भारत के लिए यक्ष प्रश्न यह है कि वह पाकिस्तान के संदर्भ में अपनी सैद्धांतिक स्थिति से आखिर किस आधार पर हटे? जिस बातचीत की सार्थकता उसके शुरू होने से पहले ही संदिग्ध है उसे क्यों और कैसे शुरू करे?
बालेन्दु शर्मा दाधीच
भारत पर पाकिस्तान के साथ टूटी हुई समग्र वार्ता की प्रक्रिया दोबारा शुरू करने का दबाव है। अमेरिकी प्रशासन चाहता है कि मुंबई के आतंकवादी हमलों के बाद पैदा हुआ तनाव कम हो जो वार्ता की बहाली से ही संभव है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी भी इसके लिए इच्छा जता चुके हैं और वे बाकायदा इसके लिए भारत से आग्रह की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि आपसी दूरियां और तनाव मिटाने के लिए वैचारिक आदान प्रदान के औचित्य पर कोई संदेह नहीं है लेकिन भारत सरकार के लिए यक्ष प्रश्न यह है कि वह पाकिस्तान के संदर्भ में अपनी सैद्धांतिक स्थिति से आखिर किस आधार पर हटे और अगर दोनों देशों के बीच बातचीत हो तो क्या हो?
भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद के मुद्दों की कभी कमी नहीं रही लेकिन जो मुद्दा पिछले पच्चीस साल से हल होने का नाम नहीं ले रहा, वह है आतंकवादी गुटों को पाकिस्तानी राज्य का सक्रिय समर्थन। जब तक पाकिस्तानी शासक, वहां की फौज और आईएसआई भारत को केंद्र बनाकर चलने वाले आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक कदम नहीं उठाती, दोनों देशों के संबंधों में किसी उल्लासपूर्ण एवं स्थायी बदलाव की संभावना नहीं है। अमेरिका और पाकिस्तान दोनों को इस बात का अहसास नहीं है कि आतंकवादियों के हाथों हजारों नागरिकों को खो देने वाले इस देश की जनता के लिए आतंकवाद और उसके प्रति पाकिस्तान का परोक्ष किंतु आधिकारिक समर्थन कितना बड़ा भावनात्मक मुद्दा है। एक ओर पाकिस्तान हाफिज मोहम्मद सईद जैसे आतंकवादी को, जिसे भारत का शत्रु समझा जाता है, जेल से रिहा करता है तथा वहां के प्रधानमंत्री कश्मीर में चल रहे आंदोलन को नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक और राजनयिक समर्थन देते रहने की बात कहते हैं। दूसरी तरफ वही पाकिस्तान भारत सरकार के साथ बातचीत करना चाहता है। ऐसे में भला बातचीत हो तो कैसे?
कहां है पाकिस्तानी सदाशयता?
अमेरिका को भारत पर वार्ता शुरू करने का दबाव डालते रहने की बजाए यह समझने की भी जरूरत है कि दक्षिण एशिया में जमीनी हालात में कोई बदलाव नहीं आए हैं। तालिबान के संदर्भ में भले ही पाकिस्तान का रुख बदलने का दावा किया जा रहा हो, भारत के विरुद्ध आतंकवादियों को कभी छद्म युद्ध के सैनिकों और कभी अपनी अग्रिम सुरक्षा पंक्ति के तौर पर इस्तेमाल करने वाले पाकिस्तानी तंत्र की सामरिक रणनीति या दीर्घकालीन सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। पाकिस्तान ने भले ही अमेरिका से अर्जित ज्ञान के आधार पर स्वीकार कर लिया हो कि भारत उसके अस्तित्व के लिए खतरा नहीं है, लेकिन वह खुद भारत के लिए बड़े से बड़े खतरे में तब्दील होता जा रहा है। न सिर्फ आतंकवाद के प्रति समर्थन जारी रखकर बल्कि अपने परमाणु हथियारों के जखीरे में तेजी से बढ़ोत्तरी करके भी, जिसकी पुष्टि स्वयं अमेरिका ने की है। मुंबई कांड के संदर्भ में भी तमाम दबावों और अपने बार-बार बदलते बयानों के बावजूद पाकिस्तान ने अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। आखिर किस सदाशयता के आधार पर पाकिस्तान से बात की जाए?
भारत आतंकवाद के अपने मुद्दे पर अडिग है क्योंकि पाकिस्तान के अपने हालात को देखते हुए वह इस दुष्चक्र को और अधिक समय तक पनपने नहीं दे सकता। हमें निशाना बनाने वाले लश्करे तैयबा (दिखाने के लिए जमात उद दावा), हिज्बुल मुजाहिदीन, जैशे मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन अब अलकायदा के विश्वव्यापी नेटवर्क का हिस्सा हैं, जिसमें तालिबान और दाऊद इब्राहीम तक शामिल हैं। वे पहले से अधिक कट्टर, प्रतिबद्ध और शक्तिशाली होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, वे भारत के भीतर भी अपनी जड़ें फैलाने में लगे हैं और कश्मीर तथा कुछ अन्य इलाकों के गुमराह युवकों को आतंकवादी लक्ष्यों की ओर खींचने में कामयाब हो रहे हैं। इससे पहले कि यह महामारी हमें पाकिस्तान जैसी स्थिति में धकेले, उसे अपनी जड़ों में ही समाप्त किए जाने की जरूरत है। अमेरिका ने जिस तरह पाकिस्तान को तालिबान के सफाए के लिए मजबूर किया है, उस माहौल में वह आतंकवाद के विरुद्ध स्टैंड लेने के लिए मजबूर है, भले ही वह दिखावटी ही क्यों न हो। भारत के लिए कल की तुलना में यह अनुकूल स्थिति है। पाकिस्तान के लिए लश्कर, जैश और हिज्बुल मुजाहिदीन के लिए खुला सामरिक समर्थन देना मुश्किल होता जा रहा है। जरूरत है कि अमेरिका के जरिए या फिर कूटनीतिक दबाव के जरिए भारत उसे इन संगठनों के विरुद्ध स्पष्ट कार्रवाई के लिए मजबूर करे।
मुंबई के बाद का सन्नाटा
मुंबई के आतंकवादी हमलों में पाकिस्तानियों का हाथ जिस बेशर्मी के साथ पूरी दुनिया के सामने स्पष्ट हुआ उसका असर भारत में आतंकवादी गतिविधियों में कमी आने के रूप में सामने आया है। शायद इसलिए कि आतंकवादियों की रीढ़ बना हुआ पाकिस्तानी तंत्र फिलहाल तालिबान के संदर्भों में व्यस्त है। या इसलिए कि पाकिस्तानी तंत्र 26 नवंबर की घटना के बाद ऐसी ही किसी अन्य विध्वंसात्मक कार्रवाई के अंतरराष्ट्रीय परिणामों का जोखिम लेने की स्थिति में नहीं है। मुंबई के हमलों के बाद आतंकवाद के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय समन्वय में जो मजबूती आई है उसे देखते हुए आतंकवादी घटना के लिए जिम्मेदार लोगों का परदे के पीछे छिपा रहना संभवत: उतना आसान नहीं रहा। पाकिस्तान के विरुद्ध भारत का कूटनीतिक और राजनैतिक दबाव काम कर रहा है।
पाकिस्तान के लिए भारत के साथ समग्र वार्ता शुरू करना एक मजबूरी है। यह उसे उस कोष्ठक से बाहर निकालती है जिसमें वह आतंकवादी ताकतों के साथ डाल दिया गया है। वैश्विक दबाव के बीच वह अपने आप को एक लोकतांत्रिक एवं जिम्मेदार राष्ट्र सिद्ध करने की अनिवार्यता का सामना कर रहा है। भारत के नरम पड़ने से वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैधता और कूटनीतिक लाभ की स्थिति में आ जाता है। उसी तरह का लाभ जो लंबे समय तक परवेज मुशर्रफ की सरकार के साथ संपर्क न रखने के बाद अचानक उससे बातचीत शुरू कर भारत ने उसे पहुंचाया था। लेकिन भारत की स्थिति विपरीत है। जैसे ही वह समग्र वार्ता शुरू करता है, पाकिस्तान के विरुद्ध कूटनीतिक दबाव के समापन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इतना ही नहीं, आतंकवाद के विरुद्ध उसकी सैद्धांतिक स्थिति भी क्षीण होती है।
बहरहाल, कारगिल युद्ध और संसद पर हमले के बाद हम इसी तरह की स्थिति देख चुके हैं जब भारत न चाहते हुए भी पाकिस्तान से संबंध सामान्य बनाने के लिए मजबूर हो जाता है। हो सकता है कि उसे इस बार भी अपने रुख में नरमी लाते हुए बातचीत की मेज पर आना पड़े। उस पर बराक ओबामा प्रशासन का निरंतर दबाव है और हिलेरी िक्लंटन की आगामी भारत यात्रा के दौरान यह और बढ़ेगा। बहरहाल, क्या हम पाकिस्तान से सिर्फ बातचीत के लिए बातचीत करना चाहते हैं? यह जानते हुए भी कि ऐसी वार्ताएं मौजूदा हालात में किसी सार्थक परिणति पर नहीं पहुंच सकतीं? जरूरत है कि मुंबई के हमलों के बाद भारत ने जिस दृढ़ता के साथ पाकिस्तान के विरुद्ध स्टैंड लिया था, उस पर तब तक कायम रहे जब तक कि उसके लिए प्रेरित करने वाली परिस्थितियां नहीं बदलतीं। फिलहाल तो ऐसा कुछ नहीं दिखता।
Thursday, June 11, 2009
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