Tuesday, October 14, 2008

गाढ़े वक्त काम आई हमारी परंपरागत कंजूसी

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

विशिष्ट हिंदुस्तानी मानसिकता के अनुसार, हमारे बैंक अधिकारी किसी को आसानी से कर्ज नहीं देते। वे ऋण के मामलों की उसी तरह जांच-पड़ताल करते हैं जैसे कि पैसा खुद उनकी जेब से जा रहा है। उसके बाद भी मकान की सिर्फ आधिकारिक कीमत का 80-85 फीसदी तक हिस्सा कर्ज के रूप में दिया जाता है। ऐसे कर्ज के डूबने के आसार बहुत कम हैं क्योंकि प्राय: मकान की बाजार कीमत की तुलना में कर्ज की राशि आधी भी नहीं होती।

पूंजी बाजार ही नहीं, निर्यातकों और सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों में भी मौजूदा वैश्विक हालात को लेकर स्वाभाविक चिंता व्याप्त है। वैसे तो रुपए की कमजोरी का निर्यातकों को लाभ होना चाहिए लेकिन महंगाई ने उस लाभ को निष्प्रभावी कर दिया है। भारत परिधानों का बड़ा निर्यातक है लेकिन रुई, धागों, सूत और अन्य कच्चे माल की कीमतों में पिछले एक साल में तीस फीसदी तक वृिद्ध होने के कारण रुपए की कमजोरी के बावजूद निर्यातक निराश हैं। वित्तीय संकट के कारण निर्यात के ऑर्डर तो घट ही रहे हैं। सूचना प्रौद्योगिकी की भी यही स्थिति है। इन्फोसिस, टीसीएस, विप्रो, पोलारिस और अन्य बड़ी आईटी कंपनियों का ज्यादातर कारोबार अमेरिका और यूरोप में होता है लेकिन मौजूदा दौर में उन्हें नए विदेशी ऑर्डर पाने में दिक्कत हो सकती है। हां, इस घटनाक्रम का एक सकारात्मक पहलू यह है कि खर्च घटाने का का दबाव विदेशी कंपनियों को आउटसोर्सिंग की ओर प्रेरित करेगा और इसके परिणामस्वरूप भारत का बीपीओ सेक्टर मौजूदा वैश्विक मंदी से लाभािन्वत भी हो सकता है।

इन सबके बावजूद, भारतीय अर्थव्यवस्था के सूक्ष्मतम घटक के रूप में काम कर रहे आम हिंदुस्तानी को बहुत चिंतित होने की जरूरत नहीं दिखती। जरा भारत की स्थिति की तुलना अमेरिका से कीजिए जहां वित्तीय संकट में ग्रस्त वित्तीय संस्थानों को उबारने के लिए तीन सौ अरब डालर के इंजेक्शन की जरूरत पड़ रही है। फिर ब्रिटेन को देखिए जहां बेलआउट की राशि 500 अरब पाउंड के करीब है। अपने पड़ोस में पाकिस्तान को ही लीजिए, जहां विदेशी मुद्रा भंडार घटकर महज तीन अरब डालर (भारत 292 अरब डालर) रह गया है और रुपए की कीमत अपने निम्नतम स्तर (एक डालर बराबर अस्सी पाकिस्तानी रुपए) पर है। क्या हमारे यहां की स्थिति इनमें से किसी के भी जैसी है? हमारे यहां सिर्फ शेयर बाजार कैजुअल्टी वार्ड में पड़ा हुआ है लेकिन विकसित देशों में तो अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण घटक लाइफ-सपोर्ट सिस्टम पर रखे हुए हैं! हमारी आर्थिक विकास दर भले ही नौ फीसदी से कम होकर 7.9 फीसदी पर आ गई हो मगर अब भी वह दुनिया की सर्वाधिक विकास दरों में से एक है। जैसे जैसे विदेशी वित्तीय संस्थानों की सेहत सुधरेगी, हमारे शेयर बाजार की दशा में भी सुधार आएगा।

ैवैिश्वक वित्तीय संकट ने भारत को उतनी गंभीरता से आहत नहीं किया तो इसकी वजह हमारी मजबूत आर्थिक बुनियाद के साथ-साथ वित्तीय सुधारों पर हमारा संकोची रवैया भी है। वित्तीय और बैंकिंग सुधारों की धीमी गति के लिए भले ही हमें दुनिया भर में कोसा जाता हो लेकिन वही धीमी गति इस संकट के समय हमारी ढाल साबित हुई है। हम अपनी अर्थव्यवस्था को खोल तो रहे हैं मगर धीरे-धीरे, हिंदुस्तानी परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते हुए। इसीलिए जिस तूफान ने अमेरिका और यूरोप को अपनी चपेट में लिया वह हमारे यहां सिर्फ एक बड़े झौंके के रूप में आया, सुनामी की शक्ल में नहीं।

जिस सब-प्राइम या आवासीय ऋण संकट ने पश्चिमी देशों के बैंकों को दीवालिएपन के कगार पर ला खड़ा किया, उससे हमारे बैंक अब तक करीब-करीब सुरक्षित हैं। एक बार फिर हमारे अनुदार रवैए के कारण। विशिष्ट हिंदुस्तानी मानसिकता के अनुसार, हमारे बैंक अधिकारी किसी को आसानी से कर्ज नहीं देते। वे ऋण के मामलों की उसी तरह जांच-पड़ताल करते हैं जैसे कि पैसा खुद उनकी जेब से जा रहा है। उसके बाद भी मकान की सिर्फ आधिकारिक कीमत का 80-85 फीसदी तक हिस्सा कर्ज के रूप में दिया जाता है। ऐसे कर्ज के डूबने के आसार बहुत कम हैं क्योंकि प्राय: मकान की बाजार कीमत की तुलना में कर्ज की राशि आधी भी नहीं होती। आवासीय बाजार में भारी गिरावट आने पर भी बैंक मकान पर कब्जा कर उतनी राशि आसानी से वसूल कर सकता है। रुपए को अब तक पूर्ण परिवर्तनीय न बनाया जाना और उसमें मुक्त कारोबार शुरू न किया जाना भी बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ। अब भले ही दुनिया हमें बैंकिंग, वित्तीय, मौिद्रक और बीमा क्षेत्र के अटके पड़े सुधारों के लिए कोसती रहे, मगर वैिश्वक वित्तीय संकट ने हमें सिखा दिया है कि सुधारों के मामले में फूंक-फूंक कर आगे बढ़ना ही श्रेयष्कर है।

1 comment:

Anonymous said...

आज और आनें वाले दिन शायद आपकी खुश्फ़हमी खत्म कर सकते हैं। फ़िजूल खर्ची की आदत भारतीयों में पहले नहीं थी किन्तु पिछले १० वर्षों मे मोबाइल,बाइक और बिस्लरी नें निपट देहात के मानुष को भी नहीं बख्शा है। लेकिन शायद इतनीं फिज़ूलखर्ची निभ जाती अगर्चे पर्दे के पीछे अपनें वितमंत्री और उनके कुलदीपक जनता की मेहनत की कमाई को कुतर नहीं रहे होते। इसी वर्ष ३१-७-२००८ से स्विस बैंक के एकाउन्ट सीक्रेट नहीं रहे। हिन्दुस्तान के चोर नेंताओं,भ्रष्ट अधिकारियों और उद्यमियों तथा व्यापारियॊ का जमा धन कहाँ गया? सुना तो यह जा रहा है कि कुलदीपक सिंगापुर बैठ कर २ लाख करोड़ का वारा न्यारा सटोरियों के सिंण्डीकेट के साथ कर रहे थे? फ़र्जी बैलेन्स सीट्स अतिरंजित नेटवर्थ दिखा कर १०० रुपये के शेयर को ५००-८००रु० के प्रीमियम पर उच्चकी कम्पनियाँ जब यह छ्ल प्रपंच रच रहीं थी तब सेबी,रिजर्व बैंक,और वित्तमंत्री क्या कर रहे थे? शेयर,म्युचुअल फ्ण्ड और युनिट लिंक इन्शयोरेन्श में जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा आखिर कहाँ गया? हिन्दुस्तान की आर्थिक मन्दी का कारण वैश्विक कम भ्रष्टाचार अधिक है।

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com