Thursday, November 6, 2008

अमेरिकी मतपेटियों से निकली एक सामाजिक क्रांति

राष्ट्रपति बनना तो दूर, अगर ओबामा चार-पांच दशक पहले होते तो शायद अमेरिका के किसी क्लब या होटल तक में प्रवेश नहीं कर सकते थे। उनकी ऐतिहासिक और चमत्कारिक जीत दिखाती है कि अमेरिका वाकई बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है। सामाजिक-राजनैतिक क्रांतियां रक्तरंजित ही हों और गृहयुद्धों के जरिए ही आएं यह जरूरी नहीं है। इस चुनाव ने दिखाया है कि वे मतपत्रों के रास्ते से भी आती हैं।

- बालेन्दु दाधीच

बराक `हुसैन` ओबामा जिस अमेरिका में राष्ट्रपति का पद संभालने जा रहे हैं वह कुछ महीनों यहां तक कि कुछ हफ्तों पहले का अमेरिका भी नहीं है। वह एक नया अमेरिका है। एक बदला हुआ देश। विन्स्टन चर्चिल ने एक बार कहा था कि अमेरिकी किसी भी नए विकल्प को तब तक नहीं आजमाते जब तक कि वे सभी पुराने विकल्पों को आजमाकर थक न जाएं। ओबामा की ऐतिहासिक और चमत्कारिक जीत दिखाती है कि अमेरिका उसी तरह के एक क्षण से गुजर रहा है। राष्ट्रपति बनना तो दूर, अगर ओबामा चार-पांच दशक पहले होते तो शायद वे अमेरिका के किसी क्लब या होटल तक में प्रवेश नहीं कर सकते थे।

व्हाइट हाउस में बराक ओबामा के आने का सिर्फ सांकेतिक महत्व नहीं है। यह विजय इसलिए भी अद्वितीय है कि उनका मध्य नाम `हुसैन` है (हालांकि इस्लाम में उनकी आस्था विवाद का विषय है)। ऐसा हुसैन जो हनुमानजी की मूर्ति और मदर मेरी का प्रतीक-चिन्ह अपने सीने से लगाकर रखते हैं। उनकी विजय इसलिए भी यादगार है कि वे एक केन्याई पिता के पुत्र हैं। यह एक घटना अमेरिकी इतिहास की न जाने कितनी सामाजिक-सांस्कृतिक विडंबनाओं-विषमताओं को अपदस्थ करने जा रही है। वह अमेरिकी समाज की एकता और समरसता के नए मायने गढ़ने जा रही है, विश्व को पहले से अधिक करीब लाने जा रही है।

सदियों से दमन, हताशा, पीड़ा, गरीबी और उपेक्षा झेल रहे अश्वेत समुदाय को इन चुनावों ने ऐसे आत्मविश्वास से भर दिया है जो पहले कभी नहीं देखा गया। पहली बार उनकी दमित, दलित उमंगें शरीर और मन से बाहर निकलकर इस तरह अभिव्यक्त हुई हैं। हालांकि बराक ओबामा ने अपने चुनाव अभियान के दौरान कभी भी अपने अश्वेत होने का मुद्दा नहीं उठाया, शायद रणनीतिक समझदारी के तौर पर या फिर रंग और वर्ग की सीमाओं से ऊपर उठ चुके एक महान राजनेता के तौर पर, लेकिन दुनिया भर के अश्वेतों में अमेरिकी चुनाव ने एक युगांतरकारी संदेश भेजा है। समानता का संदेश, जो महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग के सपनों के सच होने की आश्वस्ति पैदा करता है। शायद दुनिया अब आत्म-श्रेष्ठता, असमानता और अहंवाद की राजनीति चलाने वालों के प्रभुत्व से मुक्त हो जाए। इन चुनावों में सिर्फ ओबामा ही क्षुद्र विभाजनों से ऊपर नहीं उठे हैं, पूरा अमेरिका ऊपर उठा है।

अमेरिकी समाज की बदलती संरचना

अमेरिकी समाज सिर्फ विचारों में ही नहीं, संरचना में भी बदल रहा है। अमेरिकी राजनीति में श्वेतों का पारंपरिक वर्चस्व धीरे-धीरे एक अधिक उदार और समानता-आधारित व्यवस्था की ओर आगे बढ़ रहा है। इसका एक बड़ा कारण वहां हो रहे जनसंख्यामूलक परिवर्तन भी हैं। अमेरिकी जनसंख्या ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2042 तक अमेरिका में श्वेत समुदाय अल्पसंख्यक हो जाएगा। वहां अश्वेतों, एशियाई समुदाय के लोगों और हिस्पैनिकों (उत्तर अमेरिका के मूल निवासी) संख्या में तेजी से और उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। हालांकि इस वृद्धि के लिए भी उस देश की बहुलतावादी और लोकतांत्रिक नीतियों को श्रेय दिया जाना चाहिए जो अमेरिका में सांस्कृतिक विविधता बढ़ाने के लिहाज से गढ़ी गई हैं। अमेरिका की तुलना खाड़ी देशों से करके देखिए जहां के मूल निवासी आप्रवासियों की तुलना में बहुत कम हैं लेकिन इस विशालकाय जनसंख्या-वर्ग का उन देशों की व्यवस्था या राजनीति में कोई दखल नहीं। अमेरिका में ऐसा नहीं है।

ओबामा की जीत के राजनैतिक और रणनीतिक मायने भी हैं। भले ही अमेरिका आज भी विश्व की सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति है लेकिन उसके प्रभुत्व के सामने स्पष्ट चुनौतियां उभर रही हैं। चीन के उदय, रूस की दोबारा जागती महत्वाकांक्षाओं, भारत जैसी आर्थिक शक्तियों के उभार और खाड़ी देशों की अपरिमित आर्थिक शक्ति की अनदेखी नहीं की जा सकती। आधुनिक विश्व इतिहास में संभवत: पहली बार अमेरिका दबाव में है। आम अमेरिकी मतदाता को लगता है कि मौजूदा नेताओं के पास उसके वैिश्वक प्रभुत्व को बनाए रखने के फार्मूले नहीं है। उन्हें ऐसे नेता की जरूरत है जिसकी लोकिप्रयता और स्वीकार्यता विश्वव्यापी हो। ऐसा नेता, जो अमेरिकी गौरव और वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने की क्षमता रखता हो। ओबामा की चुनावी परीक्षा हो चुकी है और प्रशासनिक परीक्षा होनी बाकी है। लेकिन उनके चमत्कारिक उदय ने अमेरिकियों और विश्व नागरिकों के मन में बहुत सी अनचीन्ही क्षमताओं की उम्मीद जगाई है।

जरूरत एक प्रखर नेता की

इस तथ्य को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि आज अमेरिकी राजनैतिक व्यवस्था संभवत: इस सदी के सबसे गंभीर आर्थिक और विकट राजनैतिक संकट से गुजर रही है। उपचार के पारंपरिक तौरतरीके लगभग निष्प्रभावी सिद्ध हो चुके हैं और बीमारी गंभीर से गंभीरतम होती जा रही हैं। अमेरिका को अपनी तकलीफों के इलाज के लिए नई पद्धतियों, नए विचारों, लीक से हटकर सोचने वाले नेतृत्व की जरूरत है। राष्ट्रपति चुनाव के ताजा मतदान के जरिए उसने एक ऐसी सामाजिक क्रांति कर दी है जिसके राजनैतिक और आर्थिक नतीजे भी ऐतिहासिक ही होंगे। न सिर्फ अमेरिका के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए। बराक ओबामा के पास भले ही सरकार चलाने का अनुभव न हो, लेकिन उन्होंने अमेरिका और विश्व की समस्याओं पर एक साफ-साहसिक समझबूझ का प्रदर्शन किया है। भले ही आपको उनके विचार अपने अनुकूल लगें या नहीं लेकिन उनका संदेश साफ है। वे विदेश नीति के जटिल मुÌों से लेकर आर्थिक गुित्थयों तक कहीं भी भ्रमित नजर नहीं आए हैं। राष्ट्रपति चुनाव की बहसों के दौरान जिस तरह उन्होंने अमेरिकी आर्थिक दुर्दशा, इराक-अफगानिस्तान-पाकिस्तान में अमेरिका की भूमिका, ग्लोबल वार्मिग, विदेश नीतियों, करों की स्थिति आदि पर जवाब दिए उससे जाहिर है कि उनके पास एक `राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक विज़न` है। अमेरिका ने इसी विजन पर दांव लगाया है।

यह युवा शक्ति की जीत भी है। अमेरिकी चुनावों में पारंपरिक रूप से नवदंपतियों, खासकर छोटे बच्चों के माता-पिता जिन्हें `बेबी बूमर्स` कहा जाता है, की निर्णायक भूमिका रही है। रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेट भी, इस समुदाय को प्रसन्न करने के लिहाज से नीतियां और कार्यक्रम बनाते हैं, उन्हें प्रचारित करते हैं। लेकिन इस बार अमेरिका के युवाओं, विशेषकर पहली बार मतदान का अवसर पाने वाले युवाओं ने ओबामा का खुले दिल से समर्थन किया। इकहत्तर साल के जॉन मैक्कैन की तुलना में युवा, ऊर्जावान और प्रखर वक्ता बराक ओबामा स्वाभाविक रूप से दिलों के अधिक करीब थे। इस वर्ग ने मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और इसीलिए इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में मतदान का प्रतिशत भी बहुत अच्छा रहा। अमेरिकी युवा वर्ग ने बराक ओबामा के मतपत्र पर ही नहीं बल्कि शीर्ष स्तर पर एक साहसिक एवं नई शुरूआत के हक में और समानता एवं बहुलवाद पर केंद्रित व्यवस्था के पक्ष में भी मोहर लगाई है। सामाजिक-राजनैतिक क्रांतियां रक्तरंजित ही हों और गृहयुद्धों के जरिए ही आएं यह जरूरी नहीं है। इस चुनाव ने दिखाया है कि वे मतपत्रों के रास्ते से भी आती हैं।

4 comments:

संजय बेंगाणी said...

काला रंग बाधा न बन इस बार सहानुभूति दिला गया.

अच्छा लेख.

Kavita Vachaknavee said...

सच्चा लोकतन्त्र प्रमाणित किया है वहाँ की जनता ने। हमारे यहाँ तो छ्द्मधर्मनिर्पेक्षता, निम्नातिनिम्न पतित आचरण और चमड़ी-दमड़ी की मानसिकता ने लोकतंत्र की समूची हत्या कर दी हुई हैऔर तिस पर हम अपने लोकतंत्र पर इतराते हैं।

योरोप अमेरिका में सब सकारात्मक परिवर्तन हो रहे हैं, पहले जर्मनी एक हुआ( क्या भारत - पाकिस्तान ब्ांग्लादेश कभी इस तरह एक हो सक्ने की कल्पनाभी कर सकते हैं, जैसे पश्चिमी जर्मनी ने अने को खोखला कर के भी पूर्वी जर्मनी वालों को उनके बराबर अधिकार दिए),मुद्रा एक स्थिर की गई, अब यह नस्लवाद की करारी पराजय हुई आदि आदि।

.....और हमारे यहाँ दिन पर दिन अधिक खाइयाँ! हमारा झूठा लोकतंत्र नाटकबाज छद्मधर्मनिरपेक्षों की मुठ्ठी का कैदी।

Kavita Vachaknavee said...

सच्चा लोकतन्त्र प्रमाणित किया है वहाँ की जनता ने। हमारे यहाँ तो छ्द्मधर्मनिरपेक्षता, निम्नातिनिम्न पतित आचरण और चमड़ी-दमड़ी की मानसिकता ने लोकतंत्र की समूची हत्या कर दी हुई है और तिस पर हम अपने लोकतंत्र पर इतराते हैं।

योरोप अमेरिका में सब सकारात्मक परिवर्तन हो रहे हैं, पहले जर्मनी एक हुआ( क्या भारत - पाकिस्तान बाँग्लादेश कभी इस तरह एक हो सकने की कल्पना भी कर सकते हैं, जैसे पश्चिमी जर्मनी ने अपने को खोखला कर के भी पूर्वी जर्मनी वालों को उनके बराबर अधिकार दिए),मुद्रा एक स्थिर की गई, अब यह नस्लवाद की करारी पराजय हुई आदि आदि।

.....और हमारे यहाँ दिन पर दिन अधिक खाइयाँ! हमारा झूठा लोकतंत्र नाटकबाज छद्मधर्मनिरपेक्षों की मुठ्ठी का कैदी।

Anonymous said...

एक बेहतरीन लेख!

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- लोकलाइजेशन लैब्सहिंदी में सूचना प्रौद्योगिकीय विकास
- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com