Thursday, August 6, 2009

हिंदी सिर्फ साहित्य नहीं है

दुर्भाग्य से, हिंदी की राजनीति में विभाजन किसी एक मुद्दे पर नहीं है। वहां विभाजनों की दर्जनों धाराएं और उपधाराएं विद्यमान हैं। कहीं यह टकराव वाम और दक्षिण के बीच में है, कहीं उच्च-साहित्य और निम्न-साहित्य के बीच में है, कहीं पुस्तकीय और मंचीय रचनाधर्मिता के बीच में तो कहीं साहित्यिक हिंदी-सेवा और असाहित्यिक हिंदी-सेवा के बीच में। और तो और विभिन्न विधाओं का प्रतिनिधित्व करने वालों के बीच भी द्वंद्व, अंतद्वंद्व और प्रतिद्वंद्व हैं। फिर वाम में भी अति-वाम और मॉडरेट-वाम का टकराव मौजूद है। अशोक चक्रधर की नियुक्ति के बाद एक बार फिर इस टकराव की बानगी दिखाई दे गई है

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

जो स्वनामधन्य साहित्यकार दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में कवि.शिक्षाविद् अशोक चक्रधर की नियुक्ति पर विवाद खड़ा कर कर रहे हैं, संभवत: उन्होंने यह तय मान लिया है कि हिंदी और उसकी संस्थाएं सिर्फ एक 'खास किस्म के' साहित्य सृजन में लगे रचनाकारों के लिए हैं और किसी दैवीय वरदान के तहत इन संस्थानों पर उनका नैसर्गिक एकाधिकार बनता है।

हिंदी सिर्फ साहित्य नहीं है। हिंदी तो लगभग आधे भारतीयों की अभिव्यक्ति की जीवनधारा है, जो जरूरी नहीं कि साहित्य (वह भी एक खास और 'उत्कृष्ट' किस्म के साहित्य) से ही ताल्लुक रखते हों। हिंदी की संस्थाएं 'हिंदी भाषा' (साहित्य समाहित) का प्रतिनिधित्व करती हैं इसलिए वे परोक्षत: ही सही, उन सबका भी प्रतिनिधित्व करती हैं जिनके दैनिक, पेशेवर एवं रचनात्मक जीवन में हिंदी की अहम भूमिका है।

यदि आज एक वर्ग हिंदी संस्थाओं पर अपने पारंपरिक प्रभुत्व को फिसलता महसूस कर रहा है तो सिर्फ इसलिए नहीं कि हिंदी अकादमी में श्री चक्रधर की नियुक्ति हुई है। यह इसलिए भी है कि कभी इस और कभी उस अकादमी को अपने नियंत्रण में रखने वाले इन महाप्राणों ने अपने अनंत काल के प्रभुत्व के दौरान हिंदी की तरक्की के लिए कोई नई जमीन तोड़कर नहीं दिखाई है। उनके कार्यकालों में हिंदी की जर्जर इमारत पर थोड़े जाले और लग गए हैं, थोड़ी जंग और जम गई है। ऐसे बदलाव होने पर उनका कामकाज स्क्रूटिनी के दायरे में आता है। हिंदी को यदि दशकों से जमे पानी वाले तालाब की स्थिति से बाहर निकलना है तो उसे कुछ साहसिक और स्वाभाविक बदलावों की जरूरत है।

ऐसा नहीं कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को श्री चक्रधर की नियुक्ति का निर्णय करते समय इन प्रतिक्रियाओं का अनुमान नहीं होगा। सावर्जनिक जीवन में पांच दशक बिताने और लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतने वाली राजनैतिक शख्सियत हिंदी साहित्य की राजनीति और उसके भीतर विचारधारात्मक विभाजनों के अंडर.करेंट से अनजान हों, ऐसी गलतफहमी किसी को नहीं होनी चाहिए। दुर्भाग्य से, हिंदी की राजनीति में विभाजन किसी एक मुद्दे पर नहीं है। वहां विभाजनों की दर्जनों धाराएं और उपधाराएं विद्यमान हैं। कहीं यह टकराव वाम और दक्षिण के बीच में है, कहीं उच्च-साहित्य और निम्न-साहित्य के बीच में है, कहीं पुस्तकीय और मंचीय रचनाधर्मिता के बीच में तो कहीं साहित्यिक हिंदी-सेवा और असाहित्यिक हिंदी-सेवा के बीच में। और तो और विभिन्न विधाओं का प्रतिनिधित्व करने वालों के बीच भी द्वंद्व, अंतद्वंद्व और प्रतिद्वंद्व हैं। फिर वाम में भी अति-वाम और मॉडरेट-वाम का टकराव मौजूद है।

हिंदी अकादमी को छोड़ दीजिए, इस भाषा और उसके साहित्य से जुड़ी कौनसी संस्था है जिसके शीर्ष पर नियुक्त किसी व्यक्ति ने समग्र साहित्यकार बिरादरी में निर्विवाद, बिना-शर्त और सावर्त्रिक अनुमोदन पाया है? ये सभी धाराएं यदि एक साथ आती हैं तो सिर्फ उस समय जब उनके समन्वित हितों को झटका लगता है। काश इसी किस्म की वैचारिक एकता हिंदी के विकास से जुड़े मुद्दों और कामों के लिए भी होती!

एक अच्छी पहल

पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान अशोक चक्रधर ने संकल्प लिया था कि अब वे हिंदी के साहित्यकारों को कंप्यूटर से परिचित कराने के काम में जुटेंगे क्योंकि इसके बिना उनके पीछे छूटे रह जाने का खतरा है। हिंदी और उसके रचनाकर्मियों का नए जमाने के साथ तालमेल बिठाना जरूरी है। अशोक तभी से जयजयवंती के कायर्क्रमों के जरिए इस यज्ञ में हाथ बंटा रहे हैं। हिंदी की पाठ्यसामग्री को अधिक रुचिकर और ग्राह्य बनाने की दिल्ली विश्वविद्यालय की परियोजना में उनका योगदान किसी से छिपा हुआ नहीं है। और हिंदी के तकनीकी अनुप्रयोगों के विकास में एक साहित्यकार, भाषायी विद्वान और तकनीक प्रेमी के रूप में उन्होंने जो योगदान दिया है, वह प्रशंसा के योग्य है। एक साहित्यकार, लेखक, हास्य कवि, नाटककार और शिक्षाविद् के रूप में तो वे पिछले पांच दशकों से हिंदी की सेवा कर ही रहे हैं जो उनकी लोकिप्रय कृतियों की लंबी सूची और मंच पर उन्हें सुनने वाले समर्पित श्रोताओं की भीड़ से जगजाहिर है।

हाँ, श्री चक्रधर का संबंध राजनीति के दिग्गजों से भी हैं। क्या ये संबंध, या आजीविका के लिए उनका हास्य कविता पर निर्भर होना कोई बुरी बात है? अधिक सक्रिय व्यक्ति के अधिक संपर्क होने स्वाभाविक हैं। समस्या तब होती है जब हम दूसरों का आकलन करते समय उसी उदारता का परिचय नहीं देना चाहते जो हम स्वयं अपने आकलन के लिए करते हैं।

कुछ साहित्यकारों ने श्री चक्रधर की नियुक्ति से रुष्ट होकर त्यागपत्र दे दिए और कुछ ऐसा करने की तैयारी में हैं। मुझ जैसे साहित्य के अध्येता को यह बड़ा अटपटा लगता है। यदि हिंदी का कल्याण और उसकी सेवा ही किसी का उद्देश्य है तो अशोक चक्रधर के आने या न आने से उसे क्या फर्क पड़ना चाहिए? आप अपना कल्याणकारी एजेंडा जारी रखिए। कोऊ नृप होय हमें का हानी? आपकी सेवाभावी गतिविधियों को रोकने की भला किसी की क्या मंशा होगी और उन्हें रोककर किसी का क्या स्वार्थ सिद्ध होगा?

अकादमियों के जरिए हिंदी का कल्याण करने वाले स्वनामधन्य साहित्यसेवियों से पचीसों गुना बड़ी संख्या उन लोगों की है जो बिना किसी स्वार्थ, नाम या अन्य आकांक्षा के किसी न किसी रूप में हिंदी के हक में काम कर रहे हैं। पत्रकार के रूप में, साहित्यकार के रूप में, शिक्षक के रूप में, भाषा-विज्ञानी के रूप में, हिंदी-तकनीकविद् के रूप में, प्रचारक के रूप में, अनुवादकों के रूप में और राजभाषा क्रियान्वयन से जुड़े अधिकारियों के रूप में। इसी करोड़ों की भीड़ में मुझ जैसे लोग भी हैं जिन्हें श्री चक्रधर के हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने से अपने अभीष्ट की प्राप्ति में लेशमात्र भी रुकावट महसूस नहीं होती। यदि हिंदी की सेवा ही आपका उद्देश्य है तो किसी एक पद पर किसी की नियुक्ति का विरोध करने से आप अपना कार्य किस तरह अधिक बेहतर ढंग से कर पाएंगे, यह हम नादान हिंदी साधकों की समझ से बाहर है।

बहस का स्तर

हिंदी के साधक को फर्क तब पड़ता है जब वह यह देखता है कि जो उच्च.स्तरीय साहित्य की रचना का आत्म.मुग्ध दावा करते हैं वे 'विदूषक' जैसे शब्दों का प्रयोग कर बहस को निचले स्तर तक ले आते हैं। इसके बाद किसी सार्थक तर्क.वितर्क का रास्ता बंद हो जाता है। अफसोस, कि हिंदी की साहित्यियक बहसें इस स्तर तक आ गिरी हैं। साहित्य की किसी भी विधा को दूसरी से छोटी करके आंकने की प्रवृत्ति हिंदी का भला करने वाली नहीं है। कितने दशकों से हम सब इस बात पर बहस करते आए हैं कि हिंदी और उसके साहित्य को समावेशी बनने की जरूरत है, अपना दायरा और सोच बढ़ाने की जरूरत है!

प्रसंगवश, यह जानना दिलचस्प होगा कि हिंदी संस्थाओं पर नियंत्रण के दौरान विभिन्न शख्सियतों ने अब तक ऐसा क्या विशेष कर दिया जो एक नए उपाध्यक्ष के आने से रुक जाएगा? एकाध कवि सम्मेलन, पुरस्कार, दो.चार सेमिनार. गोष्ठियां और चंद बोझिल, अपठनीय पुस्तकों, पत्रिकाओं का प्रकाशन, जिनके पाठकों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है? हिंदी के कितने पाठकों से वे जुड़ी हुई हैं? हिंदी के कितने छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों तक उनकी पहुंच है? हिंदी साहित्यकारों के कल्याण के लिए उन्होंने क्या किया है? जब कोई त्रिलोचन पूरी दुनिया से उपेक्षित मृत्युशैया पर पड़ा होता है तब ये संस्थाएं किन महत्वपूर्ण गतिविधियों में लगी होती हैं? उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की बिक्री और पाठकीय स्थिति क्या है? उनकी संगोष्ठियों के परिणामस्वरूप हिंदी की साहित्यिक समृद्धि, शब्द-समृद्धि और लोकप्रियता में कितनी वृद्धि हुई है?

हिंदी अकादमी जैसी संस्थाओं की जड़ता को भंग करने के लिए ऐसे व्यक्तित्वों की जरूरत है जिसके पास हिंदी के लिए एक विज़न, एक दृष्टि हो। जो सक्रिय तो हों ही, नयापन लाने का उत्साह और ऊर्जा भी रखते हों, जिनमें असहमत होने का साहस हो, जिन्हें साहित्य की गहरी समझ हो किंतु जिनके लिए हिंदी की परिभाषा सिर्फ साहित्य पर शुरू और साहित्य पर ही समाप्त न होती हो। जो हिंदी के व्यापक दायरे को महसूस करेगा वही तो उसे और विस्तार देने का प्रयास कर पाएगा!

19 comments:

Anshu Mali Rastogi said...

अभी इनका स्तर और गिरेगा बस इंतजार करें।

संजय बेंगाणी said...

हिन्दी की राह में बाधा बनती संस्थाओं को ही भंग कर दें....


अशोकजी जड़ता को तोड़ पाएं,ऐसी कामना है. हमारी शुभकामनाएं.

Kavita Vachaknavee said...
This comment has been removed by a blog administrator.
Kavita Vachaknavee said...

कृपया `वार' को `वाले' के रूप में सुधार कर पढ़ें|

Udan Tashtari said...

निश्चित ही अशोक जी की नियुक्ति एक नये युग की शुरुवात है और उन तथाकथित मठाधिशों को यह बर्दाश्त नहीं कि कोई उनके राजपाठ में नयापन लाकर हलचल मचाये.

मेरी समस्त शुभकामनाऐं अशोक जी के साथ. उनके आने से अनेक संभावनाओं के द्वार खुले हैं.

दिनेशराय द्विवेदी said...

मुझे लगता है अशोक जी अच्छा काम कर दिखाएंगे और विरोधियों को अच्छा उत्तर यही होगा।

सतीश पंचम said...

यहां ध्यान देने वाली यह बात है कि अशोक जी चाहते हैं कि हिंदी वाले इन साहित्यकारों को कम्प्यूटर में दक्ष होना चाहिये अन्यथा वे पिछड सकते हैं

- ये होती है मार्के की बात। इसे कहते हैं दूरदृष्टि। अब भी अगर चिल्ल पौं मचाने वाले लोग अशोक जी के विचारों को न समझ पायें या समझकर भी अंजान बनना चाहें तो कोई क्या कर सकता है।

मेरी ओर से अशोकजी को शुभकामनाएं।

विवेक रस्तोगी said...

हमारे यहाँ कोई भी सिस्टम को न सुधारता है और न ही सुधारने देता है, पर अगर सुधर जाता है तो कहेंगे कि हमें भी पता था कि इसके इतने फ़ायदे होते हैं, अब देखिये चकल्लस की सफ़लता को ये विरोधी किस मायने में देखते हैं।

अभिनव said...

नमस्कार बालेंदुजी,

आपका आलेख पढ़ कर यह धारणा और सुदृढ़ हुयी की यदि कोई आदमी बढ़िया काम करे तो उस पर पत्थर फेंकने के लिए हज़ार लोग खड़े हो जाते हैं. वहीं यदि कोई निष्क्रिय रहे तो सब खुश रहते हैं. अब यह बात समाज के हर वर्ग, जाति, संस्था में दिखाई देती है. हमारा साहित्य इससे अछूता कैसे रह सकता है. साहित्य तो समाज का दर्पण है.
मुझे नहीं पता की किस किस नें अपने इस्तीफे दिए हैं और कौन कौन सोच रहे हैं. पर मन में ये भाव अवश्य है की जो सोच रहे हैं वे देर न करें जल्दी दे दें ताकि स्तिथि में कुछ सुधार लाया जा सके.

अशोकजी को अनेक शुभकामनाएं.

अभिनव

अविनाश वाचस्पति said...

जड़ता को आने से अशोक जी के
हो गया है शोक
इसलिए वो इस्‍तीफों की
आंखों से रही है विलोक।

राजीव तनेजा said...

चक्रधर जी को अनेकों अनेक शुभकामनाएँ

इरशाद अली said...

प्रिय बालेन्दु जी,
सिक्के के एक तरफ देखा जा रहा है। ज़रा सा बाहर आने की जरूरत है, अशोक जी एक बेहतरीन इंसान है, हिन्दी के लिये खुब काम करते है, हिन्दी को हाईटेक बनाने के उनके प्रयास सभी हाईटेक लोग जानते भी है। अकादमी में उनके विरोध के पीछे के कारण को समझना चाहिये। अशोक जी एक मंचीय कवि के रूप में विख्यात है, ना कि-किसी साहित्यकार के रूप में। आपने कविता में ड्रामें के पुट को डाला है, साहित्य की गम्भीरता के प्रर्दशन को आप नही ला पाये हैं। बालेन्दु जी,
मंच के अधिकांशत कवि लालसा की चाह रखते है, और हास्य के मामले में तो एक विदूषक के बराबर की छवि को दिखाते है, ऐसे में अशोक जी को भी इस बात का खमियाजा तो उठाना ही पड़ेगा। वे कवि सम्मेलनों को उस स्तर पर नहीं उठा पाये, जहां हम साहित्य की छटा को महसूस कर सके। कवि सम्मेलन एक मनोरंजन का साधन मात्र रहें। ऐसे में अकादमी में आपके प्रवेश पर विरोध स्वभाविक ही नही बल्कि ये भी बताता है, कि ठीक-ठाक लोग अभी बचे हुए हैं। अशोक जी को मेरी शुभकामनाएं।

Sanjay Grover said...

कंप्यूटर-दक्षता ही साहित्य का पैमाना होती है तो अकादमी को एन. आई. आई. टी. से अनुबंध कर लेना चाहिए। इसी तर्क पर चढ़कर अध्यापकों और प्राध्यापकों ने हिंदी साहित्य का सत्यानाश किया है। आप अशोक चक्रधर के साहित्य की तुलना प्रेमचंद, निर्मल वर्मा, प्रभाष जोशी, उदय प्रकाश, शैलेश मटियानी, राजेंद्र यादव, अशोक वाजपेयी के साहित्य से कर देखिए। साहित्य से जुड़ा इन सबका जीवन-संघर्ष भी तौल लीजिए कि किसने किस मुद्दे पर ठोकरें और गालियां खायीं। अशोक जी ने मंच पर किस तरह के सामाजिक मुद्दे उठाए ? अगर उठाए भी तो मंच पर हंसा भर देने से मुद्दे जीवित रहते हैं कि मर जाते हैं ? क्या मंच की कविता किसी बहस और सुधार को जन्म दे पाती है ? वहां जो श्रोता आते हैं, मनोरंजन के भाव से आते हैं या कहने-सुनने के भाव से, उन्हीं से पूछ देखिए ! प्रस्तावित कवि-सम्मेलन का ढाई करोड़ रुपया(जैसा कि बताया जा रहा है) किस तरह खर्च होगा, इसका भी हिसाब लिया जाना चाहिए ।
यह बात अलग है कि अकादमी में रेवड़-बांट पहले भी होती थी और अब भी होगी। चक्रधर जी अपनी तरह से बिलकुल योग्य व्यक्ति हैं और उन्हें विदूषक कहना बहस को निचले और छिछले स्तर पर लाना है। मंचीय कवियों और सम्मेलनों के अब तक की उपलब्धियों के बावजूद अशोक जी कुछ कर दिखाते हैं तो निश्चय ही हमें उनका पहले से ज़्यादा सम्मान करना चाहिए।
chunki aapke blog ka naam 'MAT-ANTAR' hai,is liye bhi yahaN apni baat rakhne ki ichchha huyi.

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

यह पुरबिया और बिहार वाली बात हजम नहीं हुई। हम हिन्दी वाले 'केंकड़ा' मानसिकता से त्रस्त हैं। विवादों की सूची में ब्लॉग बनाम साहित्य विवाद भी जोड़ लीजिए।

अशोक चक्रधर विरोध अगर इस कारण हो रहा है कि वह 'साहित्यकार' नहीं हैं, तो विरोध अधिक जमीन नहीं रखता। साहित्यकारों ने ही आज तक पदासीन रह कर ऐसा क्या कर दिया कि हिन्दी ऊँचाई पर जा पहुँची?
उन्हें शुभकामनाएँ दीजिए। बहुत बार विदूषक वह काम कर जाता है जो नायक नहीं कर पाता।

विजेंद्र एस विज said...

Nihsandeh woh us jagah ke asli 'NAYAK' hain...unhe hamari shubhkamayen..

SHASHI SINGH said...

काश हिन्दी अकादमी हास्य अकादमी बन पाता तो शायद हिन्दी का कुछ भला ही कर पाता। अशोक चक्रधर की नियुक्ति का जिस अंदाज में विरोध हो रहा उससे मंच पर उनके काव्य पाठ से कहीं ज्यादा हास्य उत्पन्न हो रहा है। … और विरोध करने वाले आला दर्जे के विदुषक।

हास्य रस में लिखे साहित्य को साहित्य नहीं मानने वाले अपनी साहित्यिक समझ (?) का ही परिचय दे रहे हैं। कला और साहित्य के नौ रसों में से एक महत्वपूर्ण हास्य को के अस्तित्व को नकारने वालों हिन्दी तुम्हें कभी माफ नहीं करेगी।

… माफी चाहूंगा यदि कोई हिन्दी साहित्य की रचना के लिए यदि नौ रसों से इतर किसी दसवें (चरण रज शिरोधार्य… ) , ग्यारहवें (व्यक्तिगत खुन्नस) या फिर बारहवें (कुंठा) रस के महत्व के आलोक में अपना विरोध जता रहा हो तो मैं अज्ञानी अपनी समझदानी को मच्छरदानी में लपेटकर अपने शब्द वापस भी ले सकता हूं।

SHASHI SINGH said...

कविता वाचक्नवी जी, ये "पूरबिया या बिहार बेल्ट" वाली बात मुझे भी नहीं जमी। ये बात उतनी ही ग़लत है जितनी अशोक जी की नियुक्ति का विरोध। इस तरह के शब्द खेमेबंदी को बढ़ावा देते हैं जो सर्वथा अनुचित माने जाने चाहिये।

अभिनव said...

अनेक कमेंट्स में ये बात पूछी गयी है की अशोक जी का साहित्य क्या है. हम उसकी तुलना प्रेमचंद तथा अन्य बड़े लेखकों से कैसे कर सकते हैं. मेरे ख्याल से इस बात में कोई दम नहीं है. आप अशोकजी की पुस्तक (कोई भी) उठा कर देखिये, मुझे विश्वास है कि आप पूरी पुस्तक खत्म किये बिना नहीं रुकेंगे. समय के साथ भाषा और साहित्य कि दिशा में भी परिवर्तन होता है.
और जो ज़िम्मेदारी अशोक जी को दी गयी है उसके लिए उनका स्वयं लिखने से अधिक लेखन के प्रति जागरूक होना अधिक आवश्यक है. मुझे नहीं लगता का इससे कोई असहमत होगा कि आगरा विश्वविद्यालय का ये टापर किसी भी मामले में पीछे रह सकता है. जिन लोगों नें अशोक जी के साथ काम किया है वो जानते हैं कि किस प्रकार चौबीस घंटे लगातार निरंतर काम करने कि क्षमता है अशोकजी में. रही बात पुरूस्कार वुरुस्कार आदि कि तो वो तो किसी को भी मिले हंगामा करने वाले कहाँ रुकते हैं.

कवि और विदूषक प्रसंग पर कुछ पंक्तियाँ नीचे दे रहा हूँ. इनका वैसे इस चर्चा से कोई सम्बन्ध नहीं है. (ये मात्र मनोरंजन हेतु है.)

क्या केवल मन की पीड़ा बोझिल शब्दों में,
काग़ज़ पर बिखरा देना कविता होती है,
या कोई सन्देश बड़े आदर्शों वाला,
ज़ोर ज़ोर से गा देना कविता होती है,

वैसे भी भाषाओं पर संकट भारी है,
इस पर बोझ व्यंजनाओं का लक्षणाओं का,
अभिधा की गलियों से भी होकर जाता है,
मिटटी से जुड़ने वाला इक गीत गाँव का,

मंचों पर जो होता है वो नया नहीं है,
बड़े बड़े ताली की धुन पर नाच रहे हैं,
और लिफाफे का सम्बन्ध है अट्टहास से,
हम ही क्यों धूमिल की कापी जांच रहे हैं,

बात ठीक है इसमें कुछ संदेह नहीं है,
कवि में और विदूषक में होता है अंतर,
किन्तु वह मसखरा कवि से अधिक प्रणम्य है,
जिसकी झोली में है मुस्कानों का मंतर.

Balendu Sharma Dadhich said...

मित्रो कविताजी की क्षेत्र संबंधी टिप्पणी को हटा दिया गया है (कविताजी कृपया क्षमा करें)। मूल मुद्दे पर ही बहस आगे बढ़ती रहे तो अच्छा है।

कुछ बिंदुओं पर ध्यान देना जरूरी है। हिंदी अकादमी साहित्य पर केंद्रित संस्था नहीं है। इसके लिए दिल्ली में साहित्य कला अकादमी अलग से है। इसलिए यह दलील अप्रासंगिक है कि हिंदी अकादमी में कोई खास किस्म का साहित्य लिखने वाले व्यक्ति ही आएँ। वे हिंदी से संबद्ध किसी भी क्षेत्र (पत्रकारिता, भाषा-विज्ञान, हिंदी-तकनीक, राजभाषा, अनुवाद, शिक्षण आदि-आदि) से हो सकते हैं, जिनमें से साहित्य महज एक है।

भाई शशि सिंह ने सही लिखा है कि हास्य भी नौ रसों में से एक है और अभिनव ने उसके महत्व की सही व्याख्या भी की है। इस बात की क्या गारंटी है कि कोई तथाकथित गंभीर लेखन करने वाला व्यक्ति अकादमी को बेहतर ढंग से चलाएगा? क्या साहित्य की अलग-अलग वैरायटी के लोग अलग-अलग प्रशासकीय क्षमता रखते हैं?

भाई संजय ग्रोवर की यह बात समझ नहीं आई कि जिन लोगों ने ज्यादा संघर्ष किया है और सामाजिक मुद्दे उठाए हैं वे अधिक अच्छे साहित्यकार और प्रशासक हैं? तो क्या प्रकृति, प्रेम, मानव संबंधों, दर्शन आदि को केंद्र बनाकर लिखने वाले साहित्यकार अच्छे नहीं हैं? और जिन्हें वे अच्छे साहित्यकार बता रहे हैं वे किस आधार पर किसी अकादमी के प्रमुख के लिए औरों से बेहतर पात्र हैं? फिर यह भी कैसे कहा जा सकता है कि हास्य कविता के जरिए गंभीर सामाजिक मुद्दे नहीं उठाए जा सकते?

कंप्यूटर को लेकर साहित्यकारों के बीच मुहिम चलाना कोई खिल्ली उड़ाने योग्य मुद्दा नहीं है। अधिकांश वरिष्ठ साहित्यकार उम्र के अंतिम पड़ाव में हैं। उनके देखते ही देखते दुनिया में कामकाज, संचार, संपर्क, प्रकाशन, शोध, प्रचार आदि के तौर-तरीके बदल गए हैं और वे इस अज़ाब में खुद को एक अजनबी सा महसूस कर रहे हैं। आखिर क्या कारण है कि बड़े-बड़े हिंदी साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व इंटरनेट पर एकाध दर्जन पन्ने की सामग्री भी नहीं मिलती जबकि एक सामान्य से ब्लॉगर के नाम से हजारों सर्च रिजल्ट मिल जाते हैं? इसका अर्थ यह तो नहीं कि आप-हम जैसे ब्लॉगर विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर या मृदुला गर्ग से अधिक योग्य हैं? लेकिन वरिष्ठ साहित्यकार नए जमाने के तौरतरीके अपनाने में पिछड़ रहे हैं। ऐसे में कोई उन्हें जेनुइनली तकनीक से परिचित कराने की कोशिश करता है तो यह प्रशंसनीय क्यों नहीं है?

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
- मेरा होमपेज http://www.balendu.com
- प्रभासाक्षी.कॉमः हिंदी समाचार पोर्टल
- वाहमीडिया मीडिया ब्लॉग
- लोकलाइजेशन लैब्सहिंदी में सूचना प्रौद्योगिकीय विकास
- माध्यमः निःशुल्क हिंदी वर्ड प्रोसेसर
- संशोधकः विकृत यूनिकोड संशोधक
- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com