Friday, December 26, 2008

पाकिस्तान के हक में है जंग की हवा बनाना

पाकिस्तानी सेना जिस तरह युद्ध का माहौल तैयार करने में लगी है वह वहां के घटनाक्रम पर एक बार फिर फौज का दबदबा कायम करने की कोशिश भी है। यह कूटनीतिक लिहाज से पाकिस्तान के हक में भी जाता है क्योंकि युद्ध का हौवा खड़ा कर आतंकवाद के बुनियादी मुद्दे को पृष्ठभूमि में भेजा जा सकता है।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

मुंबई के आतंकवादी हमलों के बाद धीरे-धीरे पाकिस्तान के रुख और फैसलों पर वहां की सेना का बढ़ता प्रभाव साफ दिखाई दे रहा है। आतंकवाद के हाथों खुद अपनी पत्नी और देश की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को खो देने वाले आसिफ अली जरदारी को इतना अपरिपक्व राजनीतिज्ञ नहीं माना जा सकता जो इतने गंभीर अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर पल-पल में बयान बदलते रहें। भले ही आज पाकिस्तान में फौजी शासन न हो, सेना हमेशा ही वहां की राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करने की स्थिति में रही है और ताजा घटनाक्रम भी कोई अपवाद नहीं है। अब यह साफ हो चुका है कि आईएसआई प्रमुख को भारत भेजने का फैसला पाक फौज के दबाव में बदला गया और जनरल अशफाक कयानी की ताजा गतिविधियों और बयानों से साफहै कि मौजूदा हालात में उनकी भूमिका पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष की पारंपरिक भूमिका से कहीं आगे बढ़ चुकी है। पाकिस्तानी फौज पारंपरिक रूप से भारत के साथ प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न टकराव के रास्ते पर चलती आई है।

भले ही दोनों देशों के बीच हुए तीन अहम युद्धों और कारगिल के टकराव में उसे मुंह की खानी पड़ी हो लेकिन भारत को सबक सिखाना उसका अपूर्ण एजेंडा बना हुआ है और आगे भी रहेगा। कश्मीर घाटी में दो दशक पहले शुरू किया गया छद्म युद्ध हो या कारगिल में आतंकवादियों को ढाल बनाकर किया गया हमला, भारत के विरुद्ध दुस्साहस करना पाकिस्तानी सेनाध्यक्षों की फितरत रही है। इसके पीछे कहीं हमारे जवानों की क्षमता को लेकर आम पाकिस्तानी के मन में पैदा की गई गलतफहमियां हैं, कहीं चीन के बिना शर्त समर्थन का यकीन तो कहीं परमाणु शक्ति बनने से उपजा अति-आत्मविश्वास। पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति और जनरल याह्या खान ने कहा था कि भारतीय सैनिक और नेता दोनों ही मानसिक रूप से बहुत कमजोर हैं और पाकिस्तानी फौज ने कुछ करारे हमले किए तो वे चंद घंटे के भीतर ही हथियार डाल देंगे। यह अलग बात है कि याह्या खान को भारत की असली क्षमताओं का अंदाजा पाकिस्तान की अपमानजनक हार के बाद हुआ। बांग्लादेश मुक्ति युद्ध और कारगिल युद्ध में भी पाकिस्तान को चीन से समर्थन की उम्मीद थी लेकिन हालात की नजाकत को भांपते हुए चीन ने चुप्पी साधे रखना ही बेहतर समझा। पाकिस्तानी सैनिक अधिकारियों को अहसास होना चाहिए कि चीन खुद भी पाकिस्तानी जमीन से उसकी ओर निर्यात हो रहे आतंकवाद का भुक्तभोगी है और भारत के साथ युद्ध की स्थिति में वह उसके हक में कोई प्रत्यक्ष भूमिका निभाने का जोखिम मोल लेगा, यह जरूरी नहीं है। वह भी उस स्थिति में, जबकि लगभग पूरी दुनिया इस मुद्दे पर भारत के साथ है।

भारत और पाकिस्तान के बीच संभावित युद्ध को लेकर जिस तरह भारत में अब तक सरकारी तौर पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है। बल्कि विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने खुद साफ किया है कि भारत पाकिस्तान पर हमला करने नहीं जा रहा है। दूसरी ओर पाक सेना युद्ध के लिए आतुर नजर आ रही है। सेनाध्यक्ष जनरल कयानी ने भारत के हमले का चंद मिनटों में जवाब देने की बात कहकर सारे घटनाक्रम को नया मोड़ दे दिया है। पाकिस्तानी वायुसेना के विमान बतौर तैयारी सीमावर्ती शहरों पर नीची उड़ानें भर रहे हैं, सेना की टुकड़ियों को धीरे-धीरे स्थानांतरित किया जा रहा है और तालिबान कमांडर बैतुल्ला महसूद ने पाक फौज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने की बात कही है। पाकिस्तानी सेना जिस तरह युद्ध का माहौल तैयार करने में लगी है वह वहां के घटनाक्रम पर एक बार फिर फौज का दबदबा कायम करने की कोशिश भी है। यह कूटनीतिक लिहाज से पाकिस्तान के हक में भी जाता है क्योंकि युद्ध का हौवा खड़ा कर आतंकवाद के बुनियादी मुद्दे को पृष्ठभूमि में भेजा जा सकता है। भारत-पाक युद्ध भड़कने की स्थिति में जहां पाकिस्तान सिर्फ भारत के निशाने पर आता है वहीं आतंकवाद के मुद्दे पर वह पूरी दुनिया के निशाने पर है और यही हालात रहे तो आगे चलकर किसी साझा अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई के दायरे में भी आ सकता है। संयुक्त राष्ट्र में पाक आधारित आतंकवाद को लेकर पास हुए प्रस्तावों के बाद भविष्य में ऐसी किसी कार्रवाई की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।

एक बार फिर सबूत के मुद्दे पर लौटते हैं। पाकिस्तान भारत सरकार की ओर से दिए गए सबूतों पर यकीन या कार्रवाई करेगा इसकी संभावना तो शुरू से ही नहीं थी। लेकिन खुद पाकिस्तानी मीडिया ने अपनी जांच-पड़ताल से सिद्ध कर दिया है कि अजमल कसाब पाकिस्तानी नागरिक है। उसके पाकिस्तानी पिता ने मान लिया है कि वह उसका बेटा है। उसके पूरे गांव ने यही बात स्वीकार की है। मुंबई के हमलावरों को पाकिस्तान से दिए जा रहे टेलीफोनी निर्देशों को डी-कोड कर लश्कर ए तैयबा के शीर्ष अधिकारियों की भूमिका का पर्दाफाश हो चुका है। खुद कसाब के साथ पूछताछ से कई िक्वंटल अहम सूचनाएं मिल चुकी हैं। ईमेल और सेटेलाइट फोन संदेशों की अमेरिकी खुफिया एजेंसियों द्वारा की गई जांच-पड़ताल में भी सिद्ध हो चुका है कि मुंबई का `मिशन` पाकिस्तानी आकाओं के निर्देश पर अंजाम दिया गया। अपने स्वतंत्र स्रोतों से की गई जांच और अजमल कसाब के साथ लंबी पूछताछ के आधार पर अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई ने कहा है कि `नॉन-स्टेट एक्टरों` को तो छोड़िए, पाकिस्तान के `स्टेट एक्टरों` (सरकारी संस्थानों) ने भी मुंबई के हमलों में सक्रिय भूमिका निभाई है। काबुल में भारतीय दूतावास पर हुए आतंकवादी हमले की जांच के बाद भी एक अन्य अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने हमले में पाकिस्तान सरकार के संस्थानों, विशेषकर आईएसआई और पाकिस्तानी फौज का हाथ होने की बात मानी थी। यह अलग बात है कि पाकिस्तान सरकार ने तब भी उपलब्ध कराए गए सबूतों को मानने से इंकार कर दिया था।

अब फैसला अंतरराष्ट्रीय समुदाय के हाथ में है। एक ओर सबूतों का भंडार है तो दूसरी ओर आसिफ अली जरदारी के पल-पल बदलते बयान, एक ओर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव हैं तो दूसरी ओर उन्हें लागू करने से बचने के पाकिस्तानी प्रयास, एक ओर पूरे विश्व में फैला आतंक-जनित खौफ और निराशा का भाव है और दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना का उग्र रवैया, एक ओर `पीड़ित पक्ष` भारत की ओर से बार-बार आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई करने के आग्रह हैं तो दूसरी ओर तमाम सबूतों के बावजूद सारी समस्या से हाथ धो लेने की पाकिस्तानी कोशिशें। आखिरकार कब तक दुनिया आतंकवाद के विनाशकारी दंश को सहन करती रहेगी? आखिर कब तक हम हजारों या लाखों निर्दोष लोगों की हर साल बलि देते रहेंगे? अब यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि इस समस्या की जड़ कहां है। आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष अकेले भारत की लड़ाई नहीं, बल्कि विश्व की मुक्ति की लड़ाई है। अगर इस मुहिम में भारत अकेला पड़ा तो यह आतंकवाद के हाथों बलि चढ़ते आए दुनिया भर के निर्दोषों के साथ अक्षम्य नाइंसाफी होगी।

Thursday, December 25, 2008

तो क्या जरदारी को कसाब का राशनकार्ड लाकर दें?

पाकिस्तान सरकार जिस अडिग अंदाज में 26 अक्तूबर के मुंबई हमलों से संबंधित सबूतों को खारिज करती जा रही है वह आश्चर्यजनक है भी और नहीं भी, क्योंकि यही पाकिस्तानी फितरत है जिसे हम कारगिल युद्ध के समय भी देख चुके हैं।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

पाकिस्तान सरकार जिस अडिग अंदाज में 26 अक्तूबर के मुंबई हमलों से संबंधित सबूतों को खारिज करती जा रही है वह आश्चर्यजनक है भी और नहीं भी, क्योंकि यही पाकिस्तानी फितरत है। कारगिल युद्ध के समय भी पाकिस्तान ने कश्मीर की पहाड़ी चोटियों पर भारतीय सेना के साथ युद्ध करने वाले पेशेवर सैनिकों के साथ अपना संबंध होने से साफ इंकार कर दिया था। भारतीय सेना ने पहाड़ों पर मारे गए पाकिस्तानी सैनिकों के सैनिक पहचान पत्र, बैज और अन्य दस्तावेज पाकिस्तान सरकार को सौंपे थे लेकिन तत्कालीन पाक हुक्मरानों ने उन्हें मानने से इंकार कर दिया और अपने सैनिकों के शव तक वापस नहीं लिए। मुंबई के ताजा घटनाक्रम में वह अपने इतिहास को ही दोहरा रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में पुराने नियम ही चलते हैं और ऐसा लगता है कि अगर पाकिस्तानी हुक्मरान मुंबई में गिरफ्तार आतंकवादी मोहम्मद अजमल अमीर कसाव (कसाब) को अपने देश का नागरिक तभी मानेंगे जब उन्हें उसका राशन कार्ड लाकर सौंपा जाए। हिंदुस्तान-पाकिस्तान में बतौर पहचान पत्र और कुछ चले या न चले, राशन कार्ड हर जगह चल जाता है। अब यह अलग बात है कि कसाब और उसके साथियों को इस बात का अंदाजा नहीं था वरना वे देश छोड़ते समय इस अहम दस्तावेज को जरूर साथ लेकर चलते।

पाकिस्तान के साथ-साथ चीन ने भी कह दिया है कि मुंबई के हमलों के मास्टरमाइंड या सरगना की शिनाख्त होनी बाकी है। अब भले ही भारत, इंग्लैंड, अमेरिका और अन्य विकसित देशों की खुफिया एजेंसियां और सरकारें कुछ भी रहस्योद्घाटन करती रहें, उनकी बला से। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान को इस बात का अंदाजा नहीं है कि आतंकवादी हमलों के पीछे शामिल लोगों के बारे में किस तरह के सबूत मिल सकते हैं और किस तरह के नहीं। लेकिन पाक हुक्मरानों की निगाह में पाकिस्तान के हित इन सबूतों की अनदेखी करने में ही निहित हैं और वे ऐसा ही करते रहेंगे। यह अलग बात है कि हकीकत में उनके देश का हित आतंकवाद की समस्या को नकारने में नहीं है, बल्कि उसके समाधान में है क्योंकि जनरल जिया उल हक, बेनजीर भुट्टो, नवाज शरीफ और परवेज मुशर्रफ की तरफ से बरसों तक बड़े जतन से बड़ा किया गया यह राक्षस आज खुद पाकिस्तान के वजूद के लिए खतरा बनता जा रहा है। आतंकवाद से मुक्त, सुरक्षित और शांत पाकिस्तान सिर्फ भारत या बाकी विश्व के हित में ही नहीं है, वह खुद पाकिस्तान के भी हित में है। ताज्जुब होता है कि पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार, वहां के बुद्धिजीवी, मीडिया और नीति निर्धारकों को इस बात का अहसास क्यों नहीं हो रहा कि वे जिस बुराई के हक में खड़े हो रहे हैं वह किसी दिन उन सबको और उनकी भावी पीढ़ियों को लील जाएगी।

मुंबई के हमलों में बड़ी संख्या में निर्दोष भारतीयों और विदेशियों के मारे जाने के बाद पूरी दुनिया में गमो-गुस्से का माहौल है। शुरू में पाकिस्तान के कुछ हल्कों में भी ऐसा ही माहौल था और राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी व प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के शुरूआती बयानों से आतंकवाद के विरुद्ध साझा कार्रवाई की उम्मीद भी बंधी थी। लेकिन इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस के प्रमुख को भारत भेजने की घोषणा के कुछ ही घंटों बाद जिस तरह पाकिस्तान सरकार का रुख बदला और बदलता चला गया, वह पाक सत्ताधारियों के बीच एक अजीब किस्म के अनिर्णय, भ्रम और दबाव की ओर इशारा करता है। आईएसआई प्रमुख को भारत भेजने का फैसला कहीं इसलिए तो नहीं बदला गया क्योंकि पाकिस्तानी हुक्मरानों को मुंबई हमलों और आतंकवाद की वृहत्तर समस्या में इस कुख्यात खुफिया एजेंसी की परोक्ष या प्रत्यक्ष भूमिका के सामने आने का डर था?

Wednesday, December 24, 2008

तकनीक के इस्तेमाल में हमसे दो कदम आगे हैं आतंकवादी

ताजमहल और ओबेराय होटलों में आतंकवादियों ने सूचना तकनीक का जिस काबिलियत से इस्तेमाल किया वह रक्षा और आईटी विशेषज्ञों को भौंचक्का करने के लिए काफी है। आतंकवाद के विरुद्ध बनने वाली किसी भी रणनीति में टेक्नॉलॉजी की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

आतंकवादी हमले के दौरान ताज होटल में फंसे एंड्रियास लिवेरस नामक एक 73 वर्षीय ब्रिटिश-साइप्रियट व्यापारी ने किसी तरह बीबीसी से संपर्क कर लिया था। उन्होंने टेलीफोनी इंटरव्यू में खुलासा किया कि वे किस हालत में और कहां पर फंसे हुए हैं। यह कोई संयोग ही नहीं था कि वे इसके थोड़ी ही देर बाद आतंकवादियों की गोलियों के शिकार बन गए। बंधकों को आशंका थी कि जेहादियों को उनके ब्लैकबेरी फोन के जरिए वह सब जानकारी मिल रही है जिसे छिपाना जरूरी है। कभी पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं से बातचीत के जरिए तो कभी इस स्मार्टफोन में मौजूद इंटरनेट सुविधा की बदौलत। उन्हें बाहर से कस रही कमांडो घेराबंदी की जानकारी मिल रही थी तो भीतर फंसे बंधकों की गतिविधियों की भी। मुंबई में विनाश के स्तर ने ही नहीं बल्कि हमलावरों के हाथों तकनीक के शातिराना इस्तेमाल ने भी भौंचक्का कर दिया।

हम हिंदुस्तानियों के लिए जेहादी आतंकवाद का यह एक नया चेहरा था। तकनीक की सर्वसुलभ प्रकृति गलत हाथों में जाकर कितनी घातक हो सकती है, मुंबई के घटनाक्रम ने इसका गंभीर अहसास कराया है। जिस समय पूरी दुनिया सांस रोके टेलीविजन के जरिए मुंबई में आतंकवादियों के वीभत्स कारनामों पर नजर लगाए हुए थी, ठीक उसी समय ताज, ओबेराय होटलों और नरीमन हाउस में घुसे जेहादी तत्वों की नजर हमारी प्रतिक्रियाओं पर टिकी थी। हमले का विश्वव्यापी प्रभाव देखकर वे आनंदित थे। हालांकि होटलों के केबल कनेक्शन काट दिए जाने से टेलीविजन प्रसारण बंद थे मगर वे इंटरनेट से जुड़े थे। अगर वे आश्चर्यजनक रूप से 60 घंटे तक भारत के श्रेष्ठतम कमांडो से लोहा लेते रहे तो शायद इसलिए भी कि वे हर क्षण ताजा सूचनाओं से लैस थे।

आज का आतंकवादी आधुनिक युवक है जो अपना `मिशन` पूरा करने के लिए मोबाइल फोन, जीपीएस युक्त गैजेट्स, ईमेल तथा इंटरनेट जैसे साधनों को बतौर हथियार इस्तेमाल करने में सक्षम है। दूरसंचार के आधुनिक तौरतरीकों और इंटरनेट ने आतंक से लड़ाई का दायरा बढ़ा दिया है। अब यह लड़ाई सिर्फ हथियारों और हथगोलों की लड़ाई नहीं रही, बल्कि सूचना तंत्र की भी लड़ाई है। इंटरनेट आधारित सेवाओं और सूचनाओं के विस्फोट ने आतंकवादियों को वह शक्ति दे दी है जो उन्हें पहले प्राप्त नहीं थी। उनके पास न सिर्फ अपनी बात कहने का मंच है बल्कि संचार का वैकल्पिक माध्यम भी। प्रश्न उठता है कि क्या हमारा सुरक्षा तंत्र तकनीक के शातिराना इस्तेमाल से उपजी गंभीर आतंकवादी चुनौती का सामना करने को तैयार है?

पश्चिमी विशेषज्ञों का मानना है कि मुस्लिम जेहादियों के हाथों छह हजार से ज्यादा वेबसाइटें चलाई जा रही है। लश्करे तैयबा भी अपवाद नहीं है। उसकी वेबसाइट पर दावा किया गया है कि मुंबई का हमला `हिंदू आतंकवादियों` ने किया। इधर तथाकथित `डेक्कन मुजाहिदीन` ने हमले की जिम्मेदारी लेने के लिए `रीमेलर सर्विस` के जरिए जो ईमेल भेजा वह भी उनके तकनीकी कौशल का सबूत है। ऐसे ईमेल का पता लगाना बेहद मुश्किल होता है क्योंकि उनके उद्गम की पहचान कहीं दर्ज नहीं होती। वे एक से दूसरे सर्वर से होते हुए अपने गंतव्य तक पहुंचते हैं और अलग-अलग देशों से गुजरती हुए इस सिलसिले की पड़ताल कर पाना अमेरिका जैसे देश के लिए ही संभव है। यह अलग बात है कि अमेरिका के सहयोग से कम से कम इस मामले में ईमेल के लाहौर से भेजे जाने का खुलासा हो चुका है। दिल्ली के हालिया बम विस्फोटों के बाद `याहू` के तकनीकी विशेषज्ञ मंसूर पीरभाई की गिरफ्तारी ने दिखाया था कि आतंकवादियों को किस स्तर के विशेषज्ञों की सेवाएं हासिल हैं।

मुंबई के कुछ युवकों को अपने खींचे चित्र और सुरक्षा बलों की कार्रवाई का ब्यौरा ब्लॉगों, ट्विटर, फ्लिकर और यू-ट्यूब आदि इंटरनेट ठिकानों पर रखने के लिए दुनिया भर में काफी प्रसिद्धि मिली है। लेकिन उनकी यही उपलब्धि सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित हो सकती थी क्योंकि आतंकवादियों को इसी से बाहरी दुनिया की खबर मिलती रहती। इस बारे में बड़ी बहस होनी चाहिए कि क्या सूचना देने की आजादी का सुरक्षित रहने की आजादी के साथ कोई विरोधाभास है?

जांच एजेंसियों ने आतंकवादियों को मुंबई तक लाने वाली `कुबेर` नामक मछलीमार नौका से उनकी कुछ चीजें बरामद की थीं जिनमें एक सेटेलाइट फोन के साथ-साथ दक्षिण मुंबई के विस्तृत मानचित्र को दर्शाती गर्मिन कंपनी की ग्लोबल पोजीशनिंग डिवाइस (जीपीएस युक्ति) भी शामिल थी। इसी की मदद से आतंकवादी समुद्र में यात्रा करते हुए मुंबई तक पहुंचे और फिर अपने निशानों तक। `गूगल अर्थ` में दिखाए जाने वाले संवेदनशील इमारतों के त्रिआयामी चित्रों से उपजे सुरक्षा खतरों पर दुनिया भर की सरकारें चिंतित हैं। मुंबई के हमलावरों ने गूगल की ही एक अन्य सेवा `गूगल मैप्स` का अपने `मिशन` के लिए इस्तेमाल कर उनकी आशंकाओं को सच कर दिखाया।

आज के आतंकवादी तेजी से प्रौद्योगिकी का अपने युद्ध के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना सीख रहे हैं। वे मोबाइल कॉल करके बम विस्फोट करने लगे हैं। वे लापरवाह इंटरनेट यूजर्स के वाई-फाई नेटवर्क का इस्तेमाल कर धमकी भरे ईमेल भेजते हैं, प्रचार के लिए प्रजेन्टेशन तैयार करते हैं और ऑडियो या वीडियो फाइलों के रूप में जेहादी नेताओं के वीडियो जारी करते हैं। लेकिन तकनीक के इस सोफिस्टिकेटेड इस्तेमाल के बरक्स हमारा जवाब क्या है?

पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन अब अलकायदा के तौरतरीके सीख रहे हैं जो तकनीक के प्रयोग में काफी आगे है। बताया जाता है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई के बाद से लश्करे तैयबा और जैशे मोहम्मद अलकायदा की छत्रछाया में चले गए हैं। सेटेलाइट फोन, जीपीएस और इंटरनेट का प्रयोग शायद उसी सोहबत का नतीजा हो। सेटेलाइट फोन का स्थानीय दूरसंचार प्रोवाइडरों से संबंध नहीं होता और वे सीधे उपग्रह के माध्यम से अपने लक्ष्य से जुड़े होते हैं। उन्हें निष्क्रिय करना असंभव नहीं लेकिन उसके लिए जिन `जीएस-07` जैसे आधुनिकतम उपकरणों की जरूरत है वे हमारी सुरक्षा एजेंसियों के पास नहीं हैं। आतंकवादियों को बाहरी दुनिया से अलग-थलग करने के लिए संचार और इंटरनेट सुविधा रोक देने वाले ऐसे उपकरण एनएसजी और पुलिस की बुनियादी किट में मौजूद होने चाहिए।

साइबर कैफे पर आने वाले अवांछित तत्वों पर हमारी सुरक्षा एजेंसियों ने कुछ हद तक काबू पा लिया है लेकिन साइबर अपराध और साइबर आतंकवाद रोकने के हमारे प्रयास एक दशक पहले के आईपी एड्रेस ढूंढने, ईमेल फिल्टरिंग और स्पाईवेयर के इस्तेमाल जैसे पारंपरिक तौरतरीकों तक ही सीमित हैं। हमारे साइबर कानून सामान्य साइबर अपराधों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं और सच यह है कि वे उनसे भी व्यावहारिक ढंग से निपट नहीं पाते। देश में एक आक्रामक एवं आधुनिक साइबर सुरक्षा तंत्र बनाने की जरूरत है। आधुनिक चुनौतियों पर आधारित साइबर कानून तो महज उसका एक हिस्सा है। उसकी भूमिका तो घटना होने के बाद शुरू होती है।

आतंकवाद के विरुद्ध सूचना तकनीक संबंधी रणनीति में तीन प्रमुख घटक होने चाहिए- इंटरनेट और संचार तंत्र में उपलब्ध अथाह सूचनाओं का विश्लेषण कर आतंकवादियों की हरकतों को लगातार `ट्रैक` करने की क्षमता, बुनियादी संचार एवं सूचना तंत्र की सुरक्षा और आतंकियों के थोपे `साइबर युद्ध` में जीतने की क्षमता। काउंटर टेररिज्म की ही तरह काउंटर साइबर-टेररिज्म में भी शून्य सहिष्णुता की जरूरत है क्योंकि आज दोनों एक दूसरे के सहयोगी और पूरक हैं।

हम अमेरिका और ब्रिटेन से बहुत कुछ सीख सकते हैं जो `कार्निवर` और `एकेलोन` जैसे तकनीकी माध्यमों का प्रयोग कर हर तरह के संचार माध्यमों- टेलीफोन, ईमेल, इंटरनेट, फैक्स और रेडियो तरंगों तक से सूचनाओं को खोजने में सक्षम हैं। हालांकि इस संदर्भ में निजता के उल्लंघन जैसी नैतिक और कानूनी पेचीदगियां भी सामने आती हैं लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में किसी भी तरह का समझौता न करने के लिए ये सरकारें प्रसिद्ध हैं। यह बेवजह नहीं है कि अमेरिका में साइबर आतंकवाद से निपटने का काम दूरसंचार विभाग नहीं बल्कि रक्षा विभाग के हाथ में है। हमारी साइबर रणनीति का मकसद आतंकवादियों के हाथों तकनीक के दुरुपयोग पर अंकुश लगाना भर नहीं होना चाहिए। स्वयं हमलों को होने से रोकने में तकनीक का निर्णायक प्रयोग उसके केंद्र में होना चाहिए।

(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
- मेरा होमपेज http://www.balendu.com
- प्रभासाक्षी.कॉमः हिंदी समाचार पोर्टल
- वाहमीडिया मीडिया ब्लॉग
- लोकलाइजेशन लैब्सहिंदी में सूचना प्रौद्योगिकीय विकास
- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com