- बालेन्दु शर्मा दाधीच
भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी मजबूती बरकरार है और अगर उसमें निवेशकों तथा उपभोक्ताओं का विश्वास कायम रहेगा तो वह आगे भी बनी रहेगी। अगर भारतीय निवेशक आशंकित और भयभीत रहेगा तो संकट बढ़ता चला जाएगा। वित्त मंत्री का यह बयान कि `कोई डर नहीं है। अगर कोई डर है तो वह सिर्फ `डर` शब्द से है` इसे स्पष्ट कर देता है।
अमेरिका के कुछ वित्तीय संस्थानों से शुरू हुआ वित्तीय संकट धीरे-धीरे एक वैिश्वक समस्या बन गया है और काफी दिनों तक खुशफहमी में रहने के बाद अब हमारे कर्णधारों के सामने यह साफ होने लगा है कि भारत भी वैिश्वक मंदी से पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। हो सकता है कि अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया महाद्वीपों और एशिया के कुछ देशों की तुलना में हमारी स्थिति कुछ बेहतर हो। लेकिन वैश्वीकरण के दौर में, जब पूरी दुनिया एक किस्म की गुंफित, समिन्वत विश्व अर्थव्यवस्था की स्थापना के मार्ग पर बढ़ रही हो, तब कोई भी राष्ट्र आर्थिक दिग्गजों की तकलीफों से पूरी तरह अप्रभावित नहीं रह सकता। वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक की तरफ से लागू किए गए ताजा वित्तीय और मौिद्रक उपायों से जाहिर है कि भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान इस संकट को लेकर अन्य देशों की तुलना में कम गंभीर नहीं है।
रिजर्व बैंक ने पिछले पांच साल में पहली बार बाजार में तरलता बढ़ाने के लिए नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) को 150 आधार अंक घटाकर 7.5 प्रतिशत किया है। भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने भी विदेशी संस्थागत निवेशकों पर लगाए गए कुछ प्रतिबंधों में ढील देने का ऐलान किया है। ये वे प्रतिबंध हैं जिन्हें पिछले साल शेयर बाजार की असीमित उड़ान के दौर में लगाया गया था। बाजार की मंदी एक वित्तीय परिघटना होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक समस्या भी होती है और इसीलिए उसके इलाज की किसी भी रणनीति में मनोवैज्ञानिक घटकों का विशेष महत्व है। हमारा शेयर सूचकांक सेन्सेक्स या संवेदी सूचकांक कहा जाता है तो इसका केंद्रीय कारण उसकी संवेदी प्रकृति है। जरा सी अच्छी खबर मिलने पर वह उछल जाता है और जरा सी आशंका होने पर धराशायी होने में देर नहीं लगाता। भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती के बारे में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री पी चिदंबरम और वाणिज्य मंत्री कमलनाथ के बयानों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी मजबूती बरकरार है और अगर उसमें निवेशकों तथा उपभोक्ताओं का विश्वास कायम रहेगा तो वह आगे भी बनी रहेगी। अगर भारतीय निवेशक आशंकित और भयभीत रहेगा तो संकट बढ़ता चला जाएगा। वित्त मंत्री का यह बयान कि `कोई डर नहीं है। अगर कोई डर है तो वह सिर्फ `डर` शब्द से है` इसे स्पष्ट कर देता है।
लेकिन आम निवेशक, उपभोक्ता, कारोबारी और कर्मचारी आशंकाओं से मुक्त नहीं हैं। एक ओर विश्व भर से आ रही चिंताजनक खबरों का सिलसिला और दूसरी ओर हमारी अपनी अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ्तार आज के संवेदी माहौल में उसे भयभीत करने के लिए काफी हैं। बंबई स्टॉक एक्सचेंज का सेन्सेक्स (लगभग 11, 300) दो साल के निम्नतम स्तर पर चल रहा है और रुपए की कीमत (एक डालर बराबर 48 रुपए) छह साल के सबसे निचले स्तर पर है। आर्थिक विकास की दर पिछले साल के नौ फीसदी की तुलना में इस साल 7.9 फीसदी रहने का अनुमान है। हमारी समस्या का एक बड़ा कारण मुद्रास्फीति है जो लंबे समय से 12 फीसदी के आसपास बनी हुई है। मुद्रास्फीति को काबू में रखने के लिए बैंक कर्ज देने में कंजूसी से काम ले रहे हैं और ब्याज दरें बढ़ी हुई हैं। इसकी वजह से बाजार में मुद्रा का प्रवाह कम है, जबकि मौजूदा मंदी के माहौल में बाजार में तरलता बढ़ाए जाने की जरूरत है। मंदी के असर में कई बड़ी कंपनियों ने अपनी विस्तार योजनाओं को फिलहाल टाल रखा है और शेयर बाजार में आई गिरावट के चलते धन जुटाने के नए रास्तों की तलाश कर रही हैं। मुद्रास्फीति के कारण रिजर्व बैंक कोई बड़ा कदम उठाने की स्थिति में तो नहीं है लेकिन उसने सीआरआर में 150 आधार अंकों की कमी करके बाजार में करीब 60,000 करोड़ रुपए की रकम उपलब्ध करा दी है जिसका बाजार की स्थिति पर सकारात्मक असर पड़ना चाहिए।
वैिश्वक मंदी से वे सेक्टर सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे जिनका संबंध विदेशी बाजारों या विदेशी पूंजी से है। भारतीय शेयर बाजार में पिछले आठ-दस महीनों से लगातार चल रही गिरावट का सीधा संबंध विदेशी निवेशकों द्वारा हमारे बाजारों से धन खींच लिए जाने से है। पहले तो वे अपने लाभ के लिए हमारे बढ़ते पूंजी बाजार में खूब धन लगाकर उसे ऊपर उठाते चले गए और फिर मुनाफा बटोरकर चलते बने। इन निवेशकों में उन बैंकों का भी धन था जो आज विश्वव्यापी वित्तीय संकट के केंद्र में बताए जाते हैं। मंदी के माहौल में वे यहां पर अधिक समय तक टिके रहने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने बाजार को अपने हिसाब से निर्देशित किया और लाखों उत्साहित भारतीय निवेशकों को अधर में छोड़कर चले गए।
Monday, October 13, 2008
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1 comment:
अर्थशास्त्र बघारने और कठीन शब्दावलीयां प्रयोग कर विद्वता झाडना मुझे नही आता। हा, मैने देखा है की महज 25 वर्ष पुर्व मैने jaba अपना कैरियर शुरु किया था 7 रुपए 50 पैसे मे 1 अमेरीकी डालर मिलता था। आज 50 रुपए मे एक डलर मिलता है। मैने मेहनत करके जो कमाया है वह एक अमेरीकी ने सोते-सोते कमा लिया। कौन है जिम्मेवार इसके लिए? वर्ल्ड बैंक और सम्राज्यवादी शक्तियो के दलाल आज देश के प्रधान बने हुए है। उनसे क्या अपेक्षाए की जा सकती है?
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