Saturday, September 27, 2008

हमारी दोस्ती में अमेरिका का लाभ है तो हर्ज क्या है?

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों की मित्रता से सिर्फ भारत लाभान्वित नहीं हो रहा, अमेरिका भी होगा। उसे विभिन्न राजनैतिक, सैनिक, आर्थिक, राजनयिक लाभ मिलेंगे। भारतीय बाजार में उसकी अन्य देशों की तुलना में बड़ी हिस्सेदारी होगी तो इसमें हर्ज क्या है? कोई भी मित्रता तभी आगे बढ़ सकती है यदि वह दोनों पक्षों के हित में हो। विश्व राजनय में मित्रता की बुनियाद वर्तमान और भावी स्वार्थों पर रखी जाती है और यह कोई रातोंरात बदलने वाला नहीं है।

भारत के लिए आज अमेरिका और यूरोप के साथ खड़े होना ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है। एनएसजी में अमेरिका ने जिस तरह चीन के विरोध के बावजूद भारत के पक्ष में फैसला करवाया वह इस बात का प्रतीक है कि उसका वैश्विक दबदबा भले ही कुछ कम हुआ हो लेकिन खत्म नहीं हुआ है। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी वर्चस्व जारी है। अफगानिस्तान, ईरान, इराक, उत्तर कोरिया, लीबिया आदि के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र की नीतियां और फैसले अमेरिकी रुख के अनुकूल रहे हैं। अलग-अलग मौकों पर, अलग-अलग मुद्दे पर कभी फ्रांस, कभी चीन और कभी रूस ने संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी रुख का विरोध किया लेकिन हुआ वही जो अमेरिका ने चाहा। हमें ऐसी ताकतवर राजनैतिक शक्ति की मित्रता की दरकार है। विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली आर्थिक शक्ति के साथ जुड़े रहना हमारे हित में है, खासकर तब जब हम उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर चल पड़े हैं। इस मित्रता से सिर्फ भारत लाभान्वित नहीं हो रहा, अमेरिका भी होगा। उसे विभिन्न राजनैतिक, सैनिक, आर्थिक, राजनयिक लाभ मिलेंगे। भारतीय बाजार में उसकी अन्य देशों की तुलना में बड़ी हिस्सेदारी होगी तो इसमें हर्ज क्या है? कोई भी मित्रता तभी आगे बढ़ सकती है यदि वह दोनों पक्षों के हित में हो। विश्व राजनय में मित्रता की बुनियाद वर्तमान और भावी स्वार्थों पर रखी जाती है और यह कोई रातोंरात बदलने वाला नहीं है।

भारत को विश्व राजनीति अपनी जगह वाजिब हासिल करनी है तो उसे अपने अनुकूल विकल्पों की पहचान में देरी नहीं करनी चाहिए। किसी एक विकल्प को चुनने का अर्थ यह नहीं है कि हम दूसरे विकल्प के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाएं। दुनिया की कोई अन्य ताकत, भले ही वह रूस हो, चीन हो, यूरोपीय संघ हो, निर्गुट देश हों या कोई और, हमें वह नहीं दिला सकती जो अमेरिका के साथ मैत्री से हमें मिल सकता है। चाहे वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता का मुद्दा हो, जी-8 जैसे विश्व बाजार को संचालित करने वाले संगठनों की सदस्यता का विषय हो, चीन और पाकिस्तान जैसे पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों की चुनौतियों को निष्प्रभावी करने का मुद्दा हो, आर्थिक प्रगति का या फिर विश्व राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने का।

कुछ समय पहले हुए एक सर्वे में जितने प्रतिशत भारतीय लोगों ने अमेरिका के प्रति विश्वास जाहिर किया, वह पूरे विश्व में सर्वाधिक था। हमारी इसी जनता में से 83 फीसदी ने हाल ही में एक अन्य सर्वे में कहा कि वह चीन पर कभी भी भरोसा करने को तैयार नहीं है। लोगों ने तो समझ लिया। देखिए हमारे राजनैतिक दल इस संकेत को कब समझ पाते हैं।

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इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com