Friday, December 26, 2008
पाकिस्तान के हक में है जंग की हवा बनाना
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
मुंबई के आतंकवादी हमलों के बाद धीरे-धीरे पाकिस्तान के रुख और फैसलों पर वहां की सेना का बढ़ता प्रभाव साफ दिखाई दे रहा है। आतंकवाद के हाथों खुद अपनी पत्नी और देश की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को खो देने वाले आसिफ अली जरदारी को इतना अपरिपक्व राजनीतिज्ञ नहीं माना जा सकता जो इतने गंभीर अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर पल-पल में बयान बदलते रहें। भले ही आज पाकिस्तान में फौजी शासन न हो, सेना हमेशा ही वहां की राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करने की स्थिति में रही है और ताजा घटनाक्रम भी कोई अपवाद नहीं है। अब यह साफ हो चुका है कि आईएसआई प्रमुख को भारत भेजने का फैसला पाक फौज के दबाव में बदला गया और जनरल अशफाक कयानी की ताजा गतिविधियों और बयानों से साफहै कि मौजूदा हालात में उनकी भूमिका पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष की पारंपरिक भूमिका से कहीं आगे बढ़ चुकी है। पाकिस्तानी फौज पारंपरिक रूप से भारत के साथ प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न टकराव के रास्ते पर चलती आई है।
भले ही दोनों देशों के बीच हुए तीन अहम युद्धों और कारगिल के टकराव में उसे मुंह की खानी पड़ी हो लेकिन भारत को सबक सिखाना उसका अपूर्ण एजेंडा बना हुआ है और आगे भी रहेगा। कश्मीर घाटी में दो दशक पहले शुरू किया गया छद्म युद्ध हो या कारगिल में आतंकवादियों को ढाल बनाकर किया गया हमला, भारत के विरुद्ध दुस्साहस करना पाकिस्तानी सेनाध्यक्षों की फितरत रही है। इसके पीछे कहीं हमारे जवानों की क्षमता को लेकर आम पाकिस्तानी के मन में पैदा की गई गलतफहमियां हैं, कहीं चीन के बिना शर्त समर्थन का यकीन तो कहीं परमाणु शक्ति बनने से उपजा अति-आत्मविश्वास। पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति और जनरल याह्या खान ने कहा था कि भारतीय सैनिक और नेता दोनों ही मानसिक रूप से बहुत कमजोर हैं और पाकिस्तानी फौज ने कुछ करारे हमले किए तो वे चंद घंटे के भीतर ही हथियार डाल देंगे। यह अलग बात है कि याह्या खान को भारत की असली क्षमताओं का अंदाजा पाकिस्तान की अपमानजनक हार के बाद हुआ। बांग्लादेश मुक्ति युद्ध और कारगिल युद्ध में भी पाकिस्तान को चीन से समर्थन की उम्मीद थी लेकिन हालात की नजाकत को भांपते हुए चीन ने चुप्पी साधे रखना ही बेहतर समझा। पाकिस्तानी सैनिक अधिकारियों को अहसास होना चाहिए कि चीन खुद भी पाकिस्तानी जमीन से उसकी ओर निर्यात हो रहे आतंकवाद का भुक्तभोगी है और भारत के साथ युद्ध की स्थिति में वह उसके हक में कोई प्रत्यक्ष भूमिका निभाने का जोखिम मोल लेगा, यह जरूरी नहीं है। वह भी उस स्थिति में, जबकि लगभग पूरी दुनिया इस मुद्दे पर भारत के साथ है।
भारत और पाकिस्तान के बीच संभावित युद्ध को लेकर जिस तरह भारत में अब तक सरकारी तौर पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है। बल्कि विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने खुद साफ किया है कि भारत पाकिस्तान पर हमला करने नहीं जा रहा है। दूसरी ओर पाक सेना युद्ध के लिए आतुर नजर आ रही है। सेनाध्यक्ष जनरल कयानी ने भारत के हमले का चंद मिनटों में जवाब देने की बात कहकर सारे घटनाक्रम को नया मोड़ दे दिया है। पाकिस्तानी वायुसेना के विमान बतौर तैयारी सीमावर्ती शहरों पर नीची उड़ानें भर रहे हैं, सेना की टुकड़ियों को धीरे-धीरे स्थानांतरित किया जा रहा है और तालिबान कमांडर बैतुल्ला महसूद ने पाक फौज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने की बात कही है। पाकिस्तानी सेना जिस तरह युद्ध का माहौल तैयार करने में लगी है वह वहां के घटनाक्रम पर एक बार फिर फौज का दबदबा कायम करने की कोशिश भी है। यह कूटनीतिक लिहाज से पाकिस्तान के हक में भी जाता है क्योंकि युद्ध का हौवा खड़ा कर आतंकवाद के बुनियादी मुद्दे को पृष्ठभूमि में भेजा जा सकता है। भारत-पाक युद्ध भड़कने की स्थिति में जहां पाकिस्तान सिर्फ भारत के निशाने पर आता है वहीं आतंकवाद के मुद्दे पर वह पूरी दुनिया के निशाने पर है और यही हालात रहे तो आगे चलकर किसी साझा अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई के दायरे में भी आ सकता है। संयुक्त राष्ट्र में पाक आधारित आतंकवाद को लेकर पास हुए प्रस्तावों के बाद भविष्य में ऐसी किसी कार्रवाई की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।
एक बार फिर सबूत के मुद्दे पर लौटते हैं। पाकिस्तान भारत सरकार की ओर से दिए गए सबूतों पर यकीन या कार्रवाई करेगा इसकी संभावना तो शुरू से ही नहीं थी। लेकिन खुद पाकिस्तानी मीडिया ने अपनी जांच-पड़ताल से सिद्ध कर दिया है कि अजमल कसाब पाकिस्तानी नागरिक है। उसके पाकिस्तानी पिता ने मान लिया है कि वह उसका बेटा है। उसके पूरे गांव ने यही बात स्वीकार की है। मुंबई के हमलावरों को पाकिस्तान से दिए जा रहे टेलीफोनी निर्देशों को डी-कोड कर लश्कर ए तैयबा के शीर्ष अधिकारियों की भूमिका का पर्दाफाश हो चुका है। खुद कसाब के साथ पूछताछ से कई िक्वंटल अहम सूचनाएं मिल चुकी हैं। ईमेल और सेटेलाइट फोन संदेशों की अमेरिकी खुफिया एजेंसियों द्वारा की गई जांच-पड़ताल में भी सिद्ध हो चुका है कि मुंबई का `मिशन` पाकिस्तानी आकाओं के निर्देश पर अंजाम दिया गया। अपने स्वतंत्र स्रोतों से की गई जांच और अजमल कसाब के साथ लंबी पूछताछ के आधार पर अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई ने कहा है कि `नॉन-स्टेट एक्टरों` को तो छोड़िए, पाकिस्तान के `स्टेट एक्टरों` (सरकारी संस्थानों) ने भी मुंबई के हमलों में सक्रिय भूमिका निभाई है। काबुल में भारतीय दूतावास पर हुए आतंकवादी हमले की जांच के बाद भी एक अन्य अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने हमले में पाकिस्तान सरकार के संस्थानों, विशेषकर आईएसआई और पाकिस्तानी फौज का हाथ होने की बात मानी थी। यह अलग बात है कि पाकिस्तान सरकार ने तब भी उपलब्ध कराए गए सबूतों को मानने से इंकार कर दिया था।
अब फैसला अंतरराष्ट्रीय समुदाय के हाथ में है। एक ओर सबूतों का भंडार है तो दूसरी ओर आसिफ अली जरदारी के पल-पल बदलते बयान, एक ओर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव हैं तो दूसरी ओर उन्हें लागू करने से बचने के पाकिस्तानी प्रयास, एक ओर पूरे विश्व में फैला आतंक-जनित खौफ और निराशा का भाव है और दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना का उग्र रवैया, एक ओर `पीड़ित पक्ष` भारत की ओर से बार-बार आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई करने के आग्रह हैं तो दूसरी ओर तमाम सबूतों के बावजूद सारी समस्या से हाथ धो लेने की पाकिस्तानी कोशिशें। आखिरकार कब तक दुनिया आतंकवाद के विनाशकारी दंश को सहन करती रहेगी? आखिर कब तक हम हजारों या लाखों निर्दोष लोगों की हर साल बलि देते रहेंगे? अब यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि इस समस्या की जड़ कहां है। आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष अकेले भारत की लड़ाई नहीं, बल्कि विश्व की मुक्ति की लड़ाई है। अगर इस मुहिम में भारत अकेला पड़ा तो यह आतंकवाद के हाथों बलि चढ़ते आए दुनिया भर के निर्दोषों के साथ अक्षम्य नाइंसाफी होगी।
Thursday, December 25, 2008
तो क्या जरदारी को कसाब का राशनकार्ड लाकर दें?
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
पाकिस्तान सरकार जिस अडिग अंदाज में 26 अक्तूबर के मुंबई हमलों से संबंधित सबूतों को खारिज करती जा रही है वह आश्चर्यजनक है भी और नहीं भी, क्योंकि यही पाकिस्तानी फितरत है। कारगिल युद्ध के समय भी पाकिस्तान ने कश्मीर की पहाड़ी चोटियों पर भारतीय सेना के साथ युद्ध करने वाले पेशेवर सैनिकों के साथ अपना संबंध होने से साफ इंकार कर दिया था। भारतीय सेना ने पहाड़ों पर मारे गए पाकिस्तानी सैनिकों के सैनिक पहचान पत्र, बैज और अन्य दस्तावेज पाकिस्तान सरकार को सौंपे थे लेकिन तत्कालीन पाक हुक्मरानों ने उन्हें मानने से इंकार कर दिया और अपने सैनिकों के शव तक वापस नहीं लिए। मुंबई के ताजा घटनाक्रम में वह अपने इतिहास को ही दोहरा रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में पुराने नियम ही चलते हैं और ऐसा लगता है कि अगर पाकिस्तानी हुक्मरान मुंबई में गिरफ्तार आतंकवादी मोहम्मद अजमल अमीर कसाव (कसाब) को अपने देश का नागरिक तभी मानेंगे जब उन्हें उसका राशन कार्ड लाकर सौंपा जाए। हिंदुस्तान-पाकिस्तान में बतौर पहचान पत्र और कुछ चले या न चले, राशन कार्ड हर जगह चल जाता है। अब यह अलग बात है कि कसाब और उसके साथियों को इस बात का अंदाजा नहीं था वरना वे देश छोड़ते समय इस अहम दस्तावेज को जरूर साथ लेकर चलते।
पाकिस्तान के साथ-साथ चीन ने भी कह दिया है कि मुंबई के हमलों के मास्टरमाइंड या सरगना की शिनाख्त होनी बाकी है। अब भले ही भारत, इंग्लैंड, अमेरिका और अन्य विकसित देशों की खुफिया एजेंसियां और सरकारें कुछ भी रहस्योद्घाटन करती रहें, उनकी बला से। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान को इस बात का अंदाजा नहीं है कि आतंकवादी हमलों के पीछे शामिल लोगों के बारे में किस तरह के सबूत मिल सकते हैं और किस तरह के नहीं। लेकिन पाक हुक्मरानों की निगाह में पाकिस्तान के हित इन सबूतों की अनदेखी करने में ही निहित हैं और वे ऐसा ही करते रहेंगे। यह अलग बात है कि हकीकत में उनके देश का हित आतंकवाद की समस्या को नकारने में नहीं है, बल्कि उसके समाधान में है क्योंकि जनरल जिया उल हक, बेनजीर भुट्टो, नवाज शरीफ और परवेज मुशर्रफ की तरफ से बरसों तक बड़े जतन से बड़ा किया गया यह राक्षस आज खुद पाकिस्तान के वजूद के लिए खतरा बनता जा रहा है। आतंकवाद से मुक्त, सुरक्षित और शांत पाकिस्तान सिर्फ भारत या बाकी विश्व के हित में ही नहीं है, वह खुद पाकिस्तान के भी हित में है। ताज्जुब होता है कि पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार, वहां के बुद्धिजीवी, मीडिया और नीति निर्धारकों को इस बात का अहसास क्यों नहीं हो रहा कि वे जिस बुराई के हक में खड़े हो रहे हैं वह किसी दिन उन सबको और उनकी भावी पीढ़ियों को लील जाएगी।
मुंबई के हमलों में बड़ी संख्या में निर्दोष भारतीयों और विदेशियों के मारे जाने के बाद पूरी दुनिया में गमो-गुस्से का माहौल है। शुरू में पाकिस्तान के कुछ हल्कों में भी ऐसा ही माहौल था और राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी व प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के शुरूआती बयानों से आतंकवाद के विरुद्ध साझा कार्रवाई की उम्मीद भी बंधी थी। लेकिन इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस के प्रमुख को भारत भेजने की घोषणा के कुछ ही घंटों बाद जिस तरह पाकिस्तान सरकार का रुख बदला और बदलता चला गया, वह पाक सत्ताधारियों के बीच एक अजीब किस्म के अनिर्णय, भ्रम और दबाव की ओर इशारा करता है। आईएसआई प्रमुख को भारत भेजने का फैसला कहीं इसलिए तो नहीं बदला गया क्योंकि पाकिस्तानी हुक्मरानों को मुंबई हमलों और आतंकवाद की वृहत्तर समस्या में इस कुख्यात खुफिया एजेंसी की परोक्ष या प्रत्यक्ष भूमिका के सामने आने का डर था?
Wednesday, December 24, 2008
तकनीक के इस्तेमाल में हमसे दो कदम आगे हैं आतंकवादी
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
आतंकवादी हमले के दौरान ताज होटल में फंसे एंड्रियास लिवेरस नामक एक 73 वर्षीय ब्रिटिश-साइप्रियट व्यापारी ने किसी तरह बीबीसी से संपर्क कर लिया था। उन्होंने टेलीफोनी इंटरव्यू में खुलासा किया कि वे किस हालत में और कहां पर फंसे हुए हैं। यह कोई संयोग ही नहीं था कि वे इसके थोड़ी ही देर बाद आतंकवादियों की गोलियों के शिकार बन गए। बंधकों को आशंका थी कि जेहादियों को उनके ब्लैकबेरी फोन के जरिए वह सब जानकारी मिल रही है जिसे छिपाना जरूरी है। कभी पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं से बातचीत के जरिए तो कभी इस स्मार्टफोन में मौजूद इंटरनेट सुविधा की बदौलत। उन्हें बाहर से कस रही कमांडो घेराबंदी की जानकारी मिल रही थी तो भीतर फंसे बंधकों की गतिविधियों की भी। मुंबई में विनाश के स्तर ने ही नहीं बल्कि हमलावरों के हाथों तकनीक के शातिराना इस्तेमाल ने भी भौंचक्का कर दिया।
हम हिंदुस्तानियों के लिए जेहादी आतंकवाद का यह एक नया चेहरा था। तकनीक की सर्वसुलभ प्रकृति गलत हाथों में जाकर कितनी घातक हो सकती है, मुंबई के घटनाक्रम ने इसका गंभीर अहसास कराया है। जिस समय पूरी दुनिया सांस रोके टेलीविजन के जरिए मुंबई में आतंकवादियों के वीभत्स कारनामों पर नजर लगाए हुए थी, ठीक उसी समय ताज, ओबेराय होटलों और नरीमन हाउस में घुसे जेहादी तत्वों की नजर हमारी प्रतिक्रियाओं पर टिकी थी। हमले का विश्वव्यापी प्रभाव देखकर वे आनंदित थे। हालांकि होटलों के केबल कनेक्शन काट दिए जाने से टेलीविजन प्रसारण बंद थे मगर वे इंटरनेट से जुड़े थे। अगर वे आश्चर्यजनक रूप से 60 घंटे तक भारत के श्रेष्ठतम कमांडो से लोहा लेते रहे तो शायद इसलिए भी कि वे हर क्षण ताजा सूचनाओं से लैस थे।
आज का आतंकवादी आधुनिक युवक है जो अपना `मिशन` पूरा करने के लिए मोबाइल फोन, जीपीएस युक्त गैजेट्स, ईमेल तथा इंटरनेट जैसे साधनों को बतौर हथियार इस्तेमाल करने में सक्षम है। दूरसंचार के आधुनिक तौरतरीकों और इंटरनेट ने आतंक से लड़ाई का दायरा बढ़ा दिया है। अब यह लड़ाई सिर्फ हथियारों और हथगोलों की लड़ाई नहीं रही, बल्कि सूचना तंत्र की भी लड़ाई है। इंटरनेट आधारित सेवाओं और सूचनाओं के विस्फोट ने आतंकवादियों को वह शक्ति दे दी है जो उन्हें पहले प्राप्त नहीं थी। उनके पास न सिर्फ अपनी बात कहने का मंच है बल्कि संचार का वैकल्पिक माध्यम भी। प्रश्न उठता है कि क्या हमारा सुरक्षा तंत्र तकनीक के शातिराना इस्तेमाल से उपजी गंभीर आतंकवादी चुनौती का सामना करने को तैयार है?
पश्चिमी विशेषज्ञों का मानना है कि मुस्लिम जेहादियों के हाथों छह हजार से ज्यादा वेबसाइटें चलाई जा रही है। लश्करे तैयबा भी अपवाद नहीं है। उसकी वेबसाइट पर दावा किया गया है कि मुंबई का हमला `हिंदू आतंकवादियों` ने किया। इधर तथाकथित `डेक्कन मुजाहिदीन` ने हमले की जिम्मेदारी लेने के लिए `रीमेलर सर्विस` के जरिए जो ईमेल भेजा वह भी उनके तकनीकी कौशल का सबूत है। ऐसे ईमेल का पता लगाना बेहद मुश्किल होता है क्योंकि उनके उद्गम की पहचान कहीं दर्ज नहीं होती। वे एक से दूसरे सर्वर से होते हुए अपने गंतव्य तक पहुंचते हैं और अलग-अलग देशों से गुजरती हुए इस सिलसिले की पड़ताल कर पाना अमेरिका जैसे देश के लिए ही संभव है। यह अलग बात है कि अमेरिका के सहयोग से कम से कम इस मामले में ईमेल के लाहौर से भेजे जाने का खुलासा हो चुका है। दिल्ली के हालिया बम विस्फोटों के बाद `याहू` के तकनीकी विशेषज्ञ मंसूर पीरभाई की गिरफ्तारी ने दिखाया था कि आतंकवादियों को किस स्तर के विशेषज्ञों की सेवाएं हासिल हैं।
मुंबई के कुछ युवकों को अपने खींचे चित्र और सुरक्षा बलों की कार्रवाई का ब्यौरा ब्लॉगों, ट्विटर, फ्लिकर और यू-ट्यूब आदि इंटरनेट ठिकानों पर रखने के लिए दुनिया भर में काफी प्रसिद्धि मिली है। लेकिन उनकी यही उपलब्धि सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित हो सकती थी क्योंकि आतंकवादियों को इसी से बाहरी दुनिया की खबर मिलती रहती। इस बारे में बड़ी बहस होनी चाहिए कि क्या सूचना देने की आजादी का सुरक्षित रहने की आजादी के साथ कोई विरोधाभास है?
जांच एजेंसियों ने आतंकवादियों को मुंबई तक लाने वाली `कुबेर` नामक मछलीमार नौका से उनकी कुछ चीजें बरामद की थीं जिनमें एक सेटेलाइट फोन के साथ-साथ दक्षिण मुंबई के विस्तृत मानचित्र को दर्शाती गर्मिन कंपनी की ग्लोबल पोजीशनिंग डिवाइस (जीपीएस युक्ति) भी शामिल थी। इसी की मदद से आतंकवादी समुद्र में यात्रा करते हुए मुंबई तक पहुंचे और फिर अपने निशानों तक। `गूगल अर्थ` में दिखाए जाने वाले संवेदनशील इमारतों के त्रिआयामी चित्रों से उपजे सुरक्षा खतरों पर दुनिया भर की सरकारें चिंतित हैं। मुंबई के हमलावरों ने गूगल की ही एक अन्य सेवा `गूगल मैप्स` का अपने `मिशन` के लिए इस्तेमाल कर उनकी आशंकाओं को सच कर दिखाया।
आज के आतंकवादी तेजी से प्रौद्योगिकी का अपने युद्ध के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना सीख रहे हैं। वे मोबाइल कॉल करके बम विस्फोट करने लगे हैं। वे लापरवाह इंटरनेट यूजर्स के वाई-फाई नेटवर्क का इस्तेमाल कर धमकी भरे ईमेल भेजते हैं, प्रचार के लिए प्रजेन्टेशन तैयार करते हैं और ऑडियो या वीडियो फाइलों के रूप में जेहादी नेताओं के वीडियो जारी करते हैं। लेकिन तकनीक के इस सोफिस्टिकेटेड इस्तेमाल के बरक्स हमारा जवाब क्या है?
पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन अब अलकायदा के तौरतरीके सीख रहे हैं जो तकनीक के प्रयोग में काफी आगे है। बताया जाता है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई के बाद से लश्करे तैयबा और जैशे मोहम्मद अलकायदा की छत्रछाया में चले गए हैं। सेटेलाइट फोन, जीपीएस और इंटरनेट का प्रयोग शायद उसी सोहबत का नतीजा हो। सेटेलाइट फोन का स्थानीय दूरसंचार प्रोवाइडरों से संबंध नहीं होता और वे सीधे उपग्रह के माध्यम से अपने लक्ष्य से जुड़े होते हैं। उन्हें निष्क्रिय करना असंभव नहीं लेकिन उसके लिए जिन `जीएस-07` जैसे आधुनिकतम उपकरणों की जरूरत है वे हमारी सुरक्षा एजेंसियों के पास नहीं हैं। आतंकवादियों को बाहरी दुनिया से अलग-थलग करने के लिए संचार और इंटरनेट सुविधा रोक देने वाले ऐसे उपकरण एनएसजी और पुलिस की बुनियादी किट में मौजूद होने चाहिए।
साइबर कैफे पर आने वाले अवांछित तत्वों पर हमारी सुरक्षा एजेंसियों ने कुछ हद तक काबू पा लिया है लेकिन साइबर अपराध और साइबर आतंकवाद रोकने के हमारे प्रयास एक दशक पहले के आईपी एड्रेस ढूंढने, ईमेल फिल्टरिंग और स्पाईवेयर के इस्तेमाल जैसे पारंपरिक तौरतरीकों तक ही सीमित हैं। हमारे साइबर कानून सामान्य साइबर अपराधों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं और सच यह है कि वे उनसे भी व्यावहारिक ढंग से निपट नहीं पाते। देश में एक आक्रामक एवं आधुनिक साइबर सुरक्षा तंत्र बनाने की जरूरत है। आधुनिक चुनौतियों पर आधारित साइबर कानून तो महज उसका एक हिस्सा है। उसकी भूमिका तो घटना होने के बाद शुरू होती है।
आतंकवाद के विरुद्ध सूचना तकनीक संबंधी रणनीति में तीन प्रमुख घटक होने चाहिए- इंटरनेट और संचार तंत्र में उपलब्ध अथाह सूचनाओं का विश्लेषण कर आतंकवादियों की हरकतों को लगातार `ट्रैक` करने की क्षमता, बुनियादी संचार एवं सूचना तंत्र की सुरक्षा और आतंकियों के थोपे `साइबर युद्ध` में जीतने की क्षमता। काउंटर टेररिज्म की ही तरह काउंटर साइबर-टेररिज्म में भी शून्य सहिष्णुता की जरूरत है क्योंकि आज दोनों एक दूसरे के सहयोगी और पूरक हैं।
हम अमेरिका और ब्रिटेन से बहुत कुछ सीख सकते हैं जो `कार्निवर` और `एकेलोन` जैसे तकनीकी माध्यमों का प्रयोग कर हर तरह के संचार माध्यमों- टेलीफोन, ईमेल, इंटरनेट, फैक्स और रेडियो तरंगों तक से सूचनाओं को खोजने में सक्षम हैं। हालांकि इस संदर्भ में निजता के उल्लंघन जैसी नैतिक और कानूनी पेचीदगियां भी सामने आती हैं लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में किसी भी तरह का समझौता न करने के लिए ये सरकारें प्रसिद्ध हैं। यह बेवजह नहीं है कि अमेरिका में साइबर आतंकवाद से निपटने का काम दूरसंचार विभाग नहीं बल्कि रक्षा विभाग के हाथ में है। हमारी साइबर रणनीति का मकसद आतंकवादियों के हाथों तकनीक के दुरुपयोग पर अंकुश लगाना भर नहीं होना चाहिए। स्वयं हमलों को होने से रोकने में तकनीक का निर्णायक प्रयोग उसके केंद्र में होना चाहिए।
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
Thursday, November 27, 2008
पाकिस्तान मार्का हमला और नाम `डेक्कन मुजाहिदीन`
आतंकवादी जिस तरह समुद्र में तटरक्षकों और स्थानीय सुरक्षा बलों की नजरों से बचते हुए अपने हथियारों के साथ मुंबई शहर में प्रवेश करने में कामयाब हुए वह किसी खुफिया एजेंसी की तरफ से उपलब्ध कराए गए इनपुट के बिना असंभव लगता है।
मुंबई में बमों, हथगोलों और स्वचालित राइफलों से अब तक का सबसे भीषण हमला करने वाले आतंकवादियों ने जिस अंदाज में अपनी घिनौनी कार्रवाई को अंजाम दिया वह महज आतंकवादियों का काम नहीं हो सकता। समुद्र से मुंबई में प्रवेश करना, शहर के प्रमुख होटलों, रेलवे स्टेशनों और ऐसे ही उन अन्य स्थानों पर हमला करना जो मुंबई की पहचान माने जाते हैं, इस हमले के पीछे की शातिराना योजना की ओर इशारा करता है। जिस `प्रोफेशनल` अंदाज में यह सब किया गया और जितनी बड़ी संख्या में आतंकवादी मुंबई के कोने-कोने में फैलकर हमले करने में सफल रहे वह तथाकथित `डेक्कन मुजाहिदीन` जैसे किसी स्थानीय आतंकवादी संगठन की करतूत नहीं हो सकती। मुंबई के हमले ने एक बार फिर `विदेशी हाथ` की आशंका को पुनर्जीवित कर दिया है जिसकी चर्चा करना हमारे नेताओं और सुरक्षा अधिकारियों ने हाल में छोड़ ही दिया था।
मुंबई में अंधाधुंध फायरिंग करते और सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में लगे आतंकवादियों के चित्रों को देखकर अनुमान लग जाता है कि हमलावर बीस से तीस साल की उम्र के युवक हैं। ऐसी उम्र जिसमें धर्म, जेहाद और अन्य उत्तेजक मुद्दे आसानी से मस्तिष्क को प्रभावित कर देते हैं। इस तरह के आतंकवादी पिछले दो-ढाई दशकों से हमारे पश्चिमी पड़ोस में स्थित आतंकवादी फैक्टरियों में खिलौनों की तरह उत्पादित किए जा रहे हैं। उन खिलौनों की तरह जिन्हें दबाने पर सिर्फ एक ही आवाज आती है जो उनमें डाली गई है। ये अपने तथाकथित मिशन के प्रति बेहद प्रतिबद्ध, जान देने को तैयार युवक हैं जो अपने नियंत्रकों के हाथ में रखे रिमोट से संचालित होते हैं। पाकिस्तान के मदरसों और आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों में धार्मिक कुर्बानी के लिए तैयार किए जा रहे हजारों युवकों के मस्तिष्क इस तरह धो-पौंछ दिए जाते हैं कि उनमें सोचने-समझने की शक्ति नहीं रह जाती। उन्हें अपने शिविरों में जो बताया और समझाया जाता है वही अंतिम सत्य है।
अब इस बात की लगभग पुष्टि हो चुकी है कि मुंबई में 26 और 27 नवंबर के हमलों में शामिल आतंकवादी पाकिस्तान से आए थे। वे जिस तरह समुद्र में तटरक्षकों और स्थानीय सुरक्षा बलों की नजरों से बचते हुए अपने हथियारों के साथ मुंबई शहर में प्रवेश करने में कामयाब हुए वह किसी खुफिया एजेंसी की तरफ से उपलब्ध कराए गए इनपुट के बिना असंभव लगता है। पाकिस्तान की इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस ने कश्मीर में अलगाववाद को हवा देने के लिए जनरल जिया उल हक के जमाने में जो छù युद्ध शुरू किया था वह आज कश्मीर से आगे बढ़ते हुए खुद पाकिस्तान, पड़ोसी अफगानिस्तान और भारत के अनेक हिस्सों में फैल चुका है। आतंकवाद के मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा विनाशलीला भोगने वालों में खुद पाकिस्तान शामिल है लेकिन ताज्जुब है कि आज भी उसकी भूमि से विदेशों को आतंकवाद का निर्यात बदस्तूर जारी है। खुद पाकिस्तानी राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों पर अनेक बार आतंकवादी हमले होने, पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की ऐसे ही एक हमले में शहादत के बावजूद अगर यह सिलसिला जारी है तो साफ है कि पाकिस्तानी समाज, अफसरशाही और सैनिक तंत्र के ताने-बाने में जेहादी तत्वों ने बहुत गहरी घुसपैठ कर ली है।
सबसे अलग, सबसे बड़ा हमला
मुंबई में इस बार हुआ हमला भारत में अब तक का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला और भारत का ग्यारह सितंबर करार दिया जा रहा है। वास्तव में यह हमला कई मायनों में पिछले आतंकवादी हमलों से अलग और व्यापक विनाशकारी है। ऐसा संभवत: पहली बार है कि आतंकवादियों ने बम विस्फोट और गोलीबारी दोनों का एक साथ प्रयोग किया हो। दोनों तरह की कार्रवाई एक साथ करने के लिए जिस किस्म की तैयारी और तालमेल की जरूरत है वह आनन-फानन में बनाई गई हमले की योजनाओं से कहीं व्यापक साजिश की ओर इशारा करता है। दूसरे, मृत आतंकवादियों के पास से मुंबई की प्रमुख इमारतों की निशानदेही करने वाले नक्शे बरामद होना दिखाता है कि हमलावरों का मकसद मुंबई की पहचान पर हमला कर देश को एक गहरा संदेश भेजना था। वे आम तौर पर कहीं भी हमला कर भाग खड़े होने वाले हमलावर नहीं थे बल्कि अपने लक्ष्यों के बारे में पूरी तरह स्पष्ट और प्रतिबद्ध थे।
मुंबई के दो प्रमुख पंचतारा होटलों को निशाना बनाने और उनके भीतर घुसकर लोगों को बंधक बनाने की कार्रवाई भी भारत में अब तक हुई आतंकवादी घटनाओं से अलग है। हां, पाकिस्तान में ऐसी घटनाएं राजधानी इस्लामाबाद सहित कई बार हो चुकी हैं। वहां पर इन दिनों अमेरिका के एक संस्थान की तरफ से गढ़े गए एक नए नक्शे पर काफी गुस्से का माहौल है जिसमें पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा पूर्वी दिशा में भारत में और पश्चिमी दिशा में अफगानिस्तान में मिला हुआ दिखाया गया है। इसके खिलाफ कई पाकिस्तानी शहरों में प्रदर्शन हुए हैं। मुंबई में हमला करने वाले आतंकवादी भी ताज और ओबरॉय होटलों में अमेरिकी और ब्रिटिश नागरिकों की तलाश करते देखे गए थे। मारे गए नागरिकों में आधा दर्जन से ज्यादा विदेशियों का होना, और वह भी फायरिंग में, दिखाता है कि हमलावरों का मकसद सिर्फ भारत को त्रस्त करना ही नहीं बल्कि उन वैश्विक शक्तियों पर भी हमला करना था जिनसे अल-कायदा, पाकिस्तानी तालिबान या वहां के अन्य आतंकवादी तत्वों को खतरा है।
काहे का खुफिया और सुरक्षा तंत्र!
ऐसे हमलों के समय हमारी सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी का बार-बार पर्दाफाश होता है और ताज्जुब की बात है कि देश में आंतरिक सुरक्षा की स्थायी देखरेख की व्यवस्था लगभग नदारद दिखाई देती है। मुंबई के हमलों के बाद उस शहर और गिने-चुने अन्य शहरों में सुरक्षा व्यवस्था चौकस कर दी जाएगी लेकिन पांच-सात दिन बाद स्थिति फिर से पुराने ढर्रे पर लौट आएगी। आखिर क्यों हमारी सुरक्षा एजेंसियों, पुलिस और खुफिया एजेंसियों में अपने दायित्वों के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव है? आखिर क्यों वे देश के नागरिकों की सुरक्षा की अपनी स्वाभाविक ड्यूटी को सबसे निचली प्राथमिकता देते हैं? दो दशक से भी अधिक समय से चली आ रही आतंकवादी घटनाओं के बावजूद हमारी खुफिया एजेंसियां न तो आतंकवादियों के ढांचे में घुसपैठ करने में सक्षम हुई हैं और न ही सुरक्षा एजेंसियां अपनी सतर्कता और चुस्ती के दम पर हमले रोकने में कामयाब। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो मुंबई में मारे गए सैकड़ों लोगों की जान नहीं जाती और एटीएस के एक दर्जन बहादुर जवानों और उसके प्रमुख हेमंत करकरे को शहादत नहीं देनी पड़ती।
सच है कि जब आतंकवादी जान देने पर आ जाएं तो उन्हें वारदात करने से रोकना लगभग असंभव है लेकिन यहां तो खुद मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख ने स्वीकार किया है कि वे समुद्र के रास्ते से आए थे। यानी गुप्तचर एजेंसियों की तो छोड़िए, वे सुरक्षा की दो परतें लांघने में सफल रहे। पहली, तटरक्षक बल और दूसरी मुंबई पुलिस। आतंकवादी इनमें से किसी को भी कानोंकान हवा होने से पहले ही अपने गंतव्य तक पहुंच गए। अगर मार्ग में उन्हें किसी मुठभेड़ का सामना करना पड़ता तो `आत्मघाती हमलावर` जैसे तर्कों का अर्थ समझ में आता है। लेकिन जब उन्हें कहीं किसी तरह की चुनौती ही नहीं मिली तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि वे आत्मघाती थे या नहीं।
भारत की आर्थिक राजधानी होने के नाते मुंबई आतंकवादियों के निशानों में प्रमुख है। भारत के जिन दो-तीन शहरों ने आतंकवाद का प्रहार सबसे ज्यादा झेला है उनमें राजधानी दिल्ली के अलावा मुंबई भी प्रमुख है। बावजूद इसके, मुंबई की सुरक्षा व्यवस्था में कोई सुधार दिखाई नहीं देता और कुछ महीनों बाद फिर कोई न कोई घटना हो जाती है। आखिर क्यों हम अपनी सुरक्षा के लिए जरूरी कठोरतम कानून नहीं बनाते, क्यों अपने सुरक्षा एजेंसियों को आतंकवाद का ढक्कन बंद करने के लिए जरूरी शक्तियों व संसाधनों से लैस करते और उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करते? आतंकवाद से राष्ट्रीय स्तर पर निपटने के लिए जिस एजेंसी के गठन की तुरंत जरूरत है वह क्यों फाइलों और बैठकों की भीड़ में अटक गई है? अब अपने बेकसूर नागरिकों के लिए यह देश किसे दोष दे, आतंकवादियों को या अपने रक्षकों को?
Friday, November 21, 2008
`जनशक्ति` वाले राष्ट्र की `जलशक्ति` भी तो देखिए
सोमालियाई जलदस्युओं का प्रमुख जहाज डुबोने की नौसैनिक कार्रवाई को एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए- न सिर्फ जलदस्यु संकट के समाधान की दिशा में, बल्कि भारतीय नौसेना की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय भूमिका के संदर्भ में भी। शाबास नौसेना! और यह भी मत भूलिए कि आपने अपनी इस कार्रवाई से भविष्य के लिए देश की उम्मीदें बढ़ा ली हैं।
कई दशकों का परमाणु वनवास खत्म करने वाला भारत-अमेरिका परमाणु करार, वैश्विक वित्तीय संकट से निपटने के लिए आयोजित शीर्ष रणनीति बैठक (जी-20) में हमारी हिस्सेदारी, भारत के पहले चंद्रयान अभियान की सफलता, आस्ट्रेलियाई टेस्ट क्रिकेट टीम को कई दशकों बाद किसी टीम से मिली 0-2 की हार, पेईचिंग ओलंपिक खेलों में अभिनव बिन्द्रा का स्वर्ण पदक और अदन की खाड़ी में सोमालियाई जलदस्युओं का जहाज मार गिराने का भारतीय नौसेना का वीरतापूर्ण कारनामा। अलग-अलग क्षेत्रों में हुई इन विलक्षण घटनाओं में एक समानता है। इसी साल घटित हुई ये सभी घटनाएं विश्व मानचित्र पर भारत रूपी शक्ति के उभार का संकेत देती हैं। ये सभी घटनाएं एक सफल, शक्ति-सम्पन्न और विकासमान राष्ट्र के बढ़ते आत्मविश्वास को परिलक्षित करती हैं।
अदन की खाड़ी में कई वर्षों से विश्व जल-परिवहन व्यवस्था जलदस्युओं के आतंक से ग्रस्त है। भारतीय नौसेना ने वहां अपनी मौजूदगी के पहले दस दिनों में ही तीन बड़े साहसिक अभियानों को अंजाम दिया है जो वहां मौजूद अन्य देशों के नौसैनिक बेड़ों के लिए एक मिसाल बनने जा रहे हैं। आज नहीं तो कल, सोमालिया में जलदस्युओं की समस्या को हल करने के लिए समिन्वत अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई होनी तय है। यह बड़ी बात है कि जिन जलदस्युओं के आतंक से अमेरिका, रूस, सऊदी अरब, जापान और अन्य देश भी ग्रस्त हैं उनसे सीधे मुकाबले की शुरूआत हमने की है। यह एक अहम अंतरराष्ट्रीय भूमिका निभाने की विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की स्वाभाविक आकांक्षाओं की बानगी है। भारत को सबसे बड़े जनशक्ति-सम्पन्न राष्ट्र के रूप में जाना जाता है। इस घटना ने दुनिया को हमारी ब्लूवाटर नेवी की जलशक्ति भी दिखा दी है।
विश्व भर के अखबारों में भारत की इस कार्रवाई की चर्चा है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने भारत की कार्रवाई का प्रबल समर्थन किया है और अमेरिका ने इसकी मिसाल जलदस्युओं की समस्या के विरुद्ध वैिश्वक कार्रवाई की शुरूआत के रूप में दी है। इंटरनेशनल मैरीटाइम ब्यूरो के प्रमुख नोएल चूंग से लेकर पूर्व अमेरिकी रक्षा मंत्री रिचर्ड कोहेन और दक्षिण अफ्रीकी नौसेनाध्यक्ष मैगलेफा तक ने नौसेना की तारीफ की है। खाड़ी देशों ने भारतीय नौसेना को अपने बंदरगाहों के इस्तेमाल की इजाजत देने की पेशकश की है। अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता शॉन मैक्कॉरमैक ने कहा है कि भारतीय जंगी जहाज `तबार` ने सोमालियाई जलदस्युओं के मुख्य जहाज को डुबोने के साथ-साथ कुछ जलदस्युओं को गिरफ्तार भी किया है, जो इस समस्या के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय प्रत्युत्तर का प्रतीक है। उन्होंने कहा है कि भारत, अमेरिका, रूस, नाटो आदि के जहाज तो वहां तैनात हैं ही, अब संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर एक व्यापक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की तैयारी की जा रही है।
एक अंतरराष्ट्रीय चुप्पी जो भारत ने तोड़ी
ऐसा लगता है कि जो विश्व शक्तियां अब तक सोमालियाई जलदस्युओं से सीधे मुकाबले से िझझक रही थीं उनका संकोच भारत की इस पहल के बाद खुल जाएगा। दो व्यापारिक पोतों को अपहृत होने से रोकने और समुद्री डाकुओं के एक जहाज को नष्ट करके भारतीय नौसेना ने यकायक विश्व भर में जो प्रतिष्ठा अर्जित कर ली है उसकी मिसाल हाल के इतिहास में नहीं मिलती। ऐसा पिछली बार कब हुआ है जब भारतीय नौसेना का नाम रूस, अमेरिका और नाटो की जलसेनाओं के साथ आया हो? भला ऐसा कब होता है जब भारतीय नौसेना विश्व समुदाय से सीधे अपील करे कि सोमालियाई जलदस्युओं की विकट समस्या के समाधान के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समिन्वत कार्रवाई की जरूरत है? वह जलदस्युओं से त्रस्त क्षेत्र में न सिर्फ और जंगी जहाज तैनात करने जा रही है बल्कि अब अपनी कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखेगी बल्कि जरूरत पड़ी तो जलदस्युओं का पीछा करते हुए सोमालियाई जल क्षेत्र की सीमा के भीतर भी प्रवेश करेगी। लगता है भारतीय नौसेना धीरे-धीरे उस भूमिका में आ रही है जो बंगाल की खाड़ी, हिंद महासागर और अरब सागर के विशाल समुद्रों की संरक्षक के रूप में उसकी होनी ही चाहिए।
जब हम बच्चे थे तो कहानियों में समुद्री दस्युओं की कथाएं पढ़ा करते थे। लेकिन आज के आधुनिक युग में जबकि टेक्नॉलॉजी, अर्थव्यवस्था और रक्षा तंत्र इतने मजबूत हो गए हैं तब भी सोमालिया, यमन और ओमान के जल-क्षेत्र में जलदस्यु मौजूद हों और सफलता से बड़ी से बड़ी ताकतों के जहाजों का अपहरण कर फिरौती वसूल कर रहे हों, यह आश्चर्यजनक लगता है। लेकिन यही असलियत है। जावा समुद्र के सुदूर द्वीपों से लेकर मलक्का जलडमरूमध्य के नन्हें द्वीपों तक और सोमालिया, यमन से लेकर ओमान तक के जल क्षेत्र (अदन की खाड़ी) में जलदस्युओं का आतंक व्याप्त है। खास बात यह है कि यह कोई छोटे-मोटे जहाजी हमले नहीं हैं बल्कि जलदस्युओं ने बाकायदा छोटी-मोटी नौसेनाओं की तरह काम करना शुरू कर दिया है। उन्हें सोमालियाई नेताओं और कारोबारियों का समर्थन हासिल है और जहाजों का अपहरण करके फिरौती वसूलना एक तरह से उस क्षेत्र के बड़े स्थानीय कारोबार का रूप ले चुका है। इसी साल करीब सौ व्यापारिक मालवाही जहाजों को अदन की खाड़ी में अपहृत किया जा चुका है। हर साल करीब बीस हजार तेलवाहक, मालवाहक और व्यापारी जहाज हर साल अदन की खाड़ी से गुजरते हैं। जलदस्यु इतने ताकतवर, तकनीक-समृद्ध और रणनीतिज्ञ हो गए हैं कि उनके लिए इनमें से कुछेक को चुनना और अपने इलाके में हांक लाना असंभव नहीं रह गया है। इन दुस्साहसिक अभियानों के दौरान उन्होंने विश्व के सबसे बड़े तेलवाहक जहाज से लेकर 33 रूसी टैंकों को लेकर जा रहे पोत तक को नहीं बख्शा। ताज्जुब की बात यह है कि ऐसी कई घटनाएं उस इलाके में अमेरिकी सैन्य मौजूदगी के बावजूद हुई हैं। अमेरिकी नौसेना का पांचवां बेड़ा और नाटो के जहाज लंबे समय से वहां गश्त कर रहे हैं।
निर्णायक कार्रवाई की जरूरत
अनेक देशों के जंगी जहाजों की मौजूदगी के बावजूद समस्या इतना गंभीर रूप इसलिए ले रही है क्योंकि इन जहाजों के बीच किसी तरह का तालमेल नहीं है। ऐसी कोई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था नहीं है जिसके तहत ये जहाज अपने क्षेत्र से गुजरते किसी भी राष्ट्र के जहाजों की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हों। न ही उन्हें संबंधित क्षेत्रों के जल क्षेत्रों में घुसकर कार्रवाई करने का अधिकार हासिल है। खुद सोमालिया भी इस समय राजनैतिक अराजकता की स्थिति से गुजर रहा है। वहां कोई प्रभावी राजनैतिक तंत्र ही मौजूद नहीं है तो अपराधों की रोकथाम की फिक्र कौन करे और जलदस्युओं के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के साथ तालमेल कौन करे? जलदस्युओं के ज्यादातर हमले पन्टलैंड नामक इलाके से हो रहे हैं जो सोमालिया का गृहयुद्ध ग्रस्त, अर्ध-स्वतंत्र क्षेत्र है। ऐसी भी खबरें हैं कि अलकायदा जैसे इस्लामी आतंकवादी संगठन सोमालिया जैसे गरीबी और अराजकता भरे राष्ट्रों में अपनी जड़ें फैला रहे हैं।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि जलदस्युओं के आतंक से ग्रस्त समुद्री क्षेत्र बहुत ज्यादा बड़ा है। इसका आकार करीब दस लाख वर्ग मील बताया जाता है जिसे किसी भी एक देश की नौसेना सुरक्षित नहीं कर सकती। अमेरिकी विदेश विभाग भी इस बात को मानता है। उसका कहना है कि यह एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है जिसे अमेरिका अकेला हल नहीं कर सकता। हाल ही में जलदस्युओं ने दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली अमेरिकी नौसेना की नाक के नीचे से करीब दस करोड़ डालर के कच्चे तेल से भरे जिस सऊदी जहाज `सुपरटैंकर` को अगवा कर लिया। अमेरिकी नौसेना लगातार सफाई दे रही है कि वह ऐसी घटनाओं को तभी रोक सकती है जब उसके जंगी जहाज जलदस्युओं तक दस मिनट के भीतर पहुंचने की स्थित में हों। शॉन मैक्कॉरमैक के ही अनुसार- भले ही इलाके में अनेक विश्व शक्तियों की नौसैनिक मौजूदगी हो लेकिन वे भी कुछ सीमाओं के भीतर काम करती हैं। इसीलिए इस मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को शामिल किए जाने की कोशिश चल रही है ताकि एक प्रस्ताव कर इन सीमाओं को हल किया जा सके।
भारतीय नौसेना द्वारा सोमालियाई जहाज को गिराने की कार्रवाई जलदस्यु समस्या का समाधान कर देगी ऐसा नहीं है। संकट का अंतिम समाधान तो संयुक्त राष्ट्र के दिशानिर्देशन में किसी व्यापक सुरक्षा तंत्र की स्थापना के जरिए ही हो सकेगा। लेकिन यह उसी लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में एक बड़ा प्रहार जरूर है। उसने न सिर्फ समस्या की गंभीरता की ओर विश्व का ध्यान खींचा है बल्कि उससे निपटने का कड़ा तरीका भी स्पष्ट किया है। इस कार्रवाई से उस क्षेत्र से गुजरने वाले जहाजों में कुछ हद तक विश्वास का संचार जरूर हुआ होगा, भले ही वे किसी भी देश के हों। इसे एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए, न सिर्फ जलदस्यु संकट के समाधान की दिशा में, बल्कि भारतीय नौसेना की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय भूमिका के संदर्भ में भी। शाबास नौसेना! और यह भी मत भूलिए कि आपने अपनी इस कार्रवाई से भविष्य के लिए देश की उम्मीदें बढ़ा ली हैं।
Thursday, November 6, 2008
अमेरिकी मतपेटियों से निकली एक सामाजिक क्रांति
- बालेन्दु दाधीच
बराक `हुसैन` ओबामा जिस अमेरिका में राष्ट्रपति का पद संभालने जा रहे हैं वह कुछ महीनों यहां तक कि कुछ हफ्तों पहले का अमेरिका भी नहीं है। वह एक नया अमेरिका है। एक बदला हुआ देश। विन्स्टन चर्चिल ने एक बार कहा था कि अमेरिकी किसी भी नए विकल्प को तब तक नहीं आजमाते जब तक कि वे सभी पुराने विकल्पों को आजमाकर थक न जाएं। ओबामा की ऐतिहासिक और चमत्कारिक जीत दिखाती है कि अमेरिका उसी तरह के एक क्षण से गुजर रहा है। राष्ट्रपति बनना तो दूर, अगर ओबामा चार-पांच दशक पहले होते तो शायद वे अमेरिका के किसी क्लब या होटल तक में प्रवेश नहीं कर सकते थे।
व्हाइट हाउस में बराक ओबामा के आने का सिर्फ सांकेतिक महत्व नहीं है। यह विजय इसलिए भी अद्वितीय है कि उनका मध्य नाम `हुसैन` है (हालांकि इस्लाम में उनकी आस्था विवाद का विषय है)। ऐसा हुसैन जो हनुमानजी की मूर्ति और मदर मेरी का प्रतीक-चिन्ह अपने सीने से लगाकर रखते हैं। उनकी विजय इसलिए भी यादगार है कि वे एक केन्याई पिता के पुत्र हैं। यह एक घटना अमेरिकी इतिहास की न जाने कितनी सामाजिक-सांस्कृतिक विडंबनाओं-विषमताओं को अपदस्थ करने जा रही है। वह अमेरिकी समाज की एकता और समरसता के नए मायने गढ़ने जा रही है, विश्व को पहले से अधिक करीब लाने जा रही है।
सदियों से दमन, हताशा, पीड़ा, गरीबी और उपेक्षा झेल रहे अश्वेत समुदाय को इन चुनावों ने ऐसे आत्मविश्वास से भर दिया है जो पहले कभी नहीं देखा गया। पहली बार उनकी दमित, दलित उमंगें शरीर और मन से बाहर निकलकर इस तरह अभिव्यक्त हुई हैं। हालांकि बराक ओबामा ने अपने चुनाव अभियान के दौरान कभी भी अपने अश्वेत होने का मुद्दा नहीं उठाया, शायद रणनीतिक समझदारी के तौर पर या फिर रंग और वर्ग की सीमाओं से ऊपर उठ चुके एक महान राजनेता के तौर पर, लेकिन दुनिया भर के अश्वेतों में अमेरिकी चुनाव ने एक युगांतरकारी संदेश भेजा है। समानता का संदेश, जो महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग के सपनों के सच होने की आश्वस्ति पैदा करता है। शायद दुनिया अब आत्म-श्रेष्ठता, असमानता और अहंवाद की राजनीति चलाने वालों के प्रभुत्व से मुक्त हो जाए। इन चुनावों में सिर्फ ओबामा ही क्षुद्र विभाजनों से ऊपर नहीं उठे हैं, पूरा अमेरिका ऊपर उठा है।
अमेरिकी समाज की बदलती संरचना
अमेरिकी समाज सिर्फ विचारों में ही नहीं, संरचना में भी बदल रहा है। अमेरिकी राजनीति में श्वेतों का पारंपरिक वर्चस्व धीरे-धीरे एक अधिक उदार और समानता-आधारित व्यवस्था की ओर आगे बढ़ रहा है। इसका एक बड़ा कारण वहां हो रहे जनसंख्यामूलक परिवर्तन भी हैं। अमेरिकी जनसंख्या ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2042 तक अमेरिका में श्वेत समुदाय अल्पसंख्यक हो जाएगा। वहां अश्वेतों, एशियाई समुदाय के लोगों और हिस्पैनिकों (उत्तर अमेरिका के मूल निवासी) संख्या में तेजी से और उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। हालांकि इस वृद्धि के लिए भी उस देश की बहुलतावादी और लोकतांत्रिक नीतियों को श्रेय दिया जाना चाहिए जो अमेरिका में सांस्कृतिक विविधता बढ़ाने के लिहाज से गढ़ी गई हैं। अमेरिका की तुलना खाड़ी देशों से करके देखिए जहां के मूल निवासी आप्रवासियों की तुलना में बहुत कम हैं लेकिन इस विशालकाय जनसंख्या-वर्ग का उन देशों की व्यवस्था या राजनीति में कोई दखल नहीं। अमेरिका में ऐसा नहीं है।
ओबामा की जीत के राजनैतिक और रणनीतिक मायने भी हैं। भले ही अमेरिका आज भी विश्व की सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति है लेकिन उसके प्रभुत्व के सामने स्पष्ट चुनौतियां उभर रही हैं। चीन के उदय, रूस की दोबारा जागती महत्वाकांक्षाओं, भारत जैसी आर्थिक शक्तियों के उभार और खाड़ी देशों की अपरिमित आर्थिक शक्ति की अनदेखी नहीं की जा सकती। आधुनिक विश्व इतिहास में संभवत: पहली बार अमेरिका दबाव में है। आम अमेरिकी मतदाता को लगता है कि मौजूदा नेताओं के पास उसके वैिश्वक प्रभुत्व को बनाए रखने के फार्मूले नहीं है। उन्हें ऐसे नेता की जरूरत है जिसकी लोकिप्रयता और स्वीकार्यता विश्वव्यापी हो। ऐसा नेता, जो अमेरिकी गौरव और वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने की क्षमता रखता हो। ओबामा की चुनावी परीक्षा हो चुकी है और प्रशासनिक परीक्षा होनी बाकी है। लेकिन उनके चमत्कारिक उदय ने अमेरिकियों और विश्व नागरिकों के मन में बहुत सी अनचीन्ही क्षमताओं की उम्मीद जगाई है।
जरूरत एक प्रखर नेता की
इस तथ्य को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि आज अमेरिकी राजनैतिक व्यवस्था संभवत: इस सदी के सबसे गंभीर आर्थिक और विकट राजनैतिक संकट से गुजर रही है। उपचार के पारंपरिक तौरतरीके लगभग निष्प्रभावी सिद्ध हो चुके हैं और बीमारी गंभीर से गंभीरतम होती जा रही हैं। अमेरिका को अपनी तकलीफों के इलाज के लिए नई पद्धतियों, नए विचारों, लीक से हटकर सोचने वाले नेतृत्व की जरूरत है। राष्ट्रपति चुनाव के ताजा मतदान के जरिए उसने एक ऐसी सामाजिक क्रांति कर दी है जिसके राजनैतिक और आर्थिक नतीजे भी ऐतिहासिक ही होंगे। न सिर्फ अमेरिका के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए। बराक ओबामा के पास भले ही सरकार चलाने का अनुभव न हो, लेकिन उन्होंने अमेरिका और विश्व की समस्याओं पर एक साफ-साहसिक समझबूझ का प्रदर्शन किया है। भले ही आपको उनके विचार अपने अनुकूल लगें या नहीं लेकिन उनका संदेश साफ है। वे विदेश नीति के जटिल मुÌों से लेकर आर्थिक गुित्थयों तक कहीं भी भ्रमित नजर नहीं आए हैं। राष्ट्रपति चुनाव की बहसों के दौरान जिस तरह उन्होंने अमेरिकी आर्थिक दुर्दशा, इराक-अफगानिस्तान-पाकिस्तान में अमेरिका की भूमिका, ग्लोबल वार्मिग, विदेश नीतियों, करों की स्थिति आदि पर जवाब दिए उससे जाहिर है कि उनके पास एक `राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक विज़न` है। अमेरिका ने इसी विजन पर दांव लगाया है।
यह युवा शक्ति की जीत भी है। अमेरिकी चुनावों में पारंपरिक रूप से नवदंपतियों, खासकर छोटे बच्चों के माता-पिता जिन्हें `बेबी बूमर्स` कहा जाता है, की निर्णायक भूमिका रही है। रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेट भी, इस समुदाय को प्रसन्न करने के लिहाज से नीतियां और कार्यक्रम बनाते हैं, उन्हें प्रचारित करते हैं। लेकिन इस बार अमेरिका के युवाओं, विशेषकर पहली बार मतदान का अवसर पाने वाले युवाओं ने ओबामा का खुले दिल से समर्थन किया। इकहत्तर साल के जॉन मैक्कैन की तुलना में युवा, ऊर्जावान और प्रखर वक्ता बराक ओबामा स्वाभाविक रूप से दिलों के अधिक करीब थे। इस वर्ग ने मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और इसीलिए इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में मतदान का प्रतिशत भी बहुत अच्छा रहा। अमेरिकी युवा वर्ग ने बराक ओबामा के मतपत्र पर ही नहीं बल्कि शीर्ष स्तर पर एक साहसिक एवं नई शुरूआत के हक में और समानता एवं बहुलवाद पर केंद्रित व्यवस्था के पक्ष में भी मोहर लगाई है। सामाजिक-राजनैतिक क्रांतियां रक्तरंजित ही हों और गृहयुद्धों के जरिए ही आएं यह जरूरी नहीं है। इस चुनाव ने दिखाया है कि वे मतपत्रों के रास्ते से भी आती हैं।
Tuesday, October 14, 2008
गाढ़े वक्त काम आई हमारी परंपरागत कंजूसी
विशिष्ट हिंदुस्तानी मानसिकता के अनुसार, हमारे बैंक अधिकारी किसी को आसानी से कर्ज नहीं देते। वे ऋण के मामलों की उसी तरह जांच-पड़ताल करते हैं जैसे कि पैसा खुद उनकी जेब से जा रहा है। उसके बाद भी मकान की सिर्फ आधिकारिक कीमत का 80-85 फीसदी तक हिस्सा कर्ज के रूप में दिया जाता है। ऐसे कर्ज के डूबने के आसार बहुत कम हैं क्योंकि प्राय: मकान की बाजार कीमत की तुलना में कर्ज की राशि आधी भी नहीं होती।
पूंजी बाजार ही नहीं, निर्यातकों और सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों में भी मौजूदा वैश्विक हालात को लेकर स्वाभाविक चिंता व्याप्त है। वैसे तो रुपए की कमजोरी का निर्यातकों को लाभ होना चाहिए लेकिन महंगाई ने उस लाभ को निष्प्रभावी कर दिया है। भारत परिधानों का बड़ा निर्यातक है लेकिन रुई, धागों, सूत और अन्य कच्चे माल की कीमतों में पिछले एक साल में तीस फीसदी तक वृिद्ध होने के कारण रुपए की कमजोरी के बावजूद निर्यातक निराश हैं। वित्तीय संकट के कारण निर्यात के ऑर्डर तो घट ही रहे हैं। सूचना प्रौद्योगिकी की भी यही स्थिति है। इन्फोसिस, टीसीएस, विप्रो, पोलारिस और अन्य बड़ी आईटी कंपनियों का ज्यादातर कारोबार अमेरिका और यूरोप में होता है लेकिन मौजूदा दौर में उन्हें नए विदेशी ऑर्डर पाने में दिक्कत हो सकती है। हां, इस घटनाक्रम का एक सकारात्मक पहलू यह है कि खर्च घटाने का का दबाव विदेशी कंपनियों को आउटसोर्सिंग की ओर प्रेरित करेगा और इसके परिणामस्वरूप भारत का बीपीओ सेक्टर मौजूदा वैश्विक मंदी से लाभािन्वत भी हो सकता है।
इन सबके बावजूद, भारतीय अर्थव्यवस्था के सूक्ष्मतम घटक के रूप में काम कर रहे आम हिंदुस्तानी को बहुत चिंतित होने की जरूरत नहीं दिखती। जरा भारत की स्थिति की तुलना अमेरिका से कीजिए जहां वित्तीय संकट में ग्रस्त वित्तीय संस्थानों को उबारने के लिए तीन सौ अरब डालर के इंजेक्शन की जरूरत पड़ रही है। फिर ब्रिटेन को देखिए जहां बेलआउट की राशि 500 अरब पाउंड के करीब है। अपने पड़ोस में पाकिस्तान को ही लीजिए, जहां विदेशी मुद्रा भंडार घटकर महज तीन अरब डालर (भारत 292 अरब डालर) रह गया है और रुपए की कीमत अपने निम्नतम स्तर (एक डालर बराबर अस्सी पाकिस्तानी रुपए) पर है। क्या हमारे यहां की स्थिति इनमें से किसी के भी जैसी है? हमारे यहां सिर्फ शेयर बाजार कैजुअल्टी वार्ड में पड़ा हुआ है लेकिन विकसित देशों में तो अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण घटक लाइफ-सपोर्ट सिस्टम पर रखे हुए हैं! हमारी आर्थिक विकास दर भले ही नौ फीसदी से कम होकर 7.9 फीसदी पर आ गई हो मगर अब भी वह दुनिया की सर्वाधिक विकास दरों में से एक है। जैसे जैसे विदेशी वित्तीय संस्थानों की सेहत सुधरेगी, हमारे शेयर बाजार की दशा में भी सुधार आएगा।
ैवैिश्वक वित्तीय संकट ने भारत को उतनी गंभीरता से आहत नहीं किया तो इसकी वजह हमारी मजबूत आर्थिक बुनियाद के साथ-साथ वित्तीय सुधारों पर हमारा संकोची रवैया भी है। वित्तीय और बैंकिंग सुधारों की धीमी गति के लिए भले ही हमें दुनिया भर में कोसा जाता हो लेकिन वही धीमी गति इस संकट के समय हमारी ढाल साबित हुई है। हम अपनी अर्थव्यवस्था को खोल तो रहे हैं मगर धीरे-धीरे, हिंदुस्तानी परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते हुए। इसीलिए जिस तूफान ने अमेरिका और यूरोप को अपनी चपेट में लिया वह हमारे यहां सिर्फ एक बड़े झौंके के रूप में आया, सुनामी की शक्ल में नहीं।
जिस सब-प्राइम या आवासीय ऋण संकट ने पश्चिमी देशों के बैंकों को दीवालिएपन के कगार पर ला खड़ा किया, उससे हमारे बैंक अब तक करीब-करीब सुरक्षित हैं। एक बार फिर हमारे अनुदार रवैए के कारण। विशिष्ट हिंदुस्तानी मानसिकता के अनुसार, हमारे बैंक अधिकारी किसी को आसानी से कर्ज नहीं देते। वे ऋण के मामलों की उसी तरह जांच-पड़ताल करते हैं जैसे कि पैसा खुद उनकी जेब से जा रहा है। उसके बाद भी मकान की सिर्फ आधिकारिक कीमत का 80-85 फीसदी तक हिस्सा कर्ज के रूप में दिया जाता है। ऐसे कर्ज के डूबने के आसार बहुत कम हैं क्योंकि प्राय: मकान की बाजार कीमत की तुलना में कर्ज की राशि आधी भी नहीं होती। आवासीय बाजार में भारी गिरावट आने पर भी बैंक मकान पर कब्जा कर उतनी राशि आसानी से वसूल कर सकता है। रुपए को अब तक पूर्ण परिवर्तनीय न बनाया जाना और उसमें मुक्त कारोबार शुरू न किया जाना भी बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ। अब भले ही दुनिया हमें बैंकिंग, वित्तीय, मौिद्रक और बीमा क्षेत्र के अटके पड़े सुधारों के लिए कोसती रहे, मगर वैिश्वक वित्तीय संकट ने हमें सिखा दिया है कि सुधारों के मामले में फूंक-फूंक कर आगे बढ़ना ही श्रेयष्कर है।
Monday, October 13, 2008
आर्थिक मंदी खर्चने न दे, मुद्रास्फीति बचाने न दे
भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी मजबूती बरकरार है और अगर उसमें निवेशकों तथा उपभोक्ताओं का विश्वास कायम रहेगा तो वह आगे भी बनी रहेगी। अगर भारतीय निवेशक आशंकित और भयभीत रहेगा तो संकट बढ़ता चला जाएगा। वित्त मंत्री का यह बयान कि `कोई डर नहीं है। अगर कोई डर है तो वह सिर्फ `डर` शब्द से है` इसे स्पष्ट कर देता है।
अमेरिका के कुछ वित्तीय संस्थानों से शुरू हुआ वित्तीय संकट धीरे-धीरे एक वैिश्वक समस्या बन गया है और काफी दिनों तक खुशफहमी में रहने के बाद अब हमारे कर्णधारों के सामने यह साफ होने लगा है कि भारत भी वैिश्वक मंदी से पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। हो सकता है कि अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया महाद्वीपों और एशिया के कुछ देशों की तुलना में हमारी स्थिति कुछ बेहतर हो। लेकिन वैश्वीकरण के दौर में, जब पूरी दुनिया एक किस्म की गुंफित, समिन्वत विश्व अर्थव्यवस्था की स्थापना के मार्ग पर बढ़ रही हो, तब कोई भी राष्ट्र आर्थिक दिग्गजों की तकलीफों से पूरी तरह अप्रभावित नहीं रह सकता। वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक की तरफ से लागू किए गए ताजा वित्तीय और मौिद्रक उपायों से जाहिर है कि भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान इस संकट को लेकर अन्य देशों की तुलना में कम गंभीर नहीं है।
रिजर्व बैंक ने पिछले पांच साल में पहली बार बाजार में तरलता बढ़ाने के लिए नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) को 150 आधार अंक घटाकर 7.5 प्रतिशत किया है। भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने भी विदेशी संस्थागत निवेशकों पर लगाए गए कुछ प्रतिबंधों में ढील देने का ऐलान किया है। ये वे प्रतिबंध हैं जिन्हें पिछले साल शेयर बाजार की असीमित उड़ान के दौर में लगाया गया था। बाजार की मंदी एक वित्तीय परिघटना होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक समस्या भी होती है और इसीलिए उसके इलाज की किसी भी रणनीति में मनोवैज्ञानिक घटकों का विशेष महत्व है। हमारा शेयर सूचकांक सेन्सेक्स या संवेदी सूचकांक कहा जाता है तो इसका केंद्रीय कारण उसकी संवेदी प्रकृति है। जरा सी अच्छी खबर मिलने पर वह उछल जाता है और जरा सी आशंका होने पर धराशायी होने में देर नहीं लगाता। भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती के बारे में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री पी चिदंबरम और वाणिज्य मंत्री कमलनाथ के बयानों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी मजबूती बरकरार है और अगर उसमें निवेशकों तथा उपभोक्ताओं का विश्वास कायम रहेगा तो वह आगे भी बनी रहेगी। अगर भारतीय निवेशक आशंकित और भयभीत रहेगा तो संकट बढ़ता चला जाएगा। वित्त मंत्री का यह बयान कि `कोई डर नहीं है। अगर कोई डर है तो वह सिर्फ `डर` शब्द से है` इसे स्पष्ट कर देता है।
लेकिन आम निवेशक, उपभोक्ता, कारोबारी और कर्मचारी आशंकाओं से मुक्त नहीं हैं। एक ओर विश्व भर से आ रही चिंताजनक खबरों का सिलसिला और दूसरी ओर हमारी अपनी अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ्तार आज के संवेदी माहौल में उसे भयभीत करने के लिए काफी हैं। बंबई स्टॉक एक्सचेंज का सेन्सेक्स (लगभग 11, 300) दो साल के निम्नतम स्तर पर चल रहा है और रुपए की कीमत (एक डालर बराबर 48 रुपए) छह साल के सबसे निचले स्तर पर है। आर्थिक विकास की दर पिछले साल के नौ फीसदी की तुलना में इस साल 7.9 फीसदी रहने का अनुमान है। हमारी समस्या का एक बड़ा कारण मुद्रास्फीति है जो लंबे समय से 12 फीसदी के आसपास बनी हुई है। मुद्रास्फीति को काबू में रखने के लिए बैंक कर्ज देने में कंजूसी से काम ले रहे हैं और ब्याज दरें बढ़ी हुई हैं। इसकी वजह से बाजार में मुद्रा का प्रवाह कम है, जबकि मौजूदा मंदी के माहौल में बाजार में तरलता बढ़ाए जाने की जरूरत है। मंदी के असर में कई बड़ी कंपनियों ने अपनी विस्तार योजनाओं को फिलहाल टाल रखा है और शेयर बाजार में आई गिरावट के चलते धन जुटाने के नए रास्तों की तलाश कर रही हैं। मुद्रास्फीति के कारण रिजर्व बैंक कोई बड़ा कदम उठाने की स्थिति में तो नहीं है लेकिन उसने सीआरआर में 150 आधार अंकों की कमी करके बाजार में करीब 60,000 करोड़ रुपए की रकम उपलब्ध करा दी है जिसका बाजार की स्थिति पर सकारात्मक असर पड़ना चाहिए।
वैिश्वक मंदी से वे सेक्टर सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे जिनका संबंध विदेशी बाजारों या विदेशी पूंजी से है। भारतीय शेयर बाजार में पिछले आठ-दस महीनों से लगातार चल रही गिरावट का सीधा संबंध विदेशी निवेशकों द्वारा हमारे बाजारों से धन खींच लिए जाने से है। पहले तो वे अपने लाभ के लिए हमारे बढ़ते पूंजी बाजार में खूब धन लगाकर उसे ऊपर उठाते चले गए और फिर मुनाफा बटोरकर चलते बने। इन निवेशकों में उन बैंकों का भी धन था जो आज विश्वव्यापी वित्तीय संकट के केंद्र में बताए जाते हैं। मंदी के माहौल में वे यहां पर अधिक समय तक टिके रहने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने बाजार को अपने हिसाब से निर्देशित किया और लाखों उत्साहित भारतीय निवेशकों को अधर में छोड़कर चले गए।
Friday, October 3, 2008
अहिंसा का अर्थ कमजोर होना नहीं है
श्वेतों और अश्वेतों को समाज में समान दर्जा दिलवाने के लिए मार्टिन लूथर किंग का अथक और सफल संघर्ष महात्मा गांधी के सिद्धांतों की वैश्विक स्तर पर हुई एक और महान विजय का प्रतीक था। किंग ने कहा था कि ईसा मसीह ने हमें लक्ष्य दिखाए हैं लेकिन उन लक्ष्यों तक पहुंचने का मार्ग गांधीजी ने सुझाया है।
पिछले साल संयुक्त राष्ट्र संघ ने महात्मा गांधी के जन्म दिवस दो अक्तूबर को `अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस` घोषित कर उनके सिद्धांतों के प्रति समूचे विश्व की आस्था को अभिव्यक्त किया है। प्रथम अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के मौके पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा था कि हिंसा, आतंक और असमानता से ग्रस्त आज के समाज को गांधीजी के सिद्धांतों की पहले से भी ज्यादा जरूरत है। वास्तव में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना जिन उद्देश्यों को लेकर हुई थी (शांति, सहिष्णुता और मानवीय गरिमा की स्थापना) वे वही हैं जिनके लिए गांधीजी ने जीवन भर संघर्ष किया। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के पीछे की धारणा यह है कि युद्धों को समाप्त ही नहीं किया जा सकता बल्कि अनावश्यक भी बनाया जा सकता है। गांधीजी का शांतिपूर्ण प्रतिरोध, सत्याग्रह या सविनय अवज्ञा के सिद्धांतों की भावना भी तो यही है।
हो सकता है कि कुछ लोगों को अहिंसा का विचार आज के समय में प्रासंगिक न लगे लेकिन अहिंसा का अर्थ कमजोर होना नहीं है। इसका अर्थ है अपने प्रतिद्वंद्वी को नैतिक रूप से अस्त्रहीन कर देना। उसे अपने बल-प्रयोग की नैतिकता पर लज्जा महसूस करने पर विवश कर देना। इस तरह की विजय अधिक स्थायी और सार्थक है क्योंकि वह न सिर्फ दमन को समाप्त करती है बल्कि दमनकारी व्यक्ति को भी बदल देती है। भारत में गांधीजी के नेतृत्व में स्वाधीनता आंदोलन की सफलता के साथ-साथ अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन, पोलैंड में लेक वालेसा के नेतृत्व में हुए लोकतंत्र समर्थक आंदोलन और चेकोस्लोवाकिया में चार्टर 77 के आंदोलन की सफलता अहिंसक प्रतिरोध की शक्ति को प्रमाणित कर चुकी हैं। गांधीजी के अहिंसा और सत्य के सिद्धांतों ने उनके निधन के बाद भी विश्व के कोने-कोने में लोगों को अन्याय से मुक्ति दिलाई है। लोगों का जीवन बदल देने वाले ऐसे महापुरुष के सामने विश्व के सबसे बड़े पुरस्कार भी छोटे पड़ जाते हैं। यह बात नोबेल पुरस्कार देने वाली नार्वे की नोबेल समिति ने भी कही है जिसे आज तक यह पीड़ा साल रही है कि भगवान बुद्ध और ईसा मसीह के बाद विश्व में शांति के लिए सबसे बड़ा योगदान देने वाले महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया गया। इस बारे में नोबेल समिति की स्थायी मानसिक पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए उसकी वेबसाइट पर एक विशेष पृष्ठ मौजूद है जो उन परिस्थितियों की चर्चा करता है जिनके कारण ऐसा नहीं हो सका। गांधीजी विश्व की ऐसी अकेली हस्ती हैं जिनके बारे में नोबेल समिति को इस तरह की स्थायी आत्मग्लानि है और वह इस बात को छिपाती भी नहीं। वह मानती है कि गांधीजी किसी भी नोबेल पुरस्कार से बहुत बड़े हैं।
तिब्बती धार्मिक नेता दलाई लामा ने पिछले दिनों कहा था कि महात्मा गांधी, जो कि उनके भी आदर्श हैं, एक सामान्य भारतीय दिखते हैं लेकिन वास्तव में उनके विचार बहुत आधुनिक हैं। गांधीजी के विचार आज भी विश्व भर के युवाओं को प्रभावित करते हैं यह बात अमेरिकी विश्वविद्यालयों में कराए गए एक सर्वेक्षण में फिर से सिद्ध हुई है। अमेरिकी छात्रों ने गांधीजी को दुनिया की किसी भी ऐतिहासिक या वर्तमान राजनैतिक हस्ती से ऊपर माना है, जिनसे वे प्रेरणा लेना चाहेंगे। बर्लिन में छात्रों की मांग पर एक विद्यालय का नाम बदलकर गांधीजी के नाम पर रखा गया है। अनेक अमेरिकी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में गांधीवाद पर पाठ्यक्रम शुरू किए गए हैं।
गांधीजी के विचारों की लोकिप्रयता, प्रासंगिकता और उनके प्रति सम्मान की भावना को गाहे-बगाहे अनेक बड़ी हस्तियां जाहिर करती रहती हैं। जैसे ब्रिटिश प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन, जिन्होंने कहा कि वे गांधीजी जैसे अपने आदर्श की तुलना में कुछ भी नहीं हैं लेकिन उनकी प्रेरणा हमेशा उनके साथ है। पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनीमल्स के प्रमुख ब्रुस फ्रेडरिक ने शाकाहार के मामले में गांधीजी को अपना प्रेरणा स्रोत बताया है। एक फिलस्तीनी आत्मघाती हमलावर शिफा अल कुदसी का गांधीजी के विचारों को पढ़कर हृदय परिवर्तन हो गया है और वह मध्यपूर्व में शांति और अहिंसा को बढ़ावा देने में जुट गई है। विश्व भर में मिलने वाली ऐसी मिसालें अनगिनत हैं जिनके केंद्र में सिर्फ एक महापुरुष हैं- महात्मा गांधी। हमारा सौभाग्य है कि वे भारत में जन्मे। गर्व की बात है कि हमें उनका प्रत्यक्ष नेतृत्व और मार्गदर्शन मिला। किंतु उनके मानवतावादी विचारों की वैिश्वक प्रासंगिकता और स्वीकार्यता हमेशा बनी रहेगी।
Thursday, October 2, 2008
गांधी को सीमाओं में बंद किया ही नहीं जा सकता
गांधीजी सच्चे अर्थों में एक विश्व मानव थे। एक ऐसा महान व्यक्ति जो `वसुधैव कुटुम्बकम` की भावना में आत्मा से विश्वास रखता था। ऐसी शिख्सयत जो पूरे विश्व को हिंसा, दमन, पराधीनता, अन्याय और असत्य से मुक्त देखना चाहती थी। न तो गांधी के विचार और न वे स्वयं किसी एक राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं के भीतर रखकर देखे जा सकते हैं।
अमेरिका में जब लोग सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था के प्रति असहमति, प्रतिरोध या निराशा प्रकट करने के लिए उठ खड़े होते हैं तो वे न्यूयॉर्क के यूनियन स्क्वायर जाकर अपनी आवाज बुलंद करते हैं। यूनियन स्क्वायर विश्व भर में राजनैतिक मतान्तर की अभिव्यक्ति का केंद्र और लोकतांत्रिक भावना के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। वहां पर जिन विश्व इतिहास की जिन तीन महान हस्तियों की मूर्तियां स्थापित हैं, उनमें जॉर्ज वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन के अलावा तीसरे हैं महात्मा गांधी। अमेरिका और विश्व के अलग-अलग क्षेत्रों से आए हुए, अलग-अलग राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक दृष्टिकोण वाले लोग वहां गांधी प्रतिमा की आश्वस्तकारी छत्रछाया में अपनी प्रतिरोधी आवाज उठाते हैं। ये लोग गांधीजी से प्रेरणा लेते हैं, अहिंसा, शांति और एकता के गांधीवादी सिद्धांतों में गहरी आस्था रखते हुए अपने संघर्ष को नैतिक मजबूती प्रदान करते हैं। क्योंकि गांधीजी के सिद्धांत और विचार सिर्फ हम भारतीयों के लिए ही नहीं हैं।
गांधीजी सच्चे अर्थों में एक विश्व मानव थे। एक ऐसा महान व्यक्ति जो `वसुधैव कुटुम्बकम` की भावना में आत्मा से विश्वास रखता था। ऐसी शिख्सयत जो पूरे विश्व को हिंसा, दमन, पराधीनता, अन्याय और असत्य से मुक्त देखना चाहती थी। न तो गांधी के विचार और न वे स्वयं किसी एक राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं के भीतर रखकर देखे जा सकते हैं। वे पूरे विश्व के महात्मा हैं। वे समूची मानवता के प्रतिनिधि हैं। गांधीजी के प्रति सम्मान और लगाव विश्व के कोने-कोने में दिखाई देता है। कभी डाक टिकटों के रूप में, कभी प्रमुख मार्गों के नामकरण के रूप में तो कभी उनकी प्रतिमाओं और चित्रों के रूप में। यह सम्मान किसी किस्म के वैश्विक राजनैतिक समीकरणों या कूटनीतिक सद्भावनाओं पर आधारित नहीं है बल्कि वास्तविक एवं स्वत: स्फूर्त है क्योंकि गांधीजी कभी किसी सरकारी पद पर नहीं रहे। गांधीजी के निधन के साठ साल बाद भी दुनिया उनसे प्रेरणा ले रही है, उनके नाम और सिद्धांतों के साथ जुड़ने में गर्व का अनुभव करती है।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बराक ओबामा ने कुछ महीने पहले कहा था कि महात्मा गांधी जीवन भर उनके लिए प्रेरणा स्रोत बने रहे हैं। गांधी का संदेश उन्हें निरंतर इस बात की याद दिलाता रहता है कि जब सामान्य लोग असामान्य कार्य करने के लिए एकजुट होते हैं तो विश्व में युगांतरकारी बदलाव संभव हैं। ओबामा के सीनेट कार्यालय में गांधीजी का चित्र लगा है जो उन्हें हमेशा सच के हक में खड़े होने के लिए प्रेरित करता रहता है, आम आदमी के प्रति अपने दायित्वों का स्मरण कराता रहता है। ओबामा अमेरिका में हुए नागरिक अधिकार आंदोलन के प्रणेता मार्टिन लूथर किंग के विचारों के प्रति भी गहरी आस्था रखते हैं और यह कोई संयोग नहीं है कि स्वयं किंग का सारा आंदोलन महात्मा गांधी के विचारों और अहिंसक तौर-तरीकों पर आधारित था। श्वेतों और अश्वेतों को समाज में समान दर्जा दिलवाने के लिए उनका अथक और सफल संघर्ष महात्मा गांधी के सिद्धांतों की वैश्विक स्तर पर हुई एक और महान विजय का प्रतीक है। मार्टिन लूथर किंग ने तो महात्मा गांधी को ईसा मसीह से जोड़ा था। उन्होंने कहा था कि ईसा मसीह ने हमें लक्ष्य दिखाए हैं लेकिन उन लक्ष्यों तक पहुंचने का मार्ग गांधीजी ने सुझाया है।
दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में चले लंबे रंगभेद विरोधी आंदोलन की सफलता भी गांधीजी के सिद्धांतों की जीत है जिन्होंने वहां रंगभेद के विरुद्ध लड़ाई की शुरूआत की थी। मंडेला ने हमेशा गांधीजी को अपना प्रेरणा स्रोत माना है जिन्होंने बीस साल तक दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के दमन के विरुद्ध संघर्ष किया और एक व्यापक आंदोलन की नींव तैयार की। डरबन से प्रीटोरिया जाते समय जिस पीटरमारिट्जबर्ग स्टेशन पर उन्हें ट्रेन से नीचे फेंक दिया गया था, आज उसी शहर के बीचोबीच गांधीजी की प्रतिमा स्थापित है। दो साल पहले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने उसी डरबन-प्रीटोरिया रेलमार्ग पर पीटरमारिट्जबर्ग स्टेशन तक रेल यात्रा कर गांधीजी को श्रद्धांजलि दी थी।
Saturday, September 27, 2008
हमारी दोस्ती में अमेरिका का लाभ है तो हर्ज क्या है?
दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों की मित्रता से सिर्फ भारत लाभान्वित नहीं हो रहा, अमेरिका भी होगा। उसे विभिन्न राजनैतिक, सैनिक, आर्थिक, राजनयिक लाभ मिलेंगे। भारतीय बाजार में उसकी अन्य देशों की तुलना में बड़ी हिस्सेदारी होगी तो इसमें हर्ज क्या है? कोई भी मित्रता तभी आगे बढ़ सकती है यदि वह दोनों पक्षों के हित में हो। विश्व राजनय में मित्रता की बुनियाद वर्तमान और भावी स्वार्थों पर रखी जाती है और यह कोई रातोंरात बदलने वाला नहीं है।
भारत के लिए आज अमेरिका और यूरोप के साथ खड़े होना ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है। एनएसजी में अमेरिका ने जिस तरह चीन के विरोध के बावजूद भारत के पक्ष में फैसला करवाया वह इस बात का प्रतीक है कि उसका वैश्विक दबदबा भले ही कुछ कम हुआ हो लेकिन खत्म नहीं हुआ है। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी वर्चस्व जारी है। अफगानिस्तान, ईरान, इराक, उत्तर कोरिया, लीबिया आदि के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र की नीतियां और फैसले अमेरिकी रुख के अनुकूल रहे हैं। अलग-अलग मौकों पर, अलग-अलग मुद्दे पर कभी फ्रांस, कभी चीन और कभी रूस ने संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी रुख का विरोध किया लेकिन हुआ वही जो अमेरिका ने चाहा। हमें ऐसी ताकतवर राजनैतिक शक्ति की मित्रता की दरकार है। विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली आर्थिक शक्ति के साथ जुड़े रहना हमारे हित में है, खासकर तब जब हम उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर चल पड़े हैं। इस मित्रता से सिर्फ भारत लाभान्वित नहीं हो रहा, अमेरिका भी होगा। उसे विभिन्न राजनैतिक, सैनिक, आर्थिक, राजनयिक लाभ मिलेंगे। भारतीय बाजार में उसकी अन्य देशों की तुलना में बड़ी हिस्सेदारी होगी तो इसमें हर्ज क्या है? कोई भी मित्रता तभी आगे बढ़ सकती है यदि वह दोनों पक्षों के हित में हो। विश्व राजनय में मित्रता की बुनियाद वर्तमान और भावी स्वार्थों पर रखी जाती है और यह कोई रातोंरात बदलने वाला नहीं है।
भारत को विश्व राजनीति अपनी जगह वाजिब हासिल करनी है तो उसे अपने अनुकूल विकल्पों की पहचान में देरी नहीं करनी चाहिए। किसी एक विकल्प को चुनने का अर्थ यह नहीं है कि हम दूसरे विकल्प के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाएं। दुनिया की कोई अन्य ताकत, भले ही वह रूस हो, चीन हो, यूरोपीय संघ हो, निर्गुट देश हों या कोई और, हमें वह नहीं दिला सकती जो अमेरिका के साथ मैत्री से हमें मिल सकता है। चाहे वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता का मुद्दा हो, जी-8 जैसे विश्व बाजार को संचालित करने वाले संगठनों की सदस्यता का विषय हो, चीन और पाकिस्तान जैसे पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों की चुनौतियों को निष्प्रभावी करने का मुद्दा हो, आर्थिक प्रगति का या फिर विश्व राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने का।
कुछ समय पहले हुए एक सर्वे में जितने प्रतिशत भारतीय लोगों ने अमेरिका के प्रति विश्वास जाहिर किया, वह पूरे विश्व में सर्वाधिक था। हमारी इसी जनता में से 83 फीसदी ने हाल ही में एक अन्य सर्वे में कहा कि वह चीन पर कभी भी भरोसा करने को तैयार नहीं है। लोगों ने तो समझ लिया। देखिए हमारे राजनैतिक दल इस संकेत को कब समझ पाते हैं।
Friday, September 26, 2008
रूस-चीन-यूरोप से दोस्ती, अमेरिका से साझेदारी
हो सकता है कि धीरे-धीरे रूस और चीन के इर्द-गिर्द विभिन्न देशों के एकत्र होने की प्रक्रिया शुरू हो लेकिन अर्थव्यवस्था के प्राधान्य के इस युग में कोई देश अमेरिका की कीमत पर रूस-चीन के खेमे में नहीं जाएगा। न आसियान देश, न खाड़ी देश, न दक्षिण अमेरिकी देश, न नाटो के सदस्य और न ही पूर्व वारसा संधि के अधिकांश सदस्य देश। यही बात कमोबेश भारत पर भी लागू होती है।
विश्व राजनीति में भारत के सामने दो स्पष्ट विकल्प हैं। पहला, जिसे अब हमने कुछ हद तक कम कर लिया है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं किया, वह है- अमेरिका के विरुद्ध उभरते वैश्विक राजनैतिक तंत्र का हिस्सा बनना। यह तंत्र रूस और चीन के इर्दगिर्द घूमता है। दोनों बड़ी सैनिक, आर्थिक और राजनैतिक शक्तियां हैं और आने वाले एक दशक में बाजार की बड़ी ताकतें बनी रहने की स्थिति में हैं। दूसरी ओर अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्र हैं जो पारंपरिक रूप से विश्व अर्थव्यवस्था पर दबदबा कायम किए हुए हैं। लेकिन उनकी यही स्थिति आगे भी रहेगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने तो कह ही दिया है कि अमेरिकी वर्चस्व समापन की ओर अग्रसर है। कुछ कुछ यही बात रूस भी कह रहा है जिसने जार्जिया के मुद्दे पर अमेरिकी प्रभुत्व को खुलेआम चुनौती दी है। चीन तो गाहे-बगाहे अमेरिका के खिलाफ खड़ा होता ही रहा है। विकासशील विश्व में भी अनेक देश अमेरिकी वर्चस्व का विरोध करते हैं।
भले ही हमारे कम्युनिस्ट मित्र कुछ भी कहें, देश की दो बड़ी राजनैतिक शक्तियां- कांग्रेस और भाजपा इन विकल्पों में से दूसरे विकल्प को ही चुनना चाहेंगी। भारत ने चीन को अनेक बार आजमाया है लेकिन कहीं न कहीं भारत के प्रति उसका शत्रुभाव बहुत गहरा है, जो आसानी से जाने का नाम नहीं लेता। अमेरिका और यूरोप भले ही भारत को बराबरी का साझेदार मान लें लेकिन चीन कभी हमें बराबरी का दर्जा नहीं देता। उसके साथ आकर भारत अधिक से अधिक यही सोच सकता है कि वह एक और भारत-चीन युद्ध की आशंका से मुक्त होकर विकास पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। लेकिन क्या सचमुच हम यह सोच सकते हैं? क्या सचमुच भारत चीनी सैनिक चुनौती की ओर से निश्चिंत हो सकता है? चीन अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों- रूस, ताइवान, जापान आदि के प्रति हमसे कहीं अधिक जिम्मेदारी और सम्मान के साथ पेश आता रहा है। लेकिन अपने पड़ोस में स्थित एक बड़ी लोकतांत्रिक, सैनिक, परमाणविक और आर्थिक शक्ति भारत के साथ नहीं। वह हमें अधिक से अधिक एक कमजोर प्रतिद्वंद्वी समझता आया है। भारत का किसी भी रूप में मजबूत होना उसे अपने राजनैतिक, सैनिक और आर्थिक हितों के प्रतिकूल महसूस होता है। दूसरी ओर आम भारतीय चीन के प्रति 62 के बाद से ही सशंकित रहा है और हर नया अनुभव उसकी आशंकाओं को पुष्ट ही करता रहा है। विभिन्न भारत-पाक युद्धों, भारत-पाक परमाणु परीक्षणों, ताजा परमाणु सौदे तक पर चीन का रुख पाकिस्तान के प्रबल हिमायती का रहा है और रहेगा। तब ऐसे गठजोड़ में, जिसकी बुनियाद आपसी शंकाओं, संदेहों और प्रतिद्वंद्विता पर आधारित हो, शामिल होकर भारत अपना क्या भला करेगा?
रूस भारत का पारंपरिक मित्र है और उसके साथ भारत की मित्रता समय की कसौटी पर खरी उतरी है। सोवियत संघ के विघटन के बाद से रूस लगातार मजबूत भी हुआ है और अब उसने वैश्विक शक्ति-केंद्र के रूप में उभरने की अपनी महत्वाकांक्षा भी स्पष्ट कर दी है। लेकिन आज का रूस कल के सोवियत संघ की तुलना में अकेला है। उसके पारंपरिक साथी अमेरिका और यूरोप के खेमे में जा चुके हैं। हां, उसे कुछ नए साथी भी मिले हैं लेकिन गौर कीजिए तो पाएंगे कि वे सभी विश्व राजनीति में दूसरे छोर पर खड़े, अकेले पड़ गए राष्ट्र हैं। मसलन- ईरान और वेनेजुएला। ज्यादातर पूर्व सोवियत गणराज्य आज रूस से दूरी बना चुके हैं। वारसा संधि के देशों में से भी अधिकांश छितरा कर स्वतंत्र विदेश नीति पर चल रहे हैं। रूस आज भी निर्विवाद रूप से एक बड़ी सैनिक और राजनैतिक शक्ति है लेकिन वह विश्व राजनीति का वैसा समानांतर केंद्र नहीं रह गया है जैसा दो दशक पहले तक था। संयुक्त राष्ट्र और अन्य विश्व संस्थाओं में भी उसकी आवाज उतनी मजबूत और फैसलाकुन नहीं रह गई है। वह अमेरिका जैसी महाशक्ति नहीं रह गया है। हो सकता है कि धीरे-धीरे रूस और चीन के इर्द-गिर्द विभिन्न देशों के एकत्र होने की प्रक्रिया शुरू हो लेकिन अर्थव्यवस्था के प्राधान्य के इस युग में कोई देश अमेरिका की कीमत पर रूस-चीन के खेमे में नहीं जाएगा। न आसियान देश, न खाड़ी देश, न दक्षिण अमेरिकी देश, न नाटो के सदस्य और न ही पूर्व वारसा संधि के अधिकांश सदस्य देश।
Thursday, September 25, 2008
सर्दियां आ गई हैं तो बसंत क्या दूर होगा? संदर्भः परमाणु करार
कुछ महीने पहले किसी पत्रकार ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से सवाल किया था कि वे परमाणु सौदे को लेकर इतने उत्साहित हैं पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता को लेकर उतने सक्रिय क्यों दिखाई नहीं देते। प्रधानमंत्री का जवाब था कि अगर परमाणु सौदा भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने के लिए जरूरी है। अगर वह आर्थिक ताकत बन गया तो सुरक्षा परिषद की सदस्यता उसे स्वयं मिल जाएगी।
कुछ महीने पहले किसी पत्रकार ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से सवाल किया था कि वे परमाणु सौदे को लेकर इतने उत्साहित हैं पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता को लेकर उतने सक्रिय क्यों दिखाई नहीं देते। प्रधानमंत्री का जवाब था कि अगर परमाणु सौदा भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने के लिए जरूरी है। अगर वह आर्थिक ताकत बन गया तो सुरक्षा परिषद की सदस्यता उसे स्वयं मिल जाएगी। पिछले कुछ सप्ताहों में विश्व मंच पर भारत की दो बड़ी जीतें, जिनमें साफ तौर पर एक मित्र के रूप में अमेरिका का बड़ा हाथ है, इस बात की निशानदेही करती हैं। पहले अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी और फिर न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत के पक्ष में विशेष प्रावधान किया जाना, चीन को छोड़कर विश्व की बाकी सभी शक्तियों- रूस, अमेरिका, फ्रांस और इंग्लैंड- द्वारा उसका समर्थन किया जाना और संभवत: इतिहास में पहली बार अमेरिका का हमारे हक में इस किस्म की मुहिम चलाना आने वाले दिनों का संकेत हो सकता है। हां, भारत में परमाणु संयंत्र उद्योग स्थापित होने से अमेरिकी कंपनियों को बहुत लाभ होगा। हां, भारत का बढ़ा हुआ कद अंतरराष्ट्रीय समीकरणों में चीन की काट के रूप में हमें पेश करने में अमेरिका की मदद करेगा। हां, भारतीय बाजार में बढ़ी पहुंच से मंदी-ग्रस्त अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा। लेकिन खुद भारत को होने वाले फायदे उससे बहुत अधिक होंगे।
अमेरिका से दूर रहकर हमने बहुत कुछ खोया है। यहां तक कि जब नेहरूजी के जमाने में अमेरिका ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सीट देने की पेशकश की तो उसे भी हमने यह सोचकर ठुकरा दिया था कि इससे हमारे साम्यवादी मित्रों- चीन और रूस को ठेस पहुंचेगी। जिस चीन को भारत ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलवाई, उसने विश्व संस्था के सर्वोच्च नियामकों में हमें शामिल किए जाने के हर प्रयास का विरोध किया। अब हमारा वक्त आ रहा है। एक ओर भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रसार, दूसरी ओर हमारा बढ़ता बाजार, तीसरी ओर पचास फीसदी युवा आबादी की ताकत और जुनून, चौथी ओर एक परमाणु शक्ति होने का आत्मविश्वास और पांचवीं ओर विश्व मंच पर बढ़ती स्वीकार्यता जैसे उत्प्रेरकों पर सवार यह देश पहली बार यह सोचने का साहस कर रहा है कि वह हमेशा चीन से पीछे रहने के लिए अभिशप्त नहीं है। यदि इस दिशा में कोई अड़चन है तो हमारे राजनेता, जिनके लिए आज भी राष्ट्र हित से ज्यादा बड़ा अपने और अपने दल का हित है। भला हमारे अलावा दुनिया का कौनसा देश होगा जहां के नेता उसकी अपनी तरक्की के रास्ते में रुकावटें खड़ी करते होंगे? भला ऐसा कौनसा राष्ट्र होगा जिसमें व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा राष्ट्रीय हितों से ऊपर होगी? हम चीन को जरूर पीछे छोड़ सकते हैं यदि हमें ऐसे नेता मिलें जो जाति, संप्रदाय और क्षेत्र के नाम पर आग भड़काने की बजाए विकास की सोचें। ऐसे नेता, जो भ्रष्टाचार, अपराधों और नाइंसाफी के खिलाफ ईमानदारी से खड़े होने का साहस रखते हों। ऐसे नेता, जिनके लिए राष्ट्र ही सर्वोपरि हो और जो अपने आचरण से नई पीढ़ी के लिए मिसाल कायम करने की क्षमता रखते हों।
लेकिन वह आदर्श परिस्थितियों की बात है जो फिलहाल तो काल्पनिक ही हैं। फिलहाल तो हमारे यहां पर ऐसे नेता हैं जो उसी परमाणु सौदे को रोकने पर प्राण-पण से कोशिश करते रहे हैं जिसका विरोध हमारी जनता की दृष्टि में दुश्मन नंबर एक चीन और दुश्मन नंबर दो पाकिस्तान कर रहे हैं। जिन वामपंथी दलों ने भारत के परमाणु शक्ति बनने पर खुशी नहीं जताई वे ही आज कह रहे हैं कि एनएसजी में प्रस्ताव पास होने के बाद हम अप्रत्यक्ष रूप से परमाणु अप्रसार व्यवस्था का हिस्सा बन गए हैं। यदि आपको परमाणु बम में दिलचस्पी ही नहीं है तो देश परमाणु अप्रसार व्यवस्था का हिस्सा बने या नहीं, आपको भला क्यों फर्क पड़ना चाहिए? जिस भाजपा का कहना है कि परमाणु सौदे का मकसद भारत को भविष्य में परमाणु विस्फोट करने से रोकना और उसे शक्तिहीन कर देना है, वह जरा यह बताए कि यदि इससे भारत शक्तिहीन हो जाएगा तो फिर चीन और पाकिस्तान को परमाणु सौदे का विरोध क्यों करना चाहिए? भारत के शक्तिहीन होने पर यदि किसी को प्रसन्नता होगी तो वह चीन और पाकिस्तान ही होंगे। लेकिन यदि वे जी-जान से इस सौदे का विरोध करने पर तुले हैं तो इसे क्या समझा जाए? हमारे राजनैतिक दलों को चाहिए कि वे क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचें, अन्यथा वे उसी तरह चीन के हाथों में खेल रहे होंगे जैसे 1962 की लड़ाई में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां। ये दल आज तक चीन को आक्रांता मानने को तैयार नहीं हैं।
Wednesday, September 24, 2008
घटनाओं को घटने से रोको तो घटेगा आतंकवाद
भारत की समिन्वत रणनीति में पोटा या उससे मजबूत कानून जितना जरूरी है उतनी ही जरूरी है एक संघीय जांच या निवारक एजेंसी। इस समस्या का समाधान सीमित दायरे में रहकर नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सीमित दायरे वाली समस्या नहीं है।<
दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा की गई संघीय आतंकवाद-विरोधी एजेंसी की स्थापना की सिफारिश एक सामयिक कदम है, जिसका सिर्फ इसीलिए विरोध नहीं किया जाना चाहिए कि ऐसा किसी अन्य राजनैतिक दल के सत्ताकाल में होने जा रहा है। आतंकवाद के हाथों हजारों जानें दे देने के बाद कम से कम अब तो हमारे राजनैतिक दलों को निहित स्वार्थों से ऊपर उठना पड़ेगा? ऐसे समय पर जब संयुक्त राष्ट्र तक से एक वैश्विक आतंकवाद-निरोधक एजेंसी की स्थापना का आग्रह किया जा रहा है, हमें आतंकवाद से निपटने के लिए एक अलग राष्ट्रीय गुप्तचर तंत्र की जरूरत है। ऐसा तंत्र जो विभिन्न राज्यों और केंद्र के बीच मौजूद कम्युनिकेशन गैप से मुक्त हो। ऐसा तंत्र, जो किसी एक राजनैतिक दल के विजन से नहीं बल्कि इस देश के आम नागरिक के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के अहसास से संचालित होता हो। ऐसा तंत्र जिसकी प्रकृति संघीय हो लेकिन जिसका संजाल देश के कोने-कोने में और विदेश में भी फैला हो और जिसे राजनैतिक व क्षेत्रीय अवरोधों और सीमाओं से मुक्त हो। ऐसा तंत्र, जो आतंकवाद से निपटने में विशेष रूप से दक्ष हो और उसकी गतिविधियां सिर्फ इसी लक्ष्य पर केंिद्रत हों।
आतंकवाद के विरुद्ध भारत की समिन्वत रणनीति में पोटा या उससे मजबूत कानून जितना जरूरी है उतनी ही जरूरी है एक संघीय जांच या निवारक एजेंसी। इस समस्या का समाधान सीमित दायरे में रहकर नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सीमित दायरे वाली समस्या नहीं है। भारत की सुरक्षा के लिए यह अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है और ऐसी चुनौतियों का समाधान एकजुट राष्ट्र के रूप में किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार को देर से ही सही, राजनैतिक नुकसान के डर से ही सही, पर एक दमदार कानून की जरूरत का अहसास हो गया है। अब वह `पोटा से भी कड़ा` कानून बनाने के लिए तैयार हो रही है। देर आयद दुरुस्त आयद। सत्ताधारियों और विरोधी दलों को सोचना होगा कि ऐसे मामलों में राजनीति करना आग से खेलने के समान है जिसका अंजाम सिर्फ विनाश ही हो सकता है। कम से कम अब तो सबको मिल-जुलकर देश की सुध लेनी होगी।
असल में यह सिर्फ नेताओं की ही नहीं, हम सबकी साझा लड़ाई है। हमारी लड़ाई एक अदृश्य दुश्मन से है जिसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मरने वाला हिंदू है या मुसलमान या कोई और। उसे सिर्फ मारने से मतलब है। हर बूढ़ा, जवान और बच्चा उसका निशाना है। ऐसा दुश्मन जिसकी पहचान का हमें कोई अंदाजा नहीं और जो पड़ोसी, रिश्तेदार, दोस्त के रूप में भी हो सकता है। ऐसे दुश्मन से मुकाबले की किसी भी रणनीति में हर नागरिक का शामिल होना जरूरी है, शारीरिक रूप से नहीं तो मानसिक रूप से ही। सिपाही के रूप में नहीं तो एक सतर्क, सजग व्यक्ति के रूप में ही सही। नेताओं से लेकर पुलिस तक, न्यायाधीशों से लेकर दुकानदारों तक, बस ड्राइवरों से लेकर यात्रियों तक, अध्यापकों से लेकर बच्चों तक। इस लड़ाई में अब लापरवाही की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। यह लड़ाई किसी एक दल, एक सरकार, एक संगठन या एक व्यक्ति की लड़ाई भी नहीं रह गई है। यह पूरे देश की सामूहिक जंग है जिसमें किसी किस्म के राजनैतिक या मजहबी समीकरणों की गुंजाइश नहीं है।
Tuesday, September 23, 2008
आतंकवाद के खिलाफ कानून अकेला क्या करेगा?
आतंकवाद का मुकाबला सिर्फ कानून से होता तो अमेरिका को देश में अलग होमलैंड सिक्यूरिटी विभाग बनाने की जरूरत नहीं पड़ती। तब न अमेरिका को नेशनल काउंटर टेररिज्म एजेंसी बनाने की जरूरत थी और न ही रूस को नेशनल एंटी-टेररिज्म कमेटी के गठन की। एक कानून ही पर्याप्त होता तो उसकी मौजूदगी में संसद, रघुनाथ मंदिर और अक्षरधाम मंदिर पर हमले नहीं होते।
एक तरफ कांग्रेस है जो आतंकवाद के प्रति साथी दलों के दबाव और चुनावी स्वार्थ के चलते नरम है। तो दूसरी तरफ भाजपा है जिसके लिए आतंकवाद के सफाए की लड़ाई में सिर्फ पोटा ही महत्वपूर्ण है और कुछ नहीं। पिछले चुनाव के बाद से आतंकवाद के विरुद्ध उसका हर बयान सिर्फ पोटा की वापसी पर केंद्रित है। हमें निर्विवाद रूप से पोटा या उससे भी मजबूत आतंकवाद निरोधक कानून की फौरन जरूरत है, लेकिन सिर्फ कानून ही सब कुछ नहीं है। उसे लागू करना और अदालतों से त्वरित फैसलों की व्यवस्था करना भी उतना ही जरूरी है। आतंकवाद का मुकाबला सिर्फ कानून से होता तो अमेरिका को देश में अलग होमलैंड सिक्यूरिटी विभाग बनाने की जरूरत नहीं पड़ती। तब न अमेरिका को नेशनल काउंटर टेररिज्म एजेंसी बनाने की जरूरत थी और न ही रूस को नेशनल एंटी-टेररिज्म कमेटी के गठन की। एक कानून ही पर्याप्त होता तो उसकी मौजूदगी में संसद, रघुनाथ मंदिर और अक्षरधाम मंदिर पर हमले नहीं होते। चाहे पोटा हो या टाडा, कोई भी कानून आतंकवाद को रोकता नहीं बल्कि आतंकवादी घटना घटित होने और दोषियों के पकड़े जाने के बाद अपना काम शुरू करता है। दोषियों को कड़ी सजा दिया जाना आतंकवादी गतिविधियों के विरुद्ध एक स्वाभाविक अवरोधक जरूर है लेकिन सिर्फ कड़ा कानून ही देश का एकमात्र तारनहार नहीं हो सकता। कड़ा कानून तो बने ही, लेकिन उससे आगे भी सोचा जाए यह जरूरी है।
किसी भी अपराध की तरह आतंकवाद की रोकथाम के लिए भी गुप्तचर व्यवस्था की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि एक चुस्त-दुरुस्त, सक्षम और चालाक खुफिया तंत्र का मूलभूत उद्देश्य ही विनाशकारी घटना को होने से रोकना है। कानून की भूमिका तो घटना के होने के बाद आती है। दुर्भाग्य से हमारा खुफिया तंत्र आतंकवादी घटनाओं से मुकाबला करने में अक्षम सिद्ध हुआ है। औरों की तो छोड़िए हम अपनी संसद तक को आतंकवादी हमले से नहीं बचा सके। खुफिया जानकारी पर केंद्रीय गृह मंत्री का एक और बयान काबिले तारीफ है कि हमें इस बात का तो पता था कि दिल्ली में आतंकवादी हमला होगा, मगर यह नहीं पता था कि कब और कहां होगा। गनीमत है उन्होंने यह नहीं कहा कि आतंकवादियों ने हमले के लिए रवाना होने से पहले हमें बताया नहीं वरना हम हमला होने ही नहीं देते। गृह मंत्री की यह टिप्पणी हमारे खुफिया तंत्र की दयनीय स्थिति भी बयान करती है और खुफिया सूचनाओं के प्रति सरकारी रवैए की भी।
फिलहाल आतंकवाद से मुकाबले का काम पुलिस के हवाले है जो सामान्य अपराधों से निपटने में भी नाकाम सिद्ध होती रही है। वह न प्रशिक्षण, न हथियारों और न ही मानसिकता के लिहाज से आतंकवाद से मुकाबले के लिए तैयार और सक्षम है। इतना ही नहीं, वह नई घटनाओं से सीखने, नई तकनीक को जानने के लिए भी तैयार नहीं दिखती। दिल्ली के गफ्फार मार्केट में लगे सीसीटीवी कैमरे उसके बेपरवाह रवैए के गवाह हैं जिन्होंने कभी किसी घटना को रिकॉर्ड नहीं किया। पुलिस का पाला पारंपरिक अपराधियों से पड़ता आया है मगर आतंकवादी उनसे अलग हैं। वे युवा हैं जिन्हें नए जमाने के तौर-तरीकों का अंदाजा है। वे लगातार सीख रहे हैं, अपराध के इनोवेटिव तरीके अपना रहे हैं। जब आतंकवादियों ने साइकिलों पर बम लगाने शुरू कर दिए तो पुलिस ने साइकिलों की बिक्री पर निगरानी बढ़ा दी। लेकिन दिल्ली में उन्होंने कूड़ेदान में बम रखने शुरू कर दिए। अब पुलिस ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की कानपुर यात्रा के दौरान उनके इक्कीस किलोमीटर लंबे मार्ग से कूड़ेदान हटाने के आदेश दे दिए हैं। यही पुलिसिया मेधा की सीमा है। क्या यह जरूरी है कि आतंकवादी हर स्थान पर कूड़ेदान को ही लक्ष्य बनाएंगे? ईमेल भेजने के लिए आतंकवादियों ने पहले साइबर कैफे का प्रयोग किया था। पुलिस ने साइबर कैफे पर अंकुश लगाया तो उन्होंने वायरलैस इंटरनेट का प्रयोग करना शुरू कर दिया। वे पुलिस से एक कदम आगे चलते हैं और ऐसे कदम पुलिस की कल्पना से बाहर हैं। वह सिर्फ पारंपरिक अपराधों से मुकाबले के लिए ठीक है।
Monday, September 22, 2008
आतंकवाद का दावानल और बेचारा सुरक्षा तंत्र
हर दल, हर नेता आतंक के सफाये के लिए ट्रेडमार्क सुझावों, बयानबाजी और आरोपों-प्रत्यारोपों में व्यस्त है। वह लगे हाथ पहले श्रेय और कुछ महीने बाद वोट बटोर लेना चाहता है, बिना यह जाने कि हमारा बुनियादी अपराध-निरोधक तंत्र ऊपर से नीचे तक कितनी अक्षम और दयनीय अवस्था में पहुंच चुका है।
दिल्ली में हुए ताजा हमले और उसके बाद जामिया नगर में दिल्ली पुलिस की दुर्लभ किस्म की चुस्त कार्रवाई के बाद आतंकवाद एक बार फिर राष्ट्रव्यापी बहस के केंद्र में आ गया है। हर दल, हर नेता आतंक के सफाये के लिए ट्रेडमार्क सुझावों, बयानबाजी और आरोपों-प्रत्यारोपों में व्यस्त है। वह लगे हाथ पहले श्रेय और कुछ महीने बाद वोट बटोर लेना चाहता है, बिना यह जाने कि हमारा बुनियादी अपराध-निरोधक तंत्र ऊपर से नीचे तक कितनी अक्षम और दयनीय अवस्था में पहुंच चुका है। नजदीक आते चुनावों के मद्देनजर आतंकवाद तक का अपने-अपने ढंग से लाभ उठाने की कोशिशें हो रही हैं। किसी को हिंदू वोट बैंक की चिंता है तो किसी को मुस्लिम वोट बैंक की। देश की सुरक्षा दोनों की ही वरीयता नहीं है।
हम हिंदुस्तानी आतंकवाद को कड़ा जवाब कैसे देंगे जब देश का गृह मंत्री ही किसी बम विस्फोट के बाद यह कहता हो कि `हम इसके लिए किसी पर दोषारोपण नहीं करना चाहेंगे मगर दोषियों को छोड़ेंगे भी नहीं।` दहशतगर्दों के खिलाफ किस किस्म के समिन्वत हमलों की रणनीति बनाएंगे जब लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ज्यादातर ताजा आतंकवादी वारदातों के लिए जिम्मेदार माने जा रहे सिमी जैसे संगठन पर प्रतिबंध को ही कोस रहे हों। जब उत्तर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सलमान खुर्शीद उस संगठन के हक में अदालत में खड़े हो रहे हों। जब आतंकवाद के प्रति नरम रुख अपनाने के लिए केंद्र सरकार को कोसने वाले भाजपा जैसे दल उससे मुकाबले के लिए संघीय जांच एजेंसी बनाए जाने का विरोध कर रहे हों। जब राज्यों में किए जाने वाले कठोर नियमों को केंद्र ने लटका दिया हो और केंद्र की रणनीतियों में विरोधी दलों ने फच्चर फंसा दिया हो। जब आतंकवादी घटनाओं से जुड़े मुकदमों पर एक दशक बीत जाने के बाद भी फैसले न आते हों। जब दिल्ली में आतंकवादी हमला होने के बाद की रात में भी थानों में पुलिसवाले सोते हुए मिलते हों। जब आतंकवाद के शिकार होने वाले लोगों के परिजनों को लाशें सौंपने के लिए अस्पतालों में रिश्वत मांगी जा रही हो। जब घायलों को पुलिस धक्के मार रही हो और चश्मदीद गवाहों से अपराधियों की तरह सलूक कर रही हो और फिर आतंकवादियों के खतरे का सामना करने के लिए अपने हाल पर छोड़ देती हो। लोग ऐसे स्वार्थी, अमानवीय, क्रूर और बुिद्धहीन कैसे हो सकते हैं?
लेकिन भारतीय राजनीति और प्रशासन की यही वास्तविकता है जिसे हम हर आतंकवादी घटना के बाद देखते और महसूस करते हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के शासनकाल में बनाया गया कठोर आतंकवाद निरोधक कानून पोटा आतंकवाद से निपटने की दिशा में एक जरूरी कदम था। कुछ राज्यों में निस्संदेह उसका राजनैतिक दुरुपयोग भी हुआ और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने सत्ता संभालते ही पोटा को हटाकर पुराना, अपेक्षाकृत कम कठोर आतंकवादी गतिविधियां निवारक कानून (टाडा) लागू करने का फैसला किया। उस समय देश की सर्वोच्च राजनैतिक सत्ता ने आतंकवाद के विरुद्ध हमारे लुंज-पुंज संकल्प को ही अभिव्यक्त किया। पोटा को यदि हटाना ही था तो उसके स्थान पर उससे अधिक कड़ा कानून लाए जाने की जरूरत थी। ऐसा कानून जिसमें उसका दुरुपयोग रोकने की व्यवस्था भी अंतरनिहित हो। लेकिन देश ने आतंकवादियों को एक गलत संकेत भेजा। उस तरह के संकेत भेजना आज तक जारी है। हैदराबाद, फैजाबाद, वाराणसी, सूरत, बंगलुरु, अहमदाबाद, जयपुर और दिल्ली में हुए बम विस्फोटों के बाद भी यदि गृह राज्यमंत्री यह कहते हैं कि देश में करोड़ों नागरिक हैं और सरकार हर एक की सुरक्षा में पुलिस तैनात नहीं कर सकती, तो वह आतंकवादियों को साफ संकेत देता है कि सरकार हालात से निपटने के लिए तैयार नहीं है। धन्य है ऐसे गृह राज्यमंत्री जो यह भूल गए हैं कि देश के हर नागरिक की सुरक्षा ही उनकी एकमात्र जिम्मेदारी है।
Friday, September 12, 2008
चीन के सामने कब तक और क्यों झुकते रहें हम?
आखिर कब तक भारत चीन की चौधराहट को सहता रहेगा और क्यों? विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना से लैस परमाणु शक्ति के साथ कोई देश ऐसा कैसे कर सकता है? उन्नीस सौ बासठ की लड़ाई में भारत का पराजित होना हमारे मानस पर गहराई से अंकित है, लेकिन आज का भारत उन दिनों से बहुत आगे बढ़ चुका है।
चीन ने कई बार दावा किया है कि वह भारत का प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि दोस्त है और दोनों देशों का साथ-साथ प्रगति करना संभव है। यदि मैं गलत नहीं हूं तो हम चीन के बर्ताव में कुछ बदलावों से उत्साहित होकर उस पर कुछ-कुछ यकीन भी करने लगे थे। ऐसा इसलिए कि बदलते हुए विश्व में ताकत की परिभाषा सैनिक कम, आर्थिक ज्यादा है। इसलिए भी कि अमेरिकी प्रभुत्व के सामने संतुलनकारी शक्ति के रूप में जिस तिकड़ी के उभार की बात की जाती रही है, उसमें रूस और चीन के साथ-साथ भारत भी है। इसलिए भी कि भारत-चीन व्यापार में तेजी से इजाफा हुआ है और उनके कारोबारी संबंध सुधर रहे हैं। और इसलिए भी, कि विश्व व्यापार वार्ताओं में दोनों देश साथ-साथ विकासशील देशों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन एनएसजी में अपने आचरण से चीन ने उन सभी लोगों को असलियत से रूबरू करा दिया है जो उसके प्रति संशयवादी दृष्टिकोण छोड़ने की अपील करते रहे हैं। राष्ट्रपति हू जिंताओ द्वारा प्रधानमंत्री डॉण् मनमोहन सिंह को दिए गए आश्वासनों के बावजूद चीन ने वियना में अंतिम क्षणों तक भारत संबंधी प्रस्ताव को रोकने की कोशिश की। जब उसे लगा कि अमेरिकी प्रतिबद्धता और चुस्त भारतीय कूटनीति के चलते वह अपनी कोशिश में सफल नहीं हो सकेगा तो उसने इसे कुछ दिनों के लिए टलवा देने का प्रयास किया। उसे पता था कि यदि एनएसजी में यह प्रस्ताव तुरंत पास न हुआ तो भारत-अमेरिका परमाणु करार अस्तित्व में आने से पहले ही समाप्त हो जाएगा। अमेरिकी संसद में उसे पास करवाने के लिए बहुत कम समय बचा है और उसके बाद वहां सत्ता परिवर्तन होने जा रहा है। लेकिन एनएसजी में चीन अकेला पड़ गया और मजबूरन उसे लाइन पर आना पड़ा।
चीन का खुलेआम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमारे खिलाफ खड़े होना गंभीर चिंता का विषय है। इससे स्पष्ट है कि हालात आज भी ऐसे नहीं हैं कि हम चीन की ओर से निश्चिंत होकर अपने आर्थिक विकास पर पूरी तरह ध्यान केंिद्रत कर सकें। हमारे लिए चीनी चुनौती खत्म नहीं हुई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के बढ़ते दर्जे को चीन अपने हित में नहीं मानता और उसकी लगातार कोशिश रही है कि हम दक्षिण एशिया तक ही सिमटे रहें। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वह भारत को पाकिस्तान के साथ जोड़ने और खुद को एकमात्र एशियाई शक्ति के रूप में पेश करने की कोशिश करता है। एनएसजी की बैठक में अपने रुख और उसके बाद जारी किए गए बयानों में भी उसने `अन्य उभरते हुए देशों` के नाम पर भारत जैसी छूट पाकिस्तान को भी देने की मांग की है। पाकिस्तान के 1998 के परमाणु विस्फोटों को सही ठहराते हुए उसने भारत के परमाणु विस्फोटों को दोषी करार दिया था और उसका यह मत आज तक नहीं बदला है।
उसने पाकिस्तान, नेपाल, म्यानमार जैसे पड़ोसी देशों का इस्तेमाल भारत को क्षेत्रीय स्तर पर ही उलझाए रखने के लिए किया है। उत्तर पूर्व के उग्रवादी संगठनों को भी उसका परोक्ष समर्थन मिल रहा है। उसने अपने ताकतवर पड़ोसी रूस के साथ सीमा विवाद को हल कर लिया है लेकिन स्वाभाविक कारणों से, भारत के मामले में उसे ऐसी कोई जल्दी नहीं है। बल्कि वह भारत की चिंताओं और आशंकाओं को खत्म नहीं होने देना चाहता। सन 2006 में चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ की भारत यात्रा के ठीक पहले चीनी राजदूत ने अरुणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा करार दिया था। उधर चीनी सेना इस साल अब तक सौ बार भारतीय सीमा का उल्लंघन कर चुकी है। उसने तिब्बत में भारतीय सीमा के करीब अच्छी सड़कों का जाल बिछा दिया है और अक्साईचिन में चौकियां स्थापित की हैं। सबसे ज्यादा आपत्तिजनक चीन का वह उद्दंडतापूर्ण रवैया है जो एक राष्ट्र के रूप में भारत की प्रतिष्ठा के खिलाफ है। भारतीय राजदूत निरूपमा राव के साथ किया गया बर्ताव एक परमाणु संपन्न राष्ट्र के मुंह पर करारे तमाचे के समान था। कुछ महीने पहले भारत के सेनाभ्यास के जवाब में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य झान लियू ने बयान दिया था कि भारत का रुख आक्रामक है और उसे चीन के साथ टकराव के पुराने रास्ते पर नहीं चलना चाहिए। अब तिब्बत में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का गहरा जाल फैला हुआ है और अबकी बार सीमा-युद्ध होने पर हमारी सेना 1962 की गलती नहीं दोहराएगी जब उसने अपने कब्जे वाले इलाके लौटा दिए थे।
आखिर कब तक भारत चीन की चौधराहट को सहता रहेगा और क्यों? विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना से लैस परमाणु शक्ति के साथ कोई देश ऐसा कैसे कर सकता है? उन्नीस सौ बासठ की लड़ाई में भारत का पराजित होना हमारे मानस पर गहराई से अंकित है, लेकिन आज का भारत उन दिनों से बहुत आगे बढ़ चुका है। वह उन दिनों की बात थी जब हमारे सैनिकों के पास पुराने जमाने के हथियार थे, दुर्गम पहाड़ी रास्तों में यातायात लगभग असंभव था, हमारी बहादुर सेनाओं के पास गोला-बारूद तक का अभाव था, हमारा शत्रु एक परमाणु शक्ति था और सबसे ऊपर, हमारा राजनैतिक नेतृत्व युद्ध की मन:स्थिति में नहीं था। फिर भी हमारे सैनिक बहुत बहादुरी से लड़े और लड़ते-लड़ते देश के लिए कुर्बान हो गए। वह जज्बा हमारी सबसे बड़ी शक्ति है और हमेशा बना रहेगा। आज हमारी सेना विश्व के सबसे आधुनिक हथियारों से लैस है और प्रशिक्षणों के दौरान हमारे जवानों की काबिलियत ने अमेरिका को भी प्रभावित किया है। हमारी कोई कमजोरी है तो वह है अपने आप में, अपनी शक्तियों में विश्वास न होना। चीन की रणनीतियों, कूटनीतियों तथा मनोवैज्ञानिक युद्ध से मुकाबले के लिए हमें अपनी शक्ति में विश्वास करने, अपने उन्नत भविष्य के प्रति आश्वस्त होने की जरूरत है। पिछले तीन-चार सप्ताह की वैश्विक घटनाओं के बाद शायद हम खुद पर विश्वास करना सीख रहे हैं। चीन ने हमारे इसी आत्मविश्वास की बानगी देखी है।
Thursday, September 11, 2008
चीन को कब समझ आएगा, यह 62 वाला भारत नहीं!
एनएसजी करार के बाद का भारत अपने भविष्य के प्रति अधिक आश्वस्त, अपनी शक्तियों और विशिष्टताओं में विश्वास रखने वाला, विश्व राजनीति में पुराने और नए मित्रों के समर्थन से लैस, लोकतांत्रिक एवं स्वच्छ छवि के गौरव से युक्त, आत्मविश्वास से भरा हुआ भारत है। इसी आत्मविश्वास की बदौलत शायद उसने पहली बार चीन के साथ दो-टूक लफ्जों में बात की है। और इसीलिए शायद चीन पहली बार भारत के आरोपों के जवाब में स्पष्टीकरण देने पर विवश हुआ है।
न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में भारत से संबंधित प्रस्ताव को रुकवाने की कटुतापूर्ण किंतु नाकाम चीनी कोशिशों को लेकर देश में जिस किस्म के सर्वव्यापी क्रोध का भाव है, उसका स्वाद शायद चीनी विदेश मंत्री यांग जीईची को लंबे समय तक याद रहेगा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चीनी विदेश मंत्री को मुलाकात के लिए समय नहीं दिया। प्रधानमंत्री से उनकी भेंट के दौरान दुर्भावनापूर्ण चीनी कूटनीति का मुद्दा स्पष्ट रूप से उठा। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने सार्वजनिक टिप्पणी की कि चीन और पाकिस्तान हमारे पड़ोसी हैं और हम अपने पड़ोसियों का चुनाव नहीं कर सकते। पांच सितंबर को भारतीय विदेश मंत्रालय ने चीनी राजदूत को तलब कर एनएसजी में चीनी रुख पर आपत्ति प्रकट की। और इन सबके जवाब में चीनी विदेश मंत्री, विदेश मंत्रालय और चीन सरकार के नियंत्रण वाले अखबारों व समाचार एजेंसियों ने बार-बार कहा कि वे भारत को एनएसजी से मिली मंजूरी के खिलाफ नहीं हैं। उन्होंने सफाई दी कि चीन सरकार ने तो वियना बैठक से बहुत पहले ही एनएसजी में भारत के समर्थन का फैसला कर लिया था और वहां उसकी भूमिका `रचनात्मक` रही थी।
इस बार की मेहमाननवाजी याद रहेगी!
अंतरराष्ट्रीय राजनीति और राजनय के लिहाज से ये सब घटनाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे एनएसजी की ताजा बैठक के बाद भारत और चीन की वैश्विक हैसियत और उनके पारस्परिक संबंधों में ऐतिहासिक बदलाव का संकेत देती हैं। चाहे चीन और पाकिस्तान परमाणु अप्रसार के सिद्धांतों के साथ अन्याय की दुहाई देते रहें, चाहे प्रकाश करात और सीताराम येचुरी इसे हमारे अमेरिकी पिछलग्गूपन का प्रमाण बताते रहें, चाहे लालकृष्ण आडवाणी और यशवंत सिन्हा कांग्रेस नीत सरकार की इस उपलब्धि को पसंद करें या न करें लेकिन एनएसजी में भारत की अद्भुत सफलता आरोपों और कुंठाओं के प्रहार से कुंद होने वाली चीज नहीं है। एनएसजी की स्थापना का फौरी कारण भारत के परमाणु विस्फोट के मद्देनजर, उसे परमाणु सामग्री प्राप्त करने से रोकना था। आज उसी एनएसजी ने उसी भारत के लिए अपने नियमों को बदल डाला है। वैसा भी पहली बार हुआ था और ऐसा भी पहली बार हुआ है। इस घटनाक्रम का महत्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि 34 साल बाद भारत एक बार फिर परमाणु ईंधन प्राप्त करने का हकदार बन गया है बल्कि इसलिए कि भारत ने विश्व मंच पर अपना वास्तविक स्थान हासिल करने की दिशा में पहला मजबूत कदम उठाया है। एनएसजी की बैठक के बाद का भारत बैठक से पूर्व के भारत से अलग है और इसका पहला अहसास चीन को हुआ है।
एनएसजी करार के बाद का भारत अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त, अपनी शक्तियों और विशिष्टताओं में विश्वास रखने वाला, विश्व राजनीति में पुराने और नए मित्रों के समर्थन से लैस, लोकतांत्रिक एवं स्वच्छ छवि के गौरव से युक्त, आत्मविश्वास से भरा हुआ भारत है। इसी आत्मविश्वास की बदौलत शायद उसने पहली बार चीन के साथ दो-टूक लफ्जों में बात की है। और इसीलिए शायद चीन पहली बार भारत के आरोपों के जवाब में स्पष्टीकरण देने पर विवश हुआ है। वह चीन, जिसकी फौजों को हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करने की आदत सी हो गई है। वह चीन जिसने भारत के विरुद्ध मोहरे के रूप में इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान को सिर्फ हथियार, तकनीक और असीमित समर्थन ही नहीं दिया बल्कि परमाणु बम तक से लैस कर दिया। वह चीन, जिसने ओलंपिक से पहले दिल्ली में तिब्बतियों के विरोध प्रदर्शन से नाराज होकर पेईचिंग स्थित भारतीय राजदूत को रात के दो बजे विदेश मंत्रालय में बुलाकर फटकार लगाई।
हम भारतीय 62 की हार के बाद से ही एक गर्वोन्मत्त और आक्रामक चीन को सहने के आदी हो चले थे। लेकिन अब पहली बार हमने उसके साथ विवश विनम्रता के साथ नहीं बल्कि आत्मविश्वास और साफगोई से बात की है। चीन के प्रति अपनी आशंकाओं को रेखांकित करते हुए एक सर्वेक्षण में 80 फीसदी भारतीय नागरिकों ने भी कहा है कि वे चीन पर कभी विश्वास नहीं कर सकते। चीन की सफाई का अर्थ यह नहीं है कि भारत के बारे में उसके विचारों में कोई त्वरित बदलाव आ गया है। लेकिन पहले, उसे बदलते हुए वैश्विक समीकरणों का अहसास है और दूसरे वह इस पड़ोसी देश में अपने विरुद्ध बन रहे सार्वत्रिक आक्रोश और घृणा की अनदेखी नहीं कर सकता।
Friday, September 5, 2008
फिर से शीत युद्ध की ओर लौट रही है दुनिया?
एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था ने सोवियत या रूसी प्रतिद्वंद्विता को अप्रासंगिक बना दिया और गुटनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं को अर्थहीन। इस व्यवस्था ने संयुक्त राष्ट्र को अमेरिका के सहयोगी संगठन में बदल दिया और राष्ट्रों की बहबूदी एवं बर्बादी को अमेरिका के साथ उनके संबंधों से जोड़ दिया। यह व्यवस्था आज भी मौजूद है। लेकिन कल रहेगी या नहीं, कहना मुश्किल है।
पिछले दो दशकों के दौरान दो बड़ी ताकतों के बीच टकराव जैसी कोई चीज मौजूद नहीं थी। रूस अपनी धराशायी हो चुकी अर्थव्यवस्था और अराजक समाज व्यवस्था को संभालने में जुटा था और चीन खुद को भीमकाय आर्थिक शक्ति बनाने के लक्ष्य की ओर छलांगें मार रहा था। इस दौरान अमेरिका दुनिया को अनुशासित करने वाले एक निरंकुश पुलिसवाले की भूमिका निभाने में लगा था। उसने जिस देश पर चाहा हमला किया, जिस देश में चाहा व्यवस्था बदल दी, जब चाहा संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय कानूनों को अपने मनमाफिक स्वरूप में ढाल लिया और दुनिया मौन देखती रही। इराक में सद्दाम हुसैन की हुकूमत का निर्लज्जतापूर्ण खात्मा करने और श्री हुसैन को फांसी पर चढ़ाए जाने तक के विरोध में कहीं कोई आवाज नहीं निकली, भले ही जिस दलील पर जार्ज बुश ने अमेरिका पर हमला किया (जनसंहार के हथियार जमा करना), वह पूरी तरह निराधार सिद्ध हो गई। उसने अथाह शक्ति जमा कर ली और उसका मनमाना इस्तेमाल किया। ऐसा इस्तेमाल जिसमें वह अपने किसी कृत्य के लिए जवाबदेह नहीं था।
अब रूस ने उसके इस अनियंत्रित प्रभुत्व को लाल झंडा दिखाया है। अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया को अमेरिका के मित्र जार्जिया से अलग कर उन्हें स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में मान्यता दे दी है, और लगे हाथ यह भी साफ कर दिया है कि अपने आसपास के क्षेत्र में उसी की निर्णायक भूमिका है और रहेगी। पहली बार दुनिया के किसी कोने में हुए किसी युद्ध में अमेरिका की निर्णायक या मध्यस्थकारी भूमिका नहीं है। यदि कोई भूमिका है तो सिर्फ मूक दर्शक की। यह अमेरिका के लिए यकीनन बहुत पीड़ादायक है। उसने अपने उपराष्ट्रपति डिक चेनी को जार्जिया समेत रूस के पड़ोसी राष्ट्रों का दौरा करने भेजा है। श्री चेनी ने पूर्व सोवियत गणराज्यों में अमेरिका के गहरे सरोकारों का वास्ता देते हुए स्पष्ट किया है कि रूसी कार्रवाई को उनके देश ने कितनी गंभीरता से लिया है। उन्होंने कहा है कि राष्ट्रपति बुश ने मुझे इस स्पष्ट संदेश के साथ भेजा है कि इस क्षेत्र के देशों की सुरक्षा और स्थायित्व में अमेरिका की गहरी दिलचस्पी है। ये श्री चेनी ही थे जिन्होंने कुछ दिन पहले कहा था कि जार्जिया के विरुद्ध रूसी कार्रवाई अनुत्तरित नहीं जानी चाहिए।
इस मामले में अमेरिका अकेला नहीं है। ब्रिटिश विदेश मंत्री डेविड मिलिबैंड ने जहां रूसी हमले के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय गठबंधन बनाने की बात कही है वहीं जार्जिया के पड़ोसी उक्रेन के राष्ट्रपति विक्तर युश्चेंको ने जार्जियाई राजधानी ित्बलिसी का दौरा कर उस राष्ट्र के साथ एकजुटता का इजहार किया है। दोनों ही राष्ट्र नाटो और यूरोपीय संघ का हिस्सा भी बनना चाहते हैं जो पश्चिमी देशों से रूसी नाराजगी का एक अहम कारण है। रूस का दावा है कि जार्जिया ने उसके पड़ोसी दोनों स्वायत्त क्षेत्रों पर जो सैनिक कार्रवाई की उसमें अमेरिका और उसके साथियों की सीधी भूमिका है। उसने स्पष्ट कर दिया है कि वह अपने क्षेत्र में बढ़ते अमेरिकी प्रभाव को एक हद से ज्यादा स्वीकार करने को तैयार नहीं है। किसी जमाने में अमेरिका अपने आसपास के क्षेत्र में यूरोपीय देशों के दखल का प्रबल विरोध किया करता था। लगभग वही नीति आज मध्य यूरोप और काकेशस क्षेत्र में रूस अपना रहा है।
अमेरिकी मिसाइल सुरक्षा प्रणाली, सर्बिया के विरुद्ध नाटो की सैन्य कार्रवाई, कोसोवो को अमेरिकी मान्यता आदि के कारण रूस खुद को असुरक्षित महसूस करता रहा है। नाटो में मध्य यूरोप के कई देशों को शामिल किये जाने (जिनमें उसका प्रखर विरोध करने वाले बाल्टिक राष्ट्र शामिल हैं) को रूस में खुद को घेरने की अमेरिकी रणनीति का हिस्सा माना जाता है। इसी असुरक्षा में रूस ने हाल में कई मौकों पर अपनी ताकत का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रदर्शन किया है। पिछले साल लगभग इसी समय रूस ने चीन के साथ मिलकर बहुत बड़ा सैन्य अभ्यास किया था जिसने अमेरिका और उसके सहयोगियों को आशंकित किया। उसने सोवियत संघ के जमाने में बमवर्षक विमानों को रूसी सीमा के बाहर तक निगरानी उड़ानों पर भेजने की परिपाटी भी दोबारा शुरू कर दी है। रूस अपनी नौसेना और वायुसेना को भी बड़े पैमाने पर सुसंगठित और हथियारबंद करने में लगा है। हाल में रूसी उप प्रधानमंत्री सर्गेई इवानोव ने कहा था कि हम करीब-करीब उतने ही जहाज बनाने में लगे हुए हैं जितने कि सोवियत संघ के जमाने में बनाया करते थे। इधर प्रधानमंत्री व्लादीमीर पुतिन ने यह कहकर अपने देश का आक्रामक रुख स्पष्ट किया है कि रूस काला सागर में अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के जहाजों के जमाव का जवाब देगा। यह जवाब शांत होगा लेकिन होगा जरूर।
हालांकि जार्जिया के घटनाक्रम को सीधे-सीधे अमेरिका और रूस में लंबे टकराव की शुरूआत मानना जल्दबाजी होगी लेकिन इतना तय है कि दोनों विशाल देशों के संबंधों में बदलाव की शुरूआत हो गई है। अमेरिका ने जहां जार्जिया को `पीड़ित और कमजोर पक्ष` करार देते हुए विश्व समुदाय से उसकी हिमायत करने का आग्रह किया है लेकिन अनेक विकासशील देशों ने उसकी इस बात की अनदेखी की है। हालांकि फिलहाल अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया को रूस के अलावा किसी अन्य देश ने मान्यता नहीं दी है लेकिन कई देशों ने दबी-दबी जबान में कहा है कि इस मामले में वे रूस के साथ हैं क्योंकि असली मुद्दा जार्जिया और रूस के टकराव का नहीं बल्कि पश्चिमी देशों की निरंकुशता का है। रूस आगे भी पश्चिम के साथ संबंध बनाए रखेगा और मौके-बेमौके अपना प्रभाव दिखाने से भी नहीं चूकेगा। भले ही इसे एक स्पष्ट शीत युद्ध की शुरूआत न माना जाए, किंतु अमेरिकी दबदबे के बोझ में दबी विश्व व्यवस्था में किसी किस्म के संतुलन की उम्मीद तो लगाई ही जा सकती है।
Thursday, September 4, 2008
अमेरिकी वर्चस्व के अंत की शुरूआत हो रही है?
इधर हम भारतीय जम्मू-कश्मीर के विरोध प्रदर्शनों पर ध्यान लगाए हुए थे और उधर काकेशस क्षेत्र में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हो रही थीं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति के ज्ञानी लोग मौजूदा एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा मान रहे हैं। अमेरिकी वर्चस्व को रूस ने दो दशकों में पहली बार एक गंभीर चुनौती दी है।
इधर हम भारतीय जम्मू-कश्मीर के विरोध प्रदर्शनों पर ध्यान लगाए हुए थे और उधर काकेशस क्षेत्र में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हो रही थीं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति के ज्ञानी लोग मौजूदा एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा मान रहे हैं। अमेरिका और उसके मित्र देशों के आग्रहों, मांगों और चेतावनियों के बावजूद रूस ने पड़ोसी जार्जिया के दो बागी स्वायत्त क्षेत्रों अबखाजिया और उत्तरी ओसेतिया में फैसलाकुन सैनिक दखल करके न सिर्फ वहां से जार्जियाई फौजों को खदेड़ दिया है बल्कि उन पर इतना गंभीर प्रहार किया है कि जार्जिया की सैन्य शक्ति आने वाले कई वर्षों के लिए पंगु हो चुकी है। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश की अपील को नकारते हुए रूस ने इन दोनों बागी गणराज्यों को संप्रभु राष्ट्रों के रूप में मान्यता भी दे दी है। पिछले डेढ़ दशक में रूस ने पहली बार विश्व व्यवस्था के एकमात्र नियामक और नियंता अमेरिका को इतनी स्पष्ट और गंभीर चुनौती दी है। यह दुनिया के राजनैतिक घटनाक्रम पर अमेरिकी पकड़ के कमजोर होने का लक्षण तो है ही, उस शीतयुद्ध की वापसी का पहला स्पष्ट संकेत भी हो सकता है जो सोवियत संघ के पतन और विघटन के बाद मोक्ष को प्राप्त हुआ मान लिया गया था।
1991 में बुश सीनियर के राष्ट्रपति-काल में निर्विघ्न अमेरिकी वर्चस्व सुनिश्चित करने वाली नई विश्व व्यवस्था की नींव रखी गई थी। इस व्यवस्था ने सोवियत या रूसी प्रतिद्वंद्विता को अप्रासंगिक बना दिया और गुटनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं को अर्थहीन। इस व्यवस्था ने संयुक्त राष्ट्र को अमेरिका के सहयोगी संगठन में बदल दिया और राष्ट्रों की बहबूदी एवं बर्बादी को अमेरिका के साथ उनके संबंधों से जोड़ दिया। यह व्यवस्था आज भी मौजूद है। लेकिन कल रहेगी या नहीं, कहना मुश्किल है।
नहीं, अमेरिका को चीन और भारत (चिन्डिया) जैसी उभरती हुई आर्थिक शक्तियों से कोई तात्कालिक खतरा नहीं है क्योंकि अमेरिका ने उन्हें अपनी जरूरतों के अनुसार साध लिया है। यूरोपीय संघ की एकजुटता और आर्थिक आत्मनिर्भरता भी उसके लिए कोई गंभीर त्वरित चुनौती नहीं है। इतना ही नहीं, कभी तेल संकट के जरिए तो कभी अपनी सरजमीं से संचालित आतंकवाद की बदौलत अमेरिका की चिंता का सबब बने मुस्लिम राष्ट्र भी उसके लिए किसी चिरस्थायी समस्या के प्रतीक नहीं हैं। ये सभी आर्थिक, राजनैतिक या सैन्य संदर्भों में अमेरिका पर किसी न किसी रूप से निर्भर बने हुए हैं। अमेरिकी वर्चस्व को अगर चुनौती मिलने जा रही है तो एक बार फिर रूस से ही, जो सोवियत संघ के विघटन के बाद की दीन-हीन अवस्था से उबरकर क्षेत्रीय शक्ति से विश्व महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। खास बात यह है कि इस बार का रूस सोवियत संघ की भांति साम्यवादी नहीं है। वह साम्यवाद के जमाने की समस्याओं से मुक्त, एक मजबूत अर्थव्यवस्था तथा अपने किस्म की एक अनोखी किंतु लोकतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था से लैस है।
अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया में फौजी कार्रवाई के बाद रूसी संसद ने एक प्रस्ताव पास कर अपने देश के नेतृत्व से अपील की थी कि वे 1990 के दशक में खुद को स्वतंत्र घोषित कर देने वाले जार्जिया के इन दोनों स्वायत्त क्षेत्रों को संप्रभु राष्ट्रों के रूप में मान्यता दे दें। सोवियत संघ के विघटन के बाद से जार्जिया अमेरिका और यूरोपीय देशों का मित्र बन चुका है और रूस के साथ उसके संबंध कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। रूसियों का आरोप है कि अमेरिकी और यूरोपीय देशों की शह पर ही जार्जिया ने पिछले दिनों इन दोनों क्षेत्रों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई शुरू की थी। जब रूसी संसद ने अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया को मान्यता दिए जाने की बात कही तो पिछली 25 अगस्त को अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने रूसी नेतृत्व से इसे नकारने की मांग की। इसके 24 घंटे के भीतर ही रूसी राष्ट्रपति मेदवेदेव ने दोनों क्षेत्रों को मान्यता देने की घोषणा कर दी। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लब्धप्रतिष्ठ विश्लेषक सायमस मिलने ने `द गाजिर्यन` में लिखा है कि इस तरह रूस ने अमेरिका को साफ संकेत दे दिया कि दक्षिणी ओसेतिया पर सात अगस्त को शुरू किए गए जार्जियाई हमले से जो जंग शुरू हुई थी उसका अंतिम परिणाम तय हो चुका है। इसे लेकर किसी किस्म के मोलभाव की गुंजाइश नहीं है और अमेरिकी साम्राज्य के नियंता भले ही कुछ भी चाहें या कहें, अबखाजिया तथा दक्षिणी ओसेतिया के जमीनी हालात में अब कोई बदलाव नहीं हो सकता।