Thursday, July 31, 2008

हम तक भी आ पहुंचे अल-कायदा के हाथ

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

बंगलुरु और सूरत कांडों की जांच ने दिखा दिया है कि धीरे-धीरे हम पूरे विश्व में अलकायदा के नेतृत्व द्वारा संचालित जेहादी आतंकवाद की मुख्यधारा में प्रवेश कर रहे हैं। आतंकवाद का यह अंतरराष्ट्रीय चेहरा कितना खतरनाक हो सकता है, इसे अमेरिका ने देखा और भोगा है। अगर वक्त रहते जरूरी कदम न उठाए गए तो हम भी उसी किस्म की परिणति को प्राप्त हो सकते हैं।

वाराणसी, फैजाबाद, लखनऊ, मालेगांव, हैदराबाद, जयपुर, बंगलुरु, अहमदाबाद और सूरत के घटित-अघटित आतंकवादी विस्फोटों के साथ अल कायदा का परोक्ष संबंध धीरे-धीरे साफ हो रहा है। अब तक हम आतंकवाद को राष्ट्रीय एवं स्थानीय नजरिए से देखते थे लेकिन विश्व के बदलते भू-राजनैतिक हालात के बीच भारत लक्षित आतंकवाद हर दिन पहले से कहीं ज्यादा व्यापक, ताकतवर, सुसंगठित और भयानक होता जा रहा है। भारत में आतंकवाद अब तक पंजाब, असम और कश्मीर की अनसुलझी स्थानीय समस्याओं से निर्देशित हो रहा था जिनकी कमान पाकिस्तान आधारित खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस के हाथों में थी। यह आतंकवाद कहीं-कहीं भारत में हुई सांप्रदायिक घटनाओं की प्रतिक्रिया में भी था जहां इसका संबंध दाऊद इब्राहीम जैसे माफिया तत्वों के साथ जुड़ा था। लेकिन कुल मिलाकर उसकी प्रकृति घरेलू ही थी। अगर कोई अंतरराष्ट्रीय कोण था भी तो वह पाकिस्तान तक सीमित था, या कुछ हद तक बांग्लादेश और चीन तक।

लेकिन बंगलुरु और सूरत कांडों में इंटेग्रेटेड सर्किट का इस्तेमाल होना और लगातार तीन दिनों में तीन शहरों को निशाना बनाए जाने की आतंकवादियों की क्षमता ने साफ कर दिया है कि देश में जारी आतंकवाद का नया दौर अलकायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय जेहादी आतंकवादी संगठन से जुड़ा हो सकता है। वहां कश्मीर या असम कोई मुद्दा नहीं है। वहां मुद्दा इस्लाम के प्रसार के प्रति एक अंधे जुनून का है। ऐसे जुनून का, जिसमें सभी गैर-मुस्लिमों को काफ़िर और उन्हें सजा देना `मजहबी दायित्व` समझा जाता है। धीरे-धीरे हम पूरे विश्व में अलकायदा के नेतृत्व द्वारा संचालित जेहादी आतंकवाद की मुख्यधारा में प्रवेश कर रहे हैं। आतंकवाद का यह अंतरराष्ट्रीय चेहरा कितना खतरनाक हो सकता है, इसे अमेरिका ने देखा और भोगा है। अगर वक्त रहते जरूरी कदम न उठाए गए तो हम भी उसी किस्म की परिणति को प्राप्त हो सकते हैं।



समय आ गया है जब आतंकवाद की चुनौती को भारत उतनी ही गंभीरता से ले जितना कि वह देश में जारी विकास और सुधार प्रक्रिया को ले रहा है और जिसके लिए हमारे देश के प्रधानमंत्री अपनी कुर्सी कुर्बान करने से भी नहीं झिझकते। आतंकवाद से राष्ट्रीय स्तर पर एकीकृत मुकाबला करने के लिए एक संघीय जांच एजेंसी की स्थापना तो जरूरी है ही, उससे भी ज्यादा जरूरी है इस प्रक्रिया में देश के हर राजनैतिक दल, हर धार्मिक नेता और हर नागरिक की भागीदारी। ठीक उसी तरह, जैसे आतंकवाद की समस्या से सर्वाधिक प्रभावित इजराइल में किया जाता है। ठीक उसी तरह, जैसे विश्व की सबसे बड़ी आतंकवादी त्रासदी को भोग चुका अमेरिका करता है। यह अनायास ही नहीं है कि ग्यारह सितंबर 2001 की आतंकवादी घटना में एकमुश्त करीब पांच हजार लोगों की जान गंवा देने के अविस्मरणीय कष्ट को हर पल जीने वाले अमेरिका ने दोबारा ऐसी वारदात के घटित होने की इजाजत नहीं दी। अमेरिका ने जिस राष्ट्रीय संकल्प, एकजुटता और गैर-लचीलेपन का परिचय दिया, वही आज `सब चलता है` कहकर चुनौतियों के सामने आंखें मूंद लेने वाले हमारे देश की भी जरूरत है।

अमेरिका ने नहीं होने दी पुनरावृत्ति

वल्र्ड ट्रेड सेंटर के हादसे के पहले तक अमेरिका में सुरक्षा व्यवस्था ढीली-ढाली थी लेकिन उसके बाद उस देश के चप्पे-चप्पे पर खुफिया एजेंसियों की निगाहें हैं। वहां सुरक्षा एजेंसियों को वे सभी जरूरी अधिकार प्राप्त हैं जिनकी उन्हें आतंकवाद जैसी समस्या के मुकाबले के लिए जरूरत है। फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन (एफबीआई) के रूप में एक संघीय जांच एजेंसी भी मौजूद है जिसे विश्व की सबसे चुस्त-दुरुस्त और काबिल एजेंसियों में गिना जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि अमेरिकी नागरिक आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पूरा सहयोग देते हैं। जगह-जगह होने वाली तलाशियां, पूछताछ, सतर्कता और सुरक्षा संबंधी चेतावनियां उन्हें व्यथित नहीं करतीं। वे इनका प्रतिरोध नहीं करते बल्कि सहयोग करते हैं क्योंकि उन्हें उस चुनौती का पूरा अहसास है जिससे उन्हें बचाने के लिए यह सब किया जा रहा है। जब कोई भारतीय अमेरिका, इजराइल या इंग्लैंड जाता है तो एक के बाद एक कड़ी परीक्षाओं से गुजरते हुए उसे महसूस होता है कि भारत में तो सतर्कता के नाम पर महज रस्म अदायगी की जाती है।

अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां अपनी गतिविधियों में किसी किस्म की कोताही नहीं बरततीं। भले ही उनके संदेह के दायरे में आया व्यक्ति कोई भी हो, कितनी भी बड़ी हस्ती हो, किसी भी बड़े व्यक्ति से जुड़ा हो और किसी भी प्रभावशाली व्यवसाय में सक्रिय हो। तभी तो जरूरत पड़ने पर उन्होंने हमारे पूर्व रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज तक को उन प्रक्रियाओं से गुजारा जिनसे किसी आम हवाई यात्री को गुजारा जाता है। इंग्लैंड में सलमान रुश्दी की सुरक्षा में तैनात ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों ने उनके बेटे जफर तक को उनसे मिलने की इजाजत नहीं दी थी। हाल ही में इजराइल गए हमारे दाढ़ी वाले लेखक और शिक्षाविद् ज्योतिर्मय शर्मा ने बताया कि किस तरह उन्हें इजराइल पहुंचने पर बार-बार यह सिद्ध करना पड़ा कि वे कोई आतंकवादी नहीं हैं और वहां एक सम्मेलन में हिस्सा लेने आए हैं। यह सब बहुत असुविधाजनक प्रतीत होता है और इस प्रक्रिया में मोहम्मद हनीफ जैसी गलतियां भी होती हैं। लेकिन जब चुनौती राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद से मुकाबले की हो तो इस तरह की कीमत, भले ही वह कितनी भी महंगी और अप्रिय हो, अदा करनी ही पड़ती है।

2 comments:

संजय बेंगाणी said...

आप अलकायदा से तार जोड़ रहे हो, यहाँ कई बुद्धिजीवि मोदी की शरारत बता रहे हैं ;)

शोभा said...

आपने बहुत ही सही बात कही है। लेख विचार प्रधान है तथा बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर करता है।

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com