- बालेन्दु शर्मा दाधीच
कुछ महीने पहले किसी पत्रकार ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से सवाल किया था कि वे परमाणु सौदे को लेकर इतने उत्साहित हैं पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता को लेकर उतने सक्रिय क्यों दिखाई नहीं देते। प्रधानमंत्री का जवाब था कि अगर परमाणु सौदा भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने के लिए जरूरी है। अगर वह आर्थिक ताकत बन गया तो सुरक्षा परिषद की सदस्यता उसे स्वयं मिल जाएगी।
कुछ महीने पहले किसी पत्रकार ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से सवाल किया था कि वे परमाणु सौदे को लेकर इतने उत्साहित हैं पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता को लेकर उतने सक्रिय क्यों दिखाई नहीं देते। प्रधानमंत्री का जवाब था कि अगर परमाणु सौदा भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने के लिए जरूरी है। अगर वह आर्थिक ताकत बन गया तो सुरक्षा परिषद की सदस्यता उसे स्वयं मिल जाएगी। पिछले कुछ सप्ताहों में विश्व मंच पर भारत की दो बड़ी जीतें, जिनमें साफ तौर पर एक मित्र के रूप में अमेरिका का बड़ा हाथ है, इस बात की निशानदेही करती हैं। पहले अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी और फिर न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत के पक्ष में विशेष प्रावधान किया जाना, चीन को छोड़कर विश्व की बाकी सभी शक्तियों- रूस, अमेरिका, फ्रांस और इंग्लैंड- द्वारा उसका समर्थन किया जाना और संभवत: इतिहास में पहली बार अमेरिका का हमारे हक में इस किस्म की मुहिम चलाना आने वाले दिनों का संकेत हो सकता है। हां, भारत में परमाणु संयंत्र उद्योग स्थापित होने से अमेरिकी कंपनियों को बहुत लाभ होगा। हां, भारत का बढ़ा हुआ कद अंतरराष्ट्रीय समीकरणों में चीन की काट के रूप में हमें पेश करने में अमेरिका की मदद करेगा। हां, भारतीय बाजार में बढ़ी पहुंच से मंदी-ग्रस्त अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा। लेकिन खुद भारत को होने वाले फायदे उससे बहुत अधिक होंगे।
अमेरिका से दूर रहकर हमने बहुत कुछ खोया है। यहां तक कि जब नेहरूजी के जमाने में अमेरिका ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सीट देने की पेशकश की तो उसे भी हमने यह सोचकर ठुकरा दिया था कि इससे हमारे साम्यवादी मित्रों- चीन और रूस को ठेस पहुंचेगी। जिस चीन को भारत ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलवाई, उसने विश्व संस्था के सर्वोच्च नियामकों में हमें शामिल किए जाने के हर प्रयास का विरोध किया। अब हमारा वक्त आ रहा है। एक ओर भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रसार, दूसरी ओर हमारा बढ़ता बाजार, तीसरी ओर पचास फीसदी युवा आबादी की ताकत और जुनून, चौथी ओर एक परमाणु शक्ति होने का आत्मविश्वास और पांचवीं ओर विश्व मंच पर बढ़ती स्वीकार्यता जैसे उत्प्रेरकों पर सवार यह देश पहली बार यह सोचने का साहस कर रहा है कि वह हमेशा चीन से पीछे रहने के लिए अभिशप्त नहीं है। यदि इस दिशा में कोई अड़चन है तो हमारे राजनेता, जिनके लिए आज भी राष्ट्र हित से ज्यादा बड़ा अपने और अपने दल का हित है। भला हमारे अलावा दुनिया का कौनसा देश होगा जहां के नेता उसकी अपनी तरक्की के रास्ते में रुकावटें खड़ी करते होंगे? भला ऐसा कौनसा राष्ट्र होगा जिसमें व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा राष्ट्रीय हितों से ऊपर होगी? हम चीन को जरूर पीछे छोड़ सकते हैं यदि हमें ऐसे नेता मिलें जो जाति, संप्रदाय और क्षेत्र के नाम पर आग भड़काने की बजाए विकास की सोचें। ऐसे नेता, जो भ्रष्टाचार, अपराधों और नाइंसाफी के खिलाफ ईमानदारी से खड़े होने का साहस रखते हों। ऐसे नेता, जिनके लिए राष्ट्र ही सर्वोपरि हो और जो अपने आचरण से नई पीढ़ी के लिए मिसाल कायम करने की क्षमता रखते हों।
लेकिन वह आदर्श परिस्थितियों की बात है जो फिलहाल तो काल्पनिक ही हैं। फिलहाल तो हमारे यहां पर ऐसे नेता हैं जो उसी परमाणु सौदे को रोकने पर प्राण-पण से कोशिश करते रहे हैं जिसका विरोध हमारी जनता की दृष्टि में दुश्मन नंबर एक चीन और दुश्मन नंबर दो पाकिस्तान कर रहे हैं। जिन वामपंथी दलों ने भारत के परमाणु शक्ति बनने पर खुशी नहीं जताई वे ही आज कह रहे हैं कि एनएसजी में प्रस्ताव पास होने के बाद हम अप्रत्यक्ष रूप से परमाणु अप्रसार व्यवस्था का हिस्सा बन गए हैं। यदि आपको परमाणु बम में दिलचस्पी ही नहीं है तो देश परमाणु अप्रसार व्यवस्था का हिस्सा बने या नहीं, आपको भला क्यों फर्क पड़ना चाहिए? जिस भाजपा का कहना है कि परमाणु सौदे का मकसद भारत को भविष्य में परमाणु विस्फोट करने से रोकना और उसे शक्तिहीन कर देना है, वह जरा यह बताए कि यदि इससे भारत शक्तिहीन हो जाएगा तो फिर चीन और पाकिस्तान को परमाणु सौदे का विरोध क्यों करना चाहिए? भारत के शक्तिहीन होने पर यदि किसी को प्रसन्नता होगी तो वह चीन और पाकिस्तान ही होंगे। लेकिन यदि वे जी-जान से इस सौदे का विरोध करने पर तुले हैं तो इसे क्या समझा जाए? हमारे राजनैतिक दलों को चाहिए कि वे क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचें, अन्यथा वे उसी तरह चीन के हाथों में खेल रहे होंगे जैसे 1962 की लड़ाई में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां। ये दल आज तक चीन को आक्रांता मानने को तैयार नहीं हैं।
Thursday, September 25, 2008
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1 comment:
नेहरू जैसे चोकलेटी हिरो पुस्तकों में ही अच्छे होते है, वास्तविक संसार में तो "साम-दाम-दंड-भेद" का देश के हित में स्वार्थ की हद तक उपयोग करने वाले लोग चाहिए.
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