- बालेन्दु शर्मा दाधीच
पश्चिम बंगाल में निचले स्तर पर समानांतर सत्ता तंत्र चलाने वाले कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की चुनाव जिताऊ ताकत कमजोर हुई है और उसे आम आदमी से पहली बार प्रबल प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में वामपंथी दलों को किसी क्रांतिकारी किस्म के जिताऊ राजनैतिक समीकरण की बदहवासी के साथ तलाश है। लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि मायावती की राजनीति एक अलग ही स्तर पर चलती है।
पश्चिम बंगाल में राजनीति कायाकल्प की ओर बढ़ रही है। वामपंथी दलों को पहली बार इतनी गंभीरता से राज्य में बदलते जमीनी हालात की गर्मी का अहसास हुआ है और तीसरे मोर्चे में नई जान डालने की उनकी बेचैनी का सिर्फ दिल्ली के सत्ता-समीकरणों से ही संबंध नहीं है। तीन दशकों में पहली बार राज्य के स्थानीय निकाय चुनावों में सत्तारूढ़ वाम मोर्चा को इतनी बड़ी शिकस्तों का सामना करना पड़ा है। बचे-खुचे संकेत पिछले दिनों कोलकाता में हुई तृणमूल कांग्रेस की रैली में उमड़े जन समुदाय ने दे दिए। ऐसे समय में जबकि वामपंथी दल केंद्रीय राजनीति में भी अलग-थलग पड़ गए हैं और उसके दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस करीब आ रहे हैं कम्युनिस्ट पार्टियां एक बड़ी राजनैतिक चुनौती से दोचार हैं। इस असामान्य राजनैतिक परिस्थिति से निपटने के लिए माकपा को एक विशेष रणनीति की जरूरत पड़ेगी। प्रकाश करात और उनके साथियों की नजर में, मायावती और तीसरे मोर्चे को साथ लेकर एक प्रभावी चुनावी रणनीति की रचना की जा सकती है।
पिछले दिनों केंद्र सरकार के विश्वास मत से जुड़े घटनाक्रम में पश्चिम बंगाल की भावी राजनीति के संदर्भ में कई बातें साफ हुईं। जिस मायावती को वामदल जातिवादी राजनीति और भ्रष्टाचार के लिए कोसते थे, अब वे उनके लिए एक जरूरत हैं। उधर तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस के साथ आने से कोई परहेज नहीं है। कई दशकों के बाद उसे एक बड़ी चुनावी ताकत बनने का वास्तविक मौका मिला है। मगर उसका पूरा फायदा उठाने के लिए कांग्रेस को साथ लेना जरूरी है। राज्य में राजग की स्थिति में कोई नाटकीय सुधार नहीं आया है और कांग्रेस की स्थिति भी लगभग यथावत है। यह बात अलग है कि वह सोमनाथ चटर्जी प्रकरण का लाभ उठाकर वहां अपनी राजनैतिक स्थिति सुधारने का प्रयास करेगी। दूसरी तरफ नंदीग्राम और सिंगुर की घटनाओं के बाद सत्तारूढ़ मोर्चे को हुए राजनैतिक नुकसान का ममता बनर्जी को सीधा लाभ मिल रहा है और इसीलिए उन्हें नए समीकरणों की दरकार है। सुश्री बनर्जी ने विश्वास मत में हिस्सा न लेकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ बदलते संबंधों को स्पष्ट कर दिया। उन्होंने संप्रग के पक्ष में भी मतदान नहीं किया लेकिन लोकसभा में बहस के दौरान जिस तरह संप्रग के प्रमुख नेता लालू प्रसाद यादव ने ममता बनर्जी की रैली और उनके नेतृत्व की खुली तारीफ की उससे साफ हो जाता है कि दोनों पक्षों को अब एक दूसरे से एलर्जी नहीं रही।
वामपंथी दल इन हालात से निपटने के लिए अपने नए साथियों की पृष्ठभूमि और प्रभाव का लाभ उठाना चाहेंगे, खासकर मायावती की दलित पृष्ठभूमि का। हालांकि बहुजन समाज पार्टी की पश्चिम बंगाल में कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं है लेकिन जिस तरह से राष्ट्रीय राजनीति में मायावती का उभार हुआ है और उत्तर प्रदेश के पिछले चुनावों में साफ बहुमत हासिल कर वे अपने दम पर ऐसा कारनामा करने वाली पहली दलित नेता बनकर उभरी हैं उससे उन्होंने देश भर के दलित मतदाताओं के एक हिस्से में उम्मीद जगाई है। भले ही उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में यह मतदाता वर्ग अब भी बहुत छोटा हो, भले ही फिलहाल वह सुप्त अवस्था में ही क्यों न हो लेकिन वह है जरूर। और मायावती अगर खुद इस वर्ग का लाभ उठाने की स्थिति में न हों तब भी वे अपने स्थानीय साथियों को इसका स्थानांतरण करने की स्थिति में हैं। तृणमूल और कांग्रेस की उभरती चुनौती के संदर्भ में यह दो-तीन फीसदी मतदाता वर्ग वाम दलों के लिए डूबते में तिनके का सहारा सिद्ध हो सकता है।
वाम दलों के पास राज्य की जनता को प्रभावित करने के लिए और कोई विशेष उपलब्धि नहीं है। केंद्रीय राजनीति में उन्होंने एक सैद्धांतिक और अडिग स्टैंड लिया लेकिन उसे राजनैतिक अग्नि-परीक्षा में सफल नहीं बना सके। यदि वे जीतते तो शायद स्थिति इतनी विकट न होती। कई महीनों तक केंद्रीय राजनीति की बड़ी ताकत बने रहने के बाद और मजबूत होने की बजाए वे पहले से कमजोर और अप्रासंगिक हो गए हैं। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य भी पहले अपनी आर्थिक नीतियों से और फिर नंदीग्राम की हिंसा के दौरान दिए गए बयानों से अपनी लोकिप्रयता खो रहे हैं। राज्य में निचले स्तर पर समानांतर सत्ता तंत्र चलाने वाले कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की चुनाव जिताऊ ताकत कमजोर हुई है और उसे आम आदमी से पहली बार प्रबल प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में वामपंथी दलों को किसी क्रांतिकारी किस्म के जिताऊ राजनैतिक समीकरण की बदहवासी के साथ तलाश है। लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि मायावती की राजनीति एक अलग ही स्तर पर चलती है।
Saturday, July 26, 2008
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1 comment:
मुझे लगता है कि यह पसंद न हो कर मजबूरी ही थी।
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