केंद्र सरकार से समर्थन खींचकर वामपंथी दल मौजूदा राजनीति को जिस मोड़ पर ले आए हैं उससे क्या इनमें से कोई भी मकसद पूरा होता दिखाई देता है? विश्वास मत में सरकार गिरे या बचे, परमाणु करार का होना तो अवश्यंभावी है।
बाईस जुलाई को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के भविष्य का फैसला हो जाएगा। विश्वास मत के दौरान जीवन भर परस्पर राजनैतिक विरोधी रहे कई नेता साथ खड़े दिखाई देंगे तो एक दूसरे को स्वाभाविक मित्र मानने वाले सियासतदान परस्पर विपरीत खेमों में तर्क-वितर्क करते नजर आएंगे। चाहे कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का साथ आना हो, या फिर वामपंथी पार्टियों, भाजपा और मायावती द्वारा साथ वोट देने का संकल्प लेना हो, राजनीति नए और अनूठे रंग दिखा रही है। जिस राजनैतिक तमाशे पर हम भारत के लोकतांत्रिक और राजनैतिक भविष्य को दांव पर लगाने जा रहे हैं उसके परिणामों के बारे में अंतिम समय तक कुछ नहीं कहा जा सकता। पता नहीं, सरकार का क्या होगा। पता नहीं, विपक्षी दलों का क्या होगा। लेकिन एक बात, जो सबको बहुत पहले से पता है, वह यह कि विश्वास मत की सारी कवायद का सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं वामपंथी दलों को होगा जो इसके सूत्रधार हैं।
मौजूदा राजनैतिक घटनाक्रम के बरक्स वामपंथी दलों के तात्कालिक राजनैतिक लक्ष्य क्या हो सकते हैं? पिछले चार साल की वामपंथी राजनीति, वाम प्रभाव वाले राज्यों के ताजा राजनैतिक परिदृश्य और उनकी विचारधारात्मक प्रतिबद्धताओं के आधार पर वामपंथी नेताओं की इच्छाएं और आकांक्षाएं स्पष्ट हैं। पहली यह कि भारत और अमेरिका के बीच किसी भी हालत में परमाणु करार न होने पाए क्योंकि `यह हमें अमेरिका का पिछलग्गू बना देगा।` दूसरे, आज के हालात में चुनाव की आशंका को लेकर भी वे आशंकित हैं और उन्हें जितना हो सके, टालना चाहते हैं। तीसरे, कामरेड प्रकाश करात और कामरेड एबी वर्धन के अडिग अमेरिका विरोध तथा दृढ़ सैद्धांतिक दृष्टिकोण की बदौलत शायद पारंपरिक वाम प्रभाव वाले क्षेत्रों में कम्युनिस्टों की स्थिति बेहतर हो। यह दिखाने की भरसक कोशिश भी की गई है कि परमाणु करार और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के प्रति उनका विरोध राष्ट्र के हित में उठाया गया एक अनिवार्य कदम है जिसका किसी भी किस्म के राजनैतिक स्वार्थों से कोई संबंध नहीं है।केंद्र सरकार से समर्थन खींचकर वामपंथी दल मौजूदा राजनीति को जिस मोड़ पर ले आए हैं उससे क्या इनमें से कोई भी मकसद पूरा होता दिखाई देता है? विश्वास मत में सरकार गिरे या बचे, परमाणु करार का होना तो अवश्यंभावी है। संप्रग सरकार बची तब तो परमाणु करार का होना तय है ही, उसके गिरने पर भी हालात कौनसे बदलने वाले हैं? अगले चुनाव के बाद यदि संप्रग की नहीं, राजग की सरकार आती है तब भी तो करार होगा? भाजपा खुद कह चुकी है कि उसे इसके कुछ प्रावधानों पर ही आपत्ति है जिन्हें ठीक कर लिए जाने पर वह इसे समर्थन दे सकती है। पूर्व अमेरिकी उपविदेशमंत्री स्ट्राब टालबट रहस्योद्धाटन कर चुके हैं कि तत्कालीन राजग सरकार तो इससे भी कम रियायतों के साथ परमाणु समझौता करने को तैयार थी! उधर वामदलों की चुनाव चिंता भी कहीं नहीं टिकती। सरकार गिरी और चुनाव आए। तब एबी वर्धन के इस बयान का क्या होगा कि देश फिलहाल चुनाव के लिए तैयार नहीं है।
क्या विडंबना है! पासा इस तरफ पड़े या उस तरफ, फैसला तो वाम दलों के खिलाफ ही होने जा रहा है। न वे परमाणु करार को स्थायी रूप से रोक पाएंगे, न चुनाव टाल पाएंगे और न ही अपनी कुंद पड़ती राजनैतिक शक्ति को ही पुनर्जीवित कर पाएंगे क्योंकि उनका फैसला राष्ट्रीय विकास प्रक्रिया के प्रतिकूल तो है ही, उसमें राजनैतिक गहराई का भी अभाव है। आखिर क्या कारण है कि उन्हें वह सब दिखाई नहीं दे रहा जो इस देश के सामान्य से नागरिक को भी दिखाई दे रहा है? न उन्हें भारत की आर्थिक तरक्की दिख रही है और न ही उसकी जरूरतें। न उन्हें देश के सकल घरेलू उत्पाद से कोई सरोकार है और न ही शेयर बाजार के धराशायी होने में (बकौल एबी बर्धन, सेन्सेक्स जाए भाड़ में!)। वामपंथी दल भारतीय जनमानस से इतने कटे हुए क्यों हैं? वे बदले हुए विश्व में भी, अमेरिका को तमाम बुराइयों की जड़ मानते हैं। एकध्रुवीय विश्व में भी, जिसमें अमेरिका विश्व राजनीति की एक असलियत है जिसके विरोध में फिलहाल खुले रूप में कोई नहीं। जिसके खिलाफ खड़े होने के लिए कोई कैंप ही मौजूद नहीं है और जिसके खिलाफ खड़ा होना हमारी मौजूदा आर्थिक-राजनैतिक जरूरतों को भी सूट नहीं करता। कुछ दिनों बाद जब वाम दलों का सैद्धांतिक गुरु चीन ही परमाणु सप्लाईकर्ता समूह में भारत-अमेरिका करार के पक्ष में वोट डाल देगा (जिसके संकेत उसने पहले ही दे दिए हैं), तब हमारे वामपंथी दल किस सैद्धांतिक आधार पर अपने नजरिए को सही सिद्ध करेंगे?








1 comment:
लगता है मकड़ी अपने ही बनाए जाल में फंस गई है.
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