आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया एक निरंतर प्रक्रिया है जिसका इस बात से अधिक संबंध नहीं है कि केंद्र में कौन सत्तारूढ़ होता है। इसे मजबूत बनाने और आने वाली सरकार के लिए मजबूत आर्थिक बुनियाद छोड़कर जाने की जिम्मेदारी मनमोहन सिंह की सरकार की है। ठीक उसी तरह, जैसे राजग सरकार ने उसे एक मजबूत अर्थव्यवस्था विरासत में दी थी।
विश्वास मत हासिल कर लेने की स्थिति में मनमोहन सिंह सरकार का पहला कदम तो स्वाभाविक रूप से परमाणु करार को क्रियािन्वत करना होगा। इस करार पर अमल से भारतीय अर्थव्यवस्था और विकास-प्रक्रिया को दूरगामी लाभ होंगे, वह भारत को परमाणु-अस्पृश्यता से मुक्त करेगा और विश्व मंच पर भारत का कद व प्रतिष्ठा दोनों बढ़ेंगे। इसका कुछ न कुछ राजनैतिक लाभ संप्रग को भारत में भी होगा लेकिन यदि वह इस मुद्दों पर चुनाव जीतने की आकांक्षा पाले हुए है तो मतदाता उसे बड़ा झटका दे सकता है। गांव-कस्बे में रहने वाला आम आदमी, जो हमारी लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया की धुरी है, ऐसे ऊंचे-ऊंचे मुद्दों और उपलब्धियों के बारे में न तो बहुत जागरूक है और न ही इनसे बहुत प्रभावित ही होता है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार आर्थिक-सामरिक उपलब्धियों और विकास के मुद्दे को उठाकर मुंह की खा चुकी है। परमाणु विस्फोट, कारगिल विजय और आर्थिक विकास की उसकी उपलब्धियों पर मतदाता ने ऐसे आंखें फेर ली थीं जैसे कुछ हुआ ही न हो। सकारात्मक और विकासात्मक मुद्दों पर जनादेश का अनुपस्थित रहना हमारे लोकतंत्र की विडंबना है लेकिन अभी कुछ दशकों तक वह ऐसे ही रहने वाला है। किसी भी सत्ताधारी दल को यदि चुनाव में जाना है तो बुनियादी मुद्दों को लेकर जाना उसकी मजबूरी है। ऐसे मुद्दों को, जिनसे हमारा आम मतदाता भावनात्मक या व्यावहारिक लिहाज से जुड़ा हुआ है। इंदिरा गांधी का `गरीबी हटाओ` से लेकर भाजपा का राम मंदिर आंदोलन इसके उदाहरण हैं।
डॉ. सिंह को नहीं भूलना चाहिए कि देश में जारी आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया एक निरंतर प्रक्रिया है जिसका इस बात से अधिक संबंध नहीं है कि केंद्र में कौन सत्तारूढ़ होता है। पिछले दशक के शुरू में हमने इस मार्ग पर चलने का राष्ट्रीय निर्णय लिया था, जिस पर पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी की परस्पर विपरीत विचारधारा वाली सरकारें भी मुस्तैदी के साथ चलती रही थीं। उस परंपरा को मजबूत बनाने और आने वाली सरकार के लिए मजबूत आर्थिक बुनियाद छोड़कर जाने की जिम्मेदारी मनमोहन सिंह की सरकार की है। ठीक उसी तरह, जैसे राजग सरकार ने उसे एक मजबूत अर्थव्यवस्था विरासत में दी थी। पार्टीगत दायित्व पूरे हुए, केंद्र सरकार को अब अपने वृहद् राष्ट्रीय दायित्वों को संभालने की जरूरत है।
मनमोहन सिंह सरकार को अपने बचे हुए कार्यकाल में सबसे बड़ा हमला महंगाई पर करना होगा। मौजूदा मुद्रास्फीति घरेलू कारणों पर उतनी निर्भर नहीं है जितनी कि अंतरराष्ट्रीय कारणों, विशेष कर वैश्विक मंदी और तेल की कीमतों पर। लेकिन यहीं पर प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री पी चिदंबरम और रिजर्व बैंक के गवर्नर वाईवी रेड्डी के आर्थिक नेतृत्व की परीक्षा है। उन्हें मुद्रास्फीति-कारक अंतरराष्ट्रीय कारकों का प्रभाव न्यूनतम करने और राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत नियंत्रक तंत्र स्थापित करने की जरूरत है। उद्योग जगत और अन्य राजनैतिक दलों को विश्वास में लेते हुए महंगाई पर चौतरफा हमला किए जाने की जरूरत है। जमाखोरों, वायदा कारोबारियों, अटकलबाजों (स्पेक्यूलेटरों) और अन्य निहित स्वार्थी तत्वों के खिलाफ आक्रामक कारZवाई (गिरफ्तारियां और जब्ती), जहां जरूरी हो वहां सिब्सडी की बहाली, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए गरीब भारतीय को राहत, ब्याज दरों को मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार समायोजित करने और अन्य मौद्रिक व वित्तीय कदमों को अब बिना किसी देरी के उठाया जाना चाहिए। केंद्र सरकार को इंद्रदेव को धन्यवाद देना चाहिए कि इस बार मानसून अच्छा है और भारत में अनाज की बम्पर पैदावार के आसार हैं जो मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में स्वाभाविक रूप से मददगार सिद्ध होगा। लेकिन यदि महंगाई बनी रही तो मतदाता उसे माफ नहीं करेगा। डॉ. सिंह की सरकार को याद रखना चाहिए कि भले ही मुद्रास्फीति एक विश्वव्यापी समस्या हो, भले ही रूस (14 फीसदी), ईरान (26 फीसदी), चीन (9 फीसदी), वेनेजुएला (29 फीसदी), अर्जेंटीना (23 फीसदी) और खाड़ी देश भी उससे पीड़ित हों लेकिन भारतीय मतदाता इसके लिए सिर्फ उसी को जिम्मेदार ठहराएगा और उसी को दंडित करेगा। खासकर उस स्थिति में, जब सारे के सारे दल विश्वव्यापी परिस्थितियों से अवगत होते हुए भी इस मुद्दे को सरकारी नाकामी के रूप में पेश करने के लिए उतावले हैं।
सरकार ने राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना और किसानों की ऋण माफी जैसे बड़े कदम उठाकर यह साफ किया है कि बाजार अर्थव्यवस्था और सामाजिक उत्तरदायित्वों के बीच संतुलन बनाना असंभव नहीं। इन योजनाओं से समाज के निम्नतम तबके को जिस तरह की आर्थिक सुरक्षा और राहत मिली है उसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव है। मेरे पिछले राजस्थान दौरे में ग्रामीणों ने उत्सुक, प्रसन्न लोगों ने मुझसे पूछा था कि क्या सरकार के पास इतनी बड़ी योजना (नरेगा) को चलाए रखने के लिए जरूरी धन है? उन्हें चिंता थी कि क्या केंद्र सरकार इसे लगातार चलाए रख सकेगी? क्या वह ऐसी मजबूत आर्थिक स्थिति में है? बिचौलियों और लालफीताशाही संबंधी तमाम समस्याओं और सीमाओं के बावजूद यह योजना उन्हें सीधे आर्थिक राहत पहुंचाने में सफल हुई है। सरकार को आम आदमी के सशक्तीकरण के प्रयास जारी रखने चाहिए क्योंकि समाज की निम्नतम इकाई को मजबूत बनाए बिना कोई भी अर्थव्यवस्था स्थायी रूप से समृद्ध नहीं हो सकती। आने वाले कुछ महीनों में सरकार को हर दुखी, त्रस्त, कमजोर नागरिक को राहत देने की कोशिश करनी चाहिए। चाहे वह बुंदेलखंड का भूखा किसान हो, उड़ीसा-बंगाल का बाढ़ पीड़ित या फिर विदर्भ व तेलंगाना का किसान। यदि देश में कोई भूखा सोता है तो हमारी आर्थिक समृद्धि निरर्थक और ढोंग ही सिद्ध होगी।
महंगाई पर रोक लगाने के साथ-साथ सरकार को आर्थिक सुधारों का अपना एजेंडा पूरा करने का भी मौका मिल रहा है। आर्थिक विकास की दर आज भी 8.6 फीसदी के आसपास है जो आश्वस्त करती है कि हमारी अर्थव्यवस्था का उत्तम स्वास्थ्य और मजबूती बरकरार है। बहरहाल, औद्योगिक विकास दर में आ रही गिरावट को फौरन दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। वामपंथी दलों ने आम आदमी को लाभ पहुंचाने वाली कई अच्छी योजनाओं के लिए केंद्र सरकार को प्रेरित किया जिसका श्रेय उन्हें दिया जाना चाहिए लेकिन उन्होंने सरकार की बहुत सारी आर्थिक पहलों को लाल झंडी दिखाई हुई थी। मुनाफा कमा रहे सरकारी उपक्रमों की आंशिक हिस्सेदारी की बिक्री, रिटेल क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजीनिवेश संबंधी नियमों को उदार बनाने, श्रमिक सुधार, बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश, बैंक सुधार विधेयक को मंजूरी, पेंशन कोश नियामक की स्थापना जैसे जिन अहम आर्थिक फैसलों को वामपंथी दलों ने रोका हुआ था, उन्हें अविलम्ब मंजूरी दी जा सकती है। आम आदमी और मेहनतकश लोगों के साथ वामपंथी दलों के सरोकार बहुत सराहनीय हैं लेकिन उदारीकरण की जिस प्रक्रिया पर हम डेढ़ दशक पहले चल निकले थे उसे अब रास्ते में नहीं छोड़ा जा सकता और इस मामले में सरकार को लाल नहीं बल्कि हरी झंडी दिखाए जाने की जरूरत है। सरकार के नए दोस्तों (समाजवादी पार्टी) के झंडे में हरे रंग की मौजूदगी शायद उसी दिशा में संकेत कर रही है।
Monday, July 14, 2008
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