Sunday, August 2, 2009

'बहुत बड़ी भूल' है पर 'सबसे बड़ी भूल' नहीं

भाजपा नेता यशवंत सिन्हा ने शर्म अल शेख के बयान को भारतीय विदेश नीति की सबसे बड़ी भूल करार दिया है। मुझ जैसे अनगिनत लोग इस बयान को प्रधानमंत्री की बहुत बड़ी गलती मानते हैं लेकिन क्या यह हमारी अब तक की सबसे बड़ी गलती है? यह बात मान ली जाए तो फिर इतिहास में हुई बहुत बड़ी और अक्षम्य गलतियां बहुत छोटी बन जाएंगी।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

भारत और पाकिस्तान के ताजा संयुक्त बयान पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान भाजपा नेता यशवंत सिन्हा के आक्रामक और परिश्रम से तैयार किए गए भाषण ने सबका ध्यान खींचा है। उन्होंने शर्म अल शेख में जारी बयान के लिए प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह की आलोचना करते हुए यह भी कहा कि भारत के इतिहास में विदेश नीति से संबंधित यह अब तक की सबसे बड़ी भूल है। भारत.पाक संयुक्त बयान के भावी प्रभावों और निहितार्थों पर उनके साथ सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या सचमुच यह भारतीय विदेश नीति की अब तक की सबसे बड़ी भूल है? इस बात को स्वीकार करने का अर्थ शायद अतीत में इससे भी बड़ी भूलें, त्रुटियां और गलतियां करने वाले नेताओं को अपराध बोध से मुक्त कर देना होगा।

यशवंत सिन्हा के आकलन को जस का तस स्वीकार कर लेना भारतीय राजनीति के इतिहास को अल्पदृष्टि से देखना होगा। इसका अर्थ उन अनेक अक्षम्य गलतियों को बहुत छोटा करके आंकना होगा जिन्होंने भारत की राजनीति, इतिहास और भूगोल ही बदल दिया।

इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ॰ सिंह और उनकी टीम से मिस्र में हुई गलती राष्ट्रीय हितों पर दूरगामी प्रभाव डालेगी। शायद खुद उन्हें भी अब इसका अहसास हो चला है। उससे भी बड़ी गलती यह है कि इसे सत्ता तंत्र ने हल्के अंदाज में लिया जो पूवर् विदेश सचिव शिवशंकर मेनन के इस बयान से जाहिर है कि संभवत: यह 'बैड ड्राफ्टिंग' के कारण हुई भूल है। लेकिन फिर भी, यह भारत द्वारा की गई 'अब तक की सबसे बड़ी गलती' नहीं है। कारण, यदि यही हमारी सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल है तो फिर वह क्या थी जिसकी वजह से नेहरूजी अपने जीवन के अंतिम दिन संतोष के साथ नहीं काट पाए और डॉक्टरों के अनुसार, भारी मानसिक तनाव के चलते असामियक निधन के शिकार हुए?

ऐतिहासिक भूलों की कमी नहीं

भारतीय नीति नियंताओं से हुई भूलों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। ऐसी भूलें जिन्हें न लोगों ने भुलाया और न ही उन्हें अंजाम देने वाले कभी आत्म.ग्लानि के बोध से उठ सके। पहली सबसे बड़ी भूल तो संभवत: वह थी जब तमाम प्रतिरोध के बावजूद विवशता के साथ हमारे राष्ट्रीय नेताओं को 1947 में देश का विभाजन स्वीकार करना पड़ा था। मुस्लिम नेता मोहम्मद अली जिन्ना की शातिराना योजना और ब्रिटिश सत्ताधारियों की चाल में आकर भारी दबाव के बीच भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों के जन्म पर सहमति जताते समय महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और अन्य नेताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि इसकी परिणति कुछ ही महीने बाद लाखों लोगों की मौतों के रूप में होगी और कश्मीर मुद्दे पर यही दोनों देश अपने जन्म के छह दशक बाद भी एक.दूसरे के खून के प्यासे होंगे।

दोनों राष्ट्रों के जन्म के बाद भी कश्मीर का मसला अनसुलझा बना रहा और 'इधर, उधर या कहीं नहीं' की उलझन में पड़े महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान को 1947 में जम्मू और कश्मीर पर हमला करने का मौका दे दिया। पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे में उसी तरह कोई पार्टी नहीं था जैसे कि भारत। किंतु पाकिस्तान के हमले की बात जानते हुए भी भारतीय नेताओं ने वहां दखल करने से पहले तब तक इंतजार किया जब तक कि पाकिस्तानी फौजें मुजफ्फराबाद पर कब्जे के बाद बढ़ते.बढ़ते श्रीनगर के करीब पहुंचने की स्थिति में नहीं आ गईं। महाराजा हरि सिंह के फैसले के बाद ही भारत ने दखल कर पाकिस्तानी फौज और उसके कबायली साथियों को खदेड़ा लेकिन फिर भी कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा उनके कब्जे में छोड़ दिया गया। हमने पहले भारत का और अब कश्मीर का विभाजन स्वीकार कर लिया था। क्या यह ऐतिहासिक भूल नहीं थी?

नेहरूजी ने कुछ शर्तों के साथ संयुक्त राष्ट्र में यह बात स्वीकार की थी कि भारत कश्मीर में जनमतसंग्रह कराने को तैयार है। इस ऐतिहासिक भूल का हिसाब पाकिस्तान आज तक मांग रहा है। इसने कश्मीरी अलगाववादियों की मांगों को सैद्धांतिक आधार दिया और भारत के लिए वह चुनौती पैदा की जो आज तक कायम है।

बात चीन की भी हो जाए

हमारी विदेश नीति से जुड़ी सारी गलतियां पाकिस्तान के संदभ्र में ही नहीं हैं। चीन के लिहाज से भी हमारे नेताओं ने जो ऐतिहासिक गलतियां कीं उन्हें आज हम और आने वाले वषर्ों में हमारी भावी पीढि़यों को भोगना है। पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व में हमने चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने में समर्िपत भाव से मदद की। हिंदी.चीनी भाई.भाई और पंचशील दोनों देशों के संबंधों की आधारशिला बने और नेहरूजी ने उसी चीन को भारत का सबसे नि:स्वार्थ मित्र समझा जिसने कुछ वर्ष बाद भारत पर हमला करने में कोई संकोच नहीं दिखाया। हो सकता है कि उनके स्थान पर कोई अन्य नेता होता तो वह भी उन परिस्थितियों में वही करता। लेकिन 1962 में चीन के हाथों हुई लज्जाजनक पराजय ने आम भारतीय के मानस पर गहरा आघात लगाया, जो आज तक दूर नहीं हुआ। पहले चीन को मित्र समझना और फिर बिना किसी सैनिक तैयारी के उसके साथ युद्ध का सामना करना क्या हमारे इतिहास की सबसे बड़ी गलती नहीं है?

नेहरूजी की भलमनसाहत से कोई शिकायत नहीं है लेकिन संभवत: एक राजनेता के तौर पर वे आसन्न खतरों को भांपने में नाकाम रहे। कहा जाता है कि चीन का विश्वासघात ही नेहरूजी के असमय निधन का कारण बना। जिन्हें उन्होंने भारत और स्वयं अपना गहरा मित्र समझा था उन्होंने दोनों को पूरी दुनिया में लज्जित किया। नेहरूजी की मौजूदगी में संसद में कसम खाई गई कि हम चीन से भारत की एक.एक इंच भूमि वापस लेंगे। वह कसम कब पूरी होगी?

इन ऐतिहासिक गलतियों के सामने भारत.पाक संयुक्त बयान की बुरी ड्राफ्टिंग तो शायद उल्लेख के योग्य भी नहीं!

लगे हाथ कुछ अन्य ऐतिहासिक भूलों को भी याद कर लेने में हर्ज नहीं है. बाद के युद्धों में मौका मिलने के बावजूद कश्मीर का पाक.अधिकृत क्षेत्र आजाद न कराया जाना, परवेज मुशर्रफ को उस समय पाकिस्तान के नेता के रूप में मान्यता देना जब पूरी दुनिया ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था, राजीव गांधी के सत्ता काल से पहले और उस दौरान श्रीलंका की अलगाववादी समस्या में हमारी भूमिका,, पहले परमाणु विस्फोट के समय ही पूण्र परमाणु शक्ति ्में बदलने की बजाए कई दशक तक इंतजार करना, पाकिस्तानी राष्ट्रपति के रूप में परवेज मुशर्रफ को आगरा बुलाया जाना और सीमा पर साल भर तक सेना को तैनात रखकर बिना किसी स्पष्ट उपलब्धि या परिणाम के उसे वापस बैरकों में भेजा जाना आदि आदि। यशवंत सिन्हा यदि इन सभी भयानक भूलों के साथ शर्म अल शेख की घटना को रखकर देखें तो शायद वे भारतीय विदेश नीति की कमियों को ज्यादा समग्रता, स्पष्टता और निष्पक्षता के साथ परिभाषित कर पाएंगे।

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इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com