Friday, July 18, 2008

डील को 'मुस्लिम विरोधी' बताने वाले 'धर्मनिरपेक्ष' हैं?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

भले ही वाम नेता कहते रहें कि वे भारत की संप्रभुता और स्वतंत्र विदेश नीति को बचाने की खातिर यह सब कर रहे हैं, पिछले दो-तीन हफ्तों के आचरण ने साफ कर दिया है कि परमाणु करार के खिलाफ उनके अभियान की एक स्पष्ट राजनैतिक दिशा है। यह दिशा सही है या गलत, वास्तविकताओं पर आधारित है या कल्पनाओं पर, कहा नहीं जा सकता। लेकिन सारे घटनाक्रम के पीछे एक राजनैतिक एजेंडा है।

वामपंथी दलों की तरफ से आया यह बयान, कि परमाणु करार का समर्थन करने पर समाजवादी पार्टी मुस्लिम जनता का समर्थन खो देगी, राजनैतिक दांव-पेंच को आजमाने का पहला बड़ा संकेत था। यदि वे भारत के अंतरराष्ट्रीय हितों और संप्रभुता के लिहाज से सोचते रहे थे तो इस तरह का धार्मिक कोण वाला विभाजनकारी राजनैतिक बयान देने की जरूरत कैसे पैदा हुई? उन्हें परमाणु करार को भारतीय मतदाता, खासकर मुस्लिम मतदाता के साथ जोड़ना क्यों जरूरी लगा? इसका अर्थ यह हुआ कि यदि कोई समुदाय विशेष राष्ट्रहित के किसी फैसले का विरोध करे तो उसे छोड़ दिया जाना चाहिए? ये वही वामपंथी नेता हैं जो कुछ महीने पहले किए गए सर्वेक्षणों के नतीजों पर टिप्पणी करते हुए कह चुके थे कि भले ही भारत के अधिसंख्य लोग परमाणु करार का समर्थन करें, वे इसका विरोध करते रहेंगे क्योंकि लोग नहीं जानते कि देश के हित में क्या है और क्या नहीं। ऐसे कामरेडों को मुलायम सिंह यादव का ध्यान इस ओर खींचने की जरूरत क्यों पड़ गई कि वे परमाणु डील की नहीं बल्कि अपने मुस्लिम वोट बैंक की फिक्र करें?

पिछले सप्ताह वामपंथी दलों की रैली को संबोधित करते हुए माकपा महासचिव प्रकाश करात ने करार के विरोध के पीछे राजनैतिक निहितार्थ होने की बात और साफ कर दी जब उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को परमाणु करार को मुद्दा बनाकर लोकसभा चुनाव लड़ने की चुनौती दी। वे शायद यह भूल गए कि आज भी पिचहत्तर फीसदी भारत गांवों में रहता है और हमारी चालीस फीसदी आबादी अनपढ़ है। ऐसे में कौन मतदाता परमाणु करार के बारे में जानता है? कौन मतदाता इसके भावी प्रभावों को समझते हुए फैसला कर सकता है? और क्या उसका फैसला वास्तव में इस सौदे पर जनता की ठीक-ठीक धारणा को अभिव्यक्त करेगा? और यदि मतदाता ऐसा करने में सक्षम भी हो तो क्या देश का हर फैसला चुनावी लाभ-हानि के हिसाब से ही किया जाना चाहिए? डॉ. मनमोहन सिंह ने तो इस बयान की उपेक्षा करना ही उचित समझा लेकिन आम भारतीय के सामने श्री करात की विचारधारा अवश्य साफ हो गई। उन्होंने साफ कर दिया कि वे परमाणु सौदे को चुनावी राजनीति के चश्मे से देख रहे हैं, राष्ट्र हित के लिहाज से नहीं, जैसा कि पिछले कई वर्षों से दावा किया जा रहा है।

जिन वामपंथी दलों का लक्ष्य परमाणु करार को रोकना था, उनका लक्ष्य सरकार गिराना बन गया है। अब संप्रग सरकार के सभी विरोधी उनके मित्र हो गये हैं भले ही उनकी विचारधारा, राजनैतिक इतिहास, छवि या पृष्ठभूमि कुछ भी हो। भले ही वे धार्मिक आधार पर परमाणु सौदे के खिलाफ लोगों को भड़का रहे हों, सब जायज है। भले ही भ्रष्टाचार और अपराधों की लंबी सूची उनके साथ जुड़ी हो, सब जायज है। भले ही उनके खिलाफ तानाशाही के आरोप हों, सब जायज है। छोिड़ए सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को, अब सब वाम दलों के मित्र हो गए हैं। विचारधारा पर आधारित होने का दावा करने वाले दल अवसरवादी राजनीति में सबसे ज्यादा सक्रिय दिखने की होड़ में लगे हैं। क्या इस ऐतिहासिक मौके पर वे इस बारे में रोशनी डालेंगे कि उनके नए राजनैतिक गठबंधनों का भविष्य कितना लंबा है और वे इनके प्रति कब तक समर्पित बने रहेंगे? उन्हें इस बारे में गहराई से सोचने की जरूरत है कि उनकी ताजा गतिविधियों का परिणाम क्या रहा। क्या ये दल केंद्र या राज्य में पहले से बड़ी राजनैतिक शक्ति बनकर उभरे हैं? क्या उन्होंने अपनी राजनैतिक साख, लोकिप्रयता या विश्वसनीयता में बढ़ोत्तरी की है? प्रकाश करात और उनके मित्र वामपंथी नेताओं को जब तक अपनी राजनैतिक भूलों का अहसास होगा तब तक उनके दल अपनी राष्ट्रीय प्रासंगिकता खो चुके होंगे। उनके प्रयासों से बना तीसरा मोर्चा पहले ही धराशायी हो चुका है। पारंपरिक आधार वाले राज्यों में उनका अपना आधार भी खिसक रहा है।

बंगाल के जमीनी हालात सिर्फ इसलिए नहीं बदल जाएंगे कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने परमाणु करार का विरोध किया है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का किला दरक रहा है और उसके पीछे परमाणु करार जैसे कारण नहीं हैं। उसके पीछे हैं वहां की जमीनी सच्चाइयां जो नंदीग्राम और सिंगुर कांडों के जरिए सामने आई हैं। पहली बार वहां के आम मतदाता को अहसास हुआ है कि वह राज्य के कोने-कोने में फैले वामपंथी कार्यकर्ताओं की मनमानी का शिकार होने के लिए अभिशप्त नहीं है। वह लोकतांत्रिक माध्यमों से अपने प्रतिरोध को अभिव्यक्त कर सकता है। नंदीग्राम में एक ओर जनता थी और दूसरी तरफ सरकार तथा पार्टी की ताकत। नतीजा सामने है। जून में पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत समिति और ग्राम पंचायत चुनावों के नतीजों ने वाम दलों के पैरों तले जमीन खिसका दी है। पूर्वी मिदनापुर, चौबीस परगना (उत्तर), चौबीस परगना (दक्षिण), नादिया और उत्तरी दिनाजपुर जिलों में कम्युनिस्ट दलों का करीब-करीब सफाया हो गया। पिछले तीन दशकों में कभी भी उन्हें ऐसी हालत का सामना नहीं करना पड़ा था।

पश्चिम बंगाल में वामपंथी जमीन पर तृणमूल कांग्रेस, भाजपा और कांग्रेस की फसल खड़ी हो रही है। यदि आज चुनाव होते हैं तो पश्चिम बंगाल में वाम दलों की तीस फीसदी सीटों का सफाया हो सकता है। प्रकाश करात और बुद्धदेव भट्टाचार्य राज्य के ताजा नतीजों से अंजान नहीं हैं। न सीताराम येचुरी तथा एबी बर्धन ही जमीनी हालात से नावाकिफ हैं जिन्होंने संकेत दिया है कि अगले चुनावों के बाद भी उनकी पार्टियां कांग्रेस के साथ तालमेल कर सकती हैं। यदि ऐसा है तो फिर यह सब किसलिए? सिर्फ डॉ. मनमोहन सिंह की पराजय सुनिश्चित करने के लिए? सिर्फ चंद नेताओं के किताबी सिद्धांतों और राजनैतिक अहं को जायज ठहराने के लिए? यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्वास मत सिर्फ डॉ. मनमोहन सिंह के लिए नहीं है। यदि सरकार मौजूदा संकट से सकुशल बाहर निकल जाती है तो प्रकाश करात और एबी वर्धन जैसे अप्रासंगिक हो चुके नेताओं का लंबे समय तक शीर्ष पर टिके रहना आसान नहीं होगा।

यदि आज लोकसभा चुनाव होते हैं तो हो सकता है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन लाभ की स्थिति में सामने आए। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को भी शायद उतना नुकसान न हो जितना कि सपा के विपरीत खेमे में रहने की स्थिति में होता। यहां तक कि समाजवादी पार्टी भी अपनी पूरी तरह डूबती दिखती नैया को थोड़ा-बहुत संभाल लेगी। बसपा की सीटों में काफी वृद्धि होने ही वाली है। तो फिर नुकसान किसका होगा? उन दलों का, जिनका नेतृत्व चुनावी राजनीति का सबसे कम अनुभव रखने वाले दो नेता कर रहे हैं। उन्होंने अपने आचरण से लोगों को स्वाधीनता आंदोलन, द्वितीय विश्व युद्ध, भारत-चीन युद्ध और इमरजेंसी जैसे मौकों पर की गई ऐतिहासिक भूलों की याद दिला दी है। उन्होंने लोगों की इस धारणा को एक बार फिर प्रबल किया है कि राष्ट्रीय आपत्तिकाल में उनका आचरण राष्ट्र के हित में नहीं रहता। क्या यही वह छवि है जिसे बनाने के लिए उन्होंने यह सब किया? यह छवि निर्माण, उन्हें राजनैतिक लाभ देगा या क्षेत्रीय दलों की श्रेणी में ला खड़ा करेगा, इसका आकलन करना बहुत मुश्किल नहीं है।

6 comments:

संजय शर्मा said...

आप हमेशा पढ़े जाते हैं .सहमत हूँ आपसे .वैसे वामपंथियों को मालुम नही शायद उतर प्रदेश की ९९ % मुस्लिम हर हाल में मुलायम के साथ ही है . डील हो न हो . अब तो इस नौटंकी को देखकर वामपंथी को बुद्धिजीवी नही कहा जा सकता .
देश चुनाव में कांग्रस का कबाडा कर सकता है ,क्योंकि महगाई का मारा है . लेकिन चुनाव से पहले सरकार की इमारत गिरते देखना पसंद नही करती .सीताराम और करात इसे अच्छी तरह जानते है .और सबसे ज्यादा उनके सोमनाथ जी समझते है .

संजय बेंगाणी said...

खरी बात.

Anonymous said...

सही तर्क हैं. जब पंढे जैसे बयान सुनने को मिलते हैं, तो विश्वास हो जाता है कि सीपीएम का सिर्फ नोट और वोट से ही नाता रह गया है. अब पुराना कैडर बुढ़ा गया है, और ये नये वामपंथी इस खुशफहमी में जी रहें हैं की मीडिया में कम्युनिस्ट प्रभाव का फायदा उठाकर अपनी हर गलती ढक लेंगे

आशा है कि अगर चुनाव होतें हैं तो बंगाल की जनता इनके गाल पर वैसा ही जवाब जमाये जैसा इन्हें मिलना चाहिये

संजीव कुमार सिन्‍हा said...

सामान्‍य तौर पर 2007 तक वामपंथी दलों की करतूतों से जन-साधारण वाकिफ नहीं था। क्‍योंकि वामपंथ प्रभाव वाले राज्‍य केरल और पश्चिम बंगाल देश के दो छोरों पर स्थित है। अब मीडिया की व्‍यापक पहुंच के चलते वामपंथी दलों में आंतरिक कलह, अल्‍पसंख्‍यकवाद की पराकाष्‍ठा, पश्चिम बंगाल में राशन के लिए दंगा, चरम पर भ्रष्‍टाचार, देशविरोधी हरकतें, विरोधी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की सरेआम हत्‍या जैसे वाकयों को लेकर वामपंथ बेनकाब हो चुका है।
आपने वामपंथ के दोहरे चरित्र को बखूबी उजागर किया है।

Som said...

I do agree. Great Article.

Shastri JC Philip said...

धर्म की दुहाई देकर, लोगों की भावनाओं को भडका कर, अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश -- बहुत सटीक विश्लेषण !!

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com