Saturday, August 22, 2009

जसवंत तो गए मगर असली मुद्दे क्या हुए?

जसवंत सिंह दुर्भाग्यशाली रहे कि उनकी पुस्तक ऐसे समय पर बाजार में आई जब भाजपा अपनी पहचान और विचारधारा के संकटों के साथ.साथ आंतरिक अनुशासन बनाए रखने की चुनौती से भी जूझ रही थी। अगर यह पुस्तक एक महीने पहले या एक महीने बाद आई होती तो शायद हालात कुछ और होते।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

वरिष्ठ राजनेता जसवंत सिंह की पुस्तक 'जिन्ना: भारत.विभाजन.आजादी' भारतीय राजनीति में हलचल लाएगी इसका अनुमान कुछ महीनों से आते रहे उनके बयानों से लग जाता था। लेकिन अपने प्रकाशन के एक हफ्ते के भीतर वह एक राजनैतिक भूचाल को जन्म देगी जिसमें खुद श्री सिंह का तीस साल पुराना राजनैतिक जीवन दांव पर लग जाएगा, इसका अनुमान न उन्हें रहा होगा और न उनके विरुद्ध फैसला करने वाले नेताओं को। जसवंत सिंह दुर्भाग्यशाली रहे कि उनकी पुस्तक ऐसे समय पर बाजार में आई जब भाजपा अपनी पहचान और विचारधारा के संकटों के साथ.साथ आंतरिक अनुशासन बनाए रखने की चुनौती से भी जूझ रही थी। अगर यह पुस्तक एक महीने पहले या एक महीने बाद आई होती तो शायद हालात कुछ और होते।

जसवंत सिंह ने इस पुस्तक की योजना बनाते समय एक अति.महत्वाकांक्षी कदम उठाया था। एक भाजपा नेता के लिए इसे दुस्साहसी कदम भी कहा जा सकता था क्योंकि उनकी पुस्तक की मूल अवधारणा जिन्ना का मूल रूप से सेक्युलर होना और भारत के विभाजन के लिए दोषी न होना न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की मूलभूत विचारधारा से मेल नहीं खाती थी बल्कि हम भारतीयों की मान्यताओं और धारणाओं से भी पूरी तरह अलग है। खुद पाकिस्तानियों को भी शायद जिन्ना को सेक्युलर कहे जाने पर आपित्त होगी। जिन्ना के हक में टिप्पणी करने पर भारतीय जनता पार्टी ने समसामियक राजनीति में अपने सवरधिक महत्वपूण्र नेता लालकृष्ण आडवाणी को भी नहीं बख्शा था। इसे देखते हुए श्री सिंह को इस विषय की संवेदनशीलता का अनुमान न हो, ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी उन्होंने यह पुस्तक लिखी तो संभवत: इस आश्वस्ति के साथ कि उन्हें अपने निजी विचारों को प्रकट करने का अधिकार है और पार्टी उन्हें इसकी स्वतंत्रता देगी।

लेकिन वास्तविकता कल्पनाओं की तुलना में अप्रिय होती है। भारतीय राजनीति में अलग.थलग पड़े जसवंत सिंह आज इसे महसूस कर रहे हैं। वे न भाजपा के रहे, न किसी और के हो सकते हैं। भाजपा ने उनकी पुस्तक को सरदार पटेल और जिन्ना के मुद्दों पर अपनी मूलभूत विचारधारा के विरुद्ध बताते हुए तीन दशकों की उनकी सेवाओं को एक झटके में अनदेखा कर दिया। एक लेखक के तौर पर शायद जसवंत सिंह के लिए यह अप्रत्याशित और दुखद हो लेकिन एक राजनेता के रूप में उन्हें इन बातों का अहसास पहले ही हो जाना चाहिए था। अपनी लेखकीय आजादी का इस्तेमाल करते समय संभवत: वे भारतीय राजनीति की सीमाओं को भूल गए थे।

पार्टी का संदेश

पिछले लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद से ही भाजपा स्वयं को अनुशासनहीनता और वैचारिक विचलन की धाराओं से त्रस्त पा रही थी। खुद जसवंत सिंह की टिप्पणी थी कि पार्टी के छोटे.छोटे नेता भी अपनी.अपनी विचारधारात्मक फुटबाल खेलने में लगे थे। राज्यों में कई क्षत्रप इतने मजबूत हो चुके थे कि केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी उनकी जड़ों को हिला पाना मुश्किल हो गया था। पार्टी में सर्वोच्च स्तर पर भी विचारधारात्मक भ्रम की स्थिति आ चुकी थी और कई केंद्रीय नेता भी गाहे.बगाहे परोक्ष या खुली बगावत से नेतृत्व को संकट में डालते रहे थे। अच्छी छवि वाले कुछ नेताओं ने लोकसभा चुनाव में पार्टी की पराजय को लेकर जिम्मेदारी तय करने की मांग कर बड़े नेताओं को उलझन में डाला हुआ था। मीडिया में आने वाली पुष्ट.अपुष्ट खबरों से भी पार्टी की छवि को नुकसान हो रहा था। ऐसे में पार्टी एक बड़ा कदम उठाकर निम्नतम से लेकर सर्वोच्च स्तर तक एक संदेश भेजना चाहती थी। जसवंत सिंह के पार्टी से निष्कासन के बाद जिस तरह पार्टी कैडर और असंतुष्ट नेताओं के बीच सन्नाटा पसर गया है उससे जाहिर है कि पार्टी नेतृत्व कुछ हद तक अपनी इस रणनीति में सफल रहा।

बहरहाल, जसवंत सिंह ने अपने निष्कासन के बाद ऐसे कई मुद्दे उठाए हैं जिन पर भाजपा नेतृत्व खुद को असहज महसूस कर रहा है। सरदार पटेल के मुद्दे पर पार्टी के आधिकारिक बयान का उन्होंने यह कहते हुए मजबूत प्रतिवाद किया कि सरदार पटेल भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा के केंद्र में कैसे हो सकते हैं जबकि वे ही भारत के पहले गृह मंत्री थे जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया। लालकृष्ण आडवाणी ने इसका जवाब देते हुए पंडित नेहरू पर दोष डाला है कि सरदार ने उनके प्रभाव में आकर यह प्रतिबंध लगाया था लेकिन सरदार को बेहतर ढंग से पढ़ते.लिखते और जानते रहे इतिहासकारों का बयान आया है कि वे इतने कमजोर नहीं थे कि बिना खुद सहमत हुए, नेहरूजी के दबाव में आकर इतना बड़ा फैसला उठा लेते। भाजपा को सोचना होगा कि क्या उसे सरदार पटेल और जिन्ना के संदभ्र में अपनी सोच और बयानों पर पुनर्विचार की जरूरत है।

राजनैतिक विवशता

हालांकि जसवंत सिंह ने बार.बार कहा है कि उनकी पुस्तक में दिए विचार उनके अपने हैं और पार्टी की आधिकारिक विचारधारा से उनका कोई संबंध नहीं है। लेकिन भाजपा उनकी पुस्तक से स्वयं को अलग करते हुए भी इसे दूसरे रूप में देखती है। श्री सिंह एक वरिष्ठ राजनेता हैं और वे भाजपा नेतृत्व के फैसलों तथा नीतियों से सीधे जुड़े रहे हैं। उनके विचारों को भले ही राजनेताओं और मीडिया के स्तर पर पार्टी से अलग करके देखा जाए लेकिन आम आदमी के स्तर पर वे पार्टी की आवाज का प्रतिनिधित्व ही करते हैं। जो भाजपा पाकिस्तान, जिन्ना तथा नेहरू के विरोध और हिंदुओं के समर्थन की धुरी पर टिकी हुई है वह अपने किसी वरिष्ठ नेता द्वारा अपनी ही विचारधारा के खंडन का जोखिम मोल नहीं ले सकती। उसे पता है कि यह किताब उसे मुस्लिमों के करीब नहीं ले जा सकती और पाकिस्तान के हक में दिखना भारतीय राजनीति में आत्महत्या करने के समान है।

इस मामले का एक अन्य पहलू भी है। पिछले लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद पार्टी नेतृत्व में बदलाव की सुगबुगाहट शुरू होकर अब धीरे.धीरे शांत हो चुकी है। कुछ नेता बीच.बीच में यह मुद्दा उठाने का नाकाम प्रयास करते रहे हैं लेकिन पार्टी नेतृत्व संगठन पर अपनी पकड़ ढीली करने के मूड में नहीं दिखता। चिंतन बैठक से ठीक पहले संघ ने पार्टी को अपनी चुनावी हार की जिम्मेदारी तय करने और नए चेहरों को आगे लाने के लिए दबाव बनाया था। लेकिन जसवंत सिंह के निष्कासन का बड़ा फैसला करके बाकी सभी मुद्दों को एक बार फिर पृष्ठभूमि में भेज दिया गया है। बहस का मुद्दा जिम्मेदारी तय करना या नेतृत्व परिवर्तन नहीं रहा। फिलहाल तो वह जिन्ना और जसवंत पर केंद्रित हो चुका है।

Friday, August 14, 2009

वह हमारी ताकत है जिसे चीन कमजोरी समझता है

चीनी सामरिक विशेषज्ञ आज की बदली हुई भू.राजनैतिक परिस्थितियों से अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं जब उनका 'शत्रु' 1950 के दशक के जंग लगे टैंकों और विमानों के युग से बहुत आगे आ चुका है। वह एक परमाणु शक्ति है और महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति भी।

-बालेन्दु शर्मा दाधीच

चीन से लौटकर आने वाले मित्रों से यह सुनना सुखद लगता था कि आम चीनी नागरिक के मन में भारत के प्रति शत्रुता नहीं बल्कि सम्मान का भाव है। शत्रुता या प्रतिद्वंद्विता यदि है तो चीन सरकार, वहां की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के स्तर पर। लेकिन यदा.कदा चीनी सुरक्षा विशेषज्ञों, राजनेताओं और मीडिया की ओर से भारत के बारे में की जाने वाली आक्रामक और बहुधा अपमानजनक टिप्पणियां पढ़कर तथाकथित चीनी.सदाशयता की खुशफहमी काफूर हो जाती है। आम भारतीय चीन को अपनी सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हुए भी, अब तक के आहत करने वाले अनुभवों के बावजूद, उसके साथ मित्रता का हिमायती है। लेकिन उसके सामने यक्ष.प्रश्न यह है कि क्या चीनी राज्यतंत्र, और उससे भी अहम वहां का आम नागरिक भी ऐसा ही सोचता है?

एक चीनी थिंक.टैंक की वेबसाइट पर डाला गया यह सामरिक विश्लेषण कि भारत को 20 से 30 टुकड़ों में विभाजित कर दिया जाना चाहिए, इस बारे में कोई सुखद या आश्वस्तिकारक अनुभूति प्रदान नहीं करता। झान ली नामक एक विश्लेषक ने लिखा है कि भारत पारंपरिक रूप से एक राष्ट्र नहीं है बल्कि बहुत सारी स्वतंत्र राष्ट्रीयताओं का अनमेल मिश्रण है जिसे 'जरा सी कोशिश करके' खंड.खंड किया जा सकता है। वे चीन सरकार से आग्रह करते हैं कि असम, तमिलनाडु, कश्मीर, नगालैंड आदि राज्यों में मौजूद राष्ट्रवादी और अलगाववादी शक्तियों को समर्थन देकर और भारत के पड़ोसी राष्ट्रों (जिन्हें वे चीन के मित्र करार देते हैं) की थोड़ी सी मदद से उन्हें यह 'शुभ कायर्' कर डालना चाहिए। आखिरकार क्यों अपने पड़ोस में दुनिया के सबसे सफल लोकतंत्र और चीन के लिए उभरते हुए आर्िथक, सैन्य, राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी को लंबे समय तक बर्दाश्त किया जाए!

भारतीय लोकतंत्र की सफलता चीनियों के लिए कुंठा का विषय रही है। झान ली जैसे लोगों की टिप्पणियों से जाहिर है कि यह कुंठा या चिढ़ निरंतर बढ़ रही है। शायद ओलंपिक खेलों के समय तिब्बत में हुए विद्रोह और अब झिनझियांग में उइगुर समुदाय के अलगाववादी आंदोलन की वजह से चीन असुरक्षा बोध का शिकार हो रहा है या फिर शायद भारत के एक समानांतर शक्ति के रूप में उभरने की संभावना को पचाना उसके लिए असंभव हो रहा है।

यह 62 वाला भारत नहीं

चीनी 'विशेषज्ञ' के बयान पर चिंता इसलिए होती है कि वह वहां के राजनैतिक तंत्र के मन में भारत के लिए मौजूद रंजिश की भावना को अनावृत्त करता है। लेकिन उस पर हंसी इसलिए आती है कि बहुत से चीनी विशेषज्ञ और टिप्पणीकार संभवत: आज भी 1962 की मानसिकता में जी रहे हैं। वे बदली हुई भू.राजनैतिक परिस्थितियों से अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं जब उनका 'शत्रु' 1950 के दशक के जंग लगे टैंकों और विमानों के युग से बहुत आगे आ चुका है। वह एक राजनैतिक, कूटनीतिक, आर्िथक और परमाणविक महाशक्ति है। ऐसे किसी राष्ट्र को विभाजित या नष्ट करने का प्रयास करने वाला राष्ट्र, भले ही वह अपनी शक्ति को लेकर कितने भी अति.आत्मविश्वास से ग्रस्त क्यों न हो, स्वयं भी विनाशकारी परिणामों का सामना किए बिना नहीं रह सकता।

चीनी राजनैतिक विश्लेषकों के लिए भारतीय लोकतंत्र की शक्तियों, विशेषताओं और सफलता को समझना मुश्किल लगता है। निरंकुश, जवाबदेही से रहित और दमनकारी राजनैतिक व्यवस्था में जीने वालों के लिए उदार भारतीय लोकतंत्र की बहुलवादी, समावेशी प्रकृति, देश का भविष्य तक करने की प्रक्रिया में हर नागरिक की भागीदारी की व्यवस्था एक पहेली है। भारतीय संघ के विभिन्न भागों में मौजूद जिस अनेकता का चीनी विश्लेषक लाभ उठाने की दलील दे रहे हैं वही तो 'विभिन्नता में एकता' पर आधारित इस अद्वितीय लोकतंत्र को जोड़ने वाली कड़ी है। तमिलनाडु, पंजाब, मिजोरम और अन्य क्षेत्रों में बाह्य प्रोत्साहन तथा आंतरिक समस्याओं के कारण समय.समय पर अलगाववादी शक्तियां उभरी हैं। ऐसा विश्व के अधिकांश देशों में होता रहा है। लेकिन ये ताकतें भारत के अस्तित्व के लिए खतरा नहीं बन सकीं तो सिर्फ इसलिए कि लोकतंत्र हमारे स्वभाव में है। हिंदुत्व के उदारतावादी दर्शन के साथ उसका बहुत स्वाभाविक मेल होता है। भारत भले ही राष्ट्र.राज्य की एकतरफा चीनी अवधारणा पर फिट न बैठता हो लेकिन अनंत काल से एक समेकित सभ्यता के रूप में उसका अस्तित्व रहा है। मुस्लिम एवं अंग्रेज शासकों के आने के बाद यही हमारी राजनैतिक एकता में घनीभूत हुई, जो अब एक शाश्वत सत्य के रूप में स्वीकार हो चुकी है। भारत का हर नागरिक इस एकता को ही स्वाभाविक सत्य समझता है और इसमें उसकी अटूट आस्था है जिसे खंडित करने के ख्याली पुलाव पकाए तो बहुतों ने, खा कोई भी न सका।

भारत ने अलगाववादी ताकतों को चीन की भांति सैन्य शक्ति के निर्मम प्रयोग और निरंकुश दमन से नहीं बल्कि लोकतंत्र की शक्ति से जीता है। वही असम, कश्मीर और नगालैंड में भी होगा। वैसे भी भारत को तीस हिस्सों में बांटने वाले चीनी विशेषज्ञ सिर्फ चार.पांच राज्यों में ही समस्याएं खोज पाए। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का यह पांच प्रतिशत भी नहीं है। दूसरी ओर स्वयं चीन का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा अलगाववादी आंदोलनों की चपेट में है। तमाम अत्याचारों के बावजूद चीन झिनझियांग, तिब्बत, आंतरिक मंगोलिया और हेलोंगजांग में बगावत को शांत करने में नाकाम रहा है। क्या भारत या रूस जैसे चीन के पड़ोसी देश उन्हीं दलीलों का प्रयोग चीन के विरुद्ध नहीं कर सकते जिन्हें झान ली ने भारत के विरुद्ध पेश किया है?

एक निराशाजनक सिलसिला

एक चीनी विशेषज्ञ (जिसके बारे में अब दावा किया गया है कि वह चीन सरकार, कम्युनिस्ट पार्टी या सरकारी संस्थानों से जुड़ा हुआ नहीं है) की टिप्पणियों को लेकर हलचल इसलिए मची है कि इस तरह की टिप्पणिया मौजूदा वैश्विक वास्तविकताओं के अनुकूल नहीं है। वे एशिया की बदली हुई स्थितियों के अनुकूल भी नहीं हैं। यह विस्तारवाद का युग नहीं है। किसी राष्ट्र को समाप्त करने की बात सोचना, भले ही वह कितना भी छोटा राष्ट्र क्यों न हो (कुवैत में इराक ने जो किया उसका हश्र हम जानते हैं), आत्म.विनाशकारी दुस्साहस से अधिक कुछ नहीं है। चीनियों को अपनी सोच में व्यावहारिक होने की भी जरूरत है। जब चीन इतने दशकों में जरा से ताइवान का कुछ नहीं बिगाड़ सका तो वह भारत का भला क्या बिगाड़ सकता है जो धीरे.धीरे वैश्विक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है? लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और सेना में ऐसे अनेक लोग हैं जो आज भी पांच दशक पुरानी आक्रामक मानसिकता के शिकार हैं। यह आक्रामकता अपने अधिक शक्तिशाली पड़ोसी राष्ट्र रूस के सामने तो काफूर हो जाती है लेकिन जब जापान, भारत, ताइवान आदि का प्रसंग आता है तो इसे मुखर होने में देर नहीं लगती।

चिंता की बात यह है कि झान ली का लेख अपने आप में अकेला नहीं है। कुछ समय पहले 'पीपुल्स डेली' में भी एक लेख छपा था जिसमें भारत को अरुणाचल प्रदेश में सेना की सुरक्षात्मक तैनाती और सड़कें आदि बनाने के खिलाफ चेतावनी दी गई थी। खुद झान ली ने भी डेढ़ साल पहले 'भारत को चेतावनी' नामक एक लेख में कहा था कि भारत फिर से वैसी ही गतिविधियों में लगा है जिनके चलते 1962 का युद्ध हुआ था। झान ली के जिस चाइनीज इंटरनेशनल इन्स्टीट्यूट फार स्ट्रेटेजिक स्टडीज (सीआईआईएसएस) से जुड़े होने की बात कही जा रही है उसकी वेबसाइट पर पिछले दिनों भारत की सैन्य आकांक्षाओं के बारे में भ्रामक लेख छपे हैं। एक लेख में कहा गया है कि भारत चीन का सैनिक तौर पर मुकाबला करने के लिए 150 अरब डालर की रकम खर्च करने वाला है। इस तरह की खबरें चीनी जनमानस को भी जरूर प्रभावित करती होंगी।

प्रसंगवश, चीन के 'ग्लोबल टाइम्स' नामक अखबार द्वारा कराए गए जनमत.सर्वेक्षण पर ध्यान देना दिलचस्प होगा। इसमें भाग लेने वाले करीब 81 फीसदी चीनियों ने कहा कि उनके देश को भारत के अलगाववादी तत्वों को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन देना चाहिए। सिर्फ पंद्रह प्रतिशत का कहना था कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। यदि इस राय को आम चीनी लोगों की मानसिकता का प्रतिनिधि माना जाए तो हमारे बारे में चीनी धारणाओं की बड़ी नकारात्मक तस्वीर उभरती है। अब भले ही भारत में स्थित चीनी राजदूत दोनों देशों के बीच व्यापार वार्ताओं तथा पर्यावरण मुद्दे पर हुए सहयोग को लेकर सकारात्मक टिप्पणियां करें लेकिन चीन के बारे में भारतीयों के मन में निरंतर गहरे होते संदेह के बादल महज इन टिप्पणियों से छंट नहीं सकते।

Thursday, August 6, 2009

हिंदी सिर्फ साहित्य नहीं है

दुर्भाग्य से, हिंदी की राजनीति में विभाजन किसी एक मुद्दे पर नहीं है। वहां विभाजनों की दर्जनों धाराएं और उपधाराएं विद्यमान हैं। कहीं यह टकराव वाम और दक्षिण के बीच में है, कहीं उच्च-साहित्य और निम्न-साहित्य के बीच में है, कहीं पुस्तकीय और मंचीय रचनाधर्मिता के बीच में तो कहीं साहित्यिक हिंदी-सेवा और असाहित्यिक हिंदी-सेवा के बीच में। और तो और विभिन्न विधाओं का प्रतिनिधित्व करने वालों के बीच भी द्वंद्व, अंतद्वंद्व और प्रतिद्वंद्व हैं। फिर वाम में भी अति-वाम और मॉडरेट-वाम का टकराव मौजूद है। अशोक चक्रधर की नियुक्ति के बाद एक बार फिर इस टकराव की बानगी दिखाई दे गई है

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

जो स्वनामधन्य साहित्यकार दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में कवि.शिक्षाविद् अशोक चक्रधर की नियुक्ति पर विवाद खड़ा कर कर रहे हैं, संभवत: उन्होंने यह तय मान लिया है कि हिंदी और उसकी संस्थाएं सिर्फ एक 'खास किस्म के' साहित्य सृजन में लगे रचनाकारों के लिए हैं और किसी दैवीय वरदान के तहत इन संस्थानों पर उनका नैसर्गिक एकाधिकार बनता है।

हिंदी सिर्फ साहित्य नहीं है। हिंदी तो लगभग आधे भारतीयों की अभिव्यक्ति की जीवनधारा है, जो जरूरी नहीं कि साहित्य (वह भी एक खास और 'उत्कृष्ट' किस्म के साहित्य) से ही ताल्लुक रखते हों। हिंदी की संस्थाएं 'हिंदी भाषा' (साहित्य समाहित) का प्रतिनिधित्व करती हैं इसलिए वे परोक्षत: ही सही, उन सबका भी प्रतिनिधित्व करती हैं जिनके दैनिक, पेशेवर एवं रचनात्मक जीवन में हिंदी की अहम भूमिका है।

यदि आज एक वर्ग हिंदी संस्थाओं पर अपने पारंपरिक प्रभुत्व को फिसलता महसूस कर रहा है तो सिर्फ इसलिए नहीं कि हिंदी अकादमी में श्री चक्रधर की नियुक्ति हुई है। यह इसलिए भी है कि कभी इस और कभी उस अकादमी को अपने नियंत्रण में रखने वाले इन महाप्राणों ने अपने अनंत काल के प्रभुत्व के दौरान हिंदी की तरक्की के लिए कोई नई जमीन तोड़कर नहीं दिखाई है। उनके कार्यकालों में हिंदी की जर्जर इमारत पर थोड़े जाले और लग गए हैं, थोड़ी जंग और जम गई है। ऐसे बदलाव होने पर उनका कामकाज स्क्रूटिनी के दायरे में आता है। हिंदी को यदि दशकों से जमे पानी वाले तालाब की स्थिति से बाहर निकलना है तो उसे कुछ साहसिक और स्वाभाविक बदलावों की जरूरत है।

ऐसा नहीं कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को श्री चक्रधर की नियुक्ति का निर्णय करते समय इन प्रतिक्रियाओं का अनुमान नहीं होगा। सावर्जनिक जीवन में पांच दशक बिताने और लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतने वाली राजनैतिक शख्सियत हिंदी साहित्य की राजनीति और उसके भीतर विचारधारात्मक विभाजनों के अंडर.करेंट से अनजान हों, ऐसी गलतफहमी किसी को नहीं होनी चाहिए। दुर्भाग्य से, हिंदी की राजनीति में विभाजन किसी एक मुद्दे पर नहीं है। वहां विभाजनों की दर्जनों धाराएं और उपधाराएं विद्यमान हैं। कहीं यह टकराव वाम और दक्षिण के बीच में है, कहीं उच्च-साहित्य और निम्न-साहित्य के बीच में है, कहीं पुस्तकीय और मंचीय रचनाधर्मिता के बीच में तो कहीं साहित्यिक हिंदी-सेवा और असाहित्यिक हिंदी-सेवा के बीच में। और तो और विभिन्न विधाओं का प्रतिनिधित्व करने वालों के बीच भी द्वंद्व, अंतद्वंद्व और प्रतिद्वंद्व हैं। फिर वाम में भी अति-वाम और मॉडरेट-वाम का टकराव मौजूद है।

हिंदी अकादमी को छोड़ दीजिए, इस भाषा और उसके साहित्य से जुड़ी कौनसी संस्था है जिसके शीर्ष पर नियुक्त किसी व्यक्ति ने समग्र साहित्यकार बिरादरी में निर्विवाद, बिना-शर्त और सावर्त्रिक अनुमोदन पाया है? ये सभी धाराएं यदि एक साथ आती हैं तो सिर्फ उस समय जब उनके समन्वित हितों को झटका लगता है। काश इसी किस्म की वैचारिक एकता हिंदी के विकास से जुड़े मुद्दों और कामों के लिए भी होती!

एक अच्छी पहल

पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान अशोक चक्रधर ने संकल्प लिया था कि अब वे हिंदी के साहित्यकारों को कंप्यूटर से परिचित कराने के काम में जुटेंगे क्योंकि इसके बिना उनके पीछे छूटे रह जाने का खतरा है। हिंदी और उसके रचनाकर्मियों का नए जमाने के साथ तालमेल बिठाना जरूरी है। अशोक तभी से जयजयवंती के कायर्क्रमों के जरिए इस यज्ञ में हाथ बंटा रहे हैं। हिंदी की पाठ्यसामग्री को अधिक रुचिकर और ग्राह्य बनाने की दिल्ली विश्वविद्यालय की परियोजना में उनका योगदान किसी से छिपा हुआ नहीं है। और हिंदी के तकनीकी अनुप्रयोगों के विकास में एक साहित्यकार, भाषायी विद्वान और तकनीक प्रेमी के रूप में उन्होंने जो योगदान दिया है, वह प्रशंसा के योग्य है। एक साहित्यकार, लेखक, हास्य कवि, नाटककार और शिक्षाविद् के रूप में तो वे पिछले पांच दशकों से हिंदी की सेवा कर ही रहे हैं जो उनकी लोकिप्रय कृतियों की लंबी सूची और मंच पर उन्हें सुनने वाले समर्पित श्रोताओं की भीड़ से जगजाहिर है।

हाँ, श्री चक्रधर का संबंध राजनीति के दिग्गजों से भी हैं। क्या ये संबंध, या आजीविका के लिए उनका हास्य कविता पर निर्भर होना कोई बुरी बात है? अधिक सक्रिय व्यक्ति के अधिक संपर्क होने स्वाभाविक हैं। समस्या तब होती है जब हम दूसरों का आकलन करते समय उसी उदारता का परिचय नहीं देना चाहते जो हम स्वयं अपने आकलन के लिए करते हैं।

कुछ साहित्यकारों ने श्री चक्रधर की नियुक्ति से रुष्ट होकर त्यागपत्र दे दिए और कुछ ऐसा करने की तैयारी में हैं। मुझ जैसे साहित्य के अध्येता को यह बड़ा अटपटा लगता है। यदि हिंदी का कल्याण और उसकी सेवा ही किसी का उद्देश्य है तो अशोक चक्रधर के आने या न आने से उसे क्या फर्क पड़ना चाहिए? आप अपना कल्याणकारी एजेंडा जारी रखिए। कोऊ नृप होय हमें का हानी? आपकी सेवाभावी गतिविधियों को रोकने की भला किसी की क्या मंशा होगी और उन्हें रोककर किसी का क्या स्वार्थ सिद्ध होगा?

अकादमियों के जरिए हिंदी का कल्याण करने वाले स्वनामधन्य साहित्यसेवियों से पचीसों गुना बड़ी संख्या उन लोगों की है जो बिना किसी स्वार्थ, नाम या अन्य आकांक्षा के किसी न किसी रूप में हिंदी के हक में काम कर रहे हैं। पत्रकार के रूप में, साहित्यकार के रूप में, शिक्षक के रूप में, भाषा-विज्ञानी के रूप में, हिंदी-तकनीकविद् के रूप में, प्रचारक के रूप में, अनुवादकों के रूप में और राजभाषा क्रियान्वयन से जुड़े अधिकारियों के रूप में। इसी करोड़ों की भीड़ में मुझ जैसे लोग भी हैं जिन्हें श्री चक्रधर के हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने से अपने अभीष्ट की प्राप्ति में लेशमात्र भी रुकावट महसूस नहीं होती। यदि हिंदी की सेवा ही आपका उद्देश्य है तो किसी एक पद पर किसी की नियुक्ति का विरोध करने से आप अपना कार्य किस तरह अधिक बेहतर ढंग से कर पाएंगे, यह हम नादान हिंदी साधकों की समझ से बाहर है।

बहस का स्तर

हिंदी के साधक को फर्क तब पड़ता है जब वह यह देखता है कि जो उच्च.स्तरीय साहित्य की रचना का आत्म.मुग्ध दावा करते हैं वे 'विदूषक' जैसे शब्दों का प्रयोग कर बहस को निचले स्तर तक ले आते हैं। इसके बाद किसी सार्थक तर्क.वितर्क का रास्ता बंद हो जाता है। अफसोस, कि हिंदी की साहित्यियक बहसें इस स्तर तक आ गिरी हैं। साहित्य की किसी भी विधा को दूसरी से छोटी करके आंकने की प्रवृत्ति हिंदी का भला करने वाली नहीं है। कितने दशकों से हम सब इस बात पर बहस करते आए हैं कि हिंदी और उसके साहित्य को समावेशी बनने की जरूरत है, अपना दायरा और सोच बढ़ाने की जरूरत है!

प्रसंगवश, यह जानना दिलचस्प होगा कि हिंदी संस्थाओं पर नियंत्रण के दौरान विभिन्न शख्सियतों ने अब तक ऐसा क्या विशेष कर दिया जो एक नए उपाध्यक्ष के आने से रुक जाएगा? एकाध कवि सम्मेलन, पुरस्कार, दो.चार सेमिनार. गोष्ठियां और चंद बोझिल, अपठनीय पुस्तकों, पत्रिकाओं का प्रकाशन, जिनके पाठकों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है? हिंदी के कितने पाठकों से वे जुड़ी हुई हैं? हिंदी के कितने छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों तक उनकी पहुंच है? हिंदी साहित्यकारों के कल्याण के लिए उन्होंने क्या किया है? जब कोई त्रिलोचन पूरी दुनिया से उपेक्षित मृत्युशैया पर पड़ा होता है तब ये संस्थाएं किन महत्वपूर्ण गतिविधियों में लगी होती हैं? उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की बिक्री और पाठकीय स्थिति क्या है? उनकी संगोष्ठियों के परिणामस्वरूप हिंदी की साहित्यिक समृद्धि, शब्द-समृद्धि और लोकप्रियता में कितनी वृद्धि हुई है?

हिंदी अकादमी जैसी संस्थाओं की जड़ता को भंग करने के लिए ऐसे व्यक्तित्वों की जरूरत है जिसके पास हिंदी के लिए एक विज़न, एक दृष्टि हो। जो सक्रिय तो हों ही, नयापन लाने का उत्साह और ऊर्जा भी रखते हों, जिनमें असहमत होने का साहस हो, जिन्हें साहित्य की गहरी समझ हो किंतु जिनके लिए हिंदी की परिभाषा सिर्फ साहित्य पर शुरू और साहित्य पर ही समाप्त न होती हो। जो हिंदी के व्यापक दायरे को महसूस करेगा वही तो उसे और विस्तार देने का प्रयास कर पाएगा!

Sunday, August 2, 2009

'बहुत बड़ी भूल' है पर 'सबसे बड़ी भूल' नहीं

भाजपा नेता यशवंत सिन्हा ने शर्म अल शेख के बयान को भारतीय विदेश नीति की सबसे बड़ी भूल करार दिया है। मुझ जैसे अनगिनत लोग इस बयान को प्रधानमंत्री की बहुत बड़ी गलती मानते हैं लेकिन क्या यह हमारी अब तक की सबसे बड़ी गलती है? यह बात मान ली जाए तो फिर इतिहास में हुई बहुत बड़ी और अक्षम्य गलतियां बहुत छोटी बन जाएंगी।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

भारत और पाकिस्तान के ताजा संयुक्त बयान पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान भाजपा नेता यशवंत सिन्हा के आक्रामक और परिश्रम से तैयार किए गए भाषण ने सबका ध्यान खींचा है। उन्होंने शर्म अल शेख में जारी बयान के लिए प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह की आलोचना करते हुए यह भी कहा कि भारत के इतिहास में विदेश नीति से संबंधित यह अब तक की सबसे बड़ी भूल है। भारत.पाक संयुक्त बयान के भावी प्रभावों और निहितार्थों पर उनके साथ सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या सचमुच यह भारतीय विदेश नीति की अब तक की सबसे बड़ी भूल है? इस बात को स्वीकार करने का अर्थ शायद अतीत में इससे भी बड़ी भूलें, त्रुटियां और गलतियां करने वाले नेताओं को अपराध बोध से मुक्त कर देना होगा।

यशवंत सिन्हा के आकलन को जस का तस स्वीकार कर लेना भारतीय राजनीति के इतिहास को अल्पदृष्टि से देखना होगा। इसका अर्थ उन अनेक अक्षम्य गलतियों को बहुत छोटा करके आंकना होगा जिन्होंने भारत की राजनीति, इतिहास और भूगोल ही बदल दिया।

इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ॰ सिंह और उनकी टीम से मिस्र में हुई गलती राष्ट्रीय हितों पर दूरगामी प्रभाव डालेगी। शायद खुद उन्हें भी अब इसका अहसास हो चला है। उससे भी बड़ी गलती यह है कि इसे सत्ता तंत्र ने हल्के अंदाज में लिया जो पूवर् विदेश सचिव शिवशंकर मेनन के इस बयान से जाहिर है कि संभवत: यह 'बैड ड्राफ्टिंग' के कारण हुई भूल है। लेकिन फिर भी, यह भारत द्वारा की गई 'अब तक की सबसे बड़ी गलती' नहीं है। कारण, यदि यही हमारी सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल है तो फिर वह क्या थी जिसकी वजह से नेहरूजी अपने जीवन के अंतिम दिन संतोष के साथ नहीं काट पाए और डॉक्टरों के अनुसार, भारी मानसिक तनाव के चलते असामियक निधन के शिकार हुए?

ऐतिहासिक भूलों की कमी नहीं

भारतीय नीति नियंताओं से हुई भूलों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। ऐसी भूलें जिन्हें न लोगों ने भुलाया और न ही उन्हें अंजाम देने वाले कभी आत्म.ग्लानि के बोध से उठ सके। पहली सबसे बड़ी भूल तो संभवत: वह थी जब तमाम प्रतिरोध के बावजूद विवशता के साथ हमारे राष्ट्रीय नेताओं को 1947 में देश का विभाजन स्वीकार करना पड़ा था। मुस्लिम नेता मोहम्मद अली जिन्ना की शातिराना योजना और ब्रिटिश सत्ताधारियों की चाल में आकर भारी दबाव के बीच भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों के जन्म पर सहमति जताते समय महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और अन्य नेताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि इसकी परिणति कुछ ही महीने बाद लाखों लोगों की मौतों के रूप में होगी और कश्मीर मुद्दे पर यही दोनों देश अपने जन्म के छह दशक बाद भी एक.दूसरे के खून के प्यासे होंगे।

दोनों राष्ट्रों के जन्म के बाद भी कश्मीर का मसला अनसुलझा बना रहा और 'इधर, उधर या कहीं नहीं' की उलझन में पड़े महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान को 1947 में जम्मू और कश्मीर पर हमला करने का मौका दे दिया। पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे में उसी तरह कोई पार्टी नहीं था जैसे कि भारत। किंतु पाकिस्तान के हमले की बात जानते हुए भी भारतीय नेताओं ने वहां दखल करने से पहले तब तक इंतजार किया जब तक कि पाकिस्तानी फौजें मुजफ्फराबाद पर कब्जे के बाद बढ़ते.बढ़ते श्रीनगर के करीब पहुंचने की स्थिति में नहीं आ गईं। महाराजा हरि सिंह के फैसले के बाद ही भारत ने दखल कर पाकिस्तानी फौज और उसके कबायली साथियों को खदेड़ा लेकिन फिर भी कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा उनके कब्जे में छोड़ दिया गया। हमने पहले भारत का और अब कश्मीर का विभाजन स्वीकार कर लिया था। क्या यह ऐतिहासिक भूल नहीं थी?

नेहरूजी ने कुछ शर्तों के साथ संयुक्त राष्ट्र में यह बात स्वीकार की थी कि भारत कश्मीर में जनमतसंग्रह कराने को तैयार है। इस ऐतिहासिक भूल का हिसाब पाकिस्तान आज तक मांग रहा है। इसने कश्मीरी अलगाववादियों की मांगों को सैद्धांतिक आधार दिया और भारत के लिए वह चुनौती पैदा की जो आज तक कायम है।

बात चीन की भी हो जाए

हमारी विदेश नीति से जुड़ी सारी गलतियां पाकिस्तान के संदभ्र में ही नहीं हैं। चीन के लिहाज से भी हमारे नेताओं ने जो ऐतिहासिक गलतियां कीं उन्हें आज हम और आने वाले वषर्ों में हमारी भावी पीढि़यों को भोगना है। पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व में हमने चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने में समर्िपत भाव से मदद की। हिंदी.चीनी भाई.भाई और पंचशील दोनों देशों के संबंधों की आधारशिला बने और नेहरूजी ने उसी चीन को भारत का सबसे नि:स्वार्थ मित्र समझा जिसने कुछ वर्ष बाद भारत पर हमला करने में कोई संकोच नहीं दिखाया। हो सकता है कि उनके स्थान पर कोई अन्य नेता होता तो वह भी उन परिस्थितियों में वही करता। लेकिन 1962 में चीन के हाथों हुई लज्जाजनक पराजय ने आम भारतीय के मानस पर गहरा आघात लगाया, जो आज तक दूर नहीं हुआ। पहले चीन को मित्र समझना और फिर बिना किसी सैनिक तैयारी के उसके साथ युद्ध का सामना करना क्या हमारे इतिहास की सबसे बड़ी गलती नहीं है?

नेहरूजी की भलमनसाहत से कोई शिकायत नहीं है लेकिन संभवत: एक राजनेता के तौर पर वे आसन्न खतरों को भांपने में नाकाम रहे। कहा जाता है कि चीन का विश्वासघात ही नेहरूजी के असमय निधन का कारण बना। जिन्हें उन्होंने भारत और स्वयं अपना गहरा मित्र समझा था उन्होंने दोनों को पूरी दुनिया में लज्जित किया। नेहरूजी की मौजूदगी में संसद में कसम खाई गई कि हम चीन से भारत की एक.एक इंच भूमि वापस लेंगे। वह कसम कब पूरी होगी?

इन ऐतिहासिक गलतियों के सामने भारत.पाक संयुक्त बयान की बुरी ड्राफ्टिंग तो शायद उल्लेख के योग्य भी नहीं!

लगे हाथ कुछ अन्य ऐतिहासिक भूलों को भी याद कर लेने में हर्ज नहीं है. बाद के युद्धों में मौका मिलने के बावजूद कश्मीर का पाक.अधिकृत क्षेत्र आजाद न कराया जाना, परवेज मुशर्रफ को उस समय पाकिस्तान के नेता के रूप में मान्यता देना जब पूरी दुनिया ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था, राजीव गांधी के सत्ता काल से पहले और उस दौरान श्रीलंका की अलगाववादी समस्या में हमारी भूमिका,, पहले परमाणु विस्फोट के समय ही पूण्र परमाणु शक्ति ्में बदलने की बजाए कई दशक तक इंतजार करना, पाकिस्तानी राष्ट्रपति के रूप में परवेज मुशर्रफ को आगरा बुलाया जाना और सीमा पर साल भर तक सेना को तैनात रखकर बिना किसी स्पष्ट उपलब्धि या परिणाम के उसे वापस बैरकों में भेजा जाना आदि आदि। यशवंत सिन्हा यदि इन सभी भयानक भूलों के साथ शर्म अल शेख की घटना को रखकर देखें तो शायद वे भारतीय विदेश नीति की कमियों को ज्यादा समग्रता, स्पष्टता और निष्पक्षता के साथ परिभाषित कर पाएंगे।
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
- मेरा होमपेज http://www.balendu.com
- प्रभासाक्षी.कॉमः हिंदी समाचार पोर्टल
- वाहमीडिया मीडिया ब्लॉग
- लोकलाइजेशन लैब्सहिंदी में सूचना प्रौद्योगिकीय विकास
- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com