Saturday, January 16, 2010

विडंबनाओं की पगडंडी से निकला दोस्ती का हाईवे

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

शेख हसीना के ऐतिहासिक और बेहद सफल दौरे के बावजूद खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की जैसी कटु प्रतिक्रिया आई है (कि शेख हसीना ने बांग्लादेश के हितों को भारत के हाथों बेच डाला), वह दुखद तो है ही, इस बात का परिचायक भी है कि भारत भले ही कितना भी आत्मीय, मैत्रीपूर्ण, उदार एवं सदाशयी हो जाए, उसे बांग्लादेश में सार्वत्रिक स्वीकायर्ता मिलनी मुश्किल है।

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की भारत यात्रा के दौरान कोई चार दशक बाद दोनों देशों के संबंधों में वही गर्मजोशी और अपनापन दिखाई दिया जो बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय और उसके बाद था। ठीक अड़तीस साल पहले जनवरी 1972 में जब शेख मुजीबुर्रहमान जब पाकिस्तान से रिहाई के बाद बरास्ता लंदन स्वदेश वापसी के लिए भारत होते हुए गुजरे तो इस देश ने बंगबंधु का ऐतिहासिक स्वागत किया था। ऐसा स्वागत, जिसकी मिसालें भारतीय इतिहास में बहुत कम होंगी। हवाई अड्डे पर उनकी अगवानी करने के लिए भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, केंद्रीय मंत्रिमंडल के सभी सदस्य और तीनों सेनाओं के प्रमुख मौजूद थे। वह बांग्लादेश और भारत की साझा सफलता, आत्मीयता और मित्रता का उत्सव था। तब शेख मुजीब ने कहा था कि भारत के लोग बांग्लादेश के सवर्श्रेष्ठ मित्र हैं और मुक्ति संग्राम के दौरान भारत ने जो कुछ किया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।

लेकिन दुर्भाग्य से बांग्लादेश सिर्फ शेख मुजीब या फिर उनकी अवामी लीग का देश ही नहीं था। शेख मुजीब की हत्या के बाद धीरे.धीरे वहां भारत को सवर्श्रेष्ठ मित्र तो क्या मित्र मानने की भावना भी क्षीण होती चली गई और कालांतर में बांग्लादेश स्वयं को नुकसान पहुंचाने की हद तक जाकर भी भारत विरोध पर आमादा हो गया। लगभग वैसा ही, जैसा लोकतंत्र की स्थापना के बाद माओवादी सरकार के शासन में नेपाल हो गया था। कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस बांग्लादेश की स्वतंत्रता के संग्राम में भारत ने अपने नागरिकों और सैनिकों को खोया, उसे खलनायक मानने वाले दलों और व्यक्तियों का वहां की राजनीति के 40 में से तीस साल तक प्रभुत्व रहा। भारत की मित्र समझी जाने वाली अवामी लीग का कायर्काल तो कुल जमा एक दशक का रहा है और उसमें वह अनेक राजनैतिक एवं प्राकृतिक समस्याओं से जूझती रही है।

शेख हसीना के ऐतिहासिक और बेहद सफल दौरे के बावजूद खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की जैसी कटु प्रतिक्रिया आई है (कि शेख हसीना ने बांग्लादेश के हितों को भारत के हाथों बेच डाला), वह दुखद तो है ही, इस बात का परिचायक भी है कि भारत भले ही कितना भी आत्मीय, मैत्रीपूर्ण, उदार एवं सदाशयी हो जाए, उसे बांग्लादेश में सार्वत्रिक स्वीकायर्ता मिलनी मुश्किल है। वहां कितने दलों की राजनीति की तो बुनियाद ही भारत के अनवरत विरोध पर निर्भर है। ये दल ऐसा आभास पैदा करने में लगे रहते हैं जैसे भारतीय राजनेताओं का ज्यादातर समय बांग्लादेश के विरुद्ध साजिशें बनाने में ही गुजरता है। असलियत यह है कि भारतीय नेताओं और जनता की प्राथमिकताओं में बांग्लादेश का स्थान बहुत नीचे है और वहां क्या होता है, क्या नहीं, इससे हमारा सरोकार निरंतर कम होता चला गया है।

साझा विरासत के सहगामी

अलबत्ता, बांग्लादेश के पिछले चुनाव नतीजों ने जरूर भारत में दिलचस्पी और खुशी पैदा की जिनमें अवामी लीग को भारी समर्थन हासिल हुआ। दूसरी ओर भारत में भी केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन मजबूत हुआ है। दोतरफा स्थायित्व और अनुकूल शक्तियों के सत्ता में होने से भारत और बांग्लादेश को अपने संबंधों में नई ताजगी तथा आत्मीयता पैदा करने और आपसी संदेह दूर कर विश्वास का माहौल बनाने का ऐतिहासिक मौका मिला है। शेख हसीना की भारत यात्रा के दौरान हुए पांच समझौते, भारत की ओर से किसी भी देश को दिया गया अब तक का सबसे बड़ा ऋण और बांग्लादेशी प्रधानमंत्री को मिला हमारे सर्वोच्च अलंकरणों में से एक इंदिरा गांधी शांति एवं विकास पुरस्कार इस बात की निशानदेही करता है कि भारत अपने इस पूर्वी पड़ोसी के साथ आत्मीय संबंध बनाने के लिए कितना आतुर है। आप चाहें तो इसे हमारे पड़ोसियों के साथ गर्मजोशी बढ़ाने के चीनी प्रयासों की पृष्ठभूमि में देख सकते हैं लेकिन वास्तविकता यही है कि हमारे रुख में यह उत्कटता अनायास पैदा नहीं हुई है।

चीन और बांग्लादेश उस किस्म की साझा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक विरासत के सहगामी नहीं हैं जो भारत और बांग्लादेश के बीच है। ॰॰आखिरकार आजादी से पहले बांग्लादेश भारत का ही हिस्सा था और सुहरावर्दी और शेख मुजीब भारत के स्वाधीनता सेनानियों में भी गिने जाते हैं! ॰॰आखिरकार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, जो कि दो देशों के राष्ट्रगान के लिखने वाले विश्व के एकमात्र कवि हैं, ने भारत के साथ.साथ बांग्लादेश का ही राष्ट्रगान लिखा है। ॰॰आखिरकार बांग्लादेश वही भाषा बोलता है जो पश्चिम बंगाल। चीन और बांग्लादेश के संबंधों में क्या इस तरह की कोई कड़ी खोजी जा सकती है?

बदलाव उधर भी है

खुशी की बात है कि बदलाव की बयार सिर्फ भारत की ओर से ही नहीं बह रही, वह बांग्लादेश की ओर से भी आई है। उल्फा सहित उत्तर पूर्वी भारत के जिन अलगाववादी और आतंकवादी संगठनों को बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और फौजी शासकों के राज में प्रश्रय मिला, उन्हें लेकर वहां की मौजूदा सरकार का रुख एकदम स्पष्ट है। हाल ही में रहस्योद्घाटन हुआ है कि खालिदा जिया के शासनकाल में पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अपनी बांग्लादेश यात्रा के समय उल्फा नेता अनूप चेतिया से मुलाकात की थी। यह अपनी तरह की अकेली मुलाकात नहीं रही होगी। लेकिन शेख हसीना आपसी संबंधों में नए और सकारात्मक युग की शुरूआत करने की इच्छुक दिखती हैं। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में मैंने एक बार शेख हसीना का इंटरव्यू किया था। तब भी उन्होंने भारत के प्रति अपनी साझा विरासत और मुक्ति संग्राम में हमारे योगदान को लेकर भावुकतापूर्ण टिप्पणियां की थीं। तब वहां सेनाध्यक्ष से राष्ट्रपति बने जनरल इरशाद का शासन था और उनकी भूमिका बेहद सीमित थी। किंतु उन्होंने कहा था कि वे सत्ता में आईं तो आपसी संबंधों में खड़ी की गई दीवार ढहाना उनकी प्राथमिकताओं में होगा।

बांग्लादेश से निर्बाध गतिविधियां संचालित कर रहे उल्फा के अरविंद राजखोवा जैसे वरिष्ठ नेताओं को भारत के हवाले कर उन्होंने उस विश्वसनीयता और सदाशयता का परिचय दिया है जिसकी उम्मीद भारत दशकों से कर रहा था। आतंकवाद के विरुद्ध स्पष्ट रुख जताने और बांग्लादेश की सरजमीं पर भारत विरोधी गतिविधियों को बर्दाश्त न करने की उद्घोषणा कर उन्होंने भारतीयों का दिल जीत लिया। वे भारत को दो बांग्लादेशी बंदरगाहों तक पहुंच भी उपलब्ध कराने पर सहमत हो गई हैं। दूसरी ओर भारत ने लगभग पौने पांच हजार करोड़ रुपए की आर्थिक सहायता देकर जाहिर कर दिया है कि यदि उसकी आर्थिक समृद्धि का लाभ पड़ोसियों तक पहुंचता है तो इसमें उसे आपत्ति नहीं है। बांग्लादेश से आयात की जा सकने वाली वस्तुओं की सूची को व्यापक बनाकर, तिपाईमुख बांध (जिसे लेकर बांग्लादेश में पर्यावरणीय विपदाओं की आशंका जताई जाती है) का निर्माण रोककर, स्वाधीनता प्राप्ति के समय से विवादित 17000 एकड़ भूमि को बांग्लादेश के हवाले करने का फैसला करके, बिजली सप्लाई का समझौता करके अपने नए दृष्टिकोण का सबूत दिया है।

श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल आदि की ही भांति बांग्लादेश में भी यह आम धारणा रही है कि भारत अपने सभी पड़ोसी राष्ट्रों पर प्रभुत्व कायम रखना चाहता है। शायद शेख हसीना की यात्रा से वह धारणा टूटे। कोशिश रहनी चाहिए कि गलतफहमियां दूर करने का यह सिलसिला सिर्फ बांग्लादेश तक सीमित न रहे, दक्षिण एशिया के अन्य देशों तक भी पहुंचे क्योंकि भारत के हित अपने पड़ोसियों की शांति, सुरक्षा और तरक्की में ही निहित हैं।

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इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com