भाजपा के तीन सांसदों ने भ्रष्टाचार और प्रलोभन की महामारी का सिर्फ एक पहलू उजागर किया है। जिन सांसदों को स्टिंग आपरेशन में वेश्याओं के साथ दिखाया गया, क्या वे भ्रष्ट आचरण नहीं कर रहे थे और क्या उन्हें दिया गया प्रलोभन भ्रष्टाचार नहीं था? सांसदों को निजी तौर पर धन दिया जाना एक भ्रष्टाचार है तो पूरे के पूरे दलों को कई तरह के आर्थिक-राजनैतिक लाभ देकर अपने साथ मिलाना क्या प्रलोभन नहीं है? सांसदों से अकेले में किया जाने वाला सौदा अनैतिक है और उनके दलों के प्रमुखों से बात कर किया जाने वाला बड़ा सौदा, भले ही वह आर्थिक हो या राजनैतिक, राजनैतिक भ्रष्टाचार नहीं है?
जब से भारत में साझा सरकारें बनना रूटीन हो गया है, छोटे दलों में होना ज्यादा लाभदायक हो गया है। ऐसे दल किसी भी किस्म की वैचारिक प्रतिबद्धता से मुक्त हैं, किसी भी दिशा में जाने के लिए आज़ाद हैं। हमारी राजनीति में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जो किसी भी दल की सरकार आने पर उसका हिस्सा बन जाते हैं। उन्हें कभी नुकसान नहीं होता क्योंकि जिस बहुदलीय राजनीति में लोकसभाएं और विधानसभाएं त्रिशंकु बनकर सामने आती हैं उनमें किंग बनने की तुलना में किंगमेकर बनना ज्यादा मुनाफे का सौदा है। माना कि यह सब दुखद है, माना कि यह एक बड़ी विडंबना है, माना कि यह लोकतंत्र और जनता के साथ विश्वासघात है, लेकिन आज की राजनीति का यही सच है।
राजग के जमाने में मंत्री रहे एक बड़े नेता ने मुझसे अनौपचारिक बातचीत में स्वीकार किया था कि जब मंत्री बनने के तुरंत बाद उनके पास किसी निजी उद्योग से संबंधित एक फाइल आई तो उन्होंने उसकी मंजूरी के लिए दो करोड़ लेने का मन बनाया था। लेकिन उनके मंत्रालय के सचिव ने बाद में बताया कि साहब, आपको अनुभव नहीं है। यह काम दो करोड़ का नहीं, सात-आठ करोड़ का है! |
भ्रष्टाचार, प्रलोभन, ब्लैकमेल आदि आज की राजनीति की कड़वी सच्चाइयां हैं जिनसे कोई दल मुक्त नहीं है। बाईस जुलाई को विश्वास मत पर हुई क्रासवोटिंग ने एक बार फिर दिखाया है कि बीमारी सर्वव्यापी है और लगातार बढ़ रही है। जहां केंद्र सरकार के पक्ष में 14 विपक्षी सांसदों ने वोट डाला वहीं सत्ता पक्ष से जुड़े दलों के सात सांसदों ने सरकार के खिलाफ मतदान किया। अगर सांसदों ने अपने-अपने दलों के निर्देशों के अनुसार मतदान किया होता तो सरकार के पक्ष में 261 और विपक्ष में 277 वोट पड़ने थे। लेकिन सांसदों की `अंतरात्माएं` जाग गईं और उन्होंने अपने-अपने हिसाब से मतदान किया। अब उनमें से कितने सांसद परमाणु सौदे के मौजूदा और भावी खतरों को समझते थे और कितने उसकी अच्छाइयों के कायल थे, कहा नहीं जा सकता।
परमाणु करार को लेकर वामपंथी दलों ने सरकार से समर्थन वापस लिया था और इसी मुद्दे पर आगे बढ़ने से पहले डॉ. मनमोहन सिंह ने लोकसभा में विश्वास मत मांगा था। लेकिन क्या वास्तव में उनकी सरकार ने जो विश्वास मत हासिल किया वह परमाणु सौदे के गुणदोष पर हमारे संसद सदस्यों का फैसला था? राष्ट्रीय लोकदल के नेता अजित सिंह ने शायद कई वर्षों में पहली बार कोई सही बात कही है और वह यह कि विश्वास मत का फैसला परमाणु करार के प्रति सहमति-असहमति तक सीमित नहीं है बल्कि आने वाले चुनाव बड़ा पहलू बन चुके हैं। विभिन्न दलों ने आने वाले लोकसभा चुनावों और विधानसभा चुनावों के आधार पर फैसला किया कि उन्हें परमाणु करार के पक्ष में बोलना है या विपक्ष में। बहुत से सांसदों ने उन्हें मिले धन के आधार पर फैसला किया कि परमाणु करार देश के हित में है या विरोध में। बहुत से छोटे दलों ने अपने नेताओं को मिलने वाले मंत्रिपद के वजन के आधार पर तो कइयों ने धार्मिक वोट बैंक की फौरी स्थिति को देखकर फैसला किया कि परमाणु करार पर उनका दृष्टिकोण क्या होगा। क्या कोई राजनैतिक विश्लेषक बताएगा कि विश्वास मत में हिस्सा लेने वाले कितने सांसदों ने वास्तव में परमाणु करार पर अपना फैसला दिया है? मुझे तो उनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जाने लायक लगती है।
1 comment:
bahut achchha lekh hai. darasal bhrashtacharan kee jaden itnee gahree ho gayee hain ki imandaari ka puraskaar bhee beimaan hee le rahe hain.
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