Saturday, May 21, 2011

मजबूरी का नाम करुणानिधि

बालेन्दु शर्मा दाधीच:


कनीमोझी गिरफ्तार हो गईं मगर भारत के सुदूर दक्षिण से ऐसी कोई खबर नहीं आई जो राष्ट्रीय राजनीति को हिलाने जा रही हो। द्रविड़ मुनेत्र कषगम के पारंपरिक चरित्र और स्वभाव को देखते हुए यह कुछ अस्वाभाविक था। अभी कुछ महीने पहले ही तो सिर्फ तीन विधानसभा क्षेत्रों के सवाल पर द्रमुक ने केंद्र सरकार से हटने की धमकी दी थी और उसके मंत्रियों ने बाकायदा दिल्ली में ऐलान भी कर दिया था कि वे इस्तीफे देने जा रहे हैं। उससे पहले भी न सिर्फ संप्रग सरकार में बल्कि पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के जमाने में भी द्रमुक ने हर उस मौके पर दिल्ली को हिलाने की कोशिश जब उसे लगा कि हालात उसके हिसाब से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। कहा जा रहा है कि कनीमोझी को सीबीआई की प्रत्यक्ष जांच के दायरे में लिए जाने के बाद से ही द्रमुक प्रमुख एम करुणानिधि खासे आक्रोश में हैं। लेकिन बदले हुए हालात में इस रौबीले राजनेता के पास पारंपरिक किस्म की उग्र प्रतिक्रियाएं करने का विकल्प नहीं बचा। कनीमोझी की गिरफ्तारी पर उनकी प्रतिक्रिया भावुक और संयमित रही. 'मुझे वैसा ही महसूस हो रहा है जैसा कि किसी भी पिता को अपनी निर्दोष पुत्री को गिरफ्तार किए जाने पर महसूस होता है।'

कहते हैं, जब बुरा वक्त आता है तो अपना साया भी साथ छोड़ देता है। करुणानिधि और उनकी पार्टी वक्त के उसी बदलाव से गुजर रहे हैं जब कोई भी कदम सही नहीं पड़ता। छह महीने के भीतर करुणानिधि परिवार कहां से कहां आ गया। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सीबीआई को स्वतंत्र जांच की इजाजत दिए जाने और जांच प्रक्रिया की सुप्रीम कोर्ट द्वारा निगरानी शुरू होने के बाद से द्रमुक के लोगों पर कानून का सिकंजा कुछ इस तरह कसता चला गया कि दक्षिण की राजनीति के बूढ़े शेर करुणानिधि के पास 'विवशता' के सिवा कुछ नहीं बचा। पहले ए राजा की गिरफ्तारी, फिर कनीमोझी के विरुद्ध चार्जशीट, फिर कांग्रेस के साथ चुनावी मतभेद, अंत में विधानसभा चुनावों में पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी जयललिता की धुआंधार विजय और अब कनीमोझी की गिरफ्तारी॰॰॰ शायद करुणानिधि को पड़ोसी राज्य कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा से सलाह लेनी चाहिए जो राजनैतिक संकटों से बच निकलने में काफी प्रवीण हो चुके हैं। भले ही आप ज्योतिषियों, पूजा-पाठ, तरह.तरह के धार्मिक टोटकों और एक के बाद दूसरे मंदिर के दर्शन करने के उनके रूटिन को कितना भी असंगत और 'मजेदार' मानें, लेकिन कमाल का संयोग है कि अद्वितीय धार्मिक आस्था रखने वाला यह व्यक्ति हर नए राजनैतिक झंझावात से सही-सलामत बाहर निकल ही आता है!

विवशता और संयम

खैर॰ वह तो विनोद की बात हुई। कनीमोझी की गिरफ्तारी की खबर आते ही दिल्ली में किसी आसन्न राजनैतिक जलजले की चर्चाएं शुरू हो गई थीं। आखिरकार कानून के हाथ खुद करुणानिधि के परिवार तक आ पहुंचे थे, उस परिवार के लिए जिसके राजनैतिक और आर्थिक हितों को बचाने के लिए पहले वे बड़े-बड़े राजनैतिक कदम उठा चुके थे। लग रहा था कि शायद एकाध घंटे में द्रमुक द्वारा केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने की खबर आ जाएगी। चेन्नई में पार्टी की उच्च स्तरीय बैठक भी हुई लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ जिसका कयास जोर.शोर से लगाया जा रहा था। बस इतना कहा गया कि द्रमुक कनीमोझी के मामले में हर जरूरी कानूनी कदम उठाएगी और इस घटना के राजनैतिक परिणामों की विवेचना करेगी। न कांग्रेस नेतृत्व की आलोचना की गई और सीबीआई पर हमला किया गया। पार्टी को हालात की नजाकत का अहसास है।

आज के हालात में द्रमुक के पास 'इंतजार करो और देखो' के सिवा और कौनसे विकल्प बाकी रह गए हैं? केंद्र सरकार को किसी गंभीर राजनैतिक संकट में फंसाने का विकल्प अब उसके पास नहीं रहा क्योंकि सत्तारूढ़ गठबंधन से समर्थन खींचने के बाद भी सरकार गिरने वाली नहीं है। अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता उसकी मदद के लिए आगे आ जाएंगी। अगर किसी को नुकसान होगा तो वह खुद द्रमुक होगी जो केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर दयनीय स्थिति में आ जाएगी। प्रतिशोधपूर्ण राजनीति वाले तमिलनाडु में इस तरह की दयनीय हालत में जाने का जोखिम करुणानिधि नहीं उठाना चाहेंगे। ऊपर से केंद्र सरकार का रहा.सहा संकोच भी खत्म हो जाएगा और भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों की जांच में तेजी आ जाएगी। द्रमुक के पास किसी अन्य राजनैतिक गठबंधन में जाने का भी विकल्प नहीं बचा। भाजपा की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दरवाजे फिलहाल कुछ साल तक उसके लिए बंद हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ डूबे ऐसे दल को अपने साथ लेने का जोखिम राजग भला क्यों उठाएगा जिसे जनता ने अभी.अभी बुरी तरह ठुकराया है और जिसके नेताओं के कारनामों को लेकर राजग के दल संसद के भीतर और बाहर आवाज बुलंद करते रहे हैं। राजनैतिक रूप से अस्पृश्य हो चुकी द्रमुक के लिए यथास्थिति ही एकमात्र विकल्प है क्योंकि केंद्र सरकार में मौजूदगी कुछ हद तक उसे सुरक्षा कवच प्रदान करती है।

पतन का कारण

अगर आज द्रमुक तमिलनाडु में सत्ता में होती तो स्थितियां अलग होतीं। लेकिन जिस भ्रष्टाचार को कभी करुणानिधि ने चुनावी खर्चों के लिहाज से स्वीकायर् माना था, वही उनकी सरकार के पतन का कारण बन गया। 2जी मामले में सीबीआई की जांच में तेजी आने से पहले के हालात को याद कीजिए। द्रमुक के लिए सभी कुछ तो ठीकठाक चल रहा था। अन्नाद्रमुक लगभग निष्क्रिय और निस्तेज स्थिति में थी और राजनैतिक गलियारों से लेकर मीडिया तक में यही धारणा थी कि द्रमुक सत्ता में लौट आएगी। पिछले चुनावों में मतदाताओं को मुफ्त टेलीविजन बांटने जैसा मास्टर स्ट्रोक खेलने वाले करुणानिधि के राजनैतिक चातुयर् पर संदेह का कोई कारण नहीं था। लेकिन जांच का दायरा जब द्रमुक के अपने लोगों तक फैला तो हालात बदलने शुरू हुए। भ्रष्टाचार आम लोगों के बीच मुद्दा बना और निस्तेज पड़ी अन्नाद्रमुक ने उभरते सत्ता विरोधी माहौल का राजनैतिक लाभ उठाने में देर नहीं लगाई। तमिलनाडु में अगर द्रमुक के नेतृत्व वाले गठबंधन की हार हुई तो इसका बहुत बड़ा श्रेय सीबीआई द्वारा की गई कार्रवाइयों को जाता है। हालांकि कांग्रेस चाहती तो दूसरे बहुत से मामलों की तरह 'जांच को धीमा' करवा सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, या ऐसा नहीं कर पाई। कारण? एक तो इस मामले की निगरानी खुद सुप्रीम कोर्ट कर रहा था और दूसरे आरोपों की आंच खुद कांग्रेस के शीर्ष नेताओं तक पहुंचने लगी थी।

वैसे मौजूदा हालात कांग्रेस के लिए उतने प्रतिकूल नहीं हैं जितने कि द्रमुक के लिए हैं। द्रमुक द्वारा समर्थन वापस ले लिए जाने की चिंता से अब वह लगभग मुक्त हो सकती है। राजनैतिक रूप से कमजोर और विकल्पहीन द्रमुक अब संप्रग नेतृत्व के लिए परेशानियां खड़ी करने की स्थिति में नहीं है। आने वाले दिनों में द्रमुक की समस्याएं और बढ़ सकती हैं। कुछ महीनों में सीबीआई जांच का दायरा करुणानिधि की पत्नी दयालु अम्माल तक आ पहुंचे तो कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी। आखिरकार केंद्र के सामने भी खुद को पाक.साफ साबित करने की मजबूरी है। कौन जाने तब शायद करुणानिधि कोई बड़ा राजनैतिक तूफान खड़ा कर दें। यह दूसरी बात है कि 'अम्मा' को ऐसे ही मौके का इंतजार है।

Saturday, May 14, 2011

...और अंत में मतदाता का इंसाफ

बालेन्दु शर्मा दाधीच:

पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजों ने द्रमुक नेता एम करुणानिधि को छोड़कर शायद ही किसी को चौंकाया हो। वे चुनावी हार झेलने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं दिखते थे। भ्रष्टाचार और भाई.भतीजावाद के आरोपों से घिरे इस वयोवृद्ध नेता को चुनावी जीत की सबसे ज्यादा जरूरत थी तो शायद आज जब कानून का शिकंजा उनके परिवार तक आ पहुंचा है। मतदाताओं को लुभाने के लिए हर किस्म के वायदे करने और चुनाव प्रचार में अपनी सारी ताकत झोंकने के बावजूद द्रमुक न सिर्फ पराजित हो गई बल्कि अपनी पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी अन्नाद्रमुक की तुलना में एक चौथाई से भी कम सीटों पर आ गिरी। देश के सर्वाधिक अनुभवी और जनाधार वाले नेताओं में से एक करुणानिधि के सक्रिय राजनैतिक जीवन का संभवत: यह अंतिम विधानसभा चुनाव था, जिसने उन्हें एक कटु कालखंड की दिशा में धकेल दिया है।

पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के चुनाव नतीजों ने दो महिलाओं के नेतृत्व में दो बड़ी राजनैतिक क्रांतियों को अंजाम दिया है। दो ऐसे दिग्गजों को हाशिये से परे धकेल दिया गया, जिन्हें चुनौती देना कल तक असंभव सा था।


पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों का लगभग वही हश्र हुआ जैसा तमिलनाडु में द्रमुक का। अपने कैडर के दम पर लगभग तीन दशकों से राज्य की सत्ता में वाम मोर्चे को हरा पाना ममता बनर्जी जैसी जीवट की नेता के ही बस का था, जिन्होंने माकपा को उसी की भाषा में जवाब देने की हिम्मत दिखाई और इतने लंबे अरसे तक अपने संघर्ष को जिंदा रखने में कामयाब रहीं। अपनी समृद्ध प्राकृतिक और खनिज संपदा के बावजूद पश्चिम बंगाल की गिनती पिछड़े राज्यों में होती रही है। व्यापक गरीबी और माकपा कैडर के आतंक के बावजूद हर चुनाव में वाम मोर्चा जीत कर आता रहा तो दो कारणों से। पहला, मतदाता के सामने ऐसा कोई दमदार विकल्प मौजूद नहीं था जो राज्य के सर्वशक्तिमान वाम मोर्चे के लिए मजबूत चुनौती खड़ी कर सके। दूसरा, दौरान माकपा कैडर के हिंसक तौरतरीकों ने नियमित रूप से मतदान प्रक्रिया और चुनाव परिणामों को प्रभावित किया। इस बार स्थितियां अलग थीं और ममता बनर्जी का परिवर्तन का नारा जन.आकांक्षाओं से मेल खाता था। सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं के बाद तृणमूल कांग्रेस ने सिद्ध किया कि वह एक मजबूत ताकत है जो राजनीति और स्थानीय स्तर पर वाम कैडर को उसी के अंदाज में जवाब देने में सक्षम है। इस प्रक्रिया में उन्होंने माओवादियों को साथ लेने जैसा अलोकप्रिय कदम भी उठाया लेकिन पिछले चार.पांच साल में ममता बनर्जी की लगभग हर रणनीति अनुकूल सिद्ध हुई। स्थानीय निकायों के चुनावों से ही पश्चिम बंगाल की राजनीति में आसन्न बदलाव का संकेत मिल गया था। यह ममता की बड़ी कामयाबी है कि केंद्र में रेल मंत्री का पद संभालने के बावजूद वे पश्चिम बंगाल में ही टिकी रहीं और राज्य सरकार के प्रति उपजे असंतोष को ठंडा नहीं पड़ने दिया। रही सही कसर चुनाव आयोग ने पूरी कर दी जिसने शांतिपूण्र और अनुशासित मतदान सुनिश्चित कर चुनावी हिंसा और धांधली की गुंजाइश खत्म कर दी। इस बार राज्य में रिकॉर्ड मतदान हुआ, जिसका तृणमूल.कांग्रेस गठजोड़ को स्पष्ट लाभ पहुंचा।

असम में कांग्रेस का लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटना बड़ी घटना है। छोटे राज्यों का मतदाता आम तौर पर हर चुनाव में सरकार बदल देता है। लेकिन धीरे.धीरे हमारी राजनीति में यह ट्रेंड बदल रहा है जो कई भाजपा शासित राज्य और कुछ कांग्रेस शासित राज्य पहले भी सिद्ध कर चुके हैं। लोग विकास और ज्वलंत मुद्दों पर ठंडे दिमाग से सोचकर फैसले करने लगे हैं। राज्य में विपक्ष की स्थिति बहुत कमजोर है। भारतीय जनता पार्टी का आधार सीमित है और असम गण परिषद अपने राजनैतिक अंतरविरोधों से बाहर निकलने और अपना पुराना आधार फिर से अर्जित करने में नाकाम रही है। असम की जनता के लिए मौजूदा हालात में अलगाववाद का मुद्दा भाजपा के बांग्लादेशी नागरिकों के मुद्दे से ज्यादा महत्वपूण्र है। उल्फा, बोडो और दूसरे उग्रवादियों के हाथों हजारों निर्दोष नागरिकों को खोने वाले असम को अब हिंसा और अस्थिरता से मुक्ति चाहिए। कई साल की नाकामियों के बाद तरुण गोगोई सरकार उग्रवादी गतिविधियों को नियंत्रित करने में सफल हुई है। उल्फा के साथ सुलह के संदभ्र में हाल के महीनों में कुछ बड़ी कामयाबियां हासिल हुई हैं जिन्होंने इस समस्या के स्थायी समाधान की उम्मीद जगाई है। वहां बिखरे हुए विपक्ष और उग्रवाद विरोधी कामयाबियों ने मतदाता के फैसले को प्रभावित किया है।

कांग्रेस के लिए मिश्रित नतीजे

पांडिचेरी आम तौर पर तमिलनाडु के चुनावी ट्रेंड्स के अनुकूल प्रदर्शन करता है। वहां इस बार भी कमोबेश वही सूरत दिखाई दे रही है। और हर चुनाव में पत्ते बदलने वाला केरल भी अपनी परंपरा पर कायम रहा। हालांकि वहां कांग्रेस की जीत का अंतर बहुत कम रहा। एमएस अच्युतानंदन की निजी छवि ने नतीजों को प्रभावित किया। कांग्रेस को अपने महासचिव राहुल गांधी की सक्रियता से लाभ मिला अन्यथा वहां हालात कुछ और भी हो सकते थे। बहरहाल, अपने प्रभाव वाले तीन में से दो राज्यों की सत्ता गंवा देना माकपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिए शुभ संकेत लेकर नहीं आया है। प्रकाश करात के महासचिव बनने के बाद पार्टी के लिए शुरू हुआ गिरावट का सिलसिला अपनी परिणति पर पहुंच गया है। लोकसभा में पहले ही रसातल पर जा पहुंची यह पार्टी सिर्फ त्रिपुरा में सत्ता में रह गई है। पश्चिम बंगाल में सत्ता से बेदखल होना उसके भविष्य के लिए अशुभ संकेत देता है क्योंकि पार्टी को उसकी राजनैतिक, आर्िथक और वैचारिक शक्ति वहीं से मिलती है। वहां जनाधार खोने के बाद वह राष्ट्रीय स्तर पर अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ रही है। आने वाले दिनों में यह पार्टी के आंतरिक संगठन को भी प्रभावित करेगा।

कांग्रेस के लिए चुनाव नतीजे मिश्रित उपलब्धियों वाले रहे। पार्टी को उम्मीद थी कि पांचों राज्यों में चुनाव नतीजे उसके अनुकूल रहेंगे। लेकिन अंतत: संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को तीन राज्यों की जनता से ही मंजूरी मिली। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को पछतावा हो रहा होगा कि उसने न सिर्फ कुछ महीने पहले तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के साथ गठजोड़ का मौका खो दिया बल्कि पार्टी के शीर्ष नेताओं ने द्रमुक के साथ चुनाव सभाओं में हिस्सा लेकर निकट भविष्य में भी अन्नाद्रमुक को साथ लेने की संभावना खत्म कर दी। द्रमुक की गिरती छवि, पार्टी के आंतरिक संघर्ष और बढ़ती अलोकिप्रयता के बावजूद सोनिया गांधी और डॉ॰ मनमोहन सिंह ने तमिलनाडु में चुनाव प्रचार किया और द्रमुक नेताओं के साथ मंच साझा किया। वह न सिर्फ मतदाता का मानस पढ़ने में नाकामयाब रहा बल्कि उसने इस तथ्य को भी नजरंदाज कर दिया कि पिछली बार को छोड़कर तमिलनाडु में प्राय: हर चुनाव में सत्ताधारी बदल जाते हैं। जिस तरह 2जी स्पेक्ट्रम में कानून के हाथ स्वयं करुणानिधि के परिवार तक जा पहुंचे हैं और पूवर् केंद्रीय मंत्री ए राजा जेल की सलाखों के पीछे हैं, उस स्थिति में मतदाता से समर्थन की उम्मीद लगाना अव्यावहारिक होता।

आने वाले दिनों के संकेत



देश के मुख्य विपक्षी दल भाजपा के लिए इन चुनावों में कुछ विशेष नहीं था फिर भी नतीजों ने उसे निराश ही किया होगा। पार्टी असम के चुनाव प्रचार में जमकर ऊर्जा झोंकी थी और वहां मुख्य विपक्षी दल बनने को लेकर आश्वस्त थी। लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि राज्य विधानसभा में उसकी सीटें पिछली बार की तुलना में आधी से भी कम हो गई हैं। पश्चिम बंगाल में जरूर वह अपना खाता खोलने में सफल रही लेकिन वोटों के प्रतिशत में गिरावट के साथ। पिछले कुछ वषर्ों से पार्टी केरल पर भी काफी उत्साह के साथ फोकस कर रही है लेकिन फिलहाल वहां का मतदाता पड़ोसी कर्नाटक की तरह भाजपा के प्रति सहज नहीं हो सका है। तमिलनाडु और पांडिचेरी में भी पार्टी की कोई भूमिका नहीं है। इन चुनावों ने यह प्रश्न एक बार फिर खड़ा कर दिया कि क्या मौजूदा हालात में पार्टी अगले लोकसभा चुनावों में सत्ता में लौटने की उम्मीद रख सकती है? केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग गठबंधन की लोकिप्रयता का क्षरण जरूर हो रहा है, भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे ने आम जनमानस को भी झकझोरा है लेकिन क्या भाजपा इस माहौल का राजनैतिक लाभ उठाने की स्थिति में है? पांच राज्यों के चुनावों में उसका नामो.निशान तक न होना स्पष्ट करता है कि वह देश के बड़े भूभाग में उसकी राजनैतिक भूमिका बहुत सीमित है। अन्नाद्रमुक अब उसके साथ नहीं है और चंद्रबाबू नायडू भी दूरी बना चुके हैं। उत्तर प्रदेश में पार्टी के लिए स्थितियां बहुत विकट हैं। और तो और पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश सहित विधानसभा चुनावों के अगले दौर में भी उसे नुकसान हो सकता है। इन हालात में 2014 के चुनावों से पहले राष्ट्रीय राजनीति में बनने वाला माहौल भाजपा के पक्ष में बड़े राष्ट्रीय परिवर्तन के अनुकूल होगा या नहीं, कहना मुश्किल है।

एक बार फिर पश्चिम बंगाल की की चर्चा, जहां की राजनैतिक सूरत बदलने जा रही है। वहां ममता बनर्जी का सत्ता में आना जमीनी स्तर पर क्या बदलाव लाएगा, इस बारे में सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं। एक संघर्षवान राजनेता के रूप में ममता बनर्जी की क्षमता अद्वितीय रही है। आम लोगों के साथ जुड़ाव और जनसमस्याओं के प्रति उनकी समझ को लेकर भी कोई संदेह नहीं है। लेकिन एक मंत्री और प्रशासक के रूप में उनकी भूमिका कई सवाल खड़े करती है। हजारों करोड़ रुपए के कर्ज में दबे पश्चिम बंगाल की जनता को उनसे इतनी उम्मीद तो जरूर है कि वे राज्य में विकास की नई प्रक्रिया शुरू करेंगी और उसे हिंसा तथा अराजकता से मुक्त कराएंगी। सवाल यहीं खड़े होते हैं। सिंगुर में टाटा नैनो का कारखाना बंद करवाकर और भारतीय रेलवे को ढीले.ढाले ढंग से चलाकर उन्होंने बहुत अनुकूल संकेत नहीं दिए हैं। आज जबकि वे मुख्यमंत्री के रूप में पश्चिम बंगाल की कमान संभालने जा रही हैं, नई सरकार को लेकर कई ज्वलंत सवाल उपज रहे हैं। विकास के लिए ममता बनर्जी का मॉडल क्या होगा? क्या वे किसानों और उद्योगपतियों के हितों के बीच सामंजस्य पैदा कर पाएंगी? क्या उनके लोकलुभावन रेल बजटों की तरह राज्य में उनकी नीतियां और कायर्क्रम भी लोक.लुभावन ही होंगे या वे किसी विकास की किसी ठोस योजना पर आधारित होंगे? केंद्र सरकार के साथ उनके रिश्ते कैसे रहेंगे? राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन, दोनों के साथ गठबंधन के दिनों में वे अपनी मांगों पर कोई नरमी नहीं दिखाने वाली नेता के रूप में ही दिखी हैं। तृणमूल कांग्रेस के आंतरिक मामलों में भी वे कठोर नेता के रूप में पेश आई हैं जिन्होंने दूसरी कतार के नेतृत्व को प्रोत्साहित नहीं किया है। नई मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें न सिर्फ इन सवालों के जवाब देने हैं, बल्कि पश्चिम बंगाल को पड़ोसी बिहार की तरह विकास की पटरी पर लाने के लिए दूरगामी विज़न, राजनैतिक लचीलापन और प्रशासनिक क्षमता भी दिखानी है।

ध्वस्त होना आतंकवाद के प्रतीक का

बालेन्दु शर्मा दाधीचःग्यारह सितंबर 2001 को अलकायदा आतंकवादियों ने वर्ल्ड ट्रेड टावर्स को ध्वस्त करके दुनिया के सबसे ताकतवर देश के विरुद्ध आतंकवाद का मोर्चा खोलने का जनसंहारक ऐलान किया था। दो मई 2011 को अमेरिका ने अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतारकर आतंकवाद और शांति के बीच जारी जंग का एक अहम अध्याय लिख दिया है। पाकिस्तान के ऐबटाबाद में अलकायदा सरगना की मौत इस शताब्दी की सबसे बड़ी घटनाओं में गिनी जाएगी जिसने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि आतंकवादी और विध्वंसक ताकतें भले ही अपने छोटे.छोटे मंसूबों में कामयाब हो जाएं लेकिन उनका अंत इसी तरह होता है। ऐसा अंत, जिस पर दुनिया जश्न मना रही होती है।

ओसामा बिन लादेन ने एक कारोबारी से आतंकवादी बनकर पिछले दो.ढाई दशक के अपने विक्षिप्त अभियान के दौरान कुल जमा क्या अर्जित किया? लाखों युवाओं को गुमराह कर जेहाद के रास्ते पर लाने, करोड़ों लोगों का जीवन असुरक्षित बनाने और लाखों बेकसूर लोगों की मौतों की पटकथा लिखने के बाद भी आखिर उसने क्या पाया? आज तुच्छ ढंग से मारे जाने के बाद वह उन लोगों को पहले से कहीं ज्यादा असुरक्षित और अलग.थलग करके गया है जिनके साथ वैश्विक स्तर पर हो रहे तथाकथित पक्षपात और नाइंसाफी की घुट्टी वह अपने अनुयािययों को पिलाया करता था।

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की घटना के बाद अमेरिका ने दूसरी लोकतांत्रिक ताकतों के साथ मिलकर आतंकवाद के विरुद्ध जंग की जो प्रक्रिया शुरू की थी, वह ओसामा की मौत से खत्म होने वाली नहीं है। इस घटना के बाद आतंकवाद खत्म हो जाएगा, ऐसी खुशफहमी पालने का भी कोई कारण नहीं है। लेकिन लोकतांत्रिक ताकतों की यह प्रचंड विजय आतंकवादी शक्तियों की अब तक की सबसे बड़ी पराजय जरूर है। लगभग उतनी ही बड़ी, जितनी अफगानिस्तान से कट्टरपंथी तालिबान की हुकूमत की विदायी थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संचालित होने वाले आतंकवादी संगठन के नाते अलकायदा में नेतृत्व के कई स्तर मौजूद हैं। अयमान अल जवाहिरी और मुल्ला उमर जैसे अनेक लोग ओसामा की जगह लेने के लिए तैयार होंगे।

लेकिन ओसामा के रूप में आतंकवादी दुनिया का सबसे बड़ा 'आइकन' मारा गया है। इसका बहुत बड़ा प्रतीकात्मक महत्व है। न सिर्फ आप.हम जैसे सामान्य लोगों के लिए, न सिर्फ आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में जुटे लोगों के लिए बल्कि खुद जेहादियों और दूसरी आतंकवादी ताकतों के लिए भी। यह एक ऐसा झटका है, जिससे उबरना आतंकवादियों के लिए आसान नहीं होगा। ओसामा की मौत के बाद दुनिया भर में जिस अंदाज में खुशी मनाई गई, वह उस बेताबी की ओर संकेत करती है जिसके साथ लोग इस खबर का इंतजार कर रहे थे। इस घटना ने दुनिया के शांतिप्रिय लोगों के मन में आतंकवाद से मुक्ति की उम्मीद जगा दी है।

एहतियात की जरूरत

हालांकि इस मामले में बहुत एहतियात बरते जाने की जरूरत है। खासकर अमेरिका, भारत, इजराइल और यूरोपीय देशों को। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के जनक की मौत की खबर इस तरह सन्नाटे में गुजर जाए, यह ओसामा के जेहादियों को शायद मंजूर नहीं होगा। अपनी हताशा, कुंठा और खीझ में वे कहीं भी, किसी भी तरह की जवाबी कार्रवाई कर सकते हैं। सबको सतर्कता बरतने की जरूरत है। आतंकवादी ताकतें और उनसे सहानुभूति रखने वाले तत्व माहौल बिगाड़ने के लिए आतंकवादी हिंसा के साथ.साथ सांप्रदायिक हिंसा, अफवाहों, अपहरणों आदि का रास्ता अख्तियार कर सकते हैं। ओसामा की मौत की खुशी और जोश में बहते हुए ऐसे तत्वों को किसी तरह का मौका नहीं देना चाहिए। आतंकवाद के विरुद्ध जंग के दिशानिर्देशक के रूप में अमेरिका की जिम्मेदारी सबसे बड़ी है। अलकायदा ने हाल ही में धमकी दी थी कि ओसामा के मारे जाने पर वह चुप नहीं बैठेगा और अपने पास मौजूद परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा, जो तथाकथित रूप से यूरोप में कहीं रखे गए हैं। वास्तविकता जो भी हो, दुनिया की लोकतांत्रिक शक्तियों को पहले से अधिक सतर्क होने की जरूरत है।

'ओसामा की मौत' की खबरें अतीत में पहले भी आती रही हैं. कभी किसी हमले में तो कभी बीमारी की वजह से। लेकिन इस बार यह खबर सच है। ओसामा का शव पाकिस्तान में हमलावर कार्रवाई करने वाले अमेरिकी सैनिकों के कब्जे में है। अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई के दिनों से ही सीआईए और अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां ओसामा, जवाहिरी और मुल्ला उमर जैसे शीर्ष आतंकवादियों पर नजर रखने में लगी हैं। कई साल पहले वह अफगानिस्तान की तोरा-बोरा पहाङ़ियों में भी सीआईए का शिकार होते.होते बचा था। उसके बाद वह निरंतर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच अपने ठिकाने बदलता रहा और अपने वीडियो तथा ऑडियो संदेशों के जरिए जेहादियों का हौसला बढ़ाता रहा। भले ही ओसामा की शख्सियत एक खतरनाक आतंकवादी की शख्सियत थी लेकिन कुछ मायनों में आपको उसका लोहा मानना पड़ेगा। पहला, उसने अलकायदा को दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों के प्रतिरोध के बावजूद पूरी दुनिया में फैला कर अपनी नेतृत्व क्षमता दिखाई। दूसरे, वह बड़ी संख्या में एक संप्रदाय के लोगों के बीच सहानुभूति अर्जित करने में सफल रहा। बड़े से बड़े जन.संपर्क अधिकारी इस मामले में उससे दो-चार सबक सीख सकते हैं। तीसरे, अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की समन्वित अभियानों के बावजूद वह पाकिस्तान और अफगानिस्तान के दुष्कर इलाकों में इतने साल तक अपने आपको छिपाए रखने में कामयाब रहा। ओसामा ने अपनी तिकड़मों से आम लोगों के बीच यह भावना पैदा कर दी थी कि उसे शायद ही कभी पकड़ा या मारा जा सके।

इंसाफ का लंबा इंतजार

लेकिन अंतत: लादेन का हश्र उसी तरह का हुआ जैसा ऐसे तत्वों का होता है और होना चाहिए। पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर नजर डालें तो लगता है कि सीआईए कुछ महीनों से लादेन के काफी करीब पहुंच चुका था। हाल ही में उसने बड़ी प्रामाणिकता के साथ लादेन के पाकिस्तान में मौजूद होने की बात कही थी। जवाब में अल कायदा ने भी जिस तरह उसकी आसन्न मौत पर बदला लेने की धमकी दी उसने यह संकेत दिया कि दोनों ही पक्षों को आने वाले दिनों में होने वाली किसी 'बड़ी घटना' का अहसास था। ऐसा लगता है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में दस साल से सक्रिय होने के कारण सीआईए ने अब अफगान.पाकिस्तान सीमा क्षेत्र के बारे में पयरप्त जानकारी जुटा ली है और अब यह दुष्कर इलाका उसके लिए उतना रहस्यमय नहीं रहा। उसने पिछले कुछ वर्षों में ड्रोन (मानव रहित यान) हमलों के जरिए कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं, जिनमें पाकिस्तान में अलकायदा के प्रमुख बैतुल्ला महसूद और उसके बाद हकीमुल्ला महसूद की मौत प्रमुख है। अमेरिकी वायुसैनिक हमले में इराक में अलकायदा प्रमुख अबू मुसाब अल जरकावी भी मारा गया था। बड़े आतंकवादियों के विरुद्ध असरदार ड्रोन हमलों ने एक युद्धक-मशीन के रूप में भी सीआईए की साख और विश्वसनीयता को बढ़ाया है।

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के हमलों में मारे गए लोगों के परिवार वालों, अनाथों और विधवाओं को आखिरकार इंसाफ मिला। इस हमले का साजिशकर्ता अमेरिकी सैनिकों के हाथों बेमौत मारा गया। अमेरिका ने इस धारणा को सही सिद्ध कर दिया कि भले ही प्रक्रिया कितनी भी लंबी और समय साध्य हो, लेकिन अंत में इंसाफ होता है। इससे दुनिया भर में लोकतांत्रिक शक्तियों का आत्मविश्वास बढ़ा है और उनके बीच एकजुटता की भावना मजबूत होगी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल अभी बरकरार है। ओसामा बिन लादेन, उसके सहयोगियों और जेहादियों को जिन प्रभावशाली लोगों, संस्थानों, फौजों और सरकारों का समर्थन हासिल है, और जो ओसामा जैसे लोगों को पनाह देते आए हैं, वे न तो खत्म हुए हैं और न ही रातोंरात उनकी विचारधारा में बदलाव आने वाला है। ओसामा को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस, पाकिस्तानी फौज और अनेक कट्टरपंथी नेताओं के साथ-साथ अफगानिस्तान और पाकिस्तान के तालिबान का भी समर्थन हासिल रहा है। विडंबना है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में पाकिस्तान अमेरिका का तथाकथित पार्टनर है, जबकि खुद पाक फौज में मौजूद लोग अफगानिस्तान में आतंकवादी हरकतों को निर्देशित करते रहे हैं। मुंबई हमलों में उनकी भूमिका का तो पर्दाफाश हो ही चुका है। अमेरिका को आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई के इस सबसे अहम पहलू से भी निपटने की जरूरत है। खासकर तब, जब वह खुद पाकिस्तान को 'आतंकवादियों का प्रजनन क्षेत्र' मानता रहा है।

(प्रभासाक्षी, आज समाज और कुछ अन्य प्रकाशनों में प्रकाशित)
इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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