विश्वास मत में सरकार गिरे या बचे, परमाणु करार का होना तो अवश्यंभावी है। संप्रग सरकार बची तब तो परमाणु करार का होना तय है ही, उसके गिरने पर भी हालात कौनसे बदलने वाले हैं? अगले चुनाव के बाद यदि संप्रग की नहीं, राजग की सरकार आती है तब भी तो करार होगा? भाजपा खुद कह चुकी है कि उसे इसके कुछ प्रावधानों पर ही आपत्ति है जिन्हें ठीक कर लिए जाने पर वह इसे समर्थन दे सकती है। पूर्व अमेरिकी उपविदेशमंत्री स्ट्राब टालबट रहस्योद्धाटन कर चुके हैं कि तत्कालीन राजग सरकार तो इससे भी कम रियायतों के साथ परमाणु समझौता करने को तैयार थी! उधर वामदलों की चुनाव चिंता भी कहीं नहीं टिकती। सरकार गिरी और चुनाव आए। तब एबी वर्धन के इस बयान का क्या होगा कि देश फिलहाल चुनाव के लिए तैयार नहीं है।
क्या विडंबना है! पासा इस तरफ पड़े या उस तरफ, फैसला तो वाम दलों के खिलाफ ही होने जा रहा है। न वे परमाणु करार को स्थायी रूप से रोक पाएंगे, न चुनाव टाल पाएंगे और न ही अपनी कुंद पड़ती राजनैतिक शक्ति को ही पुनर्जीवित कर पाएंगे क्योंकि उनका फैसला राष्ट्रीय विकास प्रक्रिया के प्रतिकूल तो है ही, उसमें राजनैतिक गहराई का भी अभाव है। आखिर क्या कारण है कि उन्हें वह सब दिखाई नहीं दे रहा जो इस देश के सामान्य से नागरिक को भी दिखाई दे रहा है? न उन्हें भारत की आर्थिक तरक्की दिख रही है और न ही उसकी जरूरतें। न उन्हें देश के सकल घरेलू उत्पाद से कोई सरोकार है और न ही शेयर बाजार के धराशायी होने में (बकौल एबी बर्धन, सेन्सेक्स जाए भाड़ में!)। वामपंथी दल भारतीय जनमानस से इतने कटे हुए क्यों हैं? वे बदले हुए विश्व में भी, अमेरिका को तमाम बुराइयों की जड़ मानते हैं। एकध्रुवीय विश्व में भी, जिसमें अमेरिका विश्व राजनीति की एक असलियत है जिसके विरोध में फिलहाल खुले रूप में कोई नहीं। जिसके खिलाफ खड़े होने के लिए कोई कैंप ही मौजूद नहीं है और जिसके खिलाफ खड़ा होना हमारी मौजूदा आर्थिक-राजनैतिक जरूरतों को भी सूट नहीं करता। कुछ दिनों बाद जब वाम दलों का सैद्धांतिक गुरु चीन ही परमाणु सप्लाईकर्ता समूह में भारत-अमेरिका करार के पक्ष में वोट डाल देगा (जिसके संकेत उसने पहले ही दे दिए हैं), तब हमारे वामपंथी दल किस सैद्धांतिक आधार पर अपने नजरिए को सही सिद्ध करेंगे?
केंद्र सरकार से समर्थन खींचकर वामपंथी दल मौजूदा राजनीति को जिस मोड़ पर ले आए हैं उससे क्या इनमें से कोई भी मकसद पूरा होता दिखाई देता है? विश्वास मत में सरकार गिरे या बचे, परमाणु करार का होना तो अवश्यंभावी है।
बाईस जुलाई को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के भविष्य का फैसला हो जाएगा। विश्वास मत के दौरान जीवन भर परस्पर राजनैतिक विरोधी रहे कई नेता साथ खड़े दिखाई देंगे तो एक दूसरे को स्वाभाविक मित्र मानने वाले सियासतदान परस्पर विपरीत खेमों में तर्क-वितर्क करते नजर आएंगे। चाहे कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का साथ आना हो, या फिर वामपंथी पार्टियों, भाजपा और मायावती द्वारा साथ वोट देने का संकल्प लेना हो, राजनीति नए और अनूठे रंग दिखा रही है। जिस राजनैतिक तमाशे पर हम भारत के लोकतांत्रिक और राजनैतिक भविष्य को दांव पर लगाने जा रहे हैं उसके परिणामों के बारे में अंतिम समय तक कुछ नहीं कहा जा सकता। पता नहीं, सरकार का क्या होगा। पता नहीं, विपक्षी दलों का क्या होगा। लेकिन एक बात, जो सबको बहुत पहले से पता है, वह यह कि विश्वास मत की सारी कवायद का सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं वामपंथी दलों को होगा जो इसके सूत्रधार हैं।
मौजूदा राजनैतिक घटनाक्रम के बरक्स वामपंथी दलों के तात्कालिक राजनैतिक लक्ष्य क्या हो सकते हैं? पिछले चार साल की वामपंथी राजनीति, वाम प्रभाव वाले राज्यों के ताजा राजनैतिक परिदृश्य और उनकी विचारधारात्मक प्रतिबद्धताओं के आधार पर वामपंथी नेताओं की इच्छाएं और आकांक्षाएं स्पष्ट हैं। पहली यह कि भारत और अमेरिका के बीच किसी भी हालत में परमाणु करार न होने पाए क्योंकि `यह हमें अमेरिका का पिछलग्गू बना देगा।` दूसरे, आज के हालात में चुनाव की आशंका को लेकर भी वे आशंकित हैं और उन्हें जितना हो सके, टालना चाहते हैं। तीसरे, कामरेड प्रकाश करात और कामरेड एबी वर्धन के अडिग अमेरिका विरोध तथा दृढ़ सैद्धांतिक दृष्टिकोण की बदौलत शायद पारंपरिक वाम प्रभाव वाले क्षेत्रों में कम्युनिस्टों की स्थिति बेहतर हो। यह दिखाने की भरसक कोशिश भी की गई है कि परमाणु करार और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के प्रति उनका विरोध राष्ट्र के हित में उठाया गया एक अनिवार्य कदम है जिसका किसी भी किस्म के राजनैतिक स्वार्थों से कोई संबंध नहीं है।
केंद्र सरकार से समर्थन खींचकर वामपंथी दल मौजूदा राजनीति को जिस मोड़ पर ले आए हैं उससे क्या इनमें से कोई भी मकसद पूरा होता दिखाई देता है? विश्वास मत में सरकार गिरे या बचे, परमाणु करार का होना तो अवश्यंभावी है। संप्रग सरकार बची तब तो परमाणु करार का होना तय है ही, उसके गिरने पर भी हालात कौनसे बदलने वाले हैं? अगले चुनाव के बाद यदि संप्रग की नहीं, राजग की सरकार आती है तब भी तो करार होगा? भाजपा खुद कह चुकी है कि उसे इसके कुछ प्रावधानों पर ही आपत्ति है जिन्हें ठीक कर लिए जाने पर वह इसे समर्थन दे सकती है। पूर्व अमेरिकी उपविदेशमंत्री स्ट्राब टालबट रहस्योद्धाटन कर चुके हैं कि तत्कालीन राजग सरकार तो इससे भी कम रियायतों के साथ परमाणु समझौता करने को तैयार थी! उधर वामदलों की चुनाव चिंता भी कहीं नहीं टिकती। सरकार गिरी और चुनाव आए। तब एबी वर्धन के इस बयान का क्या होगा कि देश फिलहाल चुनाव के लिए तैयार नहीं है।
क्या विडंबना है! पासा इस तरफ पड़े या उस तरफ, फैसला तो वाम दलों के खिलाफ ही होने जा रहा है। न वे परमाणु करार को स्थायी रूप से रोक पाएंगे, न चुनाव टाल पाएंगे और न ही अपनी कुंद पड़ती राजनैतिक शक्ति को ही पुनर्जीवित कर पाएंगे क्योंकि उनका फैसला राष्ट्रीय विकास प्रक्रिया के प्रतिकूल तो है ही, उसमें राजनैतिक गहराई का भी अभाव है। आखिर क्या कारण है कि उन्हें वह सब दिखाई नहीं दे रहा जो इस देश के सामान्य से नागरिक को भी दिखाई दे रहा है? न उन्हें भारत की आर्थिक तरक्की दिख रही है और न ही उसकी जरूरतें। न उन्हें देश के सकल घरेलू उत्पाद से कोई सरोकार है और न ही शेयर बाजार के धराशायी होने में (बकौल एबी बर्धन, सेन्सेक्स जाए भाड़ में!)। वामपंथी दल भारतीय जनमानस से इतने कटे हुए क्यों हैं? वे बदले हुए विश्व में भी, अमेरिका को तमाम बुराइयों की जड़ मानते हैं। एकध्रुवीय विश्व में भी, जिसमें अमेरिका विश्व राजनीति की एक असलियत है जिसके विरोध में फिलहाल खुले रूप में कोई नहीं। जिसके खिलाफ खड़े होने के लिए कोई कैंप ही मौजूद नहीं है और जिसके खिलाफ खड़ा होना हमारी मौजूदा आर्थिक-राजनैतिक जरूरतों को भी सूट नहीं करता। कुछ दिनों बाद जब वाम दलों का सैद्धांतिक गुरु चीन ही परमाणु सप्लाईकर्ता समूह में भारत-अमेरिका करार के पक्ष में वोट डाल देगा (जिसके संकेत उसने पहले ही दे दिए हैं), तब हमारे वामपंथी दल किस सैद्धांतिक आधार पर अपने नजरिए को सही सिद्ध करेंगे?
Monday, July 14, 2008
चुनावों तक काबू न आई तो भारी पड़ेगी महंगाई
आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया एक निरंतर प्रक्रिया है जिसका इस बात से अधिक संबंध नहीं है कि केंद्र में कौन सत्तारूढ़ होता है। इसे मजबूत बनाने और आने वाली सरकार के लिए मजबूत आर्थिक बुनियाद छोड़कर जाने की जिम्मेदारी मनमोहन सिंह की सरकार की है। ठीक उसी तरह, जैसे राजग सरकार ने उसे एक मजबूत अर्थव्यवस्था विरासत में दी थी।
विश्वास मत हासिल कर लेने की स्थिति में मनमोहन सिंह सरकार का पहला कदम तो स्वाभाविक रूप से परमाणु करार को क्रियािन्वत करना होगा। इस करार पर अमल से भारतीय अर्थव्यवस्था और विकास-प्रक्रिया को दूरगामी लाभ होंगे, वह भारत को परमाणु-अस्पृश्यता से मुक्त करेगा और विश्व मंच पर भारत का कद व प्रतिष्ठा दोनों बढ़ेंगे। इसका कुछ न कुछ राजनैतिक लाभ संप्रग को भारत में भी होगा लेकिन यदि वह इस मुद्दों पर चुनाव जीतने की आकांक्षा पाले हुए है तो मतदाता उसे बड़ा झटका दे सकता है। गांव-कस्बे में रहने वाला आम आदमी, जो हमारी लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया की धुरी है, ऐसे ऊंचे-ऊंचे मुद्दों और उपलब्धियों के बारे में न तो बहुत जागरूक है और न ही इनसे बहुत प्रभावित ही होता है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार आर्थिक-सामरिक उपलब्धियों और विकास के मुद्दे को उठाकर मुंह की खा चुकी है। परमाणु विस्फोट, कारगिल विजय और आर्थिक विकास की उसकी उपलब्धियों पर मतदाता ने ऐसे आंखें फेर ली थीं जैसे कुछ हुआ ही न हो। सकारात्मक और विकासात्मक मुद्दों पर जनादेश का अनुपस्थित रहना हमारे लोकतंत्र की विडंबना है लेकिन अभी कुछ दशकों तक वह ऐसे ही रहने वाला है। किसी भी सत्ताधारी दल को यदि चुनाव में जाना है तो बुनियादी मुद्दों को लेकर जाना उसकी मजबूरी है। ऐसे मुद्दों को, जिनसे हमारा आम मतदाता भावनात्मक या व्यावहारिक लिहाज से जुड़ा हुआ है। इंदिरा गांधी का `गरीबी हटाओ` से लेकर भाजपा का राम मंदिर आंदोलन इसके उदाहरण हैं।
डॉ. सिंह को नहीं भूलना चाहिए कि देश में जारी आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया एक निरंतर प्रक्रिया है जिसका इस बात से अधिक संबंध नहीं है कि केंद्र में कौन सत्तारूढ़ होता है। पिछले दशक के शुरू में हमने इस मार्ग पर चलने का राष्ट्रीय निर्णय लिया था, जिस पर पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी की परस्पर विपरीत विचारधारा वाली सरकारें भी मुस्तैदी के साथ चलती रही थीं। उस परंपरा को मजबूत बनाने और आने वाली सरकार के लिए मजबूत आर्थिक बुनियाद छोड़कर जाने की जिम्मेदारी मनमोहन सिंह की सरकार की है। ठीक उसी तरह, जैसे राजग सरकार ने उसे एक मजबूत अर्थव्यवस्था विरासत में दी थी। पार्टीगत दायित्व पूरे हुए, केंद्र सरकार को अब अपने वृहद् राष्ट्रीय दायित्वों को संभालने की जरूरत है।
मनमोहन सिंह सरकार को अपने बचे हुए कार्यकाल में सबसे बड़ा हमला महंगाई पर करना होगा। मौजूदा मुद्रास्फीति घरेलू कारणों पर उतनी निर्भर नहीं है जितनी कि अंतरराष्ट्रीय कारणों, विशेष कर वैश्विक मंदी और तेल की कीमतों पर। लेकिन यहीं पर प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री पी चिदंबरम और रिजर्व बैंक के गवर्नर वाईवी रेड्डी के आर्थिक नेतृत्व की परीक्षा है। उन्हें मुद्रास्फीति-कारक अंतरराष्ट्रीय कारकों का प्रभाव न्यूनतम करने और राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत नियंत्रक तंत्र स्थापित करने की जरूरत है। उद्योग जगत और अन्य राजनैतिक दलों को विश्वास में लेते हुए महंगाई पर चौतरफा हमला किए जाने की जरूरत है। जमाखोरों, वायदा कारोबारियों, अटकलबाजों (स्पेक्यूलेटरों) और अन्य निहित स्वार्थी तत्वों के खिलाफ आक्रामक कारZवाई (गिरफ्तारियां और जब्ती), जहां जरूरी हो वहां सिब्सडी की बहाली, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए गरीब भारतीय को राहत, ब्याज दरों को मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार समायोजित करने और अन्य मौद्रिक व वित्तीय कदमों को अब बिना किसी देरी के उठाया जाना चाहिए। केंद्र सरकार को इंद्रदेव को धन्यवाद देना चाहिए कि इस बार मानसून अच्छा है और भारत में अनाज की बम्पर पैदावार के आसार हैं जो मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में स्वाभाविक रूप से मददगार सिद्ध होगा। लेकिन यदि महंगाई बनी रही तो मतदाता उसे माफ नहीं करेगा। डॉ. सिंह की सरकार को याद रखना चाहिए कि भले ही मुद्रास्फीति एक विश्वव्यापी समस्या हो, भले ही रूस (14 फीसदी), ईरान (26 फीसदी), चीन (9 फीसदी), वेनेजुएला (29 फीसदी), अर्जेंटीना (23 फीसदी) और खाड़ी देश भी उससे पीड़ित हों लेकिन भारतीय मतदाता इसके लिए सिर्फ उसी को जिम्मेदार ठहराएगा और उसी को दंडित करेगा। खासकर उस स्थिति में, जब सारे के सारे दल विश्वव्यापी परिस्थितियों से अवगत होते हुए भी इस मुद्दे को सरकारी नाकामी के रूप में पेश करने के लिए उतावले हैं।
सरकार ने राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना और किसानों की ऋण माफी जैसे बड़े कदम उठाकर यह साफ किया है कि बाजार अर्थव्यवस्था और सामाजिक उत्तरदायित्वों के बीच संतुलन बनाना असंभव नहीं। इन योजनाओं से समाज के निम्नतम तबके को जिस तरह की आर्थिक सुरक्षा और राहत मिली है उसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव है। मेरे पिछले राजस्थान दौरे में ग्रामीणों ने उत्सुक, प्रसन्न लोगों ने मुझसे पूछा था कि क्या सरकार के पास इतनी बड़ी योजना (नरेगा) को चलाए रखने के लिए जरूरी धन है? उन्हें चिंता थी कि क्या केंद्र सरकार इसे लगातार चलाए रख सकेगी? क्या वह ऐसी मजबूत आर्थिक स्थिति में है? बिचौलियों और लालफीताशाही संबंधी तमाम समस्याओं और सीमाओं के बावजूद यह योजना उन्हें सीधे आर्थिक राहत पहुंचाने में सफल हुई है। सरकार को आम आदमी के सशक्तीकरण के प्रयास जारी रखने चाहिए क्योंकि समाज की निम्नतम इकाई को मजबूत बनाए बिना कोई भी अर्थव्यवस्था स्थायी रूप से समृद्ध नहीं हो सकती। आने वाले कुछ महीनों में सरकार को हर दुखी, त्रस्त, कमजोर नागरिक को राहत देने की कोशिश करनी चाहिए। चाहे वह बुंदेलखंड का भूखा किसान हो, उड़ीसा-बंगाल का बाढ़ पीड़ित या फिर विदर्भ व तेलंगाना का किसान। यदि देश में कोई भूखा सोता है तो हमारी आर्थिक समृद्धि निरर्थक और ढोंग ही सिद्ध होगी।
महंगाई पर रोक लगाने के साथ-साथ सरकार को आर्थिक सुधारों का अपना एजेंडा पूरा करने का भी मौका मिल रहा है। आर्थिक विकास की दर आज भी 8.6 फीसदी के आसपास है जो आश्वस्त करती है कि हमारी अर्थव्यवस्था का उत्तम स्वास्थ्य और मजबूती बरकरार है। बहरहाल, औद्योगिक विकास दर में आ रही गिरावट को फौरन दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। वामपंथी दलों ने आम आदमी को लाभ पहुंचाने वाली कई अच्छी योजनाओं के लिए केंद्र सरकार को प्रेरित किया जिसका श्रेय उन्हें दिया जाना चाहिए लेकिन उन्होंने सरकार की बहुत सारी आर्थिक पहलों को लाल झंडी दिखाई हुई थी। मुनाफा कमा रहे सरकारी उपक्रमों की आंशिक हिस्सेदारी की बिक्री, रिटेल क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजीनिवेश संबंधी नियमों को उदार बनाने, श्रमिक सुधार, बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश, बैंक सुधार विधेयक को मंजूरी, पेंशन कोश नियामक की स्थापना जैसे जिन अहम आर्थिक फैसलों को वामपंथी दलों ने रोका हुआ था, उन्हें अविलम्ब मंजूरी दी जा सकती है। आम आदमी और मेहनतकश लोगों के साथ वामपंथी दलों के सरोकार बहुत सराहनीय हैं लेकिन उदारीकरण की जिस प्रक्रिया पर हम डेढ़ दशक पहले चल निकले थे उसे अब रास्ते में नहीं छोड़ा जा सकता और इस मामले में सरकार को लाल नहीं बल्कि हरी झंडी दिखाए जाने की जरूरत है। सरकार के नए दोस्तों (समाजवादी पार्टी) के झंडे में हरे रंग की मौजूदगी शायद उसी दिशा में संकेत कर रही है।
विश्वास मत हासिल कर लेने की स्थिति में मनमोहन सिंह सरकार का पहला कदम तो स्वाभाविक रूप से परमाणु करार को क्रियािन्वत करना होगा। इस करार पर अमल से भारतीय अर्थव्यवस्था और विकास-प्रक्रिया को दूरगामी लाभ होंगे, वह भारत को परमाणु-अस्पृश्यता से मुक्त करेगा और विश्व मंच पर भारत का कद व प्रतिष्ठा दोनों बढ़ेंगे। इसका कुछ न कुछ राजनैतिक लाभ संप्रग को भारत में भी होगा लेकिन यदि वह इस मुद्दों पर चुनाव जीतने की आकांक्षा पाले हुए है तो मतदाता उसे बड़ा झटका दे सकता है। गांव-कस्बे में रहने वाला आम आदमी, जो हमारी लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया की धुरी है, ऐसे ऊंचे-ऊंचे मुद्दों और उपलब्धियों के बारे में न तो बहुत जागरूक है और न ही इनसे बहुत प्रभावित ही होता है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार आर्थिक-सामरिक उपलब्धियों और विकास के मुद्दे को उठाकर मुंह की खा चुकी है। परमाणु विस्फोट, कारगिल विजय और आर्थिक विकास की उसकी उपलब्धियों पर मतदाता ने ऐसे आंखें फेर ली थीं जैसे कुछ हुआ ही न हो। सकारात्मक और विकासात्मक मुद्दों पर जनादेश का अनुपस्थित रहना हमारे लोकतंत्र की विडंबना है लेकिन अभी कुछ दशकों तक वह ऐसे ही रहने वाला है। किसी भी सत्ताधारी दल को यदि चुनाव में जाना है तो बुनियादी मुद्दों को लेकर जाना उसकी मजबूरी है। ऐसे मुद्दों को, जिनसे हमारा आम मतदाता भावनात्मक या व्यावहारिक लिहाज से जुड़ा हुआ है। इंदिरा गांधी का `गरीबी हटाओ` से लेकर भाजपा का राम मंदिर आंदोलन इसके उदाहरण हैं।
डॉ. सिंह को नहीं भूलना चाहिए कि देश में जारी आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया एक निरंतर प्रक्रिया है जिसका इस बात से अधिक संबंध नहीं है कि केंद्र में कौन सत्तारूढ़ होता है। पिछले दशक के शुरू में हमने इस मार्ग पर चलने का राष्ट्रीय निर्णय लिया था, जिस पर पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी की परस्पर विपरीत विचारधारा वाली सरकारें भी मुस्तैदी के साथ चलती रही थीं। उस परंपरा को मजबूत बनाने और आने वाली सरकार के लिए मजबूत आर्थिक बुनियाद छोड़कर जाने की जिम्मेदारी मनमोहन सिंह की सरकार की है। ठीक उसी तरह, जैसे राजग सरकार ने उसे एक मजबूत अर्थव्यवस्था विरासत में दी थी। पार्टीगत दायित्व पूरे हुए, केंद्र सरकार को अब अपने वृहद् राष्ट्रीय दायित्वों को संभालने की जरूरत है।
मनमोहन सिंह सरकार को अपने बचे हुए कार्यकाल में सबसे बड़ा हमला महंगाई पर करना होगा। मौजूदा मुद्रास्फीति घरेलू कारणों पर उतनी निर्भर नहीं है जितनी कि अंतरराष्ट्रीय कारणों, विशेष कर वैश्विक मंदी और तेल की कीमतों पर। लेकिन यहीं पर प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री पी चिदंबरम और रिजर्व बैंक के गवर्नर वाईवी रेड्डी के आर्थिक नेतृत्व की परीक्षा है। उन्हें मुद्रास्फीति-कारक अंतरराष्ट्रीय कारकों का प्रभाव न्यूनतम करने और राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत नियंत्रक तंत्र स्थापित करने की जरूरत है। उद्योग जगत और अन्य राजनैतिक दलों को विश्वास में लेते हुए महंगाई पर चौतरफा हमला किए जाने की जरूरत है। जमाखोरों, वायदा कारोबारियों, अटकलबाजों (स्पेक्यूलेटरों) और अन्य निहित स्वार्थी तत्वों के खिलाफ आक्रामक कारZवाई (गिरफ्तारियां और जब्ती), जहां जरूरी हो वहां सिब्सडी की बहाली, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए गरीब भारतीय को राहत, ब्याज दरों को मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार समायोजित करने और अन्य मौद्रिक व वित्तीय कदमों को अब बिना किसी देरी के उठाया जाना चाहिए। केंद्र सरकार को इंद्रदेव को धन्यवाद देना चाहिए कि इस बार मानसून अच्छा है और भारत में अनाज की बम्पर पैदावार के आसार हैं जो मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में स्वाभाविक रूप से मददगार सिद्ध होगा। लेकिन यदि महंगाई बनी रही तो मतदाता उसे माफ नहीं करेगा। डॉ. सिंह की सरकार को याद रखना चाहिए कि भले ही मुद्रास्फीति एक विश्वव्यापी समस्या हो, भले ही रूस (14 फीसदी), ईरान (26 फीसदी), चीन (9 फीसदी), वेनेजुएला (29 फीसदी), अर्जेंटीना (23 फीसदी) और खाड़ी देश भी उससे पीड़ित हों लेकिन भारतीय मतदाता इसके लिए सिर्फ उसी को जिम्मेदार ठहराएगा और उसी को दंडित करेगा। खासकर उस स्थिति में, जब सारे के सारे दल विश्वव्यापी परिस्थितियों से अवगत होते हुए भी इस मुद्दे को सरकारी नाकामी के रूप में पेश करने के लिए उतावले हैं।
सरकार ने राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना और किसानों की ऋण माफी जैसे बड़े कदम उठाकर यह साफ किया है कि बाजार अर्थव्यवस्था और सामाजिक उत्तरदायित्वों के बीच संतुलन बनाना असंभव नहीं। इन योजनाओं से समाज के निम्नतम तबके को जिस तरह की आर्थिक सुरक्षा और राहत मिली है उसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव है। मेरे पिछले राजस्थान दौरे में ग्रामीणों ने उत्सुक, प्रसन्न लोगों ने मुझसे पूछा था कि क्या सरकार के पास इतनी बड़ी योजना (नरेगा) को चलाए रखने के लिए जरूरी धन है? उन्हें चिंता थी कि क्या केंद्र सरकार इसे लगातार चलाए रख सकेगी? क्या वह ऐसी मजबूत आर्थिक स्थिति में है? बिचौलियों और लालफीताशाही संबंधी तमाम समस्याओं और सीमाओं के बावजूद यह योजना उन्हें सीधे आर्थिक राहत पहुंचाने में सफल हुई है। सरकार को आम आदमी के सशक्तीकरण के प्रयास जारी रखने चाहिए क्योंकि समाज की निम्नतम इकाई को मजबूत बनाए बिना कोई भी अर्थव्यवस्था स्थायी रूप से समृद्ध नहीं हो सकती। आने वाले कुछ महीनों में सरकार को हर दुखी, त्रस्त, कमजोर नागरिक को राहत देने की कोशिश करनी चाहिए। चाहे वह बुंदेलखंड का भूखा किसान हो, उड़ीसा-बंगाल का बाढ़ पीड़ित या फिर विदर्भ व तेलंगाना का किसान। यदि देश में कोई भूखा सोता है तो हमारी आर्थिक समृद्धि निरर्थक और ढोंग ही सिद्ध होगी।
महंगाई पर रोक लगाने के साथ-साथ सरकार को आर्थिक सुधारों का अपना एजेंडा पूरा करने का भी मौका मिल रहा है। आर्थिक विकास की दर आज भी 8.6 फीसदी के आसपास है जो आश्वस्त करती है कि हमारी अर्थव्यवस्था का उत्तम स्वास्थ्य और मजबूती बरकरार है। बहरहाल, औद्योगिक विकास दर में आ रही गिरावट को फौरन दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। वामपंथी दलों ने आम आदमी को लाभ पहुंचाने वाली कई अच्छी योजनाओं के लिए केंद्र सरकार को प्रेरित किया जिसका श्रेय उन्हें दिया जाना चाहिए लेकिन उन्होंने सरकार की बहुत सारी आर्थिक पहलों को लाल झंडी दिखाई हुई थी। मुनाफा कमा रहे सरकारी उपक्रमों की आंशिक हिस्सेदारी की बिक्री, रिटेल क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजीनिवेश संबंधी नियमों को उदार बनाने, श्रमिक सुधार, बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश, बैंक सुधार विधेयक को मंजूरी, पेंशन कोश नियामक की स्थापना जैसे जिन अहम आर्थिक फैसलों को वामपंथी दलों ने रोका हुआ था, उन्हें अविलम्ब मंजूरी दी जा सकती है। आम आदमी और मेहनतकश लोगों के साथ वामपंथी दलों के सरोकार बहुत सराहनीय हैं लेकिन उदारीकरण की जिस प्रक्रिया पर हम डेढ़ दशक पहले चल निकले थे उसे अब रास्ते में नहीं छोड़ा जा सकता और इस मामले में सरकार को लाल नहीं बल्कि हरी झंडी दिखाए जाने की जरूरत है। सरकार के नए दोस्तों (समाजवादी पार्टी) के झंडे में हरे रंग की मौजूदगी शायद उसी दिशा में संकेत कर रही है।
Thursday, July 10, 2008
मैदान साफ हो रहा है, काम पर लगिए मनमोहन सिंह
अगर डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार मौजूदा राजनैतिक संकट से बच जाती है तो उन्हें एक अभूतपूर्व अवसर मिल जाएगा। ऐसा अवसर जो भारतीय राजनीति में दुर्लभ है। आठ नौ महीने के बचे हुए कार्यकाल में वे स्लोग ओवर में चौके-छक्के लगाने वाले क्रिकेटर की तरह अपने उस विजन को लागू करने की कोशिश कर सकते हैं जिसका सपना उन्होंने एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में देखा है।
दृश्य एक: पिछली बीस जून को जब मुद्रास्फीति की दर 11.05 फीसदी पर जा पहुंची, जो कि तेरह साल का सर्वोच्च स्तर था, तो मैंने देश के समाज-राजनीतिक माहौल में दो स्पष्ट बदलाव महसूस किए। पहला बदलाव आया मीडिया के नजरिए में और दूसरा उद्योग संगठनों के रुख में। दोनों देश के राजनैतिक माहौल को भांपकर रुख बदलने में माहिर हैं। उस दिन देश के तीन शीर्ष उद्योग संगठनों एसोचैम, सीआईआई और फिक्की ने बयान दिया कि ऐसा लगता है कि मुद्रास्फीति को संभालना सरकार के नियंत्रण में नहीं रह गया है। ये वे संगठन थे जो एक दिन पहले तक मनमोहन सिंह सरकार की तरफ से उठाए गए आर्थिक सुधारों के प्रबल समर्थक थे। लेकिन विभिन्न राजनैतिक हल्कों से महंगाई के मुद्दे पर सरकार पर हो रहे जबरदस्त हमलों को देखते हुए उन्हें लगा कि देश का राजनैतिक माहौल करवट ले रहा है। वरना मुद्रास्फीति के बढ़ने के कारणों का उनसे बेहतर भला किसे पता होगा? तुरत-फुरत शेयर बाजार भी धराशायी हो गए। दूसरे, ज्यादातर अखबारों और टेलीविजन चैनलों ने महंगाई पर त्राहि माम त्राहि माम के अंदाज में मनमोहन सरकार को खूब कोसा। सरकार के प्रति नरम रुख दिखाने वाले टाइम्स ऑफ इंडिया ने बड़ी-बड़ी सुर्खियों में लिखा कि मनमोहन महंगाई को उसी अनियंत्रित स्तर पर ले गए है जो उनके वित्त मंत्री रहने के समय थी। यानी उनके किसी भी रूप में सरकार में रहने का मतलब है महंगाई का बढ़ना। टाइम्स ने यह भी लिखा कि ऐसे समय में जबकि आम आदमी महंगाई से घायल है, मनमोहन सिंह को परमाणु करार पर अड़ जाने की सूझी है। यह संप्रग सरकार के प्रति भारतीय समाज की दो बड़ी ताकतों के रुख में आए बदलाव का संकेत था।
दृश्य दो: आठ जुलाई को वामपंथी दलों ने परमाणु करार पर केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने का ऐलान किया। सरकार के अस्तित्व पर संकट की आशंका उभरी और शेयर बाजार में साढ़े चार सौ अंकों की गिरावट आ गई। लेकिन कुछ मिनट बाद ही समाजवादी पार्टी संसदीय दल की बैठक की खबर आई और बाजार सुधरने लगा। कुछ देर बाद सपा नेताओं ने केंद्र सरकार के प्रति समर्थन की घोषणा की और बाजार में तीन सौ अंकों का सुधार आ गया। सरकार सुरक्षित होते देख औद्योगिक संगठनों और उद्योगपतियों का रुख भी बदल गया और उन्होंने कहा कि अब तो लगता है सब कुछ ठीक-ठाक हो रहा है। बल्कि अब तो सरकार स्थिर हो रही है और आर्थिक सुधारों के रास्ते की रुकावटें भी हट गई हैं। अगले दिन नौ जुलाई को समाजवादी पार्टी के नेताओं की राष्ट्रपति से मुलाकात और एचडी देवगौड़ा, अजित सिंह और कुछ निर्दलीय व छोटे दलों के सांसदों के सकारात्मक बयानों के बाद बंबई स्टॉक एक्सचेंज के सेन्सेक्स ने पूरे 615 अंकों की छलांग लगाकर दिखा दिया कि वह वामपंथी दलों के जाने से चिंतित नहीं बल्कि खुश है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस बार लिखा कि चलो अच्छा हुआ वामपंथी दलों की झिकिझक से छुटकारा मिला।
संवेदी सूचकांक की तरह ही देश के मिजाज को दर्शाने वाले संवेदी लोगों (मीडिया, शेयर बाजार और उद्योग संगठन) के ताजा दृष्टिकोण को इस बात का मजबूत संकेत माना जा सकता है कि डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर सकती है। बड़ी बात यह है कि अब वह प्रकाश करात और एबी वर्धन की मनमानी मांगों और धमकियों से मुक्त है। इस बार वह ऐसे किसी दल से बंधी हुई नहीं है जो परमाणु करार का या फिर आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया का विरोधी हो। इस बार मनमोहन सिंह पहले जैसे कमजोर दिखने वाले प्रधानमंत्री भी नहीं हैं। वे भाजपा की तरफ से मौके-बेमौके नकली प्रधानमंत्री करार दिए जाने वाले नेता नहीं रह गए हैं। वे परमाणु करार के मुद्दे पर दृढ़ मत लेने और न झुकने वाले प्रधानमंत्री के रूप में उभरे हैं। ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने उस परमाणु करार के मुद्दे पर अपनी सरकार चली जाने की परवाह नहीं की जिसे वे राष्ट्र के हित में जरूरी मानते हैं। इस बार डॉ. मनमोहन सिंह ने खुद को एक खुद्दार, मजबूत और ऊंचे कद का राजनेता सिद्ध किया है जिसने मुद्रास्फीति जनित राजनैतिक आशंकाओं के बावजूद, सोनिया गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी की ओर से संयम बरतने की सलाह के बावजूद अपने राजनैतिक पुरुषार्थ का प्रदर्शन किया। उन्हें `छद्म प्रधानमंत्री` कहने से पहले अब भाजपा और अन्य दलों को कई बार सोचना होगा।
सिर पर लटकती तलवार जैसे वामपंथी समर्थन से मुक्ति पाकर प्रधानमंत्री ने राहत की सांस ली होगी। लेकिन वास्तव में जागने का समय तो अब शुरू हुआ है। अगर संप्रग सरकार संसद में विश्वास मत हासिल करने में कामयाब रहती है तो डॉ. मनमोहन सिंह को खुद को बहुत भाग्यशाली समझना चाहिए। दूसरा मौका सबको नहीं मिलता। तब बदले हुए मनमोहन सिंह और बदली हुई राजनैतिक-आर्थिक परिस्थितियों में संप्रग सरकार को वह अवसर मिल जाएगा जो क्षेत्रीय दलों और दलबदलू नेताओं से ग्रस्त त्रिशंकु लोकसभाओं पर निर्भर हमारे लोकतंत्र में दुर्लभ है। वह है अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को बिना किसी राजनैतिक बाधा के लागू करने का अवसर। अगले आम चुनावों के लिए अप्रैल 2009 तक का समय है। ऐसे में डॉ. सिंह और उनकी टीम को देर से ही सही, कम से कम छह से नौ महीनों के लिए वह अमूल्य अवसर मिल सकता है जिसमें वे अपने राजनैतिक विजन को लागू कर सकते हैं। जिसमें वे देश के आर्थिक विकास और आम आदमी को विकास प्रक्रिया में शामिल करने की बड़ी पहल कर सकते हैं। वे आर्थिक सुधारों का दूसरा चरण लागू कर सकते हैं जिसके लिए इससे अनुकूल समय दूसरा नहीं हो सकता। मनमोहन सिंह दिखा सकते हैं कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्र ने उनसे जो उम्मीदें लगाई थीं उन्हें पूरी करने में वे सक्षम हैं। इस अनपेक्षित अवसर के लिए उन्हें अपने वामपंथी दोस्तों का शुक्रगुजार होना चाहिए।
दृश्य एक: पिछली बीस जून को जब मुद्रास्फीति की दर 11.05 फीसदी पर जा पहुंची, जो कि तेरह साल का सर्वोच्च स्तर था, तो मैंने देश के समाज-राजनीतिक माहौल में दो स्पष्ट बदलाव महसूस किए। पहला बदलाव आया मीडिया के नजरिए में और दूसरा उद्योग संगठनों के रुख में। दोनों देश के राजनैतिक माहौल को भांपकर रुख बदलने में माहिर हैं। उस दिन देश के तीन शीर्ष उद्योग संगठनों एसोचैम, सीआईआई और फिक्की ने बयान दिया कि ऐसा लगता है कि मुद्रास्फीति को संभालना सरकार के नियंत्रण में नहीं रह गया है। ये वे संगठन थे जो एक दिन पहले तक मनमोहन सिंह सरकार की तरफ से उठाए गए आर्थिक सुधारों के प्रबल समर्थक थे। लेकिन विभिन्न राजनैतिक हल्कों से महंगाई के मुद्दे पर सरकार पर हो रहे जबरदस्त हमलों को देखते हुए उन्हें लगा कि देश का राजनैतिक माहौल करवट ले रहा है। वरना मुद्रास्फीति के बढ़ने के कारणों का उनसे बेहतर भला किसे पता होगा? तुरत-फुरत शेयर बाजार भी धराशायी हो गए। दूसरे, ज्यादातर अखबारों और टेलीविजन चैनलों ने महंगाई पर त्राहि माम त्राहि माम के अंदाज में मनमोहन सरकार को खूब कोसा। सरकार के प्रति नरम रुख दिखाने वाले टाइम्स ऑफ इंडिया ने बड़ी-बड़ी सुर्खियों में लिखा कि मनमोहन महंगाई को उसी अनियंत्रित स्तर पर ले गए है जो उनके वित्त मंत्री रहने के समय थी। यानी उनके किसी भी रूप में सरकार में रहने का मतलब है महंगाई का बढ़ना। टाइम्स ने यह भी लिखा कि ऐसे समय में जबकि आम आदमी महंगाई से घायल है, मनमोहन सिंह को परमाणु करार पर अड़ जाने की सूझी है। यह संप्रग सरकार के प्रति भारतीय समाज की दो बड़ी ताकतों के रुख में आए बदलाव का संकेत था।
दृश्य दो: आठ जुलाई को वामपंथी दलों ने परमाणु करार पर केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने का ऐलान किया। सरकार के अस्तित्व पर संकट की आशंका उभरी और शेयर बाजार में साढ़े चार सौ अंकों की गिरावट आ गई। लेकिन कुछ मिनट बाद ही समाजवादी पार्टी संसदीय दल की बैठक की खबर आई और बाजार सुधरने लगा। कुछ देर बाद सपा नेताओं ने केंद्र सरकार के प्रति समर्थन की घोषणा की और बाजार में तीन सौ अंकों का सुधार आ गया। सरकार सुरक्षित होते देख औद्योगिक संगठनों और उद्योगपतियों का रुख भी बदल गया और उन्होंने कहा कि अब तो लगता है सब कुछ ठीक-ठाक हो रहा है। बल्कि अब तो सरकार स्थिर हो रही है और आर्थिक सुधारों के रास्ते की रुकावटें भी हट गई हैं। अगले दिन नौ जुलाई को समाजवादी पार्टी के नेताओं की राष्ट्रपति से मुलाकात और एचडी देवगौड़ा, अजित सिंह और कुछ निर्दलीय व छोटे दलों के सांसदों के सकारात्मक बयानों के बाद बंबई स्टॉक एक्सचेंज के सेन्सेक्स ने पूरे 615 अंकों की छलांग लगाकर दिखा दिया कि वह वामपंथी दलों के जाने से चिंतित नहीं बल्कि खुश है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस बार लिखा कि चलो अच्छा हुआ वामपंथी दलों की झिकिझक से छुटकारा मिला।
संवेदी सूचकांक की तरह ही देश के मिजाज को दर्शाने वाले संवेदी लोगों (मीडिया, शेयर बाजार और उद्योग संगठन) के ताजा दृष्टिकोण को इस बात का मजबूत संकेत माना जा सकता है कि डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर सकती है। बड़ी बात यह है कि अब वह प्रकाश करात और एबी वर्धन की मनमानी मांगों और धमकियों से मुक्त है। इस बार वह ऐसे किसी दल से बंधी हुई नहीं है जो परमाणु करार का या फिर आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया का विरोधी हो। इस बार मनमोहन सिंह पहले जैसे कमजोर दिखने वाले प्रधानमंत्री भी नहीं हैं। वे भाजपा की तरफ से मौके-बेमौके नकली प्रधानमंत्री करार दिए जाने वाले नेता नहीं रह गए हैं। वे परमाणु करार के मुद्दे पर दृढ़ मत लेने और न झुकने वाले प्रधानमंत्री के रूप में उभरे हैं। ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने उस परमाणु करार के मुद्दे पर अपनी सरकार चली जाने की परवाह नहीं की जिसे वे राष्ट्र के हित में जरूरी मानते हैं। इस बार डॉ. मनमोहन सिंह ने खुद को एक खुद्दार, मजबूत और ऊंचे कद का राजनेता सिद्ध किया है जिसने मुद्रास्फीति जनित राजनैतिक आशंकाओं के बावजूद, सोनिया गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी की ओर से संयम बरतने की सलाह के बावजूद अपने राजनैतिक पुरुषार्थ का प्रदर्शन किया। उन्हें `छद्म प्रधानमंत्री` कहने से पहले अब भाजपा और अन्य दलों को कई बार सोचना होगा।
सिर पर लटकती तलवार जैसे वामपंथी समर्थन से मुक्ति पाकर प्रधानमंत्री ने राहत की सांस ली होगी। लेकिन वास्तव में जागने का समय तो अब शुरू हुआ है। अगर संप्रग सरकार संसद में विश्वास मत हासिल करने में कामयाब रहती है तो डॉ. मनमोहन सिंह को खुद को बहुत भाग्यशाली समझना चाहिए। दूसरा मौका सबको नहीं मिलता। तब बदले हुए मनमोहन सिंह और बदली हुई राजनैतिक-आर्थिक परिस्थितियों में संप्रग सरकार को वह अवसर मिल जाएगा जो क्षेत्रीय दलों और दलबदलू नेताओं से ग्रस्त त्रिशंकु लोकसभाओं पर निर्भर हमारे लोकतंत्र में दुर्लभ है। वह है अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को बिना किसी राजनैतिक बाधा के लागू करने का अवसर। अगले आम चुनावों के लिए अप्रैल 2009 तक का समय है। ऐसे में डॉ. सिंह और उनकी टीम को देर से ही सही, कम से कम छह से नौ महीनों के लिए वह अमूल्य अवसर मिल सकता है जिसमें वे अपने राजनैतिक विजन को लागू कर सकते हैं। जिसमें वे देश के आर्थिक विकास और आम आदमी को विकास प्रक्रिया में शामिल करने की बड़ी पहल कर सकते हैं। वे आर्थिक सुधारों का दूसरा चरण लागू कर सकते हैं जिसके लिए इससे अनुकूल समय दूसरा नहीं हो सकता। मनमोहन सिंह दिखा सकते हैं कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्र ने उनसे जो उम्मीदें लगाई थीं उन्हें पूरी करने में वे सक्षम हैं। इस अनपेक्षित अवसर के लिए उन्हें अपने वामपंथी दोस्तों का शुक्रगुजार होना चाहिए।
Tuesday, July 8, 2008
राजनीति के कच्चे खिलाड़ी सिद्ध हुए गुलाम नबी
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
गुलाम नबी आजाद ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनकी सरकार अचानक इस तरह एक छोटे से मुद्दे पर चली जाएगी और वह भी एक ऐसे फैसले के लिए जिसे सत्ता में उनकी सहयोगी रही किसी अन्य पार्टी से जुड़े मंत्रियों ने अनुमोदित किया था। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को 39 हेक्टेयर वन भूमि का आवंटन करने के मुद्दे पर आजाद सरकार का चला जाना एक राजनीतिक विडंबना ही कही जाएगी क्योंकि अपने छोटे से कार्यकाल के दौरान आजाद एक ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में उभरे थे जिसका एक ही एजेंडा था- विकास और शांति। वे राजनैतिक विवादों से दूर रहे, भ्रष्टाचार या अन्य आरोपों के घेरे में नहीं आए और उनका राजनैतिक आचरण साफ-सुथरा रहा। उनके कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं में कमी आई तथा जमीन पर विकास के चिन्ह साफ दिखे। पहली बार मुख्यमंत्री बने किसी व्यक्ति के लिए ये बड़ी उपलब्धियां थीं। लेकिन वे राजनीति में कच्चे खिलाड़ी साबित हुए।
अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद पर आजाद दो विरोधी पक्षों की घेराबंदी के शिकार हुए। एक और अलगाववादियों का हिंसक आंदोलन, दूसरी ओर हिंदूवादी संगठनों का दबाव। दोनों के बीच संतुलन बनाने के लिए जिस किस्म की राजनैतिक चालाकी की जरूरत थी, वह आजाद के पास नहीं थी। वह थी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के पास, जिसने माहौल को वक्त रहते भांप कर अपने आपको सारे विवाद से इस तरह अलग कर लिया जैसे सारे घटनाक्रम से उसका कोई वास्ता ही नहीं था। वह बड़ी आसानी से भूल गई कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को वन भूमि के हस्तांतरण संबंधी प्रस्ताव काजी मोहम्मद अफजल ने राज्य मंत्रिमंडल में रखा था जो पीडीपी के कोटे से मंत्री थे। वह भूल गई कि हस्तांतरण प्रस्ताव को मंजूरी देने वाले भी पीडीपी से जुड़े विधि मंत्री मुजफ्फर हुसैन बेग ही थे। शातिराना सियासी चाल चलते हुए उसने न सिर्फ सारे घटनाक्रम का जिम्मा मुख्यमंत्री पर डाल दिया बल्कि उसी मुद्दे पर सरकार गिराकर हज़ भी कर लिया। आज वह उस फैसले का विरोध करने वाले राजनैतिक दलों और अलगाववादियों के साथ खड़ी है जो उसने खुद किया था। यही राजनीति है।
गुलाम नबी आजाद को कांग्रेस के रणनीतिकारों में माना जाता है और सोनिया गांधी के नेतृत्व में केंद्रीय स्तर पर पार्टी को पुनजीर्वित करने में उनकी भूमिका रही है। मगर जमीनी राजनीति से उनका जुड़ाव नहीं रहा। जब उन्हें कश्मीर भेजा गया तो सबको आश्चर्य हुआ था क्योंकि जम्मू कश्मीर की पेचीदा राजनीति को समझने और संभालने के लिए जिस किस्म के शातिर राजनेता की जरूरत है, आजाद उस श्रेणी में नहीं आते थे। शायद इसीलिए उन्होंने इधर-उधर के पचड़ों में पड़ने की बजाए विकास और अमन को अपना लक्ष्य बनाया। ठीक वैसे ही जैसे बिहार में नीतिश कुमार ने। इन दोनों नेताओं को विरासत में आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक लिहाज से नष्ट-भ्रष्ट राज्य मिले लेकिन राजनैतिक स्वार्थ-सिद्धि में लगने की बजाए उन्होंने जमीनी हालात सुधारने को वरीयता दी। वैसे इस बदलाव का पूरा श्रेय आजाद को देना उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ नाइंसाफी करना होगा। अपनी विभिन्न राजनैतिक मजबूरियों के बीच मुफ्ती भी शुरू-शुरू में बाकी कश्मीरी नेताओं से अलग, और ज्यादा संजीदा नजर आते थे। गुलाम नबी आजाद ने न सिर्फ उनकी विरासत को संभाला बल्कि आगे भी बढ़ाया। इस्तीफा देने से पहले राज्य विधानसभा में दिए उनके इस बयान की सच्चाई पर शायद ही किसी को आपत्ति हो कि- `मैंने अपना समय इस मुद्दे पर बहस करने में नष्ट नहीं किया कि कश्मीर विवादास्पद है या नहीं। मैंने अपना समय विकास पर लगाया और एक भ्रष्टाचार मुक्त तथा शांतिपूर्ण जम्मू कश्मीर की नींव रखने की कोशिश की।`
एक अच्छे मुख्यमंत्री का इस तरह राजनैतिक कारणों से हार जाना और कश्मीर के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया का अधबीच में खत्म हो जाना पीड़ाजनक है। लेकिन यह भारतीय राजनीति की सच्चाई है जहां के राजनैतिक दल जनता के हितों की बजाए अपने राजनैतिक हितों से निर्देशित होते हैं। यह भारतीय लोकतंत्र की भी सच्चाई है जहां जनता धार्मिक, जातीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर जरूरत से ज्यादा संवेदनशील है और ऐसे मुद्दों पर आसानी से राजनैतिक दलों के उकसावे में आ जाती है। वह अपने दीर्घकालीन हितों को लेकर कब जागरूक होगी, कहना मुश्किल है। भारतीय मतदाता विकास और सकारात्मक मुद्दों के आधार पर फैसला करना कब शुरू करेगा, यह बात शायद वह खुद भी नहीं जानता। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार, जो विकास और भारत उदय जैसे सकारात्मक मुद्दों को लेकर लबलबाते आत्मविश्वास के साथ जनता के बीच गई थी, मुंह की खा चुकी है। अब वही गुलाम नबी ने भोगा है।
गुलाम नबी आजाद ने शायद यही सोचा होगा कि राज्य सरकार को कुर्बान कर देने पर उन्हें एक क्षेत्र विशेष की जनता की सहानुभूति प्राप्त होगी। लेकिन उनके इस्तीफे के एक दिन बाद का दृश्य देखा जाए तो उनकी कल्पना, कल्पना भर ही रह गई लगती है। जम्मू क्षेत्र में, जहां कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनावों में मजबूत होकर उभरी थी, इस बार हिंदूवादी गुटों का प्रभाव है। इन गुटों ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन किए जाने पर तो राज्य सरकार को श्रेय नहीं दिया लेकिन उसे रद्द किए जाने पर आंदोलन में लगे हैं। बहुत संभव है कि जम्मू के हालात का चुनावी लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा। उधर कश्मीर घाटी में हालात अस्पष्ट हैं। अमरनाथ मुद्दे पर सरकार की हार का श्रेय लेने के लिए वहां तीनों पक्षों में होड़ मची है- पीडीपी, फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस और पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी पार्टियां। अलबत्ता, कांग्रेस को राज्य के दोनों ही क्षेत्रों में राजनैतिक नुकसान झेलना पड़ा है और शायद उसे इस नुकसान की भरपाई करने में कई साल लग जाएं। सोनिया गांधी ने गुलाम नबी आजाद को कश्मीर में कांग्रेस और भारतीयता को मजबूत बनाने भेजा था लेकिन वे दोनों को कमजोर कर चुके हैं।
सवाल उठता है कि अगर गुलाम नबी आजाद को अपनी सरकार कुर्बान करनी ही थी तो फिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड का भूमि आवंटन रद्द करने की क्या जरूरत थी? अगर भूमि आवंटन कल सही फैसला था तो अब गलत कैसे हो गया? उन्होंने इसे रद्द न किया होता तो कम से कम जम्मू तो उनके साथ होता! तब उनका राजनैतिक कद भी बड़ा होता। आजाद यहीं बहुत बड़ी भूल कर गए और इसीलिए राज्य के प्रति सारे योगदान के बावजूद वे एक औसत राजनेता के रूप में ही याद किए जाएंगे।
गुलाम नबी आजाद ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनकी सरकार अचानक इस तरह एक छोटे से मुद्दे पर चली जाएगी और वह भी एक ऐसे फैसले के लिए जिसे सत्ता में उनकी सहयोगी रही किसी अन्य पार्टी से जुड़े मंत्रियों ने अनुमोदित किया था। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को 39 हेक्टेयर वन भूमि का आवंटन करने के मुद्दे पर आजाद सरकार का चला जाना एक राजनीतिक विडंबना ही कही जाएगी क्योंकि अपने छोटे से कार्यकाल के दौरान आजाद एक ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में उभरे थे जिसका एक ही एजेंडा था- विकास और शांति। वे राजनैतिक विवादों से दूर रहे, भ्रष्टाचार या अन्य आरोपों के घेरे में नहीं आए और उनका राजनैतिक आचरण साफ-सुथरा रहा। उनके कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं में कमी आई तथा जमीन पर विकास के चिन्ह साफ दिखे। पहली बार मुख्यमंत्री बने किसी व्यक्ति के लिए ये बड़ी उपलब्धियां थीं। लेकिन वे राजनीति में कच्चे खिलाड़ी साबित हुए।
अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद पर आजाद दो विरोधी पक्षों की घेराबंदी के शिकार हुए। एक और अलगाववादियों का हिंसक आंदोलन, दूसरी ओर हिंदूवादी संगठनों का दबाव। दोनों के बीच संतुलन बनाने के लिए जिस किस्म की राजनैतिक चालाकी की जरूरत थी, वह आजाद के पास नहीं थी। वह थी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के पास, जिसने माहौल को वक्त रहते भांप कर अपने आपको सारे विवाद से इस तरह अलग कर लिया जैसे सारे घटनाक्रम से उसका कोई वास्ता ही नहीं था। वह बड़ी आसानी से भूल गई कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को वन भूमि के हस्तांतरण संबंधी प्रस्ताव काजी मोहम्मद अफजल ने राज्य मंत्रिमंडल में रखा था जो पीडीपी के कोटे से मंत्री थे। वह भूल गई कि हस्तांतरण प्रस्ताव को मंजूरी देने वाले भी पीडीपी से जुड़े विधि मंत्री मुजफ्फर हुसैन बेग ही थे। शातिराना सियासी चाल चलते हुए उसने न सिर्फ सारे घटनाक्रम का जिम्मा मुख्यमंत्री पर डाल दिया बल्कि उसी मुद्दे पर सरकार गिराकर हज़ भी कर लिया। आज वह उस फैसले का विरोध करने वाले राजनैतिक दलों और अलगाववादियों के साथ खड़ी है जो उसने खुद किया था। यही राजनीति है।
गुलाम नबी आजाद को कांग्रेस के रणनीतिकारों में माना जाता है और सोनिया गांधी के नेतृत्व में केंद्रीय स्तर पर पार्टी को पुनजीर्वित करने में उनकी भूमिका रही है। मगर जमीनी राजनीति से उनका जुड़ाव नहीं रहा। जब उन्हें कश्मीर भेजा गया तो सबको आश्चर्य हुआ था क्योंकि जम्मू कश्मीर की पेचीदा राजनीति को समझने और संभालने के लिए जिस किस्म के शातिर राजनेता की जरूरत है, आजाद उस श्रेणी में नहीं आते थे। शायद इसीलिए उन्होंने इधर-उधर के पचड़ों में पड़ने की बजाए विकास और अमन को अपना लक्ष्य बनाया। ठीक वैसे ही जैसे बिहार में नीतिश कुमार ने। इन दोनों नेताओं को विरासत में आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक लिहाज से नष्ट-भ्रष्ट राज्य मिले लेकिन राजनैतिक स्वार्थ-सिद्धि में लगने की बजाए उन्होंने जमीनी हालात सुधारने को वरीयता दी। वैसे इस बदलाव का पूरा श्रेय आजाद को देना उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ नाइंसाफी करना होगा। अपनी विभिन्न राजनैतिक मजबूरियों के बीच मुफ्ती भी शुरू-शुरू में बाकी कश्मीरी नेताओं से अलग, और ज्यादा संजीदा नजर आते थे। गुलाम नबी आजाद ने न सिर्फ उनकी विरासत को संभाला बल्कि आगे भी बढ़ाया। इस्तीफा देने से पहले राज्य विधानसभा में दिए उनके इस बयान की सच्चाई पर शायद ही किसी को आपत्ति हो कि- `मैंने अपना समय इस मुद्दे पर बहस करने में नष्ट नहीं किया कि कश्मीर विवादास्पद है या नहीं। मैंने अपना समय विकास पर लगाया और एक भ्रष्टाचार मुक्त तथा शांतिपूर्ण जम्मू कश्मीर की नींव रखने की कोशिश की।`
एक अच्छे मुख्यमंत्री का इस तरह राजनैतिक कारणों से हार जाना और कश्मीर के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया का अधबीच में खत्म हो जाना पीड़ाजनक है। लेकिन यह भारतीय राजनीति की सच्चाई है जहां के राजनैतिक दल जनता के हितों की बजाए अपने राजनैतिक हितों से निर्देशित होते हैं। यह भारतीय लोकतंत्र की भी सच्चाई है जहां जनता धार्मिक, जातीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर जरूरत से ज्यादा संवेदनशील है और ऐसे मुद्दों पर आसानी से राजनैतिक दलों के उकसावे में आ जाती है। वह अपने दीर्घकालीन हितों को लेकर कब जागरूक होगी, कहना मुश्किल है। भारतीय मतदाता विकास और सकारात्मक मुद्दों के आधार पर फैसला करना कब शुरू करेगा, यह बात शायद वह खुद भी नहीं जानता। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार, जो विकास और भारत उदय जैसे सकारात्मक मुद्दों को लेकर लबलबाते आत्मविश्वास के साथ जनता के बीच गई थी, मुंह की खा चुकी है। अब वही गुलाम नबी ने भोगा है।
गुलाम नबी आजाद ने शायद यही सोचा होगा कि राज्य सरकार को कुर्बान कर देने पर उन्हें एक क्षेत्र विशेष की जनता की सहानुभूति प्राप्त होगी। लेकिन उनके इस्तीफे के एक दिन बाद का दृश्य देखा जाए तो उनकी कल्पना, कल्पना भर ही रह गई लगती है। जम्मू क्षेत्र में, जहां कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनावों में मजबूत होकर उभरी थी, इस बार हिंदूवादी गुटों का प्रभाव है। इन गुटों ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन किए जाने पर तो राज्य सरकार को श्रेय नहीं दिया लेकिन उसे रद्द किए जाने पर आंदोलन में लगे हैं। बहुत संभव है कि जम्मू के हालात का चुनावी लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा। उधर कश्मीर घाटी में हालात अस्पष्ट हैं। अमरनाथ मुद्दे पर सरकार की हार का श्रेय लेने के लिए वहां तीनों पक्षों में होड़ मची है- पीडीपी, फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस और पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी पार्टियां। अलबत्ता, कांग्रेस को राज्य के दोनों ही क्षेत्रों में राजनैतिक नुकसान झेलना पड़ा है और शायद उसे इस नुकसान की भरपाई करने में कई साल लग जाएं। सोनिया गांधी ने गुलाम नबी आजाद को कश्मीर में कांग्रेस और भारतीयता को मजबूत बनाने भेजा था लेकिन वे दोनों को कमजोर कर चुके हैं।
सवाल उठता है कि अगर गुलाम नबी आजाद को अपनी सरकार कुर्बान करनी ही थी तो फिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड का भूमि आवंटन रद्द करने की क्या जरूरत थी? अगर भूमि आवंटन कल सही फैसला था तो अब गलत कैसे हो गया? उन्होंने इसे रद्द न किया होता तो कम से कम जम्मू तो उनके साथ होता! तब उनका राजनैतिक कद भी बड़ा होता। आजाद यहीं बहुत बड़ी भूल कर गए और इसीलिए राज्य के प्रति सारे योगदान के बावजूद वे एक औसत राजनेता के रूप में ही याद किए जाएंगे।
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