अगर डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार मौजूदा राजनैतिक संकट से बच जाती है तो उन्हें एक अभूतपूर्व अवसर मिल जाएगा। ऐसा अवसर जो भारतीय राजनीति में दुर्लभ है। आठ नौ महीने के बचे हुए कार्यकाल में वे स्लोग ओवर में चौके-छक्के लगाने वाले क्रिकेटर की तरह अपने उस विजन को लागू करने की कोशिश कर सकते हैं जिसका सपना उन्होंने एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में देखा है।
दृश्य एक: पिछली बीस जून को जब मुद्रास्फीति की दर 11.05 फीसदी पर जा पहुंची, जो कि तेरह साल का सर्वोच्च स्तर था, तो मैंने देश के समाज-राजनीतिक माहौल में दो स्पष्ट बदलाव महसूस किए। पहला बदलाव आया मीडिया के नजरिए में और दूसरा उद्योग संगठनों के रुख में। दोनों देश के राजनैतिक माहौल को भांपकर रुख बदलने में माहिर हैं। उस दिन देश के तीन शीर्ष उद्योग संगठनों एसोचैम, सीआईआई और फिक्की ने बयान दिया कि ऐसा लगता है कि मुद्रास्फीति को संभालना सरकार के नियंत्रण में नहीं रह गया है। ये वे संगठन थे जो एक दिन पहले तक मनमोहन सिंह सरकार की तरफ से उठाए गए आर्थिक सुधारों के प्रबल समर्थक थे। लेकिन विभिन्न राजनैतिक हल्कों से महंगाई के मुद्दे पर सरकार पर हो रहे जबरदस्त हमलों को देखते हुए उन्हें लगा कि देश का राजनैतिक माहौल करवट ले रहा है। वरना मुद्रास्फीति के बढ़ने के कारणों का उनसे बेहतर भला किसे पता होगा? तुरत-फुरत शेयर बाजार भी धराशायी हो गए। दूसरे, ज्यादातर अखबारों और टेलीविजन चैनलों ने महंगाई पर त्राहि माम त्राहि माम के अंदाज में मनमोहन सरकार को खूब कोसा। सरकार के प्रति नरम रुख दिखाने वाले टाइम्स ऑफ इंडिया ने बड़ी-बड़ी सुर्खियों में लिखा कि मनमोहन महंगाई को उसी अनियंत्रित स्तर पर ले गए है जो उनके वित्त मंत्री रहने के समय थी। यानी उनके किसी भी रूप में सरकार में रहने का मतलब है महंगाई का बढ़ना। टाइम्स ने यह भी लिखा कि ऐसे समय में जबकि आम आदमी महंगाई से घायल है, मनमोहन सिंह को परमाणु करार पर अड़ जाने की सूझी है। यह संप्रग सरकार के प्रति भारतीय समाज की दो बड़ी ताकतों के रुख में आए बदलाव का संकेत था।
दृश्य दो: आठ जुलाई को वामपंथी दलों ने परमाणु करार पर केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने का ऐलान किया। सरकार के अस्तित्व पर संकट की आशंका उभरी और शेयर बाजार में साढ़े चार सौ अंकों की गिरावट आ गई। लेकिन कुछ मिनट बाद ही समाजवादी पार्टी संसदीय दल की बैठक की खबर आई और बाजार सुधरने लगा। कुछ देर बाद सपा नेताओं ने केंद्र सरकार के प्रति समर्थन की घोषणा की और बाजार में तीन सौ अंकों का सुधार आ गया। सरकार सुरक्षित होते देख औद्योगिक संगठनों और उद्योगपतियों का रुख भी बदल गया और उन्होंने कहा कि अब तो लगता है सब कुछ ठीक-ठाक हो रहा है। बल्कि अब तो सरकार स्थिर हो रही है और आर्थिक सुधारों के रास्ते की रुकावटें भी हट गई हैं। अगले दिन नौ जुलाई को समाजवादी पार्टी के नेताओं की राष्ट्रपति से मुलाकात और एचडी देवगौड़ा, अजित सिंह और कुछ निर्दलीय व छोटे दलों के सांसदों के सकारात्मक बयानों के बाद बंबई स्टॉक एक्सचेंज के सेन्सेक्स ने पूरे 615 अंकों की छलांग लगाकर दिखा दिया कि वह वामपंथी दलों के जाने से चिंतित नहीं बल्कि खुश है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस बार लिखा कि चलो अच्छा हुआ वामपंथी दलों की झिकिझक से छुटकारा मिला।
संवेदी सूचकांक की तरह ही देश के मिजाज को दर्शाने वाले संवेदी लोगों (मीडिया, शेयर बाजार और उद्योग संगठन) के ताजा दृष्टिकोण को इस बात का मजबूत संकेत माना जा सकता है कि डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर सकती है। बड़ी बात यह है कि अब वह प्रकाश करात और एबी वर्धन की मनमानी मांगों और धमकियों से मुक्त है। इस बार वह ऐसे किसी दल से बंधी हुई नहीं है जो परमाणु करार का या फिर आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया का विरोधी हो। इस बार मनमोहन सिंह पहले जैसे कमजोर दिखने वाले प्रधानमंत्री भी नहीं हैं। वे भाजपा की तरफ से मौके-बेमौके नकली प्रधानमंत्री करार दिए जाने वाले नेता नहीं रह गए हैं। वे परमाणु करार के मुद्दे पर दृढ़ मत लेने और न झुकने वाले प्रधानमंत्री के रूप में उभरे हैं। ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने उस परमाणु करार के मुद्दे पर अपनी सरकार चली जाने की परवाह नहीं की जिसे वे राष्ट्र के हित में जरूरी मानते हैं। इस बार डॉ. मनमोहन सिंह ने खुद को एक खुद्दार, मजबूत और ऊंचे कद का राजनेता सिद्ध किया है जिसने मुद्रास्फीति जनित राजनैतिक आशंकाओं के बावजूद, सोनिया गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी की ओर से संयम बरतने की सलाह के बावजूद अपने राजनैतिक पुरुषार्थ का प्रदर्शन किया। उन्हें `छद्म प्रधानमंत्री` कहने से पहले अब भाजपा और अन्य दलों को कई बार सोचना होगा।
सिर पर लटकती तलवार जैसे वामपंथी समर्थन से मुक्ति पाकर प्रधानमंत्री ने राहत की सांस ली होगी। लेकिन वास्तव में जागने का समय तो अब शुरू हुआ है। अगर संप्रग सरकार संसद में विश्वास मत हासिल करने में कामयाब रहती है तो डॉ. मनमोहन सिंह को खुद को बहुत भाग्यशाली समझना चाहिए। दूसरा मौका सबको नहीं मिलता। तब बदले हुए मनमोहन सिंह और बदली हुई राजनैतिक-आर्थिक परिस्थितियों में संप्रग सरकार को वह अवसर मिल जाएगा जो क्षेत्रीय दलों और दलबदलू नेताओं से ग्रस्त त्रिशंकु लोकसभाओं पर निर्भर हमारे लोकतंत्र में दुर्लभ है। वह है अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को बिना किसी राजनैतिक बाधा के लागू करने का अवसर। अगले आम चुनावों के लिए अप्रैल 2009 तक का समय है। ऐसे में डॉ. सिंह और उनकी टीम को देर से ही सही, कम से कम छह से नौ महीनों के लिए वह अमूल्य अवसर मिल सकता है जिसमें वे अपने राजनैतिक विजन को लागू कर सकते हैं। जिसमें वे देश के आर्थिक विकास और आम आदमी को विकास प्रक्रिया में शामिल करने की बड़ी पहल कर सकते हैं। वे आर्थिक सुधारों का दूसरा चरण लागू कर सकते हैं जिसके लिए इससे अनुकूल समय दूसरा नहीं हो सकता। मनमोहन सिंह दिखा सकते हैं कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्र ने उनसे जो उम्मीदें लगाई थीं उन्हें पूरी करने में वे सक्षम हैं। इस अनपेक्षित अवसर के लिए उन्हें अपने वामपंथी दोस्तों का शुक्रगुजार होना चाहिए।
Thursday, July 10, 2008
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2 comments:
समय बहुत कम है
आपकी बात से सहमत हो जाते हैं...
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