Wednesday, July 23, 2008

सब जीत गए, बस हम हारे या लोकतंत्र!

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

विश्वास मत पूरा हुआ। किसी को फौरी लाभ हुआ है, किसी को दूरगामी लाभ हुआ है और कोई प्रांतीय राजनीति से उछलकर राष्ट्रीय मानचित्र पर आ गिरा है। अगर कोई नुकसान में रहा है तो वह है हमारा लोकतंत्र जिसकी धज्जियां उड़ाने के खेल ने राष्ट्रीय शर्मिंदगी के अलिखित सूचकांक में कई छलांगें लगा दी हैं। माफ कीजिए, इस विश्वास मत ने राजनीति की कई ऊंची-ऊंची शख्सियतों के प्रति आम हिंदुस्तानी के विश्वास का परमाणविक विखंडन कर दिया है।

कई हफ्तों का सस्पेंस खत्म हुआ। सरकार ने एक हतप्रभ कर देने वाले राजनैतिक तमाशे की कीमत पर कुछ और महीने सत्ता में बने रहने का लाइसेंस हासिल कर लिया। इस दौरान कुछ जरूरी काम निपटा लिए जाएंगे जो देश के अच्छे भविष्य, उसके विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है। कुछ नए राजनैतिक समीकरण बना लिए जाएंगे जो आने वाले चुनावों में रंग दिखाएंगे। सियासी पत्ते फेंट दिए गए हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपने ब्रांड न्यू साथियों के संग गलबहियां डाले 22 जुलाई के नफे-नुकसान का आकलन करने में जुटे हैं। किसी को फौरी लाभ हुआ है, किसी को दूरगामी लाभ हुआ है और कोई प्रांतीय राजनीति से उछलकर राष्ट्रीय मानचित्र पर आ गिरा है। अगर कोई नुकसान में रहा है तो वह है हमारा लोकतंत्र जिसकी धज्जियां उड़ाने के खेल ने राष्ट्रीय शर्मिंदगी के अलिखित सूचकांक में कई छलांगें लगा दी हैं। अगर कोई घाटे में रहा तो हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में अंधी आस्था रखने वाला आम हिंदुस्तानी, जिसके आदर्श और राजनेताओं से बांधी अनगिनत उम्मीदें पलक झपकते ही धराशायी हो गईं। अगर कोई पराजित हुई तो भारतीय संसद, जिसकी प्रतिष्ठा और गरिमा को उन्हीं लोगों ने धूल में मिला दिया जिन पर उसे काबिले-फख़्र बनाने का जिम्मा था। माफ कीजिए, इस विश्वास मत ने राजनीति की ऊंची-ऊंची शख्सियतों के प्रति आम हिंदुस्तानी के विश्वास का परमाणविक विखंडन कर दिया है।


कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी हमेशा स्वच्छ राजनीति, नैतिक मूल्यों और राष्ट्र हित में पार्टी-पालिटिक्स से ऊपर उठने की बात करते हैं। बाईस जुलाई के विश्वास मत और उससे पहले की घटनाओं पर उनका ईमानदाराना नज़रिया क्या है, इसे जानना शायद बहुत दिलचस्प होगा। एक दशक पहले शेयर घोटाले के बाद प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव को `सीज़र की पत्नी को स्वयं को संदेह से ऊपर सिद्ध करने` (Caesar's wife should be above suspicion) की याद दिलाने वाले तत्कालीन वित्त मंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी भाजपा सांसदों द्वारा लोकसभा में रिश्वत के नोटों के प्रदर्शन की घटना को किस रूप में देखते हैं, इसे जानने की उत्सुकता उनके स्वच्छ आचरण के प्रशंसकों को है। लेकिन विधिवत जांच और कानूनी कार्रवाई का औपचारिक जिक्र करने के अलावा उन्होंने भारतीय राजनीति के ऐतिहासिक पतन की प्रतीक इस घटना पर कोई निजी टिप्पणी नहीं की तो संभवत: इसलिए कि पिछले पांच साल में विवेकपूर्ण आचरण, नैतिकता और राजनैतिक स्वच्छता पर उनके विचारों को व्यावहारिक राजनीति ने फिल्टर कर दिया है। अब वे एक असली हिंदुस्तानी नेता बन गए हैं, ऐसा नेता जिसके लिए राजनैतिक द्वंद्व का अंतिम नतीजा ही महत्वपूर्ण है।

नैतिकता? सत्यनिष्ठा??

भाजपा के तीन सांसदों की ओर से लोकसभा में रिश्वत की रकम दिखाए जाने का सीधा प्रसारण पूरी दुनिया ने देखा। इस घटना के बाद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र और उसकी लोकतांत्रिक परंपराओं के बारे में आप क्या बात करेंगे? विश्व की नजरों में 22 जुलाई की सुबह तक भारत एक आदर्श लोकतंत्र के रूप में जिस नैतिक ऊंचाई पर था वह 22 जुलाई 2008 की शाम ही उससे छिन गई और उसके लिए कोई एक दल, कोई एक खेमा जिम्मेदार नहीं है। इस घटना के बाद यदि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अद्वितीय राजनैतिक सत्यनिष्ठा व नैतिक आचरण का प्रदर्शन करते हुए विश्वास मत लेने से इंकार कर देते तो हमारे लोकतंत्र की गरिमा बची रहती, बल्कि शायद और बढ़ जाती। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, वाम गठजोड़ और तीसरे मोर्चे के दलों ने यदि राजनैतिक भ्रष्टाचार के निम्नतम स्तर पर पहुंचने के विरोधस्वरूप विश्वास मत में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया होता तो भी कुछ हद तक उसकी रक्षा होती। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने भी यदि इन `असामान्य परिस्थितियों` के मद्देनजर कोई बड़ा कदम उठाया होता तो वह पूरी दुनिया में एक साफ और गहरा संदेश भेजता कि भारत का लोकतंत्र किसी भी दर्जे के नैतिक-राजनैतिक संकट से निपटने, अपनी विश्वसनीयता की रक्षा में सक्षम है। लेकिन उनमें से किसी ने इतना बड़ा राजनैतिक जोखिम लेने की हिम्मत नहीं की क्योंकि चोट उनके दलों को नहीं, बल्कि लोकतंत्र को लगी थी। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी-अपनी संभावित जीत को हासिल करने के लिए बेताब थे। लोकसभा की गरिमा और लोकतंत्र की मर्यादा की भला किसे पड़ी है? उन्होंने अपने बारे में पूर्वसिद्ध इस धारणा को ही एक बार फिर अंडरलाइन कर दिया कि राजनीति में सत्ता ही सब कुछ है, बाकी सिर्फ बातें हैं।

परमाणु करार को देश के लिए अच्छा और डॉ. मनमोहन सिंह को एक ईमानदार व कुशल प्रधानमंत्री मानने वाले लोगों की कमी नहीं है। दो दिन पहले एक अंग्रेजी अखबार द्वारा कराए गए सर्वे में 83 फीसदी लोगों ने कहा था कि वे चाहते हैं कि विश्वास मत में सरकार जीत जाए और परमाणु करार का मुद्दा आगे बढ़े। ये सब लोग राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार से परिचित हैं और फैसला किस किस्म के जोड़तोड़ के जरिए होगा, इसे भी बखूबी जानते हैं। लेकिन लोकसभा में हुई घटना से उन सबको सदमा लगा है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो इस घटना को गढ़ी हुई करार देंगे और जिन्हें भाजपा सांसदों द्वारा यह मुद्दा उठाए जाने के समय, उसके तौर-तरीके, लोकसभा अध्यक्ष को विश्वास में न लिए जाने, संबंधित टेलीविजन चैनल द्वारा इस घटना का प्रसारण न किए जाने आदि के पीछे भी स्पष्ट राजनैतिक रणनीति दिखाई दे रही है। लेकिन इस बात से कौन इंकार करेगा कि इस घटना ने लोकतंत्र की जड़ें खोखली करने वाली महामारी के ऊपर पड़ा पर्दा उठा दिया है!

भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार कोई छिपी हुई चीज नहीं है। झारखंड मुक्ति मोर्चा केस, हर्षद मेहता प्रकरण, बंगारू लक्ष्मण स्टिंग आपरेशन, धन के बदले सवाल कांड आदि तो उस बीमारी का बहुत छोटा सा अंश है जो लगभग सभी राजनैतिक दलों में गहराई तक घुसी हुई है। कौन नहीं जानता कि हमारे यहां राजनीति में जाने के सिर्फ दो बड़े मकसद हैं- एक, किसी भी जरिए से धन कमाना और दूसरे, अपने मुख्य कारोबार में किए जाने वाले गलत कार्यों को किसी किस्म की सरकारी स्क्रूटिनी से बचाने का इंतजाम करना। जब शिबू सोरेन खुले आम कोयला मंत्रालय की मांग करते हैं और उस पर अड़े रहते हैं तो इसके पीछे के कारणों को कौन नहीं जानता? जब कुछ नेता विश्वास मत के पक्ष या विपक्ष में मतदान करने का फैसला अंतिम क्षणों तक टालते हैं तो वे किस बात का, या यूं कहें कि किस संदेश के आने का इंतजार कर रहे होते हैं? हमारे अफसरशाह विभिन्न दुधारू विभागों, मंत्रालयों और उपक्रमों में जाने के लिए लाखों करोड़ों की रिश्वत देने को क्यों तैयार रहते हैं, यह किसी से छिपा है क्या? राज्यसभा चुनावों, केंद्र व राज्यों के विश्वास मतों, राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनावों, सरकारों के गठन से ठीक पहले आदि मौकों पर जन प्रतिनिधियों को रिश्वत पेश किए जाने की लंबी परंपरा रही है जिसका पालन पूरी निष्ठा के साथ किया जाता है। इस बात को न सिर्फ विभिन्न दलों के नेता जानते हैं बल्कि आम मतदाता भी उससे अनभिज्ञ नहीं है। प्रतिद्वंद्वी दलों के लोगों को दिए जाने वाले ये प्रलोभन आज हमारी राजनीति का एक स्वाभाविक तत्व बन चुके हैं। इस काम के लिए बाकायदा विभिन्न दलों में विशेषज्ञ नेता मौजूद हैं। हर दल ऐसा करता है लेकिन ऐसा ही करने वाले दूसरे दलों को कोसता है और कोसता रहेगा।

1 comment:

Unknown said...

Now, time has come when judiciary should take a note of it. Even if judiciary fails, then what?? Corruption is all around us. But where is remeady?? Please enlighten us!

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com