- बालेन्दु शर्मा दाधीच
गुलाम नबी आजाद ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनकी सरकार अचानक इस तरह एक छोटे से मुद्दे पर चली जाएगी और वह भी एक ऐसे फैसले के लिए जिसे सत्ता में उनकी सहयोगी रही किसी अन्य पार्टी से जुड़े मंत्रियों ने अनुमोदित किया था। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को 39 हेक्टेयर वन भूमि का आवंटन करने के मुद्दे पर आजाद सरकार का चला जाना एक राजनीतिक विडंबना ही कही जाएगी क्योंकि अपने छोटे से कार्यकाल के दौरान आजाद एक ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में उभरे थे जिसका एक ही एजेंडा था- विकास और शांति। वे राजनैतिक विवादों से दूर रहे, भ्रष्टाचार या अन्य आरोपों के घेरे में नहीं आए और उनका राजनैतिक आचरण साफ-सुथरा रहा। उनके कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं में कमी आई तथा जमीन पर विकास के चिन्ह साफ दिखे। पहली बार मुख्यमंत्री बने किसी व्यक्ति के लिए ये बड़ी उपलब्धियां थीं। लेकिन वे राजनीति में कच्चे खिलाड़ी साबित हुए।
अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद पर आजाद दो विरोधी पक्षों की घेराबंदी के शिकार हुए। एक और अलगाववादियों का हिंसक आंदोलन, दूसरी ओर हिंदूवादी संगठनों का दबाव। दोनों के बीच संतुलन बनाने के लिए जिस किस्म की राजनैतिक चालाकी की जरूरत थी, वह आजाद के पास नहीं थी। वह थी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के पास, जिसने माहौल को वक्त रहते भांप कर अपने आपको सारे विवाद से इस तरह अलग कर लिया जैसे सारे घटनाक्रम से उसका कोई वास्ता ही नहीं था। वह बड़ी आसानी से भूल गई कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को वन भूमि के हस्तांतरण संबंधी प्रस्ताव काजी मोहम्मद अफजल ने राज्य मंत्रिमंडल में रखा था जो पीडीपी के कोटे से मंत्री थे। वह भूल गई कि हस्तांतरण प्रस्ताव को मंजूरी देने वाले भी पीडीपी से जुड़े विधि मंत्री मुजफ्फर हुसैन बेग ही थे। शातिराना सियासी चाल चलते हुए उसने न सिर्फ सारे घटनाक्रम का जिम्मा मुख्यमंत्री पर डाल दिया बल्कि उसी मुद्दे पर सरकार गिराकर हज़ भी कर लिया। आज वह उस फैसले का विरोध करने वाले राजनैतिक दलों और अलगाववादियों के साथ खड़ी है जो उसने खुद किया था। यही राजनीति है।
गुलाम नबी आजाद को कांग्रेस के रणनीतिकारों में माना जाता है और सोनिया गांधी के नेतृत्व में केंद्रीय स्तर पर पार्टी को पुनजीर्वित करने में उनकी भूमिका रही है। मगर जमीनी राजनीति से उनका जुड़ाव नहीं रहा। जब उन्हें कश्मीर भेजा गया तो सबको आश्चर्य हुआ था क्योंकि जम्मू कश्मीर की पेचीदा राजनीति को समझने और संभालने के लिए जिस किस्म के शातिर राजनेता की जरूरत है, आजाद उस श्रेणी में नहीं आते थे। शायद इसीलिए उन्होंने इधर-उधर के पचड़ों में पड़ने की बजाए विकास और अमन को अपना लक्ष्य बनाया। ठीक वैसे ही जैसे बिहार में नीतिश कुमार ने। इन दोनों नेताओं को विरासत में आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक लिहाज से नष्ट-भ्रष्ट राज्य मिले लेकिन राजनैतिक स्वार्थ-सिद्धि में लगने की बजाए उन्होंने जमीनी हालात सुधारने को वरीयता दी। वैसे इस बदलाव का पूरा श्रेय आजाद को देना उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ नाइंसाफी करना होगा। अपनी विभिन्न राजनैतिक मजबूरियों के बीच मुफ्ती भी शुरू-शुरू में बाकी कश्मीरी नेताओं से अलग, और ज्यादा संजीदा नजर आते थे। गुलाम नबी आजाद ने न सिर्फ उनकी विरासत को संभाला बल्कि आगे भी बढ़ाया। इस्तीफा देने से पहले राज्य विधानसभा में दिए उनके इस बयान की सच्चाई पर शायद ही किसी को आपत्ति हो कि- `मैंने अपना समय इस मुद्दे पर बहस करने में नष्ट नहीं किया कि कश्मीर विवादास्पद है या नहीं। मैंने अपना समय विकास पर लगाया और एक भ्रष्टाचार मुक्त तथा शांतिपूर्ण जम्मू कश्मीर की नींव रखने की कोशिश की।`
एक अच्छे मुख्यमंत्री का इस तरह राजनैतिक कारणों से हार जाना और कश्मीर के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया का अधबीच में खत्म हो जाना पीड़ाजनक है। लेकिन यह भारतीय राजनीति की सच्चाई है जहां के राजनैतिक दल जनता के हितों की बजाए अपने राजनैतिक हितों से निर्देशित होते हैं। यह भारतीय लोकतंत्र की भी सच्चाई है जहां जनता धार्मिक, जातीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर जरूरत से ज्यादा संवेदनशील है और ऐसे मुद्दों पर आसानी से राजनैतिक दलों के उकसावे में आ जाती है। वह अपने दीर्घकालीन हितों को लेकर कब जागरूक होगी, कहना मुश्किल है। भारतीय मतदाता विकास और सकारात्मक मुद्दों के आधार पर फैसला करना कब शुरू करेगा, यह बात शायद वह खुद भी नहीं जानता। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार, जो विकास और भारत उदय जैसे सकारात्मक मुद्दों को लेकर लबलबाते आत्मविश्वास के साथ जनता के बीच गई थी, मुंह की खा चुकी है। अब वही गुलाम नबी ने भोगा है।
गुलाम नबी आजाद ने शायद यही सोचा होगा कि राज्य सरकार को कुर्बान कर देने पर उन्हें एक क्षेत्र विशेष की जनता की सहानुभूति प्राप्त होगी। लेकिन उनके इस्तीफे के एक दिन बाद का दृश्य देखा जाए तो उनकी कल्पना, कल्पना भर ही रह गई लगती है। जम्मू क्षेत्र में, जहां कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनावों में मजबूत होकर उभरी थी, इस बार हिंदूवादी गुटों का प्रभाव है। इन गुटों ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन किए जाने पर तो राज्य सरकार को श्रेय नहीं दिया लेकिन उसे रद्द किए जाने पर आंदोलन में लगे हैं। बहुत संभव है कि जम्मू के हालात का चुनावी लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा। उधर कश्मीर घाटी में हालात अस्पष्ट हैं। अमरनाथ मुद्दे पर सरकार की हार का श्रेय लेने के लिए वहां तीनों पक्षों में होड़ मची है- पीडीपी, फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस और पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी पार्टियां। अलबत्ता, कांग्रेस को राज्य के दोनों ही क्षेत्रों में राजनैतिक नुकसान झेलना पड़ा है और शायद उसे इस नुकसान की भरपाई करने में कई साल लग जाएं। सोनिया गांधी ने गुलाम नबी आजाद को कश्मीर में कांग्रेस और भारतीयता को मजबूत बनाने भेजा था लेकिन वे दोनों को कमजोर कर चुके हैं।
सवाल उठता है कि अगर गुलाम नबी आजाद को अपनी सरकार कुर्बान करनी ही थी तो फिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड का भूमि आवंटन रद्द करने की क्या जरूरत थी? अगर भूमि आवंटन कल सही फैसला था तो अब गलत कैसे हो गया? उन्होंने इसे रद्द न किया होता तो कम से कम जम्मू तो उनके साथ होता! तब उनका राजनैतिक कद भी बड़ा होता। आजाद यहीं बहुत बड़ी भूल कर गए और इसीलिए राज्य के प्रति सारे योगदान के बावजूद वे एक औसत राजनेता के रूप में ही याद किए जाएंगे।
Tuesday, July 8, 2008
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16 comments:
मतांतर के लिए बधाई व शुभकामनाएं.
बधाई। उम्मीद है, मतान्तर स्वस्थ विमर्श का मंच बनेगा।
Blog ke daldal me MATANTAR ek achchha aur swastha plateform bnega tamam vimarshon ka, Aisi ummeed hai.
BADHAYEE!!!!
बहुत बधाई एक अच्छे ब्लॉग की शुरूआत के लिए.... आजाद के संबंध में आपका विश्लेषण अच्छा लगा
कृपया टिप्पणी से वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें
बहुत-बहुत बधाई। आपने सचमुच एक बहुत अच्छी शुरूआत की है।
बहुत बढ़िया लेख से शुरुआत की आपने, बधाई स्वीकार करें।
इस ब्लॉग के आलेखों के जरिए यह भी पता लग सकेगा कि चुनावों में मतों के अंतर के लिए कौन जिम्मेदार हैं और इन्हें पढ़ कर हमें भी कुछ राजनीति की समझ आनी शुरू हो जाएगी।
एक अच्छी पहल के लिए बधाई बालेंदु भाई।
इस पहल की ज़रूरत थी।
अच्छा लेख...एक दृष्टिकोण देनेवाला। बधाई स्वीकार करें।
स्वागत है, बालेन्दु भाई.
मतांतर के लिए बधाई व शुभकामनाएं.
इस विषय की बड़े सीधे और सरल शब्दों में जानकारी
देने के लिए धन्यवाद !
शुभकामनाए !
नये ब्लॉग की शुरुवात पर बधाई! बेहद सुंदर टेम्प्लेट है, लगता है वर्डप्रेस है ब्लॉगर नहीं। शुभकामनायें!
नए ब्लॉग की बधाई. शानदार लिखा है.
अंतिम पैरा लेख का सार लगता है.
naye blog ki badhai
आप्ने एकदम सत्य ही कहा है कि गुलाम नबी राजनीति के कच्चे खिलाडी साबित हुए हैं ।लेकिन यह भी सच है कि गुलाम नबी एक साफ छवि वाले नेता रहे हैं । शायद यही वजह है कि वे राजनीति की सियासी चालों के शिकार हो गए ।
मतांतर के लिए बधाई ।
शशि सिंघल
www.meraashiyana.blogspot.com
बहुत बढ़िया शुरूआत। एकदम समसामायिक विषय पर लिखकर आपने बता दिया कि अब इस ब्लॉग पर हमें हमेशा ऐसे ही आलेख मिला करेंगे। सही कहा है- गुलाम नबी आजाद कश्मीर की राजनीति के लिए नहीं है। मिस्टर आजाद जैसे राजनेता केंद्र की झक सफेद राजनीति ही कर सकते हैं। राज्य स्तर पर राजनैतिक दांवपेंच से उलझकर बेकार में फेल होने का दाग लगा बैठे। राज्य स्तर पर जमीनी आदमी चाहिए, लालू. मुलायम, मायावती जैसा , जो विरोधियों को राजनीति पछाड़ दांव मार चित कर सके। और आजाद तो हमेशा से ही 10 जनपथ के उम्मीदवार रहें हैं, वो भला राज्य की इस राजनीति की झींगामस्ती क्या जाने।...बातें तो होती रहेंगी, एक बार फिर आपको नए ब्लॉग पर बधाई।
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