Saturday, October 31, 2009

प्रजा की तकनीक में 'राजा' की पौबारह

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

दूरसंचार मंत्री ए राजा ने सात साल पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम आवंटन के पीछे यही तर्क दिया है कि वे आम आदमी को सस्ती दरों पर टेलीफोन सेवा मुहैया कराना चाहते थे। तो क्या इसी जनहितैषी भावना के चलते करुणानिधि और राजा संप्रग सरकार के गठन के समय यही विभाग पाने के लिए बेताब थे?

उनका नाम है ए राजा। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनने से पहले ही उन पर अनियमितताओं के गंभीर आरोप थे। लेकिन प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह की अनिच्छा के बावजूद दूरसंचार मंत्री ए राजा नई सरकार में पुराना पद पाने में कामयाब रहे क्योंकि द्रमुक सुप्रीमो एम करुणानिधि उनके साथ चट्टान की तरह खड़े थे। भले ही सीबीआई ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के तहत सीधे दूरसंचार मंत्रालय पर छापा मारकर बहुत बड़े राजनैतिक.प्रशासनिक दुस्साहस का परिचय दिया है लेकिन संप्रग सरकार की पारंपरिक राजनैतिक विवशताएं उसे कितना आगे तक जाने दंेगी, इस बारे में गंभीर प्रश्न चिह्न मौजूद हैं।

बात बड़ी सीधी सी है। आर्थिक मोर्चे पर तेजी से आगे बढ़ते देश में जिन क्षेत्रों में लाभ के सर्वाधिक अवसर पैदा हुए हैं उनमें दूरसंचार अव्वल है। लेकिन इसमें इस्तेमाल होने वाला कच्चा माल और कुछ नहीं बल्कि विद्युतचुंबकीय तरंगें (स्पेक्ट्रम) हैं, जिन पर सरकारों का नियंत्रण है। एक बार इन रेडियो संकेतों के प्रयोग का लाइसेंस मिल जाने के बाद कंपनियां करोड़ों उपभोक्ताओं से हर महीने बिल वसूलने के लिए अधिकृत हो जाती हैं और देखते ही सौ.दो सौ करोड़ की कंपनी कई हजार करोड़ तक पहुंच जाती हैं। इतनी तेज गति और इतने बड़े पैमाने पर लाभ कमाने की गुंजाइश शायद ही किसी और क्षेत्र में हो। इस प्रक्रिया में यदि कोई चीज सबसे महत्वपूर्ण है तो वह है स्पेक्ट्रम, जिसे पाने के लिए दूरसंचार कंपनियां किसी भी हद तक जा सकती हैं। और खुदा न ख्वास्ता यही स्पेक्ट्रम औने.पौने दामों पर मिल जाए तो आप खुद सोचिए कि वे अपने हितैषियों के लिए क्या कुछ नहीं करेंगी। कोई बेवजह नहीं है कि श्री करुणानिधि जैसे बेहद वरिष्ठ और अनुभवी राजनेता अपने विश्वस्त सहयोगी को दूरसंचार मंत्रालय न सौंपे जाने की स्थिति में सरकार से ही अलग हो जाने की धमकी दे रहे थे।

रेडियो, टेलीविजन और मोबाइल टेलीफोन से लेकर कार का ताला खोलने वाली मशीन और माइक्रोवेव ओवन तक में विद्युतचुंबकीय तरंगों का प्रयोग होता है। अलग.अलग किस्म के उपकरणों में अलग.अलग आवृत्ति (फ्रिक्वेंसी) की तरंगें इस्तेमाल होती हैं। इनके सुव्यवस्थित संचालन पर ही पूरे विश्व की संचार एवं प्रसारण व्यवस्था का दारोमदार निभ्रर करता है और इसी वजह से अलग.अलग कार्यों के लिए अलग.अलग फ्रिक्वेंसी तय कर दी गई है। इस बारे में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुस्पष्ट व्यवस्था मौजूद है। उदाहरण के लिए टेलीविजन प्रसारणों के लिए यह 54 से 88 मेगाहर्ट्ज, 174 से 216 मेगाहर्ट्ज और 470 से 806 मेगाहर्ट्ज है। एफएम रेडियो का प्रयोग करते हुए आपने देखा होगा कि वह 88 से 108 मेगाहर्ट्ज तक की फ्रिक्वेंसी तक सीमित है। इसी तर्ज पर दूरसंचार कंपनियों को भी अलग.अलग फ्रिक्वेंसी (जैसे जीएसएम के लिए 4॰4 मेगाहर्ट्ज) पर अपने संकेत प्रसारित करने का अधिकार दिया जाता है जिन्हें हमारे टेलीफोन उपकरण ग्रहण करते हैं। यही वह स्पेक्ट्रम है जिसके प्रयोग का लाइसेंस सरकार एक निश्चित शुल्क लेकर दूरसंचार कंपनियों को देती है।

पहले आओ, सब ले जाओ

दूरसंचार मंत्री ए राजा के खिलाफ लगे आरोपों की यूं तो लंबी फेहरिस्त है लेकिन उनमें सबसे प्रमुख यह है कि उनके विभाग ने कुछ खास कंपनियों को बेहद सस्ते दामों पर 2जी स्पेक्ट्रम आवंटित करने के लिए 'अद्वितीय कुशलता' दिखाई है। इस प्रक्रिया में भारत सरकार को 50 से 60 हजार करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा जबकि स्पेक्ट्रम पाने वाली कंपनियों ने रातोंरात खरबों रुपए बना लिए। भारत में 1995 से ही स्पेक्ट्रम लाइसेंसों का आवंटन नीलामी के जरिए किया जाता रहा है ताकि सरकार को उसका अधिकतम मूल्य मिल सके और सारी प्रक्रिया पारदर्शी रहे। लेकिन दूरसंचार मंत्रालय ने जनवरी 2008 में स्पेक्ट्रम के लाइसेंस आवंटित करते समय नीलामी के स्थान पर 'पहले आओ पहले पाओ' की नीति अपनाने का फैसला किया। आवेदन करने वाली कंपनियों की संख्या भी सीमित कर दी गई और वही पुरानी दरें रखी गईं जो सात साल पहले (सन 2001 में) थीं। इसका लाभ मिला यूनिटेक और स्वैन जैसी कंपनियों को जिन्होंने प्राप्त स्पेक्ट्रम का कुछ हिस्सा खरीद.मूल्य से छह गुना कीमत पर दूसरी कंपनियों को बेचा।

प्रश्न उठता है कि कोई भी व्यापारी (यहां भारत सरकार) ऐसा क्यों चाहेगा कि उसे अपनी वस्तु (स्पेक्ट्रम) का कम मूल्य मिले? या फिर यह कि ग्राहक सीमित संख्या में ही उसके पास आएं? और फिर वही इस बात का मार्ग भी प्रशस्त करेगा कि उससे खरीदी हुई वस्तु को कई गुना अधिक मूल्य पर बेचने में कोई अड़चन न आए? बताया जाता है कि श्री राजा ने पहले कहा था कि स्पेक्ट्रम आवंटन के दावेदारों से एक अक्तूबर 2008 तक आवेदन मंजूर किए जाएंगे। लेकिन बाद में उन्होंने घोषणा की कि सिर्फ 25 सितंबर तक आए आवेदनों पर ही 'पहले आओ पहले पाओ' के आधार पर विचार किया जाएगा। यूनिटेक और स्वैन जैसी कंपनियों के पास कोई दूरसंचार ढांचा मौजूद नहीं है फिर भी उन्हें स्पेक्ट्रम आवंटित कर दिया गया और इतना ही नहीं उन्हें एतिसालात.टेलीनोर जैसी विदेशी कंपनियों को इसे बेचने की इजाजत भी दे दी गई। वह भी तब जबकि ऐसा करना दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के दिशानिदेर्शों के अनुरूप नहीं था और इन कंपनियों ने बुनियादी दूरसंचार तंत्र तक खड़ा नहीं किया था। साफ तौर पर, इन कारोबारी घरानों का उद्देश्य स्पेक्ट्रम के जरिए फटाफट अथाह धन कमाना था। वे ऐसा करने में सफल भी रहीं। इस प्रक्रिया में न तो उनकी पृष्ठभूमि आड़े आई, न सरकारी नियम कायदों ने कहीं बाधा उत्पन्न की और न ही नियामकों की भृकुटियां तनीं। ऐसा किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही संभव था। ये परिस्थितियां क्या थीं, सीबीआई इसी बात का पता लगाने में जुटी है।

कृपा औरों पर भी हुई

श्री राजा इसी तरह के कुछ और 'उदार निर्णय' ले चुके हैं। उन्होंने 'जीएसएम' सेवाएं देने वाली सभी दूरसंचार कंपनियों के जबरदस्त प्रतिरोध के बावजूद 'सीडीएमए' कंपनियों. रिलायंस कम्युनिकेशन और टाटा टेलीसर्िवसेज को 'जीएसएम' के भी लाइसेंस देने का फैसला किया था। दोनों कंपनियों के लिए इससे धनवर्षा का नया रास्ता खुल गया। अब श्री राजा कहते हैं कि वे 'टेक्नालाजी संबंधी निष्पक्षता' के हिमायती हैं और इन्हें जीएसएम लाइसेंस न देना निष्पक्षता के विरुद्ध होता।

स्पेक्ट्रम आवंटन के मुद्दे पर भी उनके अपने तर्क हैं। मसलन यह कि सात साल पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम इसलिए आवंटित किया गया ताकि दूरसंचार सेवाएं सस्ती रहें और यह लाभ आम आदमी तक पहुंचे। उनका दावा है कि यह न सिर्फ ट्राई की सिफारिशों के अनुकूल था बल्कि ऐसा करते समय स्वयं प्रधानमंत्री को भी विश्वास में लिया गया था। श्री करुणानिधि ने तो एक दिलचस्प तर्क दिया है कि डॉ॰ मनमोहन सिंह का ए राजा को फिर से दूरसंचार मंत्री बनाया जाना उनके पाक.साफ होने का प्रमाण है। भारत की जनता जल्दी भूलने के लिए प्रसिद्ध है लेकिन शायद संप्रग सरकार के गठन के समय हुए नाटकीय घटनाक्रम को वह इतनी जल्दी नहीं भूली होगी जब द्रमुक सुप्रीमो ने हर किस्म का दबाव डालकर राजा का दूरसंचार मंत्रालय में लौटना सुनिश्चित किया। प्रधानमंत्री ने तो राजा की वापसी रोकने के लिए मजबूत स्टैंड लिया था! यह अलग बात है कि गठबंधन राजनीति की विवशताओं और सीमाओं के समक्ष वे कोई साहसिक नजीर कायम करने में नाकाम रहे।

तीन राज्यों के चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद, बढ़े हुए मनोबल के साथ क्या कांग्रेस नेतृत्व और डॉ॰ सिंह वह नैतिक साहस दिखा सकते हैं जिसका मौका उन्होंने कुछ महीने पहले खो दिया था? कहा जा रहा है कि सीबीआई के पास इस बार भ्रष्टाचार के कुछ अकाट्य सबूत हैं। द्रमुक के लिए इनका प्रतिरोध करना इतना आसान नहीं होगा। लेकिन क्या संप्रग नेतृत्व के पास जांच पूरी होने तक अपने एक मंत्री को पदमुक्त करने और सीबीआई को निष्पक्ष कार्रवाई का मौका देने की इच्छा शक्ति मौजूद है?

2 comments:

Unknown said...

इच्छाशक्ति?? ये किस चिड़िया का नाम है…

परमजीत सिहँ बाली said...

सब बन्दर बाट है......जनता के पेसो की लूट है।सुरेश जी ठीक कह रहे हैं।

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com