- बालेन्दु शर्मा दाधीच
सोमनाथ चटर्जी को पार्टी ने एक आम सांसद के रूप में देखा। सिर्फ एक वोट के रूप में देखा। राष्ट्रपति को सरकार का विरोध करने वाले सांसदों की सूची में नाम डालते समय उसने भारतीय लोकतंत्र में उनकी अभिभावकीय भूमिका, उनके संवैधानिक दर्जे का सम्मान नहीं किया। यदि सोमनाथ चटर्जी अपने प्रति दिखाई गई सर्वदलीय आस्था के अनुरूप आचरण करना चाहते हैं तो कोई भी उन्हें ऐसा करने से कैसे रोक सकता है? ऐसे ही आदर्श नेताओं की तो हमें जरूरत है?
लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को जिस तरह एक सामान्य माकपा सांसद की तरह अनुशासित ढंग से पार्टी की लाइन में आ जाने के लिए बाध्य किया जा रहा है उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे बहुत से शराबी किसी गैर-शराबी का 'धर्म भ्रष्ट करने' की कोशिश कर रहे हों। ऐसी स्थिति में वे उसे प्रभावित करने के लिए शराब की तमाम `अच्छाइयों` का गुणगान करते हुए ऐसा दिखाते हैं जैसे नशा न करने वाले लोग गलत हैं। श्री चटर्जी ने अपने पद की गरिमा के अनुरूप एक उच्च नैतिकतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाया है जिसकी सराहना करने की बजाए वामपंथी दल और अन्य विपक्षी दल उन्हें दलगत राजनीति से ऊपर उठने की बजाए उन लोगों की जमात में शामिल हो जाने के लिए बाध्य कर रहे हैं जिनका इस तरह के आदर्शों से कोई लेना देना नहीं। वे भारतीय राजनीति के ऐसे उदाहरण (शिवराज पाटिल, मनोहर जोशी, पीए संगमा, बलराम जाखड़ आदि) दे रहे हैं जब लोकसभा अध्यक्ष के पद पर रह चुके लोग इस पद से हटने के बाद फिर से दलगत राजनीति में लिप्त होते रहे हैं। इन उदाहरणों को गिनाते हुए वे भूल जाते हैं कि गलत आचरण करना कोई मजबूरी नहीं है। यदि व्यक्ति पद और दलगत राजनीति से ऊपर है, उसे अपने दायित्वों व गरिमा का अहसास है, उसकी अपने सिद्धांतपूर्ण दृष्टिकोण में पूरी आस्था है तो वह नैतिक आचरण की नई परंपरा शुरू कर सकता है। ऐसी परंपरा जिसका अनुसरण बाद में दूसरे लोग करना चाहेंगे। ऐसी परंपरा जिसे भविष्य में भारतीय लोकतंत्र के उच्च आदर्शों में शुमार करते हुए मिसाल के रूप में पेश किया जाएगा। कोई न कोई व्यक्ति सामान्य व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठता है तभी तो लोकतंत्र को वह ऊंचाई मिलती है जिसकी वजह से वह राजशाहियों और तानाशाहियों से अलग है!
सोमनाथ चटर्जी, ज्योति बसु, स्वर्गीय इंद्रजीत गुप्त आदि वामपंथी नेता, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी आदि ऐसे राजनेताओं में गिने जाते हैं जो समय आने पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचने का साहस रखते हैं। तभी तो अटलजी ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान इंदिरा गांधी का समर्थन किया। तभी तो सोमनाथ चटर्जी को सांसद रहते हुए अपने आदर्श आचरण के लिए 1996 में सर्वश्रेष्ठ सांसद के सम्मान से अलंकृत किया गया। तभी तो अटलजी ने गुजरात के दंगों के बाद तमाम दलीय विवशताओं के बीच भी नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने की नसीहत दी। तभी तो सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष के रूप में अपने चार साल के कार्यकाल के दौरान अनेक अवसरों पर अपनी ही पार्टी के सांसदों को डपटने में संकोच नहीं किया। लोकसभा की कार्यवाही को बार-बार बाधित कर सदन की गरिमा और समय नष्ट करने वाले सांसदों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन की कार्रवाई शुरू करने जैसे फैसले, समय नष्ट करने वाले सांसदों के लिए `काम नहीं तो वेतन नहीं` का नियम शुरू करने की सलाह देने जैसे काम वही व्यक्ति कर सकता है जो दलीय राजनीति से ऊपर उठकर सोचता हो। ऐसे लोगों को निहित स्वार्थों पर आधारित दलीय अनुशासन में निबद्ध करने की भूल नहीं की जानी चाहिए।
सोमनाथ चटर्जी को पार्टी ने एक आम सांसद के रूप में देखा। सिर्फ एक वोट के रूप में देखा। राष्ट्रपति को सरकार का विरोध करने वाले सांसदों की सूची में नाम डालते समय उसने भारतीय लोकतंत्र में उनकी अभिभावकीय भूमिका, उनके संवैधानिक दर्जे का सम्मान नहीं किया। उसने उन्हें अपने निर्देश पर ठप्पा लगाने वाले एक कारकुन से ज्यादा दर्जा नहीं दिया। एक ऐसे व्यक्ति को जो लोकसभा के सर्वोच्च पद पर है और भारतीय लोकतंत्र के आधार स्तंभों में है। ऐसा व्यक्ति जो झारखंड प्रकरण के दौरान संसदीय संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र में दखल के लिए सुप्रीम कोर्ट के साथ टकराव से भी पीछे नहीं हटा। शायद ही कोई नेता यह आरोप लगा सके कि श्री चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद माकपा या वामपंथी दलों की हिमायत की हो। वे ऐसे समय पर इस पद पर आए थे जब विभिé दलों ने पहले दिन से ही लोकसभा में अनेक मुद्दों पर जबरदस्त हंगामा करते हुए सदन का काफी समय नष्ट किया है। मौजूदा सरकार के सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री को लोकसभा में अपने मंत्रिमंडलीय सदस्यों का परिचय तक नहीं कराने दिया गया था और संप्रग सरकार का पहला बजट भारी हंगामे के कारण बिना किसी बहस के पास हुआ था। लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण पर वे जिस किस्म की पीड़ा से गुजरे वह किसी से छिपी हुई नहीं है। अपने संवैधानिक दायित्वों के प्रति प्रतिबद्धता को उन्होंने बार-बार सिद्ध किया है। अन्यथा राज्यों की विधानसभाओं का हाल देखिए। उनके अध्यक्षों की छवि, आचरण और सत्तारूढ़ दल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का ख्याल कीजिए। क्या सोमनाथ चटर्जी के आचरण से उनकी कोई तुलना की जा सकती है? सदन में बार-बार हंगामा, वाकआउट और स्थगन के बीच भी अगर लोकसभा की गरिमा और मर्यादा कायम है तो इसमें सोमनाथ चटर्जी का योगदान कम नहीं है। वे ऐसा इसीलिए कर सके क्योंकि वे दलगत राजनीति की सीमाअंो से ऊपर उठ चुके हैं।
लोकसभा अध्यक्ष के रूप में श्री चटर्जी का चुनाव आम राय से हुआ। अब यह उनके ऊपर है कि वे अपने प्रति जताई गई सभी दलों की आस्था को किस रूप में लेते हैं। हो सकता है कि कोई सामान्य बुिद्ध राजनेता सब दलों का समर्थन तो ले लेता लेकिन रहता किसी एक दल के प्रति ही समर्पित। हमारे ज्यादातर नेता इसी श्रेणी में आते हैं। लेकिन यदि सोमनाथ चटर्जी ने इस सामूहिक समर्थन को वास्तव में एक आदर्श रूप में लिया और वे स्वयं को पूरे सदन के हितों का प्रतिनिधि मानते हैं तो इसमें गलत क्या है? हम किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए तो गलत काम करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते कि बाकी सब गलत हैं? यदि कोई यह मानता है कि वे किसी राजनैतिक स्वार्थ के आधार पर काम कर रहे हैं तो यह उनके साथ एक और नाइंसाफी होगी। श्री चटर्जी खुद कह चुके हैं कि वे अब और लोकसभा चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं हैं। वे जिस तरह का सादा जीवन जीते रहे हैं उसे देखकर आप उन्हें किसी अन्य आरोप में भी नहीं घेर सकते। वे लोकसभा के सबसे अनुभवी नेताओं में से एक हैं और अपनी जिम्मेदारियों से पूरी तरह वाकिफ हैं। उन्हें पता है कि अगर विश्वास मत के दौरान दोनों पक्ष बराबरी पर रहते हैं तो वे निर्णायक वोट दे सकते हैं। लेकिन यह वोट किस दिशा में होगा, इसका निर्णय वे स्वयं ही कर सकते हैं। सोमनाथ चटर्जी एक इतिहास बनाने की प्रक्रिया में हैं, एक मिसाल बनने की दिशा में हैं और भारतीय लोकतंत्र व राजनीति को ऐसी नैतिकतापूर्ण मिसालों और आदर्शों की बहुत जरूरत है। उन्हें अपना काम करने दीजिए।
Saturday, July 19, 2008
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8 comments:
मुझे नहीं लगता सोमनाथ जी जैसे राजनेता आजकल के इन बिकाऊ नेताओं के बीच ज़्यादा समय तक रह पाएंगे. और उनकी छटपटाहट अक्सर नज़र भी आती है. कहीं ऐसा न हो कि सोमनाथ जी अगले सत्र से संसद में लौटने कि इच्छा ही छोड़ दें.
नदीम भाई वे इच्छा छोड़ चुके है.
वर्तमान में जब घोड़ों की खरीद-फरोख्त जारी है. घोड़ो को गधो खच्चरों के समकक्ष ला दिया है.
बहुत ही सशक्त एवं निष्पक्ष विश्लेषण!!
शास्त्रीजी, संजय भाई, नदीम भाई, आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद।
Shri Sharma ji,
This place is certainly thought provoking. I agree, leaders like Somnath Da are rare and fast fading in the back ground only due to these situations. But, what is remedy? How could a common man change this ugly state?? Now, only Mafias are there to dominate the political centre stage. Rest are also ran.
Any way keep writing and thanks for your comments on my poems. By the way all my work is more than a decade old. Now, I hardly find time to write. You know- Daal, roti aur bachchey. They keep me buisy. But comments like yours' would certainly inspire me.
Thanks once again.
हमेशा की तरह सुन्दर विश्लेषण ।
बालेन्दु जी, अगर भूल नहीं रहा हूं तो सम्भवतः १९९४ की घटना है, कोलकाता से प्रकाशित होंने वाले अंग्रेजी दैनिक"स्टेट्स मैन" में एक समाचार छ्पा था कि सोमनाथ जी के एकाउन्ट में अचानक ३० तीस लाख रुपये जमा किये गये थे,और सम्भावना व्यक्त की गई थी कि यह किसी कम्पनी विशेष नें किसी विशेष प्रयोजन से दिये थे, इस समाचार पत्र की प्रतियां सदन में लहरायी गयी थीं,किन्तु इस पूरी घटना का जिक्र सिर्फ उसी दिन टी.वी. चैनल्स और अखबारों में हुआ और उसके बाद इस पूरी घटना को दफ्ना दिया गया? यह याद ही होगा कि उनकी पूरी पार्टी गैट एग्रीमेन्ट एवं ड्ब्ल्यु.टी. ओ. के विरुद्ध थी सिवाय दादा के.यही नहीं दादा नें यह भी बयान दिया था कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जमानें से बंगाल में उद्योंगों की बहुतायत रही है अतः बंगाल में अगर विदेशी कम्पनियां आती है और निवेश करती हैं तो इसमें बुरा क्या है? वैसे शिवराज पाटिल, जी. गणेश बाबू (तेलगू देशम) की तुलना में बहैसियत स्पीकर आप किस को ज्यादा बेहतर मांनेगे?जहां तक उनकी पार्टी द्वारा लिये गये निर्णय की बात है तो एक महत्व पूर्ण प्रश्न यह उठता है कि सर्वसम्मति से स्पीकर चुनें जानें के बाद, स्पीकर को अपनें दल की सदस्यता से क्या इस्तीफा नहीं दे देना चाहिये ?अगर स्पीकर अपनी पार्टी का सद्स्य रह्ते हुए स्पीकर पद पर रह्ता है तो पार्टी कॆ निर्देश क्यों नहीं लागू होनॆ चाहिये खाशकर तब जब अगले चुनाव में वह पुनः पार्टी के सिंबल पर न केवल चुनाव लडे़गा वरन पार्टी की नीतियों का प्रचार भी करेगा. कल्पना कीजिये बी. जे.पी. का सांसद स्पीकर हो (जो बहुतों के मत में कम्युनल है) और कांग्रेश की सरकार हो, इसके बावजूद कि वह सदन में भले ही सेक्युलर चरित्र का व्यवहार करता रहा हो.
Anonymous मित्रवर, हमें सोमनाथ जी के तथाकथित भ्रष्टाचार की याद इतने साल बाद क्यों आती है, जब वे एक विपरीत ध्रुव पर हैं? पिछले पखवाड़े तक यह भ्रष्टाचार स्वीकार्य था क्योंकि तब तक वे पार्टी के सदस्य थे। जब माकपा को सोमनाथ दा का ताजा बर्ताव नहीं भाया और उसने उन्हें निष्कासित करने का फैसला कर लिया तो यही साहस और अनुशासन 1994 में भी तो दिखाया जा सकता था? आपने कहा कि सोमनाथ जी को स्पीकर चुने जाने के बाद इस्तीफा दे देना चाहिए था तो यह कोई अनिवार्यता नहीं है, न ही ऐसी कोई परिपाटी पहले से विद्यमान है। तब ऐसी परिस्थितियां भी नहीं थीं जैसी कि अब हैं। वैसे इस समय जो सोमनाथ दा ने किया वह भी कोई पिछली परंपराओं पर चलते हुए नहीं किया। उन्होंने एक नई नज़ीर बनाई है जिसका भविष्य में आने वाले लोकसभा अध्यक्षों को ख्याल रखना होगा। वे ऐसा नहीं करते तो भी कोई बखेड़ा खड़ा नहीं होने वाला था लेकिन यदि उन्होंने यह सैद्धांतिक स्टैंड लिया है तो वह साहसिक है, विवेकपूर्ण है और इतिहास में दर्ज किए जाने लायक है। अब हमारे पास ऐसे मामलों के लिए एक अच्छी convention मौजूद है जो पहले नहीं थी।
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