Saturday, April 21, 2012

चीनी चुनौती तक ही क्यों रुके हमारी अग्निरेखा?

अग्नि एक निरंतर चलने वाला मिसाइल कार्यक्रम है इसलिए सरकार के सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भारत अपनी सुरक्षा तैयारियों को चीन की चुनौती खारिज करने तक सीमित रखे या हमें उससे आगे भी बढ़ना है। -बालेन्दु शर्मा दाधीच जनवरी 2007 में चीन ने धरती से साढ़े आठ सौ किलोमीटर दूर अपने एक पुराने और बेकार उपग्रह को मिसाइल के जरिए नष्ट कर दुनिया को थर्रा दिया था। यह जमीनी जंग को आसमान तक ले जाने की चीन की क्षमता का प्रदर्शन था। अमेरिका और रूस ने अपनी-अपनी 'स्टार वार्स' परियोजनाओं को बंद करके अंतरिक्ष को हथियारों की होड़ से मुक्त करने का जो संकल्प लिया था, उसे चीनी कार्रवाई ने एक विकराल धमाके के साथ भंग कर दिया था। यह विज्ञान को इस्तेमाल कर की गई फौजी कार्रवाई थी जिसके लक्ष्य राजनैतिक थे। चीन महाशक्ति घोषित कर दिए जाने की जल्दी में था। काल का पहिया एक बार फिर घूमा है। अंतर महाद्वीपीय अग्नि-5 मिसाइल के सफल परीक्षण ने भारत के लिए भी अंतरिक्ष-युद्ध की नई शक्ति बनने का रास्ता खोल दिया है। धरती के वातावरण से ऊपर करीब छह सौ किलोमीटर की ऊंचाई तक जाने वाली अग्नि ने आठ सौ किलोमीटर के उस लक्ष्य को हमारी पहुँच में ला दिया है, जो अपनी रक्षा जरूरतों के लिए उपग्रहों का इस्तेमाल करने और दूसरों के उपग्रहों को निशाना बनाने की बुनियादी जरूरत समझा जाता है। अग्नि-5 के परीक्षण से भारत लगभग आधी दुनिया को अपने सुरक्षा दायरे में लाने की स्थिति में आ रहा है। लेकिन अग्नि एक निरंतर चलने वाला मिसाइल कार्यक्रम है इसलिए सरकार के सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भारत अपनी सुरक्षा तैयारियों को चीन की चुनौती खारिज करने तक सीमित रखे या हमें उससे आगे भी बढ़ना है। चीन ने अग्नि-5 के परीक्षण पर किस्म-किस्म की प्रतिक्रियाओं के बीच इस मिसाइल के पीछे छिपी संभावनाओं को बिल्कुल ठीक महसूस किया है। उसने अमेरिका, रूस तथा यूरोप से आग्रह किया है कि वे भारत के मिसाइल कार्यक्रम को रुकवाने के लिए अपने असर का इस्तेमाल करें और संभव हो तो इसके लिए जरूरी कल-पुर्जों तथा तकनीक की सप्लाई का रास्ता रोकें। अहम बात यह है कि अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल अग्नि-5 में मूल रूप से भारत में ही विकसित टेक्नॉलॉजी का प्रयोग किया गया है। हो सकता है कि लंबी दूरी की मिसाइलों के युग में जाने के लिए भारत को विदेशी तकनीकों की जरूरत पड़े, लेकिन हमारे वैज्ञानिकों तथा तकनीशियनों ने सिद्ध कर दिया है कि ऐसा न भी हुआ तो वे अपने रास्ते पर खुद चलने में सक्षम हैं। हो सकता है कि प्रक्रिया थोड़ी और लंबी तथा समय-साध्य हो जाए। जब हम चांद पर उपग्रह भेज सकते हैं तो लंबी दूरी की मिसाइल भी तैयार कर सकते हैं और चाहें तो एंटी सैटेलाइट वेपन (एसैट) के क्षेत्र में भी कदम रख सकते हैं। सवाल उठता है कि क्या हमें ऐसा करना चाहिए? राजनैतिक और आर्थिक लिहाज से यह एक नाजुक सवाल है, जिसका सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही जवाब विश्व के राजनीतिक तथा सुरक्षा मानचित्र पर भारत का दर्जा परिभाषित करेंगे। परमाणु हथियारों के संदर्भ में हम कई दशकों तक इसी तरह की पसोपेश का सामना करते रहे हैं। भारत के बाद पाकिस्तान ने भी परमाणु विस्फोट कर स्थिति को उलझा दिया लेकिन आज विश्व राजनीति में भारत का दर्जा तीसरी दुनिया के किसी आम-फहम देश जैसा नहीं रह गया है। वह एक उभरती हुई विश्व शक्ति माना जा रहा है। अमेरिका तथा दूसरे देशों के साथ हुए परमाणु समझौतों ने प्रतिबंधों और यथास्थिति की बची-खुची दीवारों को भी तोड़ दिया है। अगर भारत अपने मिसाइल कार्यक्रम को आक्रामक रफ्तार से आगे बढ़ाना चाहता है तो संभवतः यह उसके लिए सर्वाधिक अनुकूल समय है। अमेरिका, रूस और यूरोप से हमारे संबंध बहुत अच्छे हैं। पूरब में हमने रिश्ते सुधारे हैं। यहाँ तक कि ईरान, म्यांमार जैसे जिन देशों से अमेरिका को समस्या रही है, उनके साथ भी हमारे रिश्तों में कोई अड़चन नहीं है। अग्नि-5 के परीक्षण पर दुनिया भर में हुई प्रतिक्रिया ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि चीन और पाकिस्तान के अलावा हमने कोई नए दुश्मन नहीं बनाए हैं। यहाँ तक कि भारत के नौसैनिक, परमाणु तथा अन्य सुरक्षा कार्यक्रमों पर तपाक से बयान जारी करने वाले ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने भी इस बार कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं की। क्या यह चीन के बरक्स उभरती हुई एक नई शक्ति के प्रति विश्व समुदाय की मौन स्वीकृति नहीं? नए दौर की चुनौतियाँ भारतीय मिसाइल कार्यक्रम के शिखऱ पुरुष वीके सारस्वत ने ठीक कहा है कि नए युग में सुरक्षा चुनौतियाँ भी नए किस्म की हैं। भले ही भारत का सुरक्षा कार्यक्रम चीन और पाकिस्तान के हमलों की स्थिति में आत्म-रक्षात्मक कवच को मजबूत करने पर आधारित है, लेकिन हम उपग्रहों का सैन्य इस्तेमाल किए जाने, हमारे उपग्रहों को मिसाइलों से नष्ट कर दिए जाने, अपनी मिसाइलों को मार्ग में ही ध्वस्त किए जाने (चीन के पास मिसाइलरोधी मिसाइल है) जैसी आशंकाओं को नजरंदाज नहीं कर सकते। परमाणु हथियारों और उन्हें ले जाने के लिए लंबी दूरी के भरोसेमंद डिलीवरी सिस्टम्स की मौजूदगी हमें डिटरेंट (हमलावर को हतोत्साहित करना) की क्षमता तो देती है, लेकिन दूसरी किस्म के आक्रमणों की आशंका से मुक्त नहीं करती। जैसे हमारे संचार तंत्र को नष्ट कर दिए जाने की आशंका। ऐसी स्थितियों में अग्नि की छोटी दूरी के अस्थायी उपग्रहों को स्थापित करने की क्षमता बहुमूल्य सिद्ध हो सकती है। थोड़ा फेरबदल करके उसे आक्रामक मिसाइलों को नष्ट करने वाली मिसाइल में भी बदला जा सकता है। लेकिन बड़ी बात यह है कि हम स्वयं भी हमलावर राष्ट्र के सैन्य उपग्रहों को निशाना बनाने की स्थिति में आ सकते हैं और यहाँ तक कि अपने उपग्रहों पर भी परमाणु-सम्पन्न मिसाइलें तैनात कर सकते हैं। युद्ध कला में आक्रमण को ही बचाव की सर्वश्रेष्ठ रणनीति माना जाता है। भारत को यदि अपनी सुरक्षा तैयारियों को डिटरेंट के स्तर तक ही सीमित रखना है तब भी उसे अंतरिक्षीय चुनौतियों को परास्त करने के लिए एक भरोसेमंद प्रणाली का विकास करना ही होगा। लंबी दूरी की अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें, जिनकी रेंज आठ हजार किलोमीटर से ज्यादा है, भी अब हमारी रेंज में दिखती है। चीन के कुछ हल्कों में तो यह आशंका ही जताई गई है कि अग्नि-5 की असल रेंज आठ हजार किलोमीटर ही है। चीनियों की मंशा यूरोपीय देशों को आशंकित करने की है, जिन्होंने अग्नि के प्रक्षेपण पर कोई नकारात्मक टिप्पणी नहीं की। वह भारत को यूरोपीय देशों के लिए संभावित चुनौती के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है। शायद इससे उसके राजनैतिक हित सधते हों। सवाल यह नहीं है कि अग्नि-5 की रेंज साढ़े पाँच हजार किलोमीटर ही है या आठ हजार किलोमीटर। सवाल यह है कि क्या हमें आठ हजार या उससे भी ज्यादा दूरी तक मार करने वाली मिसाइलों की जरूरत है? सैन्य लिहाज से तो शायद हमें इसकी कोई व्यावहारिक जरूरत कभी न पड़े, लेकिन राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में इस तरह का कदम बेकार नहीं जाएगा। वह हमें विश्व के सर्वाधिक शक्ति-सम्पन्न देशों की कतार में खड़ा कर सकता है। उस कतार में, जहाँ अभी इंग्लैंड और फ्रांस जैसे सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों की भी उपस्थिति नहीं है, यानी अमेरिका, रूस और चीन की श्रेणी में। कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसा करने के दूरगामी राजनैतिक, राजनयिक, सैन्य निहितार्थ होंगे। अग्नि 5 में छिपी संभावनाएँ दिखाती हैं कि हमें चीनी खतरे से आगे बढ़कर सोचना चाहिए। मनोवैज्ञानिक बढ़त की ओर लंबी दूरी की मिसाइलों के विकास या उपग्रहरोधी मिसाइल तंत्र की स्थापना का अर्थ यह नहीं है कि भारत किसी दूरस्थ देश के विरुद्ध उनका उपयोग करेगा ही। लेकिन जब आप शक्तिशाली होते हैं तो आपकी आवाज सुनी जाती है। आखिरकार अमेरिका, चीन और रूस ने परमाणु हथियारों का इतना जबरदस्त जखीरा क्यों खड़ा किया? स्टार वार्स कार्यक्रमों के जरिए अपनी ताकत क्यों दिखाई। आज भी अमेरिका के पास 8500 और रूस के पास 10,000 परमाणु हथियार मौजूद हैं, जबकि विश्व इतिहास में परमाणु बम के इस्तेमाल की सिर्फ एक ही मिसाल मिलती है। भविष्य में भी यदि किनाहीं राष्ट्रों के बीच परमाणु युद्ध हुआ तो उसमें दो-तीन से अधिक परमाणु हथियार शायद ही इस्तेमाल हों। फिर भी इन देशों ने हजारों परमाणु हथियार क्यों बनाए? अपने प्रतिद्वंद्वी पर मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने के लिए इस संख्या का प्रतीकात्मक महत्व है। ऐसे में, सुरक्षात्मक तथा शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही सही, भारत को अपने सुरक्षा तथा अंतरिक्ष कार्यक्रमों का विस्तार करना चाहिए। अग्नि के सफल प्रक्षेपण से भारत का न्यूक्लियर ट्रायड का उद्देश्य लगभग पूरा हो गया है। इस समय सिर्फ अमेरिका, रूस और चीन इस श्रेणी में आते हैं। ट्रायड से तात्पर्य किसी राष्ट्र द्वारा परमाणु हमले का शिकार होने की स्थिति में दूसरे माध्यमों से जवाबी कार्रवाई करने की क्षमता से है। इसके लिए तीन तरह की क्षमताएँ होना जरूरी है- एक टन से अधिक का परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (अग्नि-5), दूर तक परमाणु बम ले जाने मं सक्षम लड़ाकू विमान (मिराज और सुखोई) और पनडुब्बी से परमाणु हथियार दागने की क्षमता (आईएनएस चक्र)। इस परीक्षण से हमारे सुरक्षा इतिहास में यकीनन एक ऐसी अग्निरेखा खिंच गई है, जिसकी उपेक्षा करना किसी के लिए संभव नहीं होगा।
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com