रिजर्व बैंक ने वही किया जो मुद्रास्फीति को काबू करने की लंबी लड़ाई में वह सवा साल से करता आ रहा है। ब्याज दरें बढ़ गईं। लेकिन क्या इस समस्या से निजात पाने का यही एकमात्र विकल्प था?
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
इतने बड़े झटके की उम्मीद नहीं थी। भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी ताजा नीतिगत समीक्षा के दौरान नीतिगत दरों में 50 बेसिस अंकों की बढ़ोत्तरी करके दहशत सी मचा दी है। इससे पिछली दस समीक्षाओं के दौरान भी वह नियम से रेपो और रिवर्स रेपो दरें बढ़ाती आई है। मार्च 2010 से अब तक ग्यारह बार। कुल मिलाकर करीब सवा तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी। आवासीय और वाहन ऋणों की ब्याज दरें आसमान छूने लगी हैं। और यह सिलसिला यहीं खत्म हो जाए, जरूरी नहीं। रिजर्व बैंक के मुताबिक यह वृद्धि अंतिम नहीं है और अगर मुद्रास्फीति काबू में नहीं आती है तो वह अगली बार फिर कदम उठाएगी। मुद्रास्फीति पर काबू करने का यह पारंपरिक तरीका है। लेकिन भारत में यह हथियार भी कारगर होता नहीं दीख रहा। सवा साल से अपनाई जा रही कड़ी नीति के बावजूद रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति के आगे बेबस दिखाई दे रहा है। नौ फीसदी से ज्यादा की मुद्रास्फीति देश के साथ.साथ आम आदमी की आर्थिक सेहत के लिए भी ठीक नहीं है। वह आर्थिक सुधारों को भी संकट में डाल रही है। माना कि बीमारी गंभीर है लेकिन इलाज काम कहां कर रहा है?
पहले ही मंदी के घातक दौर का सामना कर चुकी विश्व अर्थव्यवस्था के लिए अमेरिका के ऋण संकट और यूरोप की आर्थिक मंदी ने नई आशंकाएं पैदा कर दी हैं। भारत और चीन अपनी आंतरिक आर्थिक मजबूती के बल पर इन दबावों से कुछ हद तक सुरक्षित हैं लेकिन हाल के महीनों में मिल रहे संकेत बहुत शुभ नहीं हैं। चीन के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर अनुमान से कम रहने जा रही है। भारत में भी वित्त वर्ष 2010 की अंतिम तिमाही (8॰4 प्रतिशत) की तुलना में 2011 की पहली तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर (7॰8 प्रतिशत) में कमी आई है। औद्योगिक उत्पादन धीमा पड़ने, महंगाई बढ़ने और मुद्रास्फीति के बेकाबू बने रहने जैसी चिंताएं बरकरार हैं। ऊपर से रिजर्व बैंक के ताजा फैसले से कारोबारियों और उपभोक्ताओं दोनों के बीच आशंकाओं और चिंताओं का माहौल है जो उत्पादकता पर असर डालेगा।
ब्याज दरों में इतनी बड़ी तेजी करके संभवत: रिजर्व बैंक इसी तरह की धारणा पैदा भी करना चाहता था। नए कर्जों पर अंकुश लगे और बाजार में मुद्रा का प्रसार कुछ कम हो। असुरक्षा बोध लोगों को कम खर्च करने के लिए प्रेरित करेगा। कुछ विशेषज्ञों को यह भी लगता है कि आगे भी दरें बढ़ाने की संभावना संबंधी घोषणा के बावजूद असलियत में रिजर्व बैंक इस मामले में एक ठहराव बिंदु के करीब पहुंच रहा है। इस बार का बड़ा झटका संभवत: आखिरी हो क्योंकि अगली बार दरें बढ़ीं तो वह अर्थव्यवस्था में धीमापन ला सकती है। हालांकि मुद्रास्फीति को लेकर सरकार जिस तरह भयभीत दिखाई दे रही है, उतने बड़े भय की बात शायद नहीं है क्योंकि कहते हैं कि मुद्रास्फीति हर बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था का एक आवश्यक प्रतिफलन है। फिर नरेगा जैसी योजनाओं के जरिए जितना धन निम्नतम स्तर तक पहुंच रहा है, वह भी तो अपना असर दिखाएगा ही।
सभी होते हैं प्रभावित
ब्याज दरों की यह वृद्धि अंतिम है या नहीं, इस बारे में स्थिति अगले महीने तक साफ होगी लेकिन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ.साथ आम आदमी के लिए भी मुद्रास्फीति का नीचे आना जरूरी है। इसे यूं देखिए। मुद्रास्फीति के घटे बिना ब्याज दरें नीचे नहीं आने वाली। नतीजे में आवासीय, वाहन, निजी और दूसरे कर्ज महंगे होते रहेंगे। यदि आपने कोई कर्ज लिया हुआ है तो उसे चुकाने की अवधि या फिर मासिक किश्त की राशि बढ़ती जा रही है। दूसरी तरफ आय में इस किस्म की मासिक वृद्धि नहीं हो रही। आपके घरेलू बजट पर दबाव बढ़ता रहेगा और जिससे आपकी क्रय शक्ति व बचत शक्ति निरंतर कम होती रहेगी। अगर आप बैंक में सावधि जमा पर सात फीसदी की ब्याज दर मिलने से प्रसन्न हो रहे हों तो आपको बता दें कि असल में आप ऋणात्मक ब्याज पा रहे हैं। सौ रुपए की रकम एक साल में 107 रुपए हो जाएगी लेकिन मुद्रास्फीति (जून में 9॰44 फीसदी) के कारण उन 107 रुपयों की कीमत 98 रुपए के आसपास ही बैठेगी। इस लिहाज से समझें तो बैंक आपको सात फीसदी ब्याज देकर भी असल में आपसे आपकी ही रकम पर दो फीसदी ब्याज वसूल रहा है।
इसे एक उदाहरण से समझते हैं। गेहूं की दर आज 12 रुपए प्रति किलो है। यानी 12000 रुपए में आप दस क्विंटल गेहूं खरीद सकते हैं। मान लीजिए कि आपने यही रकम बैंक में जमा कराई और साल भर बाद सात फीसदी ब्याज समेत 12840 रुपए प्राप्त किए। इस बीच मुद्रास्फीति के कारण गेहूं की दर बढ़कर 13 रुपए प्रति किलो हो गई। अब 12840 रुपए में नौ क्विंटल 87 किलो गेहूं ही आया। यानी अपना पैसा साल भर बैंक में रखने से आपको लाभ नहीं, नुकसान हुआ। यही मुद्रास्फीति का प्रभाव है।
मुद्रास्फीति का कम होना सबके हित में है। लेकिन ब्याज दरें बढ़ाए जाने के कई नकारात्मक प्रभाव भी होते हैं। जैसे आवासीय क्षेत्र में एकदम से गिरावट आ जाना। बैंकों द्वारा आवासीय कर्ज देने से हाथ खींचने और ब्याज दरें बढ़ाने के कारण बड़ी रियल एस्टेट कंपनियां दबाव में आ गई हैं। खरीददारों को आकर्िषत करने के लिए उन्हें कीमतों में 15 से 20 फीसदी की कटौती करनी होगी। उसके बाद भी इस सेक्टर का विकास धीमा ही रहेगा। महंगे कर्ज के चलते बहुत सी नई औद्योगिक परियोजनाएं फिलहाल रुक जाएंगी जिससे औद्योगिक उत्पादन और बिक्री घटेगी। वाहन क्षेत्र में भी महंगे कर्जों का सीधा असर धीमी मांग के रूप में दिखाई देगा। लोग अपने कर्ज चुकाने के लिए ज्यादा ब्याज अदा करेंगे इसलिए बाजार पर भी असर पड़ेगा। और इन सबके नतीजतन रोजगार पर दबाव पड़ेगा। और तो और सकल घरेलू उत्पाद में भी कमी आएगी।
ब्याज दरें एकमात्र विकल्प नहीं
हालांकि वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने संकेत दिया है कि मुद्रास्फीति को काबू करने की प्रक्रिया में अगर आर्थिक विकास में थोड़ी कमी भी आती है तो सरकार उसे सहन करने के लिए तैयार है। पहली प्राथमिकता मुद्रास्फीति और महंगाई को काबू करने की है। जब महत्वपूण्र चुनाव करीब आ रहे हों तो कांग्रेस ही क्या कोई भी राजनैतिक दल यही करेगा क्योंकि आम आदमी जिस चीज से सवरधिक प्रभावित और आक्रोशित होता है, वह है महंगाई।
सवाल उठता है कि क्या मुद्रास्फीति पर काबू करने के लिए एकपक्षीय नीति पयरप्त है? माना कि ब्याज दरें पूरी अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं लेकिन क्या समस्या का यही एकमात्र और अंतिम समाधान है? मुद्रास्फीति की समस्या को सिर्फ रिजर्व बैंक के हवाले कर देने की बजाए अगर उसमें केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों की भी भूमिका हो तो विकल्प और भी कई निकल सकते हैं। आवासीय क्षेत्र में मांग घटानी है तो परियोजनाओं की संख्या सीमित की जा सकती है। दैनिक उपयोगी की चीजों की कीमतें बढ़ने के पीछे काफी हद तक पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ी हुई कीमतें जिम्मेदार हैं। अगर सरकार कुछ और समय तक पेट्रोलियम क्षेत्र में सब्सिडी के संदभ्र में नरमी बरतती रहे तो महंगाई प्रभावित हो सकती है। खाद्य पदार्थों की महंगाई के लिए कुछ हद तक कमोडिटीज के वायदा कारोबार को दोषी माना जाता है।
गेहूं, चावल, दालों आदि के वायदा भावों में तेजी राष्ट्रीय स्तर पर इन पदार्थों के भावों को प्रभावित करने लगी है। सब्जियों, फलों आदि की सप्लाई.चेन व्यवस्था को बेहतर बनाकर उनकी कीमतों पर नियंत्रण किया जा सकता है। जमाखोरी, कालाबाजारी पर नियंत्रण और सावर्जनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाना भी एक असरदार उपाय है। साथ ही साथ ब्याज दरों को थोड़ा ऊंचा रखने का विकल्प भी आजमाया जा सकता है। लेकिन आम आदमी को बारह.तेरह फीसदी ब्याज दरें चुकाने पर मजबूर करके आप उसे मजबूत नहीं बना सकते।
Saturday, July 30, 2011
Saturday, July 23, 2011
इनका भ्रष्टाचार बनाम उनका भ्रष्टाचार
बालेन्दु शर्मा दाधीच:
भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को लगातार निशाना बनाती रही है। लेकिन कर्नाटक में जिस तरह से एक के बाद एक भ्रष्टाचार और भाई.भतीजावाद के मामले सामने आ रहे हैं, उन्होंने मुख्य विपक्षी दल को बड़ी अजीब स्थिति में ला दिया है। भ्रष्टाचार भले ही केंद्र का हो या राज्य का, उसमें कोई गुणवत्तात्मक भेद नहीं किया जा सकता। भ्रष्टाचारी नेता भले ही इस पार्टी से संबंध रखता हो या उस पार्टी से, इस गठबंधन से या उस गठबंधन से, इस राज्य से या उस राज्य से, उस पर भ्रष्टाचार संबंधी वही नैतिक वर्जनाएं और कानून लागू होते हैं जो दूसरों पर होते हैं। ऐसे में कर्नाटक के घटनाक्रम पर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा कोई दखल न किया जाना उसके उस नैतिक रुख के अनुकूल नहीं है जो उसने नोट के बदले वोट, 2जी घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले, काले धन के विरुद्ध बाबा रामदेव की मुहिम, अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, दिल्ली सरकार के घोटालों और ऐसी ही दर्जनों दूसरी घटनाओं के संदभ्र में लिया है। किसी दल को यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर आप सिर्फ दूसरों को उपदेश देता है और खुद उन पर अमल करने से बचता है तो वह अपनी राजनैतिक साख को दांव पर लगा रहा है।
केंद्र सरकार ने पिछले कुछ महीनों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुछ अहम कार्रवाइयां की हैं। ये कार्रवाइयां उसने खुद किसी अंत:प्रेरणा से प्रेरित होकर या नैतिकता के तकाजे की बदौलत नहीं की है। भाजपा सहित ज्यादातर विपक्षी दलों के दबाव, सिविल सोसायटी के आंदोलनों, सुप्रीम कोर्ट के सीधे दखल और जनता के बीच पैदा हुई जागरूकता ने उसे विवश किया। अन्यथा जिस ए राजा के विरुद्ध पुख्ता सबूत डेढ़ दो साल से उपलब्ध थे, उसके विरुद्ध कार्रवाई के लिए इतना लंबा इंतजार नहीं किया जाता। लेकिन फिर भी, केंद्र सरकार को यह श्रेय देना पड़ेगा कि उसने कई मामलों में केंद्रीय जांच ब्यूरो को कार्रवाई करने की पूरी छूट दी है। अनेक पूवर् मंत्रियों और सांसदों के जेल पहुंचने के रूप में उसके नतीजे भी दिखाई दे रहे हैं। 'नोट के बदले वोट' जैसे शर्मनाक कांड में भी दिल्ली पुलिस ने समाजवादी पार्टी के पूवर् महासचिव अमर सिंह तक से पूछताछ की है जो भले ही अदालती फटकार के बाद अंजाम दी गई हो, मगर देश की राजनीति में सवर्ोच्च स्तर से हरी झंडी मिले बिना संभव नहीं थी। केंद्र ने लोकपाल बिल भी तैयार कर लिया है जो संसद के मानसून सत्र में पेश हो ही जाएगा। इसके प्रारूप को लेकर भले ही विपक्ष और सिविल सोसायटी के मन में कई तरह की शंकाएं, संदेह और आपित्तयां हों, लेकिन एक दस्तावेज तैयार तो हुआ ही है। बाहरी दबाव में ही सही, इसके प्रावधान पहले के प्रारूपों की तुलना में मजबूत माने जा रहे हैं। लेकिन केंद्र को भ्रष्टाचार विरोधी कार्रवाइयों के लिए उचित रूप से मजबूर करने वाला मुख्य विपक्षी दल अपने नेतृत्व वाली राज्य सरकारों पर लगे लगभग उसी किस्म के आरोपों पर भिन्न रुख कैसे अपना सकता है?
कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के लिए भ्रष्टाचार के आरोप कोई अपरिचित चीज नहीं हैं। वे गाहे.बगाहे इस किस्म के आरोपों के दायरे में आते रहते हैं। अपने छोटे से कायर्काल में वे जितने राजनैतिक संकटों और आरोपों के शिकार हुए हैं, वह अपने आप में एक मिसाल है। कुछ ही दिन पहले येदियुरप्पा द्वारा अपने चहेतों और रिश्तेदारों को औने.पौने दामों पर जमीन आवंटित किए जाने की बात सामने आई थी। अब राज्य के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने हजारों करोड़ रुपए के खनन घोटाले में उनकी भूमिका से पर्दा उठा दिया है। केंद्र में प्रधानमंत्री के पद को लोकपाल के दायरे में लाए जाने की प्रबल मांग करने वाली भारतीय जनता पार्टी राज्य में लोकायुक्त द्वारा किए गए इतने गंभीर आक्षेप को उसी अंदाज में ले रही है जैसे सत्तारूढ़ पार्िटयां लेती आई हैं. उन्हें दूसरों के विरुद्ध लगाए गए आरोप गंभीर और अपने विरुद्ध लगे आरोप हल्के तथा बेबुनियाद दिखाई देते हैं। लोकायुक्त के बयान पर भाजपा ने यह टिप्पणी की है कि संतोष हेगड़े इस तरह बर्ताव कर रहे हैं जैसे वे कोई विपक्षी नेता हों। इस आरोप को अगर आप बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के संदभ्र में किए गए केंद्रीय मंत्रियों और कांग्रेसी नेताओं के बयानों के साथ रखकर देखेंगे तो उनमें कोई खास अंतर नहीं है। हर सत्तारूढ़ दल ऐसी स्थिति में इसी तरह प्रतिक्रिया करता है। चाहे वह अपने को 'दूसरों से अलग' करार देने वाली भारतीय जनता पार्टी ही क्यों न हो।
आरोप, एक के बाद एक
हर संकट के समय मंदिरों में जाकर पूजा.अर्चना करने और हाथियों से आशीवरद लेने के लिए प्रसिद्ध बीएस येदियुरप्पा भले ही अपनी कुर्सी पर जमे रहने के लिए कितने भी अडिग क्यों न हों, उनके पास मौजूद विकल्प घटते जा रहे हैं। लोकायुक्त की लीक हुई रिपोर्ट के अनुसार (जो कुछ ही दिन में सार्वजनिक रूप से सामने आने वाली है), थिम्मप्पनागुड़ी में लौह अयस्क की खदानों से संबंधित सौदों में लाभ पहुंचाए जाने के कारण मुख्यमंत्री के दो बेटों. बीवाई राघवेन्द्र और बीवाई विजयेन्द्र तथा दामाद आरएन सोहन कुमार को परोक्ष रूप से करीब अठारह करोड़ रुपए की रकम दी गई। उनकी तरफ से बेचे गए एक एकड़ के भूखंड को जेएसडब्लू स्टील ने बीस करोड़ रुपए में खरीदा जबकि उनकी बाजार कीमत सिर्फ दो करोड़ रुपए थी। मुख्यमंत्री के परिवार के ट्रस्ट प्रेरणा एजुकेशन सोसायटी को दस करोड़ रुपए का दान भी दिया गया। रिपोर्ट में आरोप है कि खनिज लीज के एवज में आर प्रवीण चंद्र नामक व्यक्ति ने मुख्यमंत्री के परिवार को करीब छह करोड़ रुपए का एडवांस दिया और बाद में इतनी ही राशि मुख्यमंत्री के परिवार से जुड़ी दो फर्मों. भगत होम्स प्राइवेट लिमिटेड और दवलगिरी प्रोपर्टी डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड को भी प्रवीण चंद्र ने दी। आरोप सीधे मुख्यमंत्री के बेटों, दामाद और परिवार पर हैं। ठीक उसी तरह जैसे तमिलनाडु में द्रमुक के प्रथम परिवार के विरुद्ध आते रहे हैं।
दो दिन पहले ही कर्नाटक हाईकोर्ट ने अवैध भूमि सौदों के मामले में पुलिस को मुख्यमंत्री और उनके परिवार के सदस्यों से पूछताछ की इजाजत दी है। खुद मुख्यमंत्री, उनके दो बेटों और दामाद सोहन कुमार के विरुद्ध निचली अदालत में चल रहे पांच मामलों में हाईकोर्ट ने यह इजाजत दी। सोहन कुमार निचली अदालत द्वारा इन मामलों पर सुनवाई शुरू किए जाने के विरोध में हाईकोर्ट पहुंचे थे। जिस भूमि घोटाले के सिलसिले में यह सब हुआ है, वह 190 करोड़ रुपए का है। आरोपों की कोई कमी नहीं है। रैयत संपर्क केंद्रों की स्थापना के घोटाले में 11 करोड़ रुपए का घपला किए जाने का आरोप है जो कभी बनाए ही नहीं गए। शिमोगा में येदियुरप्पा के परिवार द्वारा बनाया गया होटल भी आरोपों के घेरे में है। पहला आरोप, यह कि यह नियमों का उल्लंघन कर बनाया गया और दूसरा इसमें करीब 39 करोड़ रुपए का खर्च आया जबकि सिर्फ 12 करोड़ का खर्च ही दिखाया गया। उन पर आयकर संबंधी गलत बयानी के भी आरोप हैं। श्री येदियुरप्पा ने इन आरोपों में सीबीआई जांच की मांग ठुकरा दी थी। अब राज्य पुलिस और लोकायुक्त पुलिस इनकी जांच में जुटी है।
भाजपा के अभियान की साख दांव पर
येदियुरप्पा के विरुद्ध उठते आरोपों के तूफान की टाइमिंग भाजपा के अनुकूल नहीं है। भ्रष्टाचार के ज्वलंत मुद्दे पर पार्टी के प्रचंड अभियान पर धर्मप्राण मुख्यमंत्री ने ठंडा पानी फेंक दिया है। केंद्र में महीनों से चल रही उसकी प्रभावशाली मुहिम कमजोर पड़ी है। भाजपा अपने एक मुख्यमंत्री को बचाने के लिए अपनी राजनैतिक साख को लंबे समय तक संकट में नहीं डालती रह सकती। आज नहीं तो कल येदियुरप्पा के भाग्य का फैसला होना तय है, ऐसे, नहीं तो वैसे। कारण, राज्यपाल हंसराज भारद्वाज से उनके 'विशेष रिश्ते' हैं जो लोकायुक्त की रपट का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। खुद लोकायुक्त, जो अगस्त में रिटायर हो जाएंगे, सेवानिवृित्त से पहले खनन घोटाले पर अपनी रपट पेश करके जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो राज्य सरकार के साथ.साथ धारा 12(5) के तहत राज्यपाल को भी दी जा सकती है और जिस पर आगे कार्रवाई करने के लिए श्री भारद्वाज अधिकृत हैं। ऐसे में बीएस येदियुरप्पा के लिए पिछले संकटों की तरह इस बार का संकट कहीं ज्यादा गंभीर है। भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भले ही इसे अनदेखा कर दे, हंसराज भारद्वाज से इस किस्म की उदारता की उम्मीद शायद आप सपने में भी नहीं कर सकते।
भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को लगातार निशाना बनाती रही है। लेकिन कर्नाटक में जिस तरह से एक के बाद एक भ्रष्टाचार और भाई.भतीजावाद के मामले सामने आ रहे हैं, उन्होंने मुख्य विपक्षी दल को बड़ी अजीब स्थिति में ला दिया है। भ्रष्टाचार भले ही केंद्र का हो या राज्य का, उसमें कोई गुणवत्तात्मक भेद नहीं किया जा सकता। भ्रष्टाचारी नेता भले ही इस पार्टी से संबंध रखता हो या उस पार्टी से, इस गठबंधन से या उस गठबंधन से, इस राज्य से या उस राज्य से, उस पर भ्रष्टाचार संबंधी वही नैतिक वर्जनाएं और कानून लागू होते हैं जो दूसरों पर होते हैं। ऐसे में कर्नाटक के घटनाक्रम पर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा कोई दखल न किया जाना उसके उस नैतिक रुख के अनुकूल नहीं है जो उसने नोट के बदले वोट, 2जी घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले, काले धन के विरुद्ध बाबा रामदेव की मुहिम, अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, दिल्ली सरकार के घोटालों और ऐसी ही दर्जनों दूसरी घटनाओं के संदभ्र में लिया है। किसी दल को यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर आप सिर्फ दूसरों को उपदेश देता है और खुद उन पर अमल करने से बचता है तो वह अपनी राजनैतिक साख को दांव पर लगा रहा है।
केंद्र सरकार ने पिछले कुछ महीनों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुछ अहम कार्रवाइयां की हैं। ये कार्रवाइयां उसने खुद किसी अंत:प्रेरणा से प्रेरित होकर या नैतिकता के तकाजे की बदौलत नहीं की है। भाजपा सहित ज्यादातर विपक्षी दलों के दबाव, सिविल सोसायटी के आंदोलनों, सुप्रीम कोर्ट के सीधे दखल और जनता के बीच पैदा हुई जागरूकता ने उसे विवश किया। अन्यथा जिस ए राजा के विरुद्ध पुख्ता सबूत डेढ़ दो साल से उपलब्ध थे, उसके विरुद्ध कार्रवाई के लिए इतना लंबा इंतजार नहीं किया जाता। लेकिन फिर भी, केंद्र सरकार को यह श्रेय देना पड़ेगा कि उसने कई मामलों में केंद्रीय जांच ब्यूरो को कार्रवाई करने की पूरी छूट दी है। अनेक पूवर् मंत्रियों और सांसदों के जेल पहुंचने के रूप में उसके नतीजे भी दिखाई दे रहे हैं। 'नोट के बदले वोट' जैसे शर्मनाक कांड में भी दिल्ली पुलिस ने समाजवादी पार्टी के पूवर् महासचिव अमर सिंह तक से पूछताछ की है जो भले ही अदालती फटकार के बाद अंजाम दी गई हो, मगर देश की राजनीति में सवर्ोच्च स्तर से हरी झंडी मिले बिना संभव नहीं थी। केंद्र ने लोकपाल बिल भी तैयार कर लिया है जो संसद के मानसून सत्र में पेश हो ही जाएगा। इसके प्रारूप को लेकर भले ही विपक्ष और सिविल सोसायटी के मन में कई तरह की शंकाएं, संदेह और आपित्तयां हों, लेकिन एक दस्तावेज तैयार तो हुआ ही है। बाहरी दबाव में ही सही, इसके प्रावधान पहले के प्रारूपों की तुलना में मजबूत माने जा रहे हैं। लेकिन केंद्र को भ्रष्टाचार विरोधी कार्रवाइयों के लिए उचित रूप से मजबूर करने वाला मुख्य विपक्षी दल अपने नेतृत्व वाली राज्य सरकारों पर लगे लगभग उसी किस्म के आरोपों पर भिन्न रुख कैसे अपना सकता है?
कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के लिए भ्रष्टाचार के आरोप कोई अपरिचित चीज नहीं हैं। वे गाहे.बगाहे इस किस्म के आरोपों के दायरे में आते रहते हैं। अपने छोटे से कायर्काल में वे जितने राजनैतिक संकटों और आरोपों के शिकार हुए हैं, वह अपने आप में एक मिसाल है। कुछ ही दिन पहले येदियुरप्पा द्वारा अपने चहेतों और रिश्तेदारों को औने.पौने दामों पर जमीन आवंटित किए जाने की बात सामने आई थी। अब राज्य के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने हजारों करोड़ रुपए के खनन घोटाले में उनकी भूमिका से पर्दा उठा दिया है। केंद्र में प्रधानमंत्री के पद को लोकपाल के दायरे में लाए जाने की प्रबल मांग करने वाली भारतीय जनता पार्टी राज्य में लोकायुक्त द्वारा किए गए इतने गंभीर आक्षेप को उसी अंदाज में ले रही है जैसे सत्तारूढ़ पार्िटयां लेती आई हैं. उन्हें दूसरों के विरुद्ध लगाए गए आरोप गंभीर और अपने विरुद्ध लगे आरोप हल्के तथा बेबुनियाद दिखाई देते हैं। लोकायुक्त के बयान पर भाजपा ने यह टिप्पणी की है कि संतोष हेगड़े इस तरह बर्ताव कर रहे हैं जैसे वे कोई विपक्षी नेता हों। इस आरोप को अगर आप बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के संदभ्र में किए गए केंद्रीय मंत्रियों और कांग्रेसी नेताओं के बयानों के साथ रखकर देखेंगे तो उनमें कोई खास अंतर नहीं है। हर सत्तारूढ़ दल ऐसी स्थिति में इसी तरह प्रतिक्रिया करता है। चाहे वह अपने को 'दूसरों से अलग' करार देने वाली भारतीय जनता पार्टी ही क्यों न हो।
आरोप, एक के बाद एक
हर संकट के समय मंदिरों में जाकर पूजा.अर्चना करने और हाथियों से आशीवरद लेने के लिए प्रसिद्ध बीएस येदियुरप्पा भले ही अपनी कुर्सी पर जमे रहने के लिए कितने भी अडिग क्यों न हों, उनके पास मौजूद विकल्प घटते जा रहे हैं। लोकायुक्त की लीक हुई रिपोर्ट के अनुसार (जो कुछ ही दिन में सार्वजनिक रूप से सामने आने वाली है), थिम्मप्पनागुड़ी में लौह अयस्क की खदानों से संबंधित सौदों में लाभ पहुंचाए जाने के कारण मुख्यमंत्री के दो बेटों. बीवाई राघवेन्द्र और बीवाई विजयेन्द्र तथा दामाद आरएन सोहन कुमार को परोक्ष रूप से करीब अठारह करोड़ रुपए की रकम दी गई। उनकी तरफ से बेचे गए एक एकड़ के भूखंड को जेएसडब्लू स्टील ने बीस करोड़ रुपए में खरीदा जबकि उनकी बाजार कीमत सिर्फ दो करोड़ रुपए थी। मुख्यमंत्री के परिवार के ट्रस्ट प्रेरणा एजुकेशन सोसायटी को दस करोड़ रुपए का दान भी दिया गया। रिपोर्ट में आरोप है कि खनिज लीज के एवज में आर प्रवीण चंद्र नामक व्यक्ति ने मुख्यमंत्री के परिवार को करीब छह करोड़ रुपए का एडवांस दिया और बाद में इतनी ही राशि मुख्यमंत्री के परिवार से जुड़ी दो फर्मों. भगत होम्स प्राइवेट लिमिटेड और दवलगिरी प्रोपर्टी डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड को भी प्रवीण चंद्र ने दी। आरोप सीधे मुख्यमंत्री के बेटों, दामाद और परिवार पर हैं। ठीक उसी तरह जैसे तमिलनाडु में द्रमुक के प्रथम परिवार के विरुद्ध आते रहे हैं।
दो दिन पहले ही कर्नाटक हाईकोर्ट ने अवैध भूमि सौदों के मामले में पुलिस को मुख्यमंत्री और उनके परिवार के सदस्यों से पूछताछ की इजाजत दी है। खुद मुख्यमंत्री, उनके दो बेटों और दामाद सोहन कुमार के विरुद्ध निचली अदालत में चल रहे पांच मामलों में हाईकोर्ट ने यह इजाजत दी। सोहन कुमार निचली अदालत द्वारा इन मामलों पर सुनवाई शुरू किए जाने के विरोध में हाईकोर्ट पहुंचे थे। जिस भूमि घोटाले के सिलसिले में यह सब हुआ है, वह 190 करोड़ रुपए का है। आरोपों की कोई कमी नहीं है। रैयत संपर्क केंद्रों की स्थापना के घोटाले में 11 करोड़ रुपए का घपला किए जाने का आरोप है जो कभी बनाए ही नहीं गए। शिमोगा में येदियुरप्पा के परिवार द्वारा बनाया गया होटल भी आरोपों के घेरे में है। पहला आरोप, यह कि यह नियमों का उल्लंघन कर बनाया गया और दूसरा इसमें करीब 39 करोड़ रुपए का खर्च आया जबकि सिर्फ 12 करोड़ का खर्च ही दिखाया गया। उन पर आयकर संबंधी गलत बयानी के भी आरोप हैं। श्री येदियुरप्पा ने इन आरोपों में सीबीआई जांच की मांग ठुकरा दी थी। अब राज्य पुलिस और लोकायुक्त पुलिस इनकी जांच में जुटी है।
भाजपा के अभियान की साख दांव पर
येदियुरप्पा के विरुद्ध उठते आरोपों के तूफान की टाइमिंग भाजपा के अनुकूल नहीं है। भ्रष्टाचार के ज्वलंत मुद्दे पर पार्टी के प्रचंड अभियान पर धर्मप्राण मुख्यमंत्री ने ठंडा पानी फेंक दिया है। केंद्र में महीनों से चल रही उसकी प्रभावशाली मुहिम कमजोर पड़ी है। भाजपा अपने एक मुख्यमंत्री को बचाने के लिए अपनी राजनैतिक साख को लंबे समय तक संकट में नहीं डालती रह सकती। आज नहीं तो कल येदियुरप्पा के भाग्य का फैसला होना तय है, ऐसे, नहीं तो वैसे। कारण, राज्यपाल हंसराज भारद्वाज से उनके 'विशेष रिश्ते' हैं जो लोकायुक्त की रपट का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। खुद लोकायुक्त, जो अगस्त में रिटायर हो जाएंगे, सेवानिवृित्त से पहले खनन घोटाले पर अपनी रपट पेश करके जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो राज्य सरकार के साथ.साथ धारा 12(5) के तहत राज्यपाल को भी दी जा सकती है और जिस पर आगे कार्रवाई करने के लिए श्री भारद्वाज अधिकृत हैं। ऐसे में बीएस येदियुरप्पा के लिए पिछले संकटों की तरह इस बार का संकट कहीं ज्यादा गंभीर है। भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भले ही इसे अनदेखा कर दे, हंसराज भारद्वाज से इस किस्म की उदारता की उम्मीद शायद आप सपने में भी नहीं कर सकते।
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