- बालेन्दु शर्मा दाधीच
भारत की समिन्वत रणनीति में पोटा या उससे मजबूत कानून जितना जरूरी है उतनी ही जरूरी है एक संघीय जांच या निवारक एजेंसी। इस समस्या का समाधान सीमित दायरे में रहकर नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सीमित दायरे वाली समस्या नहीं है।<
दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा की गई संघीय आतंकवाद-विरोधी एजेंसी की स्थापना की सिफारिश एक सामयिक कदम है, जिसका सिर्फ इसीलिए विरोध नहीं किया जाना चाहिए कि ऐसा किसी अन्य राजनैतिक दल के सत्ताकाल में होने जा रहा है। आतंकवाद के हाथों हजारों जानें दे देने के बाद कम से कम अब तो हमारे राजनैतिक दलों को निहित स्वार्थों से ऊपर उठना पड़ेगा? ऐसे समय पर जब संयुक्त राष्ट्र तक से एक वैश्विक आतंकवाद-निरोधक एजेंसी की स्थापना का आग्रह किया जा रहा है, हमें आतंकवाद से निपटने के लिए एक अलग राष्ट्रीय गुप्तचर तंत्र की जरूरत है। ऐसा तंत्र जो विभिन्न राज्यों और केंद्र के बीच मौजूद कम्युनिकेशन गैप से मुक्त हो। ऐसा तंत्र, जो किसी एक राजनैतिक दल के विजन से नहीं बल्कि इस देश के आम नागरिक के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के अहसास से संचालित होता हो। ऐसा तंत्र जिसकी प्रकृति संघीय हो लेकिन जिसका संजाल देश के कोने-कोने में और विदेश में भी फैला हो और जिसे राजनैतिक व क्षेत्रीय अवरोधों और सीमाओं से मुक्त हो। ऐसा तंत्र, जो आतंकवाद से निपटने में विशेष रूप से दक्ष हो और उसकी गतिविधियां सिर्फ इसी लक्ष्य पर केंिद्रत हों।
आतंकवाद के विरुद्ध भारत की समिन्वत रणनीति में पोटा या उससे मजबूत कानून जितना जरूरी है उतनी ही जरूरी है एक संघीय जांच या निवारक एजेंसी। इस समस्या का समाधान सीमित दायरे में रहकर नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सीमित दायरे वाली समस्या नहीं है। भारत की सुरक्षा के लिए यह अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है और ऐसी चुनौतियों का समाधान एकजुट राष्ट्र के रूप में किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार को देर से ही सही, राजनैतिक नुकसान के डर से ही सही, पर एक दमदार कानून की जरूरत का अहसास हो गया है। अब वह `पोटा से भी कड़ा` कानून बनाने के लिए तैयार हो रही है। देर आयद दुरुस्त आयद। सत्ताधारियों और विरोधी दलों को सोचना होगा कि ऐसे मामलों में राजनीति करना आग से खेलने के समान है जिसका अंजाम सिर्फ विनाश ही हो सकता है। कम से कम अब तो सबको मिल-जुलकर देश की सुध लेनी होगी।
असल में यह सिर्फ नेताओं की ही नहीं, हम सबकी साझा लड़ाई है। हमारी लड़ाई एक अदृश्य दुश्मन से है जिसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मरने वाला हिंदू है या मुसलमान या कोई और। उसे सिर्फ मारने से मतलब है। हर बूढ़ा, जवान और बच्चा उसका निशाना है। ऐसा दुश्मन जिसकी पहचान का हमें कोई अंदाजा नहीं और जो पड़ोसी, रिश्तेदार, दोस्त के रूप में भी हो सकता है। ऐसे दुश्मन से मुकाबले की किसी भी रणनीति में हर नागरिक का शामिल होना जरूरी है, शारीरिक रूप से नहीं तो मानसिक रूप से ही। सिपाही के रूप में नहीं तो एक सतर्क, सजग व्यक्ति के रूप में ही सही। नेताओं से लेकर पुलिस तक, न्यायाधीशों से लेकर दुकानदारों तक, बस ड्राइवरों से लेकर यात्रियों तक, अध्यापकों से लेकर बच्चों तक। इस लड़ाई में अब लापरवाही की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। यह लड़ाई किसी एक दल, एक सरकार, एक संगठन या एक व्यक्ति की लड़ाई भी नहीं रह गई है। यह पूरे देश की सामूहिक जंग है जिसमें किसी किस्म के राजनैतिक या मजहबी समीकरणों की गुंजाइश नहीं है।
Wednesday, September 24, 2008
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3 comments:
आत्म-अनुशासन, देशप्रेम, जागरूकता और सोच का दायरा थोड़ा बड़ा करना, यह चार तत्व मिलाकर जो बनेगा, वह आतंकवाद को समाज से खत्म करेगा…
"हमारी लड़ाई एक अदृश्य दुश्मन से है जिसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मरने वाला हिंदू है या मुसलमान या कोई और। उसे सिर्फ मारने से मतलब है।'
आपका पूर लेख एकदम सही विश्लेषण एवं वस्तुनिष्ठ सुझावों से भरा है!!
-- शास्त्री
-- हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाजगत में विकास तभी आयगा जब हम एक परिवार के रूप में कार्य करें. अत: कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर अन्य चिट्ठाकारों को जरूर प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)
सुरेशजी, शास्त्रीजी आपका धन्यवाद।
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